SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20 जैनतत्त्वादर्श जब श्रीऋषभदेवजी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, तब भरत राजा श्रीऋषभदेवजी को केवली सुन कर सकल परिवार संयुक्त समवसरण में वन्दना करने को अरु उपदेखें सुनने को आया। वहां श्रीऋषभदेवजी का उपदेश सुन कर भरत राजा के पांच सौ पुत्र अरु सात सौ पोते तथा ब्राह्मी ऋषभदेवजी की बेटी और भी अनेक स्त्रियों ने दीक्षा लीनी / मरुदेवीजी तो भगवान् के छत्रादि देख के तथा वाणी सुन के केवली हो कर मोक्ष हो गई। तथा भरत के बड़े पुत्र का नाम ऋषभसेन-पुंडरीक था, वो सोरेठ देश में शत्रुजय तीर्थ ऊपर देह त्याग कर, मोक्ष गया, इस वास्ते शत्रुजय का नाम पुंडरीकगिरि रक्खा गया / * भरत के पांच सौ पुत्रों ने जो दीक्षा लीनी थी, तिन में एक का नाम मरीचि था, उस मरीचि ने मरीचि और जैन दीक्षा का पालना कठिन जान कर अपनी सांख्यमत की आजीविका के चलाने वास्ते नवीन मनःउत्पत्ति करिपत उपाय खड़ा किया, क्योंकि उसने गृहवास करने में तो बड़ी हीनता जानी। तवं एक कुलिंग बनाना चाहा। सो इस रीति से बनाया१. कि साधु तो मनदण्ड, वचनदण्ड अरु कायदण्डों, इन तीनों दण्डों से रहित हैं, और मैं तो इन तीनों दण्डों करके संयुक्त हूं, इस वास्ते मुझ को त्रिदण्ड रखना चाहिये / 2. साधु तो द्रव्य अरु भाव कर के मुण्डित है, सो लोच
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy