________________ एकादश परिच्छेद 371 उत्तर-हे भव्य ! एकांत स्निग्य काल में और एकांत रूक्षकाल में अग्नि किसी वस्तु से भी उत्पन्न नहीं हो सकती। कदाचित् कोई देवता विदेहक्षेत्र से अग्नि को ले भी आवे, तो भी यहां तत्काल बुझ जाती थी। इस वास्ते अग्नि से पका के खाने का उपदेश नहीं दिया। पीछे तिस अग्नि को तृणादि का दाह करते देख के अपूर्व रत्न जान के पकड़ने लगे। जब हाथ जले, तब डर खा कर दौड़ के श्रीऋषभदेवजी से सर्व वृत्तांत कहा / तब श्रीऋषभदेवने अग्नि ले आने की विधि बताई। तिस विधि से अग्नि घर में ले आये। तब हस्ती ऊपर बैठे हुये ऋषभदेवने हाथी के शिर ऊपर ही मिट्टी का एक कुंडा सा बनाकर उनों के पास अग्नि में पका कर, उस में अन्न रांध कर खाना बताया। पीछे जिस के हाथ से वो कूडा पकड़ाया वो कुंमार नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी वास्ते कुंमार को प्रजापति-पर्यापति कहते है। फिर तो शनैः शनैः सर्व तरे का आहार पका के खाने की विधि प्रवृत हो गई / सर्व विधि श्रीऋषमदेवजीने ही बताई है। / अथ शिल्प द्वार कहते हैं। श्रीऋषभदेवजी के उपदेश से पांच मूल शिल्प अर्थात् कारीगर बने, तिन का नाम लिखते हैं-१. कुंभकार, 2. लोहाकार, 3. चित्रकार, 4. वन बुननेवाले, 5. नापित अर्थात् नाई / प्रत्येक शिल्प