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STARK321
जनगार
धर्म
कारण- अनुकम्प्य और मनुष्यगति नाम कर्मका जिसके उदय हो आया है ऐसे इस जीवको इस मनुष्य पर्यायमें नित्य ही दुःखोंसे पीडित और साक्षात् दोषांदिकका पिण्ड-वात पित्त कफ इन तीन दोषों, और रस रुधिर मांस मेदा अस्थि मज्जा और शुक्र इन सप्त धातुओं, तथा विष्टा मूत्र पसीना नाक कीचड थूक आदि मलोंकी मूर्ति ऐसा शरीर प्राक्तन कर्मने चिरकाल तक या चिरकालमें-नव या दश महीनामें ग्रहण कराया। जैसी कि गर्भकी यह अवस्था निम्नलिखित दो पद्योमें भी कही है
कललकलुषस्थिरत्वं पृथग्दशाहेन बुद्दोथ घनः । तदनु ततः पलपेश्यथ क्रमेण मासेन पञ्चपुलकमतः।। चर्मनखगेमसिद्धिः स्यादगोपाङ्गसिद्धिरथ गर्ने ।
स्पन्दनमष्टममास नवमे दशमेथ निःसरणम् ।। माता पिताके रजवीर्यका मिला हुआ भाग गर्भमें दश दिनमें स्थिर होता है। इसके बाद दश दिनमें उसका बुद्धद बनता और उसके बाद दश दिनमें वह सघन होता है। इसके बाद मांसपेशी आदि बनती और एक एक महीनेके क्रमसे चर्म नख रोमकी सिद्धि तथा अंगोपांगकी सिद्धि होती है। आठवें महीनेमें यह जीव गर्भमें हिलने चलने लगता है और नौवें या दशवें महीने में बाहर निकलता है। गर्भके अनंतर प्रसव होनेमें जो क्लेश होते हैं उनको बताते हैं।
गर्भक्लेशानुद्रुतेविद्रुतो वा निन्द्यद्वारेणैव कृच्छाद्विवृत्त्य ।
नियस्तत्तदुःखदत्त्याऽकृतार्थो नूनं दत्ते मातुरुग्रामनस्यम् ॥ ६५ ॥ पूर्वोक्त प्रकारसे जब गर्भके क्लेश इस जीवके पीछे पडे तब उनसे मानो त्रस्त होकर और मार्ग न पाकर यह नीचेको मुख करके बडे कष्टके साथ निन्द्य द्वारसे ही बाहर निकल पडा । मालुम पडता है, मानो
अध्याय
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