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दशम परिच्छेद
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शासन की प्रभावना गुरुभक्ति करे, ऐसे निर्मल सम्यग्दर्शन को घरे । नवमा जिस तरें बहुत मूर्ख लोक मेड़ ( गड़री ) प्रवाहवत् चलते होवें, तैसे न चले। परन्तु जो काम करे, सो विचार के करे । दशमा श्रीजिनागम के विना और कोई परलोक का यथार्थ मार्ग कहनेवाला शास्त्र नहीं, इस वास्ते जो काम करे, सो जिनागमानुसार करे । ग्यारहवा अपनी शक्ति के बिना गोपे चार प्रकार का दानादि धर्म करे । बारहवां हितकारी, अनवद्य, धर्मक्रिया को चिंतामणीरत्न की तरें दुर्लभ जान के करता हुआ किसी मूर्ख के हसने से लज्जा न करे | तेरहवां शरीर के रखने के वास्ते धन, स्वजन, आहार, घर प्रमुख में बसे । परन्तु राग, द्वेष, किसी वस्तु में न करे । चौदहवां उपगांतवृत्ति सार हैं, ऐसे विचार से जो राग द्वेष में लेपायमान न होवे, खोटा आग्रह न करे, हित का अभिलाषी और मध्यस्थ रहे। पंदरहवां सर्व वस्तु की क्षणभंगुरता को विचारे, धनादि के साथ प्रतिबंध को तजे । सोलहवां संसार से विरक्त मन होवे, क्योंकि मोग भोगने से आज तक कोई तृप्त नहीं हुआ है, परन्तु स्त्री आदि के आग्रह से जेकर भोगों में प्रवर्चे, तो भी विरक्त मन रहे । सतरहवां वेश्या की तरें अभिलाषा रहित वर्चे, ऐसा विचारे कि आज कल ये अनित्यसुख मुझ को छोड़ने पड़ेंगे। इस वास्ते घरवास में स्थिर भाव न रक्खे। इन सतरा गुण से युक्त श्रीजिनागम में भाव श्रावक कहा हैं ।
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