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________________ ३१० जैनतस्वादर्श सातों नरकों में क्षेत्रवेदना है, तथा पांच नरकों में परस्पर शस्त्रों करके ऊदीरी वेदना है । तथा तीन नरक में परमा आंख मींच के धर्मिक देवताकृत वेदना है। उघाडे, इतना काल मी नरकवासी जीवों को सुख नहीं है । केवल दुःख ही पूर्वजन्म के करे हुए पापों से उदय हुआ है। रात अरु दिन एक सरीखे दुःख में जाते हैं, जितना नरकगति में जीव दुःख को पाते है, उस से अनंतगुणा दुःख जीव निगोद में पाते है । तथा तिर्यंचगति में अंकुश, परैण, लाठी, सोटा, श्रृंगमोड़न, गलमोड़न, तोड़न, छेदन, मेदन, दहन, अंकन और परवशतादि अनेक दुःख पावे है । तथा मनुष्यगति में गर्भजन्य, जरा, मरण, नाना प्रकार की पीड़ा, रोग, व्याधि, दरिद्रता, माता, पिता, स्त्री, पुत्र का मरणादि अनेक दुःख पाता है । तथा देवगति में चवन का दुःख, दासपने का दुःख, पराभव, ईर्ष्यादि अनेक दुःख हैं । इत्यादि प्रकार से भवस्थिति को विचारे | तथा धर्ममनोरथ भावना - सो श्रावक के घर में जो जाऊं, तो भी अच्छा राजा भी न होऊं । ज्ञान, दर्शन, व्रत सहित मैं दास भी हो है । परन्तु मिध्यादृष्टि तो मैं चक्रवर्ती तथा कव मैं संवेगी वैराग्यवन्त गीतार्थ गुरु के चरणों में स्वजनादि संग रहित प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा ! तथा कब मैं तिर्यंच के पिशाच के भय से निष्प्रकंप हो कर श्मशानादि में विधिपूर्वक कायोत्सर्ग करूंगा ! तथा कब मैं तप से कृश
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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