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________________ 540 जैनतत्त्वादर्थ ये,.लोक परस्पर बड़ा द्वेष रखते हैं, कई मनमानी कल्पित बातें बना लेते हैं, एक दूसरे के पग नहीं जमने देते, मन मैं जानते हैं कि मेरे गृहस्थ चेलों को बहका लेवेगा, इत्यादि। मेरे लिखने में किसी को शंका होवे तो मारवाड़ में जाकर प्रत्यक्ष देख लेवे। इन का आचार, व्यवहार, वेष, श्रद्धा, प्ररूपणा प्रमुख जो है, सो जैनमत के शास्त्रानुसार नहीं है। और दूसरे मतोंवाले भी जो बहुत जैनमत को बूरा जानते हैं, वो इन ढूंढियों ही के आहार व्यवहार देखने से जानते हैं। परन्तु यह लोक तो सर्व जैनमत से विपरीत चलनेवाले है। 63. श्री विजयप्रभसूरि पट्टे श्री विजयरत्नमरि हुए। - 64. श्रीविजयरत्नसूरि पाटे श्री विजयक्षमासूरि हुए। 65. श्री विजयक्षमासूरि पाटे श्री विजयदयासूरि हुए। / 66. श्री विजयदयाम्ररि पाटे श्री विजयधर्मसूरि हुए / 67. श्री विजयधर्मसूरि पाटे श्री जिनेंद्रसूरि हुए। 68. श्री जिनेंद्रसूरि पाटे श्रीदेवेन्द्रसूरि हुए। , 69. श्री देवेंद्रसूरि पाटे श्री विजयधरणेद्रसूरि जो कि इस वर्तमानकाल में विचरते हैं। . . -
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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