________________ 434 जैनतत्त्वादर्श उसे दे कर आप अपने अंतेउरों में चला गया / तब नमुचिबलने नगर से निकल के यज्ञ वास्ते यज्ञपाड़ा बनाया। उसमें दीक्षा ले के आसन ऊपर बैठा। तब जैन मत के साधु छोड़ के दूसरे सर्व पाखण्डी भिक्षु और गृहस्थ मेटना ले के आये / मेट दे के सर्वने नमस्कार करा | तब नमुचिवलने पूछा कि जो नहीं आया होवे, ऐसा तो कोई रहा नहीं ! तब लोगों. ने कहा कि जैनमती सुव्रताचार्य वर्ज के सर्व दर्शनी आ गये हैं / तब नमुचिबलने यह छिद्र प्रगट करके और क्रोध में भर के सिपाही बुलाने को मेजे। और कहला मेजा कि, राजा चाहे कैसा ही हो, तो भी सर्व को मानने योग्य है, उसमें भी साधुओं को तो विशेष करके मानना चाहिये / क्योंकि राजा से उपरांत ऐसे अनाथ लिंगियों की रक्षा करनेवाला कौन है ! तथा मेरा तुम कुछ करने को समर्थ नही, और बड़े अभिमानी हो तथा हमारे धर्म के निंदक हो, इस वास्ते मेरे राज से बाहिर हो जाओ। जो रहेगा, उसको मैं मार डालंगा, इसमें मुझे पाप भी नहीं होगा। तब गुरुने आकर मीठे वचन से कहा कि, हमारा यह कल्प नहीं कि गृहस्थ के कार्य में जाना / परन्तु हम अभिमान से ही नहीं आये, ऐसा मत समझना, क्योंकि साधुसमभाव से अपने धर्मकृत्य में लगे रहते हैं। तब नमुचिबल अति शांतवृत्तिवाले मुनियों को कठोर हो कर कहने