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________________ जैनतत्त्वादर्श तथा जो पृथ्वी के गोल होने में समुद्र के जहाज की ध्वजा प्रथम दीखती है, इत्यादि कहते हैं । सो यह बात कहने वालों की समझ में ऐसे आती होवेगी, परन्तु हमारी समझ में तो नहीं आती है। हम तो ऐसे समझते हैं, कि हमारे नेत्रों में ऐसी ही योग्यता है, कि जिस से वस्तु गोलादि दीख पड़ती है। क्योंकि जब हम सीधी सड़क पर खड़े होते हैं, तब हमारे पगों की जगें सड़क चौड़ी मालूम पड़ती है, अरु जब दूर नज़र से देखते हैं, तव बो ही सड़क संकुचित मालूम पड़ती है । अरु आकाश में पक्षी को जब शिर के ऊपर उड़ता देखते हैं, तब हम को ऊंचा दूर दीख पड़ता है, अरु जब उसी जानवर को थोड़ी सी दूर जाते को देखते हैं, तब धरती से बहुत निकट देखते हैं । इतनी दूर में पृथ्वी की इतनी गोलाई नहीं हो सकती है । तथा आकाश को जब देखते हैं, तब तंबू सा दिखलाई देता है। इस में जो कोई यह बात कहे कि धरती की गोलाई के सबब से आकाश भी गोल दीखता है, यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि पृथ्वी की इतनी गोलाई नहीं हो सकती है। इस वास्ते नेत्रों में जिस वस्तु के जानने की जैसी योग्यता है, वैसी वस्तु दीखती है, यही कहना ठीक मालूम होता है। तथा यह भरतखंडादिक की पृथ्वी बहुत जगे ऊंची लीची मालम होती है, क्योंकि श्रीहेमचन्द्रसरि प्रमुख आचार्य
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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