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________________ द्वादश परिच्छेद 515 तीसरे श्री गुणरत्नसूरि, तिनके करे ग्रन्थ-१. क्रियारलसमुच्चय, 2. षड्दर्शनसमुच्चय की बृहवृत्ति है। चौथे साधुरत्नसूरिजी का करा ग्रंथ यतिजीतकल्पवृत्ति है। 50. श्री देवसुंदरसूरि पट्टे सोमसुंदरसूरि हुए। तिन का 1430 में जन्म, 1937 में दीक्षा, 1450 श्रीसोमसुंदरसूरि में वाचक पद, 1457 में सूरिपद / जिस के अठारह सौ क्रियापात्र साधु परिवार को देख के कितनेक लिंगी पाखण्डियोंने पांच सौ रूपक दे के एक सहस्र पुरुषों को उनके बध करने वास्ते भेजा। तब वे जिस मकान में गुरु थे, तिस मकान में रात को छिपे रहे / जब मारने को उद्यत हुए तब चंद्रमा के उद्योत में श्री गुरुजीने रजोहरण से पूंज के जब पासा पलटा, तब देख के तिनके मन में ऐसा विचार आया कि यह नींद में भी क्षुद्र प्राणियों की दया करते हैं, और हम इनको मारने आए हैं, यह कितना अंतर है। तब मन में डरे और गुरु के पाओं में पड़ के अपराध क्षमा कराया। इनों के करे ग्रंथ-योगशास्त्र, उपदेशमाला, षडावश्यक, नवतत्त्वादिबालावबोध, भाष्यावचूर्णी, कल्याणिकस्तोत्रादि / जिनों के शिष्य मुनिसुंदरसूरि, कृष्णसरस्वती बिरुदधारक जयसुन्दरसूरि, और महाविद्याविडम्बन टिप्पनक कारक भुवनसुन्दरसूरि, जिनके कंठ एकादशांगी सूत्रार्थ थे, और चौथा
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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