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________________ ३५२ जनतत्त्वादर्श स्वरूप जाने, ७. घर को दुःखरूप जाने, ८. दर्शनधारी होवे, ९. गडरिया प्रवाह को छोडे, १०. धर्म में आगे हो कर प्रवर्ने, आगमानुसार धर्म में प्रवत्ते, ११. दानादिक में यथाशक्ति प्रवते, १२. विधिमार्ग में प्रवर्ते, १३. मध्यस्थ रहे, १४. अरक्तद्विष्ट, १५. असंबद्ध, १६. परहित वास्ते अर्थ काम का भोगी न होवे, १७. वेश्या की तरे घरवास पाले-इन सतरा पद से युक्त भावभावक होता है । तिन में प्रथम, स्त्री जो है, सो अनर्थ का भवन है, चपलचित्तवाली है, नरक की वाट सरीखी है, जानता हुआ कभी इस के वशवम् न होवे । दूसरी इन्द्रियां जो हैं, सो चपल घोड़े के समान हैं, खोटी गति की तरफ नित्य दौड़ती हैं, उनको भव्य जीव, संसार का स्वरूप जान के सत् ज्ञानरूप रज्जु से रोके । तीसरा धन जो है, सो सर्व अनर्थ का और क्लेश का कारण है, इस वास्ते धन में लुब्ध न होवे। चौथा, संसार को दुःखरूप दुःखफल दुःखानुबंधी विडंबनारूप जान के प्रीति न करे । पांचमा विषय का क्षणमात्र सुख है, विषय विषफल समान है, ऐसे जान के कदापि विषय में गृद्धि न करे। छट्ठा तीबारंभ को सदा वर्जे, जेकर निर्वाह न होवे, तो भी स्वल्पारंभ करे, अरु आरम्भ रहितों की स्तुति करे, सर्व जीवों पर दयावंत होवे । सातवां गृहवास को दुःखरूप फांसी मान के गृहवास में वसे, अरु चारित्रमोहनीय कर्म के जीतने में उद्यम करे। आठमा आस्तिक्य भाव संयुक्त जिन
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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