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________________ २३६ जैनतत्त्वादर्श का विचार करे, ३०. मन्दिर में विवाहादिक की पंचायत करे, ३१. व्यापार का लेखा करे, ३२. राज का काम बांट के देवे, अथवा भाई प्रमुख को धन का हिस्सा बांट के देवे, ३३ घर का भंडार मन्दिर में रक्खे, ३४. पगोपरि पग रक्ख के दुष्टासन करके बैठे, ३५. मंदिर की भीत से छाणा लगावेगोबर का ढेर लगावे, ३६. वस्त्र सुखावे, ३७. दाल दले, ३८. पापड़ बेली सुखावे, ३९, बड़ा बनावे, उपलक्षण से कयर, चीमड़ा शाक प्रमुख सुकाने के वास्ते गेरे, ४०. राजा, भाई और लेनदार के भय से भाग कर मूलगंभारे में लुक जावे, ४१, पुत्र, कलत्रादि के मरण से मन्दिर में रोवे, ४२. स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, देशकथा, यह चार विकथा करे, ४३. बाण, ईक्षु का गन्ना घड़े, तथा • धनुण्यादि शस्त्र घड़े, ४४. गाय, बैलादि को मन्दिर में रक्खे, ४५. शीत दूर करने को अग्नि तापे, ४६. धान्यादि रांघे, ४७. रुपैये परखे, ४८. विधि से नैषेधिकी न करे, ४९, छत्र, ५०. पगरखी, ५१. शस्त्र, ५२. चामर, यह चार, मंदिर के बाहिर न छोड़े, ५३. मन एकाग्र न करे, ५४. तैलादिक का मर्दन करे, ५५. शरीर के भोग के सचित्त फूलादिक का त्याग न करे, ५६. हार, मुद्रा, कुंडलादि, तिन को बाहिर छोड़े आवे [ तो आशातना लगे, क्योंकि लोगों में ऐसा कहना हो. जावे कि, अर्हत के भक्त सर्व कंगाल भिक्षाचर हैं, इसी तरे जिनमत की लघुता होती है ] ५७. भगवान् को देख के
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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