________________ 379 एकादश परिच्छेद ग्लेच्छ, निर्दयी अनार्य हो गये। अनेक कल्पना के मत मानने लगे, उनका व्यवहार और तरे का बन गया। जव श्रीऋषभदेव को एक हजार वर्ष व्यतीत हुए तह विहार करके विनीता नगरी के पुरिमताट केवलज्ञानप्राप्ति नामा बाग में आये, तब बड़ वृक्ष के हेठ और समवसरण फागुन वदि एकादशी के दिन, तीन दिन के उपवासी थे, तहां पहिले प्रहर में केवलज्ञान अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान में सर्व पदार्थों के जानने, देखनेवाला आत्मस्वरूप कैवलज्ञान प्रगट हुआ / तब चौसठ इन्द्र आए, देवताओं ने समवसरण बनाया, तीन गट बारा दरवाजे, इत्यादि समवसरण की रचना करी। एक एक दिशा में तीन तीन दरवाजे बनाये, मध्यभाग में मणिपीठिका अर्थात् चौतरा बनाया, तिसके मध्यभाग में अशोकवृक्ष रचा, तिसके हेठ दरवाजों के सन्मुख चारों दिशाओं में चार सिंहासन रचे / तिसमें पूर्व के सिंहासन ऊपर श्रीऋषभदेव अहंत विराजमान हुए, अरु शेष तीनों सिंहासनों ऊपर श्रीऋषभदेव सरीखे तीन विंब स्थापन करे / तब जिस दरवाजे से कोई आवे, वो तिस पासे ही , श्रीऋषभदेवजी को देखते थे। इसी वास्ते जगत् में चार मुखवाला श्रीभगवान् ऋषभदेवनी ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध हुआ / धनंजय कोश में श्रीऋषभदेवजी का नाम ब्रह्मा लिखा है।