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भावार्थ--साधारण लोग दुर्वार पापकर्मके उदयसे तरा-ऊपर उत्पन्न हुए उपसर्गों-दुःखोंको ही देख सकते हैं किंतु धर्मके प्रतापसे मनुष्यके सत्त्व और उत्साह गुणमें जो बल उत्पन्न होता है जिससे कि वह उन दुःखोंसे आभिभूत नहीं होता उसको वे नहीं देख सकते । दो पोंमें पापके अपकार और पुण्यके उपकारको दृष्टांतद्वारा दृढ करते हैं
तत्तादृक्कमठोपसर्गलहरीसर्गप्रगल्भोष्मणः, किं पार्श्व तमुदप्रमुग्रमुदयं निर्वच्मि दुष्कर्मणः । किंवा तादृशदुर्दशाविलसितप्रध्वंसदीप्रौजसो,
धर्मस्योरु विसारि सख्यामिह वा सीमा न साधीयसाम् ॥ ५७॥ हम तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ भगवान्के दुष्कर्मके उस-आगमप्रसिद्ध और उदग्र-- उच्छ्रित एवं उग्र--दुःसह उदयका कहांतक वर्णन कर सकते हैं कि जिसका अनुभाग--सामय पूर्व वैर के कारण नाना भवोंमें भ्रमण कर महासुरत्वको प्राप्त करनेवाले कमठक.द्वारा वज्रपात, अद्भुत पञ्चवर्ण मेघ, अत्यंत उग्र वायु, आयुधोंके द्वारा घात, अप्सराओंके द्वारा उपचार, अग्निके द्वारा जलना, समुद्रका तूफान, अजगरोंका उपनिपात, भूतोंका नृत्य, प्रचण्ड विजलीकी वर्षा, वृक्षोंका उखडकर गिरना, घोर मेघपटलोंका उठना इत्यादि और भी अनेक किये गये उन प्रसिद्ध और अनुपम उपसगोंकी लहरी-परम्पराके उत्पन्न करनेमें समर्थ है। इसी प्रकार हम उस धर्मकी महान् एवं सर्वत्र और सर्वदा अपना कार्य करनेवाली मैत्रीका भी कहांतक वर्णन कर सकते हैं कि जिसका ओज-तेज इन्द्रके द्वारा नियुक्त हुए यक्ष धरणेन्द्र और पद्मावतीके द्वारा भी निवारण न किया जासके, ऐसी पार्श्वप्रभुकी उस दुरवस्थाके विलास-स्वतंत्रतया दुःख देनेकी सामर्थ्यके अत्यंत ध्वस्त करनेमे प्रदीप्त-अधिकाधिक रूपमें ही प्रकाशित होता गया। अथवा ठीक ही है-इस संसारमें अतिशय शालियोंकी सीमा नहीं है।
उग्र वाात भूतोंका नृत्य, अन प्रसिद्ध और अनपदा अपना कार्य कान्द्र और पद्मावतीमयंक अत्यंत ध्वस्त योको
अध्याय