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________________ 368 जैनतत्त्वादर्श आभीर, 65. वानदेव, 66. बानस, 67. कैकेय, 68. सिंधु, 6.9. सौवीर, 70. गंधार, 71. काष्ठदेव, 72. तोषक, 73. शौरक, 74. भारद्वाज, 75. शूरदेव, 76. प्रस्थान, 77. कर्णक, 78. त्रिपुरनाथ, 79. अवंतिनाथ, 80. चेदिपति, 81. विष्कम, 82. नैषध, 83. दशार्णनाथ, 81. कुसुमवर्ण, 85. भूपालदेव, 86. पालप्रभु, 87. कुशल, 88. पद्म, 89. महापद्म. 90. विनिद्र, 91. विकेश, 92. वैदेह, 93. कच्छपति, 94. भद्रदेव, 95. वज्रदेव, 96. सांदभद्र, 97. सेतज, 98. वत्सनाथ, 99. अंगदेव, 100. नरोत्तम / इस अवसर में जीवों के कषाय प्रबल हो जाने से पूर्वोक्त हाकारादि तीनों दंड का लोग भय नहीं करने राज्याभिषेक लगे। इस अवसर में सब लोगों से अधिक ज्ञानवानादि गुणों करके संयुक्त श्रीऋषभदेव को जान के युगलक लोग, श्रीऋषभदेव को कहते भये कि, अब के सब लोग दंड का भय नहीं करते हैं। [श्रीऋषभदेवजी गर्म में भी मति, श्रुत अरु अवधि, इन तीन ज्ञानों करके संयुक्त थे / श्रीऋषभदेवजी के पूर्वभवों का वृतांत आवश्यक, तथा प्रथमानुयोग से जान लेना ] तब श्रीऋषभदेव युगलक पुरुषों को कहते भये कि, जो राजा होता है, सो दण्ड करता है, और राजा जो होता है, सो मंत्री कोटवालादि सेना संयुक्त होता है, अरु कृताभिषेक होता है, फिर उसकी आज्ञा अनतिक्रमणीय होती है / ऐसा वचन
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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