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जैनतत्त्वादर्श संसजज्जीवसंघातं, सुजाना निशिभोजनम् । राक्षसेभ्यो विशिष्यते, सूढात्मानः कथं न ते ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ६१]
अर्थ:-जब रात्रि में खाता है, तब जीवों का समूह भोजन में पड़ जाता है। ऐसे अधरूप, रात्रि के भोजन के खाने वालों को राक्षसों से भी क्योंकर विशेष नहीं कहना ! जब पुरुष जिनधर्म से रहित हो कर विरति नहीं करता है, तव शृंग पुच्छ से रहित पशु रूप ही है । यदुकं
वासरे च रजन्यां च, य: खादन्नेव तिष्ठति । शृंगपुच्छपरिभ्रष्टः, स्पष्टं स पशुरेव हि ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ६२]
अब रात्रिभोजन निवृत्ति के वास्ते पुण्यवंतो को अभ्यास विशेष दिखाते हैं।
अहो मुखेऽवसाने च, यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ६३] अर्थ:-दिन उदय में अरु अस्त समय में दो दो घड़ी वर्जनी चाहिये, क्योंकि रात्रि निकट होती है। इसी वास्ते आगम में सर्व जघन्य प्रत्याख्यान मुहूर्त प्रमाण