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नवम परिच्छेद तो रसायन समान गुणकारी है, तथा भोजन के अंत में पीवे, तो विष समान है। भोजन के अनंतर सर्व रस से लिप्त हुये हाथ से एक चुल रोज पीवे, पशु की तरह पानी न पीवे। पीये पीछे जो पानी रहे सो गेर देवे, अञ्जली से पानी न पीवे। पानी थोड़ा पीना पथ्य है, पानी से भीजे हुए हाथों को गला, तथा कपोल, हाथ, नेत्र, इतने स्थान में न लगावे, न पूंजे, गोडे-जानु का स्पर्श करे, तथा अंगमर्दन, दिशा जाना, भार उठाना, बैठना, स्नान करना, ये सर्व भोजन के किये पीछे न करे। तथा कितनेक काल ताई बुद्धिमान् पुरुष भोजन करके बैठ जावे, तो पेट बड़ा हो जाता है। तथा ऊपर को मुख करके-चित्त हो कर सोवे, तो वल वधे । वामे पासे सोवे, तो आयु वधे । भोजन करके दौड़े, तो मरण होवे । पीछे वामे पासे दो घड़ी ताई सोवे, परन्तु निद्रा न लेवे, अथवा सोवे नहीं तो सौ पग चले, फिरे। अन्यत्र भी कहा है कि, देव को, साधु को, नगर के स्वामी-राजा को तथा स्वजनों को, जब कष्ट होवे तब, तथा चन्द्र-सूर्य के ग्रहण में जेकर शक्ति होवे, तो विवेकवान् पुरुष भोजन न करे । तथा " अजीर्णप्रभवा रोगा" इस वास्ते अजीर्ण में भी भोजन न करे।।
___ ज्वर की आदि में लंघन करना श्रेष्ठ है, परन्तु वायुज्वर, श्रमज्वर, क्रोधज्वर, शौकज्वर, कामज्वर, घाव का ज्वर, इतने ज्वर को वर्ज के शेष ज्वर तथा नेत्ररोग के हुये