________________ 448 जैनतवादर्श दौड़ के लवणसमुद्र के पातालकलश में चला गया। सत्यकी. ने तहां जा कर कालसंदीपक को मार डाला। तिस पीछे सत्यकी विद्याधर चक्रवर्ती हुआ / तीन संध्या में सर्व तीर्थंकरों को वंदना करके नाटक करने लगा, तब इन्द्रने सत्यकी का नाम महेश्वर दिया। तिस महेश्वर के दो शिष्य हुये, एक नंदीश्वर, दूसरा नादीया / तिन में नादीया तो विद्या से बैल का रूप बना लेता था, और तिस ऊपर चढ़ के महेश्वर अनेक क्रीड़ा कुतूहल करता था। महेश्वर श्रीमहावीर भगवंत का अविरति सम्यग्दृष्टि श्रावक था। परन्तु बड़ा भारी कामी था और ब्राह्मणों के साथ उसका बड़ा भारी वैर हो गया। तब विद्या के बल से सैंकड़ों ब्राह्मणों की कुमारी कन्याओं को विषयसेवन करके बिगाड़ा। और लोक तथा राजा प्रमुख की बहुबेटियों से कामक्रीड़ा करने लगा। परन्तु उसकी विद्याओं के भय से उसे कोई कुछ कहता नहीं था। जेकर कोई मना भी करता था, तो मारा जाता था। महेश्वर ने विद्या से एक पुष्पक नामा विमान बनाया तिस में बैठ के जहां इच्छा होती, तहां चला जाता था। ऐसे उसका काल व्यतीत होता था / एक समय महेश्वर उज्जैन नगर में गया। वहां चंडप्रद्योत की एक शिवा नामा रानी को छोड़ के दूसरी सर्व रानियों के साथ विषय भोग करा / और भी सर्व लोगों की बहुबेटियों को बिगाडना शुरू करा / तब चंडप्रद्योत को