SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 460 जैनतत्त्वादर्श है मेरु आदिक यत् उ अंतिके'-उ शब्द अवधारणार्थ में है, जो समीप है। सो सर्व पूर्वोक्त पदार्थ पुरुष अर्थात् ब्रह्म ही है। इस श्रुति से कर्म का अभाव होता है / अरु दूसरी श्रुति से तथा शास्त्रांतरों से कर्म सिद्ध होते हैं। तथा युक्ति से कर्म सिद्ध होते नही क्योंकि अमूर्त आत्मा को मूर्त कर्म लगते नहीं, इस वास्ते मैं नहीं जानता कि कर्म है या नहीं। यह संशय तेरे मन में है। ऐसा कह कर भगवान्ने वेदश्रुतियों का अर्थ बराबर करके तिसका पूर्वपक्ष खण्डन करा / सो विस्तार से मूलावश्यक तथा विशेषावश्यक से जान लेना। अग्निभूतिने मी गौतमवत् दीक्षा लीनी। अमिभूति की दीक्षा सुन के तीसरा वायुभूति आया / परंतु आगे दोनों भाइयों के दीक्षा ले लेने से वायुभूति और इसको विद्या का अमिमान कुछ भी न रहा। संशयनिवृत्ति मन में विचार करा कि, मैं जाकर भगवान् को वंदना-नमस्कार करूंगा / ऐसा विचार के आया, आकर भगवंत को वंदना करी। तब भगवंतने कहा कि तेरे मन में संशय तो है, परन्तु क्षोभ से तू पूछ नहीं सकता है। संशय यह है कि जो जीव है सो देह ही है ! और यह संशय तेरे को विरुद्ध वेदपदश्रुति से हुआ है, और तू तिन वेद पदों का अर्थ नहीं जानता है। वे वेद पद ये हैं:"विज्ञानधन " इत्यादि पहिले गणधर की श्रुति जाननी / इस
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy