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दशम परिच्छेद
३५१ का महाफल है। श्रीवस्तुपाल ने नौ सौ चौरासी (९८४) पौषधशाला कराई, सिद्धराज जयसिंह राजा के प्रधान सांतू ने अपने रहने वास्ते बहुत सुन्दर आवास करा के श्रीवादिदेवसूरिजी को दिखलाया । अरु मंत्रीजी ने पूछा कि कैसा आवास है ? तब चेले माणिक्य ने कहा कि, पौषधशाला होवे तो वर्णन करें। तब मन्त्री ने कहा कि, यह पौषधशाला ही होवे।
तथा वारहवां अरु तेरहवां द्वार में आजन्म-बाल्यावस्था से ले कर जावजीव सम्यक्त्वदर्शन का यथाशक्ति पालन करे, यह वारहवां, अरु यथाशक्ति से व्रतादि पाले, यह तेरहवां द्वार है। __ चौदहवां दीक्षा ग्रहण का द्वार-सो श्रावक अवसर
जान के दीक्षा ग्रहण करे। तात्पर्य यह है भाव श्रावक कि, श्रावक जो है, सो निश्चय बाल अवस्था
में दीक्षा न लेवे, तो अपने मन में ठगाया हुआ माने । जैसे जगत् में अति वल्लभ वस्तु को लोक स्मरण करते हैं, तैसे श्रावक भी नित्य सर्वविरति लेने की चिंता करे । जेकर गृहवास मी पाले, तो औदासीन्य-अलिप्तपने अपने को पाहुणे के समान समझे, क्योंकि भावश्रावक के लक्षण सतरा प्रकार से कहे हैं । यथा
१. स्त्री से वैराग्य, २. इंद्रिय वैराग्य, ३, धन से वैराग्य, १. संसार से वैराग्य, ५. विषय से वैराग्य, ६. आरंम का