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अनगार
धर्मः किंतु ततस्त्रसन्निब सुधां स्नौति स्वधाम्न्यम्फुटम् ॥ ५६ ॥ जिस समय यह दारुण-सुशक्य या दुःशक्य है प्रतीकार जिसका ऐसा कर्म अत्यंत घटाटोपके साथ अतिशय कटु-हालाहल विषके समान सर्प विष कण्टक आदि अपने फलभूत अनिष्ट पदार्थोंको उत्पन्न करता है उस समय यह धर्म न तो उसका अनुवर्तन- साहाय्य ही करता है और न उस कर्मसे पीडित होते हुए अपने स्वामी धर्मात्माकी उपेक्षा ही करता है।
यहांपर प्रश्न हो सकता है कि जब धर्भसरीखा निष्कपट बंधु उपस्थित है फिर भी यह अधर्मशत्रु अपना विलास इस तरहसे क्यों दिखाता है ! इसका उत्तर यह है कि क्रोध मान माया आदि कषायों और उससे अनुरंजित मन वचन कायकी प्रवृत्तियोंमें कर्मशूर होकर इस जीवने पूर्व कालमें जिन कर्मोंका संचय किया है वे ध्रव हैं-उनका तबतक विनाश नहीं हो सकता जबतक कि उनका फल न भोगलिया जाय.
यहांपर पुनः प्रश्न हो सकता है कि यदि यही बात है तो विपक्षी अधर्मका साहाय्य न कर तथा अपने स्वामीकी उपेक्षा न करके भी धर्म क्या करता है ? इसका उत्तर यह है कि धर्म अस्फुट अप्रकट रूपस-बाह्य लोकोंकी दृष्टि में न आसके इस तरहसे अपने आश्रयभूत धर्मात्मा पुरुषकी आत्मामें सुधा-अमृत-सर्वाङ्गीण आनंदका सिंचन करता है । प्रकटतया क्यों नहीं करता ? तो मालुम होता है कि वह भी उस अधर्मसे भय खाता है-डरता है।
बध्याय
१ लतादावस्थिपाषाणशक्तिभेदाच्चतुर्विधः।।
स्याद् घातिकर्मणां पाकोन्येषां निम्बगुडादिवत् ॥ घातिकर्मोंका उदय शक्तिभेदकी अपेक्षा लता दारू-लकडी आस्थ और पाषाण इस तरह चार प्रकारका होता है। और अघातिकमोंमें पापकर्मका रस निंब कांजीर विष हालाहल इस तरह चार प्रकारका और पुण्य कर्मका रस गुड खांड शक्कर और अमृत इस तरह चार प्रकारका होता है।
२ यह बात उत्प्रेक्षा अलंकारके द्वारा कही गई है।