________________ एकादश परिच्छेद 359 हैं। इस वास्ते बनिये और चमार एक वंश के हैं। अब सोचना चाहिये कि चमारों की, यह कही हुई कथा सुन के बुद्धिमान् सच मान लेवेंगे ! इसी तरे जो कोई अपनी दलील से दंतकथा सुन के जैनमत की उत्पत्ति मानेगा, वो भी जैनियों के आगे हसने का स्थान बनेगा। क्योंकि प्रथम तो कोई भी मतवाला जैनमत के असली तत्व को नहीं जानता है / जैसे शंकर दिग्विजय में शंकरस्वामीने जैनमत का खण्डन लिखा है, उसको देख के हम को हंसी आती है / जब शंकरस्वामीने जैनमत को ही नहीं जाना, तो फिर जो उनका जैनमत का खण्डन है, सो भी ऐसा जानना कि जैसे पुरुष की छाया को पुरुष जानके तिस को लाठी से पीटना। जब शंकरस्वामी को ही जैनमत की खवर नहीं थी, तो अब के वर्तमानकाल के गाल बजाने. वालों का क्या कहना है ? इस वास्ते हम बहुत नम्र हो कर अंथ पढ़नेवालों से विनति करते हैं कि, अच्छी तरे से जैनमत को जान कर फिर आपने जैनमत का खंडन मंडन करना; नहीं तो शंकरस्वामी अरु रामानुजाचार्यादिक की तरे आप भी हसने योग्य हो जायेंगे। __ अब सज्जनों के जानने वास्ते प्रथम इस जगत् का थोड़ा सा स्वरूप लिखते हैं / इस जगत् को जैनी, द्रव्यार्थिक नय के मत से शाश्वत अर्थात् हमेशा प्रवाह से ऐसा ही मानते हैं। और कालचक्र