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________________ पुरुष . एकादश परिच्छेद 377 पीछे श्रीऋषभदेव ने स्वयमेव दीक्षा लीनी, उनके साथ कच्छ, महाकच्छ, सामंतादिक चार हज़ार दीक्षा और छद्मस्थ पुरुषों ने दीक्षा लीनी / श्रीऋषभदेवजी को ___ काल एक वर्ष तक भिक्षा न मिली, तब चार हज़ार पुरुष तो भूखे मरते जटाधारी कंद, मूल, फल, फूल, पत्रादि आहारी हो करके गंगा के दोनों किनारों पर तापस बन के रहने लगे, अरु श्रीऋषभदेवजी का ध्यान, जप आदि बह्मादि शब्दों से करने लगे। तब एक वर्ष पीछे वैशाख शुदी तिज को हस्तिनापुर में आये, तहां श्रीऋषभदेव के पड़पोते श्रेयांसकुमार ने जातिस्मरण ज्ञान के बल से श्रीऋषभदेव को भिक्षा वास्ते फिरते देख के इक्षुरस से पारणा कराया। क्योंकि उस समय में लोगों ने कोई भिक्षाचर देखा नहीं था, अरु न वो मिक्षा भी देना जानते थे। तिस कारण से श्रीऋषभदेवजी को हाथी, घोडे, आभूषण, कन्यादि तो बहुत भेट करे, परन्तु वे तो उस समय में त्यागी थे, इस वास्ते लीने नहीं। तब लोगों ने श्रेयांसकुमार को पूछा कि तुमने श्रीऋषभदेवजी को भिक्षार्थी कैसे जाना ! तब श्रेयांसकुमार ने अपने और श्रीऋषभदेवजी के आठ भवों का सम्बंध कहा / सो सर्व अधिकार आवश्यक शास्त्र में लिखा है। तव पीछे सर्व लोक भिक्षा देने की रीति जान गये। श्रीऋषभदेवजी एक हजार वर्ष तक देशों में छद्मस्थपने
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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