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अष्टम परिच्छेद
९५ किसी शास्त्र में नहीं लिखा है। इस का क्या हेतु होगा।
उत्तरः-अपने मांस की रक्षा के वास्ते मनुष्य का मांस खाना नहीं लिखा। क्योंकि वे कुशास्त्रों के बनानेवाले जानते थे, कि यदि मनुष्य का मांस खाना लिखेंगे, तो मनुष्य कभी हम को ही न खा लेवें। इस शङ्का से नहीं लिखा। अत: जो व्यक्ति पुरुषमांस में अरु पशुमांस में विशेष नहीं मानता है, तिस के समान कोई धर्मी नहीं। अरु तिन में जो भेद मान के मांस खाते हैं, इनके समान कोई पापी भी नहीं। तथा मांस जो है, तिस की रुधिर से उत्पत्ति होती है, अरु विष्टे के रस से वृद्धि होती है, तथा लहू जिसमें भरा रहता है, अरु कृमि जिसमें उत्पन्न होते हैं। ऐसे मांस को कौन बुद्धिमान खा सकता है ! आश्चर्य तो यह , है, कि ब्राह्मण लोक शुचिमूलक तो धर्म कहते हैं, अरु सप्त धातु से जो मांस, हाड़ बनते हैं, तिस मांस हाड़ को मुख में दांतों से चवाते है । अब उनको कुत्तों के समान समझे कि शुचि धर्मवाले मानें ! जिन दुष्टों की ऐसी समझ है, कि अन्न और मांस यह दोनों एक सरीखे हैं, तिन की बुद्धि में जीवन अरु मृत्यु के देनेवाले अमृत और विष भी तुल्य ही हैं।
अरु जो जड़-बुद्धि ऐसा अनुमान करते हैं, कि मांस खाने योग्य है, प्राणी का अंग होने से, ओदनादिवत् । इस दृष्टांत से यह मांस भी प्राणी का अंग है; इस वास्ते मांस भी