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जैनतस्वादर्श . के आचार्य श्री आर्यरक्षितसूरि साढ़े नव पूर्व के पाठक, जिन के पास शकेन्द्र, निगोद जीवों का स्वरूप सुनने आया था। तब शकेन्द्र ने प्रथम वृद्ध ब्राह्मण का रूप करके श्री आर्यरक्षितसूरि को पछा, कि हे भगवन् ! मैं वृद्ध हो गया हूं, जेकर मेरी आयु थोड़ी होवे, तो मुझे बता दीजिये, ताकि मैं अनशन करूं। तब श्री आर्यरक्षितसूरिजीने दशमे पूर्व के यवका अध्ययन में उपयोग दे कर देखा, तो तिस की आयु सौ वर्ष से अधिक जानी, फिर उपयोग दे कर देखा, तो दो सौ वर्ष से अधिक आयु जानी, फिर उपयोग दिया, तो तीन सौ वर्ष से अधिक आयु जानी। तब आचार्य श्री आर्यरक्षितसूरिजीने विचार किया, कि यह भारतवर्ष का मनुष्य नहीं है। यह कथानक आवश्यक सून की सामायिक अध्ययन की उपोद्धात नियुक्ति में है। इस कथानक से ऐसा भाव निकलता है, कि यदि भारतवर्ष के मनुष्य की आयु तीन सौ वर्ष की भी होवे, तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि श्री आर्यरक्षितसूरिजी ने जो तीन सौ वर्ष से जब अधिक आयु देखी, तब कहा, कि यह भारत वर्ष का मनुष्य नहीं। इसे कहने से तीन सौ वर्ष की आयु भी भारतवर्ष में मनुष्य की किसी प्रकार से होवे, तो क्या आश्चर्य हैं।