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जैनतत्त्वादर्श न आलोचे । ४. बादर दोष को आलोचे, परन्तु सूक्ष्म दोष को न आलोचे । ५. सूक्ष्म दोष आलोचे, परन्तु बादर दोष न आलोचे । ६. अव्यक्त स्वर से आलोचे । ७. जैसे गुरु समझे नहीं, ऐसे रौला करके आलोचे । ८. आलोचा हुआ बहुतों को सुनावे । ९. अव्यक्त अगीतार्थ के पास आलोचे । १०. अपराध जो गुरु ने कहा होवे, तिस अपने अपराध कों
आलोचे। यह दश दोष हैं। ___अब आलोचना करने से जो गुण होता है, सो कहते हैं। जैसे बोझा उठानेवाला भार के दूर हुए हलका हो जाता है, तैसे बो पाप से हलका हो जाता है । तथा पाप. रूप शस्य दूर हो जाता है, प्रमोद उत्पन्न होता है । आत्म पर के दोषों से निवृत्ति, तिसको देख के और मी आलोचना करेंगे। तथा सरलता होती है, शुद्ध हो जाता है । वो दुष्कर काम का करनेवाला है, क्योंकि दोष को सेवना तो दुष्कर नहीं है, किन्तु आलोचना प्रकाश करना, यह दुष्कर है। तथा श्री तीर्थंकर की आज्ञा का आराधक होता है । निःशल्य होता है। आलोचनाबाले के ये गुण होते हैं। यह आलोचना विधि श्राद्धजीतकल्पसूत्रवृत्ति के अनुसार लिखी है । बाल, स्त्री, यतिहत्यादि पाप तथा देवादिद्रव्य मक्षण का पाप, तथा राजपत्नीगमनादि महापाप की भी सम्यग् रीति से आलोचना करके गुरुदत्त प्रायश्चित्त करे, तो दूर हो जाते हैं । नहीं तो दृढप्रहारी प्रमुख