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________________ दशम परिच्छेद ३२९ गुणहीन जान कर वंदना न करावे, तब तिसको आसन पर बैठा कर प्रणाम मात्र करके आलोचना लेवे । तथा पश्चाकृत को इत्वर सामायिक आरोपण लिंग दे कर पीछे से उसके पास यथाविधि से I आलोचना लेवे । तथा पार्श्वस्थादिक के अभाव में, जहां राजगृहादि गुणशील चैत्यादिक में, जहां श्री अर्हत गणधरादिकों ने बहुत बार प्रायश्चित्त लोगों को दिया है, सो तहां रहनेवाले देवता ने देखा है, इस वास्ते तिस देवता को अष्टमादि तप से आराध के, तिसके आगे आलोचे । कदाचित् वो देवता चत्र गया होवे, अरु उसकी जगे और उत्पन्न हुआ होवे, सदा वो देवता महाविदेह के अर्हत को पूछ के प्रायश्चित्त देवे । तिसके अभाव में अर्हत प्रतिमा के आगे आलोचे । आप प्रायश्चित्त लेवे । तिसके अभाव में पूर्वोतर मुख करके अर्हतसिद्धों के समक्ष आलोवे । परन्तु शल्य न रक्खे | आलोचना करनेवाला पुरुष, माया रहित चालक की तरे सरल हो कर आलोचे । जो कोई किसी कारण से आलोचना न करे, वो आराधक नहीं है । आलोचना करनेवाला दश दोष वर्ज के आलोचना करे । अव दोष के नाम लिखते हैं - १. गुरु को वैयावृत्त्यादि से खुशी करके पीछे आलोचे, जिस से वो गुरु थोड़ा प्रायश्चित्त देवे । २. यह गुरु थोड़ा दण्ड देता है, ऐसे अनुमान करके आलोवे । ३. जो दूसरों ने देखा होवे, सो आलोवे, परन्तु जो अपना किया अपराध दूसरे किसीने न देखा होवे, उसको
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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