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बनगार
उपायः पुण्यसद्वन्धुं सोप्युत्थापयितुं परम् ॥ ५९॥ आप्ताभासोंके बताये हुए उपायकी तो बात क्या उसका तो शिष्ट पुरुष व्यवहार ही क्या करेंगे ! किंतु पापकर्मके उदयसे प्राप्त हुई आपत्तियोंके दूर करनेके जो उपाय-सिद्धमंत्रादिकके प्रयोग आप्त भगवानकी उपदेशपरम्पराके अनुसार सुनने में आते हैं वे भी केवल उस विना कारणके समीचीन बन्धु पुण्यकर्मको ही जाग्रत करनेकेलियेअपने कार्यमें प्रवृत्त करनेकेलिये हैं। .
पुण्यकर्म यदि उदयके संमुख हो तो और यदि उससे विमुख हो तो दोनो ही अवस्थाओंमें सुखके साधन व्यर्थ हैं । इसी बातको दिखाते हैं:
. पुण्यं हि संमुखनिं चेत्सुखापायशतेन किम् ।
न पुण्यं संमुखनिं चेत्सुखोपायशतेन किम् ॥ ६ ॥ पुण्य यदि उदयके संमुख है -अपना फल देने में प्रवृत्त है तो दूसरे सैकडों सुखके उपायोंसे भी क्या प्रयोजन ? क्योंकि उसके उदयसे स्वयं ही सुख प्राप्त होगा । इसी प्रकार यदि पुण्यकर्म उदयमें नहीं आरहा है तो भी उस सुखके बहुतसे उपायोंकी भी क्याआवश्यकता है ? क्योंकि विना पुण्यके वे अपना फल ही नहीं दे सकते ।
पुण्य और पापमें बलाबलका विचार करते हैं:शीतोष्णवत्परस्परविरुद्धयोरिह हि सुकृतदुष्कृतयोः। सुखदुःखफलोद्भवयोर्बलमभिभूयते बलिना ॥६१ ॥
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ध्यायय
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सुकृत और दुष्कृत-पुण्य और पाप इन दो नोंका फल क्रमसे सुख और दुःख है । सुकृतका फल सुख और