________________ द्वादश परिच्छेद 473 पीछे उपाध्यायने यज्ञस्तम्म उखाड़ के अहंत की प्रतिमा दिखाई और कहा कि यह प्रतिमा जिस देव की है, तिस अर्हत का कहा हुआ धर्म जीवदयारूप तत्त्व है। और यह जो वेद प्रतिपाद्य यज्ञ हैं, वे सर्व हिंसात्मक होने से विडंबनारूप हैं, परन्तु क्या करें ! जेकर हम ऐसे न करें तो हमारी आजीविका नहीं चलती है। अब तू तत्त्व मान ले और मुझ को छोड़ दे अरु तू परमार्फत् होजा, क्योंकि मैंने अपने पेट के वास्ते तुझ को बहुत दिन बहकाया है। तब शय्यंभवने नमस्कार करके कहा कि तू यथार्थ तत्त्व के प्रकाश करने से सच्चा उपाध्याय है, ऐसा कह कर शय्यंभवने तुष्टमान हो कर यज्ञ की सामग्री जो सुवर्णपात्रादि थे, वे सर्व उपाध्याय को दे दी, और प्रमवस्वामी के पास जा कर तत्त्व का स्वरूप पूछ कर दीक्षा ले लीनी / शेष इनका वृत्तांत परिशिष्टपर्व ग्रंथ से जान लेना। शय्यंभवस्वामी अठाईस वर्ष गृहस्थावास में रहे, ग्यारह वर्ष सामान्य साधु व्रत में रहे, और तेईस वर्ष युगप्रधानाचार्य पदवी में रहे। इस तरे सर्वायु वासठ वर्ष भोग के श्रीमहावीर भगवंत के 98 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। 5. श्री शय्यंभवस्वामी के पाट ऊपर श्री यशोभद्र बैठे। सो बावीस वर्ष गृहस्थावास में रहे, और श्री यशोभद्र चौदह वर्ष व्रत पर्याय में रहे अरु पचास वर्ष तक युगप्रधान पदवी में रहे। इस तरे सब 86