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________________ एकादश परिच्छेद 437 के शिर ऊपर रख के सिंहासन से हेठ गेर के धरती में घुसेड़ दिया / नमुचि मर के नरक में पहुंच. गया। और विष्णुमुनि को देवताओंने कानों में मधुर गीत सुना कर शांत करा / तब शरीर को संकोच के गुरां पास जा कर आलोचना करी, पाप का प्रायश्चित्त ले कर विहार कर गया / जप तप कर संयम पाल के मोक्ष गया / इस कथा से ऐसा मालूम होता है कि ब्राह्मणोंने पुराणों में जो लिग्वा है कि, विष्णु भगवान् ने वामन रूप करके यज्ञ करते बलिगजा को छला, सो यही विष्णुमुनि अरु नमुचि की कथा को बिगाड़ के अपने मत के अनुसार और की और कथा बना लीनी है। क्योंकि श्रीभगवान् को क्या गरज थी कि, जो धर्मी बलिराजा यज्ञ करनेवाले के साथ छल करना ! यह कहना तो केवल बुद्धिहीनों का काम कि, भगवान् ने अपनी बेटी तथा परली से विषय सेवन कग, तथा झूठ बोला, औरो से बुलाया, चोरी करी, औरों से करायी, भगवान्ने कुशील सेवन करा, छल से मारा, कपट करा। क्योंकि ये काम तो नीच जनों के करने के हैं, श्री वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर यह काम कभी भी नहीं करता। और करनेवाले को परमेश्वर भूल के भी कभी न मानना चाहिये। वीसमे और इक्कीसमे तीर्थकर के अन्तर में श्रीअयोध्या नगरी के दशरथ राजा की कौशल्या रानी का पद्मश्रीराम
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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