________________
बनगार
७८
बध्याय
१
दुष्कृतका फल दुःख है । अत एव इन दोनोंकी प्रवृत्ति शीत उष्णकी तरहसे परस्परमें विरुद्ध है। ये दोनो ही परस्परमें एक दूसरेकी शक्तिके घातने वाले हैं। जिस प्रकार यदि शीत बलवान् हो तो वह उष्ण स्पर्शकी शक्तिको दूर करदेता है। और उष्ण स्पर्श बलवान् हो तो शीत स्पर्शकी शक्तिको नष्ट कर देता है। इसी तरह इन दोनोंमें भी जो बलवान् होता है वह दूसरे दुर्बलको दबा देता है।
सुरू ही किया हुआ धर्म भी पापके उदयको दबादेता है यह बात दिखाते हैं:
धर्मोनुष्ठीयमानोपि शुभभावप्रकर्षतः ।
भङ्क्त्वा पापरसोत्कर्षं नरमुच्छ्रासयत्यरम् ॥ ६२ ॥
पूर्वार्जित धर्मकी तो बात ही क्या; किंतु उस धर्मका हालमें ही आचरण सुरू किया हो तो भी वह धर्म पापके रसको नष्ट करदेता हैं और उस आचरण करनेवाले मनुष्यका आपत्तियों से छुटकारा करा देता है। इसका कारण शुभ भावोंका प्रकर्ष है ।
इस प्रकार धर्मके माहात्म्यका जो कुछ वर्णन किया जा चुका है उसका उपसंहार करते हुए उसे आराधन करनेकेलिये भव्य श्रोताओंको प्रोत्साहित करते हैं:
-
तत्सेव्यतामभ्युदयानुषङ्ग फलोऽखिलक्लेशविनाशनिष्ठः ॥
अनन्तशर्मामृतदः सदार्यैर्विचार्य सारो नृभवस्य धर्मः ॥ ६३ ॥
क्योंकि इस धर्मका प्रभाव नित्य एवं अचिंत्य है जैसा कि पहले बताया जा चुका है; इसलिये इसको मनुष्यजन्मका सार समझ कर आर्यों-विचारपूर्वक कार्य करनेवालोंको इसका अच्छी तरह विचार कर- प्रत्यक्ष अनुमान और आगमके द्वारा व्यवस्थित प्रमाणित करके नित्य ही सेवन करना चाहिये। क्योंकि यह धर्म अनंत - जिसकी
७८