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________________ 360 जैनतत्त्वादर्श इस जगत् में छ तरे का काल वर्चता है, तिन ही को जैनी लोक, छे आरे कहते हैं। एक अवसर्पिणी काल, अर्थात् जो सर्व अच्छी वस्तु का क्रम से नाश करता चला जाता है, तिस के छे हिस्से हैं। तथा दूसरा उत्सर्पिणीकाल, अर्थात् जो सर्व अच्छी वस्तु को क्रम से वृद्धिमान् करता चला जाता है / दश कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण एक अवसर्पिणी काल, और इतने ही सागरोपम प्रमाण एक उत्सर्पिणीकाल है। एक सागरोपम असंख्यात वर्ष का होता है, इसका स्वरूप जैनशास्त्र से जान लेना | यह एक अवसर्पिणी अरु एक उत्सर्पिणी मिल कर दोनों का एक कालचक्र, वीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होता है। ऐसे कालचक्र अनन्त पीछे व्यतीत हो गये हैं, और आगे को व्यतीत होवेंगे। अवसर्पिणी के पूरे हुये उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है, और उत्सर्पिणी के पूरे हुये अवसर्पिणी काल का प्रारंभ होता है। उसी तरे अनादि अनन्त काल तक यही व्यवस्था रहेगी / अब छ आरों के स्वरूप लिखते हैं। अवसर्पिणी का प्रथम आरा जिस का नाम सूखम सूखम कहते हैं। सो चार कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। तिस काल में भरतक्षेत्र की भूमिका बहुत सुन्दर रमणीय मादल के तले समान सम ( बरावर) थी, उस काल के मनुष्य भद्रक, सरलस्वभाव, अल्पराग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि वाले थे, सुंदर रूपवान् , नीरोग शरीरवाले थे, दश जाति
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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