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जैनतस्वादर्श
प्रथम व्यवहार - सौ भक्ष्याभक्ष्य का ज्ञान करके त्यागे, दूसरा आश्रव संवर का ज्ञान करके खानपानादिक जो इन्द्रिय सुख का कारण है, उस में अपनी शक्ति प्रमाण बहुत आरंभ को छोड़ के अल्पारंभी होना, सो व्यवहार भोगोपभोगविरमण व्रत है ।
तत्व के स्वरूप को जान कर वस्तु है, सो सर्व हेय है; इस
दूसरा निश्चय - सो श्रीजिनवाणी को सुन कर वस्तु विचारे, कि जगत् में जो पर वास्ते तत्त्ववेत्ता पुरुष परवस्तु को न खावे, न अपने पास रक्खे | तब शुद्ध चैतन्यभाव को धार कर परम शांतिरूप हो कर जो वस्तु सड़े, पड़े, गिरे, जाती रहे; तब परवस्तु जान कर ऐसा विचार करे, कि यह पुद्गल की पर्याय हैं, सर्व जगत् की जूठ है, ऐसी वस्तु का भोगोपभोग करना सो तन्त्रवेता को उचित नहीं । ऐसे ज्ञान से परभाव को त्यागे, स्वगुण की वृद्धि करे, ऐसा ज्ञान पा कर आत्मा को स्वस्वरूपानंदी करे, चिद्विलास का अनुभवी होवे । सो निश्चय भोगोपभोग विरमण व्रत
कहिये ।
अथ भोगोपभोग शब्द का अर्थ कहते हैं । जो आहार, पुष्प, विलेपनादि, एक वार भोगने में आवे, सो भोग कहिये । जो भुवन, वस्त्र, स्त्री आदि वार वार भोगने में आवे, सो उपभोग कहिये, तथा कर्माश्रय से इस व्रत के अनेक भेद है, सो आगे लिखेंगे ।