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जैनतत्वादर्श
१४. शुभ फल का दौकन, १५. गीतपूजा, १६. नाटक करना, १७. वाजंत्र । यह सतरह मेदों की पूजा है। अथ पूजा के इकीस मेद लिखते हैं। तहां प्रथम पूजा करने की विधि लिखते हैं:-१. पूजा
करनेवाला पूर्व दिशा की तरफ मुख करके पूजा सम्बन्धी स्नान करे । २. पश्चिम दिशा को मुख करके नियम दातन करे । ३. उत्तर दिशा के सन्मुख श्वेत
वस्त्र पहिरे । ४. पूर्वोत्तर मुख करके पूजा करे। ५. घर में प्रवेश करते वामे पासे शल्य रहित भूमि में देहरासर करावे । ६. डेढ़ हाथ भूमिका से ऊंचा देहरासर करावे । जेकर देहरासर नीची भूमिका में करावे, तब तिस का संतान दिन दिन नीचा होता जावेगा । ७.' दक्षिण दिशा तथा विदिशा के सामने मुख न करे। ८. घर देहरे में पश्चिम की तरफ मुख करके पूजा करे, तो चौथी पेढी में सन्तानोच्छेद होवे । ९. दक्षिण दिशा की तर्फ मुख करे, तो संतानहीन होवे । १०. अग्निकोण में करे, तो धनहानि होवे । ११. वायु कोण में करे, तो संतान न होवे । १२. नैऋत्यकोण में करे तो कुलक्षय होवे । १३. ईशानकोण में करे, तो एक जगे रहना न होवे । १४. दोनों पग, दोनों जानु, दोनों हाथ, दोनों स्कंध, मस्तक, ये नव अंग में क्रम से पूजा करे । १५. चंदन विना पूजा नहीं होती है। १६. मस्तक में, कण्ठ में, हृदय में, पेट में,