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अष्टम परिच्छेद तथा श्रावक को उत्सर्ग मार्ग में तो निरवद्य आहार लेना
लिखा है । जेकर शक्ति न होवे, तब सचित्त वाईस अमक्ष्य का त्यागी होवे, जेकर यह भी न कर सके,
तो बाईस अभक्ष्य अरु बत्तीस अनंतकाय, इन का तो ज़रूर त्याग करे, तिन में प्रथम बाईस अभक्ष्य वस्तुका नाम लिखते हैं:
१. वड़ के फल, २. पीपल के फल, ३. पिलखण के फल, ४. कळंबर के फल, ५. गूलर के फल, यह पांच तो फल अभक्ष्य हैं। क्योंकि इन पांचों फलों में बहुत सूक्ष्म कीड़े त्रस जीव भरे हुए होते हैं, जिनों की गिनती नहीं हो सकती है। इस वास्ते धर्मात्मा जीव, इन पांचों फलों को न खावे । जेकर दुर्भिक्ष में अन्न न मिले, तो भी विवेकी पूर्वोक्त फल भक्षण न करे।
६. मदिरा, ७. मांस, ८. मधु, ९. माखन, इन चारों में तद्वर्ण असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं, अरु यह चारों विगय महाविगय हैं, सो महाविकार की करने वाली हैं। तिन में प्रथम मदिरा त्यागने योग्य है, क्योंकि मदिरा के पीने में जो दूषण है, सो श्री हेमचंद्रसूरिकृत योगशास्त्र के दश श्लोकों के अर्थ से लिखते हैं।