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________________ सप्तम परिच्छेद ३१ राजा कुमारपाल को कहेते हैं, कि हे पुत्र ! तू बड़ा पुण्यात्मा अंगीकार किया है। जिस दिन से है, कि जिस ने जैन धर्म तूने जैन धर्म अंगीकार किया है, उस दिन से हम नरक कुण्ड से निकल कर स्वर्गवासी हुए हैं। इस वास्ते तू धर्म में दृढ़ रह । उसके पीछे श्रीहेमचन्द्रसूरि राजा कुमारपाल को बाहिर लाये, तब राजा ने पूछा कि महाराज ! यह क्या आश्चर्यकारी तमाशा है ? तब श्रीहेमचन्द्रसूरि कहते भये कि हे राजा ! यह इन्द्रजाल विद्या जिस को आती होवे, वो कर सकता है । क्योंकि इन्द्र जाल विद्या के सत्ताईस पीठ हैं, जिन में से सतरां पीठ संसार में प्रचलित हैं। परन्तु सचाईस पीठ हम जानते हैं, और कोई भी भारतवर्ष में नही जानता है । अरु जिन गुरुओं ने हम को यह विद्या दीनी थी, उनों ने ऐसी आज्ञा भी करी है, कि आगे को तुम ने किसी को यह विद्या न देनी । क्योंकि इस विद्या से बड़े अनर्थ उत्पन्न हो जायेंगे। क्योंकि इस काल में जीव तुच्छ बुद्धि वाले हैं, इसलिये उन को यह विद्या जरेगी ( पचेगी ) नहीं। इसी वास्ते हमारे आचार्यों ने योनिप्राभृत शास्त्र विच्छेद कर दिया है। उसी योनिमाभृत के अनुसार यह इन्द्रजाल रचा हुआ है। इस योनिमाभृत का कथन व्यवहारभाष्यचूर्णि में लिखा है, कि उस योनिप्राभृत तंत्रविद्या है । जिस से सर्प, घोड़े, हाथी वगैरे ज़िंदा जानवर, वस्तुओं के मिलाने से बन जाते हैं, तथा सुवर्ण, मणि, रत्न प्रमुख बन जाते हैं । में 1
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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