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अनगार
मनाते हैं किंतु यह नहीं जानते कि उस श्वासोच्छाससे तथा शरीरग्रहण करनेमें उत्पन्न हुए परिश्रमसे और जन्म ग्रहण करते ही उत्पन्न हुई फुल्लिका आदि बीमारियोंसे उस बालकको अनेक प्रकारके दुःख होरहे हैं।
बाल्य कालके प्रति ग्लानि प्रकट करते हैं:यत्र कापि धिगत्रपो मलमरुन्मूत्राणि मुञ्चन्मुहु-' यत्किंचिद्वदनेर्पयन् प्रतिभयं यस्मात्कुतश्चित्पतन् । लिम्पन्स्वाङ्गमपि स्वयं स्वशकृता लालाविलास्योऽहित,
व्याषिद्धो हतवद्रुदन् कथमपि-च्छिद्येत बाल्यग्रहात् ॥ ६७ ॥ धिक्कार है कि बाल्य कालमें यह जीव निर्लज्ज होकर जहां कहीं भी सोनेके उठने बैठनेके या भोजन करनेके स्थानमें, ओढने पहरने विछाने आदिके वस्त्रोंमें या जिस किसी भी उचित या अनुचित स्थानमें बारम्बार मल वायु-अधोवायु और मृत्रको छोड़ देता है, तथा जिस किसी भी चीजको चाहे वह भक्ष्य हो चाहे अभक्ष्य मुखमें रखलेता है, एवं चाहे जिस किसी भी चीजसे-गिरे हुए वर्तनके शब्द आदि किसी भी पदार्थसे अतक्यतया उपस्थित हुआ भय खाकर गिर पडता है. और स्वयं अपने ही विष्टासे, दूसरी चीजोंकी तो बात ही क्या, अपने शरीरको भी लेपलेता है । मुखको सदा लारसे भरे रहता और जिस समय अहितमें-मट्टी खाने आदिमें प्रवृत्त होता है तब माता पिता आदिके द्वारा रोके जानेपर ऐसा रोता है मानो किसीने पीटा हो । इस प्रकार यह बाल्यकाल एक प्रकारका ग्रह है कि जिससे यह जीव बडे ही कष्टोंसे छूटा करता है । बाल्यावस्थाके बाद प्राप्त होनेवाले कुमार कालका भी तिरस्कार करते हैं
धूलीधूसरगात्रो धावन्नवटाश्मकण्टकादिरुजः।
ध्यायय