Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री जटासिंहनन्दि विरचित वरांगचरित .. ....... मुल सम्पादक डॉ० आ० ने उपाध्यो AA-ARNERBE . अनुवादक प्रो० खुशालचन्द्र जी गोराबाला भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री भरतसागर 'ज्ञान-दिवाकर' महोत्सव पर प्रकाशित ALA आचार्यश्री जटासिंहनन्दि विरचित वरांग चरित भारती ( हिन्दी ) अनुवाद सहित मल सम्पादक डॉ. आ० ने० उपाध्ये अनुवादक प्रो. खुशालचन्द्र गोरावाला TAPAIRTERISPURaiheAELEASERI भारतवर्षीय अनेकान्तविद्वत्परिषद Jain Education international For Privale & Personal Use Only S Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् पुस्प संख्या-२४ प्रेरणा आयिका स्याद्वादमती माताजी ग्रन्थ वरांग र्चारत प्रणेता आचार्यश्री जटासिंहनन्दि संस्करण :प्रथम RDEReau-STREETTENTINEEReaWALIMITHSHesareewale प्रतियाँ १००० म्यानमारमान्यIKEDIA : वीर निर्वाण सं०२५२२ सन् १९९६ प्रकाशक : भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद् प्राप्ति स्थान : आचार्यश्री भरतसागरजी महाराज संघ : १२०) रुपये वर्द्धमान मुद्रणालय, जवाहरनगर कॉलोनी, वाराणसी-२२१०१० Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री भरतसागरजी महाराज Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ज्ञान दिवाकर प्रशान्तमूर्ति वाणीभूषण मर्यादा शिष्योत्तम गुरुभक्ति के अमर पुष्प आचार्यश्री १०८ भरतसागर जी महाराज के कर-कमलों में ग्रन्थराज सादर समर्पित For Private Personal Use Only SAXXXRAS-22-2233-2233205-2213528352281235 PRING MAGDAS DAKS Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् भूमिका वराङ्गनेव सर्वाङ्गे र्वराङ्ग चरितार्थवाक् । कस्य नोत्पादयेद्गाढ मनुरागं स्वगोचरम् ॥ वो० नि० २४६० ( १९३३ ई० ) के पहिले वरांगचरितकी स्मृति आचार्य श्री जिनसेनकृत हरिवंशपुराणके प्रथम सर्गका उक्त ३५वाँ श्लोक ही दिलाता था । असंख्य लुप्त ग्रन्थोंमें इस महान् ग्रन्थकी भी गणना होती थी। यह भी पता न था कि किस आचार्यने इसे रचा था। पद्मचरित के प्रणेता श्री रविषेणाचार्य इसके भो कर्त्ता रहे होंगे ऐसा अनुमान किया जाता था। किन्तु भण्डारकर रिसर्च इंस्टीच्यूट, पूनाकी पत्रिकाकी १४वीं प्रतिके प्रथम तथा द्वितीय भागमें डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्येका एक शोधपूर्ण लेख उक्त वर्ष ही प्रकाशित हुआ, जिसने जिज्ञासुओं को वरांगचरितके सद्भावको हो सूचना न दी थी, अपितु उसके कर्त्ता श्री जटिलमुनि, जटाचार्य अथवा जटासिनन्दिका भी पर्याप्त परिचय दिया था। इस लेख के प्रकाशन के बाद वरांग चरितको प्रकाशमें लाने के लिए विद्वान् लेखकसे सब तरफसे आग्रह किया गया और समाजके सौभाग्यसे २४६५ ( वी० नि० ) ( दिसम्बर १९३८) में यह ग्रन्थ पाठकोंके सामने आसका । उक्त लेख के विद्वान् लेखक डॉ० आ० ने० उपाध्येने लक्ष्मीसेन मठ, कोल्हापुर तथा जैन मठ, श्रवणबेलगोलकी ताड़ प्रतियोंके आधारपर इसका सम्पादन किया है तथा साहित्य मनीषी मूक सेवक पं० नाथूराम प्रेमीने इसे श्री माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला के ४०वें ग्रन्थके रूप में प्रकाशित किया है । ग्रन्थ परिचय यद्यपि सके अन्त में आया वाक्य "चारों वर्गं समन्वित, सरल शब्द- अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा"" इस ग्रन्थका चतुर्वर्ग समन्वित धर्मकथा नामसे परिचय देता है, तथापि इसके आकार, छन्द तथा अन्य प्रकारोंके आधारपर इसे संस्कृत महाकाव्य कहा जा सकता है, क्योंकि मंगलाचरण पूर्वक प्रारब्ध यह पूरी रचना इकतीस सर्गो में विभाजित है । बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ तथा श्री कृष्णचन्द्रजो के समकालोन वरांग इसके नायक हैं। इनमें धीरोदात्त नायकके सब गुण हैं। महाकाव्य में आवश्यक नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, कुमार-जन्म तथा वृद्धि, राजसभा मंत्रणा, दूतप्रेषण, अभियान, युद्ध, विजय, राजसंस्थापन, धार्मिक आयोजन आदि के वर्णनोंसे यह व्याप्त है। वसन्ततिलका, पुष्पिताग्रा, उपजाति, प्रहर्षणी, मालिनी, अनुष्टुभ, भुजंगप्रयाता, मालभारिणी, वंशस्थ तथा द्रुतविलम्बित छन्दोंका मुख्य रूपसे उपयोग हुआ है। सगं समाप्ति बहुधा विसदृश छन्दसे की गयी है । वरांगी धर्मनिष्ठा, सदाचार, कर्त्तव्यपरायणता, शारीरिक तथा मानक विपत्तियों में सहिष्णुता, विवेक, साहस, लौकिक तथा आध्यात्मिक शत्रुओंपर पूर्ण विजय, आदि उसे सहज ही उत्कृष्ट धर्मवीर धीरोदात्त नायक बना देते हैं। परम्पराके अनुसार महाकाव्य में तीससे अधिक सर्ग नहीं होने चाहिये किन्तु इसमें एकतीस हैं । १. सेठ माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमालाका ३२वाँ ग्रन्थ, पृ० ४। २. " इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गं समन्विते स्फुट शब्दार्थ सन्दर्भे वरांगच रिताश्रिते ।” ३. "अविकत्थनः क्षमावानति गम्भीरो महासत्त्वः । स्थेयान्निगूढमानो धीरोदात्तो दृढव्रतः कथितः ॥ साहित्यदर्पण, सर्ग ३, श्लोक ३२ । LIK भूमिका E [५] . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना वराङ्ग चरितम् भूमिका कथावस्तु-भगवान् अर्हन्त उनका धर्म तथा सर्वदर्शी ज्ञान रूप रत्नत्रयके नमस्कार पूर्वक ग्रन्थका प्रारम्भ होता है। महापुराणके समान कथा प्रबन्ध, उपदेष्टा तथा श्रोताके लक्षण तथा भेदोंका विवेचन है। फिर कथा प्रारम्भ होती है विनीत देशकी रम्या नदीके तटपर स्थित उत्तमपुरमें भोजवंशी महाराज धर्मसेन राज्य करते थे। इनकी तीन सौ रानियोंमें गुणवती पट्टरानी थी इसी देवीकी कुक्षिसे कुमार वराङ्ग उत्पन्न हुए थे । मंत्रियोंसे विमर्श करके धर्मसेनने वयस्क वरांगका दश कुलीन पुत्रियोंके साथ व्याह कर दिया था। कुछ समय बाद भगवान् अरिष्टनेमिके प्रधान शिष्य वरदत्त केवली उत्तमपुर पधारे धर्मसेन सकुटुम्ब वन्दनार्थं गये, तथा राजा द्वारा प्रश्न किये जानेपर कवेलोने धर्म और तत्त्वोंका उपदेश दिया। संसारके कारण कर्मों, लोकों, तिथंच गति, मनुष्यगति तथा लोक, स्वर्ग तथा मोक्षका विशेष विवेचन किया था। वरांगके पूछनेपर मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वका विवेचन । किया था। जिससे प्रभावित होकर कुमारने अणुव्रतोंको धारण किया था। वरांगको युवराज पद देनेपर इनकी सौतेली माता तथा भाई सुषेणको ईर्ष्या होती है। ये सुबुद्धि मंत्रीसे मिलकर षड्यन्त्र करते हैं । मंत्रिके द्वारा शिक्षित दुष्ट घोड़ा वरांगको जंगलकी ओर ले भागता है तथा कुमार सहित कुएं में जा पड़ता है। किसी प्रकार कुएँसे निकलकर वरांग जब दुर्गम वनमें आगे बढ़ते हैं तो व्याघ्र पीछा करता है तथा किसी हाथीकी सहायतासे ये उससे छुटकारा पाते हैं। इसी प्रकार एक यक्षी इन्हें अजगरसे बचाती है तथा इनके स्वदार-संतोष-व्रतकी परीक्षा लेकर इनकी भक्त हो जाती हैं वनमें भटकते युवराजको बलिके लिए भील पकड़ ले जाते हैं किन्तु साँपके द्वारा डेसे भिल्लराजके पुत्रका विष उतार देनेके कारण इन्हें मुक्ति मिल जाती है और यह सेठ सागरबुद्धिके बंजारेसे मिलकर उसे जंगली डाकुओंसे बचा लेकर कश्चिद्भट नामसे अज्ञात वास करते हैं । सेठ सागरबुद्धिके धर्मपुत्रकी भाँति ललितपुरमें रहते हए वे सेठोंके प्रधान हो जाते हैं। इधर उत्तमपूरमें इनके माता, पितादि धार्मिक जीवन बिताकर वियोगके दुःखको भर रहे थे। हाथीके लोभसे मथुराधिपने ललितपुरपर आक्रमण किया तो कश्चिद्भटने उसको परास्त करके फिर अपने पराक्रमको पताका फहरा दो । कृतज्ञ ललितपुराधिपने अपना आधा राज्य तथा लड़की वरांगको दी। वरांगके लुप्त हो जानेपर सुषेण उत्तमपुरके राज्यभारको सम्हालता है और अपनी अयोग्यताओंके कारण शासनमें असफल रहता है। उसकी इस दुर्बलता तथा धर्मसेनके बुढ़ापेका अनुचित लाभ उठानेको इच्छासे बकुलाधिप उत्तमपुरपर आक्रमण करता है तथा धर्मसेन ललितपुराधिपसे सहायता मांगते हैं। इस अवसरपर वरांग जाते हैं और बकुलाधिपके दाँट खट्टे । कर देते हैं। तथा जनताके स्वागत और आनन्दके बीच अपनी नगरीमें प्रवेश करते हैं। अपने विरोधियोंको क्षमा करके वरांग पितासे दिग्विजयकी अनुमति मांगते हैं । वे नये राज्यको स्थापना करते हैं जिसको राजधानीका निर्माण सरस्वती नदीके किनारेपर आनर्तपुर नामसे हुआ था। यहाँपर वे विविध-ऋतुओंका आनन्द लेते हैं । अपनी पट्टरानीको श्रावकाचारका उपदेश देते हैं तथा महान् जिनमन्दिरका निर्माण कराके विशाल जिन बिम्बकी प्रतिष्ठा पूरे धार्मिक आयोजनके साथ कराते हैं । नास्तिकमतोंका निरूपण करके वे अपने मंत्रियोंका सन्देह निवारण करते हैं तथा उन्हें जिनधर्मज्ञ परम श्रद्धानी बना देते हैं। अपनी प्रजाका ज्ञान तथा सुख बढ़ानेके लिए ये तत्वार्थ तथा पुराणोंका उपदेश देते हैं । अनुपमा महारानीकी कुक्षिसे पुत्रका जन्म होता है, जिसका नाम सुगात्र रखा जाता है। एक दिन वरांगराज आकाशसे टूटते तारेको देखते हैं और उन्हें संसारकी अनित्यताका तीव्र भान होता है। वे दीक्षा यश MP30PATWARI Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् लेनेका निर्णय करते हैं। कुटुम्बोजन उन्हें रोकते हैं, किन्तु वे अपने धर्मपिता सेठ सागरबुद्धि तथा अन्य स्वजनों को समझा लेते हैं । कुमार सुगात्रको राजसिंहासनपर बैठाकर अन्तिम उपदेश देते हैं और श्री वरदत्त केवलीसे दैगम्बरी दीक्षा ले लेते हैं। रानियाँ भी धार्मिक दीक्षा लेती हैं । वरदत्त केवली मुनिधर्मका उपदेश देते हैं। इसके बाद राजा तथा रानियाँ, घोर तप करके अपने अन्तरंग और बहिरंग शत्रुओंको जीतते हैं । अन्तमें वरांगराज शुक्लध्यान करके सद्गतिको प्राप्त करते हैं । इस कथा वस्तुसे भी स्पष्ट है - रस, पात्र तथा चतुर्वर्गं साधक होनेके कारण यह धर्मं कथा उच्चकोटिका संस्कृत महाकाव्य हो जाती है । ग्रन्थकार — अब तक प्रकाश में आयी दोनों हस्तलिखित प्रतियों में कहीं भी ग्रन्थकारका किसी प्रकारसे निर्देश नहीं मिलता है । अर्थात् ग्रन्थकार के विषयमें अन्तरंग साक्षीका सर्वथा अभाव है। इस महाकाव्यको हमारे सामनेलाने वाले सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० उपाध्येने भी सर्गान्त में आये विशाल कीर्ति, तथा राजसिंह शब्दोंके ऊपरसे लेखकका अनुमान लगाने के प्रलोभनको ग्राह्य नहीं समझा है ।" आपाततः अन्तरंग साक्षियोंके अभाव में बाह्य साक्षियोंकी ही शोध एकमात्र गति रह जाती है । बाह्य साक्षी भी प्रधानतया दो प्रकारके हैं प्रथम साहित्यिक निर्देश, द्वितीय शिखालेख । साहित्यिक निर्देश संक्षेप में निम्न प्रकार हैं १-आचार्य जिनसेनने ( ल० ७८३ ई० ) अपने हरिवंशपुराणके प्रारम्भमें पूर्ववर्ती कवियों तथा काव्योंका सारण करते हुए वरांगचरित के लिए लिखा है “सर्वगुण सम्पन्न नायिकाके समान अर्थं गम्भीर वरांगचरित अपने समस्त लक्षणों ( अंगोपांगों ) के द्वारा अपने प्रति किसके मनमें गाढ़ अनुरागको उत्पन्न नहीं करेगा? अर्थात् वरांगचरित सबके लिए मनोहारी है । किन्तु इतना सम्मानपूर्ण होकर भी यह निर्देश केवल ग्रन्थका परिचय देता है । उसके निर्माता के विषयमें मौन है। २ - आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन द्वितीयने ( ८३८ ई० ) "काव्यकी कल्पनामें तल्लीन जिस आचार्य के जटा हमें अर्थं समझाते हुएसे लहराते हैं वह जटाचार्यं हमारी रक्षा करें" 3 कहकर किन्हीं जटाचार्यको नमस्कार किया है। इतना ही नहीं, कितनी ही बातोंमें वरांगचरित के मन्तव्योंको अपने पद्योंमें दिया है। किन्तु आदिपुराण जटाचार्यकी कृतिके विषय में मौन हैं। ३ --हरिवंशपुराणके वरांगचरित आदिपुराणके जटाचार्यमें क्या सम्बन्ध था, इस समस्याका निकार श्री उद्योतनसूरि ( ७७८ ई० ) की कुवलयमाला की । "जेहि कए रमणिज्जे वरंग - पउमाण चरिय वित्थारे । कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय-रविषेणो ॥ " १. वरांगचरितकी अंग्रेजी भूमिका, पृ० ८ ( मा० ग्र० मा० मुम्बई, ग्र० ४० ) । २. हरिवंशपुराण, प्र० अ० श्लोक ३५ । ३. "काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः । अर्थान्स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् । - आदिपुराण, सर्ग १, श्लोक ५० । ४. कॅटलोग ऑफ मैनुस्क्रिप्ट जैसलमेर भण्डार, गायकवाड़ सीरीज वो० १३, पृ० ४२ । 2278 भूमिका [७] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग भूमिका । गाथासे मिलता है । यद्यपि मा० प्रेमी जी' को 'रविषेणो' पदने द्विविधामें डाला था तथापि डॉ. उपाध्येने 'जेहि 'ते' 'कइणो'२ पदोंके आधारपर यह निर्विवाद सिद्ध कर दिया है कि उद्योतनसूरिने वरांगचरित तथा पद्मचरितके निर्माताओं जड़ियरविषेणका निर्देश किया है। ४-जडिय जटिलका भ्रान्त पाठ है यह धवलकृत हरिवंश' ( ल ११वीं शती ) के # मुणि महसेणु सुलोयणु जेण पउमचरिउ मुणि रविसेणेण। जिणसेणेण हरिवंसु पबित्तु जडिलमुणिणा वरंगचरित्तु ॥ P उद्धरणसे स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् स्पष्टरूपसे धवलाचार्य सुलोचनाचरितके निर्माता मुनि महासेन, पद्मचरितके रचयिता आ० रविषेण, हरिवंशकार आचार्य जिनसेन तथा वरांगचरितकार श्री जटिलमुनिको स्मरण करते हैं। इनके अतिरिक्त कतिपय ग्रन्थोंमें वरांगचरितके उद्धरण भी मिलते हैं। गोम्मटेश प्रतिष्ठापक मंत्रिवर चामुण्डरायने अपने त्रिष्ठि-शलाका-पुरुष-चरित में (९७८ ई०) कथा अंगोंका विवेचन करते हुए श्रोताके भेदोंको बतानेके लिए वरांगचरितके प्रथम अध्यायका १५वाँ श्लोक ज्योंका ज्यों उद्धत किया है । इस निर्देशकी महत्ता तो इसमें है कि उक्त श्लोकके पहिले चामुण्डरायने “जटासिंहनद्याचार्यर वृत्तं" भी लिखा है। दशमी शतीका यह निर्देश कुवलयमाला तथा हरिवंशपुराणके निर्देशोंका पुष्ट पोषक है । सोमदेवोचार्य द्वारा भी वरांगचरितके "क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयंभुरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषावधो गतः ॥" को उद्धृत करना भी प्रमाणित करता है कि बरांगचरित दशमी शतीमें हो पर्याप्त ख्याति तथा प्रतिष्ठा पा सका था। मर्यादा-मंत्री चामुण्डराय द्वारा 'जटासिंहनन्दि' नामसे वरांगचरितकारका निर्देश हमारा आदिपुराणके उस पार्श्वलेख4 की ओर ले जाता है जिसमें जटाचार्यका नाम 'सिहनन्दिन' लिखा है। इन उद्धारणोंके सहारे ऐसी कल्पना आती है कि वरांग चरितके प्रथम सर्गमें आया 'राजसिंह' शब्द संभवतः आचार्यके नामका आंशिक संकेत करता है क्योंकि प्रादेशिक भाषाके ग्रन्थकारोंमें भी 'जटासिहनन्दि' नामसे वरांगचरितके रचयिताका स्मरण करनेवालोंका बहुमत है १--कन्नड़ भाषाके धुरन्धर कवि पम्पने अपने आदिपुराण ( ९४१ ई० ) के आरम्भमें बड़े सम्मान और श्रद्धाके साथ । 'जटाचार्य' नामसे वरांगचरितकारका स्मरण दिया। १. पद्मचरितकी भूमिका, पृ० ३ । २. वरांगचरितकी अग्रेजी भूमिका, पृ० १० ( मा० च० ग्र०, ग्र० ४०)। ३. सी० पी तथा वरारके संस्कृत प्राकृत मनुस्क्रिप्टका कैटलोग, पृ०७६४ । ४. कर्नाटक साहित्य परिषद् द्वारा १९२८ में प्रकाशित । ।। ५. यह वाक्य त्रिषष्ठि-शालाकाचरितकी समस्त हस्तलिखित प्रतियोंमें नहीं मिलता तथापि इसकी स्थिति निर्विवाद है क्योंकि १४२७ (शक ) में की गयी इसकी ताड़पत्रीय प्रतिमें भी यह वाक्य है । ६. प्रथम सर्ग, श्लोक १२ ( मैसूर संस्करण १९००)। । [८] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् २ - धर्मामृतके रचयिता श्रीनयसेन ( १११२ ई० ) जटासिंहनन्दिको "चरित्र रत्नाकर रधिकगुणर्सज्" रूपसे स्मरण करते हैं । ' ३ - पाव पंडित अपने पार्श्वनाथ पुराणमें ( १२०५ ) जटाचार्य नामसे वरांग चरितकारकी प्रशंसा करते हैं । ४—अनन्तनाथ पुराणके कर्त्ता जन्ताचार्य ( १२०९ ) " नृपभृत्य वर्धित सुधर्मर श्री जटासिंहनद्याचार्य" रूपसे जटाचार्यका स्मरण करते हैं। ५ - पुष्पदन्तपुराणके निर्माता गुणवर्मं द्वितीय ( १२३० ई० ) भी जटाचार्यको "मुनिपुंगव जटासिंहनन्दि" नामसे प्रणाम करते हैं । करते हैं । ६- श्री कमलभव अपने शान्तीश्वर पुराण में ( १२३५ ई० ) जटासिंहनन्दि नामसे ही वरांगचरितकारका उल्लेख ७- नेमिनाथ पुराणके प्रारम्भमें महाबल कविने ( १२४५ ) भी 'जगती ख्याताचार्य' रूपसे जटासिंहनन्दिका उल्लेख किया है। टाचार्यका निर्देश करनेवाला एकमात्र शिलालेख निजाम राज्य के कोप्पल ( कोप्पन ) नामके स्थानपर पाल्कीगुण्डु पहाड़ीपर मिला है। प्राचीन कालमें यह स्थान सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थान रहा होगा जैसा कि यहाँसे प्राप्त विविध शिलालेखोंसे स्पष्ट है । यहाँपर मिले शिलालेखों में सम्राट् अशोकके भी लेख हैं। प्रादेशिक परम्पराके आधारपर कहा जा सकता है कि मध्ययुगमें भी यह स्थान जैनियोंके लिए पूज्य रहा है । जटाचार्यका निर्देशक लेख अशोकके शिलालेखके ही पास है । पत्थरपर दो चरण खुदे हैं और उनके नीचे कन्नड़ भाषामें दो पंक्तिका लेख भी अंकित है। श्मशानपर कोई स्मारक बनवा " जटासिंहनन्दि आचार्यर पदव चावय्यं माडिसिदों" जैन परम्परामें यह प्रथा प्रचलित थी कि किसी भी पूज्य पुरुषके देहत्याग स्थान अथवा देते थे और उसपर चरण चिह्न खुदवा देते थे। ऐसे स्थानोंको 'निषिदि' नामसे कहा १. सर्ग १, श्लोक १३ ( मैसूर संस्करण १९२४-६ ) । २. सर्ग १, श्लोक १४ । ३. सर्ग १, इलोक १३ ( मैसूर संस्करण १९३० ) । ४. सर्ग १ श्लोक २९ ( मद्रास संस्करण १९३३ ) । ५. सर्ग १, श्लोक १९ ( मैसूर संस्करण १९१२ ) । ५. सर्ग १ श्लोक १४ । ७. कर्नाटक साहित्य परिषद् पत्रिका, जिल्द ३२, सं० ३, पृ० १३८-५४ पर श्री एन० बी० शास्त्रीका 'कोपन- कोप्पण' शीर्षक निबन्ध | ८. हैदराबाद आरकेयोलोजीकल सीरीज, सं० १२ (१९३५) में सी० आर० कृष्णम् चारल लिखित 'कोपबलके कन्नण शिलालेख । H भूमिका [९] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराङ्ग चरितम् भूमिका SHARSINHEIRese-THE- a जाता था। 'नसियाँ' इसीका. अपभ्रंश प्रतीत होता है। यतः अनेक जैन साधु समाधिमरणके लिए कोप्पन जाते थे अतः यही सम्भव प्रतीत होता है कि जटाचार्यने कोप्पनमें समाधिमरण किया होगा जिसकी स्मृतिमें उनके परमभक्त 'चावय्यं' ने चरणपादुका बनवायी होंगी। यद्यपि इस लेखमें केवल 'जटासिंहनन्दि' का उल्लेख है तथापि नामसे उल्लेख किये जानेके कारण कहा जा सकता है कि यह लेख कन्नड़ कवियों द्वारा नमस्कृत इन्हीं वरांगचरितकार जटाचार्यका ही निर्देश करता है। इसके अतिरिक्त लेखका काल भी उक्त निष्कर्षका समर्थन करता है। लेखके अक्षरोंके आकार तथा अंकनके प्रकारके आधारपर विद्वान् सम्पादकने' इसे १०वीं शतीका लेख बताया है। इन्हीं बातोंपर विचार करके डॉ० उपाध्येका अनुमान है कि यह लेख आसानीसे ८८१ ई० के आस पासका खुदा होना होना चाहिये, क्योंकि इसके अक्षारादि वहीं मिले उस शिलालेख के समान हैं जिसमें उक्त सम्वत्का निर्देश है । डॉ० उपाध्येके मतसे यह लेख ईसाकी ८वीं शतीका भी हो सकता है। यद्यपि शिलालेख आचार्य जटासिंहनन्दिको रचनाओं आदिके विषयमें पूर्ण मौन है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि यह शिलालेख वरांगचरितकार जटाचार्यके ही समाधिमरणका स्मारक है, क्योंकि इसमें खुदा 'जटा' विशेषण इन्हें अन्य सिंहनन्दियोंसे अलग कर देता है । कन्नड़ साहित्यमें सुलभ विविध निर्देश यह बताते हैं कि जटाचार्य संभवतः कर्णाटकवासी रहे होंगे। उस समयका कर्णाटक कावेरीसे गोदावरी तक फैला था जिसमें कोप्पल पड़ता है। इतना ही नहीं, उस समयका कोप्पल विद्वानोंका मरण स्थान भी था जैसा कि कुमारसेन आदिके मरणस्थल होनेसे स्पष्ट है। इन सब साक्षियोंके आधारपर कहा जा सकता है कि जन्मजात महाकवि, उग्र तपस्वी, निरतिचार परिपूर्ण संयमी, परम प्रतापो, रंक तथा राजाके हितोपदेशी, सर्वसम्मत आचार्य तथा सुप्रसिद्ध जैन मुनि श्री जटाचार्य ही वरांगचरितके निर्माता थे । जटासिंहनन्दिका समय वरांगचरित अपने कर्ताके समान अपने निर्माणके समयके विषयमें भी मौन है। अर्थात् समयके विषयमें भी अब तक कोई अन्तरंग साक्षी हस्तगत नहीं हुआ है। फलतः केवल उत्तरवर्ती लेखकोंके समयके आधारपर इतना कहा जा सकता है कि आचार्य जटासिंहनन्दि इस वर्षके पहिले हुए होंगे। सबसे प्राचीन तथा स्पष्ट निर्देश कुवलयमालाका है। कुवलयमालाकार श्री उद्योतनसूरिके बाद श्री जिनसेनाचार्य प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें वरांगचरितका उल्लेख किया है। इनके बाद जिनसेन द्वितीयने आदिपुराणमें इस ग्रन्थका निर्देश किया है। जहाँ पम्पने जटाचार्यका स्मरण किया है वहीं आदर्श-मंत्री चामुण्डरायने वरांगचरितके उद्धरण दिये हैं। इनके बाद धवल, नयसेन, पाचपंडित, जन्न, गुणवर्म, कमलभव तथा महाबल कविने वरांगचरित या जटाचार्य या दोनोंको स्मरण किया है। अर्थात् जटाचार्य और उनका वरांगचरित ८वीं शतीके चतुर्थ चरणमें ही पर्याप्त प्रसिद्ध हो गया था क्योंकि उद्योतनसूरिका समय ७७८ ई० निश्चित-सा हो है। हरिवंशपुराणके प्रारम्भमें आया वरांगचरितका उल्लेख भी १. है. आ० सी, सं० १२ (१९३५ ) में केवल प्राचीन लिपि अध्ययनके आधारपर । २. इस शिलालेखके च, चा, व, प, आदि वर्ण कन्नड़के उन शिलालेखोंके इन वर्गों से बिल्कुल मिलते हैं जिनपर ८८१ ई० सम्वत् खुदा है। यदि विसदृशता है तो केवल ज वर्णकी खुदाईमें है । इन्हीं हेतुओंके आधारपर डॉ० उपाध्ये शिलालेखका समय ८वीं शतीमें ले जाते हैं। HERSHIPe-wes [१० Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARASHeaue-e भूमिका ses ! इसी बातकी पुष्टि करता है क्योंकि यह ७८३ ई० में समाप्त हुआ था। फलतः यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि ८३८ ई० के लगभग 1 अपना आदिपुराण प्रारम्भ करते हुए आचार्य जिनसेन द्वितीयको जटाचार्यके लहराते जटा अर्थ समझातेसे लगे। आदिपुराणके में । इस निर्देशसे प्रतीत तो ऐसा होता है कि संभवतः, यदि आचार्य जिनसेनने जटासिंहनन्दिके दर्शन नहीं किये थे तो उनकी किसी वराज । मूर्ति या चित्रको अवश्य देखा था यही कारण है कि उनके मानस्तलपर लहराते जटा चित्रित हो रह गये। चरितम् ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, जटाचार्य और वरांगचरितकी ख्याति बढ़ती ही गयो। इसीलिए १०वीं शतीमें महाकवि पम्पने इन्हें सविनय स्मरण किया और चामुण्डरायने तो इनके उद्धरण ही दे डाले यही अवस्था ११वी १२वीं शतीमें हुए महाकवि धवल तथा नयसेनकी है। १३वीं शतोमें तो वरांगचरित और जटाचार्य कवियोंके आदर्श बन गये थे क्योंकि पार्श्वपंडित (१२०५ ), जन्न ( १२०९), गुणवर्म ( १२३० ), कमलभव (ल. १२३५ ) तथा महाबलकवि ( १२५४ ) ने इसी शतीको गौरवानन्वित किया था। महत्त्वको बात तो यह है कि वरांगचरित और उसके रचयिताको ८वीं शतीके उत्तरार्द्धमें ही समस्त भारत तथा सम्प्रदायोंमें मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। क्या इस ख्याति और लोकप्रियताको पानेमें कुछ भी समय न लगा होगा? । स्वाभाविक तो यही है कि उस प्रकाशन तथा गमनागमनके साधन विरल युगमें इस ख्यातिने पर्याप्त समय लिया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि वरांगचरित अपने ढंगको सर्वप्रथम चतुर्वर्ग समन्वित धर्मकथा थी। फलतः इसे विश्रुत होनेमें उतना अधिक । समय न लगा होगा जितना कि उस युगमें लगना चाहिए था तथापि उद्योतनसूरि तक पहुँचनेमें इसे कुछ समय अवश्य लगा। होगा । उद्योतनसूरिका निर्देश तो यह भी सूचित करता है कि आचार्य रविषेणके सामने भी वरांगचरित था। आचार्य जटिल ॥ द्वारा किसी पूर्ववर्तीका निर्देश न किया जाना भी इसका पोषक है। बरांगचरितकी आदि-काव्यता जहाँ उसकी प्रतिष्ठाका प्रसार करती है वहीं यह भी कठिन कर देती है कि वे किसके बाद हुए होंगे । अर्थात् उनके समयकी पूर्वसीमा दुरूह हो रह जाती है। ग्रन्थमें आगत व्यक्ति तथा पुरुषोंके नामादि भी इस दिशामें विशेष सहायक नहीं हैं क्योंकि जैन पुराणोंको इतिहास करनेवाला 'पार्जीटर' आज भी समयके गर्भ में है। वर्ण्य विषय, विशेषकर तत्त्व चर्चाओंके आधारपर भी बलपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि जटाचार्यने इस आचार्यके इस तत्त्वशास्त्रका विशेष रूपसे अनुसरण किया है। क्योंकि समस्त तत्वशास्त्र उपलब्ध भो नहीं है और जो हैं वे प्रवाहपतित हैं । इनमें आये सैद्धान्तिक तथा दार्शनिक विवेचन इतने सदृश हैं कि उनके आधारपर पूर्वा-परताका निर्णय करना विज्ञान विरुद्ध है उदाहरणार्थ-वरांगचरितका नय आदिका वर्णन यदि सिद्धसेनसे मिलता-जुलता है तो सामायिकादिका वर्णन दशभक्तिसे अर्थात् और कुन्दकुन्दाचार्य पूज्यपादसे मिलता है। इसी प्रकार अनेकान्तका स्वरूप समन्तभद्र सदृश है, तो तत्त्वोंका समस्त विवेचन उमास्वामिसे मिलता है। फलतः इनके आधारपर यदि जटाचार्यके समयकी पूर्व सीमा निश्चित की जाय तो प्रथम शती ( ईसापूर्व ) से लेकर ई० ७वीं शती तक आवेगा । यह निष्कर्ष किसी निश्चित समयकी ओर न ले जा कर संशयको हो बढ़ायेगा। नय विवेचन, अथवा अनेकान्त । निरूपण अथवा व्रतादिके लक्षण अथवा ज्ञानचरित्रकी सफल सहगामिता आदिके निदर्शन; इन सबका मूलाधार केवलीका वह ज्ञान था जो आचार्य परम्परासे चला आ रहा था। तथा जिसके आधारपर आचार्योंने उस समय अपनी-अपनी रचनाएं की थीं, है जब लोगोंके क्षयोपशम क्षीण होने लगे थे । फलतः इसके आधारसे, यदि तत्तत् लेखकों के समयके अन्य साक्षो उपलब्ध हों तो यह -e-HI-SHIDARSHeameapests reORIESचयाचारAIRSARELI [११] Jain Education interational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAGRA वराङ्ग चरितम् R HTI-IMERatop arametersSATTHANI निष्कर्ष तो निकाला जा सकता है कि किस परिस्थितिसे प्रेरित होकर किस आचार्यने किस मान्यताकी व्याख्यामें क्या है परिवर्तन, परिवर्द्धन अथवा वर्गीकरण किया था, किन्तु अन्य साक्षियोंके अभावमें उनके ही बलपर कोई निश्चय नहीं किया जा सकता है। यतः १-उद्योतनसुरिने वरांगचरितको पद्मचरितसे पहिले तथा जटाचार्यको रविषेगसे पहिले रखा है, २-वरांगचरित भूमिका आचार्यको प्रारम्भिक कृति है जैसा कि उसकी अलंकृत कविता, विद्वत्तापूर्ण विवेचन तथा सिद्धान्त-तत्त्व चर्चा और पौराणिक वर्णनोंसे स्पष्ट है अतएव जटाचार्य अपनी कृतिको सर्व विश्रुतिको स्वयं भी देख सके होंगे अर्थात् उन्होंने बहुत लम्बी आयु पायी होगी । ३-आचार्य जिनसेन द्वितीयने अपने आदिपुराणको ८वीं शतीके अन्त अथवा ९वीं शतीके प्रथम चरणमें प्रारम्भ किया था। ये इसे अपूर्ण छोड़कर ही स्वर्ग सिधार गये और इनके प्रधान शिष्य श्री गुणभद्राचार्यको उसे समाप्त करना पड़ा। अर्थात् आदिपुराण आचार्य जिनसेन (द्वि० ) को बुढ़ापेकी कृति थी । तथा इन्होंने जटाचार्यको ऐसे स्मरण किया है मानो उन्हें इन्होंने देखा ही था । ४-इतना ही नहीं इन्होंने सिद्धसेन, समन्तभद्र, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र और शिवकोटिके बाद जटाचार्यका स्मरण किया है अतएव कहा जा सकता है कि श्री जटाचार्यका समय ७वीं शतीके आगे नहीं लाया जा सकता। कोप्पलका शिलालेख भी इसी बातकी पुष्टि करता है । इसके विषयमें डॉ० उपाध्ये' ने ठीक ही लिखा है कि आचार्यश्रीके समाधिमरणके बहुत समय बाद श्री चावय्यं यात्रार्थ कोप्पन पहुँचे तो उन्होंने देखा कि कालान्तरमें लोग यह भूल हो जायंगे कि जटाचार्यका भी यहाँ समाधिमरण हुआ था । एक ऐसे आचार्यके मृत्यु स्थानको लोग भूल जायँ जिसने अपने उपदेशों द्वारा देशके कोने-कोनेको प्रबुद्ध किया था तथा धर्मकथा लिखनेके तीर्थका प्रवर्तन किया था। यह बात उन्हें बहुत खटकी और उन्होंने लोकश्रुतिके आधारपर उस स्थानपर आचार्यश्रीके चरण सैकड़ों वर्ष बाद खुदवा दिये। फलतः उपलब्ध साक्षियोंके आधारपर जटाचार्यका समय ई० को सातवीं शतीके आगे ले जाना समुचित न होगा। जटाचार्यका कवित्व यथार्थ तो यही है कि जटाचार्यको स्वयं यह अभीष्ट न था कि वे कवियों की कोटिमें रखे जायें। यदि ऐसा न होता वेग अपनी इस कृतिको 'चारों वर्ग समन्वित धर्मकथा' स्वयं क्यों कहते ? तथा इसके बहुभागको सिद्धान्त और तत्त्व चर्चासे क्यों भरते। चतुर्थ सर्गका कर्म प्रकरण, पांचवेंका लोक-नरक वर्णन, छठेमें तिर्यञ्च योनिका विवेचन, सातवेंमें भोगभमि, आठवें में कर्मभूमि, नवेंमें स्वर्गलोक, दशमें मोक्षका दिग्दर्शन, ग्यारहवें के प्रारम्भमें मिथ्यात्वोंका प्ररूपण, पन्द्रहवें के उत्तरार्द्धमें बारह व्रतोंका उपदेश, बाइसमें गृहस्थाचारका निरूपण, तेइसवेंको जिनेन्द्र प्रतिष्ठा तथा पूजा, चौबीसवेंका परमत निरसन, पच्चीसवेंमें जगत् कर्तृत्व, वेद-ब्राह्मण-विविध तीर्थोकी व्यर्थता, छब्बीसवेंका द्रव्यगुण प्रकरण, प्रमाणनय विवेचन, सत्ताइसवेंका त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित चित्रण, अट्ठाइसमें बारह भावना, तथा इकत्तीसवेंका महाव्रत-समिति-गुप्ति ध्यान आदिका विवेचन ह स्पष्ट ही बताता है कि यह ग्रन्थ धर्मकथा हो नहीं है, अपितु इसका बहुभाग धर्मशास्त्र ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धांत और न्यायशास्त्रसे भागनेवाले सुकुमार मति पाठकोंके लिए ही आचार्यने अपना अध्ययन समाप्त होते ही यह रचना की थी। १. संस्कृत वरांगचरितकी भूमिका, पृ० २३ ( मा० ग्र० मा०, पु० ४०) EIRELEASILADARIASIREDITORIERSITES Jain Education intemational For Privale & Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् यही कारण है कि प्रारम्भिक सर्गों में स्पष्ट, कवित्वके आगे दर्शन नहीं होते। इसका यह तात्पर्य नहीं कि आगेकी रचना माधुर्य, न सुकुमार कल्पना, सजीव सांगोपांग उपमा, अलंकार बहुलता तथा भाषाके प्रवाह तथा ओजसे होन है, क्योंकि, तत्त्व विवेचन ऐसे नीरस प्रकरणमें भी कविको प्रतिभा तथा पांडित्यके दर्शन होते ही हैं। घटनाओंके ऐसे सजीव चित्रण हैं कि उन्हें पढ़ते-पढ़ते मानस क्षितिजपर उनकी झाँको घूम जाती है। सदुपदेश' तो जटाचार्यको सहज प्रकृति है। जहाँ कतिपय दृश्य अस्वाभाविकसे । भूमिका लगत लगते हैं वहीं युद्ध, अटवी, आदिके वर्णन इतने मौलिक तथा सजीव है कि वे वाल्मीकि और व्यासका स्मरण दिलाते हैं। प्रत्येक वस्तुकी सूक्ष्मसे सूक्ष्म विगत देना और दृश्योंका ताँता बाँध देना भो वरांगचरितकारकी अपनी विशेषता है । जब वे चरित्र चित्रण करते हैं तो आवृत्ति, अनुप्रास, आदिका भी प्रयोग करते हैं। वरांगचरितका जो मूलरूप हमें प्राप्त हुआ है वह इतना विरूपित है कि उसके आधारपर कविके कवित्वको परख करना उचित न होगा । तथापि यह कविकी असाधारणता है कि उनकी पूरी कृतिमें प्रसाद और पाण्डित्यकी पुट पर्याप्त है । इन आधारोंपर उन्हें पुराणकार महाकवि कहना अनुचित न होगा। निरंकुशाः कवयः संस्कृतके युगनिर्माता महाकवियोंके समान जटाचार्यने अपनी रचनामें जहाँ सर्वत्र व्याकरणके पाण्डित्यका परिचय दिया है वहीं, कहीं-कहीं उनको अबहेला भी की है। वरांगचरितमें आये संधि-स्थलोंकी समीक्षा करनेपर स्पष्ट हो जाता है कि जटाचार्यने प्रचलित संधि-नियमोंका निर्वाह किया है। तथापि ऐसे स्थल भी हैं जिन्हें देखकर यह समझना कठिन हो जाता है कि आचार्यने किस व्याकरणका पालन किया है । श्रोत्राल्मनोके स्थानपर श्रोतात्मनो (१-११), आदि सदृश अनेक स्थल हैं। आश्चर्यकी बात तो यह है कि छन्दके प्रथम एवं द्वितीय तथा तृतीय एवं चतुर्थ चरणोंके बीच में भी आचार्यने संधि करनेको आवश्यक नहीं समझा है। ऐसे स्थलोंके विषयमें कहा जा सकता है कि यतः हस्तलिखित प्रतियाँ भृष्ट हैं अतः यह भूल लिपिकने को है किन्तु 'नं च इष्ट सपत ( ८-३९), स्याद्वादः खलु (१६-८१), आदि विसंधि-स्थलोंके विषयमें क्या कहा जाय । '.."मुक्षेत्र यज्ञो' ( २८-४२), आदि तो ऐसे स्थल हैं जिन्हें 'कुसंधिके सिवा दूसरे शब्दोंसे कहना भी शक्य नहीं है। - शब्दरूपोंकी दृष्टिसे भी वरांगचरित्र वैचित्र्यपूर्ण है 'धूपवहाश्चगेहाः' (१-२५ ), 'जिनेन्द्र गेहो' ( २१-३०) आदि स्थल यही बताते हैं कि आचार्य गृह, चूर्ण, चक्र, आदि, शब्दोंको पुंलिङ्ग हो मानते थे। प्राण शब्द नित्य बहु वचनान्त है किन्तु आचार्यने इसकी भी अवहेला ( २९-३-४ चरण ) को है। 'ननाम स्वसारः' 'तासु गतोषु' आदि ऐसे प्रयोग हैं जिन्हें कवियोंको निरंकुशताके सिवा और क्या कहा जाय ।। धातुरूपोंने तो शब्द रूपोंके वैचित्र्यको भी मात कर दिया है। 'भपयन्ति-असुरा' 'विटाश्चधुः' कुमारं मृगयामि, मनजास्तू प्रसवन्ति क्षीरमथाददाति' आदि रूपोंको देखकर यही लगता है कि आचार्यने संस्कृत धातुओंके परस्मै तथा आत्मने [१३] १. सर्ग ११-६६, १८-१४, ६५ तथा ११९, २८-६, आदि । २. सर्गमें वर्णन, १२ में अश्व-प्रतियोगिता, व्याघ्र, गजप्रतियोगिता, आदि १३ में नक्रासन, यक्षी-परीक्षा आदि । 1 ३. १५ में राजवधुओंका उपदेश, २२ में रानियोंको उपदेश, २८ में सागरबुद्धि पिता, आदिको उपदेश । mawareneumsprese arera Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग भूमिका पद विभागसे भी मुक्ति ली है। ऐसी स्थितिमें सहायक पद तथा धातुरूपके अन्तरालमें शब्द प्रक्षेपण ऐसो सुप्रचलित कवि मान्यताको यहाँ समीक्षा करना पिष्टपेषण ही होगा। 'दूतवरान्ससर्ज' मति संनिदध्युः' 'स्वबन्धु मित्रान् ""जुहुः', आदि प्रयोग पद। व्यपलोपसे भी अधिक वैचित्र्यपूर्ण हैं । 'यथेष्टमुपभोग परीप्सयिन्यः' 'विधातयन्ति सम्यक्वं' 'तोदयन्ति' 'चषयन्ति' आदि प्रयोग ने भी अपने स्थानपर कम वैचित्र्य पूर्ण नहीं हैं। उपसर्ग संयोगसे पद परिवर्तन संस्कृति व्याकरणको 'सुप्रसिद्ध पद्धति है किन्तु आचार्यने उसे भी कालिदासादिके समान पद-दलित किया है। संज्ञा और विशेषणोंको भाववाचक बना देना आचार्यश्रीको अपनो विशेषता है अदृश्य रूप (१४-२०), गाध ( २०-२४), उत्सुक ( २२-७६ ), निराश्रय ( २१-६३ ), निरमल ( २५-४५), आदि दृष्टान्तोंको वरांगवरितमें भरमार है। इसी प्रकार कारकोंके प्रयोग, कृदन्त रूपों तथा तद्धितान्त शब्दोंके रूप भी विचित्र हैं। सबसे बड़ी विचित्रता यह है । कि जटाचार्य ने कुछ ऐसे शब्दोंका प्रयोग किया है जिन्हें कठोर-संस्कृत-सम्प्रदायवादी सहज हो सहन नहीं कर सकते । उदाहरणार्थ विकसितके लिए फुल्ल ( २.७३ ), वृषभके अर्थ में गोण ( ६-१५), आदि शब्द । मैथुन, बर्करा, अद्धा ( काल ), आवहिता, सम्पदा, सादन आदि प्रयोग स्पष्ट ही अपनी प्राकृत अथवा प्रान्तीय भाषासे उत्पत्तिका स्मरण दिलाते हैं। कठोर संस्कृतवादी इन सब प्रयोगोंको कविको निरंकुशता हो कहेंगे। पर मेरी दृष्टिसे ये प्रयोग संस्कृतके इतिहासके 'माइल स्टोन' हैं। ये बताते हैं कि 'प्रकृतिस्तु संस्कृतम्' मान्यता वेद-ब्राह्मणको सर्वोपरिताके समान भाषा जगत्में संस्कृतकी सर्वोपरिताको स्थापनाके लिए गढ़ा गया था। वास्तवमें प्रकृति प्राकृत हो है उसका मनुष्यकृत अतिबद्ध रूप संस्कृत है। इसीलिए काव्य युगके महापुरुष जटाचार्यने संभवतः इसके जीवित रूपको ही अपनाया है। यदि ऐसा उन्हें अभीष्ट न होता तो वे तत्तत् भाषाओंके शब्द तथा सरल शब्दधातु रूपादिको इतना न अपनाते । केवल छन्दोंको मात्रा संख्या ठोक रखने के लिए ही इतना बड़ा कवि व्यापक रूपसे व्याकरण नियमोंको इच्छानुसार ढाले यह संभव नहीं प्रतीत होता। जटाचार्यको कृतियाँ वरांगचरितके सिवा अब तक आचार्य जटासिंहनन्दिको दूसरो कृति सुननेमें नहीं आयो है । यदि यह सत्य है कि वरांगचरित आचार्यकी अप्रौढावस्थाकी कृति है तो उन्होंने अन्य ग्रन्थ अवश्य रचे होंगे, जैसा कि उत्तरकालीन कवियोंके ससम्मान । स्मरण और सम्बोधनोंसे स्पष्ट है । इसको पुष्टि योगोन्द्र-रचित अमृताशीतिमें आये निम्न श्लोकसे भी होती है"जटासिंहनद्याचार्य वृत्तम् तावत क्रिया: प्रवर्तन्ते यावद् द्वैतस्य गोचरम् । अद्वये निष्कले प्राप्ते निष्क्रियस्य कूतः क्रिया ।" __ यतः इस श्लोककी शैली ( सापेक्ष पदोंका प्रयोग ) जटाचार्यको हो प्रतीत होती है तथा यह वरांग-चरितमें नहीं आया है अतः स्पष्ट है कि यह पद्य योगीन्द्राचार्यने आचार्य जटासिंहनन्दिके उस ग्रन्थसे लिया होगा जो आज लुप्त है। जटाचार्यका जैनसिद्धान्त पाण्डित्य अमृताशीतिमें उद्धृत उक्त पद्यसे भासित होता है तथा वरांगचरितके धर्मशास्त्रमय वर्णनोंसे स्पष्ट हो जाता है कि [१४] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग परितम् FAAAAAAA जटाचार्य जैनसिद्धान्तके प्रगाढ़ पंडित थे । जब वरांगचरितके चौथे सर्ग में पहुंचते हैं तो यह ध्यान ही नहीं रहता कि किसी काव्य-1 को देख रहे हैं अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मशास्त्रका अध्ययन चल रहा है। डॉ० उपाध्येने ठीक हो अनुमान किया है । कि आचार्य गृद्धपिच्छके तत्वार्थसूत्रको ही सुकुमारमति पाठकोंके सामने रखनेके लिए आचार्यने वरांगचरितकी सृष्टि की होगी। जैन सिद्धान्तका कोई भी ऐसा सिद्धान्त नहीं है जिसका आचार्यने वरांगचरितमें प्रतिपादन न किया हो। गृहस्थाचारसे लेकर 1 भूमिका ध्यान पर्यन्त सभी बातोंका सांगोपांग वर्णन इस ग्रन्थमें उपलब्ध है। जटाचार्य की दृष्टिमें काव्य 'अकल्याणके विनाश' तथा 'तुरन्त वैराग्य और निर्वाणके लिए'२ ही था। आचार्यने देखा होगा कि लोगोंकी प्रवृत्ति धर्मशास्त्रोंके स्वाध्यायसे हटती जाती है। वाल्मोकिकी रामायणादि ऐसे काव्य ग्रन्थोंकी ओर बढ़ रही है। उन्हें तो लोककल्याण हो अभीष्ट था फलतः उन्होंने रत्नत्रय स्वरूप अर्हद्धर्मके ज्ञान तथा आचरणके लिए यह धर्मकथा ( महाकाव्य ) रच डाली। यही कारण है कि वर्ण्य विषयोंका क्रम तथा कहीं-कहीं पद्योंका भाव सहज ही सूत्रकार तथा उनके सूत्रों को स्पष्ट समतामय दिखता है। आचार्यने इस बातका पूरा ध्यान रखा है कि कोई मौलिक चर्चा छूट न जाय यही कारण है कि चौथेसे दशवें सर्ग तक गतियोंका वर्णन कर चुकनेपर उन्होंने देखा कि इस सबके मूल हेतु सम्यक्त्व-मिथ्यात्वका स्वरूप तो रह गया। फिर क्या था ग्यारहवें सर्गके प्रारम्भमें युवराजके द्वारा प्रश्न किया जाता है और संसार तथा मोक्षके महाकारण रूपसे इन दोनोंका निरूपण हो जाता है। तथ्य तो यह है कि सैद्वान्तिक तथा दार्शनिक चर्चाओंके कारण ही इस आदि महाकाव्य में भाषा प्रवाह, सुकुमारकल्पना, अलंकार बहुलता आदिको उस मात्रामें नहीं पाते जिस मात्रामें उनका प्रारम्भ हुआ था, अथवा कालिदासादिके महाकाव्योंमें पायी जाती है । यह तो जटाचार्यकी लोकोत्तर प्रतिभा थी जिसके बलपर वे तत्त्वचर्चा ऐसे नीरस विषयको लेकर भी अपनी कृतिकी काव्यरूपताको भी अक्षुण्ण रख सके। सिद्धान्तके समान आचार्यका न्यायशास्त्रका ज्ञान भी विशाल था। आचार्यके इस ज्ञानका उपयोग जैन-सिद्धान्तकी मल मान्यता कर्मवादकी प्रतिष्ठामें हुआ है । अन्तरंग तथा बहिरंग पराधीनताके कारण कर्तृत्ववादपर उनका मुख्य आक्रमण है। उन्होंने कालवाद, दैववाद, ग्रहवाद, नियोगवाद, नियतिवाद, पुरुषवाद, ईश्वरवाद, आदि समस्त विकल्पोंको उठाकर इनका बड़े सौन्दर्यके साथ अकाट्य युक्तियों द्वारा परिहार किया है। इनके एकान्त स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए इनको प्रत्यक्षवाधित सिद्ध किया है । बलिवादका चित्रण करते हुए जटाचार्य कहते हैं कि वह बलि क्या फल देगी जो आराध्य देवोंमें पास जानेके पहिले ही काकादि पक्षियों द्वारा खा ली जाती है। और पहुँचतो भी हो तो वह देव क्या करेगा जो भेंटके लिए लालायित रहता है। 'समय ही प्रत्येक वस्तुका बलाबल' करता है तो संसारके कार्योंमें इतनी अधिक अव्यवस्था तथा आकस्मिकता क्यों है ? यदि अनुकूल प्रतिकूल ग्रह ही लोगोंके शुभ तथा अशुभको करते हैं तो यह सबसे बड़ी वञ्चना है क्योंकि भले-बुरेके अन्य प्रत्यक्ष हेतु देखने में आते ही हैं । इतना ही नहीं स्वयं सूर्य तथा चन्द्रमा अपने सजातीय राहु तथा केतुके द्वारा क्यों ग्रसे जाते हैं और [१५] १. वरांगचरितकी भूमिका, पृ० २० । २. "काव्यं".."शिबेतर क्षतये । सद्यः परिनिवृतये ॥" ( काव्यप्रकाश)। Jain Education intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग भूमिका चरितम् विपत्तिमें पडते हैं ? स्वभाव ही सबका कर्ता-धर्ता है यह मान्यता भी नहीं टिकती क्योंकि साक्षात् दुष्ट सांसारिक घटनाएं इसके विरुद्ध हैं । नियतिकी जगत-कारणता भी प्रत्यक्ष तथा तर्कसे बाधित है । यदि निर्लेप पुरुष संसारका कारण है तो पुण्य कार्य किस में लिए करणीय हैं ? ईश्वर संसारका कारण है यह मान्यता तर्कको कसौटीपर नहीं टिकती। शून्यवादका परिहास करते हुए आचार्य कहते हैं कि "जब विज्ञप्निका हो शून्य ( निषेध ) हो जायगी तब किसके द्वारा, क्या और कौन जानेगा।" इसके सिवा शून्यवाद आत्मबाधित हो है । प्रतीत्यसिद्धि भी ऐसी अवस्थामें कोई सहायता नहीं कर सकती है। इस प्रकारसे समस्त एकान्तों (नय दृष्टियों) का निरसन करके अन्त में आचार्य कहते हैं कि अनेकान्तवाद द्वारा ही तत्त्व व्यवस्था होती है क्योंकि वह सापेक्षवादपर आश्रित है । तथा इस संसारका न कोई करता है और न कोई धरता है षड् द्रव्यमय यह अपने कर्मोंसे प्रेरित स्वयमेव चलता है। जन्मना वर्ण तथा गोत्र व्यवस्थापर भी जटाचार्यने घोर प्रहार किया है। जन्मना ब्राह्मण होनेके ही कारण पूज्य पुरोहितोंकी चर्चा करते हुए उन्होंने एक बाणसे दो लक्ष्यों ( जन्मना वर्णव्यवस्था तथा यज्ञ यागादिकों) का भेदन किया है। हिंसाको निन्दा करते हुए वे कहते हैं कि यदि यज्ञमें बलि किया गया पशु स्वर्ग जाता है यह सत्य है तो स्वर्गादिके लिए लालायित पुरोहित अपने स्वजनोंकी बलि क्यों नहीं करते ? यदि हिमामय यज्ञोंके कर्ता स्वर्ग जाते हैं तो नरक कौन जायगा? इसके बाद वे पुरुदेव प्रोक्त हव्यादिका निरूपण करते हैं। वैदिक निदर्शन देकर ही वे पूछते हैं-यदि एक ब्राह्मणकी विराधनाके कारण कुरुराजाको नरक जाना पड़ा तो अनेक पशुओंका व्याघात करनेवाला याज्ञिक क्यों नरक न जायगा? इसी प्रसंगवश वे ब्राह्मणत्वको भी खबर लेते हैं । कहते हैं यदि ब्राह्म तेज सर्वोपरि है तो ब्राह्मण राजद्वारके चक्कर क्यों काटते हैं ? राजाश्रयमें ही अपने आपको कृत-कृत्य क्यों मानते हैं ? यदि ज्ञान, चारित्र तथा अन्य गुणोंका अभाव ब्राह्मणकी अवज्ञाका कारण है तो जन्म ब्राह्मणत्वका प्रतिष्ठापक कैसे हुआ। इसके बाद वे व्यास, आदि अनेक ऋषियोंको गिनाते हैं जिन्होंने अपनी साधनाके बलपर ब्राह्म तेजको प्राप्त किया था। गंगा तथा भीष्मको चर्चा करके उन्होंने लोक-मूढ़ताओंका भी निराकरण कर दिया है। तीर्थोकी तीर्थता महापुरुषोंकी साधनाके कारण है, स्थानमें गुण नहीं है यह सिद्ध करते हुए उन्होंने जिनेन्द्रदेवको आप्त सिद्ध किया है। असंभव नहीं कि आचार्यने किसी न्याय-ग्रन्थका भी निर्माण किया हो । जटाचार्यके पूर्वगामी यद्यपि आज तक यही प्रचलन है कि आचार्य रविषेणने पद्मचरितकी रचना वरांगचरितसे पहिले की होगी तथापि ऐसे कोई भी प्रमाण सामने नहीं आये हैं जिनके आधारपर निश्चित रूपसे इस कल्पनाको सिद्ध किया जा सके। वरांगचरितके प्रारम्भिक भागको देखनेपर तो इसके विपरीत दिशामें कल्पना दौड़ने लगती है। जब कि अपने पूर्ववर्ती लेखकों तथा ग्रन्थोंके स्मरणकी काव्य परम्परा थी तब जटाचार्यने हो क्यों एक भी पूर्ववर्तीका स्मरण नहीं किया है ? यह शंका उन्मस्तक होकर खड़ी हो जाती है । सांगोपांग आद्य-मंगल करनेवाले जटाचार्य क्या ऐसी भूल कर सकते थे कि उनके पहिले कोई ख्यात ग्रन्थकार हो चुके हों और वे उनका स्मरण भी न करें। कुवलयमालाका निर्देश तो यही सिद्ध करता है कि जटाचार्य आद्य महाकवि थे और SAMAGEमस्यामाराHISAUTHORE Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका वरांगचरित आद्य-महाकाव्य था । हरिवंश पुराणका निर्देश यद्यपि रविषेणाचार्यकी काव्यमयी मूर्तिको बरांगचरितसे पहिले रखता A है तथापि इसके हो आधारपर पूर्वापरताका निर्णय दे देना शीघ्रकारिता होगी, क्यों उद्योतनसूरि ही नहीं, आचार्य जिनसेन (द्वितीय ) की दृष्टि में भी जटाचार्य प्रथम महाकवि थे। पद्मचरित तथा वरांगचरितके नामोंको सदृशता, उद्योतनसूरि द्वारा पहिले 'जडिल' का स्मरण फिर रविषेणका निर्देश आचार्य जिनसेन प्रथम द्वारा एक ही साथ सा पद्मचरित तथा वरांगचरितका । महिमागान तथा जिनसेन द्वितीय द्वारा केवल जटाचार्यका संस्तवन यही संकेत करता है कि वरांगचरित प्रथम महाकाव्य था। चरितम् मंत्रिवर चामुण्डराय आदिके निर्देश भी इसी निष्कर्षका संकेत करते हैं। अपभ्रंश हरिवंश पुरागका निर्देश यद्यपि इस क्रमसे नहीं, है नथापि इसमें कालक्रमका ख्याल करके ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारोंके नाम दिये हों ऐसी बात भी नहीं है। क्योंकि यह रविषेणके । पद्मचरितके साथ-साथ जिनसेन प्रथमके हरिवंशका भी वरांगचरित और जटिलमुनिसे पहिले उल्लेख करता है। देशो भाषाके - कवियोंके निर्देशोंके द्वारा भी इसी मान्यताका समर्थन होता है क्योंकि उनमें केवल जटासिंहनन्दिके स्तोताओंका ही बहुमत है। । पद्मचरित जहाँ विस्तृत मंगलाचरण करता है वहीं वह भी अपने पूर्ववर्तियोंके विषयमें सर्वथा मौन है। सौभाग्यसे रविषेणाचार्यने अपनी कृतिके अन्त में समय दे दिया है अतएव उनका समय निश्चित है किन्तु वरांगचरित समयके विषयमें कोई भी सबल संकेत नहीं देता है फलतः इन दोनों पुराण ग्रन्थोंके आदिमें पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंका अनिर्देश तथा उत्तरवर्ती उद्योतनसूरि, जिनसेनाचार्य प्रथम तथा द्वितीय आदिके निर्देशोंके आधारपर यही कल्पना होती है कि जैन-कवि परम्परामें जटाचार्य आदि पुरुष । रहे होंगे। जटाचार्यके सहगामी वरांग-चरितके वस्तु तथा वर्णन आदिको देखनेपर पता चलता है कि जटाचार्यने सुसंयत जीवनका उपदेश दिया है। इस संयत जीवनको प्राण प्रतिष्ठा करते हुए जटाचार्यने जैनाचार-विचारका उपदेश दिया है। इसलिए जैन पारिभाषिक शब्दोंका बहुलतासे प्रयोग करके अपने काव्यको संस्कृतज्ञोंके लिए भी श्रमसाध्य बना दिया है। संसारकी अनित्यता, धर्मकी श्रेष्ठता, मनुष्य जन्मकी दुर्लभता धर्म-अर्थ-कामादिका 'परस्पराविरोधेन' केवन आचार्यके मुख्य विषय हैं। इन सब बातोंको दृष्टिमें रखते। हुए जब हम अश्वघोषकी कृतियोंको देखते हैं तो दोनोंकी समता 'हाथका आँवला' हो जाती है । अश्वघोषने भी त्याग मय जीवन-g का उपदेश दिया है इसके लिए उन्होंने बौद्ध आचार-विचारका प्रतिपादन किया है। इनकी कृतियोंमें भी बौद्ध पारिभाषिक पदों।। की भरमार है और वे विद्वजन संवेद्य हैं। 'चतुरार्य सत्यों का प्रतिपादन इनका थी मुख्य विषय है। इसके सिवा अश्वघोषकी । कृतिका नाम बुद्धचरित तो जटाचार्यको इनके अति निकट ला देता है क्योंकि इनकी कृतिका नाम भी वरांग चरित है। वेद ब्राह्मणकी सर्वोपरिताके समान संस्कृतको श्रेष्ठताको अश्वघोषने भो नहीं माना है। इनके सौन्दरनन्द तथा बुद्धचरितमें व्याकरण । विषयक वैचित्र्य जटाचार्यके हो समान हैं। चोनो यात्रो ह्वेनसांग द्वारा उस युगमें दक्षिण-भारतमें बौद्धधर्मको फलता फूलता लिखना यह निष्कर्ष निकालनेके लिए बाध्य करता कि जटाचार्यने शायद अश्वघोषको कृतियाँ देखी होंगी। यदि ह्वेनसांगके विवरणमें वह दृष्टि न होती जो एक अति श्रद्धालु धार्मिक यात्रीकी होती है। तथा अश्वघोषको कृतियोंकी प्रतियाँ दक्षिणभारतमें भी मिलीं होती तो यह कल्पना कुछ आधार हो सकती थी। संयोगकी बात है कि अब तक जितनी भी प्रतियाँ अश्वघोष [१७] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार भूमिका चरितम् । के ग्रन्थोंकी मिली हैं वे सबकी सब उत्तर भारतमें ही मिली हैं। इसके सिवा जटाचार्य द्वारा पालो गयों काव्य-परम्पराएं जैन A । कवि-मार्गमें बहुत पहिलेसे चली आ रही थी। इसलिए यह कहना कठिन है कि जटाचार्यने इनके लिए अश्वघोषसे प्रेरणा पायी होगी। इतना निर्विवाद है कि उस युगमें धार्मिक कट्टरता ऐसी नहीं थी जैसो कि मध्ययुगमें थी। यही कारण है कि जटाचार्य । ने पर्याप्त दृष्टान्त वैदिक पुरुषोंके हो दिये हैं। उस युगमें जड़ता नहीं अ'यो थो फलतः पारस्परिक आदान-प्रदान उन्मुक्त रूपसे । चलता था। यह प्रथा विविधतामें एकता और एकतामें विविधताका सर्वोत्तम निदर्शन है। जटाचार्यके अनुगामी जटाचार्यके समयकी चर्चाके प्रसंगसे देखा है कि समयको दृष्टिसे आचार्य रविषेणका पद्मचरित ही वरांग-चरितसे पहिलेका माना जाता है । इसके सिवा जैन-साहित्यमें अब तक कोई अन्य रचना सुनने देखने में नहीं आयी है जिसे इससे अधिक प्राचीन कहा जा सके ।। यतः पद्मचरित ६७७ ई० में पूर्ण हुआ था अतः इसके बादके समस्त ग्रन्थोंको इस प्रचलनके अनुसार भी वरांग चरितका अनुज कहा जा सकता है । जिनसेन द्वितीय (ल०८६८ ई० प्रथम महाकवि हैं जिनपर जटाचार्यकी स्पष्ट छाप है। आदिपुराणमें दत्त कथाके सात अंग अनायास ही वरांगचरितके प्रथम सर्गके श्लोकोंकी स्मृति दिलाते हैं । आचार्य जिनसेन द्वारा प्ररूपित वक्ताका स्वरूप सहज ही वरांगचरित की पूर्व-कल्पना कराता है । तथा श्रोता अथवा श्रावकोंके भेद दोनोंमें सर्वथा सदृश हैं। सोमदेवाचार्य ( ९५९ ई०) दूसरे कवि हैं जिनको कृति' स्पष्ट रूपसे वरांगचरितको पूर्ववर्तिताको पुष्ट करती है, यद्यपि उन्होंने 'भवति चात्र श्लोकः' रूपसे वरांगचरितके पंचम सर्गके १७३वें श्लोकको उद्धृत किया है। मर्यादा-मन्त्रो चामुण्डरायने भी वरांगचरितको अपना आदर्श माना था। यही कारण है कि वे कथाके अंगोंको जटाचार्यके ही अनुसार देते हैं। अन्तर केवल इतना है कि इन्होंने गद्य में दिये हैं। और सोमदेवाचार्यके समान श्रोताके भेदोंको बतानेके लिए “जटा सिंह नद्याचार्यर वृत्त'लिखकर बरांगचरितका श्लोक ही उद्धृत कर दिया है। किन्तु इन कतिपय उद्धरणोंके बलपर सरलतासे यह नहीं कहा जा सकता है कि जटाचार्यने अपने परवर्तियोंपर पर्याप्त प्रभाव डाला है। क्योंकि अन्य अनेक ग्रन्थाकारोंने बड़े सम्मानपूर्वक जटाचार्य अथवा उनकी कृतिको स्मरण करके भी उसमेंसे कुछ नहीं लिया है इस तर्कको महत्त्व देनेके पहिले यह भी विचारणीय है कि संस्कृति कवि-मार्गमें मौलिकता प्रधान गुण था। लक्षण शास्त्रों तकमें यह प्रशंसनीय माना जाता था कि अधिकांश निदर्शन भी निजनिर्मित हों। यही कारण है कि संस्कृत महाकवियोंने पूर्ववर्ती कवियोंकी कल्पना, अलंकार, पदविन्यासादिको कमसे कम * अपनी कृतियोंमें लिया है। इसके सिवा वरांगचरित ऐसा धर्मशास्त्र मय महाकाव्य अन्य किसी उत्तर कालवर्ती कविने रचा भी नहीं है। यही कारण है कि उत्तरकालवी जैन पुराणों तथा महाकाव्योंमें वरांगचरितका साक्षात् प्रभाव बहुलतासे दृष्टिगोचर । नहीं होता है। १. यशस्तिलक चम्मू, सप्तम आश्वास, पृ० ३३२ । २. "मृत्सारिणी महिष हंस शुकस्वभावा मार्जारकंक मशकाज जलक साम्याः । सच्छिद्र कुम्भ पशु सर्प शिलोपमानास्ते श्रावका भुवि चतुर्दशधा भवन्ति ॥" [वरांगचरित, सर्ग १, श्लोक १५] [१८] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् जटाचार्य के समयको धार्मिक-सामाजिक अवस्था वरांगचरितके १५, १६ आदि सर्गों में विशाल जिन मन्दिरोंका वर्णन है । वे कितने श्री सम्पन्न थे इसका भी विशेष चित्रण आचार्य ने किया है। उनमें हीरा, माणिक, नीलम आदिको मूर्तियाँ थीं । आचार्यने उनकी भित्तियोंपर बने पौराणिक चित्रों का उल्लेख किया है । पर्वोके समय किस सज-धजके साथ महामह आदि वहाँ होते थे यह वर्णन पाठकको रोमाञ्चित कर देता है। क्या स्त्री क्या पुरुष दोनों ही अधिकसे अधिक पूजा, स्वाध्याय, दानादि करते थे। इतना ही नहीं मंदिरों को ग्राम तक लगाये जाते थे । तात्पर्य यह कि वर्णनसे ऐसा लगता है कि आचार्य उस समयका वर्णन कर रहे हैं जब दक्षिणमें जैनधर्म उत्कर्षकी चरम सीमापर था। इतना हो नहीं अन्य धर्मोकी संभवत वैसी स्थिति नहीं थी अन्यथा २४वें तथा सर्ग में आचार्य afe मतोंपर इस प्रकार आक्रमण न करते। जैनेतर देवताओंका निराकरण वैदिक यागादि तथा पुरोहितोंके विधि विधानों का खण्डन तथा ब्राह्मण प्रधान समाजका विरोध स्पष्ट बताता है कि शैवादि मतोंकी इस समय उतनी अच्छी अवस्था नहीं थी जितनी जैन धर्म तथा जैनाचार्योंको थी। यही कारण है कि उन्होंने ब्राह्मणपर बड़े-बड़े व्यङ्गय किये हैं वे कहते हैं कि ब्राह्मण राजसभा से निकाल दिये जाते हैं तो क्रुद्ध होते हैं किन्तु उनका क्रोध या शाप व्यर्थ हो जाता है । इस कथनसे स्पष्ट है कि उस समय ब्राह्मणोंको राजाश्रय प्राप्त नहीं था। और असंभव नहीं कि जटाचार्यके देशमें सर्वत्र जैनधर्मको जय थो। आपाततः हमारा ध्यान ७वीं ८वीं शतीके कर्णाटकके इतिहासकी ओर जाता है । प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रवाह परिवर्तनका प्रबल साक्षी पुलिकेशी द्वितीयका 'ऐहोल शिलालेख " ऐसे ही समय में अंकित किया गया था जब दक्षिण भारत "जयति भगवाज्जिनेन्द्रो " से गूंज रहा था। यह लेख गत शक संवत् ५५६ ( ६३४-५ ( ई० ) में अंकित किया गया था जैसाकि वहाँ दत्त भारतवारसे ३७३५ वर्षं वीतनेपर' निर्देशसे स्पष्ट है । इस शिलालेख के विद्वान् सम्पादक कोलहोर्न इसे साहित्यिक दृष्टिसे भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं वे लिखते हैं-"सैंतोसवीं पंक्तिका वर्णन शिलालेख के कविको कालिदास और भवभूतिकी श्रेणी में बैठाता है, निश्चित हो यह अतिशयोक्ति है। किन्तु मेरी दृष्टि से यह शिलालेख कवि को सभा पण्डितों तथा प्रशस्तिकारोंकी प्रथम पंक्ति में बैठा देता है। रविकीर्ति अलंकार शास्त्र के नियमोंके पण्डित हैं और सच्चे दाक्षिणात्य के समान कतिपय उत्प्रेक्षाओं में सर्वोपरि हैं। " पद्मचरित के अन्त में दत्त समयका निर्देश भी इसी के आस पास है । फलतः अनायास ही आधे नामका साम्य यह कल्पना उत्पन्न करता है कि ऐहोल लेखके कवि रविकीर्ति और पद्मचरित के यशस्वी रचयिता रविषेणमें कोई सम्बन्ध तो न था ? क्योंकि पद्म ( राम ) चरित ऐसा महापुराण सहज हो इन्हें कालिदास १. चालुक्य ( वातापी ) पुलकेशी द्वितीयका ऐहोल शिलालेख, प्रथम पंक्ति ( एपीग्राक्रिया इण्डिका, भा० ८, पृ० ४ ) । २. “त्रिशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादित' । सप्ताब्द शत युक्तेषु शगतेष्वब्देषु पञ्चसु । " ३. एपीग्राफिया इण्डिका, भा० ८, पृ० ३ । ४. पद्मचरित, खण्ड ३, पर्व १२३, श्लो० १८१, पृ० ४४५ । For Private Personal Use Only [ E. I. vol. viii, P7.] भूमिका [१९] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् और भवभूतिकी श्रेणी में बैठा दे सकता है। जो भी हो इतना निर्विवाद है कि सातवीं शतीके मध्य में जैनधर्मको दक्षिण भारतके कनारीमण्डलमें प्रमुखता प्राप्त थी। पल्लव सिंहवर्मन ( ४३६ ई० ) के राज्यारोहणसे लेकर कल्याणी चालुक्य तेल द्वितीय द्वारा राष्ट्रकूटोंके पान (९७३ ई० ) पर्यन्तका ऐसा युग है जब अन्तरा अन्तरा जैनधर्मं को भी राजधर्मं होनेका सौभाग्य प्राप्त रहा है। पल्लववंश के संस्थापक यद्यपि सिंहवर्मन थे तथापि इसके वास्तविक प्रतिष्ठापक सिंहविष्णु थे। ये ईसाकी छठी शती के उत्तरार्द्ध में हुए हैं। इनके पुत्र महेन्द्रवर्मन प्रथम जब सिंहासनपर बैठे तो इनका चालुक्योंके साथ वह संघर्ष चला जो कि इनके उत्तराधिकारियों के लिए पैतृक देन हो गया था । ऐहोल शिलालेख कहता है कि 'पल्लवपति ( महेन्द्रवर्मन प्र० ) के प्रतापको पुलकेशी द्वितीय ने अपनी सेनाको धूलसे आछन्न करके प्राकारान्तरित कर दिया था ।" पुष्पभूति वंशमें जात उत्तर भारत चक्रवर्ती हर्षको ‘विगलित हर्ष'' करनेवाले पुलकेशीके लिए यह साधारण सी ही बात रही होगी । किन्तु इसने पल्लव- चालुक्य वैरको बद्धमूलकर दिया था । पल्लव लेख बताते हैं कि नरसिंहवर्मन प्रथमने अनेक युद्धों में पुलकेशी द्वितीयको हराकर अपने पिताको पराजयका प्रतिशोध किया था। फलतः चालुक्य विक्रमादित्य प्रथमको नृसिंहके वंशका विनाश करके काञ्चीपर अधिकार करना पड़ा था। इस आक्रमणसे भी पल्लव हतोत्साह नहीं हुए थे ओर ८वीं शती के पूर्वार्द्धमें विक्रमादित्य द्वितीयके घोर प्रहार पल्लवशक्तिको जर्जरित कर सके थे। परिणाम यह हुआ दक्षिणसे चोलोंके भी प्रहार होनेपर पल्लव शक्ति ९वीं शती के साथ समाप्त हो गयी थी । किन्तु पल्लवकालमें काञ्चो जैनोंका प्रमुख केन्द्र थी। आचार्य समन्तद्र, भट्टाकलंक आदि प्रमुख जैन नैयायिकोंने काञ्च गौरवकी श्रीवृद्धिकी थी । काञ्चीके भग्नावशेषोंमें विष्णुकांची और शिवकांचीके समान जिनकाञ्ची (निरुपरुत्तिकुम् ) भी उपलब्ध है । यह शैव और वैष्णव भग्नावशेषोंसे दूर ही नहीं है अपितु अधिकतर जीर्ण शीर्ण भी है। इसकी अवस्था इस बात का संकेत करती है कि वैष्णवों और शैवोंके पहिले इस प्रदेशने जैनों की प्रमुखता देखी होगी । इतिहास बताता है कि पांड्योंद्वारा प्रारब्ध शैव-बलात्कार चोलोंके समयमें चलता रहा था। फलतः आदित्य चोल द्वारा अपराजित पल्लवका मूलोच्छेद हो जाने के बाद जैन संस्कृतिके प्रतीक असंख्य जैन मन्दिरादि चोलोंके धार्मिक उन्मादके शिकार न बने हों यह असंभव है । अगणित भग्नावशेष यही कह रहे हैं कि हमें चीनी यात्री ह्वेनसांगने इस द्रविड और मालकूट भूमिमें खड़ा देखा था । चालुक्य काल में आचार्य रविकीर्ति द्वारा मेगुतिमें जिनेन्द्र भवनका निर्माण स्पष्ट बताता है कि पल्लवोंके समान १. ऐहोल शिलालेख, श्लोक २९ २. ऐहोल शिलालेख, श्लोक २३ ( ए० ई० भा० ८, पृ० ६ ) ३. घाटरकृत ह्वेनसांगकी यात्रा, ( खं० २, पृ० २२६-९ ) ४. तस्याम्बुधित्रय निवारितशासनस्य सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् । शैलजिनेन्द्रभवनं भवनंमहिम्नान्निरमापितं मतिमता रविकीतिनेदम् ।। [३५] भूमिका [२०] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम् द्वारा जयश्रीके ग्राहोता महा भूमिका " अर्थात् चालुक्यों द्वारा विधान, इनके व्य वातापीके चालुक्योंके राज्यकालमें भी जैनधर्मको राजाश्रय प्राप्त था। इसीलिए मूलवल्लि, आदि अनेक ग्राम इस मन्दिरको भुक्ति रूपसे लगाये गये थे। इतना ही नहीं इस वंशके उत्तरकालीन राजाओंने जैनसंघोंको भी भूदान किया था।' अन्तरीप क्षेत्रमें भी इस युगमें जैनधर्मको केवल राजाश्रय ही प्राप्त न था अपितु वह कतिपय राज्योंका आश्रय भी था। वनवासीके कदम्बकुल और गंगावाडीका गंगवंश इस तथ्यके ज्वलन्त साक्षी हैं । ऐहोल शिलालेख बताता है "युद्ध पराक्रमके द्वारा जयश्रीके ग्राहोता महा तेजस्वी राजाओंके लिए मत्तगज समान जिसने ( पुलकेशीने ) सहसा हो कदम्बों रूपी कदम्ब वृक्षोंके समूहको अशेष रूपसे नष्ट कर दिया था।" अर्थात् चालुक्यों द्वारा पददलित बनवासीकी रज्यलक्ष्मी कदम्बोंको छोड़कर चली गयी थी। तथापि "जैन मन्दिरोंकी समुन्नत अवस्था उनमें होने वाले पूजनविधान, इनके व्ययको चलानेके लिए दिये गये। राजाओंके उदार दान, यह सिद्ध करते हैं कि कदम्ब साम्राज्यमें जैनधर्म लोकप्रिय धर्म था तथा ऐसे नागरिक पर्याप्त संख्यामें थे। जो श्री १००८ जिनेन्द्रदेव की पूजा करते थे। इस युगमें जैनधर्म शैवसम्प्रदायका सबल प्रतिद्वन्द्री हो गया था। तथा कदम्ब A कालमें निर्वाध गतिसे फैलता जा रहा था।"3 ये उद्गार वरांगचरितके २२-२३ वें सर्गोंके जिनमह वर्णनकी प्रतिध्वनिसे प्रतीत होते हैं । जैनाचार्य सिंहनन्दिको सहायतासे प्रतिष्ठापित गंगवाडीके गंगवंशका तो कहना ही क्या है। इस वंशके वर्तमान कुलधरोंपर आज भी मर्यादा-मंत्री चामुण्डरायकी महत्त्वाकांक्षा हीन स्वामि परायणता तथा धार्मिकताकी छाप है। यहां अनेक भट्टारकोंकी गद्दियां तो हैं ही; श्री १००८ गोम्मटेशके महामस्तकाभिषेकमें प्रथम कलश भी राज्यका ही होता है। आठवीं सदींके मध्य ( ई० ७५३ के लगभग ) वातापीके चालुक्य विक्रमादित्य ( द्वि० ) के पुत्र तथा उत्तराधिकारीको पराजित करके दन्तिदुर्गने नये करनाट-महाराष्ट्र राज्यका निर्माण किया था जो राष्ट्रकुट नामसे इतिहासमें अमर है । इस वंशके राज्यकालमें जैनधर्म को राजधर्म होनेका सौभाग्य प्राप्त था। समस्त दक्षिण भारतमें फैले जैन मन्दिरोंके खण्डहर अथवा इतर धर्मायतनोंमें परिवर्तित जैनायतन ये बतलाते हैं कि जटाचार्यने जिन विशाल जिन भवनादिका वर्णन किया है वे केवल कविकी कल्पना ही न थे । जटाचार्य द्वारा दिया गया होरा, माणिक, नीलम आदिकी जिनमूर्तियां बनवानेका उपदेश भी दक्षिणमें बहुलतासे कार्यान्वित हुआ था। इसकी साक्षी मडबिदरेके जिनमन्दिर आज भी दे रहे हैं। पौराणिक घटनाओंको दीवालों तथा छतों पर चित्रित करना अथवा अंकित करनेके जटाचार्य के वर्णनको परछांयी हलीवीड, मडविदुरेआदिके मन्दिरोंमें आज भी स्पष्ट झलकती है। अन्य वरांगचरित वर्द्धमान कविका वरांगचरित"-जटाचार्यके समयका विचार करते समय देखा है कि १३वीं शती तकके ग्रन्थकारोंने विविध रूपसे जटासिंहनन्दिका स्मरण किया है। इसके बाद के ग्रन्थकारोंका उनके विषयमें मौन खटकता है आचार्यके अनुगामियोंका शोधक जब कारणकी खोज करता है तो उसे एक ऐसा संस्कृत वरांगचरित मिलता है जिसे रचयिता स्वयं 'संक्षिप्य । १. स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म, पृ०१११ । -(ए० इं०, भा ८, पृ०७) २. ऐहोल शिलालेख, श्लो० १७, ए० ई०, ( भा० ८, पृ० ५)। ३. मोरे कृत कदम्बकुल, पृ० ३५ तथा २५२। ४. डा० आल्तेकर कृत राष्ट्रकूटस्, पृ०। ५. सराठी अनुवाद । सहित सन् १९२७में पं० जिनदास, शोलापुर द्वारा संपादित । [२१] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ALALITARADAS सैव वर्ण्यते' कहकर प्रस्तुत करते हैं ! इसमें कथा-वस्तु ज्यों की त्यों है। केवल धार्मिक विवेचनोंमें लाघव किया गया है। इसके निर्माता 'मूलसंघ, बलात्करगण, भारतीगच्छमें उत्पन्न परवादि-दन्तिपञ्चानन वर्द्धमान' हैं । डा. उपाध्येके मतसे अब तक दो वर्द्धमान प्रकाशमें आये हैं प्रथम हैं न्यायदीपिकाकार धर्मभूषणके गुरु तथा दूसरे हुमच शिलालेखके रचयिता वर्धमान हैं । इन। बराङ्ग दोनोंका समय तेरहवीं शतीसे पहिले ले जाना अशक्य है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि वर्द्धमानका वरांगचरित सरलतर परितम् ! होनेके कारण प्रचारमें आ गया होगा और स्वाध्यायी जटाचार्यके मूल, वरांगचरितसे दूर हो गये होंगे। कन्नड वरांगचरित'–संस्कृत कवियों के समान दक्षिणी भाषाओंके कवियोंका मौन भी घरणि पंडितके वरांगचरितके कारण हुआ होगा। इसके लेखक विष्णुवर्द्धनपुरके निवासी थे तथा ई० १६५० के लगभग हुए थे। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंका स्मरण करते हुए एक वर्द्धमान यतिका भी उल्लेख किया है। अतः डा. उपाध्येका अनुमान ठीक ही है कि कन्नड़वरांगचरितका आधार वर्द्धमानका संक्षिप्त वरांगचरित रहा होगा। लालचन्द्रकृत भाषा वरांगचरित-जटाचार्यकी धर्मकथाकी लोकप्रियता इसीसे सिद्ध हो जाती है कि जब जैन शास्त्रोंके भाषा रूपान्तरका समय आया तो भाषाके बिद्वान् वरांगचरितको न भूल सके। इसके अन्तमें लिखा है श्री वर्द्धमानकी रचना संस्कृतमें होनेके कारण सबकी समझमें नहीं आ सकती अतएव उसकी भाषा करना आवश्यक था। इस कार्यको पाण्डेलालचन्द्रने आगरा निवासो, बिलालगोत्रीय शोभानन्द्रकी सहायतासे माघशुक्ला ५ शनिवार १८२७ में पूर्ण किया था। कमलनयनकृत भाषा वरांगचरित -ग्रन्थकी प्रशस्तिके अनुसार यह कृति भी वर्द्धमानके संस्कृत काव्यका भाषान्तर मात्र है। इसे मैनपुरी निवासी श्री कमलनयन नागरवारने सम्वत् १८७२ में समाप्त किया था। लेखकके पितामह श्री साहौ नन्दरामजी थे तथा पिता हरचन्ददास वैद्य थे। ये यदुवंशी बढेला थे, इनका गोत्र काश्यप था । लेखकने अपने बड़े भाई क्षितिपतिका भी उल्लेख किया है। आगम एवं श्रुत-स्मृतके बाद आया शास्त्र ( लेखिनीकृत) परम्परामें भारतकी प्राग्वैदिक परम्परा में, एक प्रकारसे वीर निर्वाणकी दशमी ( ९१० ) शतीमें 'बहुश्रुत विच्छित्तौ' "न्यूनाधिकान्, त्रुटिताऽत्रुटितान् स्वमत्या" क्षमाश्रमण देवद्धिगणी द्वारा लिपिबद्ध जैन ( श्वे. मान्य) आगम, उदार-(पाश्वात्य )-मनीषियोंको संभवतः वैदिक वाङ्मयके बाद ही मिल जानेसे उन्होंने इन्हें मान्यता दी। क्योंकि वीरनिर्वाणकी पञ्चम-षष्ठ शतीमें लिपिबद्ध प्राचीनतम श्रमण (प्राग्वैदिक ) आगम तब तक ताडपत्री-रूपमें शास्त्र भण्डारोंमें देवमूर्तिके समान पूज्य वा बन्दनीय थे। किन्तु अर्वाचीन शोधक क्षमाश्रमण देवद्धिगणी और मैक्सम्यूलर की स्पष्ट-तथ्यवादिताकी उपेक्षा करके प्राचीनतम आचार्यों को अपने सम्प्रदाय का सिद्ध करने के लिये, उन्हें मूल (श्रमण-ब्राह्मण ) रूपसे पृथक् दिखाकर अपनी विशेष शोधोपलब्धि प्रदर्शित करते हैं । 'वरांगचरितम्' भी इसका अपवाद नहीं है। -खुशालचन्द्र बोरावाला १. कर्णाटक कविचरित, आ० २, पृ० ४१७ । इसकी हस्तलिखित प्रति अपूर्ण है। २. हरसुखलाल जैन पुस्तकालयको सं० १९०५ में लिखी गयी इस्तलिखित प्रति । ३. श्री कामताप्रसाद, अलीगंज ( एटा, उत्तरप्रदेश) की हस्तलिखित प्रति । नामजन्माच्यासाच्या ARRIEROIR Jain Education international Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सर्ग , मंगलाचरण चरितम् । आदर्शकथा उपदेष्टा-श्रोता उपदेष्टाका कर्तव्य ग्रंथकार की प्रतिज्ञा विनीतदेश सौम्याचल उत्तमपुर महाराज धर्मसेन अन्तःपुर महारानी गुणवती द्वितीय सर्ग कुमार वरांग कुमारी अनुपमा राजकुमारकी विवाह वार्ता मंत्रशाला-मन्त्रणा मित्रशक्ति आदर्शनृप कन्या अन्वेषण-मंत्रीप्रस्थान कन्याके पिताको स्वीकृति विवाह प्रस्ताव वर-नगरको प्रस्थान अन्यराजा आगमन यौवराज्याभिषेक PARTeaveHEIRECTCrPAHEJe= विषयानुक्रमणिका १-१८ अभिषेक क्रम ३५ नाम-गोत्र-अन्तराय बन्ध १ पुण्यफल ३७ उपसंहार २ विवाहमंगल ३९ पञ्चम सर्ग ८२-९८ ३-४ पति-पत्नी अनुराग लोकपुरुष-अवलम्ब ५ तृतीय सर्ग ४१-५६ चतुर्गति ७ श्री वरदत्त केवली-विहार नरकगति-पटल-विल-वातावरण धर्मयात्रा-एवं यात्री नरकगति वाधा-बन्ध-जन्म ८ यात्रा वर्णन एवं राजवंश नारकी स्वभाव,-व्यवहार-दुःख केलि गुरु-विनय-स्तुति नारकी दुःख तथा कारण १२ गति-कर्मादि जिज्ञासा परस्त्री गमनका फल १५ ज्ञानमहिमा शास्त्रस्वरूप व्यर्थ परिग्रहका फल १७ पापपुण्यादि चर्चा ५४ अन्य दुःखसाधन १९-४० चतुर्थ सर्ग ५७-८१ असुरकुमारज-दुःख परिग्रह नरकका कारण १९ सृष्टा-कर्म विवेचन नरकायु-अकालमृत्यु नहीं २१ ज्ञानावरणी षष्ठ सर्ग ९९-११२ दर्शनावरणी-वेदनीय तिर्यञ्च योनि मोहनीय षट्काय, स्थावर-त्रस आयु-नाम-गोत्र स्थावर-वस पर्याय दुःख अन्तराय नासिका-कर्णजिह्वादि का फल स्थिति तियंञ्चों के वाहनादि भेद ज्ञानावरणी आदि के बन्ध करण भयपूर्ण तिर्यञ्च योनि १०४ ३० दर्शनावरणी-वेदनीय बन्ध कोप-मान-वञ्चना-लोभ फल २९ दर्शन-चरित्र मोहनीय विवेचन तिर्यञ्च जन्मके कारण ३१ क्रोधादि निदर्शन कुभोगभूमि-जन्मकारण ३२ नोकषाय कर्मभूमिज तियञ्च कुलयोनि ३४ आयुबन्ध ७७ उपसंहार ५७ १०० [२३] १०७ MMMMMou Jain Education interational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ १२० यययययमचEURSIRSINGERIR ~ १४७ ११३-१२८ पुण्यहीनोंकी गति १३५ निर्वाण संख्या ११३ पुण्यका सुफल १३८ समय-स्थान-शरीरकी अपेक्षा मनुष्यगतिके कारण १४१ मुक्ति उदाहरण मनुष्यपर्यायकी दुर्लभता १४२ मुक्त आकार-आधार शरीर-अनित्यता १४३ सिद्ध-स्वरूप मनुष्योंकी आयु १४४ सिद्धोंके सुखका निरुपण नवम सर्ग १४५-१५९ संसार मोक्ष देवगतिके प्रधान भेद १४५ एकादश सर्ग १७५-१९४ भवनवासियोंके भेद कुमार वरांगका प्रश्न व्यन्तरों के भेद मिथ्यात्व सम्यक्त्व कथनकी ज्योतिषियोंके भेद भूमिका १२१ वैमानिकोंके भेद मिथ्यात्व लक्षण-उदाहरण १२२ स्वर्गोंकी रचना मिथ्यात्व-संसारकर्ता विमानोंका रूपादि वर्णन १४८ मिथ्यात्वकी संसारकारणता देवगतिके कारण १५० सम्यग्दर्शनका स्वरूप देवोंकी जन्म प्रक्रिया १५३ सम्यक्त्वका उदय दृष्टान्त १२६ देवोंका शरीर-वैशिष्ट्यादि १५४ रत्नत्रयका उदय क्रम देवोंके वर्ग १५६ वरांगकी चारित्रप्राप्ति १२८ देवियां १५७ राजकुमारका संयत जीवन देवोंकी आयु पुत्रानुराग १२९ दशम सग १६०-१७४ युवराज्याभिषेक प्रस्ताव मोक्षकी स्थिति " सज्जा मोक्षका माहात्म्य राज्याभिषेक तथा अधिकारार्पण १३० मोक्षगामी १६२ राजावरांग मोक्षसाधक तप सौतेले भाइयोंका मत्सर १९३ कर्मक्षय क्रम १६४ , मुक्त जीवका ऊर्ध्व गमन द्वादश सर्ग १९५-२१५ १३४ समुद्धात १६६ राजमाताकी प्रसन्नता । सप्तम सर्ग भोगभूमियां भोगभूमिकी भूमि बराङ्ग " का जलवायु चरितम् " की समता कल्पवृक्ष भोगभूमिके कारण पात्रापात्र दाता का स्वरूप पात्र-दानभेद कन्यादान विमर्ष दान कथा दान परिपाक पात्रापात्र फल पाणिपात्र जन्मादिक्रम भोगभूमियोंके शरीरादि , की आयु , ,, विशेषताएँ अष्टम सर्ग कर्म भूमियोंके नाम-संख्या कर्मभूमिजोंके प्रधान भेद आर्य-अनार्य भोजवंश मनुष्यगतिकी उत्कृष्टता मनुष्यकी भ्रान्ति धर्माचरणकी प्रधानता में परिग्रहको पापमूलता Jain Education international r M १६० A DHURSERIA [२४] १६३ ___ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ or रस बराज चरितम् 0 प . 0 or or m3 विमाताको इर्ष्या तथा पुत्रकी यक्षिणीका प्रेम प्रस्ताव २२२ पुलिन्द युवराजका वध भर्त्सना १९५ लैंगिक आचारका आधार पत्नी २२३ पुलिन्दराज महाकालसे युद्ध कुचक्र यक्षिणी पर प्रभाव २२४ वरांगका युद्ध नैपुण्य मंत्रीका उपदेश भविष्यको चिन्ता पूर्ण विजय तथा विजयोल्लास , अकार्यमें योगदान पुलिन्दों-आक्रमण २२५ वरांगका स्वागत षड्यन्त्रारम्भ धूर्त मंत्रीपर क्रोध २२७ स्वास्थ्य लाभ तथा कश्चिद्भट षड्यन्त्र कार्या० २०३ नरबलिकी सज्जा २२८ नामसे ख्याति दोनों घोड़ोंकी दो प्रकारकी शिक्षा, विषाऽपहारमणि २२९ सार्थका ललितपुर आना क्राडाक्षेत्रमें अश्व प्रदर्शन कारावाससे मुक्ति पुनर्मिलन वरांगका दसरे घोडेपर चढ़ना , अग्रिम मार्गशोध वीरपूजा घोड़ेका बेकाबू होना २०४ भावी कर्तव्य द्विविधा नूतन विवाह प्रस्ताव तथा वरांगकी कष्टमयता तथा कूएमें न बन्धुमध्ये २३१ -वरांगका संकोच गिरना २०५ वरं वनम् २३२ राजा श्रेष्ठि अभिषेक लता पकड़ कर बचना तथा शंका प्रश्न गुणग्राही ललितपुर बाहर आना अशरण वरांग पुनः बन्दी होकर सार्थपतिके सामने २३३ पुण्यात्माका प्रेम पुरुषार्थ-उदय गंभीर राजकुमार २३४ वरांगकी दिनचर्या आक्रमण सार्थपतिकी सदाशयता तथा पञ्चदश सर्ग २५८-२८२ आपत्तिमें आपत्ति २०८ -स्वागत उत्तमपुरकी दशा गजराजके प्रति कृतज्ञता २०९ कुलीनताभक्त सागरवृद्धि अपहरण-कारण विमर्ष । रोटीके बिना व्याकुल रंक राजा २११ चतुर्दश सर्ग २३६-२५७ गुप्तचरों द्वारा शोध विचित्रा कर्म पद्धति २१४ बधैरपि २३६ पिताकी दुश्चिन्ता तथा शोक त्रयोदश सर्ग २१५-२३५ रंगमें भंग २३७ अन्तपुर समाचार कर्ममति २१५ रण-आदेश राजमाताका विलाप आर्तध्यान तथा शुभ चिन्तन सेठका स्नेह २३८ भारतीय-पत्नियाँ शोक सन्तप्तजिनभक्ति ही शरण २१७ संघर्ष समारंभ " -राजवधुएँ २६४ शुभभावका फल २१९ रणकी दारुणता २३९ ससुरसे दुःख रोना यक्षिणी द्वारा जिज्ञासा २२१ सार्थसेनाकी पराजय-पलायन २४१ पुत्रवियोग से विह्वल माता वरांगका दृढ़ स्वदार-संतोष-व्रत २२२ वरांगका पराक्रम २४२ प्रवाहैरेवाधार्यते २६८ ॥ m २१६ सठकागह [२५] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग वरितस् राजवधुओं का आत्मवध-हिंसा २६८ ललितपुराधीशका हस्तिरत्न धर्मकी शरणागति २६९ मथुराधिपके दूतका आगमन कर्म ही विधाता दुनिया रैन बसेरा मृत्यु ही निश्चित है। आयुकर्म की बलवत्ता त्रिदुःख धर्मका मूल दया पालनीयाणुव्रत अस्तेय अणुव्रतका लक्षण स्वदार संतोषका परिग्रहपरिमाणका दिव्रतका 31 भोगोपभोग परिमाणका लक्षण अनर्थ दण्डव्रतका सामायिकका प्रोषधोपवासका अतिथिसंविभागका सल्लेखना स्वर्गसुख कामार्तिकान्ति दृढ़तरधर्म रुचि निर्माण अष्टान्हिका विधान धर्माचरण योग षोडश सर्ग काहू उर दुचिताई प्रभुताका मद 11 22 31 11 "1 11 २७१ २७२ २७३ मथुराधिपका क्रोध " २७४ शत्रुपराभवकी कल्पना २७५ ललितपुरकी युद्धयात्रा " युद्धमत्त २७६ शत्रु निन्दा " 11 २७७ " 11 11 २७८ 37 भर्त्सना मथुराके दूतका अपमान युद्धकी सज्जा " २८० यादवोंकी बर्बरता संकटकालीन मंत्रि परिषद् 31 २७९ युद्ध ( निश्चय - घोषणा ) देहि वरांगका उत्साह तथा कृतज्ञता सेवा-समर्पण विमर्ष रणघोषणाकी घोषणा प्रथम मंत्रिमत आप्यायन हो उपाय साहाय्य प्रतिरोध भेद विजयमंत्री की वाकपटुता दण्ड तथा भेद ही उपाय यशकी उपादेयता २८३ २८४ " २८१ पितृमोह 11 सेठकी रणभीरुता २८३ - ३०८ वीर ( वरांगका) स्वागत सप्तदश सर्ग सविचार निमंत्रण समरयात्रा " २८५ युद्धयात्रा के कारण २८६ सैनिकों का उत्साह २८७ २८८ 11 २८९ विवेकियोंकी बातें 17 २९५ २९० रणरंग २९१ युद्धारम्भ २९२ पदातियुद्ध २९४ " २९६ २९७ २९८ २९९ वरांगके प्रति नागरिकोंके विविध 71 ३०० ३०१ -भाव जनसाधारणकी बातें For Private Personal Use Only युद्धकी भोषणता रणकला प्रदर्शन समरस्थली सहार में कवित्व युद्धकी चरमसीमा अष्टादश सर्ग नीतिपूर्वक युद्ध-संचालन मथुराधिपका प्रत्याक्रमण विजयमंत्री द्वारा प्रतिरोध हस्तियुद्ध उपेन्द्रका प्रत्याघात ३०२ कश्चिद्भटका आविर्भाव ३०३ ३०४ ३०५ ३०७ ३०९-३२८ ३०९ ३१ घात - प्रत्याघात द्वन्द्वका चरमोत्कर्षं उपेन्द्रका बध ३१३ " ३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१८ ३१९ ३२१ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२९-३५८ ३२९. ३३० ३३१ 37 ३३४ " उपेन्द्रसेनके तिरस्कारपूर्ण वचन ३३५ वरांगका संयम तथा वीरतापूर्ण उत्तर ३३६ युवराजका द्वन्द्व ३३८ ३४१ ३४२ ३४३ [24] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम वराङ्ग चरितम् ४४०mgur9 २८९ ३६३ ता १ संहारका आरम्भ ३४४ अवज्ञात धर्मसेन ३८२ आनर्तपुर पुनःस्थापन ४०६ नायकोंका सामना तथा वाग्युद्ध ३४५ सुमंत्री मत ३८३ नगर वर्णन इन्द्रसेन आहत ३५१ दूत-देशनिष्ठ ३८४ राजभवन वरांगका रणरंग ३५३ कश्चिद्भट निर्वेद ३८५ देवालय विजयी-नगरप्रवेश ३५५ पिता प्रेम ३८५ नागरिक समृद्धि । कुतुहलप्रिय ३५६ कृतज्ञ वरांग ३८६ सम्पन्न-राज पुत्र-प्रेयता ३५६ मनोरमासे विवाहादि ३८७ उपकारसे अनूर्ण एकोनविंश सर्ग ३५९-३७७ कृतज्ञता ही साधुता ३८८ वत्सल कुलादि जिज्ञासा ३५९ उपकारी पितासे अनुज्ञा लेना शत्रुमर्दन वरांगकी शालीनता युद्धयात्रा ३९० साम-नीति नगर सज्जा ३६२ सेनाका सौन्दर्य क्षमा दान विवाह मण्डप सागरवृद्धि द्वारा देवसेन सफल-शासक नवदम्पति स्वागत ३६५ आगमन समाचार ३९२ द्वाविंश सर्ग ४२०-४३९ गाढ़ानुराग ३६७ पुत्रप्राप्तिसे प्रमुदित राजा सुराज्यका वर्णन मनोरमाका मोह विरह-व्यथा आत्मीय बन्धुमिलन दुखियाका सगा प्रेमछिपाना ३६९ शत्रु पलायन वरांगराजका ऋतुविहार सखीद्वारा आश्वासन ३७१ राज्याभिषेक सुखमग्न राजा वरांगस्थिरता ३७२ राजभवन-प्रवेश ३९८ पुण्य प्रशंसा सखीकी युक्तियां ३७३ माता-भक्त ३९९ सुख में भी धर्म न भूलने विवेकिनी नारीका निर्वेद, ३७६ एकविंश सर्ग ४००-४१९ रानी-अनुपमा विश सर्ग ३७८-३९९ कर्म वैचित्र्य ४०० सागार-धर्म सुखमग्न वरांग ३७८ सम्बन्धी विदा ४०१ अष्टांग सम्यकदर्शन | अयोग्य सुषेणका राज्याभिषेक ३७९ न्याय निपुण राजा ४०२ जिनपूजाकी श्रेष्ठता सुषेणको अयोग्यता तथा शत्रुका हृदय परिवर्तन ४०२ नन्दीश्वर विधान आक्रमण सुषेणका पराभव ३८० क्षमा याचना ४०३ मूर्तिपूजा शत्रुको सुअवसर ३८१ पुरुषार्थ निश्चय ४०४ जिनमन्दिर धर्मसेनका वरांगको याद करके दिग्विजय अनुमति ४०५ जिनालय निर्माण । दुखी होना ३८१ सहयात्री चयन ४०६ जिनालयका वर्णन ३९३ ३९५ 14 ३९७ d Mmmmmm 20 or m" [२०] 4 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम् ४६२ ४. ४७० है जिनालयकी सज्जा जिनालयके विभाग जिनालयके उद्यान असाधारण मन्दिर जिनमहका प्रारम्भ त्रयोविंश सर्ग मूर्तिप्रतिष्ठा किमिच्छिक दान प्रतिष्ठा संरम्भ बहुमुखी भक्ति प्रातःकालीन पूजा । जिनालयमें वास द्रव्योंके फल दिक्पाल-पूजा अभिषेक सज्जा सामग्रीको मन्दिर यात्रा चमरधारिणी कलश यात्रा जलयात्राके विविधरूप जलयात्रा-सरिता रूपक पुजारी राजा-रानी मुहूर्त-प्रतीक्षा अभिषेक प्रारम्भ जिनबिम्ब शृंगार अष्टमंगल-द्रव्य अर्पण आशीर्वाद जिनालय पूजाका फल । अभिषेकका फल ४३५ द्रव्यपूजाका फल ४५८ पञ्चविंश सर्ग ४८७-५११ ४३६ मंगलद्रव्य अर्पणका फल वर्णव्यवस्था ४८७ ४३७ गृहस्थाचार्यका आशिष विविधवंश ४८८ ४३८ किमिच्छक-दानी याज्ञिकी हिंसा ४९० ४३९ धर्ममेला ४६१ प्रासुक बलि ४९३ ४४०-४६५ धर्मवीर हिंसाकी घातकता ४९२ धर्मकरत संसार सुख दयाधर्मका मूल ४९३ चतुर्विंश सर्ग ४६६-४८६ ब्राह्मणत्व विवेचन ४४१ प्रकृति गुणोपेत ४६६ यज्ञादिकी निस्सारता ४४२ सुखसागरमें मग्न राजा ४६७ ब्राह्मणत्व जातिकी निस्सारता ४९७ ४४३ पुण्यका परिपाक ४६८ कर्मणा वर्ण ४९७ ४४३ त्रिवर्ग सेवया ४६९ गंगाकी पूज्यता ४४४ राजाकी स्तुति ४७० तीर्थों की यात्रा ४४५ धर्मप्रश्न तीर्थोंका इतिहास ४४५ दैववाद विचार गायका देवत्व ४४७ कालवाद समीक्षा पितृ-तर्पण ४४८ ग्रहवाद ब्राह्मण दानका रहस्य ४४९ जगदीश्वर वाद प्रमाण मीमांसा ४५० नियतिवाद कारणता विचार ४५२ सांख्यवाद निरसन ईश्वरत्व विवेचन ४५३ शन्यवाद सुगत मीमांसा ४५३ (क्षणिक तथा नित्यवाद ) बौद्ध ४७८ ईश्वर वाक्य ५०८ ४५४ आत्मवादका विचार ४७९ सांचोदेव ४५५ उत्थान मार्ग उपसंहार ४५५ उपायज ४८१ ४५६ संसारबन्ध ४८२ षड्विंश सर्ग ५१२-५३० ४५७ पुण्यका फल ४८३ जीव तत्त्व विवेचन ४५७ धर्मज्ञानको प्रशंसा ४८५ अभव्य ज्यामराम्यानमारमानामन्यमानामामा ४७१ ० ० ० ० ० ० ० OMGFXW ० ० ० ० ० ० ४७३ ४७५ ४७६ ४७७ ४७७ ४८० [२८] الهی اس Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ५५९ चरितम् FKM ५१९ ५२१ ५२४ । अजीव सूक्ष्मस्थूल कामण वर्गणा विचार र धर्म-अधर्म काल आकाशद्रव्य द्रव्य-विशेष द्रव्य-परिमाण ज्ञानकारण नय चर्चा निक्षेप उत्पाद-त्रय सापेक्ष त्रय विशद विवेचन नय तथा मिथ्यात्व प्रकृति-पुरुष एकान्त आपत्ति सापेक्षतावाद रत्नत्रय दर्शनकी प्रधानता अंधपंगु मिलन दैवपुरुषार्थ उपसंहार सप्तविंश सर्ग उत्थानिक काल वर्णन उपमा परिमाण व्यवहार पल्य उद्धार पल्य ५१४ अद्धापल्य अन्य राजपुत्र ५१५ युगचक्र ५३७ वरांग आदर्श पिता ५१६ युग परिमाण ५३८ भोगरत वरांग शलाकापुरुष वैराग्य चौदह मनु ५३९ वैराग्य भावना ५१७ चौबीस तीर्थंकर ५४० लोक भावना ५१८ बारह चक्रवर्ती ५४० मरते न बचावे कोई नौ वासुदेव ५४१ दुर्लभ नरपर्याय ५२० नौ नारायण आत्म चिन्तन नौ प्रतिनारायण अनित्य भावना तीर्थंकर कालमें वासुदेवादि ५४२ अशरण भावना तीर्थंकरों का उत्षेध ५४३ संसार भावना तीर्थंकरोंकी आयु एकत्व भावना अन्तराल जगत्स्वभाव धर्मोछेद काल विरक्ति उदय तीर्थकर जनक उत्तराधिकार प्रस्ताव तीर्थंकर माता ५२७ अहारदाता ५५० परिजन हैं रखवारे जन्म नगरी ५५१ राज-अघ तीथंकरोंके वंश ५२९ वैराग्यहेतु राज-अधिकारी ५५२ तीर्थंकरोंके शरीरवर्ण आत्मा-शरण तीर्थंकरोंके गोत्र वनिता बेड़ी बाल ब्रह्मचारी ५३१-५५४ कुसम सदृशो तीर्थंकरोंकी निर्वाण मुद्रा मोहमाया तीर्थंकरोंके निर्वाण क्षेत्र विवेक निरोध अष्टाविंश सग ५५५-५६९ रोग, बुढ़ापा-मृत्यु पुत्रजन्म ५५५ रत्नत्रयमय मेव ५३६ राजशिशुका वर्णन ५५६ राजबधुओंकी पतिपरायणता ६४ ४६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६. ६.६६ ६ ६ ६ ६६ ५४८ ५२५ 6 6 6 6 ५४३ 6 ५३१ ५७७ ५३x ५७८ ५७९ ५८१ Jain Education interational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 बराङ्ग चरितम् एकोनत्रिंशसर्ग सयाना संसार तपकी दुष्करता भोगोंकी अजेयता सिंहवृत्ति-वरांग जो लो देह तोरी स्वजन शत्रु संसारमें फँसाने वाले ही शत्रु हैं राज्य रहस्य ममताका चित्रण महामोह जागे नियोगी सुतको षडंग परस्परावरोधने त्रिवर्ग पाप मार्गपर पग न पड़े सफलता की कुञ्जी है राज्याभिषेक-सम्मान 'छोड़ बसे वन' पारिभाषिक शब्दकोश ५८२ - ६०५ यथार्थं धर्मपत्नी खलजनोंकी बातें नास्तिक मत नीति निपुणों द्वारा स्तुति गुरुदर्शन चारित्र मेव धर्मके साथी पतिपरायणता पत्नियाँ ५८२ ५८३ ५८४ 21 ५८५ ५८६ ५८७ ५८८ 11 37 ५८९ ५९० ५९१ 71 ५९२ ५९३ ५९४ तपसूर त्रिश सगं वियोगी जन गुण स्थान ज्ञायक - त्रिलोक विचार शल्यत्रय उन्मूलन मन मंतगज ऋतुतप उपसर्ग परीषह जय तीर्थाटन ५९५ रागद्वेष विजयी ५९६ नीरस भोजनरत ५९७ रिद्धिसिद्धि ५९८ वर्द्धमान तप ६०० एकत्रिंशसर्ग रानियाँ पतिसे पीछे नहीं वरांग ऋषिका तप आशा विजय नाना भाँति तप ६०२ ६०४ ६०५ ६०६ ६०७-६२५ ६०७ ६०८ ६०९ ६११ चतुविध आराधना गुण प्राप्ति बारह भावना ६१२ ६१४ ६१६ ६१९ ऋतुतप घोर तप - ऐहिकका फल धर्म विहार समाधिमरण For Private Personal Use Only शरीरान्त इतरसाधु सद्गति 31 ६२१ ६२३ ६२५ ६२६-६५५ ६२६ ६३० ६३२ ६३५ ६३७ ६३८ ६३९ ६४० ६४२ ६४६ ६४८ ६५३ ६५४ ६५६ [३०] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् THEIRatoTAIMIREstimalALRADIRDAE वराङ्गचरितम् प्रथमः सर्गः मंगलाचरण अहंस्त्रिलोकमहितो हितकृत्प्रजानां, धर्मोऽहंतो भगवतस्त्रिजगच्छरण्यः । ज्ञानं च यस्य सचराचरभावशि, रत्नत्रयं तदहमप्रतिमं नमामि ॥ १॥ येनेह मोहतरुमलमभेद्यमन्यैरुत्पाटितं निरवशेषमनादिबद्धम् । यस्यर्द्धयस्त्रिभुवनातिशयास्त्रिधोक्ताः, सोऽहंजयत्यमितमोक्षसुखोपदेशी ॥२॥ प्राप्येत येन नूसुरासुरभोगभारो, नानातपोगुण समुन्नतलब्धयश्च । पश्चादतीन्द्रियसुखं शिवमप्रमेयं, धर्मो जयत्यवितथः स जिनप्रणीतः ॥३॥ प्रथम सर्ग प्राणिमात्रके कल्याणकर्ता, अतएव तीनों लोकोंमें परम पूज्य श्रीअर्हन्त परमेष्ठी, तीनों लोकोंके प्राणियोंकी ऐहिक और पारलौकिक उन्नतिका एकमात्र सहारा आहेत-( जैन ) धर्म तथा त्रिकालवर्ती चल और अचल समस्त पदार्थोंका साक्षात्द्रष्टा श्रीअर्हन्त परमेष्ठीका ( केवल ) ज्ञान, इन तीनोंकी इस अनुपम रत्नत्रयीको मैं मन, वचन और कायसे नमस्कार करता हूँ ॥१॥ निरुपम मोक्ष महासुखके सत्य उपदेष्टा श्रीअर्हन्त केवलीको जय हो, जिन्होंने इस संसारमें अनादिकालसे जमी हुई मोह महातरुकी उन जड़ोंको बिल्कुल उखाड़कर फेंक दिया था, जिन्हें अन्य-अन्य मतोंके प्रवर्तक हिला-डुला भी न सके थे। तथा जिन अर्हन्त प्रभुकी तीन प्रकारको क्षायिक ऋद्धियोंको गणधरादि ऐसे महाज्ञानी मुनियोंने भी तीनों लोकोंकी महाविभूतियोंसे भी बढ़कर कहा है ॥२॥ श्रीजिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट सत्यधर्म ( जैनधर्म ) की जय हो। जिसके द्वारा जीवको नर, असुर और देवगतिके सब ही भोगोंकी प्राप्ति होती है, जिसके प्रतापसे नाना प्रकारके तपों, गुणों और बड़ीसे बड़ी लब्धियोंकी सिद्धि होती है, इतना हो । नहीं, अपितु सांसारिक अभ्युदयके बाद अतीन्द्रिय तथा अनन्त सुखमय उस मोक्षपदकी प्राप्ति भी होती है, जहाँके सुखको किसी भी मापसे नापना असंभव है ॥ ३ ॥ १. क श्रीमदादिब्रह्मणे नमः । निर्विघ्नमस्तु । म श्रीवासुपूज्याय नमः । ही [१] HTRATHI Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः वराङ्ग चरितम् ज्ञानेन येन जिनवक्त्रविनिर्गतेन. त्रैलोक्यभूतगुणपर्ययसत्पदार्थाः। ज्ञाताः पुनर्युगपदेव हि सप्रपञ्चं, जैनं जयत्यनुपमं तदनन्तरं तत् ॥४॥ अर्हन्मुखागतमिदं गणदेवदृष्टं सद्धर्ममार्गचरितं परया विशुद्धया । संशृण्वतः कथयतः स्मरतश्च नित्यमेकान्ततो भवति पुण्यसमग्रलम्भः ॥५॥ द्रव्यं फलं प्रकृतमेव हि सप्रभेदं, क्षेत्रं च तीर्थमथ कालविभागभावी।। अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रबन्धे तैः संयुता भवति युक्तिमती कथा सा ॥ ६ ॥ द्रव्याणि षड् भगवताभिहितानि तानि, क्षेत्र तथा त्रिभुवन विविधश्च कालः। तीर्थ जिनेन्द्रचरितं प्रकृतं हि वस्तु, ज्ञानक्षयोपशमजौ फलभावकल्पौ ॥७॥ सर्गः TeameMIREATHERAPimeHealease इस रत्नत्रयीके अन्तिम रत्न सम्यक्ज्ञानकी भी जय हो। जिसकी तुलना किसी भी ज्ञानसे नहीं की जा सकती है, जो अर्हन्त केवलीके मुखसे झरी दिव्यध्वनिसे निकला है और जिन धर्ममय है। तथा जिसके द्वारा तीनों लोकोंके समस्त द्रव्य, गुण, पर्याय तथा पदार्थोका अपने त्रिकालवर्ती भेद-प्रभेदोंके साथ एक साथ ही ज्ञान हो जाता है ।। ४ ।। आदर्श कथा श्रीअर्हन्त केवलीके मुखारबिन्दसे निकले तथा श्रीगणधर भगवान द्वारा विस्तृत शास्त्रोंके रूपमें रचे गये, परम पवित्र जिनधर्मके सम्यक् चारित्रके अनुसार व्यतीत किये गये जीवन चरितको जो व्यक्ति परमशुद्धि और श्रद्धाके साथ सुनता है, कहता है मनन करता है उसे निसन्देह पूर्ण पुण्यका लाभ होता है ।। ५ ॥ प्रत्येक कथा प्रबन्धके जीवादि द्रव्य, भरतादि क्षेत्र, सुषमादि काल, क्षायिक, क्षायोपशामिक-आदि भाव, आधिकारिक . प्रासंगिक भेद और उपभेदसहित प्रकृत (कथानक ), श्रीऋषभादि तीर्थंकरोंका तीर्थकाल और पुण्य पापका फल ये सात अंग होते हैं। ॥ ६॥ इन सातों अंगोंसे युक्त होनेपर ही कोई कथा आदर्श और युक्तिसंगत रचना हो सकती है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, DAIPAPARAMATIPATI [२] १. म विभागभागा। २. [ त्रिविधश्च ]। ३. भशमजा""कल्पा । । ४. फलके स्वामीका नाम अधिकारी है, उसकी कथा आधिकारिक-कथा होती है । ५. आधिकारिक कथाको पूरक कथाको प्रासंगिक-कथा कहते है। ६. महापुराण प्रथम सर्ग इलो० १२१-१२५ । Jain Education international Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुः स काञ्चनमयः क्रियया विहीनः कालान्तरादपि न याति सुवर्णभावम् । एवं जगत्यमितभव्यजनश्चिरेण नालं भवाद् व्रजितुमत्र विनोपदेशात् ॥८॥ दीपं विना नयनवानपि संदिदृक्षुर्द्रव्यं यथा घटपटादि न पश्यतीह । जिज्ञासुरुत्तममतिर्गणवांस्तथैव वक्त्रा विना हितपथं निखिलं न वेत्ति ॥९॥ सर्वज्ञभाषितमहान दधौतबुद्धिः स्पष्टेन्द्रियः स्थिरमतिमितवाङमनोज्ञः। मष्टाक्षरो जितसभः प्रगृहीतवाक्यो वक्तु कथां प्रभवति प्रतिभादियुक्तः ॥ १०॥ प्रथमः सर्गः न्यायालयाच्या आकाश, काल और जीवके भेदसे द्रव्योंको श्रीजिनेन्द्रदेवने छह प्रकारका कहा है। ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोककी अपेक्षासे प्रधानतया क्षेत्र तीन प्रकारका है। सामान्यरूपसे भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालकी अपेक्षासे काल भी तीन प्रकारका है। श्री १००८ जिनेन्द्र भगवान्के जीवन और एक तीर्थंकरके जन्मकालसे लेकर अगले तीर्थंकरके जन्मतकके अन्तरालको तीर्थ कहते हैं । कथावस्तु या कहानीको प्रकृत कहते हैं । कर्मोके उपशम, क्षय तथा क्षयोपशमसे होनेवाले भाव हैं और तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका ही नाम महाफल है ॥७॥ सुवर्णमिश्रित मूलधातु ठीक प्रकारसे शुद्ध न किये जानेके ही कारण बहुत समय बीत जानेपर भी स्वर्ण-पाषाण ही रह जाती है, सोना नहीं हो पाती है। इसी प्रकार इस संसारमें अनेकानेक भव्य ( मुक्त होने योग्य ) जीव सद्गुरुका उपदेश न मिलनेके कारण ही चिरकाल तक संसार समुद्रमें ही ठोकरें खाते हैं मोक्ष नहीं जा पाते हैं ॥ ८॥ पदार्थोंको देखनेके लिये उत्सुक पुरुष, आँखोंकी दृष्टि हर तरह ठीक होनेपर भी जैसे केवल दीपक न होनेके कारण ही अंधेरेमें घट, पट, आदि वस्तुओंको नहीं देख पाता है, उसी प्रकार परम बुद्धिमान, सद्गुणी और कल्याणमार्ग जाननेके लिये लालायित पुरुष भी एक सच्चे उपदेष्टाके न मिलनेसे ही संसारसे उद्धारके हितमार्गको पूर्णरूपसे नहीं समझ पाता है ॥ ९ ॥ उपदेष्टा वही प्रतिभाशाली व्यक्ति कथा कहनेका अधिकारी है, जिसकी बुद्धि सर्वज्ञप्रभुके मुखारबिन्दसे निकले शास्त्ररूपी महानदमें गोते लगाकर निर्मल हो गयी हो, जिसकी चक्षु, आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंको पूर्ण तथा विशदरूपसे जानती हों, जिसकी मति स्थिर हो, जिसकी मित बोली हितकारी और मनमोहक हो, जिसके अक्षरों, शब्दों और वाक्योंमें प्रवाह हो, जो सभाको मन्त्रमुग्ध-साकर देता हो तथा जिसकी भाषाको श्रोता सहज ही समझ लेते हों; अर्थात् जिसकी भाषा-भावोंके पीछे-पीछे चलती हो ॥ १० ॥ ] 1.म महार्णव । Jain Education international For Privale & Personal Use Only ___ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः वराङ्ग चरितम् सर्गः ArreAHASRHARPATAmerimeHeaverReaHAMSTHAHIMSHIRSersatyame सत्कारमैच्यवनभैषजसंश्रयादीन्वक्ताऽनपेक्ष्य जगता'त्युपकारहेतम । निष्केवले हितपथं प्रवदन्वदान्यः श्रोतात्मनोरुपचिनोति फलं विशालम् ॥११॥ जन्मार्णवं कथमयं तरतीति योऽत्र संभावयत्यतुलधीर्मनसा दयालुः । संसारघोरभयदुःखमनादिबद्धं तस्य क्षयं व्रजति साध्विति वर्णयन्ति ॥ १२॥ श्रेयोऽथिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः । मोक्षार्थिना श्रवणधारणसत्क्रियार्था योज्यास्तु ते मतिमता सततं यथावत् ॥ १३ ॥ शुश्रूषताश्रवणसंग्रहधारणानि विज्ञानमूहनमपोहनमर्थतत्त्वम् । धर्मश्रवार्थिषु सुखाभिमुखेन' नित्यमष्टौ गुणान्खलु विशिष्टतमा वदन्ति ॥ १४ ॥ जो उदाराशय उपदेशक निजी आदर-सत्कार, परिचय-मित्रता, भरण-पोषण, विरोधियोंसे रक्षा, रोगोंकी चिकित्सा, सहारा, आदि स्वार्थोंकी तनिक भी अपेक्षा न करके, संसारका एकमात्र पूर्ण उपकार करनेकी इच्छासे ही सर्वज्ञप्रभुके मुखारविन्दसे आगत सद्धर्मका ही शुद्ध उपदेश देता है वह अपने श्रोताओंके ही पुण्यको नहीं बढ़ाता है, अपितु स्वयं भी विशाल पुण्यबन्ध। करता है। ११ ।। इस संसार में जो परमकृपालु और अतुल बुद्धिशाली उपदेशक अपने मनमें सर्वदा यही सोचता है कि 'यह विचारे श्रोता | लोग कैसे संसार समुद्रसे पार होंगे?' उसके अनादिकालसे बंधे भयंकर संसारिक अज्ञानादि दुख और जन्म, रोग, जरा, मरणादि । 1 भय समूल नष्ट हो जाते हैं, ऐसा श्रीगणधरादि महाज्ञानियोंने कहा है ।। १२ ॥ अपने तथा दूसरों के कल्याणके इच्छुक सच्चे जिनधर्म प्रेमीको नियमपूर्वक जिन शासनका उपदेश करना चाहिये तथा 7 मोक्ष लक्ष्मीको वरण करनेके लिए व्याकुल उस बुद्धिमान् उपदेशकका यह भी कर्तव्य है कि वह हर समय प्रमादको छोड़कर सब ही संसारी प्राणियोंको शास्त्र श्रवण, तत्त्वोंके मनन, सम्यक् चारित्रके पालन, आदि उत्तम कार्योंमें लगावे ।। १३ ।। श्रोता इस भव और परभवमें सुखोंके इच्छुक धर्मशास्त्रके श्रोताओंमें गुरु, आदिको सेवा-परायणता, मन लगाकर सुनना, आगे पीछे पढ़े या सुनेको याद रखना, पठित या श्रुतविषयोंका मनन करना, प्रत्येक तत्त्वका गहन अध्ययन करना, प्रत्येक विषयको तार्किक दृष्टिसे समझना, हेयको छोड़ देना और उपयोगीको तुरन्त ग्रहण करना ये आठ गुण निश्चयसे होना चाहिये। ऐसा गणधरादि लोकोत्तर ऋषियोंने कहा है ।। १४ ॥ Reate-THEMENSHITHeareesweepeatenesweHearee १.[जगपकदत्यारहेतुम् ] । २. क हितपदं । ३. म सुखादिमुखेन। ४. महापुराण, प्रथम अध्याय, श्लो० १२६-१३७ । For Privale & Personal Use Only Jain Education international Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग मत्सारिणीमहिषहंसशुकस्वभावा मार्जारकमशकाजजलकसाम्याः । सच्छिद्रकुम्भपशुसपंशिलोपमानास्ते श्रावका भुवि चतुर्दशषा भवन्ति ॥ १५॥ श्रोता न चैहिकफलं प्रतिलिप्समानो निःश्रेयसाय मतिमांश्च मतिं विधाय । यः संशृणोति जिनधर्मकथामुदारां पापं प्रणाशमुपयाति नरस्य तस्य ॥ १६ ॥ प्राज्ञस्य हेतुनयसूक्ष्मतरान्पदार्थान् मूर्खस्य बुद्धिविनयं चे तपःफलानि । दुःखादितस्य जनबन्धुवियोगहेतुं निर्वेदकारणमशौचमशाश्वतस्य ॥ १७ ॥ प्रथमः सर्गः चरितम् कुछ श्रोताओं का स्वभाव मिट्टी (सुनते समय ही प्रभावित होनेवाले, बादमें जो सुने उसे समझकर उसपर आचरण नहीं करनेवाले), झाड२ (सार ग्राहक असार छोड़नेवाला), भैंसा (सुना ना सुना दोनों बराबर), हंस ( विवेकशाली), शुक (जितना सुना उतना ही बिना समझे याद रखा), के समान होता है। दूसरे श्रोताओंकी तुलना बिल्ली ( चालाक पाखंडी), बगुला ( अर्थात् सुननेका ढोंग करनेवाले ), मशक ( वक्ता तथा सभाको परेशान करनेमें प्रवीण ), बकरा ( देरमें समझनेवाले पी तथा कामी) और जौंक ( दोष ग्राही ) के साथ की जा सकती है। अन्य कुछ श्रोताओंके उदाहरण सैकड़ों छेदयुक्त घड़े ( इस ! कान सुना उस कान निकाल दिया), पशु ( किसीका जोर पड़ा तो कुछ सुन समझ लिया ), सर्प ( कुटिल ) और शिला (प्रभावहीन ) से दिये जा सकते हैं, इस प्रकार संसारके सब ही श्रावक चौदह प्रकारके होते हैं ॥ १५ ॥ जो विवेकी श्रोता सांसारिक भोग विलासरूपी फलोंकी स्वप्नमें भी इच्छा नहीं करता है तथा मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति करनेका अडिग तथा अकम्प निर्णय करके प्राणिमात्रके लिये कल्याणकारिणी जिनधर्मकी विशाल कथाको सुनता है, उस मनुष्यके सब ही पापोंका निसन्देह समूल नाश हो जाता है' ॥ १६ ।। RADIRATRAIRAGRIHIRamaA उपदेष्टा का कर्तव्य बुद्धिमान और कुशल कथाकारको श्रोताकी योग्यताके अनुसार उपदेश देना चाहिये । जैसे-विशेषज्ञानी श्रोताके सामने प्रमाण, नय, आदिके भेद प्रभेद ऐसे सूक्ष्मसे सूक्ष्म विषयोंकी चर्चा करे । मूर्ख या अज्ञ पुरुषको साधारण ज्ञान, शिष्टाचार और व्रत नियमादिके लाभोंको समझाये । यदि श्रोताका हृदय इष्ट वियोगसे विह्वल हो रहा हो तो उसे उन कर्मोका मधुर उपदेश दे जिनके कारण स्वजन और बन्धु बान्धवोंका वियोग होता है। जिसकी बुद्धि डांवाडोल रहती हो उसे संसार और शरीरकी अपवित्रताका और अस्थिरता दिग्दर्शन कराये, जो कि वैराग्यके कारण हैं ॥ १७ ।। RSADI १. म विनयश्च । ____ व्यक्ति । Jain Education Interational २. महापुराणमें 'चालिनी' शब्द 'सारिणी' के स्थानपर है। अर्थात् विना विवेकके छोड़ने या बहुत थोड़ा माननेवाले ३. महापुराण, प्रथम अध्याय श्लो० १३८-१४६ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धस्य शीलमधनस्य फलं व्रतानां दानं क्षमा च धनिनो विषयोन्मुखस्य । सद्दर्शनं व्यसनिनो जिनपूजनं च श्रोतुर्वशेन कथयेत्कथको विधिज्ञः ॥१८॥ संसारसागरतरङ्गनिमग्नजीवान् सज्ज्ञाननावमधिरोप्य सुखेन नीत्वा । सद्धर्मपत्तनमनन्तसुखाकरं यत् तत्प्रापयन्ति गुरवो विदितार्थतत्त्वाः ॥ १९ ॥ जन्माटवीषु कुटिलासु विनष्टमार्गान् येऽत्यन्तनिर्वतिपथं प्रतिबोधयन्ति । तेभ्योऽधिकः प्रियतमो वसुधातलेऽस्मिन्कोऽन्योऽस्ति बन्धुरपरःपरिगण्यमानः॥ २०॥ राज्याधराज्यपृथुचक्रधरोरुभोगान् भौमेन्द्रकल्पपतिनामहमिन्द्रसौख्यम् । क्लेशक्षयोद्धवमनन्तसुखं च मोक्षं संप्राप्नुवन्ति मनुजा गुरुसंश्रयेण ॥ २१ ॥ सांसारिक सम्पत्ति और भोगोंके लोभीको संयमका उपदेश दें, निर्धनको व्रतादि पालन करनेकी प्रतिज्ञा कराये जिसके फलस्वरूप धनादिकी प्राप्ति स्वतः ही हो जाती है। सांसारिक भोगविलासोंमें मस्त धनी पुरुषको दान और क्षमाका माहात्म्य समझाये । इसी प्रकार चोरी, व्यभिचार, आदि व्यसनों या दुखोंमें फँसे व्यक्तिको तत्त्वोंके सच्चे श्रद्धान और जिन पूजनादिकी ओर प्रेरित करें ॥१८॥ जो सद्गुरु तत्त्व और अर्थको भलीभांति जानते हैं वे संसार समुद्रके मोहरूपी तूफानके थपेड़े खाकर लहरोंमें डूबते हुए प्राणियोंको सरलतासे उभार लेते हैं और सम्यक् ज्ञानरूपी नावपर चढ़ाकर अनन्त सुखोंके भण्डार जिनधर्मरूपी नगरमें पहुंचा देते हैं ।। १९ ॥ भाई बन्धु और हितैषियोंका लेखा करनेपर इस संसारमें उनसे बढ़कर हितैषी और प्रेमी बन्धु दूसरा और कौन हो सकता है, जो जन्म मरणरूपी घने जंगलोंकी टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियोंमें रस्ता भूले हुए संसारी प्राणियोंको पूर्णवैराग्य और शान्तिरूपी कल्याणकारी मार्गोंको पूर्णरूपसे दिखा देते हैं । २० ।। मनुष्य सद्गुरुका सहारा पा जानेपर आधे राज्य, पूर्णराज्य और विशाल राज्योंके अधिपति पदको, चक्रवर्तीके विशाल । भोगोपभोगोंको अथवा चक्रवतियोंके भी पूज्य भौमेन्द्रपद, देवताओंके अधिपति इन्द्र और अहमिन्द्रोके सुखोंको ही प्राप्त नहीं करता, अपितु दुखके संयोगसे हीन ज्ञानावरणादि क्लेशोंके समूल नाशसे उत्पन्न एकमात्र फल अनन्त सुख, वीर्य, दर्शनादिमय मोक्ष महापदको भी वरण करता है ॥ २१ ॥ १. म क्थकोविदज्ञः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F बराङ्ग 'चरितम् तेभ्यो नमः प्रयतकायमनोवचोभिः कृत्वा जगत्त्रयविभूतिशिवंकरेभ्यः । धर्मार्थकामसहितां जगति प्रवृत्तां वक्ष्ये कथां शृणुत मोक्षफलावसानाम् ॥ २२ ॥ आसव निजगुणैहयमादधानः पुंसां समुन्नतधियां स निवासभूमिः । भश्रियः कुरुभुवः प्रतिबिम्बभूतो नाम्ना विनीतविषयः ककुदं पृथिव्याम् ॥ २३ ॥ लोकस्य सारमखिलं निपुणो विचिन्त्य सत्संनिवास भुवनैकमनोरथेन । यं निर्ममे स्वयमुदाहृतरत्नसारं धर्मार्थकामनियमाच्च निधि विधाता ॥ २४ ॥ यस्मिन्दिशश्व रहितालि विपिञ्जराभा यन्नार्ते इभुवन पीलितदुः प्रचाराः (?) । रक्तोत्पलामलदलैरुपहारितास्ते कालागरुप्रततधूपवहाश्च गेहाः ॥ २५ ॥ प्रत्थकार की प्रतिज्ञा तीनों लोकों की सम्पत्ति और सुखप्राप्तिके मार्गके उपदेष्टा वीतराग सद्गुरुओंको विनीत मन, वचन और कायसे साष्टांग नमस्कार करके उस कथा को कहूँगा जो इस संसारमें धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थके परस्पर अविरोधी आचरणसे सुशोभित हुई थी । और जिसका अन्त मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्तिमें हुआ था । आप लोग सावधान होकर सुनें ॥ २२ ॥ विनीत देश इस पृथ्वीपर ककुदके समान सर्वथा समुन्नत विनीत नामका देश था। उसकी सुख समृद्धि आदि विशेषताओंके सामने स्वर्गं भी लजाता था । वह अपनी भोग-उपभोगोंकी प्रचुर सम्पत्तिके कारण देवकुरु, उत्तरकुरु भोगभूमियोंका प्रतिबिम्ब-सा लगता था और उसमें बड़े-बड़े ज्ञानी तथा उदारपुरुष निवास करते थे ॥ २३ ॥ सज्जनोंके सुखपूर्वक निवास करने योग्य एक अलग ही लोक बनानेकी इच्छुक प्रकृतिने संसारके सारभूत सब ही पदार्थोंको कुशलतासे इकट्ठा करके, धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोंकी मर्यादाओंको दृष्टिमें रखते हुए इस विनीत देशको ऐसे ढंग से बनाया था कि इसे देखते ही संसारके सब रत्नों ( श्रेष्ठ वस्तुओं) के नमूने आँखोंके आगे आ जाते थे || २४ ॥ वहाँपर दिशाओं का रंग हरितालके समान हल्का पीला और सफेद सा रहता था। दोनों ओर लहलहाते ईखके खेतोंकी सघन पंक्तियोंके मारे रास्तोंपर चलना भी अति कठिन था । रास्ते रास्ते और गली-गली में पूजाके समय बलि चढ़ाई गयीं लाल कमलोंकी पंखुड़ियाँ बिखरी रहती थीं, मकानोंकी खिड़कियोंसे हर समय कालागरु धूप, आदि सुगन्धित पदार्थों का धुंआ निकलता रहता था ।। २५ ।। १. म भोगश्रिया । २. [ निपुणं ] । ३. [ हरिताल° ] । ४. [ पन्थान ] । प्रथमः सर्गः [७] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः बराङ्ग चरितम् यस्मिन्वनानि फलपुष्पनताग्रशाखाविभ्राजितानिलविकम्पिमहीरुहाणि । स्वादुम्बुकोमलतृणानि दिवा निशीथे घोषाः प्रतिध्वनितमन्द्रगुणा गुणाढ्याः॥२६॥ सन्तो नरा युवतयश्च विदग्धवेषा रागोत्तरासु सकलासु कलास्वबाह्याः । अन्योन्यरञ्जनपराः सततोत्सवाश्च सौख्येन किन्नरगणानतिशाययन्ति ॥ २७॥ देशाविहाय हि पूराध्यषितान्कलज्ञाः शिल्पावदातमयश्चनटा विटाश्च । रनोपजीवनपराः पुरुषाः स्त्रियश्च यस्मिन्पुनर्बहुविशेषगुणा वसन्ति ॥ २८ ॥ रत्नोपलाग्रपरिचुम्बितमेघमालो नानादरीमुखविनिःस्रतनिर्झरोघः । सौम्याचलः फणिमणिक्षपितान्धकारस्तस्मिन्बभूव हिमवानिव तुङ्गकूटः ।। २९ ॥ सर्ग: इस देशके जंगलों में ऐसे ही वृक्षोंकी भरमार थी जो फूल और फलोंके भारसे पृथ्वीको चूमते थे । ये वृक्ष जब तीव्र वायुके झोकोंसे झूमते थे तब वनका दृश्य बड़ा ही हृदयहारी होता था। इन वनोंमें सुकुमार छोटी-छोटी हरी दूबका फर्श बिछा था और ॥ मधुर जलपूर्ण तालाबोंको भरमार थी। इसीलिए दया, उदारता, आदि गुणोंके धनी पुरुषोंसे परिपूर्ण ग्वालोंकी बस्तियोंसे दिनरात गाने-बजाने की मधुर और गम्भीर प्रतिध्वनि आती रहती थी ॥ २६ ॥ इस देशके पुरुष भले नागरिक थे । युवतियोंका वेशभूषा व आचरण शिष्ट था। शिक्षा, स्वास्थ्य, संगीत, चित्रकला, प्रेमप्रसंग, आदि कोई भी ऐसी कला न थी जिससे वहाँके युवक और युवतियाँ अनभिज्ञ हों। वे प्रतिदिन कोई न कोई उत्सव मनाते थे तथा एक-दुसरेको लुभाने और प्रसन्न करनेके लिए पृथ्वी-आकाश एक कर देते थे। अपने इन सुखभोगोंके द्वारा वे किन्नर देवताओंकी जोड़ियोंको भी मात करते थे ॥ २७ ॥ बड़े से बड़े प्रसिद्ध कलाकार, वर्षोंके अनुभवके कारण निर्दोष और तीक्ष्ण बुद्धि शिल्पी, नट, विट तथा अभिनय और । संगीतके द्वारा ही आजीविका करनेवाले कुशल स्त्री और पुरुष अपने निवासके प्राचीन देशोंको छोड़कर इस ( विनीत ) देशमें आ बसे थे क्योंकि यहाँ आकर बसनेसे उनके गुण केवल उत्तरोत्तर बढ़ते ही न थे अपितु वे नयी-नयी विद्याएँ सीखकर बहुज्ञ भी हो में जाते थे ॥ २८ ॥ सौम्याचल इस विनीत देशमें सौम्याचल नामका पर्वत था। जिसके ऊँचे-ऊँचे शिखर हिमालय पर्वतकी बराबरी करते थे। रत्नशिलाओसे परिपूर्ण इसके शिखर मेघमालाको चूमते थे। इस पर्वतको कितनी ही गुफाओंसे कल-कल निनाद करते झरने । बहते थे। इसमें ऐसे-ऐसे विचित्र और भीषण साँप रहते थे जिनके फणके मणियोंकी चमकसे अंधेरी रातमें भी प्रकाश हो जाता था ॥ २९ ॥ १. [कलाझाः | Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वराङ्ग चरितम् सर्गः यस्मिन्सदा गरुडकिन्नरपन्नगानां गन्धर्वसिद्धतुषितामरचारणानाम् । आक्रीडनानि विविधानि मनोहराणि सोद्यानकाननगुहागहनेष्वभूवन् ॥ ३०॥ तस्मात्पतङ्गजेविषाणविपाटितोरुपाषाणगह्वरविजृम्भितपन्नगेन्द्रान् । कादम्बसारसगणैरुपसेव्यमाना रम्या नदी प्रभवति प्रथिता धरायाम् ॥३१॥ वाताहतद्रुमपतत्कुसुमोपहारे मत्तभ्रमभ्रमरगीतरवाभिधाने । तस्यास्तु दक्षिणतटे समभूमिभागे रम्यातटं पुरमभूद्भुवि विश्रुतं तत् ॥ ३२ ॥ रम्यानदीतटसमीपसमुद्भवत्वाद् रम्यातटं जगति रम्य' हि नाम रूढम् । तस्यैव नाम कृतवृद्धिगुणान्समीक्ष्य अन्वर्थमुत्तमपुरं पटुभिद्वितीयम् ॥ ३३ ॥ इसके सुन्दर उद्यान, वन, गुफा और सघन जंगलोंमें नागकुमार, किन्नरादि व्यन्तर, पन्नग, गन्धर्व, सिद्ध, तुषित, अमर 1 और चारण जातिके देव सदा ही सब प्रकारको क्रीड़ाएँ किया करते थे। यह गुहा ग्रहोंमें क्रीड़ाएँ बड़ी ही रमणीय और मनमोहक होती थीं ।। ३०॥ दन्तकेलिके समय मदोन्मत्त हाथो झपटकर विशाल शिलाओंपर दन्तप्रहार करते थे, फलतः शिलामें फटकर बड़ी-बड़ी दरारें बन जाती थी, जिनमें विकराल साँप निवास करते थे ऐसे इस म्याचसौल पर्वतसे पृथ्वीभरमें प्रसिद्ध रम्या नामकी नदी, निकली थी, जिसमें हंस, सारस आदि जलचर पक्षियोंके झुण्ड के झुण्ड रहते थे ॥ ३१ ॥ इसी रम्या नदीके दक्षिणी किनारेपर एक विशाल समतल भूमिखण्ड पर विश्वप्रसिद्ध रम्यातट नगरी थी। हवाके झोकोंसे झमते हुए वृक्ष इसपर स्वयं गिरते हुये फूलोंकी भेंट चढ़ाते थे। फूलोंके परागसे मस्त होकर भौरे यहाँ घूमते-फिरते थे जिनके # गीतकी ध्वनिसे यह समतल नगरी सदा गुजती रहती थी ॥ ३२ ॥ मलमायामा RE उत्तमपुर इसी समतलपर संसारभरमें विख्यात रम्यातट नामका नगर बसा था। रम्यानदीके किनारेपर बसनेके कारण ही सारे संसारमें उसका 'रम्यातट' यह सुन्दर नाम चल पड़ा था यद्यपि इस नगरकी समृद्धि और विशेषताओंको देखकर कुशल पुरुषोंने । । इसका दूसरा नाम उत्तमपुर रखा था जो कि सर्वथा सार्थक था ॥ ३३ ॥ [९] १. [ तस्मान्मतंगज°]। २. [ पन्नगेन्द्रात् । ३. [ यस्य ]। ४.[कृतमृद्धिगुणान् ] । Jain Education international Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अभ्यन्तरस्य नगरस्य बहिःप्रवेशः कान्तो यतो भवति कान्तपुरं तदेव । पद्मालया सततमारमतीति यस्माल्लक्ष्मीपुरं बुधजनैः कथितं पुरं तत् ॥ ३४ ॥ उद्यानपर्वतवनान्तरित प्रदेशैर्वापीतडाग व रपुष्करिणीहदैश्च 1 दिग्देवदेव गृहरम्यसभाप्रपा 'भिर्बाह्य' पुरः परपुरश्रियमादधार ॥ ३५ ॥ आवेष्ट्य तत्पुरवरं परिखाऽवतस्थे द्वीपं यथा जलनिधिर्लवणाम्बुगर्भः । माहीमयोऽभ्युदितशैलसमानशाल: प्रोद्भिद्य भूतलमिवाभ्यधिकं रराज ॥ ३६ ॥ प्रासादकूटवलभीतटगोपुरैः स्वैरत्युच्छ्रितध्वजविचित्रचलत्पताकैः । आरामकल्पतरुगुल्मलताप्रतानै रुद्धातपं पुरमभूद्गरिभित्तिभिश्च ॥ ३७ ॥ संगीतगोतकरतालमुख प्रलापैर्वीणामृदङ्गमुरजध्वनिमुद्गिरद्भिः I हयैरनेक परिवर्धित भूमिदेशे विन्यस्तचित्रबलिभिः सततं रराज ॥ ३८ ॥ इसे कान्तपुर भी कहते थे क्योंकि इस नगरके भीतरके और बाहरके प्रदेश एकसे सुन्दर और स्वच्छ थे । कमलालया लक्ष्मी भीइस नगर में अपने अनेक रूपोंमें सदा निवास करती थी इसीलिए विद्वान् पुरुष इसे लक्ष्मीपुर नामसे भी पुकारते थे ||३४|| इस नगर के बाहिरी भागको शोभा भी अन्य नगरोंको शोभा ओर विभवसे बढ़कर थी; क्योंकि इसके बाहरके भाग उद्यान, कृत्रिम पर्वत, वन और उपवनोंसे भरे पड़े थे। प्रत्येक भागमें बावड़ी, झोल, बढ़िया पुष्करिणो ( पोखरे ) और तालाबोंकी छटा दृष्टिगोचर होती थी । जिधर निकलिये उधर ही दिक्पालों और देवताओंके मन्दिर, रमणीय सभा मण्डप और पियाउओंके पुण्य-दर्शन होते थे || ३५ ॥ क्षार जलपूर्ण लवण समुद्रने जिस प्रकार जम्बूद्वीपको घेर रखा है उसी प्रकार इस श्रेष्ठ नगरको एक विशाल खाई चारों तरफसे घेरे हुई थी। गगनचुंबी पर्वतके समान उन्नत पार्थिव परकोटा इस नगरके चारों ओर इतना अधिक अच्छा लगता था मानो उद्भिजोंके समान वह पृथ्वीको फोड़कर ही ऊपर निकल आया है ।। ३६ ।। इस नगरपर पड़नेवाली सूर्यकी धूप बाहरको बाहर ही रह जाती थी, क्योंकि यह अपने विशाल महलों तथा उनके शिखरों, छज्जोंके कगारों, प्रवेशद्वारों, अत्यन्त ऊँचे ध्वजदण्डों और उनपर लहराती हुई रंग-बिरंगी पताकाओं, बगीचों, विशेषकर उनमें लगे ऊँचे-ऊँचे कल्पवृक्ष, झाड़ियों, कुंजों और पर्वतरूपी भित्तियोंके द्वारा ही उसे (धूपको ) रोक देता था ।। ३७ ।। इस नगरकी शोभाको ऐसे भवन दिन दूना और रात चौगुना करते थे जिनमेंसे सदा ही संगीतके समय बजते हुये करताल, वीणा, मृदङ्ग, तबला, आदि बाजों तथा आलाप और गानेकी मधुर तथा गम्भीर ध्वनि सुनायी पड़ती थी । इन १. म प्रभाभि । For Private Personal Use Only प्रथमः सर्गः [१०] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् भूशैलतोय विविधाकरजातपण्यं " मुक्ताप्रवालतपनीयमनेकभेदम् । यद्यच्च दुर्लभतमं परराजधान्यां तस्मिन्पुरे प्रतिवसत्सुलभं च बस्तु ॥ ३९ ॥ न्यायाजितद्रविणतेक कुटुम्ब पूर्ण सर्व सहितं परमद्धयुक्तम् । उद्घाटितापणमुखेषु निरन्तरेषु नक्तं दिवं क्रयपरिक्रमसक्तमर्त्यम् ॥ ४० ॥ नेकप्रकारम हिमोत्सव चैत्यपूजादानक्रियास्नपनपुण्यविवाहसंग: । अन्योन्यगेहगमनागमनो जनौघस्तस्मिन्पुरे प्रतिदिनं ववृधे यथावत् ॥ ४१ ॥ शब्दार्थहेतुगणितादिविशेषयुक्ता ज्ञानप्रभावितिमिरीकृतधीमनस्काः । सद्धर्मशास्त्रकुशलाः सुलभा मनुष्या यत्राररज्जुरधिकं सततप्रमोदाः ।। ४२ ।। मकानों के सामने दुर्वायुक्त प्रदेश बहुत दूरतक फैले थे तथा इनपर भी बलिमें चढ़ायी गयी रंगबिरंगो सामग्रियाँ और फूल फैले रहते थे ॥ ३८ ॥ पृथ्वी, पहाड़, समुद्र तथा नाना प्रकारकी खनिज क्रय-विक्रयकी वस्तुएँ अर्थात् प्रकार प्रकारके मूंगा, मोती, हीरा, सब जातिका सोना आदि पण्य, जो कि दूसरे देशोंकी राजधानियोंके बाजारोंमें प्रयत्न करनेपर भी न मिलते थे, वे ही सब वस्तुएँ उत्तमपुरके बाजारोंमें मारी मारी फिरती थीं ।। ३९ ।। इस नगर के निवासी ग्राहकोंसे ठसाठस भरे तथा आठों पहरके लिये खुले हुए बाजारोंमें दिनरात क्रय और विक्रयमें तल्लीन रहते थे। लेकिन सब ही नागरिकोंकी सम्पत्ति न्यायोपार्जित थी। किसीके भी घरमें अलगाव न होता था और सबके कुटुम्बमें बड़े-बूढ़ोंसे लेकर छोटेतक जीवित थे। हर ऋतु में सबको सब ऋतुओंके सुख आसानीसे प्राप्त थे और सम्पत्ति और बिभव तो मानों उनके अनुचर ही थे ॥ ४० ॥ इस नगर में प्रतिदिन ही सर्वसाधारण के लिए लाभदायक विविध प्रकारके विशेष कार्य, इन्द्रध्वज आदि जिन-पूजा, विपुल दान-कर्म, जिनेन्द्रदेवका पञ्चामृत महाभिषेक, धर्म-विवाह, उत्सव, आदि कार्यं आगमके अनुकूल विधिसे होते रहते थे । इन प्रसंगों पर नागरिक एक-दूसरे के घर आया-जाया करते थे तथा आल्हाद और प्रसन्नता में दिन दुने और रात चौगुने बढ़ते जाते थे ॥ ४१ ॥ यह उत्तमपुरका ही सौभाग्य था कि वहाँपर व्याकरण, काव्य, न्याय, गणित, अर्थशास्त्र, आदि विषयोंके ऐसे प्रकाण्ड पण्डित मौजूद थे जो अपने विमल ज्ञानके प्रकाशसे वहाँ के निवासियोंका बौद्धिक और मानसिक अन्धकार ( अज्ञान ) नष्ट कर १. पुण्यं । २. क प्रभावितमिरी, म प्रभावतिमिरी । प्रथमः सर्गः [११] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् वृद्धाः समेषु तरुणाश्च गुरूपदेशे वेश्याङ्गनाः' सुललिताः समदा युवानः । त्यागेष्वथाजितधनाः प्रमदाः प्रियेषु वस्त्वन्तरे रतिमुपेयुरथानुरूपम् ॥ ४३ ॥ पाषण्डिशिल्पिबहुवर्णजनातिकोणं रत्नापगाजलनिधिः सुरलोकल्पम् । प्रज्ञातिमग्धधनिनिर्धनसज्जनेष्टं चोरारिमारिपरचक्रकथा न तत्र॥४४॥ नीरोगशोकनिरुपद्रवनिर्भयत्वादस्मिञ्जनः सुरसुखं । मनसाऽवमेने । कि वा पुरस्य बहवर्णनया नराणामिष्टेन्द्रियार्थपरिभोगसुखावहस्य ॥४५॥ तस्येश्वरः प्रथितभोजकुलप्रसूतो धर्मार्थकामनिपुणो विनिगूढमन्त्रः। न्यायेन लोकपरिपालनसक्तबुद्धिः श्रीधर्मसेन इति भूपतिरास नाम्ना ॥ ४६॥ प्रथमः सर्गः देते थे। सच्चे धर्मशास्त्रके मर्मज्ञ पुरुष तो उस नगरमें अत्यन्त सुलभ थे। सदा प्रमुदित रहनेवाली यह विद्वान मण्डली वहाँ अलग ही चमकती थी ।। ४२ ॥ उस नगरके वृद्ध पुरुष अपनी बराबरी के लोगोंके साथ उठते बैठते थे। किशोर और तरुण पुरुष गुरुजनों तथा बड़ोंकी शिक्षाओंपर श्रद्धा करते थे। मदोन्मत्त सुन्दर युवक ही वेश्याओंके प्रेम-प्रपंचमें फंसते थे। जिन लोगोंने प्रचुर सम्पत्ति कमा ली थी वे दान देनेमें मस्त रहते थे । कामोन्मत्त कुलीन युवतियाँ अपने प्रेमियोंकी उपासनामें भूलो रहती थीं। इस प्रकार उस नगरका व्यक्ति अपने अनुरूप वस्तुके पीछे पागल था॥ ४३ ॥ इस नगरमें सब धर्मों के विद्वान्, सब कोटिके कलाकार और सब ही वर्गों के लोग निवास करते थे। हर प्रकारकी श्रेष्ठ वस्तुओं, नदियों और पानीको बहुलतासे यह नगर स्वर्गके ही समान था। प्रकाण्ड पण्डितों और अतिशय मूोको, कोट्याधीशों और निर्धनोंको, साधु और सन्तजनोंको यह नगरी एक-सी प्रिय थी। यहाँपर चोरी, शत्रुका आक्रमण या षड्यन्त्र, महामारी, आदि रोगोंका नाम भी न सुना जाता था। ४४ ॥ इस नगरके लोग न तो रोगी होते थे, न शोककी मर्म-भेदिनी यातनाओंसे ही छटपटाते थे। किसी भी प्रकारके A आकस्मिक उपद्रव भी वहाँ न थे और भयसे त्रस्त होकर कांपना तो वहाँके लोग जानते ही न थे । इन्हीं सब कारणोंसे वहाँके । नागरिक स्वर्गलोकके सुखोंकी सच्चे हृदयसे उपेक्षा करते थे। इस प्रकार सब इन्द्रियोंको इष्ट-सुख और भोगोपभोगकी आवश्यक सामग्रियोंसे परिपूर्ण उस नगरका अधिक वर्णन करनेसे क्या लाभ ? ॥ ४५ ॥ महाराज धर्मसेन इस नगरके महाराज धर्मसेन नामसे विश्वमें विख्यात थे। वह विश्वविख्यात भोजवंशमें उत्पन्न हुए थे। धर्म, अर्थ १. [ वेश्याङ्गनासु ललिताः]। २. म जलनिषेः सुरलोकजल्पम् । ३. म नीराग""निर्भयत्वान्यस्मिन् । Jain Education interational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् प्रथमः सर्गः ARDARPIRESTHEATREAweseAAHAPAHARA कामिनीजनमनोहरचारुमूर्तिनौकावहप्रथितलब्धविशुद्धकीर्तिः । शक्तित्रपप्रतिविशेषहतप्रजातिः शास्त्रोपदिष्टवचसाऽप्रतिमानवृत्तिः ॥४७॥ श्रीमान्प्रभिन्नकटवारणतुल्यगामी रक्ताम्बुजच्छविहरामलपाणिपादः । आख्यायिकागणितकाव्यरसाद्यभिज्ञो नित्यं पराभिगमनीयगुणावतंसः ॥ ४८ ॥ बद्धोपसेवनरतिर्दढसौहृदश्च त्यक्तप्रमादमदमत्सरमोहभावः। सत्संग्रहः स्थिरसखः प्रियवागलोभः प्रागल्भ्यदाक्ष्यसहितो हितबन्धुवर्गः ॥४९॥ रूपेण काममथ नीतिबलेन शक्र कान्त्या शशाङ्कममरेन्द्रमदारकीर्त्या। दीप्त्या दिवाकरमगायतया समुद्रं दण्डेनदण्डधरमप्यतिशिश्य एव ॥ ५०॥ काम तीनों पुरुषार्थोंका मर्यादापूर्वक पालन करने और करानेमें कुशल थे। 'प्रजाका न्यायपूर्वक पालनपोषण हो' यह विचार सदा ही उनके मनमें चक्कर काटा करता था। वह इतने मन्त्रदक्ष थे कि उनकी योजनाओंकी, पूर्ति होनेके पहिले तक किसीको गन्ध भी न मिलती थी ।। ४६ ॥ उसके अत्यन्त सुगठित और सुन्दर शरीरको देखकर ही कामिनी नायिकाएं प्रेमोन्मत्त हो जाती थीं, सामुद्रिक व्यापारियोंने इसकी निर्मल कीर्तिको सात समुद्र पार दूर-दूर देशोंमें भी प्रसिद्ध कर दिया था। अपनी प्रभु, मन्त्र और उत्साह शक्तियों द्वारा वह प्रजाके समस्त दुख दूर करनेका सतत प्रयत्न करता था और भूलकर भी उसका आचार-विचार शास्त्रोक्त सिद्धान्तों , तथा नियमोंके प्रतिकूल न जाता था। ४७ ।। वह उस सुन्दर और मस्त हाथीके समान झुमके चलता था जिसके मस्तकसे मद-जल बहता है। उसके निर्दोष और विमल हाथ-पैरोंपर लाल कमलको कान्ति नाचती थी। वह गल्प, उपन्यास, गणित, काव्य आदि शास्त्रोंके रस ( ज्ञान ) से अपरिचित न था। उसके सबही गुण ऐसे थे कि उन्हें प्राप्त करनेके लिये दूसरे राजा हर समय लालायित रहते थे ।। ४८॥ उसे गुरुजनोंकी सेवा करनेका व्यसन था। मित्रता करके उसे तोड़ता न था। प्रमाद, अहंकार, मोह, दूसरोंकी वढ़ती देखकर कुढ़ना, आदि बुरे भाव उसके पास तक न फटक पाते थे । उसे सज्जनों और भली वस्तुओं के संग्रहका रोग था। उसके मित्र डंवाडोल स्वभावके व्यक्ति न थे । मधुरभाषी होनेके साथ-साथ बिल्कुल निर्लोभी भी था। साहसिकता और कार्यकुशलता उसके रोम-रोममें समायी थी, और अपने बन्धु-बान्धवोंका परमहितैषी था ।। ४९ ॥ उसने अपने अक्षुण्ण सौन्दर्य द्वारा कामदेवको, न्यायनिपुणता और नीति कुशलतासे शुक्राचार्यको, शारीरिक कान्तिसे से चन्द्रमाको, तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध यश द्वारा देवराज इन्द्रको, तेज और प्रताप द्वारा दिननाथ सूर्यको, गम्भीरता और सहनशीलता १. म युक्ते । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः वराङ्ग चरितम् यस्याज्ञया स्वपथमुत्क्रमितु न शेकुर्वर्णाश्रमा जनपदे सकले पुरे वा। पाषण्डिनः स्वसमयोपविनीतमार्गाः सोऽतीव बालबुधवृद्धतमान्बभार ।। ५१॥ यस्याहितं प्रकुरुते मनसापि कश्चित् किंचित्क्वचित्पुरुषमर्थमनर्थक' वा। क्षुत्क्षीणभुग्ननयनोदरवक्त्रदण्डः स्थातु हि तस्य विषये न शशाक मत्यंः ॥५२॥ युद्धेषु भिन्नकटवारणगण्डलेखासंप्रस्रुतैः शमितधूलिषु दानतोयैः । वाक्येषु बृहितमदान्प्रतियोद्ध कामान् यः सद्य एव हि रिपून्विमदोचकार ॥ ५३ ॥ चेतांसि बद्धदृढवैरवतां नराणामभ्यन्तरप्रकृतिकस्य जनस्य वापि । स्वाभाविकैविनयजैश्चरितैरुवारैर्योऽरज्जयद् भृशमथ स्वगुणैनरेन्द्रः॥ ५४॥ सर्ग: से समुद्रको और न्यायानुसार शासन करनेकी शक्ति द्वारा विश्व व्यवस्थापक यमराजको भी पछाड़ दिया था॥५०॥ यह उसके प्रचण्ड शासनका ही प्रताप था कि लोग राजधानी या राज्यके किसी कोनेमें भी चारों वर्षों ( जीविकाके ) म और चारों आश्रमों ( संघों ) की मर्यादाओंको लाँघनेका साहस न करते थे । सबहो सम्प्रदायोंके अनुयायी अपने शास्त्रोंके अनुसार आचरण करते थे। इस प्रकार वह बालकों या बूढ़ों, अज्ञ या प्रकाण्ड पण्डितों आदि सबसे ही अपने-अपने कर्तव्योंका पालन तत्परतासे करता था ॥५१॥ यदि कोई पुरुष केवल मनमें ही उसका बुरा करनेका विचार डाला था, या कहीं कोई विरुद्ध बात या काम करता था, तो चाहे उससे राजाका बुरा हो या न हो, तो भी वह उसके राज्यमें एक क्षण भी ठहरनेका साहस न करता था। वह इतना भयभीत हो जाता था कि अपनेको जंगलों में छिपाता फिरता था जहाँपर भूख प्यासकी वेदनासे उसका पेट, गाल और आँखें फंस जाती थी तथा दुर्बलता और धान्तिसे उसका पृष्ठ दण्ड झुक जाता था ।। ५२॥ इसके युद्धोंमें पैदल सैनिक, और घोड़ों की टापोंकी मारसे जो धूलके बादल छा जाते थे, वे मदोन्मत हाथियोंके उन्नत गण्डस्थलोंसे लगातार बहती हुई दान ( मदजल ) को धाराओंसे बैठ जाते थे , ऐसे भीषण युद्धोंमें शत्रकी तरफसे लड़ते हुये अभिमानी योद्धाओंको और शास्त्रार्थों में अपनी पण्डिताईके मदमें चकनाचूर प्रतिवादी विद्वानोंको (अर्थदानी) वह एकदम हो मसल देता था ॥ ५३ ॥ अपनी स्वाभाविक विनभ्रतासे उत्पन्न उदार आचरणों तथा महान गुणोंके द्वारा वह उन लोगोंके भी मन्त्रमुग्ध कर लेता था, जिन्होंने उसके विरुद्ध वैरकी दृढ़ गाँठ बाँध ली थी, या जिनको रुचि बाह्य संसारसे ऊबकर अन्तर्मुखी हो गयी थी फलतः जो सदा ज्ञान ध्यानमें ही लगे रहते थे और राग-द्वेष आदि मोहजन्य भावोंसे पर थे ।। ५४ ।। १. [ °परुष°]। । [१४] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः वराङ्ग चरितम् ताराधिपः कुमवषण्ड विकासदक्षः शीतैः करैर्नभसि संविबभौ यथैव । नित्यं प्रियाकुमुदषण्डवचोमयूखैर्मयां तथैव वसुधाधिपपूर्णचन्द्रः ॥ ५५ ॥ आफूल्लचारुविमलाम्बुरुहाननस्य आजानुलम्बपरिपीनभुजद्वयस्य । श्रीवक्षसः खलु मृगेन्द्रपराक्रमस्य स्वान्तःपुरं पुरपतेस्त्रिशतोबभूव ॥ ५६ । युक्ताधिरोहपरिणाहसमन्विताङ्गयो हंसीस्वनाः सुगमनग्रहणस्वभावाः । लज्जावपूविनयविम्रमचारुवेषास्तुल्यावलोकननिरन्तरसौहृदाश्च फुल्लारविन्दवदना वरचारुनेत्राः फुल्लारविन्दकुसुमोरुशुचित्वगन्धाः । फुल्लारविन्दवरकान्तिगुणावदाताः फुल्लारविन्दवरकोमलपाणिपादाः ॥५८॥ सर्ग: शीतल-शीतल किरणों द्वारा कुमुदकी कलियोंको विकसित करनेमें प्रवीण ताराओंका अधिपति चन्द्रमा जैसा आकाशमें सुशोभिताहोता है उसी प्रकार अपनी पलियोंके मुखरूपी कमल कलियोंको मधुर वचनरूपी किरणोंसे प्रफुल्लित करता हुआ यह राजा पृथ्वीपर उदित दूसरा चन्द्रमा हो प्रतीत होता था ।। ५५ ॥ उसका मुख पूर्ण विकसित सुन्दर और स्वच्छ लाल कमलके समान लालिमा और लावण्यसे पूर्ण था। उसकी खूब पुष्ट । और गठी हुई दोनों भुजाएँ घुटनों तक लम्बी थीं । वक्षस्थलमें लक्ष्मोके निवास का चिह्न था और मृगोंके राजा सिंहके समान उसका प्रचण्ड पराक्रम था । उत्तमपुरके राजा महाराज धर्मसेनके अन्तःपुरमें केवल तीन सौ रानियाँ थीं ॥ ५६ ।। अन्तःपुर इन सबही रानियोंके शरीरकी ऊँचाई तथा परिणाह (चौड़ाई या घेरा ) अनुपातिक थे अर्थात् समचतुरस्र संस्थान था, बोली हंसीके समान मधुर, स्पष्ट और धीमी थी । स्वभावसे ही उन सबकी गति सुन्दर और मन्थर थी। स्त्रियोचित लज्जाकी तो वे मूर्तियाँ थीं। विनम्रता और कुलीनता तो उनके रोम-रोममें समायी थी । वेशभूषा सुन्दर और शिष्ट थी और पतिकी प्रेमदृष्टि और अनुग्रह सबपर एकसे होने कारण उनका पारस्परिक सखीभाव भी गाढ़ था ।। ५७ ॥ उन सबके खिले हये मुख और बड़ी-बड़ी मनोहर आँखें कमलोंके समान आल्हादजनक थीं। उनके श्वास और शरीर1 की गन्ध तुरन्त खिले कमलोंसे निकलती सुगन्धित वायुके समान परम पवित्र और उन्मादक थी। उनके दोषरहित शील, आदि श्रेष्ठगुण प्रातःकालके खिले हुये श्वेतकमलके समान निर्मल थे। उनके हाथ पैर भी विकसित लाल कमलों के समान कोमल और मनमोहक थे ।। ५८।। १. म कुमुदखण्ड । २. कपरिणाम | w Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग प्रथमः चरितम् सर्गः सर्वाः स्त्रियः प्रथमयौवनगर्ववन्त्यः सर्वाः स्वमातृपितृगोत्रविशुद्धवन्त्यः । सर्वाः कलागुणविधानविशेषदक्षाः सर्वा यथेष्टमुपभोगपरीप्सयिन्यः ॥ ५९॥ चातुर्यहावगतिविभ्रमत्क्रियाभी रूपेण ता तिमतातिमनोहरेण । सत्यन्तरे समनुकलतयानुभय राज्ञो मनस्यधिगता वनितास्तदासन ।। ६०॥ हासेन वा मधुमदेन सवितेन रागेण वाथ कलुषीकृतचेतसा वा । अन्योन्यमर्मपरिहासकथाभिरामा राज्ञः स्त्रियस्त्विति कथा न बभूव लोके ॥ ६१ ॥ धर्मप्रियस्य रतिनोतिविशारदस्य सामान्यदृष्ट्यभिनिवि [ष्ट ] तायात् ? नात्युद्धताः सममुखाः२ पतिवत्सलाश्च शीलानुरक्तहृदया वनिता विनीताः ॥ ६२॥ तासु क्षितीन्द्रहृदयप्रियकारिणीषु माधुर्यकान्तिललितप्रतिभान्वितासु । रेजे भृशं गुणवती क्षितिपाङ्गनासु तारागणेष विमलेष्विव चन्द्रलेखा ॥६३॥ __ उन सबके ही माताओं और पिताओंके वंश परम शुद्ध व सदाचारी थे। एक भो रानी ऐसी न थी, जिसने ललित कलाओं, श्रेष्ठ गुणों और विशेष विधानोंमें असाधारण पटुता प्राप्त न की हो। सबकी सब यौवनके प्रथम उभारसे मदमाती हो रही थीं। फलतः सबकी सब मनभर प्रेमका उपभोग करनेके लिये लालायित थीं॥ ५९॥ यद्यपि उनकी चतुराई, चाल, हावभाव, आचरण, शृंगार, आदर सत्कार और अत्यन्त कान्तिमान मनमोहक सौन्दर्यमें भेद था, तो भी उन सवकी सब रानियोंने अपनी स्वाभाविक विनम्रता और आज्ञाकारिताके द्वारा राजाके मनपर पूर्ण अधिकार । कर लिया था ॥ ६ ॥ इन रानियोंने हँसी-हँसीमें या मदिराके नशेमें, या अहंकारके आवेगमें, या किसीकी प्रीतिके कारण अथवा किसीसे कोई मनोमालिन्य करके मनोविनोदके लिए किसी सखोकी गुप्त बात प्रकट की है या किसीसे दिल दुखानेवाली बात की है, ऐसी चर्चा भी कभी लोगोंके मुखसे न सुनी गयी थी॥ ६१ ॥ यै सब हो रानियाँ पतिको प्यारी थीं और स्वयं भी पतिसे गाढ़ प्रेम करती थीं। एकका भी व्यवहार वद्धत न होता था। सबकी सब एकसी सुखी थीं। इनका हृदय शीघ्रव्रतके रंगसे रंगा था ओर सब ही अत्यन्त विनम्र थीं क्योंकि परम धार्मिक तथा सुरत कला और राजनीतिके पंडित महाराज धर्मसेन बिना भेदभावके सबको एक ही दृष्टिसे देखते थे ।। ६२ ।। ये सब ही रानियाँ स्वभाबकी मधुर थीं। शरीरमें क्रान्ति ओर लावण्य फटे पड़ते थे और बुद्धि प्रतिभा सम्पन्न थी। 11. [ कामकभारपति ]। २. [ समसुखाः] । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग शुद्धान्वया रुचिरभूषणभूषिताङ्गी कामेकभारवति कर्कशजातरागा (?)। स्निग्धा हिता शुचिमती मितवाक्सुदक्षा भूमीश्वरस्य हृदयं स्वगुणैर्बबन्ध ॥ ६४ ॥ या धर्मसेननयनामृतरूपशोभा तस्मै वचःश्रवणपथ्यहितानुवाक्या। तद्गात्रचित्तरतिकारणवेषचेष्टा तेनाभवत्सुरतनाटकनायिका सा ॥६५॥ तस्यास्तदाङ्गममलेन्दु'निभाननायाः पोनोन्नतस्तनतटापितचन्दनायाः । आश्लिष्य कामशरताडनविह्वलायाः प्रीति परामुपजगाम पतिर्धरायाः ॥ ६६ ॥ सा चापि तस्य वदनं नयनातिकान्तमाकृष्य सीधुरसिना बदनाम्बुजेन । भयश्चचम्ब मदनातुरमन्दचेष्टापूर्व प्रियवणितपाटलविभ्रमोष्ठी ।। ६७॥ प्रथमः सर्गः चरितम् ये वही काम करती थीं जिसे राजा मन ही मन चाहता था ।। ६३ ॥ महारानी गुणवती उक्त प्रकारसे समानता होनेपर भी इन सब रानियोंमें गुणवती रानी वैसी ही चमकती थो जैसे निर्मल ताराओंके बीच चन्द्रलेखा अपनी कान्ति और सरलताके कारण विशेष शोभित होती है ।। ६३ ॥ इसका पितृ-मातृकुल परमशुद्ध था, स्वभाव स्नेहमय था और सबका भला चाहती थी। शरीर और मन परम पवित्र थे। परिमित बोलती थी और हर एक कार्य करनेमें अत्यधिक कुशल थी। थोड़ेसे उपयुक्त और सुन्दर भूषण पहिन लेनेपर इसका सौन्दर्य चमक उठता था। कामदेवका सारा भार मानों उसीपर आ पड़ा था इसीलिए उसे अपने पतिसे प्रगाढ़ प्रेम था॥ ६४ ॥ उसका रूपभार महाराजा धर्मसेनकी आँखोंको अमृत था। बार-बार पूछनेपर कभी-कभी बोलनेवाली रानीकी हितमित वाणी राजाके कानोंके लिए पथ्यसा मालूम देती थी। उसकी वेशभूषा और हावभाव राजाके मनको विकल और शरीरको कामातुर करनेमें समर्थ होते थे इसीलिए वह सूरतरूपी नाटककी प्रधान अभिनेत्री बन सकी थी।। ६५ ॥ उसका मुख पूर्णिमाके निष्कलंक चन्द्रमाके समान मनमोहक और रति-उत्तेजक था। पूर्ण विकसित उन्नत स्तनोंपर चन्दन लेप लगानेपर उसका शरीर बड़ा उद्दीपक हो जाता था। कामदेवके इन बाणोंकी मारसे विह्वल होकर राजा उसके शरीरका आलिंगन करता था। और इस तरह प्रीति समुद्रमें डूबता और तैरता था॥ ६६ ॥ उसके लाल-लाल ओठ पतिके चुम्बनोसे क्षत विक्षत हो जाते थे तथा कामके आवेशमें आ जानेके कारण शारीरिक से चेष्टाएँ मन्थर हो जाती थीं तो भी वह आँखोंको अत्यन्त प्यारा राजाका मुख अपनी तरफ खींचकर मदिराकी गन्धयुक्त अपने मुख कमलसे बार-बार चूमती थी॥ ६७ ॥ १. म मनलेन्दु। [१७] Jain Education international 3 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग प्रथमः चरितम् ताभ्यां यथेष्टमभिसंहितमन्मथाभ्यां तुल्यानुरागरतिवर्धनसत्क्रियाभ्याम् । अन्योन्यचित्तपरिपोषणतत्पराभ्यां प्राप्त नजन्मचिरजीवितयोः फलं तत् ॥६॥ अनुपरतमृदङ्गमन्द्रनादे मणिकिरणैरवभासितान्धकारे। षड्ऋतुसुखगृहे विशालकोतिर्वरवनिताभिररस्त राजसिंहः ॥ ६९ ॥ इति नगरनरेन्द्र [-] भार्याः प्रथमतरं कथिताः कथाप्रबन्धात् । श्रुतिपथसुखदं निगद्यमानं तत उपरि प्रकृतं निशामयध्वम् ॥ ७०॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते जनपदनगरनृपतिनृपपत्नीवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः । सर्गः उन दोनोंने मनुष्य जोवन और लम्बी आयुका वास्तविक फल प्राप्त कर लिया था, क्योंकि उन्होंने मनभरके कामदेवकी आराधना की थी। उनकी प्रत्येक आदर सत्कारमय चेष्टा दोनोंके प्रेम और रिरंसाको बराबरीसे बढ़ाते थे, और दोनोंके दोनों एक दूसरेके मनको संतुष्ट करने और बढ़ानेके लिए सर्वदा कमर कसे रहते थे ॥ ६८॥ विश्वविख्यात यशस्वी महाराज धर्मसेन अपनी परम कुलीन रानीके साथ उस विशाल राजभवनमें रमण करता था, जिसमें छहों ऋतुओंके सुख मौजद थे, जगमगाते मणियोंकी किरणोंसे रात्रिका अन्धकार हटाया जाता था और जिसके गोपुर पर । बजते हुये मृदंगोंकी गम्भीर ध्वनि कभी बन्द न ही होती थी॥ ६९ ।। _ इत प्रकार कथाके क्रमके अनुसार सबसे पहिले देश, राजधानी, राजा और पट्टरानीका वर्णन किया है जो कहने सुननेपर कानोंको सुख देता है। इसके उपरान्त आप लोग वास्तविक कथाको सुनें ।। ७० ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय बरांगचरित नामक धर्मकथामें जनपद नगर-नृपति-नृपपत्नी वर्णन नामका प्रथम अध्याय समाप्त । [१८] Jain Education intémational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् द्वितीयः सर्गः धर्मेण संप्राप्तमनोरथस्य श्रीधर्मसेनस्य नरेश्वरस्य । प्रियाङ्गनायां स वराङ्गनामा जज्ञे कुमारो गुणपूर्वदेव्याम् ॥ १ ॥ यस्मिन्प्रसूतेऽभिननन्द राष्ट्रं पितुश्च मातुर्ववृधे प्रहर्षः । भयं रिपूणामभवत्तदैव दुद्राव शोकः स्वजनस्य तस्य ॥ २ ॥ अन्योन्यहस्तैः प्रतिनीयमानो बालेन्दुवद् वृद्धिमुपाजगाम । कलाप्रलापं वदनारविन्दं संप्रेक्ष्य भूपो न ततर्प लोकः ॥ ३ ॥ अनेक सल्लक्षणलक्षिताङ्गः प्रतापकान्तिद्युतिवीर्ययुक्तः । विद्वत्सहाय मतिमान् दयालुः प्रजाहितार्थाय कृतप्रयासः ॥ ४ ॥ द्वितीय स कुमार वराङ्गः प्रजापालक महाराज धर्मसेनके सब ही मनोरथ धर्मके प्रतापसे अपने ही आप पूरे हो जाते थे इसीलिए उनकी प्राणप्यारी श्रेष्ठ रानी [ जिसके नाम में देवी शब्द के पहिले गुण शब्द लगा था अर्थात् गुणदेवी ] गुणवतीके वराङ्ग नामका राजपुत्र हुआ था ॥ १ ॥ कुमार वराङ्गके जन्म लेते ही माता-पिता के आल्हाद समुद्रने अपनी मर्यादाको छोड़ दिया था। कुटुम्बी और सगे सम्बन्धियोंका शोक उन्हें छोड़कर 'नौ दो ग्यारह हो गया था। सारा राष्ट्र आनन्द विभोर हो उठा था और शत्रुओंको उससे अपनी पराजयका भय भी उसी क्षणसे होने लगा था ॥ २ ॥ कुटुम्बियों और परिचारकोंमें सदा ही एक से दूसरेकी गोद में जाता हुआ शिशु बालचन्द्र के समान दिन दूना और रात चौगुना बढ़ रहा था। जब वह तुतला, तुतलाकर मधुर अस्पष्ट शब्द बोलता था तब कमलके समान निर्मल, सुन्दर और कोमल मुखको देखते देखते न राजा ही अघाता था और न प्रजाजन ॥ ३ ॥ उसके शरीपर अनेक शुभ लक्षण स्पष्ट दिखायी देते थे । शैशव अवस्थामें ही उसके शरीरसे प्रताप, कान्ति, लावण्य और बल टपकते थे । उसकी बुद्धि प्रखर थी । शैशवकालसे ही विद्वानों की सहायता करता था। उसका अन्तःकरण दयासे ओतप्रोत था और प्रजाके कल्याणके लिए प्रयत्न करता था ॥ ४ ॥ १. [ कलप्रलापं ] । Met द्वितीय: सर्ग: [१९] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् देवेषु पूजां गुरुषु प्रणामं पराक्रमं शत्रुषु सत्सु मैत्रीम् । पात्रेषु दानं च दयां प्रजासु विद्यासु रागं सततं चकार ॥५॥ शब्दार्थगन्धर्वकलालिपिज्ञो हस्त्यश्वशास्त्राभ्यसनप्रसक्तः। व्यपेतमायामदमानलोभस्तत्याज सप्त व्यसनानि धीमान् ॥६॥ कदाचिदभ्यस्य गजाश्वशास्त्रमृद्धया महत्या नगरी प्रविश्य । प्रणम्य भक्त्या पितरौ यथावत्तस्थौ पुरस्ताद्विनयानताङ्गः ॥ ७॥ समीक्ष्य तौ पुत्रगुणानुदारान रूपं वपुस्तन्नवयौवनं च।। काचिद्भवेदस्य' समानरूपा वपुष्मतीति स्मरतः स्म सद्यः ॥८॥ द्वितीयः सर्गः किशोर अवस्थासे ही वह सदा ही सच्चे देवोंकी पूजा व गुरुओंकी मन, वचन और कायसे विनय करता था। उसके पराक्रमका प्रदर्शन शत्रुओंपर ही होता था। सज्जनमात्रके साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता था। विपदग्रस्त उपयुक्त सत्पात्रोंको । दान देता था, प्रजामात्रपर कारुण्य-भाव रखता था और विद्याओंपर उसका सच्चा अनुराग था ॥ ५॥ लेख, व्याकरण, काव्य, संगीत, आदि सब ही कलाओंमें पारंगत था। दिन रात, हाथी घोड़ेकी सवारी और शस्त्र विद्याके अभ्यास करनेमें तल्लीन रहता था। छल, कपट, प्रमाद, अहंकार, लोभ आदि दुर्गुण तो उसके पाससे भी न निकले थे इसके सिवा उसने बुद्धिपूर्वक, जुआ, आखेट, वेश्यागमन, आदि सातों व्यसनोंको भी छोड़ दिया था॥ ६॥ किसी एक दिन राजकुमार वराङ्गने गज-अश्व आरोहण और शस्त्रचालनका अभ्यास करके बड़े भारी ठाट बाटके साथ राजधानीमें प्रवेश किया। इसके बाद राजमहल में पहुँचकर भक्तिभावसे माता-पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और विनम्रतासे झुककर अपनी मर्यादाके अनुसार उनके सामने बैठ गया ।। ७ ॥ राजकुमारको विवाह वार्ता राजपुत्रके उदार गुणोंका विचार करके तथा उसके सुन्दर शरीर और उसपर भी यौवनके प्रथम उन्मेषको देखकर एकाएक उसी क्षण उन दोनोंके मनमें यही ध्यान हो आया "क्या कोई राजकुमारी इसीके समान रूपवती तथा शरीरसे स्वस्थ । [२०] होगी ॥ ८॥ १. म काचिद्भवेदप्यसमान । Jain Education international . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः वराङ्ग चरितम् सर्गः तस्मिन्स्वकाले' स्वयमेव कश्चिच्छेष्ठी पुरस्यास्य कुमारभक्त्या। अतकितोपस्थितजातरागः समाहितात्मेत्थमुवाच वाचम् ॥९॥ कुलेन शोलेन पराक्रमेण ज्ञानेन धर्मेण नयेन चापि । समृद्धपुर्याः पतिरुत्तमश्रीवत्समानो धृतिषेणराजा ॥ १०॥ अतुल्यनामा (?) किल तस्य भार्या विशालवंशा वरधर्ममूर्तिः । तयोः सुता कीर्तिगुणोपपन्ना बभूव नाम्नानुपमा विनीता ॥ ११ ॥ विभूषणानामतिभूषणेन विरूपतामानवयौवनेन । किमत्र तद्वर्णनयातिमात्रं सा देवकन्या स्वयमागतैव ॥ १२ ॥ श्रुत्वा वचस्तस्य वणिक्तमस्य सोऽत्यर्थमर्थानुगतं मनोज्ञम् । तं पूजयित्वा विधिवत्ततस्तां स्वां मन्त्रशाला पुनराविवेश ॥ १३ ॥ जिस समय राजा रानी उक्त विचारमें मग्न थे उसी समय नगरका कोई सेठ जिसके आनेकी कल्पना भी न की जा सकती थी, मानो राजकुमारकी भक्तिसे ही प्रेरित होकर राजमहल में जा पहुँचा। राजकुमारको देखते ही उसका स्नेह उमड़ पड़ा था तो भी उसने अपने आपको सम्हालकर निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया था ॥९॥ कुमारी अनुपमा 'हे महाराज समृद्धपुरीके एकछत्र राजा धृतिसेन अपरिमित विभव और सम्पत्तिके अधिपति हैं। इसके अतिरिक्त जहाँतक कुलीनता, स्वभाव और संयम, तेज और पराक्रम, विद्या और बुद्धि, धर्म, कर्तव्यपालन, न्याय और नीतिका सम्बन्ध है, वे हर प्रकारसे आपके ही समान हैं ।। १० ॥ महाराज धृतिसेनकी अतुला नामकी पट्टरानी है जो निर्दोष धर्माचरणकी सजीव मूर्ति है, उनका मातृ-पितृकुल भी एक विशाल और विख्यात राजवंश है। इन दोनोंके अनुपमा नामकी राजपुत्री है जो कान्ति, कीर्ति, दया आदि सद्गुणोंका भण्डार होते हुए भी अत्यन्त विनम्र और शिष्ट है ।। ११ ।। हे महाराज ? उस राजकुमारीके शरीर, सौन्दर्य और सद्गुणोंका अलग अलग विस्तारपूर्वक वर्णन करनेसे क्या लाभ ? बस संक्षेपमें यही समझिये कि आभूषणोंके भी उत्तम आभूषण नवयौवनके प्रथम उभारने उसकी गुण-रूप लक्ष्मीको इतना अधिक बढ़ा दिया है कि उसे देखते ही ऐसा लगता है मानों साझात् देवकन्या ही इस पृथ्वीपर उतर आयी है ।। १२ ।। Ss सेठोंके प्रधानके अत्यन्त अर्थपूर्ण, गम्भीर और मनोहर वचन सुनकर राजाने उसकी मर्यादाके अनुकूल सेठका स्वागत सत्कार किया। सेठको प्रेमपूर्वक विदा करके वह अपनी प्रसिद्ध मन्त्रशाला में चला गया ।। १३ ।। १.[तस्मिश्च काले.]। २. [धृतिषणराजः ] । ३. [ विरूपताया नव° ]। HIRGAORAKHIRAIGARHEIRDEEPARATI HARIHARPURWANISHTHHHHHH [२१] Jain Education international For Privale & Personal use only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः बराङ्ग चरितम् ते मन्त्रिमुख्या विदितार्थतत्त्वा अनन्तचित्रा जितदेवसाह्वाः । आहतमात्रा वसुधेश्वरेण यथावियस्थानमुपोपविष्टाः॥ १४ ॥ सत्कृत्य तान्स्मेरमुखः स राजा प्रोवाच वाचं मधुरार्थगर्भाम् । आपूर्यते यौवनमात्मसूनोः कृष्णेतरे पक्ष इवेन्दुबिम्बम् ॥ १५ ॥ व्यायामविद्यासु कृतप्रयोगो नोतौर कृतो सर्वकलाविधिज्ञः । वृद्धोपसेवाभिरतिहितात्मा सुबुद्धिमान् पौरुषवान्कुमारः ॥ १६ ॥ संभाव्यरूप: स्वगुणैर्महीनः पुष्पैः फलानामिव जन्मवेत्ता। रूपश्रियान इव द्वितीयस्तदस्य चिन्त्यं खलु दारकर्म ॥ १७ ॥ PAPHILIP मंत्रशाला प्रयाण राजनीति, अर्थशास्त्र तथा अन्य शास्त्रोंके प्रकाण्ड पण्डित प्रधानमन्त्री लोग जिनके क्रमशः अनन्तसेन, चित्रसेन, अजितसेन और देवसेन नाम थे, महाराजके द्वारा बुलाये जाते ही मन्त्रशालामें आ पहुँचे और अपने अपने पदके अनुसार यथास्थान जा बैठे ।। १४ ॥ उनके अभिवादनको स्वीकार करनेके पश्चात् मुस्कराते हुए राजाने उनका यथायोग्य कुशल समाचार आदि पूछकर स्वागत किया। इसके बाद विचारणीय विषयकी महत्ताके कारण उसने गम्भीर और मधुर वाणीको निम्नप्रकारसे कहना प्रारम्भ किया मंत्रणा हे मन्त्रिवर ! अपने राजकुमारका यौवन (कृष्णके उल्टे पक्ष ) शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान पूर्णताको प्राप्त हो रहा है ॥ १५ ॥ साथ ही साथ आपके राजकुमारने सब विद्याओं और व्यायामोंको केवल पढ़ा ही नहीं है अपितु उनका आचरण करके प्रायोगिक अनुभव भी प्राप्त किया है, नीतिशास्त्रका कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसका कुमारको अध्ययन करना हो । समस्त ललित कलाओं और विधि-विधानोंमें पारंगत हैं। गुरुजनों और वृद्धजनोंकी सेवाका बड़ा चाव है। संसार कल्याणकी भावनाका तो उन्हें प्रतिमूर्ति समझिये । वह कितना बुद्धिमान् पुरुषार्थी है यह आप लोग मुझसे ज्यादा जानते हैं ।। १६ ।। उसका रूप देखते ही बनता है। उसके साहस, वीरता, सेवापरायणता, सहानुभूति, आदि सद्गुण तो ऐसे हैं कि उसे सारी पृथ्वीका एक-छत्र राजा होना चाहिये । भविष्यको ऐसा सटीक आंकता है जैसे कोई फूलोंको देखकर फलोंका अनुमान १. म अनन्तचि त्राजित [धीवराह्वाः]। २. म गीतौ। ३. म कृतिः । PIPICHARPAHIMAHIPAHISHAH [२२] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् श्रुत्वा वचस्तस्य नराधिपस्य ते मन्त्रिणो राजसुतानुरक्ताः । प्रीत्या नरेन्द्रं प्रशशंसुरुच्चैः। समञ्जसं साधु वचस्तवेति ॥१८॥ तेषां पुरस्तात्स्वमनोगतार्थ राज्ञे तदा व्याहृतवाननन्तः । अन्या न तुल्याभिजनानुरूपां तां देवसेन्यां प्रविहाय कन्याम् ॥ १९ ॥ वैबाहिको नः कुलसंततिः सा स्थिरा च मैत्री ननु मातुलत्वात् । तस्मादहं योग्यतया तयाशु सुनन्दयेच्छामि विवाहकर्म ॥ २० ॥ श्रुत्वा ततोऽनन्तवचोऽजितस्तु जगाद वाक्यं पुनरन्यदेव । यत्प्रोक्तमेतेन वचस्तदस्मान्न प्रीणयत्येवमयुक्तिमत्त्वात् ॥ २१ ॥ द्वितोयः सर्गः ...HARMATHASTRATraiyeweapesale-SHIRPAIHOSSIPAHES करता है। अंग अंगसे फूटते हुये, सौन्दर्यको विचारनेपर तो वह दुसरा कामदेव हा मालूम देता है। अतएव अब हमें उसके विवाहको चिन्ता करनी चाहिये ।। १७ ।। मंत्रीसम्मति-अनन्तसेन मंत्री लोग राजपुत्रसे स्वयं भी पिताके समान स्नेह और आदरपूर्ण व्यवहार करते थे अतएव राजाके उक्त प्रस्तावको सुनकर उन्होंने प्रेम और भक्तिपूर्वक उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा-'हे महाराज? आपका कथन सब दृष्टियोंसे उचित और सर्वसाधारणका कल्याणकारी है ॥ १८॥ इसके बाद मंत्रियोंने अलग-अलग अपनी सम्मति दी थी। अतः क्रमानुसार सबसे पहिले अनन्तसेन महामात्यने कुमार वराङ्गके विवाहके विषयमें अपने मनोभाव निम्न प्रकारसे प्रकट किये थे-हे महाराज ? स्वास्थ्य, सौन्दर्य, शिक्षा, कुलीनता, आदि गुणोंमें, महाराज अनंतसेनकी राजदुलारी सुनन्दाको छोड़कर कौन दूसरी राजकुमारी हमारे कुमारकी योग्य बधू, हो सकती है ।। १९ ॥ इस प्रकारके सम्बन्ध करना (मामाकी लड़कीसे व्याह करना ) हमारे राजवंशकी प्राचीन परम्परा है, साथ ही साथ महाराज देवसेन राजकुमारके मामा हैं फलतः इस वैवाहिक सम्बन्धसे दोनों राजवंशोंकी मित्रता दृढ़तर हो जायगी। इसलिये मैं सुनन्दाके साथ राजकुमारका विवाह शीघ्रसे शीघ्र देखना चाहता हूँ क्योंकि वह हर तरहसे योग्य कन्या है ।। २० ।। अजितसेन महामात्य अनन्तसेनके अभिमतको सुनकर द्वितीयामात्य अजितसेनने दूसरा ही प्रस्ताव उपस्थित किया, उन्होंने कहाहे महाराज ? महामात्यने जो प्रस्ताव उपस्थित किया है वह युक्तिसंगत न होनेके कारण मुझे उतना अधिक नहीं जंचता है १. क द्रशशेकुरुच्चैः । २. देवसेवा ] । मामा-SHESHARIHSHARMSesame-SHREERAPawaaiye [२३] Jain Education international Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् जनस्य सर्वस्य हि भर्तृबन्धुः स्वाभाविकं मित्रमकृत्रिमत्वात् । यत्कृत्रिमं स्यात्फलवच्च मित्रमुदारमेतत्करणीयमस्य ॥ २२ ॥ वचोऽजितेनाभिहितं निशम्य स चित्रसेनो गिरमित्युवाच । को देवसेनादितरः पृथिव्यां नरेश्वरः पक्षबद्धिमान्स्यात् ।। २३ ॥ असंहितं प्राक्कुलमुत्तमं च संधिस्यमानं बलिना परेण । नोपैति विश्रम्भमुपैति शङ्कां प्रयोजने विक्रियते च भूयः ॥ २४ ॥ न सा सुनन्दा परिणीयते चेत्स्यान्मित्रभेदः स हि दोषमलः । यस्थापचारेण च यान्ति मित्रायमित्रता वैन त कार्यवित्सः ॥ २५ ॥ द्वितीयः सर्गः चमचमaasaLINERARIचान्यापक जितना कि वे स्वयं उसे समझते है ।। २१ ।। ॥ अकृत्रिम स्नेही होनेके कारण सबकी ही माताका भाई अर्थात् मामा उनका स्वाभाविक सहायक और हितैषो होता है क्योंकि इन लोगोंके साथ स्वार्थोंका संघर्ष नहीं रहता है । लेकिन जो कृत्रिम ( नया सम्बन्ध या उपकार द्वारा बनाया जाता है) मित्र होता है वह बड़ा लाभदायक होता है इसीलिए नीतिशास्त्र विशाल-हृदय कृत्रिम मित्र बनानेकी शिक्षा देता है ।। २२ ।। चित्रसेन द्वितीयामात्य अजितसेनके द्वारा उपस्थित किये गये सुझावको सुन लेनेके बाद तृतीय अमात्य चित्रसेनने निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया । हे महाराज ? मातुलराज महाराज देवसेनके सिवा इस पृथ्वीतलपर कौन ऐसा दूसरा राजा है जिसकी सैन्य, शक्ति और सम्पत्ति उनसे अधिक हो या जिसके सहायक, सहगामी और अनुयायी राजाओंकी संख्या उनके पक्षके राजाओंसे में अधिक हो ।। २३ ॥ किसी सैन्य, अर्थ, सहायबल सम्पन्न राजवंशके पहिलेसे किसी भी प्रकारकी संधि न हुई हो और बादमें यदि वह राजवंश किसी दूसरे महाशक्तिशाली राजवंशके साथ संधि करता है तो तटस्थ या स्वाभाविक मित्र ( मातुल, फूफा आदि) राष्ट्रोंको भी उसपर विश्वास नहीं होता है बल्कि उसके ऊपर शंका ही अधिक बढ़ती जाती है। इतना ही नहीं संधि या सम्बन्धके स्वाभाविक प्रयोजनको भी बहुत कुछ विकृतरूप ही दिया जाता है ।। २४ ।। __अतएव यदि हम सुनन्दाके साथ राजकुमारका विवाह न करेंगे तो इसका परिणाम मित्रभेद अर्थात् स्वाभाविक मित्र राजासे सम्बन्ध विच्छेद होगा (कारण हम जिस किसो राजवंशमें भी कुमारका व्याह करेंगे उसका प्रयोजन केवल व्याह न समझकर, महाराजा देवसेन हमसे खिंचकर अपनी राजकुमारीको किसी दूसरे राजवंशमें व्याह देंगे और उसके ही प्रबल समर्थक १.क अमन्त्रतां। Jain Education inte mational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तां चित्रसेनाभिहितां विचित्रां वाणों निशम्योत्तमधीश्चतुर्थः । प्रत्यब्रवीन्नीतिमतानुसारी वचोऽर्थसंपत्ति गुरुत्वबुद्धया ॥ २६ ॥ बलीयस्तुल्यबलेन योगे । अभूतपूर्वोत्तम सौहृदस्य दोषा यतस्तेन खलूपदिष्टास्ते दूरनष्टा नयमार्गवृत्त्या ।। २७ ।। दारेषु मातर्यथ भृत्यवर्गे सुते पितर्यन्यतमे जने वा । विश्रम्भयोगो न तु तादृशः स्याद्यादृग्दृढे मित्र उदारबुद्धौ ॥ २८ ॥ मित्रं बलीयः स्वनुरागि पुंसामलभ्यमन्यत्र हि दैवयोगात् । तल्लभ्यते चेद्व लिना समग्रा वसुन्धरा हस्तगतैव तस्य ॥ २९ ॥ हो जायंगे । इस प्रकार एक प्रबल मित्र हाथसे निकल जायेगा ) जो कि अचिन्तनीय अनथका मूलकारण हैं । अतएव जिसकी सम्मतिके अनुसार उल्टा सीधा काम कर डालनेसे मित्र भी शत्रु हो जाय उसे हम कार्य कौशल नहीं कह सकते ऐसा आप निश्चित समझें ॥ २५ ॥ देवसेन तृतीय आमात्य चित्रसेनके द्वारा उपस्थित किये गये विचित्र तर्कोको सुनकर प्रखरबुद्धि और देवसेनने उक्त सबही तर्क वितर्कोंका समाधान करते हुए, राजनीतिके अनुसार अपनी सम्मति दी, जो महत्ता के सर्वथा अनुकूल थी ।। २६ ।। संन्यबल, अर्थबल और सहायबल सम्पन्न राजा जिसके साथ पहिलेसे किसी भी प्रकार संधि नहीं हुई है— के अपने ही समान प्रबल शक्तिशाली किसी दूसरे राजासे मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लेनेपर, तृतीयामात्य चित्रसेनने जिन-जिन अनर्थोंकी संभावना बतायी है उनपर यदि नोतिशास्त्र के अनुसार गम्भीरतासे विचार किया जाय, तो वे सबके सबही कपोल कल्पित सिद्ध होते हैं ॥ २७ ॥ अनुभवी चतुर्थं आमात्य 'विचारणीय विषयकी मित्रशक्ति नीति कहती है कि इस संसार में किसी भी व्यक्तिको अपनी माता या पितापर, धर्मपत्नी या औरस पुत्रपर, अत्यन्त घनिष्ठ बन्धुबान्धव या अनुरक्त आज्ञाकारी सेवकोंपर उतना विश्वास नहीं करना चाहिये जितना कि एक दृढ़ मित्रपर करना चाहिये; यदि वह मित्र विवेकी और बिशालहृदय हो तो ॥ २८ ॥ वास्तवमें इस संसार में किसीको भी ऐसा सच्चा मित्र मिलता ही नहीं है, जो सब तरह शक्तिसम्पन्न होते हुए भी उसे हृदयसे स्नेह और आदर करता हो । पूर्व पुण्यके प्रतापसे किसी सौभाग्यशाली प्रबल व्यक्तिको ऐसा ( उक्त प्रकारका ) मित्र ४ द्वितीय: सर्गः [२५] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् विरक्तभृत्यान्यतिदीर्घसूत्राण्यल्पानि मित्राण्यतिदूरगानि । संबन्धमात्राभिनिविष्टबुद्धेः कियच्चिरं' तस्य नृपस्य राज्यम् ॥ ३० ॥ अष्टाविमे भूपतयः प्रधाना धर्मार्थषड्भागभुजः पृथिव्याम् । यैर्भ्राजते संनिहितैर्धरित्री द्यौरष्टभिस्तैरिव दिग्गजेन्द्रः ॥ ३१ ॥ महीमहेन्द्रोऽथ महेन्द्रदत्तो द्विषंतपश्चापि यथार्थनामा | सनत्कुमारो मकरध्वजोऽपि समुद्रगुप्तो विनयंधरा ॥ ३२ ! वज्रायुधश्चक्रभृता समानः पराक्रमैश्वर्यवपुर्गुणेन । मित्रसहचापि हि देवसेनात्कि वाधिकास्ते न भवेयुरीशाः ॥ ३३ ॥ हाथ लग जाय, तो समझिये कि सारी पृथ्वी उसके हाथ लग गयी है ।। २९ ।। यदि किसी राजाके अनुगामी और सेवक उससे संतुष्ट नहीं फलतः हर एक कामको धीरे-धीरे अन्यमनस्क होकर करते हैं । यदि उसके मित्र राजाओंकी संख्या बहुत थोड़ी है और जो हैं, वे भी इधर-उधर बिखरे ( बहुत दूर ) देशों में हैं। और वह राजा स्वयं भी यदि हर समय अपने सम्बन्धियोंके सहारे रहता है तो आपही बताइये उसका राज कितने दिन तक टिकेगा ॥ ३० ॥ आदर्श नृप आगे कहे गये आठ राजा ही इस पृथ्वी के राजाओंमें प्रधान हैं क्योंकि वे आगमके अनुकूल नीतिसे अपनी प्रजाओंका पालन करके उनके धर्म और अर्थं पुरुषार्थ के षष्ठांशको ग्रहण करते हैं । सब सम्पत्तियोंका भण्डार होनेपर भी यह पृथ्वी इसीलिये सुशोभित है कि इसपर उन राजसिहोंकी चरण रज पड़ती है, जैसे कि आकाश विश्वविख्यात आठ दिग्गजोंकी उपस्थितिके ही कारण धन्य है ॥ ३१ ॥ ऊपर निदिष्ट आठ प्रसिद्ध राजाओंमें महाराज महेन्द्रदत्तका नाम सबसे पहिले आता है क्योंकि वे इस पृथ्वीपर बिराज - मान इन्द्र ही हैं, दूसरे महाराज द्विषंतप तो 'यथा नाम तथा गुणः' हैं क्योंकि उन्होंने अपने शत्रुओंको पराजित करके नष्ट ही कर दिया है, इसके बाद महाराज सनत्कुमार, मकरध्वज, समुद्रगुप्त और विनयंधरके नाम आते हैं ।। ३२ ।। इनके बाद महाराज वज्रायुधका स्थान है जो अपने पराक्रम, प्रभुत्व, विभव, स्वास्थ्य, सौन्दर्य, सदाचार, आदि गुणों के कारण चक्रवर्ती समान हैं, अन्तमें महाराज मित्रसह हैं जो अपने बन्धुबान्धवोंके ही उत्कर्षको सह सकते हैं । हे महाराज ? आप ही बताइये कि ये सब प्रचण्ड पृथ्वीपति क्या महाराज देवसेनसे बढ़कर न होंगे || ३३॥ १. म कियच्चरं । २. म धर्मार्थ । ३. म विनयंवरश्च । Vale & Personal Use Only द्वितीय: सर्गः [२६] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग वचांसि तेषां स निशम्य राजा स्वकिताक्रान्तविज़म्भितानि । प्रशस्य तान् राज्यधुरंधरांश्च वैदेहकोक्तं पुनराचचक्षे ॥ ३४ ॥ ते चापि राज्ञां समुदीरितार्थां गिरं निशम्यानुमति प्रकृत्य' । विवाहतन्त्राबिकृतान्सलेखान्प्रत्येकशो दूतवरान्ससर्ज (?) ॥ ३५ ॥ तेषामथैको गुणवांस्तु दूतः पति समासाद्य समृद्धपुर्याः । प्रदर्य लेखं प्रियवाक्यगर्भ व्यजिज्ञपद्वाचिकमर्थयुतम् ॥ ३६॥ निशाम्य लेखं च वचो निशम्य मुदाब्रवीत्तच्च तथेति राजा। विज्ञाय वागिनितदानमानैः स्वकार्यसिद्धौ मतिमादधे सः । ३७ ॥ द्वितीय सर्गः चरितम् releSHRAHAPANESHEETESHPAHI- मामा नप अभिमत अपनी-अपनी तर्कणाशक्तिके अनुसार ऊहापोह करके कहे गये सबही मंत्रियोंके विस्तृत वक्तव्योंको राजाने ध्यानपूर्वक सुना और उन सबकी नीतिज्ञता तथा राज्यभक्तिकी प्रशंसा की क्योंकि वे अपने सबही राजकीय कर्तव्यों और दायित्योंको योग्यतापूर्वक निबाहते थे । और अन्तमें विदेह देशसे लौटे सेठकी बातको भी उन लोगोंसे कहा ।। ३४ ॥ और अन्तमें विवाह शास्त्रके प्रधान आचार्योंके मतोंको फिरसे मंत्रियोंको समझाया। महाराज धर्मसेनका यह अन्तिम वक्तव्य प्रकृत विषयपर प्रकाश ही नहीं डालता था अपितु उसकी सब ही गुत्थियोंको सुलक्षा देता था, इसीलिए मंत्रियोंने उसे सावधानीसे सुना और उससे अपनी पूर्ण सहमति प्रकट की थी। फलतः इसके बाद ही पत्रों के साथ अत्यन्त कुशल दूत प्रत्येक दिशामें भेजे गये थे। इन्हें विवाह-सम्बन्ध करने या न करनेके पूर्ण अधिकार प्राप्त थे ।। ३५ ॥ कन्या अन्वेषण उक्त प्रकारसे भेजे गये दूतोंमेंसे एक अत्यन्त गुणी और नीतिमान् राजदूत समृद्धिपुरीके महाराज धृतिषेणकी राजसभामें जाकर उपस्थित हुआ। पहुँचते ही उसने अपनी विश्वासपात्रता सिद्ध करनेके लिये महाराज धर्मसेनकी नाममुद्रासे अंकित नियुक्तिपत्र दिखाकर अपनी यात्राके प्रधान प्रयोजनको मौखिकरूपसे ही हित-मित भाषामें राजाके सामने उपस्थित किया ॥३६॥ महाराज धृतिषणने दूतके द्वारा दिये गये पत्रको सावधानीसे देखा और उसके वचनोंको भी ध्यानपूर्वक सुना। इसके बाद प्रसन्नतापूर्वक बोले 'क्या महाराज धर्मसेनका ऐसा विचार है ?' किन्तु निपुण राजदूतको उनके बात करनेके ढंग, मुख और १. म प्रकृत्वा। । २७ Jain Education international Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग द्वितीय चरितम् ततो नृपेणाप्रतिपौरुषेण वचोहरः सामयुतैर्वचोभिः । विसर्जितः साधु कृतात्मकृत्यो येनागतस्तेन पथा निवृत्तः ॥ ३८ ॥ दूताः परे तेऽपि च संनिवृत्ताः पतिः स्वमारोपितकार्यभाराः'। राज्ञे समूचुः स्वमतप्रसिद्धि प्रमोदपूर्वा गमनप्रतीक्ष्णाम् ॥ ३९ ॥ प्रत्यागतानां स वचोहराणां निशम्य वाणी च समीक्ष्य लेखम् । स्वान्मन्त्रिणो मन्त्रविनिश्चयज्ञान् शशास राजा धृतिषेणपाश्र्वम् ॥ ४० ॥ तैः संवजद्धिबहबन्धुमित्रः सहेव याता नरदेवसेना। बभौ चतुभिर्नपमन्त्रिमुख्यैः सुरेन्द्रसेनेव च लोकपालैः ॥ ४१ ॥ PREPARI आँखोंके आकार तथा रंग, अपना स्वागत, सत्कार तथा भेट आदिसे यह विश्वास हो गया था कि उसका उद्योग सफल हुए बिना रह ही नहीं सकता है ।। ३७ ॥ इसके उपरान्त अनुपम पराक्रमी महाराज धृतिषणने आदर और प्रीतिसे मधुर तथा शान्त बातें करके उस राजदूतको भलीभाँति विदा कर दिया। वह भी अपने कर्तव्यको योग्यतापूर्वक पूरा करके उत्तमपुरको उसी मार्गसे लौट गया जिससे आया था ।। ३८॥ दूसरे दूत लोग जो कि स्वामीके कार्यको करनेका भार अपने ऊपर लेकर बाहर गये थे वे भी क्रमशः उत्तमपुरको लौटे, और अपने-अपने कार्यमें उन्होंने कहाँतक सफलता प्राप्त की थी यह राजाको विगतवार सुनाया, जिसे सुनकर पहिले तो परम आनन्द होता था और पीछेसे वरयात्राकी प्रेरणा मिलती थी ।। ३९ ॥ महाराज धर्मसेनने सबही लौटकर आये दूतोंके उत्तर लेखोंको पढ़ा और उससे अधिक ध्यानपूर्वक उनके यात्रा विवरणोंको सुना। अन्तमें अपने मंत्रियोंको, जो कि सब परिस्थितियों को सावधानोसे समझकर प्रत्येक समस्याका उपयुक्त ही निकार करते थे, महाराज धृतिषणको राजधानीको जानेकी आज्ञा दी ।। ४० ।। मंत्री प्रस्थान जब मंत्रियोंने प्रस्थान किया तो उनके साथ केवल उनके अनेक मित्र और बन्धु-बान्धव ही नहीं गये थे अपितु महाराज धर्मसेनकी सुविशाल चतुरंग ( हाथी, घोड़ा, रथ और पदाति ) सेनाने भी प्रयाण किया था । राजाके चारों प्रधान मंत्रियोंके साथ प्रस्थान करती हुई वह सेना लगती थी मानो यम, वरुण, कुबेरादि चारों दिक्पालोंके नेतृत्वमें देवराज इन्द्रकी विजयवाहिनो ही चली जा रही थी ।। ४१॥ I १.[पत्या समारोपित° ] । २. म स्वमतप्रसिद्ध । ३. [ गमनप्रतीक्षाम् ] । H ARANAHAITAMARHATHANE Jain Education Inter n al Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् द्वितीयः सर्गः व्यतीत्य देशान्वहरत्नकोशं पुरं समासाद्य गुणप्रकाशम् । विलोकमाना विविविभत्या विलोक्यमानास्त्वथ पौरवगैः॥४२॥ संप्राप्य राजालयमुत्तमद्धौं सामन्तसेनानिचितान्तरालम् । तद्वारपालैरुपनीयमानाः सिंहासनस्थं ददृशुर्नरेन्द्रम् ॥ ४३ ॥ अभ्यागतानाप्ततमान्विलोक्य वाग्दानमानेरभिपूज्य सम्यक् । नराधिपः प्रश्नकुतूहलेन पप्रच्छ तान्प्राग्विदितार्थतत्त्वः ॥ ४४ ॥ श्रीधर्मसेनेन यथोपदिष्टाः पष्टाः पुनस्ते धृतिषेणनाम्ना।। सामप्रयोगैरुपनीतमर्थ स्वकार्यसिद्धयर्थममु समूचुः॥ ४५ ॥ TREETभामा मचाया अनेक देशोंको पार करती हुई वह सेना अपनी यात्राके अन्तमें उस नगरके निकट पहुँची जो अपनी सम्पत्ति, सुव्यवस्था, आदि विशेषताओंके लिए विख्यात थी और जिसमें रत्नभण्डार और कोशोंकी प्रचुरता थी। अपनी सम्पत्ति और सजावटसे जगमगाती हुई उस सेनाने जब समृद्धिपुरीमें प्रवेश किया तब नगरके सबही स्त्री पुरुष टकटकी लगाये उसकी ओर ताक रहे थे ॥ ४२ ॥ इस प्रकार सेनाके साथ चारों मंत्री उस राजभवनपर पहँचे, जो अपनी साज-सज्जा और ऋद्धिमें अनुपम था। जिसके विशाल आंगनोंके कोने कोनेमें सामन्त राजाओंको सेना ठसाठस भरी थी। ऐसे राजभवनके प्रवेश द्वारपर ही उनकी अगवानी हुई और द्वारपालके द्वारा भीतर ले जाये जानेपर उन्होंने सिंहासनपर विराजमान महाराज धृतिषेणके दर्शन किये ।। ४३ ॥ महाराज धर्मसेन के अत्यन्त विश्वस्त और अन्तरंग व्यक्ति महामात्योंको ही अतिथियों के रूपमें पाकर महाराज धृतिषणने उनकी मर्यादाके अनुकूल स्वयं ही उनकी 'आइये' कहकर अगवानी की तथा कुशल समाचार पूछनेसे लेकर अन्य सब ही स्वागत सत्कार करके उनका सम्मान किया । यद्यपि उनके इस प्रकार आनेके प्रयोजन ( कुमार वराङ्गका विवाह ) पहिलेसे ही जानते थे तो भी कुछ न कुछ पूछनेके ही लिए उनसे आगमनका कारण पूछा ।। ४४ ।। RELIGIRLS [२९] विवाह प्रस्ताव समृद्धिपुरीके अधिपति द्वारा उक्त प्रकारसे पूछे जानेपर मंत्रियोंने देखा कि उनका काम साम, दाम, दण्डादि छह उपायोंमेंसे, सामके प्रयोगसे ही अधिक सुन्दरतासे सिद्ध हो सकता है। फलतः उन्होंने महाराज धर्मसेनके उपदेशके अनुसार ही अपनी विवाह वार्ताको सफल करनेके लिये निम्न प्रकारसे महाराज धृतिषेणसे निवेदन किया था ।। ४५ ॥ १. क नृपेन्द्रम् । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः वराङ्ग चरितम् नृपोत्तमः शान्तरिपुजितात्मा वयोऽधिकस्तुल्यतमः कुलेन । श्रीधर्मसेनो धृतराजवृत्तः स सादरः कौशलमाचचक्षे ॥४६॥ तस्यात्मजः कान्ततमः प्रजानामुदारवृत्तः शुचिमान्नयज्ञः। जामातृतां प्राप्तुमनाः कुमारो महीपते ते चरणौ ननाम ॥ ४७ ॥ तेषां वचो वाक्यविदां निशम्य समर्थ्य' सम्यङ्नॅपतिस्तदानीम् । संचिन्त्य कन्यावयसस्समाप्ति तेभ्योऽनुमत्यैर्व मवोचदित्थम् ।। ४८ ॥ कन्यापि तेनैव समानकल्पा कलागुणैश्चापि वयोवपुाम् । स चापि तस्या यदि युक्तरूपः किमन्यदिष्येत तयोर्नलोके ॥ ४९ ॥ सर्गः हे महाराज? आप जानते ही हैं कि महाराज धर्मसेन राजाओंके मुकुटमणि हैं। उनके शत्र सदाके लिए शान्त हो गये हैं। उनके आत्मनिग्रहका तो कहना ही क्या है। वे राजाके आचरणको किस खूबीसे पालते हैं इसके अतिरिक्त आपके समान कूलीन होनेपर भी आपसे अवस्थामें बड़े हैं। उन्हींने हम लोगोंके द्वारा आपसे सस्नेह और सादर कुशल क्षेम कहा है ॥४८॥ महाराज धर्मसेनके पुत्र कुमार वराङ्ग अत्यन्त कान्तिमान हैं । जनताके सुख दुख में बड़ी उदारतासे व्यवहार करते हैं, उनकी आचार विचार विषयक पवित्रताका तो कहना ही क्या है ? और नीतिशास्त्रके तो वे परम पण्डित ही हैं। उन्होंने भी हे राजन् आपके चरणोंमें प्रणाम भेजा है क्योंकि वे आपके दामाद होनेकी इच्छा करते हैं ।। ४७ ॥ कन्याके पिताकी स्वीकृति भाषणशैलीके पंडित उन मंत्रियोंके वचनोंको सुनकर राजा धृतिषणने उसी समय सब बातोंपर भली भांति विचार किया, तथा अपनी पुत्रीकी कन्या अवस्थाकी समाप्ति तथा युवतीअवस्थाका प्रारम्भ विचारकर उन्होंने मंत्रियोंसे कहा कि ऐसा ही हो' । और अपनी पुत्रीका परिचय देने के लिए निम्नप्रकारसे बोले ।। ४८ ।। - आपकी राजकुमारी भी ललितकला, सद्गुण, रूप, आकार, स्वास्थ्य अवस्था आदि सवही विशेषताओंमें कुमार वराङ्गके ही समान है । और वह भी यदि सब प्रकारसे उसके ( सुनन्दाके ) उपयुक्त वर है तो फिर इस मनुष्यलोकमें उन दोनोंके लिए इससे अधिक और चाहिये हो क्या है ।। ४९ ॥ - १. [ संमथ्य ]। २. क अनुमित्येवम् । Jain Education international Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्येवमुक्त्वा नृपतिः सहर्षो दित्सुः सुतामुत्पलपत्रनेत्राम् । पुरोहितामात्यसमान्विदग्धानाह्वाययाहार्यविदो बभूव ॥५०॥ समेत्य तैमन्त्रितमन्त्रिभिश्च कन्याप्रदानं प्रति निश्चितार्थः । द्वितीयः यथाधिकाराधिकृतान्स भृत्यान् शशास कल्याणमहोत्सवाय ॥५१॥ सर्गः कृत्वा स कल्याणविधि विधिज्ञो दरिद्रदीनेषु धनं विसृज्य । स्वया विभूत्या परया नरेन्द्रः कन्यां पुरस्कृत्य मुदा प्रतस्थे ॥५२॥ जलप्रभाभिः कृतभूमिभागां प्राचीनदेशोपहितप्रवालाम् । सर्वार्जनोपात्तकपोतपाली वैड्र्यसव्यानवती पराया॑म् ॥ ५३॥ हेमोत्तमस्तम्भवतां विशालां महेन्द्रनीलप्रतिबद्धकुम्भाम् । तां पद्मरागोपगृहीतकण्ठां विशुद्धरूपोन्नतचारुकूटाम् ॥ ५४॥ इस प्रकार कमलकी पंखुड़ियोंके समान ललित नेत्रवती पुत्रीके कन्यादान करनेके निश्चयको प्रकट करके राजाने अपने पुरोहित तथा इन्हींके समान अन्य सच्चे हितैषी और विश्वस्त सम्बन्धियोंको बुलाया तथा उन सबको अपनी अपनी सम्मति देनेके लिए ही उक्त अभिलाषा उनके सामने उपस्थित कर दी थी ॥ ५० ॥ उक्त विश्वस्त सम्बन्धियों तथा मंत्रियोंके साथ बैठकर विचारकर चुकनेपर जब राजाने यही निर्णय किया कि राजकुमारीका विवाह कुमार वराङ्गके साथ ही करना है, तो उनसे तुरन्त हो सव राजकर्मचारियोंको उनके पद और योग्यताका ध्यान रखते हुए विवाहके कल्याणमय महोत्सवकी तैयारियां करनेकी आज्ञा दी ।। ५१ ।। वरनगर-प्रस्थान __ समस्त धार्मिक और सामाजिक विधि-विधानोंके विशेषज्ञ तथा अनुयायी राजाने पिताके घरकी सबही रीतियों और । संस्कारोंको पूरा करके निर्धन और दीनदुखियोंको मनभर दान दिया। इसके बाद अपार सम्पत्ति और ठाटबाट के साथ राजकुमारीको लेकर उसने उत्तमपुर को प्रस्थान किया ।। ५२ ।। महाराजधृतिषेणने जिस पालकीपर राजकुमारीको बैठाया था उसका धरातल पानीके समान रंगोंके द्वारा बनाया गया था, फलतः देखते ही जलकुण्डका धोखा लगता था, उसकी वन्दनवारमें लगे हुए मूगे प्राचीन तथा दूर देशोंसे लाये गये थे, उसके [३१] कबूतरों युक्त छज्जेके बनानेमें तो सारे संसारकी कमाई ही खर्च हो गयी थी, उसकी छत वैडूर्यमणियों से ही बनायी गयी थी।॥५३॥ उस विशाल पालकीके सव हो खम्भे उत्तम थे क्योंकि वे शुद्ध सोनेसे ढाले गये थे। और उनपर महेन्द्र नील मणिकेत. १. [ आह्वाय्य ( आहूय वा ) बह्वयं विदो ] । च्यानलमाSALARITRIES Jain Education international Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्ग: द्विजातिवक्त्रोद्गलितप्रलब्ध मुक्ताकलापच्छरितान्तरालाम् । मन्दानिलाकम्पिचलत्पताकामात्मप्रभाह्रपितसूर्यभासम् ॥५५॥ नानाप्रकारोज्ज्वलरत्नदण्डां विलासिनीधारितचामराह्वाम् । आरुह्य कन्यां शिबिकां पृथुश्रीः पुरी विवेशोत्तमनामधेयाम् ॥ ५६ ॥ श्रीधर्मसेनप्रहितेश्च दूनिवेदिताः प्रागवनीन्द्रचन्द्राः । आकृष्यमाणास्तु वराङ्गपुण्यैः प्रतस्थिरे स्वाभिरमा सुताभिः ।। ५७ ॥ सुवर्णकक्षोपहितान् गजेन्द्रान् रथांश्च नानाकृतिचित्रवर्णान् । सचामरापीलधरांस्तुरङ्गान्नृपाः समारुह्य पथि प्रजग्मुः ॥ ५८ ॥ कलश रखे गये थे, ऊपरका भाग पद्मराग मणियोंसे खचित था, ऊपर रखे गये जगमग कलश सर्वथा निर्दुष्ठ चांदीके बनाये गये थे ॥ ५४ ।। उसके ऊपरी भागमें मणियोंके पक्षी बने थे, जिनके मुखसे गिरते हुए मुक्ताफल भी उसमें चित्रित थे फलतः पालकीका मध्यभाग ऐसे मुक्ताफलोंसे व्याप्त था। उसके ऊपर लगे पताका धीरे धीरे बहती हुई हवाके झोंकोसे लहरा रहे थे, उसकी कान्ति और जगमगाहटके सामने सूर्यकी कान्ति भी लजा जातो थी ।। ५५ ॥ उसे उठानेके दण्डोंमें भी भांति-भांतिके जगमगाते हुए रत्न जड़े गये थे। उसके आसपास युवती सुन्दरियां चमर ढोरतो चलती थीं। इस प्रकारको महामूल्यवान पालकीपर अपनी पुत्रीको बैठाकर विपुल सम्पत्ति और कान्तिके अधिपति महाराज धृतिषणने उत्तमपुरमें प्रवेश किया जो कि 'यथानाम तथा गुणः' था ।। ५६ ।। अन्यराजा-आगमन महाराज धर्मसेनने पहिले जिन राजदूतोंको सब तरफ भेजा था उनसे ही कुमार वराङ्गके व्याहका समाचार जानकर, चन्द्रमाके सामन सर्वप्रिय तथा प्रजाके हितैषी बड़े, बड़े अन्य राजा लोग भो मानो वराङ्गके पुण्यसे प्रेरित होकर ही अपनी अपनी अत्यन्त गुणवती तथा सुन्दरी कन्याओंको लेकर उत्तमपुरके लिए चल दिये थे। उनमेंसे कई सोनेकी झूल और हौदेसे सजे विशालकाय श्रेष्ठ हाथियोंपर सवार थे ॥ ५७।। तो दूसरे नाना रंगोंको चित्रकारोसे भूषित अनेक प्रकारके रथोंपर विराजमान थे और अन्य राजा लोग चामर, मुकुट आदिसे सुशोभित उत्तम घोड़ीपर चढ़कर उत्तमपुरके रास्तेपर चले जा रहे थे ।। ५८ ।। १. [ °ग लितप्रलम्ब ]। २. [ °चामराठयाम्]। ३. [ आरोह्य ।। ४. म नागाकृति । emperenceTRIHARANPATHP-MAHARMAWEIPAHPSI-APARIES [३२] Jain Education Interational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् द्वितीयः सर्गः वपुष्मती विन्ध्यपुरेश्वरस्य महेन्द्रदत्तस्य सुता बभूव । द्विषतपः सिंहपुराधिपस्तु यशोवती तस्य सुतेन्दुवक्त्रा ॥ ५९॥ सनत्कुमारस्य मनोज्ञरूपा वसुन्धरापीष्टपुराधिपस्य । अननसेना मकरध्वजस्य राज्ञः सुता श्रीमलयेश्वरस्य ॥६॥ प्रियव्रता चक्रपुराधिपस्य समुद्रदत्तस्य समग्ररूपा। वज्रायुधो नाम गिरिवजेशस्तस्य प्रियायामभवत्सुकेशी ॥ ६१॥ मित्रंसह कोशलराजकन्यापतिः स्मृता तस्य हि विश्वसेना। अगाधिपस्य प्रियकारिणीति बभूव पुत्री विनयंधरस्य ॥ ६२॥ नरेन्द्रकन्या धुतिषेणपुच्या सहैव रूपादिगुणैः समानाः । दिग्भ्यस्तथाष्टाभ्य उदारवृत्ता आजग्मुरष्टाविव दिक्कुमार्यः ॥ ६३ ॥ विन्ध्यपुरके महाराज महेन्द्रदत्तकी पुत्रीका नाम वपुष्मती था, जो कि उसके स्वास्थ्य और सौन्दर्यके कारण सार्थक था। सिंहपुरके महाराज जिन्होंने अपने शत्रुओंको नष्ट कर दिया था उनकी चन्द्रमुखी राजपुत्रीका नाम यशोवती था ।। ५९ ।। इष्टपुरके अधिपति सनत्कुमार महाराजकी राजदुलारी वसुन्धरा भी आयों थीं, इनका रूप और गुण हठात् मनको मोह लेते थे । श्रीमलय देशके एकच्छत्र महाराज मकरध्वज की पुत्री तो साक्षात् शरीरधारिणी कामदेवकी सेना ही थो इसीलिये उसका नाम अनङ्गसेना पड़ा था ।। ६०॥ चक्रपुरके प्रभु श्रीसमुद्रदत्त महाराजको कन्या प्रियव्रताका तो कहना हो क्या था; संसारके अविकल सौन्दर्यको मानो निदर्शन ही थी। गिरिव्रज ( राजगृह ) के सम्राट बज्रायुधकी राजदुलारी सुकेशीका तो वर्णन ही क्या किया जाय । कारण वह महाराजकी प्राणप्यारी पट्टरानीकी ही कुक्षिसे उत्पन्न हुई थी॥ ६१ ॥ कोशलदेशकी विपुल राज्य-सम्पत्तिके एकमात्र अधिपति 'यथा नाम तथा गुणः' महाराज मित्रंसहको राजकन्याका नाम विश्वसेना था। सामाजिक विनय (नियम, धर्म और व्यवहार ) के रक्षक महाराज विनयधर उस समय अंगदेशके शासक थे। प्राणिमात्रका उपकार करनेके कारण ही उनकी कन्याका नाम प्रियकारिणी पड़ा था ।। ६२॥ इस प्रकार उक्त राज ललनाएँ; जो कि अपने-अपने सदाचार, स्वास्थ्य, सुशिक्षा आदि गुणोंके द्वारा हर प्रकारसे महाराज धृतिषेणकी राजपुत्री सुनन्दाके ही समान थी। तथा उसीके समान ही उनका चरित्र भी उज्ज्वल और उदार था। यह सब आठों दिक्पालोंकी पुत्रियों के समान आठों दिशाओंसे उस समय उत्तमपुरमें आ पहुंची थी ।। ६३ ॥ १. क मित्रसहा, [ मित्रंसहः ]। २. म विनयंवरस्य । Jain Education international . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग द्वितोयः चरितम् सर्गः RAITAMARPATRAPAIKAMARATHea नृपाजया राजगृहस्य मध्ये नरेन्द्रसूनोरभिषेचनाय । श्रीमण्डपं कामकरण्डकाख्यं सत् कारितं नेत्रमनोऽभिरामम् ॥ ६४ ॥ महेन्द्रनीलमणिभिविनद्धं' महीतलं हेममयी च भित्तिः । कपोतपाली रजतैरुपेता सौवर्णमन्तःफल प्रक्लप्तम ॥६५॥ स्तम्भास्तु सर्वे तपनीयगर्भा बहिबृहद्रत्नमणिप्रकल्प्याः । द्वारं सुबद्धं खलु सर्वरत्नैर्जाम्बूनदाविष्कृतमिन्द्रकूटम् ॥ ६६ ॥ क्वचित्क्वचिल्लम्बितहेममालं प्रवालरत्नातिमिश्रजालम् । मुक्ताकलापाश्चितदामलोलं रराज पर्यन्तविचित्रसालम् ॥ ६७ ॥ यौवराज्य-अभिषेक महाराज धर्मसेनने इसी अवसरपर वराङ्गका युवराज पदपर अभिषेक भी करनेका निर्णय किया था। अतएव उनकी आज्ञासे राजभवनके विशाल आंगनमें 'कामकरण्डक' नामका श्रीमंडप अत्यंत कलापूर्वक बनाया गया था। उसे देखते ही आंखें शीतल हो जाती थीं और मन मुग्ध हो जाता था ॥ ६४ ॥ उस 'कामकरण्डक' मण्डपका धरातल महेन्द्रनील आदि भाँति, भाँतिके मणियोंको जड़कर बनाया गया था, पूरी की । पूरी भित्तियाँ सोनेसे बनायी गयी थी, कपोतवाली ( छज्जा ) शुद्ध चाँदीसे बनी थी और भीतरकी पूरीकी पूरी छत शुद्ध सुवर्णसे गढ़ी गयी थी॥ ६५ ॥ श्रीमण्डपके सबही खम्भोंका भीतरी भाग तपाये गये सोनेसे ढाला गया था और उसका वाहरी भाग बड़े-बड़े रत्नों और मणियोंसे बनाया गया था। गोपुर या प्रधानद्वार, संसारके सवही मणि और रत्नोंसे उनके रंग तथा कान्तिका विचार करके अत्यन्त उचित रूपसे बनाया गया था और मध्याह्नके सूर्यके समान जगमगाता उन्नत शिखर जाम्बूनद सोनेसे बना था ।। ६६ ॥ उसमण्डपके चारों ओर अत्यन्त सुन्दर तथा दृढ़ परकोटा बना था, उसपर चारों ओर सोनेकी बन्दनवार लटक रही थी तथा इस बन्दनवारमें भी बीच-बीचमें मगा, मोती और मणि पिरोये गये थे। फलतः इनकी कान्ति सोनेकी कान्तिसे मिलकर सम्पूर्ण दृश्यको अद्भुत बना देती थी। इन्हीं विशेषताओंके कारण वह परकोटा श्रीमण्डपकी मोतियों से बनी माला समान मालम देता था॥ ६७॥ IMAIIMAHIPATHIPPIRSHASTRIPATHAHAHARPATIPAPA pesmaipedia-STHAHARA [३४] १. म विनन्दं । २. [प्रक्लृप्ताः ] । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् प्रवालमुक्तार्माणिभिर्विचित्रैविन्यस्तनानाविधभक्तिचित्रा 1 भ्रमद्वरेफाहत केसरेण पुष्पोपहारेण रराज भूमिः ॥ ६८ ॥ स्वाभाविकश्चाप्रतिकान्तरूपो माङ्गल्यकर्मण्यभिसंस्कृताङ्गः । सिंहासनस्योपरि संनिषण्णो बभौ शशीवोदय पर्वतस्थः ॥ ६९ ॥ अष्टाभिराभिर्भुवि सुन्दरीभिर्मनोहराङ्गया सुतया सदृश्या । श्रेष्ठयग्रपुत्र्या धनदत्तया च समं कुमारो दशभिवंराङ्गः ॥ ७० ॥ हैमैर्घटैर्गन्धविमिश्रतोयैग्रवाभिसद्वेष्टितदामलीलेः पद्मोत्पलाच्छादितवक्रशोभैर्वसुन्धरेन्द्राः 1 स्नपयांबभूवुः ॥ ७१ ॥ उसके स्वच्छ सुन्दर धरातलपर नाना प्रकारके चित्र विचित्र मूँगे, मांती और मणियोंके द्वारा अनेक आकार के सुन्दर, सुन्दर चौक पुरे थे । इसके अतिरिक्त सब ओर रखे गये गमलों, लटकती हुई पुष्पमालाओं और चारों ओर लगे पुष्पवृक्षोंपर इधर से उधर उड़ते हुए भोरे सब ओर पराग उड़ाते थे। पराग ऐसा मालूम देता था मानों फूलोंकी भेंट है और उसके कारण धरातलकी शोभा अनेक गुनी हो गयी थी ।। ६८ ।। अभिषेक तथा पुण्यपाप फल चर्चा कुमार वराङ्ग स्वभावसे ही इतने अधिक सुन्दर थे कि कोई भी व्यक्ति रूप और कान्तिमें उनकी बराबरी न कर सकता था, तो भी अभिषेक, विवाह आदि मांगलिक कार्योंके कारण उस समय उनको लेप, उवटन आदि लगाये गये थे फलतः पूरा शरीर सौन्दर्य और स्वास्थ्यसे देदीप्यमान हो उठा था। अतएव जब वे मंगलविधिके लिए सिंहासनपर बैठाये गये तो ऐसे शोभित हुये मानो उदयाचलपर चन्द्रोदय हुआ हो ॥ ६९ ॥ कुमार वराङ्गके साथ-साथ संसारकी परम सुन्दरियाँ उपरिलिखित महाराज महेन्द्रदत्त आदिकी वपुष्मती प्रभृति राजकुमारियाँ, महाराज धृतिषेणकी कुलीन कन्या सुनन्दा तथा नगरसेठ धनदत्तकी ज्येष्ठ पुत्री भी उस विशाल सिंहासनपर विराजमान थी ॥ ७० ॥ सिंहासन के आसपास ही सोनेके बड़े-बड़े अभिषेक कलश रखे थे। कलशोंके निर्मल जलमें अनेक सुगन्धित पदार्थं घोले गये थे, उनके गलोंपर सुन्दर सुगन्धित मालाएँ लिपटी थी, और मुख श्वेत रक्त और नील कमलोंसे ढके हुए थे ॥ ७१ ॥ १. म शरीरोदय २. [ समं कुमारं दशभिवंराङ्गम् ] । ३. [ युग्मम् ] । द्वितीय: सर्गः [३५] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः वराङ्ग चरितम् अन्ये च तेषां नृपमन्त्रिमुख्या अनन्तचित्राजितदेवसा'ह्वाः। कुम्भैज्वलद्रत्नमयैरनेकैः शुद्धाम्बुपूर्णश्च समभ्यषिञ्चन ॥७२॥ पौरप्रधाना नरदेवभक्त्या ते पार्थिवैः फल्लफलाक्षमित्रैः। घटैश्च नानाविधवर्णतोयैः पदाभिषेकं सूतनोः प्रचक्रुः ॥ ७३ ॥ समेत्य सम्यग्बहुबन्धुवर्गा रागोद्धता मङ्गलजातहर्षाः । यन्त्रैरनेकैर्वरवर्णपूणरन्योन्यगात्राण्यभिचिक्कूदस्ते२ ॥७४॥ केचिच्छशंसुनवरं वराङ्गं महीपतीनां तनयाश्च केचित् । अन्योन्ययोग्या इति केचिदूचुराश्चर्यमन्ये परमं प्रजग्मुः ॥ ७५ ॥ सर्गः अभिषेक क्रम इन्हीं कलशोंको उठाकर पृथ्वीके प्रधान रक्षक महाराजाओंने सबसे पहिले कुमार वराङ्गका अभिषेक किया, इसके उपरान्त उन सब राजाओके प्रधान सामन्तों और अनन्तसेन, चित्रसेन, अजितसेन, देवसेन आदि प्रधानमन्त्रियोंने क्रमशः जाज्वल्यमान रत्नोंसे जटित, शुद्ध, सुगन्धित तीर्थोदकसे पूर्ण विशाल कलशोंको लेकर विधिपूर्वक युवराजका अभिषेक किया ।। ७२ ।। तदुपरान्त राजभक्तिसे प्रेरित नगरके प्रधान, प्रधान सभ्योंने अपने मिट्रोके कलश, उठाये-जिनमें नाना प्रकारका सुगन्धित रंग-बिरंगा जल भरा हुआ था और उसमें विकसित फल, फल, अक्षत आदि मंगल द्रव्ये मिली हुई थीं-और सुन्दर राजकुमारके केवल चरणोंका अभिषेक किया। ७३ ॥ कुमारके प्रेम और भक्तिसे उद्धत तथा अभिषेक होनेसे परम प्रसन्न सबही सगे सम्बन्धियों तथा बन्धुबान्धवोंके झुण्डोंने सब तरफसे घेरकर अनेक गंधों और रंगोंसे पूर्ण यन्त्रों ( पिचकारियों ) द्वारा कुमारपर जल छोड़ना प्रारम्भ कर दिया था। इससे उन्होंने परस्परमें एक-दूसरेके शरीरको भी खूब भिगो दिया था ।। ७४ ।। युवराजभक्ति कोई लोग श्रेष्ठ युवराज वराङ्गका गुणगान करने में ही मस्त थे । दूसरे राजपुत्रियोंकी प्रशंसा करते-करते न अघाते थे। कुछ ऐसे लोग भी थे।जो यही कहते फिरते थे कि भाई यह कुमार और कुमारियाँ वास्तवमें एक-दूसरेके योग्य हैं और शेष लोग उनको देखकर आश्चर्य समुद्र में डूबते और उतराते थे ।। ७५ ॥ १. [ °धोवराह्वाः ।। २. [ अभिचिक्लि दुस्ते ] । For Private & Personal use only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग द्वितीयः सर्गः चरितम् IPATRARAMATKAAREMIRATREATHE-SHAHATTARAIMARASHApnees वराङ्गनामानमनङ्गलोलं क्षितीन्द्रपुत्र्यश्च मनोजरूपाः । समीक्ष्य बन्धनपि हर्षपूर्णान्पोरान्समेतान् कथयांबभूवुः ॥ ७६ ॥ इमे वयं चापि हि जीवलोके समाननेत्रोदरपाणिपादाः । ऐश्वर्यकान्तिद्युतिवीर्यरूपैः कथं विशिष्टा इति केचिदूचुः ॥ ७७ ॥ कि न श्रुतं वाक्यमिदं भवद्भिर्जगत्यसाधारणहेतुभूतम् । स्वकर्मनिष्पत्तिफलप्रपञ्चं दुःखं सुखं वेति च लोकसिद्धम् ॥ ७८ ॥ धर्मात्सुखं पापफलाच्च दुःखं सुखं स्वपञ्चेन्द्रियकामलब्धिः । दुःखं पुनस्तद्विपरीतमुक्तमितीह सर्वैरपि किं न वेद्यम् ।। ७९ ॥ पूर्व त्वकृत्वा सुकृतं नरा ये परश्रियं प्राप्तुमन्ति' मूढाः । तेषां श्रमं केवलमेव लोके हास्यं महत्तच्च विपाकतिक्तम् ॥ ८०॥ कामदेवके समान सून्दर, सूकूमार और सुभग युवराज वराङ्गको, हदयमें घर कर लेनेवाली रूपराशिसे युक्त भरतखण्डक प्रधान राजाओंकी पुत्रियोंको, शरीर और मनमें न समानेवाले हर्षसे परिपूर्ण बन्ध-बान्धवोंको तथा अभिषेक मण्डपमें एकत्रित नागरिकोंको देखकर लोगोंके मुखसे अधोलिखित उद्गार निकल पड़े थे ।। ७६ ।। पुण्यफल यद्यपि इस संसारमें उत्पन्न हम साधारण स्त्री पुरुषों, यवराज वराङ्ग, राजकूमारियों, राजपुरुषों आदिके आंख, कान, पेट, हाथ, पैर प्रभृति सर्वथा समान हैं, तो भी इनके ऐश्वर्य, कान्ति, ओज, प्रताप, पराक्रम, सौन्दर्य, आदि सब ही गुण हमलोगोंसे सर्वथा विशिष्ट क्यों हैं ? ऐसा कुछ आपसमें पूछते थे ।। ७७ ।। तब दूसरे कहते थे 'क्या आपने संसारमें होनेवाले समस्त कार्योंके असाधारण ( उपादान) कारणको स्पष्ट बतानेवाला यह वाक्य नहीं सुना है-"सांसारिक समस्त सुख अथवा दुख अपने-अपने कर्मोसे उत्पन्न हुए फलका विस्तार मात्र है।" संसारका प्रत्येक घटना इसी सिद्धान्तको पुष्ट करती है ।। ७८ ॥ सर्वसाधारणको इतना ज्ञान तो होना ही चाहिये कि धर्माचरणसे सुखप्राप्ति होती है तथा पापकर्मोक फलका उदय होनेपर दुख होता है । स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियोंको प्रिय विषयोंकी प्राप्तिसे सूख होता है और उसके उल्टे अर्थात् पाँचों इन्द्रियोंको अप्रिय विषयोंकी प्राप्तिको ही दुख कहते हैं ।। ७९ ॥ इस संसारमें जिन मूर्ख प्राणियोंने पूर्व भवमें कोई शुभकर्म नहीं किये हैं तो भी दूसरे भाग्यशालियों की सम्पत्तिके समान १. म अन्ति । [३७] ETA Jain Education international Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -m द्वितीयः वराङ्ग चरितम् तथापि कर्माणि बहनि तानि शुभप्रदानान्यशुभप्रदानि । ऐकान्तिकं यन्निरुपद्रवं च सुखं लभन्ते कथमत्र जीवाः ॥१॥ दानं तपः संयमदर्शनानि शौचं दमो भूतदया च मेत्री। क्षान्तिश्च सत्यं समता ह्यसंग इत्येवमाद्यं सुखहेतुभूतम् ॥ २॥ जन्मान्तरे तप्ततपःप्रभावात्सत्पात्रदानाज्जिनपूजनाच्च । प्राणानुकम्पोद्भवभावनाया जन्मन्यथास्मिन्सुखिनो भवन्ति ।। ८३ ॥ किमत्र चित्रर्बहुभिः प्रलापैः सुखाथिभिः पापरतिविहेया । पापं पुनर्जीवविहिंसनेन तन्मलतो दुःखमवाप्नुवन्ति ॥ ८४ ॥ सर्गः TeamPawHEARPAHATHere-weaper - se सुख, सौभाग्यको प्राप्त करनेके लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनका सम्पूर्ण प्रयत्न सारे संसारके सामने केवल हास्यास्पद होता है और परिणाम तो अन्तमें अत्यन्त कडुवा ( दुखदायी ) होता ही है ।। ८० ।। तोभी सांसारिक समस्त कर्मों में बहुत कुछ कर्म ऐसे हैं जो शुभफल ही देते हैं, और अत्यधिक ऐसे भी हैं जो अशुभ । ही फल देते हैं। इस संसारमें रहते हुए भी जीव विघ्नवाधा रहित ऐकान्तिक शुद्ध सुखको ही प्राप्त करें, ऐसा कैसे हो सकता है ।। ८१ ।। सत्पात्रको दान देना, अन्तरंग, बहिरंग तप करना, मन, इन्द्रियादिका संयम, सात तत्त्वोंका सच्चा श्रद्धालु होना, द्रव्य और भाव शौचका पालन, इन्द्रिय वृत्तियोंका निग्रह, प्राणिमात्रकी दया, जीवमात्रसे मैत्री ( मित्र समान हितैषिता) भाव, प्रतिशोध लेनेमें समर्थ होते हुए भी क्षमा, सत्यवादिता, समता, परिमित-परिग्रह या परिग्रहहीनता, आदि ऐसे कर्म हैं जिनका फल सुख ही होता है ।। ८२ ।। जन्म-जन्मान्तरोंमें प्रमाद त्यागकर तपे गये तपके प्रभावसे, सत्पात्रोंको दिये गये दानके परिपाकसे, भावपूर्वक की गयी। जिनेन्द्रदेवकी पूजनके प्रसादसे अथवा प्राणिमात्रपर किये गये दयाभावकी सतत भावनासे उत्पन्न सुफलका उदय होनेपर ही लोग । इस जन्ममें सुखी होते हैं ।। ८३ ।। - इस समय नाना प्रकारकी अद्भुत् दार्शनिक चर्चाओंको बढ़ा चढ़ाकर कहनेसे क्या लाभ है ? जो इस भव और परभवमें सुखके इच्छुक हैं उन्हें पापमयकर्म करनेके चावको छोड़ देना चाहिये । पाप भी प्राणियोंकी द्रव्य या भाव हिंसा करनेसे होता है । । और इस पापरूपी मूलसे ही दुखरूपी फलोंको जीव प्राप्त करते हैं ।। ८४ ।। Jain Education Interational SERAIPMARATmsymsans [३८] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Des द्वितीयः RRETARIATRE श्रुत्वा वचो धर्मपथा'नपेतं निरुत्तरं सर्वजगावगम्यम् । तं श्रद्दधुर्धर्मफलं मनुष्याः प्रत्यक्षसद्दर्शनजातरागाः ॥ ८५॥ प्रशस्तनक्षत्रमुहूर्तयोगे ग्रहेषु सर्वेषु समन्वितेषु । स्वोच्चस्थिते चन्द्रमसोष्टपक्षे चकार पाणिग्रहणं वधूनाम् ॥ ८६ ॥ श्रीधर्मसेनः सकलत्रपुत्रः सन्मानदानैरभिसंप्रपूज्य । लोकोपचारग्रहणानवल्या विसर्जयामास वसुधरेन्द्रान् ॥ ७॥ संप्राप्य कल्याणमहाविभूत्या विराजमाना दुहितनिरीक्ष्य । जामातरं चायितराजलक्षम्या वसुन्धरेन्द्राः प्रययुः स्वदेशान् ॥ ८॥ e ___ धर्म मार्गके सर्वथा अनुकूल इन वचनोंको सुनते ही समस्त स्त्रो पुरुषोंको धर्मके आचरण तथा उसके शुभ फलपर तुरन्त अडिग श्रद्धा हो गयी थी, क्योंकि जन्मान्तरोंमें किये गये शुभकर्मों के सुफलोंके भोक्ता कुमार वराङ्ग तथा उसकी पत्नी राजकुमारियाँ उनके चर्मचक्षुओके सामने थे। इसके अतिरिक्त यह वचन इतने सरल थे कि अति सरलतासे सबकी समक्षमें आ गये थे, और कुशंका करनेवालोंको निरुत्तर कर देते थे ।। ८५ ।। जिस शुभ मुहर्तमें समस्त मंगलकारी नक्षत्रोंका उदय था, सबके सब ग्रह अपने-अपने अतिउच्च स्थानपर थे तथा । चन्द्रमा भी अत्यनुकूल उन्नत स्थानपर था, उसी शुक्लपक्षके परम श्रेयस्कर मुहूर्तमें महाराज धर्मसेनने दशों बहुओंका पाणिग्रहण संस्कार कराया था ।। ८६ ॥ metNIN4mmarredeemen S ERचामाचा विवाह मंगल लोकाचर और गृहस्थाश्रमकी मर्यादाओं तथा विधियोंको अक्षुण्ण बनाये रखनेकी इच्छासे ही महाराज धर्मसेनने अपनी पट्टरानी तथा पुत्रको साथ लेकर अभ्यागत राजा, महाराजाओंका परिपूर्ण स्वागत किया था तथा प्रचुर भेंट दी थी और अन्तमें , विधिपूर्वक विदायी की थी।। ८७ ।। पृथ्वी पर इन्द्रके समान प्रतापी तथा वैभवशाली वे राजा लोग भी, सुयोग्यवररूपी महाकल्याण तथा अन्य विपुल विभूतियोंकी प्राप्तिसे परम शोभायमान अपनी राजदुलारियों तथा उसी समय विशाल राज्य सम्पत्तिको प्राप्त करनेवाले श्रेष्ठ दामादसे भेंट करके अपने-अपने देशोंको लौट गये थे ।। ८८ ॥ -H-TRICKASSES 8 १. म धर्मपथा न भीतं । २. क सोच्चस्थिते, [ सूच्च स्थिते ]। ३. [ संप्राप्त° ]। ४. [ चागत° ] । For Privale & Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् निवर्तमानान्स्वपुरात्कुमारः प्रीत्या महेन्द्रप्रतिमान्विधिज्ञः । प्रयाप्य' दूरं विदितत्रिवर्गः स्वच्छन्ददृत्यानुबभूव भोगान् ॥ ८९ ॥ प्रियाङ्गनाभिर्वरवर्णिनीभिः प्रफुल्लनीलोत्पललोचनाभिः । चन्द्राननाभिः सह राजपुत्रो रेमे चिरं पीनपयोधराभिः ॥ ९० ॥ तासां वधूनां रमणप्रियाणां क्रोडानुषङ्ग क्रमकोविदानाम् । आलापसल्लापविलास भावैः कालो व्यतीतो धरणीन्द्रसूनोः ।। ९१ ॥ ताश्चापि भास्वद्रमणीयवेषाः स्वाम्येकभावप्रतिवद्धरागाः । सर्वास्तु सर्वेन्द्रियरत्यधिष्ठाः ॥ ९२ ॥ मनोज्ञरुपद्युतिकान्तिमत्यः धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोंके सम्बन्ध और अनुपातके विशेषज्ञ तथा लोकाचारके पंडित युवराज वराङ्गको जब यह समाचार मिला कि महेन्द्रके समान विभव और प्रतापके स्वामी उसके ससुर लोग अपने देशोंको लौट रहे हैं तो वह उन्हें बहुत दूरतक भेजने गया । उन्हें भेजकर लौटनेके बाद ही उसने समस्त गार्हस्थिक भोग, उपभोगोंका यथेच्छ सेवन किया था ।। ८९ ।। पति-पत्नी अनुराग राजकुमारकी नवोढ़ा राबही पत्नियाँ परम प्यारी थीं, सबही लोकोत्तर सुन्दरियाँ थीं, उन सबके नेत्र पूर्ण विकसित नीले कमलोंके समान सुन्दर और मदपूर्ण थे, मुख पूर्ण चन्द्रके समान मोहक और उत्तेजक था और स्तनादि भोग्य अंग पूर्ण विकसित थे । फलतः वह उनके साथ चिरकाल तक रतिकेलिमें लीन रहा था ॥ ९० ॥ धरणा इन्द्र महाराज धर्मसेनके पुत्र वराङ्गका सारा समय अपनी प्रेयसियों के साथ प्रेमालाप, हास्य प्रहसन, हाव भाव, आदि प्रेम लीलाएं करते करते ही बोत जाता था, क्योंकि वे सव हो पतिको प्यारी थीं और पतिपर प्रगाढ़ प्रेम करती थीं, और प्रेम लीलाओं की शृंखलाको चालू रखनेमें बड़ी कुशल थीं ॥ ९१ ॥ उन सबही बहुओं की वेशभूषा उज्ज्वल और उद्दोपक थी, वे दिन रात पति और उसके साथ हुई प्रेमलीलाके विचारोंमें ही मस्त रहती थीं, उनका रूप, ओज और कान्ति हृदयमें स्थायी स्थान कर लेते थे सबकी सब समस्त इन्द्रियोसे रति करनेमें दक्ष थीं ।। ९२ ।। १. [ प्रस्थाप्य ] । २. म लोकान् । ३. म कान्तमस्यः । For Private Personal Use Only SWA द्वितीयः सर्गः [४०] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग बिताया सर्गः सत्यार्जवक्षान्तिदयोपपन्नाः पैशून्यमायानृतलोभहीनाः । व्यपेतमात्सर्यमदाभ्यसूया महीन्द्रपुत्रस्य मनोऽपि जहः॥ ९३ ॥ देवेन्द्रो गगनचरीभिरप्सरोभिः शैलेन्द्र स्फुटमणिभासुरे यथैव । कान्ताभिर्भवनवरे पराय॑सारे भूमीन्द्रप्रियतनयस्तथाभिरेमे ॥ ९४ ॥ इत्येवं नृपतनयस्य पुण्यमूर्तेः कल्याणं कथितमिदं सपासतस्तु । कः शक्तः सुकृतफलं समासहस्त्रैः संस्तोतुं मतिरहितः पुमानशेषम् ॥ ९५ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते विवाहवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः । सबकी सब सत्यभाषिणी, सरल-प्रकृति, शान्त-स्वभाव और दयाशीला थीं, चाटुकारिता, छल कपट, असत्य-वचन, B लोभ आदि दुगुणोंसे कोसों दूर थीं, पारस्परिक ईर्ष्या, रूपादिका अहंकार, पक्षपात आदि दोष उनके निकट भी न फटकते थे, फलतः उन्होंने युवराजके मनको पूर्णरूपसे चुरा लिया था । ९३ ।। देवताओं के अधिपति इन्द्र जाज्वल्यमान महामणियोंकी ज्योतिसे प्रकाशमान पर्वतराज सुमेरुपर जिस प्रकार आकाशचारिणी अद्भुत रूपवती अप्सराओंके साथ रमण करते हैं उसी प्रकार पृथ्वी के इन्द्र महाराज धर्मसेनके सुपुत्र कुमार वराङ्ग अपनी प्राण प्यारियोंके साथ,महामूल्यवान मणियों आदिसे परिपूर्ण उत्तम उद्यानों और केलिवोंमें मनचाहा रति विहार करते थे ॥९४ ॥ इस प्रकार पुण्यकी साक्षात् मूर्ति समान राजपुत्रके कल्याणकारी शुभ विवाहका यह वर्णन ऊपर अति संक्षेपसे किया है, । कारण, कोई बुद्धिहीन व्यक्ति महापुण्यके सुफलकी, हजारों वर्ष कहकर भी क्या निःशेष स्तुति कर सकता है ॥ ९५ ॥ चारों वर्ग:समन्वित, सरल शब्द-अर्थ रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें विवाह वर्णन नामक द्वितीय सर्ग समाप्त । [४१] Jain Education international Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IR बराङ्ग चरितम् तृतीयः सर्गः अरिष्टनेमिर्वरधर्मभूमिः' प्रणष्टकर्माष्टकभूरिबन्धः । विशिष्टनामाष्टसहस्रकोर्तिविंशतीर्थाधिपतिर्बभूव ॥१॥ तस्याग्रशिष्यो वरदत्तनामा सदृष्टिविज्ञानतपःप्रभावात् । कर्माणि चत्वारि पुरातनानि विभिद्य कैवल्यमतुल्यमापत् ॥ २॥ उदारवृत्तहरुकसत्तपस्कर्नानद्धिभिः साधुगणैरनेकैः । महात्मभिस्तबिजहार देशान् धर्माम्बवर्ष जगते च वर्षन् ॥३॥ पुराकरग्राममडम्बखेडान्विहृत्य भव्याम्बुजबालभानुः । धर्मप्रभावं व्यपदेष्टुकामः पुरं क्रमेणोत्तममाजगाम ॥ ४ ॥ R ORIZARREGULMERITHIचावाचा तृतीय सर्ग श्रीवरदत्तकेवली इस युगमें बाइसवीं वार श्रीअरिष्टनेमि प्रभुने सद्धर्म तीर्थका प्रवर्तन किया था। संसारके सम्पूर्ण धर्मोके मुकुटमणि समान जिन धर्मरूपी महातरुके लिए वे नेमिनाथ भगवान भूमिके समान थे, उन्होंने अनादिकालसे बँधे आठों कर्मोंके जटिल बन्धनोंको समूल नष्ट कर दिया था इसीलिये लोकोत्तर एक हजार आठ नामों ( सहस्रनाम स्तवन ) द्वारा गणधर, इन्द्रादि महापुरुषोंने उनके यशकी स्तुति की थी।॥ १॥ श्रीनेमिप्रभुके सर्वप्रधान शिष्य वरदत्त महाराजने सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और प्रशस्त तप ( सम्यक्चारित्र ) की दुर्धर-सफल साधनाके प्रभाव द्वारा अनादिकालसे बँधे अत्यन्त प्राचीन चारों घातिया ( ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय ) कोंकी पाशको छिन्न-भिन्न करके अनुपम केवल ( पूर्ण, अनन्त ) ज्ञानको प्राप्त किया था ॥ २ ॥ ___वही वरदत्तकेवली संसारके कल्याणकी भावनासे जिनधर्मरूपी अमृतकी मूसलाधार वृष्टि ( उपदेश ) करते हुए अनेक महात्मा मुनियोंके साथ नाना देशोंमें विहार कर रहे थे। उनके संघके सब ही मुनिराजोंका सर्वांग सुन्दर चारित्र, अतिक्रम आदि दोषोंसे रहित था, तपस्या अत्यन्त दुर्द्धर और शास्त्रानुकूल थी, तथा वे सब ही नाना ऋद्धियोंके स्वामी थे ।। ३ ।। भव्यजीवोंरूपी कमलोंके अन्तरंग और बहिरंग विकासके लिये प्रातःकालके सूर्यके समान मुनिराज वरदत्तकेवली अपने १. क °वरदत्तभूमिः। [४२] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मिन्पुरे सर्वजनाभिगम्यं उद्यानमत्यन्तसुखप्रदेशम् । मनोहरं नाम मनोऽभिरामं कृताननादं मधुकृविरेफैः ॥ ५॥ तस्यैकदेशे रमणीयरूपे शिलातले जन्तुविजिते च । दयापरैन्तिमदेन्द्रियाश्वैः सहोपविष्टो मुनिभिर्मुनीन्द्रः ॥६॥ एकैकशः केचन पिण्डिताश्च केचित्स्थिताः केचन संनिषण्णाः। स्वाध्यायमन्दध्वनिरक्तकण्ठा वाचंयमाः केचन साधुवर्याः ॥७॥ तेषां यतीनां हि तपोधनानां जाज्वल्यमानोत्तमशीलभासाम् । मध्ये बभासे वरदत्तनामा ज्योतिर्गणानामिव पूर्णचन्द्रः ॥८॥ तृतीयः सर्गः संघके साथ अनेक नगरों, खनिकोंकी बस्तियों ( आकर ) ग्रामों, अडम्बों और खेड़ोंमें विहार करते हुए जिनधर्म और उसके परम प्रभावका उपदेश देनेके लिए ही क्रमशः उत्तमपुरमें जा पहुंचे थे।॥ ४ ॥ RECEITHEIGHERBELOPERATORSEARमान्य मनोहर उद्यान महाराज धर्मसेनकी राजधानीमें सर्वसाधारणके विहारके लिए खुला हुआ 'मनोहर' नामका विशाल उद्यान था। उसके कुंज, लतामण्डप, दूर्वाप्रदेश, वीथि आदि सब ही स्थान लोगोंके लिए अत्यन्त सुखद थे, फलतः वह दर्शकोंके मनको अपनी ओर आकृष्ट करता था तथा पुष्पोंके परागका संचय करनेमें लीन भौंरोंके शब्दसे वह उद्यान सदा गूंजता ही रहता था !। ५॥ इस उद्यानके अत्यन्त रमणीय भागमें एक परम सुन्दर तथा कीड़ा-मकोड़ोंसे रहित पूर्ण स्वच्छ विशाल शिला पड़ी थी। इसी शिलापर मुनिराज वरदत्तकेवली उन सब महामुनियोंके साथ विराजे थे जिन्होंने अपने उद्धत मन और इन्द्रियरूपी अश्वोंको पूर्णरूपसे आज्ञाकारी बना लिया था और जिनकी प्रत्येक चेष्टा दयाभावसे ओत-प्रोत थी ।। ६॥ कोई, कोई साधु अलग-अलग बैठकर आत्मचिन्तवन कर रहे थे, दूसरे कितने साधु इकट्ठ बैठकर शास्त्र चर्चा कर रहे थे, अन्य लोग पूर्ण ध्यानमें लीन थे, कुछ मुनियोंके मुखसे शास्त्र पाठकी धीर, गम्भीर और मधुरध्वनि निकल रही थी तथा शेष परम योगी मौन धारण किये थे ॥ ७॥ निरतिचार पूर्ण चारित्रकी कान्ति और ओजसे जाज्वल्यमान तपके धनी उन सब ऋद्धिधारी मुनियोंके बीचमें विराजमान श्रीवरदत्तकेवली ऐसे शोभित हो रहे थे, जैसा कि पूर्णिमाका चन्द्रमा समस्त ग्रहों, नक्षत्रों और तारिकाओंके बीचमें होता है ॥ ८॥ [४३] म Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .Tem वराङ्ग चरितम् न उद्यानपालः प्रविलोक्य साधूस्तपोभिरुद्भासितपुण्यमूर्तीन् । प्रहृष्टचेतास्त्वरयाभिमम्य विज्ञापयामास वसुंधरेन्द्रम् ॥९॥ पुरे वने वापि गृहे सभायां तिष्ठन्स्वयं जाग्रदपि वजश्च । दिवा निशायामथ सन्ध्ययोश्च यान्भावतश्चिन्तयति क्षितीन्द्रः॥१०॥ तान् साधुवर्गास्वगुणोपपन्नान्प्रशान्तरूपान्विदितत्रिलोकान् । मनोहरोद्यानशिलातलेषु सुखोपविष्टानहमभ्यपश्यम् ॥११॥ उद्यानपालस्य वचो निशम्य प्रोत्थाय सिंहासनतः पृथुश्रीः । पदानि सप्त प्रतिगम्य राजा ननाम मू| विनतारिपक्षः ॥ १२॥ आनन्दिनी नाम महाभ्रनादा मानल्यकर्मण्यभिसंप्रताड्या। जनस्य सर्वस्य विवोधनार्थ प्रताडिता भपतिशासनेन ॥ १३ ॥ e HANSHIP-AIPSeHealemHHATARPRADESH उग्र तपश्चरणसे उत्पन्न उद्योतसे कान्तिमान परम पूण्यात्मा मनियोंके दर्शन करते हो 'मनोहर' उद्यानके मालीका चित्त आनन्दसे गद्गद हो उठा था फलतः उसने विना विलम्ब किये ही शीघ्रतासे राजप्रासादमें पहुँचकर पृथ्वीपर इन्द्रके समान प्रतापी महाराज धर्मसेनको मुनिसंघके आगमनकी सूचना (निम्न प्रकारसे ) दी थी ॥९॥ माली द्वारा संदेश हे महाराज? नगर या वनमें रहते हए, भवन या राजसभामें विराजे हए, चलते फिरते हये, स्वयं सोते या जाग्रत अवस्थामें, दिनको या रात्रिमें, प्रातःकाल या सन्ध्या समय जिन मनिवरोंका आप मन ही मन चिन्तन किया करते हैं ।।१०।। उन्हीं साधु परिमेष्ठीके समस्त गुणोंसे विभूषित, परम शान्त स्वभाव युक्त तथा अपने ज्ञानसे तीनों लोकोंके चराचर पदार्थोंके ज्ञाता, महामुनियोंके संघको मैंने 'मनोहर' उद्यानके स्वच्छ सुन्दर विशाल शिलापर आनन्द और निश्चिन्तताके साथ विराजमान देखा है ॥ ११ ॥ धर्म-यात्राको सूचना अपने प्रचण्ड शत्रुओंके भी मस्तकोंको झुका देनेवाले तथा परम प्रभुताशाली महाराज धर्मसेन उद्यानपालके वचनोंको सुनते ही सिंहासनसे नीचे उतर आये थे और जिस दिशामें मुनिसंघ विराजमान था उधर ही सात पग आगे जाकर उन्होंने भूमि- पर मस्तक झुकाकर भक्तिभाव पूर्वक प्रणाम किया था ॥ १२ ॥ आनन्दिनी नामकी महाभेरी जिससे प्रचण्ड बादलोंकी घनघोर गर्जनाके समान दुरतक सुनायी देनेवाला शब्द निकलता । १. म प्रश्नान्तरूपान् । [४] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः चरितम् सर्गः अमात्यसेनापतिमन्त्रिणश्च पुरोहितश्रेणिगणप्रधानाः । तस्याः पुनर्मेनिनादकल्पं रवं निशम्याश समाययुस्ते ॥ १४ ॥ प्रहृष्टरोमः परितुष्टभावो दत्त्वा दरिद्रार्थिजनाय दानम् । सान्तःपुरः सर्वसमृद्धियुक्तो जगाम साधूनभिवन्दितु सः ॥ १५ ॥ बहुप्रकारान्पुरवासिनोऽर्थान् विचिन्तयन्तः स्वमनोऽनुनीतान् । अनेकवेषाकृतिदेशभाषा निरीयुरुर्वीपतिना सहैव ॥ १६ ॥ नृपाज्ञया केचिदभिप्रजग्मुर्गन्तु प्रवृत्तानपरे समीयुः । निश्चक्रतुः केचिदुदारशोभाः स्वां स्वां च संदर्शयितु विभूतिम् ॥ १७ ॥ था और जो केवल मांगलिक धर्मकृत्योंकी सूचना देनेके लिए ही बजायी जाती थी। वही महाभेरी महाराज धर्मसेनकी आज्ञासे । सर्वसाधारणको मुनिसंघके आगमनकी सूचना देने के लिए जोर-जोरसे पीटी गयी थी॥ १३ ।। र अमात्य, परामर्शदाता, सेनापति, धर्ममहामात्य, शिल्पियों आदिकी श्रेणियोंके मुखिया तथा गणोंके अध्यक्ष मेघोंकी महा गर्जनातुल्य आनन्दिनी भेरीके तीव्र और गम्भीर शब्दको सुनते ही बिना बिलम्ब राजभवनमें आकर इकट्ठे हो । गर्योथे ॥ १४ ॥ धर्मयात्रा E मुनिदर्शनकी कल्पनासे महाराज इतने प्रसन्न थे कि उन्हें बार-बार रोमाञ्च हो आता था, नेत्रों और मुखके भाव उनकी आन्तरिक तुष्टिको व्यक्त करते थे, इसलिए निधन और अभावग्रस्त याचकोंको दान देनेके बाद वह पूरे ठाट-बाट तथा साज-सज्जाके साथ अपने अन्तःपुरको साथ लेकर मुनियों की वन्दना करने गये थे ॥ १५॥ र अनेक देश-देशान्तरोंके रहनेवाले फलतः नाना प्रकार के वेश भूषाको धारण किये हुए तथा पृथक्-पृथक् लघु भाषाओमें । । बोलते हुए।सब ही नागरिक महाराजके साथ ही मुनिसंघके दर्शन करनेके लिए निकल पड़े थे। वे सब रास्ता चलते-चलते मनमें उठनेवाले नाना प्रकारके विषयोंको भी सोचते जाते थे ॥ १६ ॥ यात्रा का उद्देश्य तथा यात्री मुनि-बन्दनाको निकले नागरिकोंमें कुछ ऐसे थे जो राजाकी सूचना सुनकर चले थे, दूसरे ऐसे थे जो अन्य लोगोंको जाते देखकर उनके पीछे-पीछे चल दिये थे तथा अन्य लोग अपनी उदार शोभा और सम्पत्ति के साथ निकले थे मानो उनकी यात्राका चरम लक्ष्य अपनी सम्पत्ति और सजावटका प्रदर्शन ही था ।। १७ ॥ १.[.निश्चक्रमुः]। w Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः निर्जग्मुरेके नरदेवभक्त्या समीयुरेके मुनिदेवभक्त्या । उत्तस्थुरेके गुरुलोकभक्त्या उपेयुरेके वरधर्मभक्त्या ॥ १८ ॥ प्रदित्सवः केचन पात्रदानं निसवः केचन संयतेन्द्रान् । शुश्रूषवः केचन धर्मसारं सुराङ्गनाभिस्तु रिरंसवोऽन्ये ॥ १९ ॥ रुरुत्सवः केचन मोहसेनां जिघांसवः केचन मोहराजम् । युयुत्सवोऽन्ये च कषायमल्लविभङ्क्षवः केचन कामदर्पम् ॥ २०॥ मुमुक्षवः केचन कर्मपाशांस्तितीर्षवोऽज्ञानमहासमुद्रम् । तुष्टषवः साधुगुणानुदारांश्चिचित्सवः' संशयजातमर्थम् ॥ २१ ॥ पुपुषवः पापरजांसि केचिच्चिचीषवः पुण्यजलानि केचित् । चिकीर्षवो घोरतपांसि केचित्तिष्ठासवः सूत्रपथे च केचित् ॥ २२॥ कुछ लोगोंके गमनका कारण राजभक्ति थी, बहुतसे लोगोंकी धर्मयात्राका प्रधान प्रेरक वीतराग मुनियोंकी शुद्धभक्ति । थी, दूसरे अधिकांश जनोंको अपने गुरुजनोंका ख्याल करके ही उस यात्राके लिए उठना पड़ा था, तथा अन्य लोग इस लोक और परलोकके साधक श्रेष्ठ जिनधर्मकी श्रद्धाके कारण ही मनोहर उद्यानकी तरफ दोड़े जा रहे थे ॥१८॥ उन यात्रियोंमें काफी लोगोंको सत्पात्रोंको आहारादि दान देनेकी उत्कट अभिलाषा थी, कुछ लोग यही चाहते थे कि इन्द्रिय विजेता मुनियोंके चरणों में जाकर धोक दें, दूसरे लोग जिनधर्मके मर्मको गुरुओंके श्रीमुखसे सुननेके लिए व्याकुल थे, अन्य लोगोंकी यही कामना थी कि मुनिदर्शनके पुण्यका संचय करके स्वामें सुरांगनाओंके साथ रमण करें ॥१९॥ ऐसे भी लोग थे जो मोहनीय कर्मको क्रोधादि-मय सेनाकी प्रगतिको सर्वथा रोक देना चाहते थे, दूसरे इनसे भी एक कदम आगे थे वे कर्मों के राजा मोहनीयको मारकर फेंक देना चाहते थे, अन्य लोगोंकी यही अभिलाषा थी कि कषाय, नोकषाय A रूपी मल्लोंसे जमके लोहा लिया जाय, कतिपय लोगोंको केवल इतनो ही तृष्णा थी कि एकबार कामदेवके अहंकारको चूर-चूर कर दें, ॥ २०॥ ऐसे पुरुष सिंह भी थे जो आठों कर्मोंकी पाशको खोलकर फेंक देना चाहते थे, दूसरे श्रावक अज्ञानरूपी महासमुद्रको पार करनेके इच्छुक थे, मुनियों के विशाल चारित्र और निर्दोष गुणोंकी स्तुति करनेके लिए ही अनेक लोग आतुर थे ।। २१ ।। अन्य लोग अपने संशयापन्न विषयोंका स्पष्ट समाधान पानेके लिए ही उत्सुक थे, ऐसे भी लोग थे जो पापकर्मों रूपी । धूलको साफ करनेकी हादिक इच्छा करते थे, अन्य लोगोंको पुण्यरूपी जल राशिके प्रचुर संचय करनेकी लालसा थी, कुछ लोगोंकी १. [ चिकित्सवः]। २. क चिचीर्षवः। ३. चिचोषवो। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरान तृतीयः चरितम् सर्गः HEREAaina- R THATPATRIPATHeeSparesame Pa ESER चिकित्सवः केचन दुःखजालं विभित्सवः केचन दुःखबीजम् । सिशंसवः' केचन दुःखर्वाह्न जिज्ञासवो द्रव्यगुणस्वभावान् ॥ २३ ॥ आधित्सवः केचन पुण्यकीति विवप्सवः केचन पुण्यबीजम् । सिष्ठाषवः केचन पुण्यतीर्थे लोकोत्तरं सौख्यमभीप्सवश्च ॥ २४ ॥ गृहस्थधर्म प्रतिपित्सवश्च गृहस्थधर्म प्रजिहासवश्च । तित्यक्षवो लोककुधर्ममार्ग मुनीन्द्रधर्म प्रजिघृक्षवश्च ॥ २५ ॥ वतातिपातप्रतिबोधनाय गृहीतपूर्वव्रतवर्धनाय ।। महाव्रतानुग्रहकारणाय केचिद्ययुः प्राग्विदितार्थतत्त्वाः ॥ २६ ॥ यही कामना थी कि महाराजसे दीक्षा लेकर घोर तप करें, दूसरे लोग यही भावना भाते थे कि उनका आचरण पूर्ण रूपसे आगमके अनुकूल हो ।। २२ ।। कतिपय मुनि दर्शनार्थी संसारिक दुखरूपी रोगोंका प्रतीकार करनेके लिए ही ध्यग्र थे, अन्य मुनिभक्त लौकिक दुखोंके बीज (मोह) को ही मसल देना चाहते थे, ऐसे भी यात्री थे, जिन्हें संसारके दुखीरूपी दावानलको बझा देना ही अभीष्ट था, अधिकांश गुरुभक्तों को जीवादि षड्द्रव्य, उनके गुण तथा स्वभावकी वास्तविक जिज्ञासा ही प्रबल थी ।। २३ ।।। कुछ लोग पुण्य और यशका संचय करना चाहते थे, दूसरे पुण्यरूपी बीजको बोनेकी अभिलाषा करते थे अन्य लोगोंकी । यही लालसा थी कि पवित्र जिनधर्मरूपी तीर्थमें खूब गोते लगा, अन्य लोग अलौकिक ( मोक्ष ) सुखकी प्राप्ति कामना कर के चले थे ॥ २४ ॥ उन नागरिकोंमें ऐसे सज्जनोंकी भी पर्याप्त संख्या थो जो गहस्थ-धर्मको विविपूर्वक धारण करना चाहते थे दूसरे ऐसे । भी थे जो श्रावकाचारसे बढ़कर महाव्रतोंको लेना चाहते थे । जहाँ कुछ लोग संसारके मिथ्या धर्मोको सर्वथा त्यागनेके इच्छुक थे, वहीं अन्य लोग मुनिदीक्षा ग्रहण करनेके लिए कटिवद्ध थे ।। २५ ॥ मुनि बन्दनाको निकले जनसमूह में ऐसे लोगोंकी भी कमी न थी जो स्वयं जोवादि तत्त्वों और नौ पदाथोंके विशेषज्ञ होते हुए भी सिर्फ इसीलिए जा रहे थे कि गुरुचरणोंमें बैठकर वे व्रतोंके अतिचारोंके रहस्योंको अच्छी तरह समझ सकें और पूर्व गृहीत व्रतोंको निर्दोष रूपसे बढ़ा सकें, इतना ही नहीं, बल्कि इस प्रकारके आचरणसे अपने आपको महाव्रतोंका पात्र बना सकें ॥ २६ ॥ १.[शमिष्णवः]। २. सिस्नासवः]। VASARALLED reaampared [४७] EPIPAwe Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्ये पुनः प्राक्तनुकर्मबन्धाः संसारनिःसारविकारदोषान् । अवेत्य निर्वेदपरायणास्ते दीक्षाभिलाषाः प्रययुगैहेभ्यः ॥ २७ ॥ मदप्रभिन्नार्द्रकटद्विपानामन्तनिनादै' रथनेमिघोषैः। तरङ्गमानामपि हेषितैश्च पदातिवन्दप्रतिबद्धवाक्यैः ॥ २८॥ नानाविधैस्तैः पटहेर्ब हद्धिः शङ्कस्वनैर्बन्दिमुख प्रलापैः। प्रावटपयोदध्वनिमादधाना नरेन्द्रसेना विबभौ प्रयान्ती ॥ २९ ॥ आरुह्य रत्नोज्ज्वलमौलयस्ते हस्त्यश्वयानानि पृथग्विधानि । वरा वराङ्गप्रमुखाः कुमारा वसुधरेशस्य ययुः पुरस्तात् ॥ ३० ॥ तृतीयः सर्गः AAPERRIEREITHER अनेक ऐसे भव्यजीव थे जिनका पुरातन कर्मबन्ध शुभाचरण द्वारा यों ही काफी कम हो गया था, वे संसार और शरीरकी निस्सारता, विकारों और दोषोंको भलीभाँति जानते थे फलतः उनका मन वैराग्यसे ओत-प्रोत हो रहा था इसीलिए वे मुनिदीक्षा ग्रहण करनेका पक्का निश्चय करके ही घरसे निकले थे ।। २७ ॥ यात्रावर्णन मदजलके सतत प्रवाहसे गीले गण्डस्थल युक्त मस्त हाथियोंकी बीच, बीच में होनेवाली चिंघाड़े, जोरसे दौड़े जानेवाले रथोंकी धुराकी चेंचाहट, चपल घोड़ोंकी अत्यधिक हिनहिनाहट, आपसमें गपशप करनेमें लीन पैदल सैनिकोंके शोरगुल, जोरजोरसे पीटे गये अनेक तरहके पटह आदि बाजों ।। २८ ॥ __ जोरसे फूके गये शंखोंकी ध्वनि, तथा आगे आगे चलकर महाराजका विरुद उच्चारन करनेमें मस्त भाटोंके शोर आदिकी ध्वनियोंके मिल जानेसे वर्षाकालीन मेधोंके समान दारुण गर्जना करती हुई चली जानेवाली राजाकी सेनाकी शोभा अद्भुत ही थी ।। २९ ।। यात्री राजवंश महामूल्यवान विविध प्रकारके रत्नोंसे जड़े हुए जगमगाते हुए उत्तम मुकुट आदि पहिनकर अलग अलग हाथी, घोड़ा। आदि सवारियोंपर आसीन हुए युवराज वरांग आदि सब ही श्रेष्ठ राजकुमार महाराजको सबारीके आगे-आगे मुनिसंघकी बन्दनाको चले जा रहे थे । ३० ।। [४८] १.क मन्त्रनिनादैः, [ मन्द्र निनादः] । Thi Jain Education international Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् मत्तद्विपस्यायतपीनबाहः स्कन्धाधिरूढः ससितातपत्रः । अष्टाधसच्चामरवीज्यमानो वजन बभौ शक्र इव द्वितीयः ॥३१॥ यथैव पूर्व भरतेश्वरस्तु हिरण्यनाभाय नमस्क्रियायै । वजन बभासे वरदत्तपावं श्रीधर्मसेनो वसुधाधिपश्च ॥ ३२ ॥ अदूरतः साधुगणान्विलोक्य मत्तद्विपेन्द्रादवतीर्य सद्यः । अपोहा बालव्यजनातपत्रं मुदाश्रितो वन्दितुमायतश्रीः ॥ ३३ ॥ ज्योतिर्गणैरिन्दुरिवाचलेन्दु' प्रदक्षिणीकृत्य वसुंधरेन्द्रः। सपुत्रदारः सहमित्रबन्धुननाम पादावृषिसत्तमस्य ॥ ३४ ॥ तृतीयः सर्गः मामाच विशालबाहु महाराज धर्मसेन स्वयं भी मदोन्मत हाथीके ऊपर विराजमान थ । उनके ऊपर चन्द्रिकाके समान धवल छाता लगा था और (आठके आधे अर्थात्) चार बढ़िया चमर उनके ऊपर दुर रहे थे। इस ठाटके साथ मुनिवन्दनाको निकले महाराज दूसरे इन्द्रके समान मालूम देते थे ।। ३१ ॥ श्रीवरदत्तकेवलीकी चरण चर्चा के लिए उक्त रूपसे जाते हुए महाराजाधिराज धर्मसेनको देखकर आपाततः उस यात्राका स्मरण हो आता था जो प्रथम चक्रवर्ती भरतने इस युगमें सर्व प्रथम धर्मके उपदेशक भगवान हिरण्यगर्भ [जिनके गर्भ में आते ही सोनेकी वृष्टि ( पूर्ण सुकाल ) होने लगा थी] पुरुदेवके समवशरणकी बन्दनाके लिए को थी ॥ ३२ ॥ गुरु विनय विपुल वैभवके स्वामी महाराज धर्मसेन जब चलकर मुनिसंघके निकट पहुंचे तो विशाल शिलापर विराजमान तपोधनोंको वहींसे देखकर तुरन्त ही अपने मदोन्मत्त हाथोपरसे नीचे उतर आये ओर आनन्द विभोर हो गये थे तथा छत्र, चमर आदि सब ही राजचिह्नोंको वहीं छोड़कर पैदल हो मुनिबन्दनाको गये थे ॥ ३३ ॥ मुनिवन्दना जिस प्रकार ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक ज्योतिषी देवोंके साथ चन्द्रमा पर्वतोंके राजा सुमेरुकी परिक्रमा करता है उसी प्रकार पृथ्वीके इन्द्र महाराज धर्मसेनने अपनी पत्नियों, पुत्रों, पुत्र-बधुओं, मित्रों और कुटुम्बियोंके साथ मुनियोंके भी मुकुटमणि महर्षि वरदत्तकेवलीकी प्रदक्षिणा करके चरणों में धोक दी थी।। ३४ ।। १. [ अचलेन्द्र ] । EIRMIRE Jain Education international Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिच वराङ्ग चरितम् तृतीयः सर्गः ज्वलत्किरीटः प्रविलम्बिहारो विचित्ररत्नानदघृष्टबाहुः । रराज राजा मुनिपुङ्गवस्य पादौ पतन् भानुरिवोदयस्य ॥ ३५॥ आपृच्छय भूपः · कुशलं यतीनामविघ्नतां ज्ञानतपोव्रतेषु । स्वनामगोत्रं चरणं निवेद्य स्तोत्रैश्च मन्त्रविविधैः प्रणुत्य ॥ ३६॥ शेषांश्च सर्वान्मुनिपुङ्गवांस्तांस्त्रिभिविशुद्धः क्रमशोऽभिवन्द्य । एत्यादरात्केवलिपादमूलं सुखं निषधेममपच्छदर्थम् ॥ ३७॥ सर्वप्रजाभ्यो ह्यभयप्रदाता सर्वप्रजानां शरणं गतिश्च । सर्वप्रजानां हितदेशकस्त्वं धर्मामृतं मे दिश वीतमोह ॥ ३८ ॥ त्वं केवलज्ञानविशुद्धनेत्रः सर्वार्थवित्सर्वगणोपपन्नः । मर्वेन्द्रवन्धः प्रविधूतपाप्मा आचक्ष्व जीवादिपदार्थभेदान् ।। ३९ ।। ऋषिराज वरदत्तकेवलीके चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम करते हुए महाराज धर्मसेन जगमगाते हुए मुकुट, घुटनोंतक लटकते लम्बे मणि मुक्ताओंके हार तथा भुजाओंमें नोचे ऊपर सरकते हुए विचित्र रत्नोंसे निर्मित अंगदकी कान्तिके कारण वैसे शोभित हो रहे थे जैसा कि उदयाचलपर उदित होता सूर्य लगता है ।। ३५ ॥ राजाने अपने नाम, गोत्र और व्रतादिका निवेदन करके अनेक मन्त्रों तथा विविध स्तोत्रों द्वारा केवली महाराजकी विनती की थी तथा 'संघका ज्ञान, चरित तथा नियम निरन्तर राय बढ़ रहे हैं ?' कहकर समस्त ऋषियोंकी कुशल क्षेम पूछी थो॥ ३६ ॥ इसके उपरान्त मन, वचन और कायसे शुद्ध राजाने संघके शेष समस्त चरित्र चक्रवर्ती ऋषियोंको क्रमशः भक्ति भावसहित बन्दना करके लौटकर अत्यन्त विनयके साथ श्रीकेवली महाराजके चरणोंमें शान्ति और प्रसन्नता पूर्वक बैठ गये थे तथा निम्न प्रकारसे तत्त्वार्थकी जिज्ञासा की थी ।। ३७ ।। गुरुस्तुति तथा धर्म प्रश्न हे मोहजेता ऋषिवर ? अहिंसा महाव्रतका साँग पालन करके आपने संसारके प्रागिमात्रको अभयदान दिया है, अतीन्द्रिय बल और ज्ञानके स्वामी होनेके कारण आप ही संसारकी शरण है और आपके आश्रयसे ही तो उसका उद्धार हो सकता है । पूर्ण ज्ञानके भण्डार होनेके कारण आप ही सत्य और हितकारी उपदेश दे सकते हैं अतएव महाराज ! मुझे धर्मरूपो । अमृतका पान कराइये ।। ३८॥ हे महाराज ! देश, काल, पर्याय आदि बन्धनहीन परमपवित्र केवलज्ञान ही आपकी आँखें हैं। आप समस्त द्रव्य For Privale & Personal use only ETTEHELISATTASTERB [५०] Jain Education international Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामाना बराङ्ग चरितम् जोवाश्च केचिन्नरकेषु तीवं केनाप्नुवन्त्यप्रतिमं हि दुःखम् । तिर्यक्ष नानाविधवेदनां वा मनुष्यलोकस्य च कारणं किम् ॥ ४० ॥ सुराधिवासस्य चतुर्विधस्य सौख्यं कथं वाष्टगुणादियुक्तम् । क्लेशक्षयोदभतमनन्तकालनिर्वाणसौख्यं कथयस्व केन ।। ४१ ॥ कर्माणि वा कानि सुखप्रदानि दुःखप्रदानान्यथ कानि नाथ । सुखासुखोन्मिश्रफलानि कानि कर्मान्तक हि च संशयो मे ॥ ४२ ॥ एवं स पष्टो भगवान्यतोन्द्रः श्रीधर्मसेनेन नराधिपेन । हितोपदेशं व्यपदेष्टुकामः प्रारब्धवान्वक्तुमनुग्रहाय ॥ ४३ ॥ तृतीयः सर्गः IPELIPEEL मामबार चाSAAMARRESSETTE और पर्यायोंको साक्षात् जानते हैं, आप क्षायिक आदि समस्त गुणोंके भण्डार हैं सब ही स्वर्गों के इन्द्रों के लिए भी आप परमपूज्य हैं, पाप तो आप से दूर-दूर भागता फिरता है। इसलिए हे गुरुवर मुझे जीवादि नौ पोंको समझाइये ॥ ३९ ॥ गतिकारण जिज्ञासा हे प्रभो ! कुछ जीव किन कारणोंसे नरकोंमें उन भयंकर दुःखोंको भरते हैं, जिनकी तुलना मध्यलोकके दारुण से दारुण दुःखसे भी नहीं की जा सकती है। वे कौनसे कर्म हैं जिनके फलस्वरूप तिर्यंच योनिमें बध, बन्धादि विविध वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं ? वे कौन-सी क्रियाएँ हैं जो जीवको मनुष्य गतिमें ले जाती हैं ।। ४० ॥ अणिमा, महिमा आदि आठ गुणोंसे युक्त-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी-चारों प्रकारकी देवगतिके निरन्तराय सुखोंका स्वामी यह जीव क्यों होता है ? तथा वह कौनसी साधना है जो इस आत्माको समस्त कर्मोके नाशसे होनेवाले उस चरम मोक्षसुखको दिलाती है जहाँसे फिर कभी लौटना नहीं होता है ।। ४१ ।। हे आठों कर्मों के काल ? वताइये कौनसे कर्मोके फलस्वरूप सुखप्राप्ति होती है ? वे कर्म कौनसे हैं जिनके परिपाक होनेपर दुःख भरने पड़ते हैं ? तथा वे कोनसी कर्मप्रकृतियाँ हैं जिनका विपाक मिले हुए सुख और दुःख दोनोमय होता हैं ? हे केवली ! मेरे संशयको दूर करिये ।। ४२ ॥ कर्मफल जिज्ञासा __ मनुष्योंके अधिपति श्रीधर्मसेनके द्वारा उक्त प्रकारसे पूछे जाने पर, संसार दुःखोंसे तप्त प्राणियोंको कल्याणमार्गका उपदेश देनेके इच्छुक ऋषियोंके राजा श्रीवरदत्तकेवलीने श्रोताओंपर अनुग्रह करनेके लिए ही निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया था ।। ४३॥ ERIचाच्य [५१] . Jain Education international Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तृतीयः सर्गः येऽस्त्वया प्रश्नविदा नरेन्द्र चतुर्गतीनां सुखदुःखमूलाः । पृष्टा यथावद्विनयोपचारेरेकाग्रबुद्ध्या शृण ते ब्रवीमि ॥ ४४ ॥ संभाव्य सम्य'ङ्मतिभाजनेन सद्धर्ममार्गश्रुतितोयधाराम् । श्रद्धान्विताः साधु पिबन्ति ये तु ते यान्ति जन्मार्णवदूरपारम् ॥ ४५ ॥ धर्मश्रुतेः पापमुपैति नाशं धर्मश्रुतेः पुण्यमुपैति वृद्धिम् । स्वर्गापवर्गप्रवरोरुसौख्यं धर्मश्रुतेरेव न चान्यतस्तु ॥४६॥ तस्माद्धि धर्मश्रवणानुरागा भवन्तु सर्वे शुभमाप्तुकामाः । जित्वा जरारातिरुजश्च मृत्युं भवन्ति वन्द्या भुवनत्रयस्य ।। ४७ ॥ धर्मानुबन्धा दुरितानुबन्धा मिश्रानुबन्धाश्च यथाक्रमेण । त्रिग विभिन्नाः श्रुतयश्च लोके तासां फलं त्रैधमुदाहरन्ति ॥ ४८ ॥ हे नरेन्द्र ! प्रश्नकलामें पारंगत आपने उपयुक्त विनय तथा शिष्टाचारपूर्वक जो नरकादि चारों गतियों, वहाँ होनेवाले सुखों दुःखोंके मूल कारणभूत कर्मोंके तथा समस्त पदार्थोके रहस्यको अलग-अलग पूछा है वह सब मैं आपके ज्ञानके लिए कहता हूँ, आप अपने चित्तको एकाग्र करके सुनिये ।। ४४ ॥ जो भव्यजीव समीचीन जैनधर्म-शास्त्ररूपी धाराके जलको मत्सर आदि दोषहीन सद्बुद्धिरूपी पात्रमें आदरपूर्वक भर लेते हैं और परम श्रद्धाके साथ भलीभांति पीते हैं ( अर्थात् समझते हैं) वे जन्म मरणरूप संसार महार्णवको सरलतासे पार करके बहुत दूर-( सर्वार्थसिद्धि, मुक्ति) निकल जाते हैं ।। ४५ ॥ धर्मशास्त्रके श्रवण और मननसे पापका समूल नाश होता है, धर्मके तत्त्वोंको सुननेसे ही पुण्य दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता है, और तो क्या स्वर्ग आर मोक्षके सर्वदा स्थायी, अनुपम और अपरिमित सुख और सम्पत्तियाँ भी केवल धर्मचर्चाके अनुशीलनसे ही प्राप्त होते हैं। इनका कोई दूसरा कारण नहीं है ।। ४६ ।। शास्त्र-ज्ञान महिमा अतएव जो प्राणी अपने उद्धारके लिये व्याकुल हैं उन सबको धार्मिक चर्चाओंके श्रवण और मननकी ओर अपनी रुचिको प्रयत्नपूर्वक बढ़ाना चाहिये, क्योंकि धर्मके तत्त्वोंका सतत अनुशीलन करके ही ये प्राणी जन्म, रोग, जरामरण आदि समस्त सांसारिक उत्पातोंको जीतकर तीनों लोकोंके वन्दनीय होते हैं ।। ४७ ।। शास्त्र-स्वरूप इस संसारमें उपलब्ध शास्त्र भी तीन प्रकारके होते हैं जिनका श्रवण और मनन धार्मिक प्रवृत्तिको आगे बढ़ाता है,। १. म सम्यग्गति SEPTEASEReuxeARAHI11AMARPAHESHARITAL.TA [५२ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार तृतीयः वराङ्ग चरितम् धर्मानुबन्धात्सुखमेव नित्यं पापानुबन्धादथ दुःखमेव । मिश्रानुबन्धात्सुखदुःखयोगः संक्षेपतस्ते त्रिविधं मयोक्तम् ॥ ४९ ।। क्षीराणि वर्णेन समानि लोके रसेन नानागुणवन्ति तानि । एकानि' निघ्नन्ति निपीतमात्रमन्यान्यथारोग्यवपुःकराणि ॥५०॥ एवं हि धर्माश्च बहुप्रकारा नाम्ना समाना गणतो विशिष्टाः। दुःखार्णवे केचन मज्जयन्ति सुखार्णवे केचन निक्षिपन्ति ।। ५१ ॥ केचित्पुनस्ते नरकं नयन्ति नयन्ति तिर्यग्गतिमेव केचित् । मनुष्यलोकं गमयन्ति केचित्स्वर्गापवगौ च नयन्ति केचित ॥५२॥ सर्ग: बाजTAGazRINGaaaaaaaaaaatss दूसरे कुछ शास्त्रोंपर आस्था करनेसे आत्माकी पाप प्रवृत्तियोंको ही प्रोत्साहन मिलता है और अन्य कुछ शास्त्रोंके पठन-पाठनसे मनुष्यको पाप-पुण्यमय मिश्र चेष्टाएँ करनेका चाव होता है। फलतः क्रमशः इनके फल भो सुख, दुःख और सुख-दुख होते हैं ।। ४८ ॥ संक्षेपमें यों समझिये कि धर्मानुबन्धी शास्त्रोंके श्रवण और पठनसे शुद्ध सुखकी ही प्राप्ति होती है, पापानुबन्धी शास्त्रोंके पठन पाठनका फल केवल दुखसंगम ही होता है और मिश्रानुबन्धो शास्त्रोंके अभ्यास करनेसे मनुष्य मिले हुए सुख और दुःख दोनों को भरता है। थोड़ेमें शास्त्रोंका यही वर्गीकरण है ।। ४९ ।। धर्म-धरूपक जहाँतक रंगका सम्बन्ध है ससारके सबही धर्म एक श्वेत रंगके हो होते हैं लेकिन उनकी रासायनिक शक्तियोका विचार करनेपर प्रत्येकमें अलग-अलग अनेक गुण पाये जाते हैं। कारण, कुछ ऐसे दुध हैं जिन्हें पोते ही जीव और पुद्गलका सम्बन्ध तुरन्त टूट जाता है और दूसरे ऐसे हैं जिनके उपयोगसे मृततुल्य शरीर भी लहलहा उठते हैं। संसारमें प्रचलित नानाप्रकारके अनेक धर्मोकी भी यही अवस्था है ।। ५० ।। नामके लिए सबही धर्म हैं, पर उनके तत्त्व, आचरण आदि गुणोंमें बड़ा अन्तर है। जबकि कुछ धर्मोको अंगीकार करनेसे जीव अथाह दुखसागरमें डूब जाते हैं तब दूसरे धर्मोका सहारा पाते ही प्राणी आनन्दके साथ सुखसागरमें गोते लगाता है ।। ५१ ॥ किन्हीं धार्मिक सिद्धान्तोंके आचरण जीवको नरकमें ढकेल देते हैं, दुसरी धार्मिक मान्यताएँ प्राणियोंको तिथंच गतिको वेदनाएँ भरवाती हैं, अन्य धार्मिक तत्त्वोंका श्रद्धान और आचरण जीवोंको मनुष्य गतिमें आनेका अवसर देता है तथा शेष शुभ और शुद्ध उपयोगकी प्रेरणा देनेवाले धर्म इस जोवको क्रमशः स्वर्ग और अपवर्ग पदोंपर स्थापित करते हैं ॥ ५२ ।। १.म एतानि । aveATHerative e [५३ ] myms Jain Education interational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EARNE बराङ्ग चरितम् तृतीयः एकान्ततो निम्बरसश्च तिक्त इक्षोविकारो मधुरस्वभावः। यश्चाधिको येन विमिश्रितः स्यादाधिक्यतः सन्स्वरसं ददाति ॥ ५३ ।। तत्रैव पापाधिकतोऽतिदुःखं पुण्याधिकात्सौख्यमुदाहरन्ति । सुखासुखे ते च समे समत्वान्निम्बेक्षुहेतुप्रतिदर्शनेन । ५४ ॥ अज्ञानमूढा' दुरनुष्ठिता ये धर्माशयात्क्लेशगणान्भजन्ते । विपन्नमार्गाः परितप्य पश्चात्ते तीवदुःखं नरकं व्रजन्ति ॥ ५५ ॥ नाज्ञानतोऽन्यद्भयमस्ति किंचिन्नाज्ञानतोऽन्यच्च तमोऽस्ति किंचित् । नाज्ञानतोऽन्यो रिपुरस्ति कश्चिन्नाज्ञानतोऽन्योऽस्ति हि दुःखहेतुः ॥ ५६ ॥ सर्गः ROIRite- DATERIATRI पाप-पुण्यफल यदि केवल नीमका रस हो लिया जाये तो वह अत्यन्त कडुवा होता है इसी प्रकार केवल शुद्ध ईख रस देखा जाये तो वह परम मधुर होता है । लेकिन यदि यह दोनों मिलाये जाय, तो जो रस परिमाणमें अधिक लिया जायेगा वही अधिकताके कारण अपने रसका स्वाद देगा ।। ५३ ॥ इसी प्रकार यदि जीवका पाप अधिक है तो उसे दारुणसे दारुण दुःख भोगने पड़ेंगे, और यदि उसके कर्मों में अधिकांश पुण्यानुबन्धी कर्म रहे हैं तो उसे सुखोंका स्वाद मिलेगा। यदि पाप-पुण्य वराबर हैं तो उनके परिपाक दुःख-सुखकी मात्रा भी समान रहेगी। फलतः नीम और ईखके रसोंके दृष्टान्तसे यह कथन स्पष्ट हो जाता है ॥ ५४ ।। अज्ञानके वशीभूत होकर जो प्राणी कर्तव्य और अकर्तव्यका भेद भूल जाते हैं और धर्मके नामसे खूब दुराचार करते हैं, वे यहींपर अनेक कष्ट भरते हैं, और पथभ्रष्ट होकर सांसारिक कष्टोंकी ज्वालाओंमें झुलसते हुए अन्तमें घोरातिघोर दुःखोंके कुण्ड रौरव नरकमें जा गिरते हैं ।। ५५ ॥ अज्ञान शत्रु समस्त प्रकारके भयोंके भण्डार, इस संसारमें अज्ञानसे बड़ा कोई दूसरा भय नहीं है। अज्ञानसे बढ़कर अभेद्य कोई दूसरा अन्धकार ( सन्मार्गके दर्शनका विरोधी ) इस पृथ्वीपर नहीं है । जीवके सबही शत्रुओंका यह अज्ञान महाराजा है फलतः सम्पत्ति, प्रियजन और जीवन अपहरण करनेवाले शत्र भी इसके सामने कुछ भी नहीं हैं। कोई भी कारण हजारों प्रयत्न करके भी अज्ञानसे अधिक दुःख नहीं दे सकता ।। ५६ ।। [५४] क अज्ञान मख। २.क क्लेशगुणान् । Jain Education interational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतोयः वराङ्ग चरितम् सगः निरङ्कुशो मत्त इव द्विपेन्द्रो यथा प्रविश्य प्रतिशत्र सेनाम् । नेत्रा सहैवाश विनाशमेति जीवस्तथा ज्ञानविहीनचेताः ॥ ५७ ॥ यथैव तीक्ष्णाशवान् गजेन्द्रो मद्गात्यरीणां पृतनाः प्रसह्य । तथैव मोहारिमहोग्रसेनां ज्ञानादृशो निर्जयति क्षणेन ॥ ५८॥ यथा दवाग्नेरपसर्तुकामो घावंस्तु तत्र व पतत्यचक्षुः । अज्ञाननीलोवृतलोचनस्तु तथैव दुःखानलमभ्युपैति ॥ ५९॥ यथा दवाग्नेरपसृत्य पगुः स्वदेशमाप्नोति शनैरुपायैः । सज्ञानचक्षुश्च तपांसि कृत्वा तथा बधो निर्वतिमभ्युपैति ॥६॥ इत्येवमादीनि निदर्शनानि जगत्प्रवृत्तान्यवलोक्य बद्धया। अल्पश्रमादेव विशद्धदष्टिः स मोक्षसौख्यं लभते च विद्वान् ॥ ६१॥ चELATASHAI L EE महावतके अंकुशका संकेत न माननेवाला उद्दण्ड, मदोन्मत्त हाथी जिस प्रकार प्राणके ग्राहक शत्रुओंकी सेनामें धुसकर सहसा ही अपने ऊपर बैठे योद्धाओंके साथ व्यर्थ प्राण गँवाता है उसी प्रकार ज्ञानरूपी अंकुशसे हीन चित्तवाला जीव व्यर्थ ही जन्म मरणके दुःख भरता है ।। ५७ ।। ज्ञानांकुश का उदाहरण किन्तु जो हाथी हस्तिपकके संकेतको शोघ्र ही समझता है और उसके ही अनुसार चलता है वह श्रेष्ठ हाथी शत्रुसेनाको । घेर-घेरकर जैसे पैरोंसे रोंदता है वैसे ही ज्ञानपूर्वक आचरण करनेवाला जीव मोहनीयकर्मरूपो भयंकर शत्रुकी उग्रसेनाको भी देखते-देखते सर्वथा पराजित कर देता है । ५८॥ अंधपंगु का निदर्शन जंगलमें लगी सर्वतोमुखी दावाग्निसे बचकर निकल भागनेका प्रयत्न करता हुआ अंधा पुरुष जिस प्रकार घूम फिरके। फिर उसीमें जा पड़ता है, आँखोंपर अज्ञानरूपी कालिमाका मोटा परदा पड़ जानेपर यह जीव भी उसी प्रकार दुख ज्वालाओंमें जा पड़ता है और भस्मसात् हो जाता है ।। ५९ ॥ सूझता लंगड़ा आदमी भी अनेक उपयुक्त उपायोंके सहारेसे धीरे-धीरे दावाग्निसे बाहर निकलकर जिस प्रकार अपने स्थानपर पहुँच जाता है, उसी प्रकार ज्ञानोपुरुष अपने ज्ञानरूपी नेत्रोंसे सुपंथको पहिचान लेता है और आगमके अनुरूप तप करके । ५५ । सरलतासे परम निर्वाणको प्राप्त कर लेता है । ६० ।। . विवेक माहात्म्य संसार में अत्यन्त प्रचलित इन सब दृष्टान्तोंको अपनी बुद्धिरूपी आँखसे भलीभाँति परखकर सत्य श्रद्धासे युक्त सम्यक् R SNIRD Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROUTENER तृतीयः वराङ्ग चरितम् सर्गः कुमतिदुरुपदेशाद्धर्मसद्भावकृत्ये ___ जगति न हि विदन्ति क्षीणपुण्या नरा ये। अविदितपरमार्थास्ते पनर्जन्मवासे चिरतरमपि कालं दुःखभाजो भवन्ति ॥ ६२॥ अत इह मतिमन्तो धर्ममयं जनानां त्रिभुवनसुखसारप्रापर्क मारपापक संभजध्वम् । त्यजत' वितथशून्यं श्यामलं लोकधर्म शृणुत तदुपरिष्टाकर्मणां च प्रभेदम् ॥ ६३ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते धर्मप्रश्नो नाम तृतीयः सर्गः। A LIARPU ज्ञानी पुरुषार्थी जीव ( भरत चक्रवर्तीके समान ) दुर्द्धर तप तपे विना ही साधारण तपस्या द्वारा ही अपने चरमलक्ष्य क्षायिक सुखोंके सागर मोक्षको प्राप्त कर लेता है ।। ६१ ।। कुमति संसारमें जिन प्राणियोंका पुण्य क्षीण हो जाता है उनपर कुमतिका एकाधिकार हो जाता है और उन्हें मिथ्यात्वका उपदेश ही रुचता है फलतः वे धर्माचरण और उत्तमभावोंके रहस्यको समझते ही नहीं हैं। परिणाम यह होता है कि वे तत्त्वज्ञान और अर्थरहस्यसे अनभिज्ञ ही रह जाते हैं और बार-बार जन्ममरणके चक्रमें पड़कर अनन्तकालतक दुख भरते हैं ।। ६२॥ अतएव जिन पुरुषोंकी सद्बुद्धि नष्ट नहीं हुई है वे मनुष्य धर्मों में सर्वश्रेष्ठ उस सत्यधर्मका आश्रय लें जो तीनों लोकोंके सुखोंके सारभूत मोक्षसुखकी प्राप्ति कराता है और दुराचारपूर्ण उन लौकिक वाममार्गोंको छोड़ दें जिनमें सत्यका नाम भी नहीं है ॥ ६३ ॥ अब समस्त कर्मोंके भेद और प्रभेदोंको सावधानीसे सुनें । चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें धर्मप्रश्न नामक तृतीय सर्ग समाप्त । R IASISTATE १.क त्यजथ, म त्यजतथ (?)। Jain Education international Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्थः सर्गः" संसारे प्राणिनः सर्वे सुखदुःखानुवर्तिनः । इष्यते कारणं कर्म तयोश्च सुखदुःखयोः ॥ १ ॥ तदेकं कर्म सामान्याद्भेदावष्टकमुच्यते । चतुर्धा भिद्यते बन्धान्निमित्ताच्च चतुविधम् ॥ २ ॥ ज्ञानावरणमाद्यं हि द्वितीयं दर्शनावृतम् । तृतीयं वेदनीयाख्यं चतुर्थो मोह उच्यते ॥ ३ ॥ आयुश्च पञ्चमं प्रोक्तं नाम षष्ठमुदाहृतम् । सप्तमं गोत्रमित्युक्तमन्तरायोऽष्टमः स्मृतः ॥ ४ ॥ जगत्सृष्टा कर्म देव आदि चार गतियों में विभक्त इस संसार में कृमिसे लेकर सर्वार्थसिद्धिके देव पर्यन्त सब ही प्राणी दुख-सुख के अनादि चक्रों में परिवर्तन कर रहे हैं। इन संसारी जीवोंके द्रव्य और भाव सब ही सुख-दुखोंके कारण उनके निजार्जित शुभ और अशुभकर्म ही हैं, ईश्वरकी इच्छा, माया या प्रकृति आदि नहीं हैं ।। १ ।। सामान्य दृष्टिसे देखनेपर सांसारिक सुख-दुखों का प्रधान कारण कर्म एक ही प्रकारका है, किन्तु परिपाक की अपेक्षासे भेद करनेपर उसीके आठ भेद हो जाते हैं। कर्म अपने बन्धके पंचविध कारणों मिथ्यादर्शन जो अविरति, प्रमाद, कषाय और योग भेद तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश प्रकारोंकी अपेक्षासे चार प्रकारका कहा गया है ॥ २ ॥ ज्ञानस्वरूप जीवके ज्ञानको रोकनेवाला ज्ञानावरणी प्रथम कर्म है, पदार्थोंके साक्षात्कारका बाधक दर्शनावरणी दूसरा कर्म है, सुख दुखमें साता और असाताके अनुभवका द्योतक वेदनीय तीसरा कर्म है, जोवके स्वभावको अन्यथा करनेवाला मोहनीय चौथा कर्म है ॥ ३ ॥ अष्ट कर्म देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गतियोंमें वासका कारण आयु कर्म पाँचवां है, मनुष्य, पशु, पक्षी आदिके अलग-अलग, शरीरोंका निर्माता छठा नाम कर्म है । उच्च और नीच विभागों का कारण सातवां कर्म गोत्र है और ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यं भोग आदिकी प्राप्तिका प्रधान साधक-बाधक अन्तिम ( आठवाँ अन्तराय) कर्म है ॥ ४ ॥ १. क श्रीमदभिनवचार कीर्तिपण्डिताचार्य मुनये नमः । ८ Jain Education Internationa चतुर्थ: सर्ग: [ ५७ ] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्थः सर्गः मूलप्रकृतयस्स्वेता नामतः परिकीर्तिताः । आद्य कर्मणि पञ्चैव द्वितीये नवधा स्मृतम् ॥ ५॥ तृतीये द्विप्रकारं तु चतुर्थेऽष्टौ च विशतिः। चतुष्प्रकारमायुष्कं द्विचत्वारिंशन्नामनि ॥६॥ गोत्रे तु द्विविधं प्रोक्तमन्तरायस्तु पञ्चधा। उत्तरप्रकृतयः सर्वाः संख्याता हि समासतः ॥७॥ आये द्वे मोहनीयं च दुःखदान्यन्तरायिकम् । वेद्यायुर्नामगोत्राणि सुखदुःखानि नित्यशः ॥८॥ मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययकेवलम् । अभिभूय स्वबीर्येण तमः समवतिष्ठते ॥९॥ उत्तर-प्रकृति इस प्रकारसे कर्म सामान्यके आठ प्रधान भेदों ( मूल प्रकृतियों ) के नाममात्र आपको बताये हैं। इन्हीं मूल प्रकृतियोंको विस्तृत रूपसे देखनेपर प्रथम कर्म ज्ञानावरणीके पांच भेद होते हैं, दूसरे दर्शनावरणीके नौभेद हैं ।। ५॥ __ तृतोयकर्म वेदनीयके दो ही भेद हैं, कर्मोंके मुखिया मोहनीय नामके चौथे कर्मके सम्यक्त्व मोहनीय और चारित्र मोहनीय यो प्रधान भेद हैं तथा इनके ही अवान्तर भेद अट्ठाइस होते हैं । योनि विशेषमें रोक रख नेवाले आयुकर्मके भी चार भेद हैं, नाना प्रकारके आकार और प्रकारोंके जनक षष्ठकर्म नामके प्रधानभेद बयालीस हैं ।। ६॥ शक्तिको अपेक्षा समान एक ही योनिके जीवोंको भी उच्च और नीच वर्गोमें विभाजक गोत्रकर्म प्रधान रूपसे दो ही प्रकारका है और अन्तिम कर्म अन्तरायको उत्तर प्रकृतियाँ पाँच हैं। इस प्रकारसे संक्षेपमें आठों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंको गिना दिया है ॥ ८॥ विपाक भेद पहिले दो कर्म अर्थात् ज्ञानावरणी और दर्शनावरणी तथा चौथा कर्म मोहनीय ये तीनों जीवको एकान्तरूपसे दुख ही 1 [५८] । देते हैं । तथा वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन पाँचों कर्मोंका फल सदा ही सुख और दुखमय होता है ।। ८॥ ज्ञानावरणी ज्ञानावरणीकर्म अपनी अन्धकारमय प्रकृतिकी मार सामर्थ्यके द्वारा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान (परोक्षप्रमाण), अवधिज्ञान, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्विध मतिज्ञानं तदेवाष्टौ च विंशतिः । द्वात्रिंशत्पुनरन्येन स्मृतिमावत्य तिष्ठति ॥१०॥ अवग्रहहावायानां धारणानां च संततिः । शश्रषामार्गणापेक्षाधारणानि' रुणद्धि सा ॥ ११ ॥ पर्यायाक्षरसंघातः पदं संघात एव च। प्रतिपत्तिश्च योगश्चानियोगदद्वारमेव च ॥ १२ ॥ मनापर्ययज्ञान ( विकल प्रत्यक्ष प्रमाण ) और केवलज्ञान ( सकल प्रत्यक्ष ) इन पाँचों ज्ञानोंको ढककर जीवको अज्ञान अन्धकारमें डाल देता है ।। ९॥ मतिज्ञानावरणी स्थूलरूपसे मतिज्ञान चार ( अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा) प्रकारका ही है इन चार प्रकारोंको ज्ञानके साधनोंसे मिलानेपर मतिज्ञानके अट्ठाइस भेद हो जाते हैं । अर्थात् पाँचों इन्द्रियों और मनसे अर्थक पृथक्-पृथक् अवग्रह आदि ( ६४४ = २४) होनेसे इन चौबीस चार प्रकारका व्यञ्जन-अवग्रह और ( कारण मन और चक्षुसे व्यजनावग्रह नहीं होता) इस प्रकार ( २४ में ४ ) जोड़नेपर कुल २८ भेद होते हैं। उक्त अट्ठाइस भेदोंमें मूल चार भेद जोड़ देनेसे ( २८ + ४ = ३२) यही मतिज्ञान बत्तीस प्रकारका हो जाता है ॥ १० ॥ स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध मतिके ही नाम हैं। मतिज्ञानावरणी कर्म इन स्मृति आदिको रोक देता है । अवग्रह मतिज्ञानावरणीकम पदार्थक साधारण ज्ञानको भी रोक देता है, अर्थकी विशेषताओंकी जिज्ञासा मात्रका मूलोच्छेद करना ईहा मतिज्ञानावरणीका काम है, विषयके निर्णयात्मकज्ञानमें अवाय-मतिज्ञानावरणी ही बाधक होता है और धारणा मतिज्ञानावरणी। कर्म उक्त प्रकारसे जाने हुए भी पदार्थज्ञानके दृढ़ संस्कारको नहीं होने देता है ॥ ११ ॥ श्रुतज्ञानवरणी विशेषरूपसे देखनेपर श्रुतज्ञानावरणीके भी अधोलिखित बीस भेद होते हैं-पर्याय (निगोदिया जीवके जन्मके प्रथम समयमें रहनेवाला श्रुतज्ञान, जो कभी आवृत नहीं होता), पर्याय समास (पर्याय ज्ञानसे अक्षर ज्ञानतकके ज्ञानके भेद ), अक्षर ( पर्याय समास ज्ञानसे अनन्तगुना ज्ञान ) अक्षर समास (पद ज्ञान तकके ज्ञानभेद ), पद (अक्षरज्ञानसे संख्यातगुना ), पदसमास ( संघात तकके सब भेद ), संघात (पदसे संख्यातगुना एक गतिका ज्ञान), संघातसमास, प्रतिपत्तिक ( संघातसे संख्यात हजारगुना चारों गतियोंका ज्ञान ), प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग (प्रतिपतिसे संख्यात हजारगुना चौदह मार्गणाओंका ज्ञान ) ॥१२॥ १.ममार्गणोपेक्षा । २. म योगश्च नियोग', [योगश्चानुयोग°]। [ ५९] Jain Education international Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व चतुर्थः चरितम् प्राभृतं प्राभृतं चैव प्राभृतं वस्तुपूर्वकम् । श्रुतज्ञानावृतिस्तत्र समासेन च विंशतिः ॥ १३ ॥ ग्रन्थार्थो च न जानाति ज्ञात्वा चोपदिशन्पुनः । अशक्तः प्रतिपादयितुं श्रुतज्ञानावृतेः फलम् ॥ १४ ॥ दिवभेदमवधिज्ञानं गुणतो जन्मतश्च यत् । तज्ज्ञानं वियते येन सावधिज्ञानसंवृतिः ॥ १५ ॥ तदिवनाशोऽवधिज्ञान प्राणिषत्पद्यते पुनः । देवानां नारकाणां च भवप्रत्ययकं स्मृतम् ॥ १६ ॥ सर्गः नामLADARJHALIमचामान्यमान्यमामा अनुयोगसमास, प्राभृत (एक-एक अक्षर करके चतुरादि अनुयोग वृद्धि युक्त अनुयोगज्ञान), प्राभृत-प्राभृत समास, प्राभूत ( चौबीस बार सविधि बढ़ा प्राभूत प्राभूत ज्ञान ), प्राभृत समास, वस्तु (प्राभृत ज्ञानसे सविधि बीसगुना ज्ञान ), वस्तुसमास, पूर्व ( वस्तुसे क्रमशः दश, चौदह, आठ, अठारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दश, दश, दशगुने उत्पाद आदि चौदह पूर्व) तथा पूर्वसमास संक्षेपमें श्रुतज्ञानावरण बीस प्रकारका है ।। १३ ।। प्रकट रूपमें श्रुतज्ञानावरणीका यही फल होता है कि उससे आक्रान्त जीव न तो शास्त्रको समझता ही है और न उसके प्रतिपाद्य अर्थको ही। तीसरी अवस्था भी होती है, जब प्राणी ग्रन्थ और विषयार्थ दोनोंको स्वयं जानकर भी जब दूसरोंको उपदेश देता है तो उनको भलीभाँति नहीं समझा सकता है ।। १४ ।। अवधिज्ञानावरणी साधारणतया अवधिज्ञान दो ( भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ) प्रकारका होता है। साधना आदिसे उत्पन्न आत्मीक गुणके (क्षयोपशम ) के कारण गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा योनिविशेष ( देव नारक ) में जन्म लेनेसे ही क्षयोपशम पूर्वक होनेवाला भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। इन दोनों प्रकारके ज्ञानोंको जो कर्म ढंक देते हैं उन्हें क्रमशः भवप्रत्यय-अवधिज्ञानवरणी और क्षयोपशम प्रत्यय अवधिज्ञानावरणी कहते हैं ।। १५॥ इस अवधिज्ञानावरणी कर्मका नाश हो जानेपर ही संसारके जीवों में अवधिज्ञानका उदय होता है । उक्त दो प्रकारके अवधिज्ञानोंमें भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकियोंके ही कहा गया है ॥ १६ ॥ १. [ तद्विवाशेऽवधिज्ञान]। चाराचELEXEILARITATE Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः वराङ्ग चरितम् सर्गः तिरश्ची मानुषाणां च गुणप्रत्यय इष्यते। अवधिः परमो नृणां नेतरेषां प्रकल्प्यते ॥ १७॥ क्षयोपशम एवास्मिन्नवधिज्ञानकारणम् । संक्लेशपरिणामेन तद्वयं च विनश्यति ॥१८॥ ऋजुमतिश्च विज्ञेया विपुला तदनन्तरा। तयोरावरणवत्स्यान्मनःपर्ययसंवृतिः ॥१९॥ यद्योजनपृथक्त्वे च प्राणिनां चेतसि स्थितम् । न शक्तो येन विज्ञातुमजुमत्यावृतेर्बलात् ॥ २० ॥ अर्धतृतीयद्वीपस्य प्राणिनां हृदि वति' तत् । नास्ति शक्तिः परिज्ञातु विपुलावृतिवीर्यतः ।। २१॥ न्यायमाRIREDIR NewMAHIPARESHAMSTEMAPARASHARASI-SHearesenPAPA L गुणप्रत्यय अर्थात् साधना-क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान तिर्यंचों और मनुष्योंको होता है ऐसा आगम बतलाते हैं ! किन्तु उत्कृष्ट देशावधिसे भी बड़ा परमावधिज्ञान मनुष्य गतिमें ही हो सकता है। मनुष्योंसे बचे नारकों और तियंचोंकी तो बात ही क्या है । देवोंके भी परमावधिज्ञान नहीं होता है ।। १७ ।। वास्तवमें कर्मोंका ( सर्वघातीका क्षय और उपशम ) क्षयोपशम ही अवधिज्ञानका प्रधान कारण है और लेकिन जब जब जीवके परिणाम क्रोधादि कुभावोंसे संक्लिष्ट होते हैं तब ही कर्मोका क्षय उपशम दोनों विलीन हो जाते हैं फलतः अवधिज्ञानका भी लोप हो जाता है ।। १८ ।। मनःपर्ययज्ञानावरणी जीवोंकी मानसिक वृत्ति एक तो अत्यन्त ऋज अर्थात् सरल निर्तित ( सुलझो ) होती है और दूसरी अत्यन्त कुटिल या विपुल अनिवर्तित ( उलझी) होती है। इन दोनों प्रकारकी मानसिक चेष्टाओंको जाननेमें समर्थ चेतना शक्तिको ढंकनेवाला कारण ही चौथा ज्ञानावरणी ( मनःपर्ययज्ञानावरणी) है ॥ २० ॥ ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानावरणी कर्मका यही फल होता है कि ज्ञाता योजन पृथक्त्व ( दो, तीन योजनसे ७, ८ योजन तक) में बैठे हुए प्राणियोंके मनोंमें उठनेवाले संकल्प-विकल्पोंको भी जाननेमें समर्थ नहीं होता है। ढाई, ( अर्थात् जम्बूद्वीप, AED धातकी खण्ड द्वीप और आधे पुष्कर ) द्वीपमें रहनेवाले प्राणियोंके हृदयोंमें उठनेवाले विचारों और भावोंको भी जो ज्ञाता नहीं जान सकता है वह सब विपुलमति-मनःपर्ययज्ञानावरणीका ही फल है ।। २१ ।। १. [ हृद्विवति । SMETHIS Jain Education international Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् उत्कृष्टादप्यसंख्येयान् द्वित्रान्नाथ जघन्यतः । मन:पर्ययावरणाद्भवान् ज्ञातु ं न शक्तवान् । २२ ॥ सर्वद्रव्यस्वभावानां विज्ञात्रों सर्वदा पुनः । संवृणोत्यात्मविज्ञप्ति केवलज्ञानसंवृतिः ॥ २३ ॥ निद्रानिद्रा च निद्रा च प्रचलाप्रचला चला । स्त्यानगृद्धिश्च चक्षुश्च अनेत्रावधिदर्शनम् ॥ २४ ॥ केवलेन समाख्यातो दर्शनावृतिकर्मणः । सातासात पुनर्वे च वेदनीयस्य ते स्मृते ।। २५ ।। यह तो हुआ क्षेत्रकी अपेक्षा किन्तु कालकी अपेक्षासे भी कम से कम दो, तीन भवोंकी बातोंको और अधिक से अधिक असंख्यात भवों में घटी बातोंको जाननेमें असमर्थ होना भी जीव पर मन:पर्ययज्ञानावरणी कर्मका आवरण पड़ जानेसे ही होता है ॥ २२ ॥ केवलज्ञानावरणी आत्माकी वह विशेष योग्यता जिसके द्वारा यह जीव आदि छहों द्रव्योंके सांगोपांग स्वभाव और पर्यायोंका तीनों लोकों और तीनों कालोंमें युगपत् जानता है, उसी असाधारण पूर्ण चैतन्य स्वरूपको केवलज्ञानावरणी कर्मपूर्ण रूपसे ढंक देता है ।। २३ ।। दर्शनावरणी पदार्थोंका दर्शन ( सामान्य प्रतिभास), निद्रा (सोना), निद्रानिद्रा ( अत्यधिक सोना ), प्रचला ( बैठे-बैठे सावाध शयन ), प्रचलाप्रचला ( बक झक सहित प्रचला ), स्त्यानगृद्धि ( सोते-सोते उठकर रुद्रकर्म करना) चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण ( अवधिज्ञानके द्वारा ज्ञात पदार्थोंका सामान्य प्रतिभास न होना ) ॥ २४ ॥ तथा केवल दर्शनावरण ( केवल ज्ञानके द्वारा जानने योग्य पदार्थोंका साधारण प्रतिभास न होना) के कारण नहीं होता । फलतः दर्शनावरणी कर्मके यही नौ भेद होते हैं । वेदनीय संसारके संयोगोंका अनुभव ( वेदन ) दो ही प्रकारका होता है; सुखरूप ( साता वेदनीय ) या दुःखरूप ( असाता वेदनीय ॥ २५ ॥ चतुर्थ: सर्गः [ ६२] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् असातावेदनीयेन नरके तीव्र वेदना | तिर्यङ्मानुषयोमिश्रा' सुखं सातात्सुरालये ॥ २६ ॥ द्विविधं मोहनीयं स्याद्दृष्टेश्च चरितस्य च । दर्शनं त्रिविधं प्रोक्तं सम्यङ्मिथ्यात्वमिश्रकम् ॥ २७ ॥ नोकषायः कषायश्च चारित्रावरणं द्विधा । नोकषायो नवविधः कषायः षोडशात्मकः ॥ २८ ॥ हास्यरस्यरतिशोका जुगुप्सा भयमेव च । स्त्रीपुंनपुं सवेदाश्च नोकषाया नव स्मृताः ॥ २९ ॥ क्रोधो मानश्च माया च लोभोऽनन्तानुबन्धिनः । विघातयन्ति सम्यक्त्वं चारित्रं च विशेषतः ॥ ३० ॥ वेद का उदय होनेसे यह जीव नरकमें दारुणसे दारुण दुःखोंको एकान्तरूपसे सहता है। तिर्यंच और मनुष्य गतिमें साता और असातावेदनीय दोनोंका उदय रहता है फलतः सुख दुःख दोनों प्राणीको प्राप्त होते हैं और देवगति में केवल सातावेदनीयका उदय रहनेसे केवल सुख भोग प्राप्त होता है ।। २६ ।। मोहनीय मोहनीय कर्म भी दो प्रकारका होता है, जो जीवकी सामान्य श्रद्धानशक्तिको भ्रान्त कर देता है उसे दर्शन मोहनीय कहते हैं तथा जीवके चरित्रको अन्यथा करनेवालेका नाम चारित्र मोहनीय है। दर्शन मोहनीयके भी सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र ( सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ) मोहनीय ये तीन भेद हैं ।। २७ ।। चारित्र मोहनीयके कषाय और नोकषाय प्रधान रूपसे दो हो प्रकार हैं, लेकिन नोकषाय ( साधारण कषाय ) नौ प्रकार की हैं। इसी प्रकार कषाय के भी अवान्तर भेद सोलह हैं ।। २८ ।। हास्य (हँसना ), रति ( प्रेम या प्रीतिभाव), अरति ( द्वेष, इर्षा आदि ), शोक ( अनुताप, विलाप आदि ), जुगुप्सा ( घृणा ग्लानि आदि), भय, स्त्रीवेद ( पुरुषसे रमण करनेकी इच्छा ), पुवेद ( स्त्रीसे रमण करनेकी प्रकृति), और नपुसकवेद ( स्त्री और पुरुष दोनोंकी द्रव्य तथा भाव शक्तिकी विकलता ) इन नौ परिणतियोंको केवली भगवानने नोकषाय कहा है ।। २९ ।। कषायके मुख्यभेद क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार ही हैं, किन्तु, आत्माके चारित्रको नाश करनेके क्रमकी अपेक्षा इनकी भी निम्न चार श्रेणियाँ होती हैं - ( १ ) अनन्तानुबन्धी ( महा संसार बंधके कारण ) क्रोध, मान, माया और लोभ वे हैं। १. क तिग्मानुषयोन्मिश्रं । [ ६३ ] चतुर्थ: सर्गः Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् क्रोधो मानश्च मया' लोभः प्रत्याख्याननामकाः । गृहीतव्रतशीलस्य क्रोधो मानश्च माया च लोभः संज्वलनात्मकाः । ते यथाख्यातचारित्रं नाशयन्ति न संशयः ॥ ३२ ॥ चतुष्प्रकार मायुकं नारकं दैवमेव च । तिर्यग्योनि च मानुष्यं स्थितिसत्कारणं स्मृतम् ॥ ३३ ॥ आयुष्कं नारकं दुःखं तिर्यग्योनि च मानुषम् । सुखदुःखविमिश्रं तं दैवमैकान्तिकं सुखम् ॥ ३४ ॥ दयासंयमघातिनः ॥ ३१ ॥ जो आत्मामें सम्यक्त्व और स्वरूपाचरण चारित्रको भी प्रकट नहीं होने देते हैं । [ (२) अप्रत्याख्यान (अल्पत्याग अर्थात् देश संयम भी न करनेकी प्रवृत्ति ) नामके क्रोध, मान, माया और लोभ आत्माकी संयमासंयम अर्थात् अणुव्रतमय प्रारम्भिक चारित्र पालन करने की भावनाको भी बलपूर्वक दवा देते हैं ॥ ३० ॥ ( ३ ) जो क्रोध मान, माया और लोभ पांचों महाव्रतों के पालनसे होनेवाले पूर्ण संयमको विकसित नहीं होने देते हैं, महाव्रती होनेसे रोकते हैं उन्हें शास्त्रमें प्रत्याख्यानावरणी कषाय कहा है ।। ३१ ।। संज्वलन ( संयम के साथ धीरे किन्तु स्पष्टरूपसे चलनेवाले ) क्रोध, मान, माया और लोभ, यद्यपि अपने सूक्ष्मरूपके कारण सम्यक्त्व, विकल और सकलचारित्रमें बाधक तो नहीं होते हैं तो भी यथाख्यात ( स्वाभाविक परिपूर्ण ) चारित्रका विकास नहीं होने देते हैं ऐसा निश्चय है ।। ३२ ।। आयुकर्म चतुर्थंकर्म आयु के मुख्यभेद चार ही हैं- नरकयोनि, तिर्यञ्जयोनि, मनुष्य योनि और देवयोनि । इन चारों योनियोंमें रोक रखने में समर्थं प्रधान कारणको ही शास्त्रोंमें आयुकर्म नाम दिया है ।। ३३ ॥ आयु में बिना विराम सदा ही दुख भरने पड़ते हैं, तिर्यञ्च आयु और मनुष्य आयुमें सुख तथा दुख दोनोंके मिश्रणका जीवको अनुभव करना पड़ता है तथा यहींपर जीव अपना अधिक विकास भी कर सकता है - तथा देव आयुका फल दुखकी मिलावटसे हीन शुद्ध सुख ही होता है ।। ३४ ।। १. क माया च लोभः । २. क स्थितेस्तत्कारणं । For Private Personal Use Only P चतुर्थः सर्ग: [ ६४ ] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विविधं नाम तत्प्राहुः शुभाशुभसमन्वितम् । द्विचत्वारिंशदन्येन नवतिस्त्युत्तराण्यथ ॥ ३५॥ उच्चनीचद्वयं गोत्रमुच्चनीचं च मानुषम् । तिर्यङ्नारकयोर्नीचमुच्चमेवामरं स्मृतम् ॥ ३६ ॥ दानलोभौ च भोगश्चोपभोगो वीर्यमेव च । पञ्च प्रकृतयस्तस्य अन्तरायस्य कर्मणः ॥ ३७॥ उत्तरप्रकृतयः प्रोक्ता अष्टानामपि कर्मणाम् । शतमष्टोत्तरं चैव चत्वारिंशत्प्रमाणतः ॥ ३८॥ आदितस्तु त्रयाणां च अन्तरायस्य कर्मणः। कोटीकोटयस्तथा त्रिंशन्मोहनीयस्य सप्ततिः ॥ ३९ ॥ नामकर्म जीवके शारीरिक आकार प्रकारोंका निर्माता नामकर्म शुभ ( शुभ नामकर्म ) और अशुभ ( अशुभ नामकर्म ) विशेषणोंसे युक्त होकर प्रधानरूपसे दो ही प्रकारका होता है। मुख्य भेदोंकी अपेक्षासे विभक्त करनेपर इसके व्यालीस भेद होते हैं तथा अवान्तर भेदोंकी अपेक्षासे देखनेपर इसीके तेरानवे भेद हो जाते हैं ।। ३५ ।। गोत्रकर्म गोत्रकर्मके दो ही भेद हैं:-प्रथम उच्चगोत्र और द्वितीय नीचगोत्र। मनुष्य गतिमें उच्चगोत्र और नीचगोत्र दोनों होते हैं, तिर्यञ्चगति और नरकगतिमें एकमात्र नीचगोत्र हो होता है और इसी प्रकार देवगतिमें भी केवल उच्चगोत्र ही शास्त्रमें । कहा है ॥ ३६॥ जीवको स्वभाव प्राप्तिमें बाधक अन्तिमकर्म ( अन्तरायकर्म ) जीवकी दान देने, भोग, उपभोग और लाभ प्राप्ति तथा वीर्य वर्द्धनमें अडंगा डालता है फलतः उसकी दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्त राय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये पाँच ही प्रकृतियाँ होती हैं ।। ३७ ।। अन्तरायकर्म इस प्रकार कर्मकी आठों मूल प्रकृतियोंकी उत्तर प्रकृतियोंका प्रमाण, उक्त उत्तर प्रकृतियोंको जोड़नेपर एक सौ । अड़तालीस केवली भगवानने कहा है ।। ३८ ॥ आदिके तीन अर्थात् ज्ञानावरणी, दर्शनावरणो और वेदनीय तथा अन्तरायकर्म इन चारों कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति तीस । STA-मनाना For Privale & Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् चत्वारिंशच्चरित्रस्य गोत्रनाम्नस्तु विंशतिः । आयुष्कस्य त्रयस्त्रिशत्सागराश्च परा स्थितिः॥ ४० ॥ द्विषण्महर्ता वेद्यस्य तथाष्टौ नामगोत्रयोः । अन्तर्मुहूतिकी शेषे जघन्या स्थितिरिष्यते ॥ ४१ ॥ तेषामथ दुरन्तानामष्टानां घोरकर्मणाम् । मिथ्यात्वासंयमौ योगाः कषाया बन्धहेतवः ॥ ४२ ॥ ज्ञानविद्वेषिणो ये च प्रतिपक्षप्रशंसिनः। असादेन रता भयो ज्ञानविघ्नकराश्च ये॥४३॥ तुः कोड़ाकोड़ी सागर बतायो है। किन्तु कर्मोंके राजा मोहनीय कर्मको उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर है ।। ३९ ।। कर्म-स्थिति किन्तु उसीके अवान्तरभेद चारित्र मोहनीयकी चालीस कोड़ाकोड़ी सागर ही है। गोत्रकर्म और नामकर्मकी उत्कृट में आयु बीस कोडाकोड़ी सागर ही है और आयुकर्मको उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है ॥ ४० ॥ इन्हीं कर्मोकी जघन्य स्थितिपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि वेदनीय कर्म कमसे कम ( दो छह अर्थात् ) बारह मुहूर्त रहता है, नामकर्म और गोत्रकर्म आठ मुहूर्त पर्यन्त हो जघन्य रूपसे टिकते हैं और बाकी ज्ञानावरणी, मोहनीय, आयु और अन्तरायकी न्यूनतम स्थिति अन्तर्मुहुर्त ( एक मुहूर्त अर्थात् अड़तालीस मिनटसे भी कम ) है ॥ ४१ ॥ कर्मबन्धके कारण बुरेसे बुरे फल देनेवाले अतएव जीवके लिए अत्यन्त भयंकर इन आठों कर्मोंके बन्धके प्रधान कारण मिथ्यात्व, (भ्रान्त श्रद्धा ) असंयम, (अनुचित आचार-विचार ) योग (मन, वचन और कायको सब ही चेष्टाएँ ) और कषाय ही हैं ।।४२॥ ज्ञानावरणोका बन्ध जिन प्राणियोंको सम्यक् ज्ञानसे द्वेष है (प्रदोष), जो (प्रतिपक्ष ) मिथ्या मार्गोंकी प्रशंसा करते हैं दूसरोंके सम्यक् ज्ञानकी विनय तथा प्रशंसा नहीं करते उसके प्रचारको रोकनेमें जिन्हें आनन्द आता है, ज्ञान अर्जन करनेवालोंको सिद्धिमें जो बार-बार अनेक विघ्न बाधाएं डालते हैं ( अन्तराय ) किसी विषयके विशेषज्ञ होते हुए भी दूसरे न जान सकें इसीलिए अपने ज्ञानको जो व्यक्ति छिपाते हैं ( निन्हव ), सम्यक् ज्ञान और सम्यक् ज्ञानियोंका जो अहंकारी निरादर करते हैं, जिन्हें अपने १. [ गोत्रनाम्नोस्तु ] । २. [ आसादने ] । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् निह्नवं ये कुर्वन्ति अवज्ञामप्यविस्मयाः। ज्ञानावृतिकरं कर्म बध्नन्ति नियमेन ते ॥४४॥ उत्सूत्रं ये च कुर्वन्ति अकालेऽधीयते च ये। विनयादिक्रियाहोनास्ते श्रुत्यावृतिबन्धकाः ॥ ४५ ॥ यथा नभसि संपूर्ण शशाङ्क प्रावृडम्बुदः । संवृणोति क्षणेनैव जीवं ज्ञानावृतिस्तथा ॥ ४६ ॥ हस्तविक्षोभविक्षिप्तः सचलः क्षणतः पुनः । प्रावृणोत्युवकं यद्वत्तद्वद् ज्ञानावृतं स्मृतम् ॥ ४७॥ द्रव्याण्यशक्तः पुरुषो द्रष्टुं तिमिरलोचनः । अशक्तस्त्वावृतज्ञानः सत्स्वभावान्परीक्षितुम् ॥ ४८ ॥ ज्ञानका अहंकार तथा अन्य ज्ञानियोंसे अकारण बैर होता है ( मात्सर्य ), ऐसे लोग निश्चयसे ज्ञानावरणीका बन्ध करते हैं ।। ४३-४४ ॥ जो सत्य आगमकी सुत्र परम्पराका उल्लंघन करके पढ़ते हैं, जिन्हें बजित समय ( अकाल ) में ही पढ़नेकी इच्छा होती है अथवा जो गुरू, शास्त्र आदिकी विनय और भक्तिको यथाविधि नहीं करते हैं वे ही प्राणी श्रुत ज्ञानावरणी कर्मका निःसन्देह बन्ध करते हैं ।। ४५ ।। वर्षा ऋतुके काले-काले घने मेघ आकाशमें धवल चन्द्रिकाको फैला देनेवाले पूर्णिमाके षोडसकला युक्त चन्द्रमाको जैसे अकस्मात् हो कहींसे आकर ढंक लेते हैं उसी प्रकार ज्ञानवारणी कर्म भी ज्ञान गुण युक्त आत्माको एक क्षण भरमें ही आवृत कर लेता है ।। ४६ ।। किसी एक ओर इकट्ठी हुई काई जिस प्रकार हाथके आघातसे हिलाये डुलाये जानेपर क्षणभरमें ही पूरी स्वच्छ जलराशिके ऊपर फैल जाती है बिल्कुल इसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्मका स्वभाव होता है ।। ४७ ।। जिसकी आँखोंकी ज्योति नष्ट हो गयी फलतः आँखोंमें अन्धकार छा गया है ऐसा व्यक्ति सामने पड़े हुए द्रव्योंको देखनेमें असमर्थ हो जाता, ठीक इसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्मने जिस जीवके ज्ञानपर पर्दा डाल दिया है वह पदार्थोंके सत्य में लक्षणोंका विवेचन नहीं कर सकता है ।। ४८ ॥ [ ६७] ११. म स च लक्षणतः, [शवलः] । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् नव प्रकृतयः प्रोक्ता दृष्टघावरणकर्मणः । ज्ञानावृतिनिमित्तानि तान्येवोक्तानि तस्य च ॥ ४९ ॥ वृक्षाग्रे वाथ रथ्यायां तथा जागरणेऽपि वा । निद्रानिद्राप्रभावेन न दृष्टयुद्धाटनं भवेत् ॥ ५० ॥ स्यन्दते' मुखतो लाला' तनुं चालयते मुहुः । शिरो नमयतेऽत्यर्थं प्रचलाप्रचलाक्रमः ॥ ५१ ॥ स्वपत्युत्थापितो भूयः स्वपत्कर्म करोति च । अबद्धं लभते किंचित्स्त्यानगृद्धिक्रमो मतः ॥ ५२ ॥ यान्तं संस्थापयत्याशु स्थितमासयते शनैः । आसीनं शाययत्येव निद्रायाः शक्तिरीदृशी ॥ ५३ ॥ दर्शनावरणी-बन्धकारण दर्शनावरणी कर्मकी निद्रा, प्रचला आदि नौ उत्तर प्रकृतियाँ पहिले कह चुके हैं। जो प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन आदि ज्ञानावरणी कर्मके बन्धमें कारण होते हैं यही सबके सब दर्शनावरणी कर्मके बन्धमें भी प्रधान निमित्त हैं ।। ४९ ।। निद्रानिद्रा दर्शनावरणी के प्रभावसे आदमी वृक्ष की शाखाओं और शिखरोंपर भी सो जाता है, चौराहे या बीच सड़कपर भी मौजसे खुर्राटे भरता है तथा बार-बार जगाये जानेपर तथा स्वयं भी जागनेका भरपूर प्रयत्न करके भी वह आँख नहीं खोल पाता है ।। ५० ॥ यह सब प्रचलाप्रचलाका ही प्रतिफल है जो सोते व्यक्ति के मुखसे लार बहती है, सोनेवाला शरीरको बार-बार इधरउधर चलाता है तथा शिरको इतना अधिक मोड़ देता है मानो टूट जायेगा ।। ५१ ।। स्त्यानगृद्धि दर्शनावरणी के उदय होनेसे व्यक्ति जगाकर खड़ा कर देनेके तुरन्त बाद ही फिर सो जाता है, सोते-सोते ही उठकर कोई काम कर डालता है और नींद नहीं टूटती है, तथा सोते-सोते कुछ ऐसा बोलता है जिसमें पूर्वापर सम्बन्ध नहीं होता है || ३५२ ।। निद्रा दर्शनावरणी में वह शक्ति है कि वह चले जाते हुए जीवको तुरन्त कहीं रोक देती है, रुककर खड़े हुए व्यक्तिको बिना बिलम्ब बैठा देती है, बैठे हुए पुरुषको उसके बाद ही लिटा देती है और लेटेको तुरन्त निद्रामग्न कर देती है ॥ ५३ ॥ १. क स्पन्दते । २. म लोला । ३. [ लपते ] । य चतुर्थः सर्गः [ ६८ ] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराल चरितम् किंचिदुन्मिषितो' जीवः स्वपित्येव महमहः। ईषदीषविजानाति प्रचलालक्षणं हि तत् ॥ ५४॥ चक्षुर्दर्शनावरणं दृष्टिवीर्य हिनस्ति तत् । शेषेन्द्रियाणां वीर्याणि हन्त्यचक्षुः स्ववीर्यतः ॥ ५५॥ अवधिः परमाह्वश्च स्वनामावरणावृतौ । केवलप्रेक्षणावृत्यावृतं केवलदर्शनम् ॥ ५६ ॥ दुःखशोकवधाक्रन्दबन्धनाहाररोधनम् । असातवेदनीयस्य कर्मणः कारणं ध्रुवम् ॥ ५७॥ दानधर्मदयाक्षान्तिशौचवततपोन्विताः । शोलसंयमगुप्ताश्च सातं बघ्नन्ति जन्तवः ॥ ५८॥ यह सब प्रचला दर्शनावरणीके ही लक्षण हैं कि आदमी आँखोंको थोड़ा-सा खोले रहता है अर्थात् पलक पूरे नहीं ढपते है तो भी फिर-फिर कर सो जाता है और बीच बीच में कभी-कभी आँख भी खोल देता है इतना ही नहीं सोते हुए भी उसे अपने आस पासकी घटनाओंका थोड़ा-थोड़ा ज्ञान रहता है ।। ५४ ॥ चक्षु दर्शनावरणी कर्म आँखोंकी पदार्थ देखनेकी सामर्थ्यको सर्वथा नष्ट कर देता है और शेष स्पर्श, रसना, घ्राण, श्रोत्र A और मनको प्रतिभास करनेकी शक्तिको अचक्षु दर्शनावरणी कर्म नष्ट कर देता है ।। ५५ ॥ पहिले अवधिज्ञानका वर्णन कर चके हैं उसके द्वारा जानने योग्य उत्कृष्ट और जघन्य पदार्थोके साधारण प्रतिभासको जो आवरण अपनी शक्तिसे रोक देता है उसे अवधिदर्शनावरणी कहते हैं केवलज्ञानके ज्ञेय त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त। पदार्थों और उनकी सम्पूर्ण पर्यायोंके सामान्य प्रतिभासमें जो बाधक है उसे केवलदर्शनावरणी कहते हैं ।। ५६ ।। वेदनीय वन्ध विचार प्राणियोंको दुख देना, शोक सागरमें ढकेलना, वध करना, रोना, विलाप करना, प्राणियोंको बन्धनमें डालना और उनको शास्ति ( शिक्षा = दंड ) देने के लिए भोजन पान रोक देना इस प्रकारकी सबही चेष्टाएँ निश्चयसे असातावेदनीय कर्मके बन्धका कारणहोती हैं ।। ५७ ॥ सत्पात्रों तथा अभावग्रस्त व्यक्तियोंको दान देना, कर्तव्यपालन, प्राणिमात्र पर दयाभाव, चंचलताके • कारणोंकी २१. म किंचिदुष्मितो, क किंचिदु (न्वि ) मितो। २. क स्वनामावरणं वृतौ । Jain Education Interational . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् यदुःखं त्रिषु लोकेषु शारोरं वाथ मानसम् । समस्तं तदसातस्य कर्मणः पाक उच्यते ॥ ५९॥ यत्सुखं त्रिषु लोकेषु शारीरं वाथ मानसम् । तत्सर्व सातवेद्यस्य कर्मणः पाक उच्यते ॥ ६०॥ केवलिश्रुतधर्माणां' गुरूणामहतां सदा। चातुर्वर्णस्य संघस्य अवर्णाबद्धवादिनः ।। ६१॥ मार्गसंदूषणं कृत्वा अमार्ग देशयन्ति ये। दृष्टिमोहं प्रबध्नन्ति जीवाः संसारभागिनः॥६२॥ उपस्थितिमें भी शान्त रहना, भोतर बाहर पवित्र रहना, तपस्याके अभ्यासके साथ व्रतोंका आचरण, ब्रह्मचर्य, शीलधारण, संयम पालन और मन, वचन तथा कायपर नियन्त्रण रखना जीवको सातावेदनीयका बन्ध कराते हैं ॥ ५८ ।। ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और नरकलोकमें जितने भी ताड़न, भेदन आदि शारीरिक और शोक, चिन्ता आदि मानसिक दुःख होते हैं वे सबके सब जीवके साथ बँधे असातावेदनीय कर्मके ही परिपाक हैं ।। ५९ ॥ इसी प्रकार तीनों लोकोंमें प्राप्त होनेवाले स्वास्थ्य, सेवकादि शारीरिक सुख अथवा प्रेम, प्रसन्नता आदि मानसिक सुख भी उक्त दान, आदि शुभकर्मोके द्वारा वाँधे गये सातावेदनीयके फलोन्मुख होनेपर ही प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥ दर्शनमोहनीय बन्धविमर्ष जो लोग कवलाहारी, आदि कहकर केवली भगवानकी (केवली-अवर्णवाद), 'है भी नहीं भी है इसलिए सब संशयात्मक है' रूपसे स्याद्वादमय सत्य शास्त्रकी ( श्रुत अवर्णवाद ), 'अहिंसापर ही जोर देकर राष्ट्रको सण्ढ बना दिया है' आदि मिथ्या लाँछनों द्वारा धर्मकी (धर्मावर्णवाद ), 'कमंडलुमें रुपया पैसा भरे रहते हैं' आदि भ्रांतियोंसे सद्गुरुओंको ( गुरु अवर्णवाद ) 'प्रथम अर्हन्त ऋषभदेव मलमें पड़े रहते थे' इत्यादि लिखकर वीतराग प्रभुकी ( देवावर्णवाद), श्रावक, श्राविका, मुनि और आर्यिकाओंके चतुर्विध संघका, नग्नमुनि तथा आयिकाओंका आमने सामने आना भी वासनाको जाग्रत कर देता होगा' के समान अपने मानसिक पतनको प्रकट करके जो बिना सिर-पैरकी निन्दा करते ( संघअवर्णवाद ) हैं ।। ६१ ॥ वीतराग केवली प्रभुके द्वारा उपदिष्ट स्वैराचार विरोधी सन्मार्गका विरोध करके जो धर्माचरणकी आड़में वासना पूतिमें सहायक मिथ्यामार्गका उपदेश देते हैं उन लोगोंका संसार भ्रमण बढ़ता ही जाता है, कारण वे जीव निश्चयसे दर्शनमोहनीय कर्मका बन्ध करते हैं ।। ६२ ।। [७०] १.म.श्रुति । २. क संसारमोगिनः । Jain Education international Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् दृष्टिमोहवृता जीवाः सद्भावं न च जानते । अलब्धकर्मसद्भावा लभन्ते नैव निर्वृतिम् ॥ ६३ ॥ मानस्तम्भितचेतसः । तीव्रक्रोधा हिसंदष्टा माविष्टान्ता लोभरागान्धदृष्टयः ॥ ६४ ॥ चारित्रमोहं बघ्नन्ति जीवा दुरितबुद्धयः । तेन कर्मविपाकेन क्लिश्यन्ते भववत्सु ॥ ६५ ॥ आद्यः क्रोधोदयस्तीत्रः शिलाभेदसमो मतः । नोपैत्युपशमं तेन जीवो जन्मान्तरेष्वपि ॥ ६६ ॥ जिन जीवोंकी चेतनाको दर्शनमोहनीयने चाँप रखा है वे लोग शुभ भाव कैसे होते हैं ? इसका उन्हें आभास भी नहीं होता है। न तो उन्हें लब्धि ( सम्यक्त्व प्राप्त करनेका अवसर ) ही प्राप्त होती है और न उन्हें शुभकर्म करने तथा भला चेतनेकी प्रवृत्ति ही होती है। परिणाम यह होता है कि उन्हें कभी भी संसार शरीरसे वैराग्य नहीं होता है; मुक्तिकी तो बात ही क्या है ? ।। ६३ ।। चारित्रमोहनोय जिन्हें तीव्रतम क्रोधरूपी कृष्णसर्पने डस लिया है, जिनके मनको मानको बाढ़ने हेय, उपादेयके विवेकसे वंचित करके निश्चेतन कर दिया है, जिनका अन्तःकरण मायारूपी मैलसे सर्वथा मलीन हो गया है और लोभरूपी कालिमाने जिनकी आँखोंको अन्धा कर दिया है ॥ ६४ ॥ इस प्रकार सदा ही पाप चिन्तामें मग्न रहनेवाले लोग ही चारित्रमोहनीय कर्मका दृढ़ बन्ध करते हैं । और यही चारित्रमोहनीय परिपक्व होकर अपनी लीला दिखाता है जिसके कारण उक्त प्रकारके जीव संसारमार्ग में नाना प्रकार के क्लेश उठाते हैं ।। ६५ ।। क्रोध निदर्शन प्रथम प्रकारके अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोधका जो संस्कार आत्मापर पड़ता है वह इतना तीव्र होता है कि उसकी उपमा पत्थरपर खोदी गयी रेखासे दी जाती है। यही कारण है कि ये क्रोधादि जन्म-जन्मान्तरोंमें भी जाकर शान्त नहीं होते हैं और निमित्त सामने आते हो भड़क उठते हैं ।। ६६ ।। चतुर्थः सर्गः [ ७१] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् क्रोधोदयो दिवतीयस्तु मध्यक्षेत्रदरीसमः । उपत्युपशमं कालाच्छृतितोयाचेतसः ॥ ६७ ॥ क्रोधोत्थानस्तृतीयस्तु सिकतालेखसंनिभः । ज्ञानानिलेन संस्पृष्टो गतावेकीकरोत्यसौ ॥ ६८ ॥ क्रोधोदयश्चतुर्थो यो जललेखा समो मतः । स पुनः कारणाज्जातः क्षिप्रमेवोपशाम्यति ॥ ६९ ॥ आद्यो मानोदयस्तोत्रः शैलस्तम्भनिभो मतः । नोपैति मार्दवं यस्माज्जीवः कालान्तरादपि ॥ ७० ॥ मानोदयो दिवतोयस्तु समोऽस्थ्नेत्यभिधीयते । उपैति मार्दवं तस्माज्ज्ञानाग्निपरितापितः ॥ ७१॥ दूसरे प्रकार अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध कषायको जो छाप आत्मापर पड़ती है उसे वैसी ही समझिये जैसी कि गोली पृथ्वीके सूखनेपर उसमें पड़ी दरार होती है। यह संस्कार काफी समय बीतनेपर अथवा शास्त्ररूपो ज्ञान = जलवृष्टिसे चित्त स्नेहार्द्र हो जानेपर उपशमको प्राप्त हो जाता है ।। ६७ ।। तीसरे अर्थात् प्रत्याख्यान क्रोधके उद्धार वैसे ही होते हैं जैसा कि बालूके ऊपर लिखा गया लेख, क्योंकि ज्यों ही उस पर ज्ञानरूपी तीव्र वायुके झोंके लगते हैं त्यों ही लेखकी समस्त रेखाएँ ( कषायोंके उभार ) पुरकर एक-सी हो जाती हैं ॥ ६८ ॥ अन्तिम प्रकार अर्थात् संज्वलन क्रोधकी आत्मामर पड़नेवाली झलककी पानीपर खींची गयो रेखासे तुलना की गयी है अतएव जिस कारणसे वह उत्पन्न होता है उसके दूर होते हो तुरन्त विलीन हो जाता है ।। ६९ ।। मान निदर्शन प्रथम प्रकारका ( अनन्तानुबन्धी ) मान इतना तीव्र और विवेकहीन होता है कि शास्त्रकारोंने उसे पत्थरके स्तम्भके । समान माना है इसीलिए अनन्तकाल बीत जानेपर भी उससे आक्रान्त जीवमें तनिक भी मृदुता या विनम्रता नहीं आती है ।। ७० ॥ पुराण पुरुष कहते हैं कि दूसरा मान ( अप्रत्याख्यान मान ) का उदय आत्मामें हड्डीके समान कर्कषता ला देता है, परिणाम यह होता है कि जब जीव ज्ञानरूपी आगमें काफी तपाया जाता है तो उसमें कुछ-कुछ विनम्रता आ जाती है ।। ७१ ॥ १.क गतावेरिकरोत्यसौ, [ गर्तामेको° 11 २. म जले लेखा। ७२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चतुर्थ : चरितम् सर्गः मानोत्थानस्तृतीयस्तु आर्द्रकाष्ठसमो मतः । ज्ञानस्नेहसमाभ्यक्तस्ततो याति हि मार्दवम् ॥ ७२ ।। मानोदयश्चतुर्थो यो वालवल्लीनिभो मतः । श्रुतिहस्तसमास्पष्टो मृदुत्वं याति तत्क्षणात् ॥ ७३ ॥ आद्यो मायोदयस्तीवो वेणुमूलसमो मतः । वक्रशीलो भवेत्तेन नोपयात्यार्जवं सदा ॥ ७४ ॥ मायोदयो द्वितीयस्तु मेषशृङ्गसमो मतः। हृद्यन्यच्च समादाय तेनान्यत्प्रकरोति सः ॥ ७५ ।। मायोत्थानस्तृतीयस्तु गोमत्रि'कसमो मतः । अर्धमघमजुत्वं च अधं मायाकृतं भवेत् ॥ ७६ ॥ तृतीय अर्थात् प्रत्याख्यान मानका उभार होनेपर जीवमें उतनी हो कठोरता आ जाती है जितनी कि गीली लकड़ीमें होती है, फलतः जब ऐसा जीवरूपी काष्ठ ज्ञानरूपी तैलसे सराबोर कर दिया जाता है तो उसके उपरान्त ही वह सरलतासे झुक जाता है ॥ ७२ ॥ अन्तिम संज्वलन मानके संस्कारकी बालोंकी धुंघराली लटसे तुलना की है, आपाततः ज्यों ही उसे शास्त्रज्ञानरूपी हाथसे स्पर्श करिये त्योंही वह क्षणभरमें हो सीधा और सरल हो जाता है ।। ७३ ॥ माया-उपमा प्रथम अनन्तानुबन्धी मायाके उदय होनेपर जीवकी चित्तवृत्ति बिल्कुल बाँसकी जड़ोंके समान हो जाती है। इसी कारण उसका चाल-चलन और स्वभाव अत्यन्त उलझे तथा कुटिल हो जाते हैं और उनमें कभी भी सीधापन नहीं आता है ॥ ७४ ॥ अप्रत्याख्यानावरणी मायाका आत्मापर पड़नेवाला संस्कार मेढ़ेके सींगके समान गुड़ीदार होता है । फलतः इस कषायसे आक्रान्त व्यक्ति मनमें कुछ सोचता है और जो करता है वह इससे बिल्कुल भिन्न होता है ।। ७५ ।। प्रत्याख्यानावरणी मायाके उभारकी तुलना चलते बैलके मूत्रसे बनी टेढ़ी मेढ़ी रेखासे होती है, परिणाम यह होता है , [ ७३ ] कि उसकी सब ही चेष्टाएँ बैलके मूत्रके समान आधी सीधी और आधी कुटिल एवं कपटपूर्ण होती है । ७६ ॥ SHRESTLERTAIमाचERIER । १. [°मूत्रित । Jain Education international Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् 1 मायोदयश्चतुर्थो यश्चमरीरोमसंनिभः । प्रत्येति प्रकृतिस्तेन ज्ञानयन्त्रप्रपीडितः ॥ ७७ ॥ आद्यो लोभोदयस्तीव्र: क्रि' मिरागसमो मतः । श्रुतानलप्रदग्धोऽपि लोभो न परिहीयते ॥ ७८ ॥ लोभोदयो द्वितीयस्तु नीलीवर्णसमो मतः । ज्ञानपानीय संधौतस्तेनात्मा' कल्मषायते ॥ ७९ ॥ लोभोत्थानस्तृतीयस्तु आर्द्रपङ्कसमो मतः । श्रुततोयविनिर्धीतस्तेन वैमल्यमुच्छति ॥ ८० ॥ लोभोदयश्चतुर्थो यो हरिद्वारागसंनिभः । श्रुतिसूर्या संतप्तः क्षणाद्रागः प्रणश्यति ॥ ८१ ॥ अन्तिम प्रकारकी ( संज्वलन ) मायाका उभार आत्माको चमरी मृगके रोमके समान कर देता है। अतएव ज्यों ही आत्मारूपी रोमको जीव ज्ञानरूपी यन्त्रमें रखकर दबाते हैं त्यों ही वह बिना विलम्ब अपने शुद्ध स्वभावको प्राप्त कर लेता है ॥ ७७ ॥ लोभोदाहरण प्रथम लोभ ( अनन्तानुबन्धी) के उदय होनेपर आत्मापर वैसा ही अमिट संस्कार पड़ जाता है जैसा कि कीड़ोंके खूनसे बनाये गये लाल रंग ( रक्तिमा ) का होता है। अतएव ऐसे आत्माको जब शास्त्रज्ञानरूपी ज्वालामें जलाया जाता है तब भी वह लोभका संस्कार (लालिमा ) उसे नहीं छोड़ता है ॥ ७८ ॥ अप्रत्याख्यानावरणी लोभसे आत्मापर वैसा ही रंग चढ़ जाता है जैसा कि नीले परिणाम यह होता है कि ज्यों ही जीव अपने आपको ज्ञानरूपी जलमें धोता है त्यों ही जाता है ।। ७९ ।। प्रत्याख्यानावरणी लोभके उभारकी गीले कीचड़के साथ तुलना को गयी है भ्यासरूपी जलसे भलीभाँति धोता है त्योंही इस लोभका नामो-निशां भी आत्मासे गायब हो जाता है ॥ ८० ॥ अन्तिम संज्वलन लोभके उदय होनेपर उसका जो प्रतिबिम्ब आत्मापर पड़ता है वह हल्दीके रंगकी लाली के समान होता है । उसपर शास्त्ररूपी सूर्य की किरणें पड़ी नहीं कि वह क्षणभर में ही लुप्त हुआ ।। ८१ ।। १. क कृमि । २. क तेनात्माऽकस्वायते । रंगका किसी धवल वस्तुपर आता है, आत्मा तुरन्त ही शुचि और स्वच्छ हो फलतः ज्योंही प्राणी आत्माको शास्त्रा चतुर्थ: सर्गः [ ७४ ] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः वराङ्ग चरितम् सग चारित्रमोहनीयेन चारित्रं न च लभ्यते । अचारित्रः पुनर्घोरे नरके पच्यते चिरम् ॥ ८२ ॥ हर्षे रोषे त्ववज्ञायामेकाकी वान्यसंश्रितः । निष्कारणं च लपते हास्यकर्मोदयावृतः ॥ ८३ ॥ पापक्रियाभियुक्तेषु अफलेष्वहितेषु च । रतिकर्मोदयान्नित्यं रमते दुर्जनेषु सः ॥ ८४ ।। ज्ञानं व्रतं तपः शीलं दैन्यान्यसुखकारणम् (?) । लब्ध्वा न रमते तत्र अरतेः कर्मणः फलात् ॥५॥ एकं भयं समासृत्य भयस्थानेषु सप्तसु । वेपिताः स्खलद्वाक्यो भयकर्मोदयाद्भवेत् ॥ ८६ ॥ यह चारित्रमोहनीयकी ही महिमा है जो जीव चाहनेपर भी किसी प्रकारके चारित्रका पालन नहीं कर पाता है। तथा जो जीव किसी भी प्रकारके चारित्रको धारण नहीं कर सका है उसका तो कहना ही क्या है, विचारा अनन्तकालतक घोर नरकमें सड़ता है ।। ८२॥ नोकषाय-अनुभाव हास्य नोकषायके उदय होनेपर यह जीव प्रसन्नताके अवसरपर, साकूत क्रोधमें तथा कहींपर अपमान होनेके बाद अकेले ही या अन्य लोगोंके सामने भी प्रकट कारणके बिना ही हँसता है अथवा अपने आप ही कुछ बड़बड़ाता जाता है ।। ८३ ।। जब किसी जीवके रति नोकषायका उदय होता है तो उसे उन दुष्ट लोगोंसे ही अधिक प्रीति होती है जो पापमय कर्मोंके करनेमें ही सदा लगे रहते हैं, जिनके कर्मोंका परिणाम कुफल प्राप्ति ही होता है तथा निष्कर्ष शुद्ध अहित ही होता है ।। ८४ ॥ यह अरति नोकषायका ही फल है जो जीव ज्ञानार्जनके साधन, व्रतपालनका शुभ अवसर, तप तपनेकी सुविधाएँ, ज्ञानाभाव मार्जनकी सामग्री, लौकिक और पारलौकिक सम्पत्ति (द्रव्य ) तथा अन्य सुखोंके कारणोंकी प्राप्ति हो जानेपर भी अपने आपको उनमें नहीं लगा सकता है ।। ८५ ।। श्मशान, राजद्वार, अन्धकार आदि सात भयके स्थानोंपर किसी साधारणसे साधारण भयके कारणके उपस्थित होते ही ISEASERanaaee [७५] --- - - १. क शीलच्यॆन्योन्य°, [शीलाद्यन्मोन्यसुख° ], [शीलं धन्योऽन्यसुखकारणम् ], २. म भयः, Jain Education international Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् निर्विण्णो दीर्घनिश्वासः सर्वत्रगतमानसः । क्षीण 'बुद्धीन्द्रियबल: शोककर्मोदयाद्भवेत् ॥ ८७ ॥ इन्द्रियाणां च पञ्चानां योऽर्यां लब्ध्वा मनोरमान् । जुगुप्सते विपुण्यात्मा जुगुप्साकर्म पीडितः ॥ ८८ ॥ स्त्री चेव पुंस्त्वसंदर्शात्पुमांसमभिलष्यति । लाक्षेवानलसंस्पर्शात्क्षिणेनैव विलीयते ॥ ८९ ॥ पुवेदः स्त्र्यभि संदर्शात्स्त्रियं यथाग्नेर्घृतकुम्भस्तु क्षणेनैव इष्टकापाकसंदर्श विफलं मदनाश्रितम् ( ? ) । दौरूप्यं गर्हितं याति स समभिलष्यति । विलीयते ॥ ९० ॥ नपुंसक वेदतः ।। ९१ ॥ जो प्राणी एकदम काँपने लगता है तथा बोली बन्द हो जाती है या हकला-हकला कर बोलने लगता है यह सब भय नोकषायका ही प्रभाव है ।। ८६ ।। जब प्राणी हरएक बातसे उदासीन हो जाता है, लम्बी-लम्बी साँस छोड़ता है, मनको नियन्त्रित नहीं कर पाता है। फलतः मन सब तरफ अव्यवस्थित होकर चक्कर काटता है, इन्द्रियाँ इतनी दुर्बल हो जाती हैं कि वे अपना कार्य भी नहीं कर पाती हैं तथा बुद्धि विचार नहीं सकती है, तब समझिये कि उसके शोक नोकषायका उदय है ॥ ८७ ॥ जो पुण्यहीन व्यक्ति पाँचों इन्द्रियोंके परमप्रिय भोगों और उपभोगोंकी प्राप्ति करके भी उनसे घृणा करता है या ग्लानिका अनुभव करता है, समझिये उसे जुगुप्सा नोकषायने जोरों से दबा रखा है ॥ ८८ ॥ पुरुषत्वके दर्शन होते ही जो जीव पुरुषको प्राप्त करनेके लिए आतुर हो उठता है उसे स्त्रोवेद कहते हैं । स्त्रीवेदधारी जीव पुरुषको देखते ही ऐसा द्रवित हो उठता है जैसे कि लाख आग छुआते ही बह पड़ती है ॥ ८९ ॥ स्त्रीका साक्षात्कार होते ही जो जीव स्त्रीको पानेके लिए आकाश पाताल एक कर देता है यह पुंवेदका ही कार्य है । पुरुषवेद युक्त प्राणी स्त्रीको देखते ही वैसा पिघल जाता है जैसे कि जमे घीका घड़ा अग्नि स्पर्श होते क्षणभर में ही पानी-पानी हो जाता है ।। ९० ॥ टोंके अवेके समान ( बाहर आगका नाम नहीं और भीतर भयंकर दाह ) किसी प्राणीमें जब काम उपभोग सम्बन्धी भयंकर विकलता होती है, तथा अत्यन्त निन्दनीय कुरूपपना होती है । समझिये यह सब नपुंसक वेदका ही परिपाक है ॥ ९१ ॥ १. म क्षण, २. [स्त्रीवेदः], चतुर्थ: सर्गः [ ७६ ] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चतुर्थः चरितम् Palpalese सर्गः w नवभिनॊकषायैस्तु स्वकर्मफलवतिभिः । आत्मा चरत्यनाचारं स तेन क्लेशमच्छति ॥ ९२॥ प्रतशीलगुणैः शून्या बह्वारम्भपरिग्रहाः। बध्नन्ति नरकायुस्ते मिथ्यामोहितदृष्टयः ॥ ९३ ॥ मायातिवञ्चनप्रायाः कूटमानतुलारताः। बध्नन्त्यायस्तिरश्चां ते रसभेदश्चकारिणः॥ ९४ ॥ शीलसंयमहीना ये मार्दवार्जवदानिनः । बघ्नन्ति मानुषायुस्ते प्रकृत्याल्पकषायिणः ॥ ९५ ॥ सरागसंयमोरकामसंयमासंयमवताः सदृष्टिज्ञानचारित्रा बध्नन्त्यायुर्दिवौकसाम् ॥ ९६ ॥ अपने-अपने विशेष कर्मोके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली हास्यादि नोकषायोंके कारण यह जोव बड़े-बड़े अनाचार और अत्याचार करता है। परिणाम यह होता है कि आत्माकी संसारमें स्थिति क्लेशपूर्ण हो जाती है ।। ९२॥ नरकायुबन्ध कारण जिन लोगोंकी विवेकरूपी दृष्टिपर मिथ्यात्व मोहनीयका पर्दा पड़ गया है, जो अहिंसादि व्रत और शिक्षा तथा गुणवतमय शीलसे हीन हैं, साथ ही साथ संसार-कारण अत्यधिक आरम्भ और परिग्रह करते हैं वे नरकायुका बन्ध करते हैं ।। ९३ ॥ तिर्यञ्चायुका बन्ध जो अत्यन्त मायावी हैं, दूसरोंको सदा सर्वथा ठगते हैं, जिनके बाँट और तराजू झूठे हैं तथा जो एकरसमें दूसरे रसको मिला देते हैं जैसे दूधमें पानी, घीमें चर्बी आदि ऐसे ही लोग तिर्यंच आयुका बन्ध करते हैं ॥ ९४ ।। मनुष्यायुका बन्ध जिनकी क्रोधादि कषाय स्वभावसे ही मन्द हैं, जो यद्यपि सामायिक आदि शील तथा कायक्लेश आदि इन्द्रिय संयमका पालन नहीं करते हैं तो भी दान देते हैं, व्यवहारमें सरल और कीमल हैं, ऐसे ही प्राणी मनुष्य आयुको प्राप्त करते हैं ।। ९५॥ देवायु बन्ध स्वर्गवासियोंकी आयुको वे ही पाते हैं जो आसक्ति या फलेच्छापूर्वक संयम पालते (सराग संयम ) हैं, जो बिना १. [रसभेदस्य कारिणः ], [ रसभेदप्रकारिणः], २. [ सरागसंयमाकाम°], ३. [°चारित्राद् ।। For Privale & Personal Use Only wwsHeaweeiweate [७७ Jain Education interational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्थः सर्गः मनोवाक्कायकुटिला विसंवादपरायणाः । बध्नन्त्यशुभनामानि दुर्वर्णादीनि देहिनः ॥ ९७ ॥ ऋजवो वाङ्मनःकायैरविसंवादतत्पराः। सौरूप्यादिविपाकानि बध्नन्ति शुभनामतः ॥ ९८ ।। ये जात्यादिमदोन्मत्ताः परनिन्दापरायणाः । नीचगोत्रं निबध्नन्ति जीवाः परमदारुणम् ॥ ९९॥ ज्ञानधर्माहतां भक्ताः परनिन्दाविवजिताः । उच्चैर्गोत्रं निबध्नन्ति जीवाः परमदुर्लभम् ॥ १०० ॥ दानविघ्नकरा ये ते निःस्वा जन्मसु जन्मसु । लाभविघ्नकराश्चापि निराशा धनलब्धिषु ॥ १०१॥ SAREERSataranaswadeRe उद्देश्यके ही ऐसे कार्य करते हैं जिनसे कर्मोकी निर्जरा हो सकती है ( अकाम निर्जरा ) संयमासंयममय ( देशचारित्र ) आचरण " करते हैं या जो कि सम्यक् दृष्टि सम्यकचारित्री होते हैं ।। ९६ ।। नामकर्म बन्ध जिन प्राणियोंकी मानसिक, वाचनिक तथा शारीरिक चेष्टाएं छल और कपटसे भरी रहती हैं, जिन्हें विरोध, मतभेद या सन्देह करने में ही आनन्द आता है वे प्राणी ही दुर्वर्ण अयशःकीति आदि बुरे नामकर्मका बन्ध करते हैं ॥ ९७ ॥ व जो कुछ मनसे सोचते हैं वही मुखसे बोलते हैं, वचनोंके अनुकूल ही चेष्टा करते हैं तथा जो कहते हैं उसे ही मनसे । सोचते हैं, विरोध, सन्देह वैमनस्यके बिल्कुल खिलाफ रहते हैं ऐसे ही जीव शुभ, सुस्वर आदि शुभनामकर्मकी प्रकृतियोंको बाँधते गोत्रकर्म बन्ध जिन प्राणियोंको अपनी जाति, कुल, शरीर, बल, ऋद्धि, ज्ञान, तप और पूजाका अभिमान या उन्माद हो जाता है, सर्वदा दूसरोंको निन्दा और दोषोद्घाटन में लीन रहते हैं. ऐसे ही प्राणी नीच-गोत्रका बन्ध करते हैं जिसका परिपाक अत्यन्त दुखदायी होता है ।। ९९ ।। अर्हन्त प्रभुके द्वारा प्राप्त सम्यक्ज्ञान तथा उन्हीं के द्वारा उपदिष्ट वीतराग धर्ममें जिनकी अट भक्ति होती है। दूसरेकी निन्दा तथा पैशुन्य आदिमें जो कोसों दूर रहते हैं, वे ही प्राणी उच्चगोत्र-कर्मका बन्ध करते हैं, जो कि इस संसारमें [७८) भरपूर प्रयन्न करनेपर भी कष्टसे ही प्राप्त होता है । १०० ।। अन्तराय बन्धकारण जो प्राणी दूसरोंके दान देने और पानेमें बाधक होते हैं वे भव-भवमें दरिद्र ही होते हैं। जो किसीको होते हुए लाभमें । a sSARTAINED Jain Education interational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् PATHREATRESSIPA भोगविघ्नकरा जीवा भोगहीना भवन्ति ते। नालं भोक्तुं सति द्रव्ये उपभोगविघातिनः ॥ १०२॥ वीर्यविघ्नकरा नित्यं वीर्यहीना भवाध्वसु । धर्मविघ्नकरा ये ते सर्वविघ्नकरा मताः ॥ १०३ ॥ अष्टानां कर्मणां राजन्फलमेतदुदाहृतम् ।। एतैविमुच्यते जीवः संसारे कर्मभिश्चिरम् ॥ १०४ ॥ बध्नात्यष्टविधं कर्म एकप्राणिविहिंसनात् । नानायोनिषु तेनात्मा दुःखान्याप्नोत्यनन्तशः ॥ १०५ ॥ एकेन मुच्यते जीवः कर्मणान्येन बध्यते। घटीयन्त्रस्य घटवद्दाहोऽस्मिन्मन्थरज्जुवत् ॥ १०६॥ HESHAHAHAHARASHTRA अकारण हो अडंगा लगा देते हैं उनकी सम्पत्ति कमानेको इच्छा असफल ही रहती है ।। १०१॥ ___ अपने-अपने पुण्यके फलस्वरूप भोगोंका रस लेनेवालोंके मार्गमें जो बाधक होते हैं वे स्वयं भी सब ही भोगोंसे वञ्चित रह जाते हैं। जिन्होंने दूसरोंके उपभोग भोगनेके मार्ग में रोड़े अटकाये हैं वे सम्पत्ति आदि साधनोंको पाकर भी उपभोगोंके आनन्दसे वञ्चित ही रह जाते हैं ।। १०२॥ दूसरोंकी शक्ति और वीर्यके विकास-मार्ग में जो काँटे बोते हैं वे भी इस संसारमें शक्तिहीन और अक्षम होते हैं। इसी प्रकार जो अन्य लोगोंके धर्माचरणमें विघ्नबाधाएं डालते हैं उन्हें तो दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य सबका ही अन्तराय मानना चाहिये ।। १०३॥ हे राजन् ! उक्त प्रकारसे क्रमशः आठों कर्मोंका स्वरूप, उनके बन्धके कारण और विशद परिणामको आपको समझाया है । क्योंकि इस संसारमें जीव इन आठों कर्मों के द्वारा ही सदा लुभाया जाता है और पथभ्रष्ट किया जाता है ।। १०४ ॥ एक साधारणसे जीवकी हिंसा कर देनेसे ही यह जोव आठों प्रकारके कर्मोंका बन्ध करता है। तथा यह सब उस बन्धका ही माहात्म्य है जो यह जीव नाना योनियोंमें अनेक प्रकारके दारुण अनन्त दुखोंको भरता है ॥ १०५॥ कर्म महिमा संसारचक्रमें ज्यों ही जीव किसी एक कर्मको पाशसे छूटता है त्यों ही दूसरेका फन्दा उसपर कस जाता है फलतः बन्ध १.[विमुह्यते । [ ७९] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् बीजादिव परं बीजं वर्धयत्कर्म कर्मणा । जीवो भ्रमति संसारे क्लेशाननुभवंश्चिरम् ॥ १०७ ॥ अथाष्टौ तानि कर्माणि अनादीनि महीपते । विनिपातसहस्राणि प्राणिनां प्रापयन्ति च ॥ १०८ ॥ एतान्येव नरके घोरे तिर्यङ्मानुषयोः सदा । देव दुर्गतिदुःखाब्धौ मज्जयन्ति पुनःपुनः ॥ १०९ ॥ तान्येव प्रियसंयोगं विप्रयोगं प्रियाज्जनात् । जाति मृत्यु जरां चैव कुर्वन्ति प्राणिनां सदा ॥ ११० ॥ दु:खबीजानि तान्येव तान्येवोग्राश्च शत्रवः । शोककर्तुं णि तान्येव तान्येव सुखहेतवः ॥ १११ ॥ परम्परा रॅहटकी घड़ियोंके समान आत्माको घेरता रहता है अथवा यों कहिये कि मथानीको डोरीके समान एक तरफसे खुलता है और दूसरी तरफसे बँध ( लिपट ) जाता है ॥ १०६ ॥ जिस प्रकार एक बीजसे दूसरे बीज उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पूर्वोपार्जित कर्मके द्वारा उत्तरकालीन ( अगले ) कर्मों के बोझको बढ़ाता हुआ यह जीव संसारमें मारा-मारा फिरता है और बहुत समय पर्यन्त अनेक क्लेशोंको भोगता है ॥ १०७ ॥ हे राजन् ! ये ज्ञानावरणी आदि आठों कर्म इस जीवके पीछे अनादि ( जिसका प्रारम्भ नहीं खोजा जा सकता है ) कालसे चिपके हैं और इस जीवके एक दो नहीं हजारों पतनोंको करते आये हैं ।। १०८ ।। यही कर्म दारुण और भयंकर नरकोंमें जीवको पटकते हैं, ये ही तिर्यञ्च और मनुष्य गतियोंमें दौड़ाते हैं और ये ही [कभी-कभी स्वर्गं गतिमें बैठा देते हैं । यहां इनकी ही सामर्थ्य है जो जीवको पुनः पुनः दुखोंके समुद्रमें डुबा देते हैं ॥ १०९ ॥ प्रियजनोंकी सत्संगति की प्राप्ति ( विरोधी प्रकृतिके अप्रिय लोगोंकी कुसंगतिका भरना) तथा प्राणप्रियजनोंके समागमसे सदा के लिए वियुक्त होना, जन्म और मरण, यौवन और वृद्धावस्था जो जीवोंको प्राप्त होती है यह सब भी इन्हीं कमकी लीला है ।। ११० ।। ये कर्म ही सब दुःखोंके मूल बीज हैं, [प्राणियोंके उद्धत और निर्दय शत्रु [कर्ता है; तो ये ही हैं, इसी प्रकार सांसारिक सुखोंके प्रधान उत्पादक भी ये ही हैं ।। १११ ॥ For Private Personal Use Only कोई हैं, तो ये ही हैं, यदि कोई [ शोक - दुखका चतुर्थः सर्गः [ ८० ] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARS वराङ्ग चरितम् तान्येव कर्मभाण्डानि समादायात्र जन्तवः । सुखदुःखानि विक्रेतु प्रयान्ति गतिपत्तनम् ॥ ११२ ॥ इति बहुविधकर्मदोषजालं समुदयसंग्रहकारणं सबन्धम् । जननमरणरोगशोकमलं यतिपतिना कथितं यथार्थतत्त्वम् ॥ ११३॥ पुनरपि यतिराडधःप्रयातां दुरितवशेन समश्नुतां फलानि । कथयितुमुरुधीश्चकार बुद्धि तरतमदुःखयुतानि तानि राज्ञे ॥ ११४ ॥ चतुर्थः सर्गः इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते पापफलप्रकथनो नाम चतुर्थः सर्गः। HeamesesearSTRPATRAMATA इस संसारमें आठों कर्मोरूपी पण्य या विक्रय वस्तुओंको लेकर यह जीव सुख दुःखको ही बेचने और खरीदनेके लिए ही नरक आदि गतिरूपी नगर और पत्तनोंमें घूमता फिरता है ।। ११२ ॥ उपसंहार इस प्रकारसे तपस्वियोंके मुकुटमणि महाराज वरदत्त केवलीने जन्म, मरण, रोग और शोकके मूल कारण अनेक प्रकारके कर्मों तथा उनसे उपजे दोषोंके स्वरूप, उनके संग्रह या बन्धके कारणों, फल देनेके समय या उदय कालको तथा अबाधा आदिको । समझाया था जो कि सत्य तत्त्वज्ञानका रहस्य था ।। ११३ ।। तो भी केवलज्ञानरूपो विशाल बुद्धिके स्वामी मुनिराजने राजाके कल्याणकी भावनासे प्रेरित होकर ही पापोंके उदयके कारण ही अधोगतिको प्राप्त करनेवालों तथा वहाँपर कम-बढ़ दुःखरूपमें अपने कर्मोके फलोंको भरनेवालोंके विषयमें और भी कहनेके लिए निश्चय किया था ।। ११४ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें 'पापफल प्रकथन' नाम चतुर्थ सर्ग समाप्त । TATUTELARRELIGIRIKA [१] ___Jain Education international ११ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् पञ्चमः सर्गः अनन्त सर्वमाकाशं' मध्ये तस्य प्रतिष्ठितः । सुप्रतिष्ठितसंस्थानो लोकोऽयं वर्णितो जिनैः ॥ १ ॥ वेत्रासनाकृतिरधो मध्यमो झल्लरोनिभः । ऊर्ध्वो मृदङ्गसंस्थानो लोकानामियमाकृतिः ॥ २ ॥ तिर्यग्लोकप्रमाणेन रज्जुरेका प्रमीयते । तया चतुर्दश प्रोक्तास्त्रिलोकायामरज्जवः ॥ ३ ॥ अचलेन्द्रादधः सप्त ऊर्ध्वं सप्त विभाजिताः । ऊर्ध्वाधोलोकयोराहुर्मध्यमष्टप्रदेशिकम् 118 11 घनोदधिर्घनवातस्तनुवातश्च त्रयः । वायवो घनसंघाता लोकमावेष्ट्य धिष्ठिताः || ५ ॥ ते पंचम सर्ग लोक पुरुष दुर्धर तप करके केवल पदको प्राप्त सब हो कर्मजेता तीर्थंकरोंने कहा है कि आकाश द्रव्य सब जगह व्याप्त है और अनन्त है । इसी व्यापक आकाशके मध्य में यह जीवलोक स्थित है । जीवलोकका आकार और स्थिति दोनों अत्यधिक सुव्यवस्थित हैं ॥ १ ॥ जीवलोकका नीचेका भाग जिसे पाताललोक या अधोलोक नामसे पुकारते हैं, वह बेतसे बनाये गये मूढे ( स्टूल ) के समान है अर्थात् नीचे काफी चौड़ा और ऊपर अत्यन्त संकीर्ण, बीचका भाग या मध्यलोक झांजके आकारका है । यो समझिये उथला और गोल तथा ऊपरका भाग स्वर्गलोक या ऊर्ध्वलोककी बनावट खड़े मृदङ्गके समान है। संक्षेपमें यही तीनों लोकोंके आकार हैं ।। २ ।। लोक प्रमाण तिर्यंचलोक या मध्यलोकके विस्तारको माप मानकर उसे एक राजु प्रमाण माना है। इस राजु प्रमाणके अनुसार तीनों लोकोंकी सम्मिलित ऊँचाईको चौदह राजु प्रमाण कहा है ॥ ३ ॥ मध्यलोकके केन्द्र बिन्दुपर स्थित गिरिराज सुमेरुसे नीचेकी तरफके लोककी ऊँचाई सात राजु प्रमाण है, इसी प्रकार ऊपरके भागका प्रमाण भी सात ही राजु है । फलतः सुमेरुके मूल में स्थित आठ प्रदेश ही ऊर्ध्व और अधोलोकके बीचका ठीक केन्द्र स्थल है ।। ४ । लोक- अवलम्ब इस सम्पूर्ण जीवलोकको घनोदधि वातवलय, घन वातवलय और तनुवातवलय इन तीनों वातवलयोंने हर तरफसे भलीभाँति घेर रखा है। यह वायुसमूह भी स्वयं अत्यन्त भारी और घनाकार ठोस है ॥ ५ ॥ १. [ अनन्तं सर्वमाकाशं ] For Private Personal Use Only पञ्चमः सर्गः [R] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः बराङ्ग चरितम् मूले षोडश संख्याता मध्ये द्वादश संमिताः। दशोनयोजनास्त्वेते तयोर्बाहुल्यतः स्थिताः॥६॥ घनोदधेस्तु सप्तव घनवातस्य पञ्च वै। तनुवातस्य चत्वारि योजनान्याहुरादितः ॥७॥ पञ्च चत्वारि च त्रीणि योजनान्यथ मध्यमे। योजनाधं च गव्यतिं गव्यत्य' च मस्तके ॥८॥ नारकी वाथ तैरश्ची मर्ती दैवी च निर्वतिः। गतयः पञ्च निर्दिष्टा मुनिभिस्तत्त्वशिभिः॥९॥ तासां गतीनां पञ्चानां नारको प्रथमा गतिः। हिंसाद्यभिरता जीवास्तां विशन्त्यशुभप्रदाम् ॥१०॥ अधोगतिश्च सामान्यात्सव२ सप्तप्रभेदतः। सप्तानां सप्त नामानि वणितान्युषिसत्तमः ॥११॥ घर्मा बंशा शिलाख्याच अजनारिष्टका तथा। मघवी माधवी चेति यथाख्यातमुदाहृताः ॥ १२॥ अर्गः लोकके मुलभाग या नीचे इन वातवलयोंका विस्तार सोलह योजन है, लोकके मध्यमें केवल बारह योजन प्रमाण है तथा ऊपर जाकर दश योजन कम एवं अर्थात् ( दो के लगभग) रह जाता है। पहिले कहे गये इन वातवलयोंके विस्तारके ही कारण तीनों लोकोंकी स्थिति है ॥ ६ ॥ जीवलोकके आदिमें अर्थात् नीचे सब वातवलयोंका विस्तार जो सोलह कहा है उसमें घनोदधि वातवलयका विस्तार सात योजन है, धन वातवलयका केवल पांच योजन है और तनुवातवलयका चार योजन प्रमाण कहा है ॥ ७॥ लोकके मध्यमें बताये गये वातवलयोंके बारह योजन प्रमाण विस्तारमें घनोदधि वातवलयका विचार पाँच योजन प्रमाण है, घनवातवलयका विस्तार चार योजन प्रमाण है और तनुवातवलयका केवल तीन योजन ही है। लोकके शिखरपर घनोदधिका विस्तार आधा योजन प्रमाण है, धन वातवलयका एक गव्यूति ( कोश ) है और अन्तिम वातवलयका एक कोशसे आधामात्र है ॥ ८॥ चतुर्गति-पंचमगति केवलज्ञानरूपी दृष्टिसे तत्त्वोंका साक्षात्कार करनेवाले मुनियोंने समस्त जीवोंको पाँच गतियोंमें विभक्त किया है-नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति, देव गति तथा अन्तिम गति या मोक्ष उनके नाम हैं ॥९॥ इन पांचों गतियोंमेंसे लोकके नीचेकी ओरसे प्रारम्भ करनेपर नरक-गति सबसे पहिले आती है। हर प्रकारसे जीवका अकल्याण करनेवाली इस गतिमें वे जीव ही जाते हैं जो हिंसा आदि पाप कर्मों में ही लगे रहते हैं ।। १० ॥ नरक गति सामान्य दृष्टिसे देखनेपर यह अधोगति एक है लेकिन दुख, आय आदिकी अपेक्षासे विचार करनेपर इसीके सात भेद हो जाते हैं । ऋषियोंके अग्रणी केवलियोंने इन सातों नामोंको निम्न प्रकारसे कहा है ॥ ११ ॥ प्रथम नरकका नाम है धर्मा उसके नीचेके पृथ्वीका नाम वंशा है, इसके बादकी पृथ्वीको शिला कहते हैं इसके नीचे १. क गप्युतोव। २. [ सामान्या ] । Jain Education intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्य वराङ्ग अन्तयुक्तप्रभाशब्दा रत्नशर्करवालुकाः । पङ्को धूमस्तमश्चैव सप्तमश्च तमस्तमः ॥ १३ ॥ प्रस्तारैः कुतपश्चाशादिन्द्रका(?) नरकालये । त्रयोदशैव धर्मायां द्वौ द्वावूनतरावधा ॥ १४ ॥ त्रिंशत्पञ्चकवर्गश्च पञ्चादश दशत्रयः । पञ्चोनं शतसहस्रं पञ्च चैव यथाक्रमम् ॥ १५ ॥ चतुःशतसहस्राणि अशोत्यभ्यधिकानि च । नरकाणां तु सप्तानां प्रभेदा वणिता जिनः ॥१६॥ तेषामत्यल्पनरका जम्बूद्वीपसमा मताः । सर्वेभ्योऽभ्थधिका ये तु ते त्वसंख्येययोजनाः ॥१७॥ नरकाः पुरसंस्थाना इन्द्रकाख्या नराधिप । श्रेणीवद्धास्तथाष्टासु दिवथात्र प्रकीर्णकाः ॥१८॥ पञ्चमः सर्गः चरितम् क्रमसे अञ्जना और अरिष्टाँ पृथ्वियाँ हैं, छठे नरकका नाम मघवी है और अन्तिमको माधवी संज्ञा दी है। मैं इन नामोंको उसी क्रमसे कह रहा हूँ जैसा कि पूर्वाचार्योने कहा है ।। १२ ।। पहिले कहे गये नाम-शब्दोंके अन्तमें 'प्रभा' शब्द जोड़ देनेसे इन्हीं सातों नरकोंके क्रमशः रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा तथा सातवींका तमस्तमा या महातमाप्रभा नाम हो जाते हैं। ये नाम इन पृथ्वियोंके रंग तथा वातावरण स्वरूपपर भी प्रकाश डालते हैं ।। १३ ।। नरक पटल अत्यन्त तापयुक्त इन्द्रक, ( केन्द्रका विल ) दिशाओंमें फैले तथा इधर-उधर फैले (प्रकीर्णक ) नारकियोंके वास स्थानों (विलों) से पूर्ण पटल प्रथम पृथ्वी घर्मा एकके नीचे एक करके तेरह होते हैं । इसके आगे प्रत्येक पृथ्वीमें दो-दो घटते जाते हैं। अर्थात् बंशामें ग्यारह, शिलामें नौ, अञ्जनामें सात, अरिष्टामें पाँच, मघवी में तीन और माधवीमें केवल एक ।। १४॥ इन सातों नरकों में बने निवासों ( विलों ) की संख्या भी रत्नप्रभामें तीस लाख, शर्कराप्रभामें पाँचका वर्ग ( पच्चीस) लाख, वालुका प्रभामें पन्द्रह लाख, पंकप्रभामें दश लाख, धूमप्रभामें तीन लाख, तमःप्रभा पाँच कम एक लाख और महातमः प्रभामें केवल पाँच ही है ।। १५ ॥ आठों कर्मों के मानमर्दक जिनेन्द्र प्रभुने इस प्रकारसे इन सातों नरकोंके पटलोंके भेदोंको कुल मिला चार लाख अधिक अस्सी लाख अर्थात् चौरासी लाख प्रमाण कहा है ।। १६ ।। इन चौरासी लाख बिलोंमेंसे जो बिल सबसे छोटे हैं वे भी अपने विस्तार आदिमें हमारे जम्बूद्वीपके समान हैं । तथा जो A बिल सबसे बड़े हैं उनका तो कहना ही क्या है उनका प्रमाण असंख्यात योजन है ।। १७ ।। विल विस्तार इन्द्रक या केन्द्र स्थानपर स्थित नरकों ( विलों) की लम्बाई, चौड़ाई और अन्य बातों को हे राजन् ! बिल्कुल मध्यलोकके नगरोंके आकारका ही समझिये, इन्द्रककी आठों दिशाओंमें बने विलोंको श्रेणीबद्ध कहते हैं तथा श्रेणीबद्ध विलोकी । 1. म प्रकोणताः, [प्रको तिताः । मानाचारALIBRITERAJ [४] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधोऽधो नरका रुन्ध्रा अधोऽधस्तोत्रवेदनाः । अधोऽधोऽभ्यधिकायुष्का अधोऽधस्तु घनं तमः ॥१९॥ षष्ठसप्तमयोः शीतं शीतोष्णं पञ्चमे स्मतम् । चतुर्थेऽत्युष्णमुद्दिष्टं तेषामेव महोगुणाः ॥२०॥ नारकाणां च दुःखस्य तेषां शीतोष्णयोः पुनः । वर्णगन्धकृतीनां च उपमान्या न विद्यते ॥२१॥ मेरुप्रमाणोऽयःपिण्ड उष्णे क्षिप्तो यदृच्छया। विलीयते क्षणेनैव एवं तस्योष्णता मता ॥२२॥ तावत्प्रमाणोऽयःपिण्डः शीते क्षिप्तो यदृच्छया । सहसैव हिमीभावमुपयाति न संशयः ॥२३॥ जम्बूद्वीपं निमेषेण यो गन्तुं शक्तिमान्सुरः । षड्भिर्मासैव जेदन्तं महतो नरकस्य सः॥२४॥ वराङ्ग चरितम् पञ्चमः सर्गः पंक्तियोंके अन्तरालमें इधर-उधर खुदे विलोंको ही प्रकीर्णक कहते हैं। ऊपरके नरकोंकी अपेक्षा नीचे के नरक अधिक निर्दय और भयंकर हैं ।। १८ ।। नारको वातावरण ज्यों-ज्यों नीचे जाईयेगा त्यों-त्यों कष्ट और वेदनाको दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता पाइयेगा, अवस्थाका भी यही हाल है क्योंकि नीचेके नरकोंमें ऊपरकी अपेक्षा बहुत बड़ी आयु है। नरकोंमें व्याप्त अन्धकार भी नीचे-नीचे धनतर और घनतम होता जाता है ।। १९ ।। सातवें और छठे नरकमें भयंकर शीत वातावरण है, पाँचमें नरक धूमप्रभामें क्रमशः अत्यन्त प्रखर शीत और उष्ण वातावरण है और चतुर्थ पृथ्वी अञ्जनापर दारुण गर्मीका ही साम्राज्य है। यह शीत और ताप किन्हीं बाह्य कारणोंसे नहीं है , बल्कि वहाँकी पृथ्वीकी प्रकृति ही उस प्रकार की है ।। २० ॥ इन नारकियोंपर वीतनेवाले दुखोंकी, भयंकर शीत और दारुण ताप-बाधाओंको, उनके रंग-रूप, गन्ध और आकृतियोंकी हजार प्रयत्न करनेपर भी दूसरी उपमा नहीं मिल सकती है ।। २१ ॥ उन नरकोंकी गर्मी ऐसी होती है कि यदि उसमें सुमेरु पर्वतके समान लम्बे, चौड़े और घने लोहे के पिण्डको यदि यों ही फेंक दिया जाय तो वह भी एक, दो मुहूर्त में नहीं अपितु क्षणभरमें पानी होकर बह जायेगा ।। २२ ।। शीतोष्ण बाधा ___ इसी लाखों योजन लम्बे, चौड़े और घने द्रवीभूत लोहेके महापिण्डको यदि शीतबाधायुक्त नरकमें उठाकर डाल दीजिये। तो निश्चित समझिये कि वह बिना किसी प्रयत्नके हो बिल्कुल हिमशिलाके समान हो जायेगा ऐसी भयंकर वहाँकी ठंड होती है ॥ २३ ॥ दैवी शक्ति सम्पन्न जो देव सम्पूर्ण जम्बूद्वीपको पलक मारनेके समयमें ही पार कर जाता है, वही देव यदि सबसे बड़े । नारकियोंके बिलमें घुस जाय तो लगातार चलते-चलते हुए भी उसे बिलके दूसरे किनारेतक पहुँचनेमें ही छह माह लग जायेंगे। इसीसे उनके क्षेत्रफलका पता लग जाता है ।। २४ ॥ १.[रौद्राः]। २.क उष्णक्षिप्तो । naikनामामामाचा Jain Education interational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् या गतिदुःखभूयिष्ठा वर्णिता मुनिपुङ्गवैः । तां गतिं ये प्रपद्यन्ते तान् वक्ष्यामि विशेषतः ॥ २५ ॥ हिंसायां निरता मित्यं मृषावचनतत्पराः । परद्रव्यस्य हर्तारः परदाराभिलङ्घिनः ॥ २६ ॥ मिथ्यातिमिरसंछन्ना बह्वारम्भपरिग्रहाः । कृष्णलेश्या परिणताः श्वाश्रीमधिवसन्ति ते ॥ २७॥ पञ्चानामिन्द्रियाणां हि पञ्चार्था रतिहेतवः । तेषां प्राप्तिनिमित्ताय कर्म चिन्वन्ति दारुणम् ॥ २८॥ अयःपिण्डो जले क्षिप्तो नादं प्राप्य न तिष्ठति । कर्मभारसमाक्रान्ता जीवाश्च नरकालये ॥ २९ ॥ पिष्टपाकमुखेष्टिके (?) उष्ट्रिकास्वपरे पुनः । उत्पद्यन्ते ह्यधोवक्त्राः पापिष्ठा वेदनातुराः ॥३०॥ उत्पद्य हि दुराचारा अत्युष्णात्परिपीडिताः । पतन्त्युत्पत्य तत्रैव तप्तभ्राष्ट्र तिला इव ॥ ३१॥ व्याप्त कहा है, उसी गति में कौनसे जोव मुनियोंके अग्रणी केवली आदि ऋषियोंने जिस गतिको भयंकर रुद्र दुःखोंसे मर कर पहुँचते हैं उन्हींके विषयमें अब मैं विस्तारपूर्वक कहता हूँ ।। २५ ।। नरक गतिके कारण जो हर समय दूसरोंकी द्रव्य वा भाव हिंसामें लगे रहते है, जिन्हें झूठ वचन बोलने में कभी कोई हिचकिचाहट ही नहीं होती है, दूसरे की सम्पत्तिका चुराना जिनकी आजीविका हो जाती है, दूसरेकी स्त्रियोंकी लज्जा और सतीत्वको ले लेना जिनका स्वभाव हो जाता है ॥ २६ ॥ विपरीत या भ्रान्त श्रद्धा जिनके विवेकको ढक लेती है, अत्यधिक आरम्भ और परिग्रहको करना जिनका व्यापार हो जाता है और जिनकी लेया ( विचार और चेष्टा ) अत्यन्त कृष्ण ( कलुषित ) हो जाती है, ये ही लोग नरकगतिमें जाकर बहुत समयतक दुःख भरते हैं ॥ २७ ॥ स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियोंका अत्यन्त आकर्षक और सुखदायी जो स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द, पाँच भोग्य विषय हैं इनको प्राप्त करने के उद्देश्यसे ही जो लोग निर्दय और नीच काम करते हैं ।। २८ ।। वे लोग अपने दुष्कर्मों और अकमोंके भारसे इतने दब जाते हैं कि वे धड़ामसे नरकमें वैसे ही जा गिरते हैं जैसे लोहेका भारी गोला पानीमें फेंके जानेपर जोरकी आवाज करता है और रसातलको चला जाता है ऊपर नहीं ठहरता है || २९ ॥ इस प्रकार नरकमें पहुँचकर कुछ जीव तो भट्ठियोंके समान अत्युष्ण स्थानोंमें पैदा होते हैं तथा दूसरे उन स्थानोंपर उत्पन्न होते हैं जिनकी तुलना ऊँटकी आकृतिके बने भाड़ोंसे की जा सकती है। वे वहाँपर नीचे मुख किये हुए उत्पन्न होते हैं ।। ३० ।। नारकी जन्म और जन्मके क्षणसे असह्य वेदनासे व्याकुल रहते हैं वे दुराचारी उत्पन्न होते ही वहाँकै प्रखर तापसे असह्य कष्ट प २. [ नाघ: ] । १. क कृष्णलेश्याः परिणता । R पञ्चमः सर्गः [ ८६ ] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः वराङ्ग चरितम् नारका भीमरूपास्ते दुर्बलाः पूतिगन्धिनः। अव्यक्तहण्डसंस्थानाः पण्डकाइचण्डभाषिणः ॥३२॥ उत्पन्नान्सहसा दृष्ट्वा विभङ्गज्ञानदृष्टयः । स्मरन्तः पूर्ववैराणि आधावन्ति समन्ततः ॥३३॥ त्रासयन्तोऽथ गर्जन्त आक्रोशन्तोऽस्त्रपाणयः। जन्मान्तरे कृतान् दोषान् ख्यापयन्तः श्रयन्ति तान् ॥३४॥ पूर्वापराधानात्मीयान् ज्ञात्वा तु दुरनुष्ठितान् । भयत्रस्तविषण्णामा आरभन्ते पलायितुम् ॥३५॥ दृष्ट्वा पलायमानांस्तान्नोद्धकामास्त्वरान्विताः । भोषयन्तः प्रचण्डाश्च अनुधावन्ति धावतः ॥३६॥ संप्राप्य भयवित्रस्ताननाथान् शरणागतान् । मुसलैर्मुद्गरैः शूलैस्ताडयन्तोऽथ मर्मसु ॥३७॥ सर्ग S TRIPATHIPAHIPASAAHIT हैं और उसीसे अशान्त होकर जन्मके स्थानपरसे ऊपरको उचकते हैं और बार-बार वहीं ऐसे गिरते हैं जैसे जलते भाड़में तिल उचट-उचट कर गिरते हैं ।। ३१ ।। सबही नारकियोंके रंग रूप भयावने होते हैं, वे सब अत्यन्त दुष्ट-वली होते हैं और आवेशमें आकर अपने बलका दुरुपयोग हो करते हैं, शरोरोंसे असह्य सड़ाँद आती रहती है, उनका संस्थान ( शरीर गठन ) ऐसा ऊबड़-खाबड़ होता है कि उन्हें कुब्जक भी नहीं कह सकते, सबही नपुसक होते हैं और अत्यन्त कटु तथा कठोर बातें करते हैं ॥ ३२ ॥ उन सबको विभंग ( कुत्सित ) अबधिज्ञान होता है फलतः नये नारकियोंको उत्पन्न हुआ देखकर ही उन्हें उनके (अपने) प्रति अपने पूर्वभवके वैर याद आ जाते हैं, फलतः वे सब नये नारकीयपर हर तरफसे हमला करते हैं ।। ३३ ।। उनके हाथ ही शस्त्रोंके समान तेज होते हैं, वे हाथ उठाकर नये नारकियोंको धमकाते हैं, उनपर जोर-जोरसे गरजते हैं, गालियां देते हैं और निन्दा करते हैं और दूसरे जन्मोंमें (नूतन नारकियों द्वारा) किये गये दोषों और अपकारोंको बकते हुए उनपर टूट पड़ते हैं ।। ३४ ॥ वे नारकी पूर्व जन्मोंमें किये गये अपने अपराधों जौर दोषोंकी याद आते ही भयसे काँपने लगते हैं, शरीर ढीला पड़ जाता है और अपने विरोधीको आता देखखर भागना प्रारम्भ कर देते हैं ॥ ३५ ॥ दूसरे नारकी ज्योंही उन्हें भयसे भागता देखते हैं त्योंही वे जल्दीसे आगे बढ़कर उनको रोक लेना चाहते हैं । परिणाम यह होता है कि वे और उग्र होकर उनको डराते हैं तथा जिधर-जिधर वे भागते हैं उनके पीछे पीछे दौड़ते जाते हैं ।। ३६ ॥ भयसे भीत होकर भागते हुए उन असहाय तथा सब प्रकारसे उनके आश्रित नारकियोंको जब अन्तमें वे पकड़ ही लेते हैं तो उनके मर्म स्थलोंपर मूसलों, मुद्गरों और भालोंकी निर्दय बौछार प्रारम्भ कर देते हैं ।। ३७ ।। MATIPAHISHEDAtIPAHISHA R [८७] HAI । १. क षटकाः। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यराङ्ग चरितम् विलपन्तो रुवन्तश्च' ताड्यमाना दुरात्मभिः । पतन्ति भिन्नमूर्धानो धरण्यां वेदनादिताः ॥ ३८ ॥ सिंहव्याघ्रमृगदीपा(?) गृध्रोलूकाश्च वायसाः । अयस्तुण्डैर्नखैर्दन्तैः पतितान्भक्षयन्ति तान् ।। ३९ ।। चिल्लोहेषु निक्षिप्य दुदन्तो लोहयष्टिभिः । मांसमृष्ट रसासक्तान्मांसवत्खादयन्ति तान् ॥ ४० ॥ जिह्वान्त्राणि च नेत्राणि केचिदुत्कृयें निर्दयाः । ग्रथित्वाथ शिरासूत्र : शोषयन्ति शिलातले ॥ fear परगात्राणि प्रादुर्व्यूषितका (?) मुहुः । तेषां वक्राण्यधः कृत्वा धूपयन्ति मुहुर्मुहुः ॥ हस्तपादमथ च्छित्वा कर्णनासापुटानि च । रुधिरार्द्राणि संगृह्य क्रूराः कुर्वन्ति दिग्वलिम् ॥ ४३ ॥ केचिच्छूलेषु निक्षिप्य भ्रामयन्त्यभिधावतः । निक्षिप्योलूखले कांश्चिच्चूर्णयन्त्यधमा भृशम् ॥ ४४ ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ नारकी व्यवहार उन पापियोंके द्वारा निर्दय रूपसे पीटे गये वे नूतन नारकी रोते हैं, विलाप करते हैं और शिर आदि अंगोंके फट जानेपर वेदनासे विह्वल हो जाते हैं तथा मरेसे होकर पृथ्वीपर गिर जाते हैं ।। ३८ ।। घायल और बेहोश होकर जमीनपर गिरे उन नारकियोंको तब सिंह, बाघ, हिरण, हाथी, गिद्ध, उल्लू, कौआ आदि पशु पक्षी अपने-अपने लोहे के समान नखों, दाँतों और चोंचोंसे उन्हें खाते हैं ।। ३९ । नारकी दुःख दूसरे नारकी उन्हें लोहे के कड़ाहोंमें डाल देते हैं और लोहेकी सीकोंसे उन्हें खूब कोंचते हैं। अन्तमें जब वे मांस, मिट्टी, मज्जा और अन्य रसोंसे लथपथ हो जाते हैं तो उन्हें माँसकी तरह काट काटकर खाते हैं ॥ ४० ॥ अन्य निर्दय नारकी उनकी जीभ, नाक, कान और आँख आदि अंगोंको बलपूर्वक नोच लेते हैं। फिर इन सबको शिरारूपी तागों में गूंथ देते हैं और उष्ण शिलाओंपर फैलाकर इन्हें सुखाते हैं ॥ ४१ ॥ जो जीव बार-बार दूसरोंके हाथ, पैर आदि अंग काट देते थे तथा मांसादि खूब खाते थे उन्हें नारकी, नीचेको मुख करके पटक देते हैं और पुनः पुनः बिना बिलम्बके उनको खूब घुमाते हैं ॥ ४२ ॥ इसके बाद उनके हाथ, पैर, नाक, कान आदि अंगोंको काट लेते हैं और जबकि उनसे रक्त बहता ही रहता है तभी उन्हें इकट्ठा कर लेते हैं। इसके बाद अपने मिथ्यात्व जन्य संस्कारोंसे प्रेरित होकर उन सब अंगोंको बलिरूपमें दिशाओं को चढ़ा देते हैं ।। ४३ ।। दूसरे नारकी अंगोंको काटकर अपने भालोंमें फँसा देते हैं; फिर जोरोंसे दौड़ते जाते हैं और उन अंगोंको चक्करकी तरह घुमाते जाते हैं । अन्य महापतित नारकी उन्हें खोखलीमें फेंक देते हैं और बादमें लगातार मूसल मारकर बिल्कुल चूर्णं कर १. [ रुदन्तश्य ] । २. [ द्विषाः ] ६. मजिह्वां घ्राणे । ४. क उद्धृत्य । ५. क प्राधत्वूषितका (?) । पञ्चमः सर्गः [ac] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग वरितम् पिबन्ति गन्धवत्कांश्चिन्मृद्गुन्ति निर्दयाः । क्रकचैर्दारयन्त्यन्यानक्षीण्युत्पाटयन्ति च ॥ ४५ ॥ पिबन्ति रुधिराण्यन्ये शस्त्रविद्ध' शिरः पुनः । ग्रसन्ति मुखतः कांश्चित्पादतस्त्वपरे परान् ॥ ४६॥ छिन्दन्यसिभिरङ्गानि क्षुरिकाभिर्द्रजन्ति च । टङ्कैः शिरःकपालानि वासिभिर्वदनानि च ॥ ४७ ॥ तृणैवेष्ट्य सर्वाङ्गं ज्वालयन्त्यग्निना भृशम् । शङ्कुर्मू स्वयोत्खन्य तुदन्त्यक्षीणि चोल्मुकैः ॥ ४८ ॥ मक्षिका मशकाचैव वृश्चिकाच्च पिपीलिकाः । खादयन्ति व्रणान्यन्ये स्रवद्र धिरपूतिनः ।। ४९ ।। ये हत्वा प्राणिनः पूर्वं मांसभक्षणतत्पराः । तान्मुहुर्यातनाभिश्च दण्डयन्ति परस्परम् ॥ ५० ॥ लोभाद्रागात्प्रमादाद्वा राजवाक् लभ्यते मदात् । प्रभुत्वाच्च कुसामर्थ्यादसदुक्त्वान्यहसकान् ( ? ) ॥ ५१ ॥ देते हैं ॥ ४४ ॥ नरक कैलि वे इतने दयाहीन होते हैं कि नरकियोंको सगन्धि द्रव्य (लेप) की तरह पीस डालते हैं अथवा धान्यके समान दलते हैं। तीक्ष्ण शूलोंके द्वारा आँखोंको बेध देते हैं तथा काँटोंमें फँसाकर आँखे उपार लेते हैं ॥ ४५ ॥ कुछ नारकी दूसरोंके रक्तको पानीकी तरह पी जाते हैं जबकि शस्त्रोंकी मारसे उनका शिर फूट जाता है, ऐसी हालतमें कोई उसे मुखको तरफसे खाना शुरू करता है, दूसरा उसे पैरोंकी तरफसे चखने लगता है । वे एक दूसरेके अंगों को तलवारसे काट देते हैं ॥ ४६ ॥ इसके उपरान्त छुरियोंसे उनकी बोटी-बोटी बना देते हैं। टाँकिया चला चलाकर शिरके कपालको फोड़ देते हैं, और तलवारोंसे मुखोंको क्षत-विक्षत कर डालते हैं ॥ ४७ ॥ पहिले सम्पूर्ण शरीरको घासमें लपेट देते हैं फिर आग लगाकर बिल्कुल जला डालते हैं । शिरमें नुकीली कीलोंको गाड़ देते हैं और टेढ़ी टेढ़ी सीखोंसे आंखें उखाड़ लेते है ॥ ४८ ॥ जब खण्डित अंगोंसे रक्त और पीप बहने लगती है तब हो मक्खियाँ, मच्छर, विच्छू, चीटियां, आदि कृमि घाबोंपर लग जाते हैं और उन्हें लगातार काटते हैं ।। ४९ ।। जो प्राणी अपने पूर्वजन्ममें दूसरे जन्तुओंको मारते थे और आनन्दसे उनका मांस खानेके लिए तैयार रहते थे, उन्हें ही नरक में पहुँचने पर वे नारकी बड़ी-बड़ी यातनाएँ देते हैं और इसी प्रकार आपसमें दण्ड व्यवस्था करते हैं ॥ ५० ॥ नारको दुःख तथा कारण जिन लोगोंने अपने पूर्वजन्मोंमें लोभसे प्रेरित होकर, राग द्वेषके कारण, प्रमादसे अथवा राजाकी आज्ञाको पाकर, १. क शस्त्रविद्धं । १२ पञ्चमः सर्गः [९] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् इदानीं तव सामर्थ्यान्' पश्याम इति नारकाः । उत्कोटबन्धनं कृत्वा तोदयन्ति मुहुर्मुहुः ॥ ५२ ॥ दन्तानुत्पाठ्य यन्त्रेण विच्छेद्य दशनच्छदान् । प्रवेशयन्ति वक्रेषु श्वसभीमभुजङ्गमान् ॥ ५३॥ जिह्वाश्चोत्पाटयन्त्यन्ये भवसंबन्धिवैरिणः । मूषातप्ततरं ताम्र पाययन्त्यनृतप्रियान् ।। ५४ ॥ शूलैस्तीक्ष्णतरैोरैः क्रोधविभ्रान्तदृष्टयः । चरणेषु प्रविध्यन्ति रुदन्तानकरुणस्वनैः ॥ ५५॥ रुदन्त्याक्रन्दतामन्ये अयस्सूचिभिरगुलीः । अपरानतिवैरेण खण्डशः कल्पयन्ति च ॥ ५६ ॥ ऊरू परशुभिश्छित्त्वा खादयन्ति परे परान् । बध्वान्ये पाणिपादं च क्षिपन्ति चितकाग्निषु ॥ ५७ ॥ एवंबहुविधैर्दण्डःखण्डयन्त्यकृतात्मनः। वैभङ्गजा नाविज्ञानांस्तेयान्दपरायणान् ॥५८॥ पञ्चम सर्गः THATRAPARDAROHARDARPAHIRAASHeareARATHEATREApeawan अभिमानमें चूर होकर या अपने प्रभुत्वको जमानेके लिए अथवा दूषित शक्तिके भरोसे झूठ बोलकर दूसरों के प्राण लिये थे, उनको नारकी कहते है ।। ५१ ॥ कि आओ, अब तुम्हारे उस उद्दण्ड बल और सामर्थ्यको देखें ? यह कहकर वे उन्हें नोचते है इतना ही नहीं बार-बार शस्त्रोंसे कोचते हैं ।। ५२ ॥ पहिले हथियारोंसे ये उनके दाँत उखाड़ डालते है और फिर ( दातों के आवरण ) ओठोंको किसी यंत्रसे काट लेते है इसके बाद उनके मुखोंमें बलपूर्वक ऐसे भयंकर सांपोंको ठूस देते हैं जिनकी फुकारसे ही प्राण निकलते हैं ।। ५३ ।। जन्म-जन्मान्तरोंके संबंधोंके कारण शत्रुभावको प्राप्त नारकी दूसरे नारकियोंकी जीभ ही उखाड़ लेते हैं और अग्निसे भी अत्यधिक दाहक गर्म ताँवेको उन जीवोंको पिलाते हैं जिन्हें अन्य भवोंमें झठ बोलनेका अभ्यास था ॥ ५५ ॥ उनका क्रोध इतना संहारक होता है कि उनकी आँखें क्रोधसे फड़कती रहती हैं, तीखे भालोंको लेकर निर्दयरूपसे दूसरे नारकियोंके पैरोंको छेद देते हैं, यद्यपि मारे गये नारकी अत्यन्त करुण स्वरसे रोते रहते थे। ५५ ।। कुछ नारकी ऐसे होते हैं जो विलाप कर रोते हुए नारकियोंकी भी अंगुलियोंको लोहेकी तेज कीलोंसे छेद देते हैं। वे । इतने नृशंस होते हैं कि दुसरे नारकियोंसे गाढ़ शत्रता कर लेते हैं उसके आवेशमें आकर उनके शरोरके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं ।। ५६ ॥ वे तोक्षण फरसा उठाकर दूसरोंकी जाँघोंको छीलने लगते हैं और वादमें काट काटकर खाते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं। जो पहिले मारते हैं उसके उपरान्त उनके हाथ पैर काटते हैं और अन्तमें इन्हें उठाकर जलती हुई चिताकी ज्वालाओंमें झोंक देते हैं ।। ५७॥ विभंग अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंसे ही अपने पूर्वभव और कामोंको देखनेवाले वे कुकर्मी और पापात्मा नारकी ऊपर कही। गयी रीतियोसे तथा नाना प्रकारके अनेक दण्डोंके द्वारा उनके खण्ड-खण्ड करते हैं जो इस लोकमें चोरी करनेको आनन्द मानते थे ॥ ५८॥ १. क सामर्थ्यात्, [ सामर्थ्य ]। २. रुदतः करुणस्वनः] । ३. [ रदन्ति ] । ४. [चितिकाग्निषु ]। ५. क विज्ञाना(:)स्तेयानन्दं । [९०] Jain Education international Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n a पञ्चमः बराङ्ग चरितम् आदचन्दनकल्कानि विषाक्तानि ससंभ्रमात् । लिम्पन्त्यन्तविदाहीनि परस्त्रीसुरतप्रियान् ॥ ५९॥ माल्याभरणवस्त्राणि तप्तताम्रमयानि च । धारयन्ति परस्त्रीणां रतिसंगमकर्कशाः ॥६०॥ सोपचाररुपासत्य सुरताहवकोविदान् । हावभावविलासिन्यो बुवन्त्यः स्वागतक्रियाः॥ ६१ ॥ पूर्वजन्मकृतस्नेहात्संबन्धाच्च विशेषतः । भावयन्ति स्त्रियः पुंस आश्लिष्यन्ति प्रिया इव ॥ ६२॥ ताभिराश्लिष्यमाणाश्च दग्धसर्वाङ्गयष्टयः। घृतवत्प्रविलीयन्तेऽन्याङ्गनाङ्गप्रसङ्गिनः ॥ ६३ ॥ तस्मिन् देशे तथा विद्धि आवयो रतिविभ्रमः । इति ब्रुवन्तः पापिष्ठा बाधन्ते बाधितान्पुरा ॥६४॥ स्त्रीणां पुरुषरूपाणि स्त्रीरूपाणि नणां पुनः । सुतप्तैरायसैस्ताम्रविकुर्वन्ति परस्परम् ॥६५॥ सर्गः पर स्त्री-गमनका फल जो लोक इस संसारमें दुसरोंकी पत्नियोंसे या अन्य स्त्रियोंसे संगम करनेके लिए लालायित रहते थे या करते थे वे ही। मरकर जब नरकोंमें पहुँचते हैं, तब वहाँ उपस्थित नारकी तुरन्त ही दौड़ दौड़कर बिषसे मिली हुई चन्दनकी गीली गीली कीचड़ शरोरपर लेपकर उनका स्वागत करते हैं । इस लेपके लगते ही उनका सारा शरीर भीतरसे जलने लगता है ॥ ५९ ।। दूसरी स्त्रियोंमें रातिकेलि करनेवालोंको, अथवा परस्त्रीसे निर्दयतापूर्वक संभोग करनेवालोंको नारकी गरमागरम लोहेसे या ताँबेसे बनाये गये गहने,मालायें तथा कपड़े आदि जबरदस्ती ही पहिना देते हैं। संभोगरूपी युद्धके परम ज्ञाता जीवोंके पास नारकी स्त्रियाँ बड़े हावभाब और शृंग्रारके साथ आती हैं ।। ६० ।। उनकी श्राङ्गारिक चेष्टाएं, भाव, संकेत तथा प्रेमसे कहे गये वचन ऐसे होते हैं जो कि स्वागतका काम देते हैं। इतना ही नहीं।। ६१ ॥ वे स्त्रियां पूर्वजन्ममें किये गये अनैतिक प्रेम, और सम्बन्धों आदिकी प्रेरणा पाकर उन नारकियोंके मनको विशेष रूपसे अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं तब वे उन्हें अपनी प्राण प्यारियाँ समझकर जोरसे आलिंगन करते हैं ।। ६२॥ उनका आलिंगन करते ही उन्हें ऐसा अनुभव होता है, मानो सारा शरीर ही किसी ज्वालासे चिपटकर जल गया है, इतना ही नहीं दूसरेकी स्त्रियोंको बहकाकर उनका स्त्रीत्व दूषित करनेवाले वे नारकी, उन स्त्रियोंसे चिपकनेपर घीकी तरह पिघल जाते हैं और उनका संपूर्ण शरीर ही बह जाता है । ६३ ।। 'उस स्थानपर उस भवमें हम दोनोंने उस, उस तरहसे प्रेमलीला और संभोग किया था' इत्यादि बातें वे पापी नारकी जीव कहते हैं। और इसके बाद उन्हें ही फिर नाना तरहके कष्ट देते हैं जिन्हें पूर्वभवमें भी अनेक कष्ट दिये थे ।। ६४ ।। कष्ट देनेके लिए ही नारकी परपुरुषोंसे प्रेम करनेवाली स्त्रियोंके सामने वे खुब गर्म लोहे या ताँबेके पुरुष बना देते हैं । तथा परस्त्रीगामी पुरुषोंके आगे स्त्रियाँ बनाकर खड़ी कर देते हैं। इस तरह आपसमें आलिंगन आदि कराके वे उन्हें दुख देते हैं ।। ६५ ।। ARRAHASHIRAIPHPawaeseREAsmeera [९१] Jain Education international Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुक्कुटान्मेषमार्जारान्नकुलाल्लावकाशनः। उपभोगे त्वकर्मण्याननयोर्थान्घोषयन्ति ये॥६६॥ सर्वेषां भोगिनां यास्तु सर्वा द्रविणसंपदः । ता ममैव न चान्येभ्यो भवन्त्वित्यतिबद्धयः॥६७॥ आसामनर्थमलान्ये कुर्वन्ति स्पृहया नराः। दुःखस्यान्तं न पश्यन्ति चिरं श्वाभ्रयां वसन्ति ते ॥६८॥ कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते केचिदत्युष्णभस्मसु । भृज्यन्ते तिलवत्केचिच्चय॑न्ते तुषवत्परे ॥ ६९ ॥ क्रकचैस्तुल्यनिभिन्ना खण्ड्यन्ते मर्मसन्धिषु । निस्तुद्यन्ते पुनः शलैस्ताड्यन्ते मसलैः परे॥७०॥ पीड्यन्ते तिलयन्त्रेषु इक्षुयन्त्रे तथापरे । चक्रयन्त्रैरथोद्भ्राम्य पातयन्ति रसातले ॥७१ ॥ शतधा खण्ड खण्डानि भूत्वान्ते क्लेशभागिनः । पतन्ति चण्डवेगेन पातालेष्वथ मच्छिताः ॥७२॥ CHGUI बराङ्ग चरितम् पञ्चमः सर्गः जो मनुष्य भोग उपभोगके किसी भी काममें न आनेवाले मुर्गा-मुर्गी, मेढे, विल्ला-विल्ली, नेवली-नेवला, लावक, कुत्ताकुत्ती आदि ऐसे पशु पक्षियोंको पालते हैं, जो कि मानसिक या शारीरिक जीवनके लिए सर्वथा निरर्थक हैं ।। ६६ ।। व्यर्थ परिपका फल जिनकी संसार भरके सम्पत्ति और विभव शालियों का जितना धन और सामग्री है वह सबकी सब मुझे ही प्राप्त हो जाय, किसी दूसरेके पास थोड़ी सी भी शेष न रह जाय ऐसी उत्कट इच्छा होती है।। ६७ ।। सांसारिक सम्पत्ति और भोग उपभोग सामग्रीको प्राप्त करनेके लिए आवश्यक सबही कुकर्मोको जो मनुष्य बड़े चाव और तत्परतासे करते हैं, वे जन्म-जन्मान्तरोंमें प्राप्त होनेवाले दुखोंका पार नहीं पाते है और बहुत लम्बे अरसेतक नरक-गतिमें ही सड़ते हैं ।। ६८॥ इनमेंसे कुछ लोगोंको नारकी घड़ेमें बन्द करके पकाते है, दूसरोंको अत्यन्त तपी बाल और राखमें उसी तरह भूजते हैं । जैसे धान्य भाड़में भुजते हैं तथा अन्य लोगोंको पीट पीटकर भूसेके समान चूर्ण कर देते हैं ।। ६९।। कुछ नारकी आरियोंसे चीरकर दो बराबर टुकड़े कर डालते हैं अथवा शरीरके मर्म (कोमल तथा जिनको पीटनेसे मोत हो सकती है ) स्थलों तथा जोड़ोंको किसी यन्त्रसे काटते हैं । अन्य नारकियोंकी गति और भी बुरी होती है क्योंकि वे भालोंसे कोंचे जाते हैं और बादमें मूसलोंसे कूटे जाते हैं ।। ७० ।। कुछ नारकी कोल्हुओंमें पेले जाते हैं तथा दूसरोंका दुर्दैव उन्हें गन्नेकी चरखीमें डाल देता है। अन्य लोग सदा घूमते हुए चक्रयन्त्रोंपर बैठा दिये जाते हैं, वहाँपर वे काफो देरतक तेजीसे घुमाये जाते हैं और अन्तमें बेगसे रसातलमें फेंक दिये जाते हैं ।।७१ ॥ शरीरके सैकड़ों टुकड़े हो जानेपर वे वेदनासे मूच्छितसे हो जाते हैं। इन अवस्थाओंको भरनेमें उन्हें दारुणसे दारुण । समस्त क्लेश सहने पड़ते हैं । यह सब हो जानेपर अन्तमें वे प्रचण्ड वेगसे खिसककर एक गत में गिर जाते हैं ।। ७२ ।। १. [अतश्रद्धया। २. म कृतजैस्तुल्य', [शल°] ३. म भूत्वा ते । EDIESEALTERIAL [९२] Jain Education interational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः पर्याप्तसर्वानाः सहसैव समुत्थिताः । विद्रवन्तो भयत्रस्ताः समारोहन्ति पर्वतान् ॥७३॥ ते शैलाच्छीर्यमाणानाचूर्णयन्त्यभिधावत:(?) । खादन्ति व्याघ्रसिंही गुहाभ्यस्तु विनिर्गताः॥ ७४ ॥ ततोऽवतीर्य पश्यन्तो भुजानान्पिबतो जनान् । याचमानाः शनैर्यान्ति क्षत्तष्णापरिमर्दिताः॥ ७५ ॥ बराङ्ग पञ्चमः चरितम् । तेऽभ्युत्थाय सुसंभ्रान्ताः पाद्यााद्यैर्यथाविधि । उपचारान्बहन्कृत्वा प्रयच्छन्त्युष्णपीठिकाः ॥ ७६ ॥ सुतप्तकृष्णलोहस्य गुलिकाः खण्डशः कृताः । यन्त्रविदार्य वक्रेषु क्षिपन्ति त्रस्तचेतसाम् ॥ ७७ ॥ शुष्कताल्वोष्ठजिह्वास्यान्निष्कृपास्तृषयादितान् । प्रतप्तताम्रमापात्य क्रन्दतः पाययन्ति तान् ॥ ७८ ॥ केचिदुष्णप्रतीकारं कुर्वन्त इव निर्दयाः । गलग्रहेण संगृह्य मज्जयन्त्युष्णवारिषु ॥ ७९ ॥ वहाँ गिरते ही थोड़ी देर में उनके शरीरके सब आंगोपांग फिरसे ठीक हो जाते हैं, तब वे अकस्मात् ही उठकर खड़े हो । जाते हैं लेकिन चारों ओरकी परिस्थितियोंको देखकर भय विह्वल हो जाते है और आत्मरक्षाके लिए भागते, भागते पर्वतोपरी चढ़ जाते हैं । पर्वतोंपरसे फेंके जानेके कारण पत्थरोंसे घिसकर उनके सबही अंग गलने लगते हैं फलतः वे दौड़ते जाते हैं और चिल्लाते रोते जाते हैं ।। ७३ ।। इसके बाद क्या होता है ? पर्वतकी गुफाओंसे सिंह, वाघ और रीछ निकलते हैं जो कि उन्हें खाना ही प्रारम्भ कर देते हैं ।। ७४ ॥ अन्य दुःख साधन तब वे पहाड़ोंसे भी भागते हैं और नीचे आकर देखते हैं कि कुछ लोग सुन्दर भोजन कर रहे हैं और दूसरे लोग बढ़िया शरबत आदि पो रहे हैं। वे स्वयं भी भूख और प्याससे चकनाचुर रहते हैं इसलिए धीरे-धीरे चलने लगते हैं और उन लोगोंसे भोजन-पान माँगते हैं ।। ७५ ।। वे लोग ( भोक्ता ) भी बड़ी त्वरा और आदरसे उठते हैं और माँगनेवालोंको विधिपूर्वक पैर धोनेको जल देते हैं। अर्घ अर्पण करके स्वागत करते हैं, इसके उपरान्त अनेक शिष्टाचार और आवभगतोंको करते है तथा अन्तमें अत्यन्त जलता हुआ । आसन बैठनेको दे देते हैं ।। ७६ ॥ उसपर बैठते ही उनके हृदय भयसे कांप उठते हैं किन्तु दुर्गति होती ही रहती है क्यों अन्य नारको खूब गरम किये गये लोहेके गोलोंको अनेक टुकड़ोंमें बांट देनेके बाद, भूखोंके मुखोंको यन्त्रोंके द्वारा फाड़कर उनमें ठूस देते हैं। यह होनेपर उनके तालु, जिह्वा और मुख बिल्कुल सूख जाते हैं।। ७७॥ न [१३] वे प्याससे दुखी होकर चिल्लाने लगते हैं, तब दूसरे निर्दय नारकी उनकी विनय, विलाप और पुकारको परवाह नही करके खूब तपाये गये ताम्बेके द्रव ( पानी ) को उनके मुख में भर देते हैं और बलपूर्वक पिलाते हैं ।। ७८ ।। वे नारकी कितने हृदयहीन और निर्दय होते हैं इसका पता इसीसे लग जायगा कि वे गर्मीके प्रतीकार करनेका For Private & Personal use only न Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अनेकोपद्रवाकी विषक्षारजलाविलाम् । नदी वैतरणी घोरा तारयन्ति समन्ततः ॥१०॥ तां नदी क्लेशतस्ती वनं पश्यन्ति पुष्पितम् । तद्वनान्तेषु यातेषु वायुरेकः प्रकुष्यति ॥१॥ प्रपतन्त्यसिपत्राणि अय:पिण्डफलानि च । विषमिश्राणि पुष्पाणि सद्यःप्राणहराणि च ॥ २॥ विशीर्णछिन्नभिन्नाङ्गा अधिरुह्योग्रवेदनाः । पतन्ति कण्टकाकीर्णे दिषदग्धे' महीतले ॥ ८३ ॥ विनिर्दह्यमानाङ्गा रसन्तर: करुणस्वनैः। भिन्दन्ति क्रियमोऽङ्गानि दशन्ति च पिपीलिकाः॥८४ ॥ कृष्णाः श्वानो विलम्पन्ति कर्षन्त्यसितवायसाः । दशन्ति कृष्णसपश्चि चूषयन्त्यथ मक्षिकाः॥८५॥ पञ्चमः सर्गः बहाना बनाकर तड़पते नारकियोंकी गर्दन सावधानीसे पकड़ लेते हैं और तुरन्त ही जलते हुए पानीमें शिरसे पैरतक डुबा देते हैं ॥ ७९ ॥ इतना ही नहीं वे चारों ओरसे रास्ता घेर लेते है और गरम जलमें तड़पते हुए नारकियोंको अत्यन्त घोर वैतरणी नदी, पार करनेके लिये वाध्य करते हैं। यह वैतरणी भीषण जलजर, भंवर आदि अनेक उपद्रवोंसे भरी है, इसका पानी भी विषमय हैं और इतना खारी है कि शरीर में जहाँ लगता है वहीं काट देता है ।। ८० ।। जब कोई अन्य गति ही नहीं रह जाती है तो नदीमें पड़े नारकी बड़े कष्टोंसे नदीके उस पार पहुँचते हैं। वहाँपर फलेफूले बगीचेको देखते हैं तो शान्ति पानेके लिए वनमें घुस जाते है। किन्तु ज्योंही वनके बीचमें पहुँचते है त्योंही हवा क्रुद्ध (तीव्रतम ) हो जाती है और भीषण आंधीका रूप ले लेती है ।। ८१ ।। वृक्षोंसे पत्ते गिरते हैं जो तलवारके समान काटते हैं, फल इतने भारी होते हैं मानों लोहेके गोले हो हैं और फूलोंमें तो विष ही भरा रहता है जो कि तुरन्त ही प्राण ले लेता है ।। ८२ ॥ वृक्षोंकी उक्त मारसे उनका सारा शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है अंग-उपांग कट छट जाते हैं ।। ८३ ।। सब दुःखमय तव वे प्राणरक्षाके लिए ही क्योंकि वेदना असह्य हो जाती है-उन पेड़ोंपर चढ़ जाते हैं। लेकिन चढ़कर बैठे नहीं कि धड़ामसे धधकती रहती है भूमि पर आ पहुँचे । भूमिके विषके संचारसे उनका समस्त शरीर जलने सा लगता है तब वे अत्यन्त करुण स्वरसे बुरी तरह रोते हैं। पर सब व्यर्थ क्योंकि वहाँपर दीमक-आदि कृमि उनके शरीरको नष्ट करती है और चींटियाँ जोरसे काटती हैं ।। ८४ ।। इतना ही नहीं काले-काले कुत्ते आकर उनको चौड़ना फाड़ना शुरू कर देते है। अशुभ कृष्ण काक उनके अगोंको चोंचोंसे खींचते हैं, काले, कालकूट विषपूर्ण भीषण सर्प डसते हैं और विचित्र मक्खियां उनका रक्त पीती हैं ।। ८५ ।। १. म विसदग्धे । २. रुशन्तः करुणास्वरः। ३. म हर्षन्त्यसितवायसाः । SHAHIRATRAPATHAHAPAALHARIHARANAINA Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् पुनरन्तमहर्तेन सर्वपर्याप्तविग्रहाः। असातवेदनीयस्य पाकतः संभवन्ति ते ॥८६॥ नेत्रैः पश्यन्त्यनिष्टानि श्रोत्रैः शृण्वन्ति दुःस्वरान । घ्राणेंजिनन्ति दुर्गन्धान स्पृशन्त्यश्च कर्कशान् ॥८७॥ आस्वादन्ते' निरास्वादान् जिह्वाभिगतसत्क्रियाः । इन्द्रियार्थैरकल्याणाकुलीकृतचेतसः ॥ ८॥ नोदासीना न मित्राणि न प्रिया न च बान्धवाः । सर्वत्र नरकावासे सर्व एवापकारिणः ॥ ८९॥ विनिपातसहस्राणि प्रापयन्तः कृतागसः । बाधन्ते क्रोधसंरब्धा आचतुर्थ्यादितोऽसुराः॥ ९०॥ आसुरं भावमाश्रित्य रागविष्टब्धचेतसः । एकत्र स्थापयित्वा तान्योधयन्ति परस्परम् ॥ ९१॥ पञ्चमः सर्गः याच TAGSETIMEGETAHARITRAPATEGORIGAR यह सब हो जानेपर भी एक मुहूर्तसे भी कम ( अन्तर्मुहूर्त ) समयमें उनके शरीरके सब अंग जुड़ जाते हैं तथा शरीर । पूरा हो जाता है। यह भी इसीलिए होता है कि उनके असातावेदनीय कर्मका परिपाक उक्त वेदनाएं सहनेपर भी पूरा नहीं। होता है अतएब और वेदनाएं सहनेके लिए ही वे जीवित रहते हैं ।। ८६ ।। कृतसे मुक्ति नहीं उनकी आंखें यदि कुछ देखती हैं तो वह सब अनिष्ट ही होता है, कानोंके द्वारा सुने गये स्वर भी अत्यन्त कर्णकटु और बुरे होते हैं नाकसे जो कुछ सूघते, वह सब दुर्गन्धमय हो जाता है, हाथ पैर आदिसे जो जो वस्तु छूते हैं वही कठोर और कष्टप्रद 7 मालम देती है ।। ८७ ॥ और जिह्वाके द्वारा जिस किसी पदार्थको चखते हैं वही सर्वथा बेस्वाद हो जाती है। मानों कोई अच्छा इन्द्रिय-व्यापार करनेको शक्ति ही उनमें नहीं रह जाती है इसीलिए सब इन्द्रियोंके द्वारा अकल्याण करनेवाले विषयोंको पाकर उनका चित्त अत्यन्त खिन्न और व्याकुल हो उठता है ।। ८८ ॥ नरकलोकमें मध्यलोककी भाँति न तो ऐसे लोग मिलते हैं जिन्हें किसीके भले बुरेमें कोई रुचि हो, न हो और न ऐसे ही सज्जन होते हैं जो मित्रता करें। हितैषी, प्रियजन तथा बन्धुवान्धवकी तो संभावना ही क्या है ।। ८९ ॥ असुरकुमार __ वहाँपर जिससे भी पाला पड़ता है वही अपकार करता है फलतः सब ही शत्रु होते हैं। और तो कहना ही क्या है असुर । जातिके देवता तक प्रथम नरकसे चौथे पर्यन्तके नारकियोंको तरह तरहसे कष्ट देते हैं। वे स्वयं क्रोधके आवेशमें आकर उन्हें हजारों पतनोंकी ओर ले जाते हैं और इस प्रकार स्वयं भो पाप ही कमाते हैं ।। ९ ।। इन असुरकुमार देवोंके चित्त रागके द्वारा जड़ ही हो जाते हैं इसीलिए उनके भावोंमें असुरों ऐसी निर्दयता, क्रोध । A आदि आ जाते हैं । परिणाम यह होता है कि उन्हें एक जगह बैठा लेते हैं और आपसमें एक दूसरेके विरुद्ध समझाते है ॥ ९१ ।। १. क आस्वादन्ति, [आस्वादन्ते ] । शक्ति ही उनमें नहीं उठता है ॥ ८॥ लोग मिलते हैं । EEZARRENEURS [९५] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः वराङ्ग चरितम् कांश्चिच्छाल्मलिमारोष्य जन्मसंबन्धवैरिणः । अधश्चोध्वं च कर्षन्तः पातयन्ति भूशं महः॥१२॥ उदारा रुरुवक्षांसि तेषां भिन्दन्ति कण्टकाः । अधस्ताज्ज्वालयन्त्यग्नि ग्रसन्स्युपरि राक्षसाः ॥ ९३ ॥ कङ्कः काकैश्च तुद्यन्ते मशकाश्च दशन्ति तान् । भोषयन्ते पिशाचाश्च भत्संयन्त्यसुराः पुनः ॥९४ ॥ एवं पापविपाकेन दुःखान्येषां समश्नुताम् । नारकाणां पुनस्तत्र शीतोष्णमतिदुस्सहम् ॥ ९५ ॥ नरकादुष्णबाहुल्यान्नारकश्चेद्विनिर्गतः । प्रावेक्ष्य(?) ग्रीष्ममध्यान्हे वन्हि सुखमलप्स्यतः ॥९६॥ तथैव शीतबाहुल्यात्प्रावक्ष्य चेद्विनिर्गतः। तुषारराशिहेमन्ते वरं सुखमलप्स्यतः ॥ ९७ ॥ लभेत जलधोन्सर्वान्पिबेदत्युष्णतृष्णया । उदरं यदि गृहीयान्नोपशाम्यति तत्तृषा ॥ ९८॥ सर्गः SearesmereSRepeasamepre- se-sweepepeSTRE-UPSear तब वे अपने पूर्वभवोंके कुछ वैरियों या अहितुओंको भीषण सेमरके पेड़ोंपर बैठा देते हैं। इसके बाद खब जोरसे नीचे ऊपर खींचते हैं और बिना किसी विचारके पुनः-पुनः नीचे गिरा देते हैं ।। ९२॥ इस खींचातानीमें उन नारकियोंके प्रबल और खुले वक्षस्थलोंको बड़े लम्बे और नुकीले काँटे छिन्न-भिन्न कर देते हैं। वे नीचे भी नहीं आ सकते हैं क्योंकि उनके वैरी नीचे आग जला देते है। यदि ऊपर जाते हैं तो भी कुशल नहीं क्योंकि वहाँ राक्षस खा जाते हैं ।। ९३ ।। गीध और कौए चोचें मार-मार कर ही नोच डालते हैं, डाँस और मच्छर काट-काटकर सारे शरीरको फूला देते हैं, पिशाचों से भी बढ़कर भीषण नारकी चारों ओरसे डराते हैं और यदि आपसी युद्धसे विरत हों तो असुरकुमार देवता डाटते हैं ।। ९४ ॥ इस प्रकारसे नारकी अपने पूर्व जन्मोंमें किये पापोंके फलस्वरूप नाना प्रकारके दारुण दुःख भरते हैं । किन्तु इतनेसे ही हम उनके कष्टोंका अन्त नहीं हो जाता है ? कारण नरकोंका शीत और उष्ण वातावरण ही उन्हें दुःख देनेके लिए आवश्यकतासे अधिक है ।। ९५॥ वातावरण जन्य महादुःख वहाँकी गर्मी और ठंड दोनों ही असह्य होती है। यदि कोई नारकी किसी तरह उस नरकसे निकल सके जिसमें गर्मी बहुत पड़ती है तथा इसके बाद मध्यलोककी ग्रीष्म ऋतुको तीक्ष्ण दुपहरीमें उसे जलती ज्वालामें घुसेड़ दिया जावे, तो भी निश्चित है कि वह अपनेको सुखी समझेगा ।। ९६ ।।। जिस वरफमें पूर्ण शीत पड़ता है, यदि उसमेंसे किसी नारकोको निकाला जाय और हेमन्त ऋतुमें उसे बरफके ढेर में तोप दिया जाय तो, इतना निश्चित है कि वह उस अवस्थामें भी अपनेकी सुखी पायेगा ।। ९७ ।। उनकी प्यास इतनी दाहक होतो है कि यदि वे किसी तरह सब समुद्रोंको पी जाँय तो उस प्यासमें गटागट पी जायगे । इतना पानी पीनेपर संभव है कि उनका पेट भर जाय पर पिपासाकी वह दाह तो शान्त होती ही नहीं है ।। ९८ ॥ 4. [अलप्स्यय ]। IASPERSaRSarasREELCELalitDEURALItna [९६] Jain Education international Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् यानि लोकेषु सर्वेषु फलपर्णतणानि च । भक्ष्यन्ते चेत्तथा चापि क्षुदग्निर्नोपशाम्यति ॥ ९९ ॥ एवं बहुप्रकारेस्तु दुःखान्याप्नुवतां भृशम् । सुखनामापि भूपाल नारकाणां न विद्यते ॥१०॥ पालयित्वा महीं कृत्स्नामुपभुज्यात्मनः श्रियम् । चक्रवर्ती प्रयातीति नरकं कोऽत्र विस्मयः॥ १०१॥ मनसैव विचिन्त्यात्र विविधा भोगसंपदः । मनश्चक्रधर' श्वाभ्रों प्रयातीत्येष विस्मयः ।।१०२॥ क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयंभुरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषादधोगतः॥ १०३ ॥ सप्तम्यां तु त्रयस्त्रिंशत् षष्ठयां द्वाविंशतिः स्मृताः। पञ्चम्यां दशसप्तैव चतुर्थ्या दश वर्णिताः ॥ १०४॥ तृतीयायां तु सप्तव द्वितीयायां त्रयः स्मृताः । प्रथमायां भवत्येकः सागरः संख्ययायुषः ॥ १०५॥ पञ्चमः । सर्गः SaamaARISHAILESEcondiaRenaissanamratarnaSR तीनों लोकोंमें जो अपरिमित फल फूल हैं, पत्ते हैं और घास है वह सब यदि किसी तरह कोई नारको पा जाय और खा जाय तो भी उसकी भूखकी ज्वाला जरा भी शान्त न होगी। ९९ ।। हे राजन् ! आपने देखा कि उक्त प्रकारसे नारकी जीव अनन्त प्रकारके दारुणसे दारुण दुःख भरते हैं और वह भी, बिना अन्तरालके सहते हैं क्योंकि नरकोंमें मुखको तो बात ही क्या है, विचारे नारको सुखके नामको भी नहीं जानते हैं ।। १००॥ परिग्रह नरकका कारण है जो चक्रवर्ती सम्पूर्ण पृथ्वोका न्याय और शासन द्वारा पालन करता है तथा अपने पुरुषार्थ और पराक्रमसे प्राप्त संसारकी समस्त विभूतियोंका भोग करता है। वही पापकर्मों के विपाकसे नरक जाता है इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।। १०१॥। जो पुरुष इस भवमें मनके द्वारा संसारकी समस्त विभूतियों तथा भोगोपभोग सामग्रीको सोचता रहता है और मानसिक परिग्रह बढ़ाता है, वह मानसिक ( कल्पनाका ) चक्रवर्ती भो सीघा नरक जाता है। यही आश्चर्यका विषय है ।। १०२॥ पुराण बतलाते हैं कि स्वयंभूरमण महासमुद्रमें एक इतनी बड़ी मछली है जो एक द्वीपके समान है। इस महामत्स्यके । कानमें एक छोटा-सा मच्छ रहता है जिसका यही ध्यान रहता है कि यदि वह बड़ा मत्स्य होता तो सब जल-जन्तुओंको खा जाता । इस दूषित कल्पनाके कारण ही वह घोर नरक गया है ।।१०३।। __ सप्तम नरक महातमाप्रभा पृथ्वीमें तेतोस सागर उत्कृष्ट आयु है, छठे नरकमें बाईस सागर आयुका प्रमाण है, पाँचवें नरकमें नारकियोंकी लम्बीसे लम्बी आय सत्तरह सागर ही है, जो कि चौथे पंकप्रभा नरक में दशसागर हो उत्कृष्ट है ।। १०४ ।।। नरकाय बालुका प्रभा नरक में अधिकसे अधिक आयु सात सागर हो है, दूसरी पृथ्वी वंशापर पैदा होने वाले नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु तीन सागर होती है और प्रथम धर्मा पृथ्वीपर जन्मे नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु एक सागर है ॥ १०५ ।। [१७] १. म चक्रधरः। २. [ स्वयंभूरमणोदधौ]। . Jain Education internation३३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः बराङ्ग चरितम् सर्गः दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां जघन्यतः । उपयु परि योत्कृष्टा सैवाधोऽधो जघन्यकः ॥ १०६॥ चिरकालं तु दुःखानि नारका नरकालये। अपवायुषो यस्मात्प्राप्नुवन्ति ततो भृशम् ॥१०७॥ सुखं निमेषतन्मात्रं नास्ति तत्र कदाचन । दुःखमेवानुसंबन्धं नारकाणां दिवानिशम् ॥ १०८॥ इत्येवं नरकगतिः समासतस्ते संप्रोक्ता बहबिधयातनामिदानीम् । तैरश्चों गतिमत उत्तरं प्रवक्ष्ये नियंग्रः शृणु नरदेव सत्वबुद्धया ॥ १०९ ॥ श्वानीणां तिमिरगुहासु तासु दुःखं पापिष्ठाश्चिरमनुभय कर्मशेषात् । तैरश्ची पुनरथ संभजन्त्ययद्रास्तत्रापि प्रतिभवदुःखमेव शश्वत् ॥ ११०॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते नरकगतिभागो नाम पञ्चमः सर्गः। Prepresenexpre-meatmemarSTREERe-umenexpresummateSTREASURESSURE-STEST प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वीपर जघन्य आयुका प्रमाण केवल दस हजार वर्ष है। इसके आगे अगले नरकोंमें ( यथाबंशामें ) उससे पहिले नरक (धर्माकी ) की उत्कृष्ट आयु ( एक सागर ) ही जघन्य होती है ।। १०६ ।। नरकमें अकाल मृत्यु नहीं कुकर्मोके पाशमें पड़े विचारे नारको बडे-बडे, लम्बे अरसे तक उक्त प्रकारके दारुण दुःखोंको वहाँ जन्म लेकर भरते हैं उन्हें अकाल मत्यु द्वारा आयके बीच में भी छट्री नहीं मिलतो है क्योंकि उनको आय किसी भो तरह कम नहीं होती है, फलतः अपवत्यं ( अकाल मृत्यु) की संभावना न होनेसे उन्हें दारुण दुःख भरने पड़ते हैं ।। १०७ ।। पलक मारनेके समयमें जितना सुख हो सकता है उतना सुख भी नहीं होता है उन्हें तो दिन रात बिना अन्तराल या व्यवधानके लगातार दुःख ही दुःख मिलता है ॥ १०८॥ हे नरदेव ? इस समय मैंने उक्त प्रकारसे अत्यन्त संक्षेपमें आपको नरकगति तथा वहाँ होनेवाली नानाप्रकारकी यातनाओंको समझाया है। इसके उपरान्तमें आपको तिर्यञ्चगतिके विषयमें कहता हूँ इसलिये दुविधाको मनसे निकालकर शुद्ध बुद्धिसे उसे सुनो ॥ १०९ ॥ महापापी जीव नरक गतिके घोर अन्धकार पूर्ण गुफा समान बिलोंमें चिरकालतक उक्त विविध दुःखोंको सहकर भी जब सब पापकर्मोका क्षय नहीं कर पाते हैं तब वे अभागे जीव मरकर तिर्यञ्चगतिमें उत्पन्न होते हैं । वहाँपर भी वे भव-भवमें लगातार दुःख ही दुःख भरते हैं ।। ११०॥ चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें नरकगति भागनाम पञ्चम सर्ग समाप्त १. [ संबद्ध । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् PART-नाममा षष्ठः सर्गः अथैवमुर्वीपतये मनीन्द्रः प्रारब्धवान्वक्तुमतस्तिरश्चाम् । गतेविभाग बहुदुःखघोरमीषल्लधुत्वं नरकादसह्यात् ॥१॥ तिर्यक्त्वसामान्यत एकमेव स्थानप्रभेदाच्चा चतुर्दशाहुः।। कायातषडेवेन्द्रियतश्च पञ्च गुणाश्चर पञ्चैव वदन्ति तज्ज्ञाः॥२॥ एकेन्द्रियाः स्थूलतमाश्च सूक्ष्माः पर्याप्तकास्तद्विपरीतकाश्च । द्वित्रीन्द्रियास्ते चतुरिन्द्रियाश्च पर्याप्त्यपर्याप्तियुतास्त्रयस्तु ॥ ३ ॥ चाचा- स षष्ठ सर्ग तिर्थञ्चप योनि इसके उपरान्त तपोधन मुनियोंके गुरु श्रीवरदत्तकेवलीने पृथ्वीके पालक राजा धर्मसेनको निम्न प्रकारसे तियंञ्च-गति' और उसके भेदोंको कहना प्रारम्भ किया था। तिर्यञ्चगति भी विविध प्रकारके अनेक दुःखोंके कारण अत्यन्त भयानक हैं तथा उन । असह्य दुःखोंके आयतन (धर ) नरकोंसे प्राणियोंको पीड़ा देनेमें थोड़ी ही कम है ।। १ ।। सामान्यरूपसे केवल तिर्यञ्चपने ( तिर्यक्त्व ) की अपेक्षासे विचार करने पर तिर्यग्गतिका एक हो भेद होता है, जहाँ छ तिर्यञ्चोंका निवास या जन्म है उन स्थानोंकी अपेक्षा चौदह भेद होते हैं, कायकी अपेक्षा तिर्यञ्च छह प्रकारके हैं, इन्द्रियोंको प्रधानता देनेसे तिर्यञ्चोंके पांच ही भेद हैं । इस प्रकार तिर्यग्गतिके विशेषज्ञ गुणोंकी अपेक्षा भी तिर्यञ्चोंको पाँच ही राशियोंमें धिभक्त करते हैं ॥२॥ S चाचELESALA स्थान भेद ERSIR स्थानकी प्रधानतासे चौदह भेद ये हैं :-एकेन्द्रिय तिर्यञ्च, इसके भो दो भेद, स्थूल-एकेन्द्रिय और सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, यह दोनों भी दो प्रकारके होते हैं पर्याप्त और इसका उल्टा अर्थात् अपर्याप्त । दो इन्द्रिय, तोन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय धारी ये तीनों प्रकारके तिर्यञ्च भी, पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं ।। ३ ।। १. क प्रभेदश्च । २. [ गुणाच्च ] । १. नारकी, मनुष्य तथा देवोंको छोड़कर शेष प्राणिजगत मोटे तौरसे पशुपक्षी योनि । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् पर्याप्त्यपर्याप्तकसंक्यसंज्ञाः पञ्चेन्द्रियास्ते च चतुष्प्रकाराः । भूम्यम्बुवाय्वग्निवनत्रसानां कायश्च षड्जीवनिकायमाहः॥४॥ भूयम्बुवाय्वग्निमयास्तु जीवा भवन्ति लोके गणनाव्यतीताः। वनस्पतीनामसवस्त्वनन्ताः स्पर्शात्सुखं दुःखमथो विदन्ति ॥ ५॥ शलाक्षक्षिक्रिमिशक्तिकाद्यास्ते द्वीन्द्रियाः स्पर्शरसौ विदन्ति । पिपीलिकामतकूणवश्चिकाद्यास्ते त्रीन्द्रियाः स्पर्शरसौ च गन्धम् ॥ ६ ॥ पतङ्गषट्पाद्मधुमक्षिकाद्याः स्पर्श रसं गन्धमथापि रूपम् । मगोरगाण्डोद्धवतोयजाद्याः शब्देन पञ्चेन्द्रियजातयस्ते ॥७॥ षष्ठः सर्गः GIRLमाजच्यामचमाता ISSAGEGARDERatoParuaa पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके दो भेद होते हैं संज्ञो (मन सहित ) और असंज्ञी, ये दोनों भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक, फलतः पंचेन्द्रियके भी चार भेद होते हैं। इस प्रकार सब ( एकेन्द्रिय चार, दो, तीन, चार इन्द्रिय प्रत्येक दो छः और पंचेन्द्रिय ४ ) मिलाकर चौदह होते हैं। षटकाय जीवोंके समुदायका निवास पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और (दो इन्द्रिय आदिके ) त्रस शरीरमें होता है, । अतएव इन्हीं छहको षड् जीवनिकाय कहते हैं ।। ४ ।। स्थावर तिर्यञ्च ___ इस संसारमें पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक और अग्निकायिक स्थावरजीव' असंख्यात हैं, उन्हें लौकिक गणनाके उपायों द्वारा गिना नहीं जा सकता है किन्तु वनस्पतिकायिक जीवोंका परिमाण अनन्त हैं। पृथ्वी आदि पाँचों शरीरोंके धारक जीवोंके सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है । फलतः छुये जानेपर या छूकर ही वे सुख और दुःखका अनुभव करते हैं ।।५।। त्रस तिर्यञ्च । नदी आदि स्थलोंपर पाये जानेवाले शंख, घंघे, सीप, कुक्षि, केंचआ आदि कृमि इत्यादि प्रकारके प्राणियोंके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं अतएव वे स्पर्श और रस इन दो विषयोंको ही भोगते हैं । चींटी, खटमल, विच्छू आदिके वर्गके जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होते हैं। ये स्पर्श, रस और गन्धका अनुभव करते हैं ॥ ६॥ पतंग, भ्रमर, मधुमक्खो ततैया आदिकी जातिके जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। ये स्पर्श रस, गन्ध और रूपका साक्षात्कार करती हैं। हिरण, साँप, अण्डोंसे जन्म लेनेवाले पक्षी तथा जन्तु, जलमें उत्पन्न हुए १. जा जाब चल नहा सकत । २. जा चल ते-फिरते हैं, पृथ्वो, अप, वायु, अग्नि तथा वनस्पतिके अतिरिक्त प्राणिमात्र । For Privale & Personal Use Only T [१०० REATREATRE Jain Education international Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् एकेन्द्रियत्वं प्रतिपद्य जीवा नानाविधाश्छेदनभेदनानि । विमर्दनोत्तापनहिंसनानि सवेदनादीन्यवशाः सहन्ते ॥८॥ प्रपिष्यमाणाश्च विदार्यमाणा विशीर्यमाणा विविधप्रकारैः। प्रपोड्यमाना बहशोऽपि जीवा द्वितीन्द्रियाद्या वधमाप्नुवन्ति ॥९॥ ज्वलन्महादीपशिखां प्रविश्य प्रदह्यते नेत्रवशात्पतङ्गः। घ्राणेन्द्रियेष्टान्विषषष्पगन्धानाघ्राय नाशं भ्रमराः प्रयान्ति ॥ १०॥ क्रव्यावगीतध्वनिनावकृष्टा मृगा वराकाः खलु वागुरासु। निपात्य घोरैरुपहन्यमानास्त्यजन्ति सद्यः प्रियजीवितानि ॥ ११॥ माल्याच्या जन्तु आदिके सजातीय जीवोंके पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं। तथा वे पूर्वोक्त चारों विषयोंके सिवा शब्दका भी साक्षात्कार !! करते हैं।॥७॥ स्थावर दुःख जो जीव एकेन्द्रियत्वको प्राप्त करके एकेन्द्रिययुक्त जीवोंके वर्गोंमें उत्पन्न होते हैं, विचारे अपनी रक्षा करनेमें भो असमर्थ हो जाते हैं । वे नाना तरहसे छेदे जाते हैं, उनको विविध प्रकारसे भेदा जाता है, वे पीसे जाते हैं और जलाये जाते हैं, तो भी दारुण वेदनामय यह सब अत्याचार उन्हें सहने हो पड़ते हैं। दो, तीन आदि इन्द्रियधारी जीवोंकी भी पूरे जोरसे पिसाई होती है।॥८॥ सपर्याय दुःख वे भी तरह-तरहसे काटे जाते हैं, उनको भी विविध प्रकारसे सड़ाया गलाया जाता है तथा उन्हें उत्कटसे उत्कट । पीड़ा देनेके ढंग भी एक दो नहीं बहुत अधिक हैं। यह जीव भी इन सब दु-खोंको भरते हुए तरह-तरहसे मौतके मुख में जा पड़ते हैं ।। ९॥ नेत्रेन्द्रियका कुपरिणाम नासिका कुपरिणाम चार इन्द्रियधारी पतंग नेत्र इन्द्रियका विषय अधिक प्रिय होनेके कारण जोरोंसे जलते हुए बड़े दीपकको शिखापर दौड़ता है और उसमें घुसकर बिल्कुल भस्म हो जाता है चार इन्द्रियधारी जीवोंमें भोरेको घ्राण इन्द्रिय प्रधान होती है। इस इन्द्रियको प्रिय फूलोंपर विचरता हुआ वह विषले फूलों को भी सूघता है और इस प्रकार अपने नाशके साधनोंको जुटाता है ।। १० ।। कर्णेन्द्रियका कुफल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च हिरणकी कर्ण इन्द्रिय प्रबल होती है। वे मांसाहारी व्याघ्र, (शिकारी ) आदिके मधुर गीतकी । ध्वनिपर आकृष्ट होकर अपने आपको उसके जालके फंदोंमें डाल देते हैं। उसके बाद निर्दय बहेलियोंके द्वारा मारे जानेपर विचारे च्यामाचरन्ज न Jain Education international For Privale & Personal use only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् प्रसन्नतोयेषु सरस्सु मत्स्याः संक्रोडमामा रसमप्रसक्ताः । ग्रस्तामिषास्त्रस्तशरीरचित्रास्सवेदनास्ते सहसा नियन्ते ॥ १२॥ वन्याः करीन्द्राः सुखमाप्तुकामाः करेणुगात्राभिरतिप्रसक्ताः । तोदप्रकारैरभिहन्यमाना विचेतसोऽरण्यसुखं स्मरन्ति ॥ १३ ॥ एते त्वथैकेन्द्रियसंगदोषादलब्धकामाः प्रलयं प्रयान्ति । सर्वेन्द्रियाणां वशमभ्युपेता नश्यन्ति जीवा इति कः प्रवादः ॥ १४ ॥ खरोष्ट्रहस्त्यश्वतराश्च गोणा भूमीश्वराणामिह वाहनार्थम् । अत्यर्थभारातिनिरोधखिन्नाः क्षत्तश्रमाः क्लेशवध भजन्ते ।। १५ ।। HORIPATHAawesomeHEESearestmensiderestmemesese-symments अपने प्रिय जीवनोंसे भी सहसा हाथ धो बैठते हैं । ११ ।। ___ जिह्वालौल्यका फल नदी, तालाब आदि जलाशयोंके निर्मल जलमें आनन्द विहार करनेवाले मछली, मगर आदि जलचर रसना इन्द्रियके वशमें होकर धीवरके जालमें बँधे मांसपर मुंह मारते हैं, किन्तु उसे मुखमें देते ही उनका रंग बिरंगा सुन्दर शरीर ही ढोला पड़ जाता है क्योंकि माँसकी जगह लोहेका काँटा उनके मुखमें फँस जाता है, तब वे असह्य वेदनाको सहते हुए अपनी जीवनलीला समाप्त करते हैं ॥ १२॥ कामपरायणताका कूफल जंगलमें विचरते मस्त हाथियोंको हथिनियोंके साथ कामलीला करनेकी उत्कट अभिलाषा रहती है अतएव काठ कपड़ेसे बनी हथिनीसे कामसुख प्राप्त करनेके प्रयत्नमें वे बन्धको प्राप्त होते हैं। किन्तु जब उनको नाना प्रकारसे अंकुश आदि शस्त्रों द्वारा कोंचा जाता है तब उनका चित्त दुखी हो उठता है और वे मन ही मन जंगलकी स्वतन्त्रता आदि सुखोंका ध्यान करते हैं ।। १३ ॥ इन्द्रिय विषय लोलुपताका फल पहिले कहे गये सब ही जीव केवल अपनी एक ही इन्द्रियके विषयमें अत्यन्त लम्पट होते हैं तो भी परिणाम यह होता। है कि अपने परम प्रिय विषयको विना पाये ही वे नष्ट हो जाते हैं। सब इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त होनेपर जीवोंका समूल नाश हो जाता है। इसमें कौन-सी अतिशयोक्ति है, क्योंकि उक्त प्रकारकी सर्व-आसक्तिका नाश अवश्यंभावी फल है ।। १४ ।। वाहन तिर्यञ्च | पृथ्वीके पालक, राजा महाराजाओंकी सवारीके लिए पकड़े गये हाथी घोड़ा, ऊँट, गधे, खच्चर आदि पशुओंपर बेशु१. [°श्रमक्लेशवधान् । [१०२] . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् weeRAPHERamerapressureesresumesiresaweetie विचित्रसंकल्पिततीव्रबन्धैर्दण्डाङ्कुशैस्तोत्रकशाप्रहारैः । प्रपीडनोत्ताडनवाहबन्धैर्दु :खान्यनेकानि समश्नुवन्ति ॥ १६ ॥ केचित्पुनः पाशनिबद्धकण्ठाः केचिन्महापञ्जररुद्धकायाः। पदेषु केचिदृडरज्जुबद्धा विनष्टसौख्या गमयन्ति कालम् ॥ १७ ॥ कपिज्जला लावकवर्तकाश्च मयूरपारावतटिट्टिभाद्याः।। नभश्चराः पादविलग्नपाशा नश्यन्ति पापैरभिहन्यमानाः ॥१८॥ बका बलाका जलकुक्कुटाश्च क्रौञ्चाः सकोरण्डवचक्रवाकाः। जलाश्रयोपाश्रयजीविनस्ते भृशं सहस्तेषु वधं प्रयान्ति ॥ १९ ॥ -मार वजन लादा जाता है, उनको खाने, पीने आदि कष्टों के सिवा सब तरहसे बड़ी कड़ाईसे रोका जाता है। उन्हें यदि इन्हीं क्लेशों और परिश्रमोंको सहना पड़ता तब भी दुर्दशा अन्तिम मर्यादा तक न पहुँचती। लेकिन उन्हें तो भूख प्यास और । अन्तमें अकाल मृत्यु भी सहनी पड़ती है ॥ १५ ॥ वे विचित्र, विचित्र प्रकारके कड़े बन्धनोंसे कसे जाते हैं, उन पर डंडों, अंकुशों, चावुकों, रस्सियों आदिकी धड़ाधड़ मार पड़ती है, तरह-तरहसे उन्हें पीड़ा दी जाती है, उन्हें मारने पीटनेके ढंग भी निराले ही होते हैं, भार लादते समय उनकी शक्तिका ख्याल भी नहीं किया जाता है और बन्धनके दुखोंको तो बात ही क्या है, इस प्रकार विचारे अनेक दुःख भरते हैं॥१६॥ किन्हीं भोले भाले तिर्यञ्चोंके गले में मोटी रस्सीकी फांस बाँध दी जाती है, दूसरे निरपराध पशु-पक्षी अत्यन्त दृढ़ और विशाल पिंजड़ोंके भीतर डाल दिये जाते हैं और अन्य अनेक पशुओंके पैरोंको अकाट्य रज्जुसे बाँध दिया जाता है। तब ये सबके सब प्राणी अपने इन्द्रिय सुखोंसे वञ्चित होकर किसी तरह जीवनके दिन व्यतीत करते हैं ।। १७ ।। नभचर तियंञ्च आकाशमें स्वैर विहार करनेवाले कबूतर, लावक, वर्तक, मोर, कपिञ्जल, टिटिभ आदि पक्षी कुछ दानोंके लोभसे जालपर बैठते हैं और अपने पैरोंमें पाश लगने देते हैं, अन्तमें ये सब निर्दोष तिर्यञ्च पापाचारो आखेटकोंसे निर्दयतापूर्वक मारे जाते हैं और जीवनसे हाथ धोते हैं ।। १८॥ ___ नदी, नाला, तालाब आदि जलाशयों या उनके आस-पासके स्थानोंमें सुखसे जीनेवाले बगुला, सारस, पानोकी मुर्गियां, क्रौञ्च, कारण्डव तथा चक्रवाक पक्षी भी किसी अपराध या इन्द्रिय लोलुपताके बिना ही निर्दय पापाचारी लोगोंके हाथ मारे जाते हैं ।। १९ ॥ १. म कोरण्डक°, [कारण्डब]। २. [ नृशंस॰] । FunारमाराचESUGRE-RE-EFFEIRELES somenerpreviews [१०३] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् क्षुधाभिभूतास्तु तिमिनिलाद्या ग्रसन्त्यथान्योन्यमनल्पकायाः। खगा खगांश्चापि मृगा मृगांश्च परस्परं नन्त्यबलान्बलस्थाः ॥ २० ॥ अहो बराका हरिणाः शशाश्च वृका बराहा रुरवः कुरङ्गाः । यह वीलिकाद्याः(?) परिपुष्टकाया त्वङमांसहेतोविलयं प्रयान्ति ॥ २१ ॥ केचित्पुनः शुष्कगलोष्ठजिलास्तृषाग्निनान्ताः प्रविदह्यमानाः। संशष्कपर्णोपनिपातभीता विश्वस्तचित्ता न तुणं चरन्ति ॥ २२ ॥ निपातदेशेष्वभिलीनकार्याधः समुत्त्रासितचेतसोऽन्ये । छायां विदेहस्य विशङ्कमानाः सुखेन पातुं न पयो लभन्ते ॥ २३ ॥ rateeIResomemadeepesameep-speeRESTRamespense- anus जीवो जीवस्य मक्षणम् भूखसे आकुल हो कर मछली, मगर आदि जलचर जीव अपनेसे छोटे मछली, कच्छप आदिको आपसमें ही निगल जाते हैं । आकाशचारो प्रबल पक्षी भी अपनेसे कमजोर पक्षियोंको मार डालते हैं। वनविहारी अधिक बलिष्ठ हिरण दुर्बल हिरणोंकी भी इहलीला समाप्त कर देते हैं ॥ २० ॥ कितने दुःखका विषय है कि विचारे हिरण, सियार, सुअर, वृक, रूरुव, हिरण, न्यह, वोलक आदिके वर्गके कितने हो पशु जिनके शरीर अत्यन्त स्वस्थ और सुन्दर होते हैं, वे केवल खानेके लिए उत्तम मांस और सुन्दर चमड़ेके लिए ही इस पृथ्वीपरसे लुप्त कर दिये जाते हैं ॥ २१ ।। भयपूर्ण तिर्यञ्च योनि यह पशु, पक्षी इतने भयभीत हो जाते हैं कि प्यासरूपी अग्निसे उनका शरीर भीतरसे जलने-सा लगता है, बाहर भी उनके गले, जीभ और ओठ सूखकर लकड़ीसे हो जाते हैं, तो भी वे शान्त चित्तसे न पानी ही पीते हैं और न घास चरते हैं। वृक्षपरसे गिरते हुए सूखे पत्ते का शब्द भी उन्हें डरा देता है ।। २२ ।। .पहाड़ी झरनों या अन्य जलाशयोंके आसपास अपने शरीरको पूर्णरूपसे छिपाकर शिकारी बैठ जाते हैं तथा पानी पीने आये पशु पक्षियोंको अचानक मार डालते हैं, इन बहेलियोंसे वन्य पशु इतने डर जाते हैं कि वे अपनी परछांयीको भी बहेलिया समझ लेते हैं इसीलिए निश्चिन्त होकर वे पानी भी नहीं पी सकते हैं ।। २३ ॥ SHIPesmerememessprenestreemememe-spreapanesameapaapanesmeenawe IRE 7 १. [बलिष्ठाः]। २. कन्यहेलिकाद्याः। ३. [ स्वदेहस्य ] । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग बरितम् PAILIPARASHARAM क्रव्यादवगैरनुवाच्यमानाः केचित्प्रधावन्त्यनवेक्ष्य शावान् । वित्रस्तनेत्राः प्रतिनष्टचेष्टाः केचिद्धयाश्चि मुखे पतन्ति ॥ २४ ॥ बृहत्पृषत्कः प्रविदारितासाः प्रविष्य केविद्गिरिगह्वराणि । सवेदनानिष्प्रतिकाररूपाः प्राणान्विषष्णा जहति क्षणेन ॥ २५॥ व्याघान्विनिघ्नन्त्यथ चहेतोलापदेशाच्चमरी वराकाम् । मांसापदेशाच्छशसूकरादीन् विषाणमुक्तासु करीन्द्रवर्गान् ॥ २६ ॥ अकारणक्रोधकषायिताक्षाः स्वभावनिवृत्तनिबद्धवैराः। नविषाणैर्दशनैः सूतीक्ष्णैरन्योन्यमर्मस्वभिताडयन्ति ॥ २७ ॥ ATIPARDEEPARATHAPAHARASHTRAayeg मांसाहारियोंके द्वारा जंगलमें शोर गुल मचाकर हकाई होनेपर ( अथवा हिंसक पशुओंकी आवाज सुनकर ही ) कुछ पशु भयसे इतने विह्वल हो जाते हैं कि अपने बच्चोंका ख्याल न करके प्राणरक्षाके लिए तेजीसे भागते हैं तथा दूसरोंको चेतना ही नष्ट हो जाती है फलतः उनमें कोई क्रिया ही नहीं नजर आती है, उनकी आँखों से भय टपकता रहता है और वे भयभीत होकर हिंसक पशुओंके मुखमें या शिकारीके सामने ही आ जाते हैं ।। २४ ।। थोड़ेके लिए महापाप बड़े-बड़े वाणोंकी मारसे किन्हीं-किन्हीं पशुओंके अंग-अंग कट जाते हैं तो भी प्राणोंका मोह उन्हें पर्वतोंकी गुफाओंमें ले जाता है । वहाँपर उनको वेदना बढ़ती ही जाती है क्योंकि उसका वे कोई उपचार नहीं कर सकते हैं फलतः अत्यन्त दुखी । होकर वे तुरन्त ही प्राण छोड़ देते हैं ।। २५ ।। विचारे सिंह, बाघ केवल चितकबरे चमड़ेके लिए ही मारे जाते हैं, घास फूस खानेवाले भोले-भाले चमरी मृगोंको शिकारी उनकी पूछके बालोंके वहानेसे मार डालते हैं, सियार, सुअर आदि स्वादिष्ट माँसको प्राप्त करनेके लिए नष्ट किये जाते हैं मदोन्मत्त विशालकाय हाथियोंके शरीरसे प्राण अलग किये जाते हैं सिर्फ उसके दाँतों और मस्तकमें पड़े मोतियोंके लिए ॥२६॥ अकारण कोप तिर्यञ्च योनिमें जन्मे जीवोंको बिना किसी कारणके ही क्रोध आ जाता है और उनकी आँखें कोपके आवेशसे तमतमा ( लाल ) उठती हैं । उनका स्वभाव ऐसा विचित्र होता है कि किसी प्रकारके अपकारके बिना ही वे दूसरोंसे गाढ़ वैर बाँध लेते हैं । परिणाम यह होता है कि वे अपने अपने तीक्ष्ण नखों, दाँतों और सींघोंसे आपसमें एक दूसरेके मर्मस्थलोंपर प्रहार करते हैं ।। २७॥ न्यायमचमान्चयाचमराHARRAIPान्यमान्यIHIGHLIGIR [१०५] ६. [ अनुव्रज्यमानाः ]. 8 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् केचित्पुनर्मानकषाय दोषात्संभूय नागाश्वखरोष्ट्रयोनौ | आरुह्यमाणाः परिपोड्ममाना भारातिखिन्ना विवशी क्रियन्ते ॥ २८ ॥ मानात्पुनः केचन सूकरत्वं मानातिमानात्कुकुलं प्रयान्ति । परावमानप्रसवं च दुःखं तिर्यग्गतौ नैकविधं श्रयन्ते ॥ २९ ॥ मायादिभिर्ये परिवञ्च्य जीवान् संपोषयामासुरथ स्वदेहान् । तेषां शरीराणि गतौ तिरश्चां मांसाशिनां तान्यशनीभवन्ति ॥ ३० ॥ केचित्पुनर्लोभकषाय दोषाद्द्रव्यं परेषां मुमुषुवमूढाः । तिर्यक्कुयोनौ प्रतिबद्धकायान् तान्व्याधवर्गाः परिभक्षयन्ति ॥ ३१ ॥ मानका कुफल कुछ प्राणी पूर्वजन्म में आचरित प्रबल मान कषायके पापसे तिर्यञ्च गतिको प्राप्त करके हाथी, ऊँट घोड़े और गधोंमें उत्पन्न होते हैं । तब उनपर सतत सवारी की जाती है, थोड़ी सी अवज्ञा करनेपर हो खूब पीड़ा दी जाती है और अत्यधिक भार लादा जाता है । यह सब उन्हें अनाथ और पराधीन बना देते हैं ।। २८ ।। पूर्वभव मान करनेका ही यह परिणाम है कि जीव सुअरोंमें पैदा होता है और अत्यधिक मान करनेपर तो पशुओंमें दुषित और मय श्रेणीमें जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार तिर्यञ्चगतिमें दूसरोंके द्वारा अपमानित होनेसे उत्पन्न दुखोंको यह जीव एक दो नहीं अनन्त प्रकारसे पाता है ।। २९ ।। ठगनेका परिणाम जो जीव पूर्वं भवमें छल कपट करके दूसरोंको ठगते हैं और वंचनासे प्राप्त धनसम्पत्तिके द्वारा अपने ही देहको दिन रात पोषते हैं वे मरकर तिर्यञ्च गतिमें जाते हैं, जहाँपर यत्नपूर्वक पाले पोषे उनके ही पुष्ट शरीर, माँसाहारियोंकी उदर दरीमें समा जाते हैं ॥ ३० ॥ लोभका परिपाक कुछ विवेक विकल प्राणी मनुष्यभवमें लोभ कषायकी प्रबलता के कारण अपने स्वार्थसाधनके लिए दूसरोंकी श्रमसाध्य सम्पत्तिको चुराते हैं वे भी मरकर जब तिर्यञ्च गति में पदार्पण करते हैं तो बहेलिये आदि मृगया विहारी लोग पहिले तो उनके शरीरोंको अपने जालोंमें फँसाकर अच्छी तरह बाँध लेते हैं और बादमें मार-मारकर उनके माँससे अपनी भूखको शान्त करते हैं ।। ३१ ।। १. म व्याधि° । षष्ठः सर्गः [१०६ ] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् तिर्यग्गतेदुःखमनन्तपारं वक्तुं न शक्यं चिरकालतोऽपि । तामेव घोरामिह ये प्रयान्ति संक्षेपतस्तान्प्रथमं प्रवक्ष्ये ॥ ३२॥ ये वञ्चकाः कुटतुलातिमानैः परोपतापं जनयन्ति नित्यम् । वाचान्यदुक्त्वा क्रिययान्यदेव कुर्वन्ति कृत्यं विफलं परेषाम् ॥ ३३ ॥ हस्तापितं ये परकीयमर्थमादाय कस्मादव्यपलोपयन्ति । ऐश्वर्यदादलवीर्यतो वा परानवज्ञाय मषा वन्ति ॥ ३४ ॥ तकं दधिं क्षीरघृतं गुडं वा रसैस्तथान्यैः प्रतिमिश्रयन्ति । ते होनसत्वाः कृपणा विपुण्याः पतन्ति तिर्यग्वडवामुखषु ॥ ३५ ॥ प्रवालमुक्तामणिकाञ्चनानि विकृत्य तद्रूपसमानि ये तु । नन्वञ्चकास्ते रतिमाप्नुवन्ति तिर्यग्गति वै विवशा वसन्ति ।। ३६ ॥ तिर्यञ्चगतिके हेतु तिर्यञ्च गतिमें मिलनेवाले दुःख और शोक अनन्त और असंख्य हैं अतएव यदि चिरकालतक भी उनका वर्णन किया जाय तो भी वह अपूर्ण ही रह जायगा । फलतः उसे यहीं छोड़कर सबसे पहिले उन्हीं लोगोंके विषयमें संक्षेपसे कहता हूँ जो उस भयावनी और दारुणं गतिको जाते हैं ।। ३२॥ जो जीव झूठे माप, कम या बड़े बटखरे और तुला आदिके द्वारा दूसरोंको ठगते हैं, विला नागा दूसरोंको तरह-तरहका A कष्ट और दुःख देना जिनका स्वभाव है, वचनसे कुछ कहते हैं पर शरीरसे कुछ दूसरा ही काम करके जो दूसरोंकी सुविचारित योजनाओंको सदा ही विफल करते रहते हैं ।। ३३ ॥ हाथमें देकर सौंपी गयी दूसरोंकी सम्पत्तिको लेकर भी एकाएक चट कर जाते हैं और माँगनेपर लेना ही स्वीकार ॥ नहीं करते हैं, अथवा सम्पत्तिके मदमें चूर होकर या, अहंकारके कारण, या पराक्रम और शक्तिकी अधिकता होनेसे जो दूसरोंका तिरस्कार करते हैं और मनचाहा झूठ बोलते हैं। जो मठेमें पानी, दधिमें काँजी, दूधमें पानी या आरारोट, घीमें चर्बी या आलू आदि तथा गुड़ शक्करमें मिट्टी मिला देते हैं ॥ ३४॥ इस प्रकार एक रसको दूसरे रससे मिलाकर नष्ट करते वे पुण्यहीन, कृपण और पतित आत्मा ही तिर्यञ्च गतिरूपी वड़वानलके मुखमें गिरते हैं ॥ ३५॥ जो लोग मूगा, मोती, मणि और सोनेको अपवित्र करते हैं अथवा दूसरी वस्तुओंसे वैसे ही नकली मूंगा आदि बनाते ॥ १. [ नवञ्चकास्ते ]। . [१०७] Team Jain Education interational For Privale & Personal Use Only . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः वराङ्ग चरितम् सर्गः सामान्यचमचमचERRIGITAL कूटाक्षवृत्ते कुटिलस्वभावाः स्तनप्रयोगैश्च दुरोहिता ये। परोपघातं जनयन्ति ये तु ते यान्ति जीवास्तु गति तिरश्चाम् ॥ ३७॥ सुसंयता वाग्भिरधिक्षिपन्तो ह्यसंयतेभ्यो ददते सुखाय (?)। तिर्यमुखास्ते च मनुष्यकल्पा द्वीपान्तरेषु प्रभवन्त्यभद्राः ॥ ३८ ॥ केचित्पुनर्वानरतुल्यवक्राः केचिद्गजेन्द्रप्रतिमाननाश्च । अश्वानना मेण्ढ़मुखाश्च केचिदजोष्ट्रवक्रा महिषोमुखाश्च ॥ ३९ ॥ द्वाविंशतिवर्षसहस्रमायुर्वदन्ति तज्ज्ञा वसुधाश्रितानाम् । ज'लाश्रिता(?) सप्तसहस्रमानं दिनत्रयं विद्धयनलाश्रितानाम् ॥ ४० ॥ हैं और भोले लोगोंको अकारण ही ठगते हैं, समझिये वे तिर्यञ्च गतिसे ही प्रेम करते हैं जहाँपर विवश होकर उन्हें जाना पड़ता है और अनन्त कष्टोंको सहते हुए भी चिरकालतक रहना पड़ता है ।। ३६ ।। जिन प्राणियोंके स्वभाव महा कुटिल हैं तथा जिन्हें छल कपट या जुआ आदि खेलनेके अतिरिक्त अन्य कार्य रुचता ही नहीं है, चोरी कराकर अथवा चोरीका माल खरीदकर जो अपनी अभिलाषाओंको पूर्ण करनेकी दुराशा करते हैं, जो दूसरोंके वध या नाशके लिए प्रेरणा देते हैं वे सबके सब कर्मों के आधीन होकर तिर्यञ्च गतिकी सैर करते हैं ।। ३७ ॥ कुभोगभूमि जन्मकारण सर्वसाधारणके हितैषी संयमी पुरुषोंका जो लोग व्यंग वचन बोलकर तिरस्कार करते हैं तथा दुराचारी असंयमी पतितोंको आश्रय देकर सुख देनेमें जो गौरव समझते हैं वे हो प्राणी महाद्वीपोंकी दिशाओं और विदिशाओंमें स्थित छोटे-छोटे द्वीपोंमें अशुभरूप लेकर उत्पन्न होते हैं । वहाँपर देखनेसे वे मनुष्यसे ही लगते हैं लेकिन उनके मुख पशुओंके होते हैं ॥ ३८॥ इन लोगोंमेंसे कुछ लोगोंके मुख वैसे ही होते हैं जैसा कि बन्दरका मुख, दूसरे लोगोंको मोटे ताजे स्वस्थ हाथीका सा सूडदार मुख प्राप्त होता है, अन्य लोगोंकी गर्दनपर घोड़ेका मुख शोभा देता है तो कुछ लोगोंकी मुखाकृति मेढ़ेकी होती है। । इतना ही नहीं उनमें ऊँट समान मुखों और भैसा मुखोंकी भी कमी नहीं होती है ।। ३९ ।। स्थावर आयु तिर्यञ्च गतिके विशेषज्ञोंका मत है कि पृथ्वी शरीरवाले तिर्यञ्चोंकी अधिकमे अधिक आयु बाईस हजार वर्ष है, जलकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्ष प्रमाण है, अग्निमय रहनेवाले ( अग्निकायिक ) जीवोंकी आयु केवल तीन दिन प्रमाण है।। ४० ।। ३. क जलाना [१०८] Jain Education interational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् वाय्वाश्रितानां त्रिसहस्रमुक्तं वनस्पतीनां दश वर्णयन्ति । हिकेन्द्रियाणां द्विषडेव वर्षा आयुःप्रमाणं परमं प्रकर्षात् ॥ ४१ ॥ त्रिकेन्द्रियाणां दिनमेकहीनं पञ्चाशद्युक्तं परिमाणमायुः । षण्मासमायुश्चतुरिन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रियाणां पृथगेव वक्ष्ये ॥ ४२ ॥ चतुष्पदानामथ कर्मभूमौ जलाश्रितानां च हि पूर्वकोटिः । त्रिशून्यसप्ताहरथाण्डजानां व्यष्टौ सहस्राणि सरीसृपाणाम् ॥ ४३ ॥ अन्तम हतं कथितं तिरश्चां जघन्यमायुम निपुङ्गवेन । कुलप्रसंख्यामथ योनिसंख्यां समासतस्ते कथयामि राजन् ॥ ४४ ॥ आदित्यसंख्या खलु शून्ययुक्तात्कोट्य : कुलानामथ वेदितव्याः (?) । द्वाविंशतिस्तत्र महीमयानां प्रभञ्जनाप्त्वात्मकयोश्च सप्त ॥ ४५ ॥ manageAIIANSTHANIRAHARASTRATIMATEHPATPARASHAMARPAAAAAAAPAN wressure वायुमय देहधारी तिर्यञ्चोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण तीन हजार वर्ष है, और वनस्पतिकायिक जीवोंकी अधिकसे अधिक दश हजार वर्ष है दो इन्द्रिय जीव अपने पूरे जीवन भर यदि जियें तो वे अधिकसे अधिक (दो छह ) बारह वर्ष ही जीवित रहेंगे ।। ४१॥ अस आयू एक दिन कम पचास वर्षतक तोन इन्द्रिय जीव अधिकसे अधिक जिन्दा रह सकते हैं यदि उनका जीवन किसी विघ्न बाधासे अकालमें ही नष्ट न कर दिया जाय । चार इन्द्रिय जीवोंकी बड़ीसे बड़ी आयु छह मास हो सकती है और पञ्चेन्द्रियोंकी आयुको अलग-अलग वर्गकी अपेक्षा कहता हूँ।। ४२॥ . कर्मभूमिज तिर्यञ्च कर्मभूमिमें उत्पन्न चोपायों तथा जलमें रहनेवालों ( जलचरों) की उत्कृष्ट आयुका प्रमाण एक पूर्वकोटि वर्ष है। अण्डज जीवोंकी उत्कृष्ट वयका प्रमाण भी (तीन शन्य सहित सात अर्थात् ) सात सौ वर्ष है तथा पृथ्वीपर छातीके बल रेंगनेवालों (सरीसृपों) की अधिकसे अधिक आयु [ त्रिगुणित आठ अर्थात् ] चौबीस हजार वर्ष प्रमाण है ॥ ४३ ।। तपस्वियोंके मुकुटमणि केवली भगवान्ने तिर्यञ्चोंकी जघन्य आयुका प्रमाण केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है, हे राजन् ? पूर्वोक्त प्रकारसे तिर्यञ्चोंकी आयुको गिनाकर अब आपको उनके कुलों तथा योनियों (जन्मस्थानों की संख्या भी अति संक्षेपमें बतलाता हूँ ॥ ४४ ॥ कुलयोनि तिर्यञ्चोंके समस्त कुलों या श्रेणियोंकी संख्या ( १९७५९००० कोटि ), सूर्योकी संख्यामें शून्ययुक्त कोटिसे गुणित होने१. क वर्षान् । २. म सप्तद्विकमण्ड । ३. म भुजङ्गमे षड्गुणिताश्च सप्त । [१०९] Jain Education Interational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तिस्रस्त वेद्यस्त्वनलाश्रितानामष्टोत्तरा विशतिरध्रिपानाम् । द्विकेन्द्रियाणां विहिताश्च सप्त अष्टौ पुनस्त्रीन्द्रियदेहिनां च ॥४६॥ नव प्रदिष्टाश्चतुरिन्द्रियाणां सरीसृपाणां च नव प्रणीताः । अर्धत्रयोक्ता दश तोयकानां विहङ्गमानां खलु षड्विकघ्नाः॥४७॥ चतुष्पदानां दश संप्रदिष्टाः पञ्चोत्तरा विशतिराधगत्याम् । षडविशतिर्देवनिकायजानां चतुर्दशोक्तास्त्वथर मानुषाणाम् ॥ ४८॥ चतुगतीनां च निगोदजोवा अवस्थिता ये च निगोदतायाम् । भूवायुतोयाग्निमतां च सप्त योनीसहस्राणि शताहतानि ॥ ४९ ॥ । है पर आती ] उनमें से पृथ्वीकायिक जीवोंके कुलकोंकी संख्याका प्रमाण बाईसलाख कोटि प्रमाण है, जलमय और वायुमय शरीरधारियोंके कुलोंका प्रमाण सात लाख कोटि है ।। ४५ ॥ अग्निमय शरीरधारी जोवोंकी कुल संख्या तीन लाख कोटि है तथा वनस्पतिकायिक समस्त जीवोंके कुलोंकी संख्या आठ अधिक बीस अर्थात् अट्ठाईस लाख कोटि प्रमाण है, दो इन्द्रियधारी जीवोंके कुलोंकी गणना सात लाख कोटि है, इसी प्रकार तीन इन्द्रिय युक्त जीवोंके कुलोंका प्रमाण आठ लाख कोटि है ।। ४६ ।। और चार इन्द्रिय जीवोंकी कूल-संख्या भी नौ लाख कोटि प्रमाण है, पञ्च इन्द्रिय जीवोंमें सरीसृपोंके समस्त कुलोंको नौ लाख कोटि गिनाया है, जलचरोंके कूलोंका प्रमाण अर्ध हीन तोनके अर्थात् ढाईयुक्त दश ( साढ़े बारह ) लाख कोटि है, A आकाशचारियों ( नभचरों ) के कुलोंकी संख्या [ द्विगुणित छह ] बारह लाख कोटि है ।। ४७ ।। और चोपायोंकी कुल संख्याका आगमोंमें दश लाख कोटि प्रमाण दी है, प्रथम गति ( नरक गति ) में उत्पन्न तिर्यञ्चोंकी कुल संख्या पाँच अधिक बीस लाख कोटि है, देवोंके विमानोंमें जन्म लेनेवालोंके कुलोंकी संख्या छब्बीस लाख कोटि है तथा मनुष्योंमें होनेवालोंके कुलोंकी संख्या केवल ( द्विगुणित छह ) बारह लाख कोटि है ।। ४८ ॥ चारों गतियों अर्थात् नरक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकमें भरे हुए निगोदिया जीवों तथा अनन्त निगोदतामें पड़े हुओंकी तथा पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक जीवोंकी योनियोंकी संख्या [ सात गुनी सौ हजार अर्थात् ] सात - सात लाख है ।। ४९ ।। [११०] १. [षद्विकष्न:]। २. म पद्भि ( षड्भि ?) द्विकम्नास्त्वय । . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् वनस्पतीनां दश वर्णयन्ति द्वे द्वे पुनस्ते विकलेन्द्रियाणाम् । चत्वारि तिर्यक्सुरनारकाणां मनुष्यवर्गस्य अनेक योनिष्वतिदीर्घकालं चतुर्दशाहुः ॥ ५० ॥ परिहीन सौख्याः । परिभ्रमन्तः अहो वराका दुरितानुबन्धा दुःखस्य नान्तं बत यान्ति जीवाः ॥ ५१ ॥ क्रमेण यान्तः कुलकोटिजालान् जाति 'जरा मृत्युमनेकरोगान् । समनुवानाः कुटिलस्वभावास्तिर्यग्गतौ नैव सुखं लभन्ते ॥ ५२ ॥ शारीरदुःखं खपरैरवाप्य तन्मानसं कैश्चिदवाप्यते च । तथोभयं प्राप्यत एव कैश्चिद्दुःखं परं जन्तुभिरप्रमेयम् ॥ ५३ ॥ अथैवं तिरश्च महादुःखकालं कुलं जीवितं चेन्द्रियाणां [' -] 1 गति कायभेदं फलं कारणं च बभाषे यतोशो यथावन्नृपाय ॥ ५४ ॥ वनस्पतिकायिक जीवोंकी योनियोंका प्रमाण दशलाख केवली प्रभुने कहा है तथा विकलेन्द्रिय [ दो, तीन और चार इन्द्रियधारी जीव ] जीवों में प्रत्येकको योनियाँ दो, दो लाख प्रमाण हैं । तिर्यञ्च, देव और नारकियोंकी गणना चार लाख प्रमाण है तथा मनुष्यवर्ग की योनियोंका प्रमाण चौदह लाख आगममें कहा है ।। ५० ॥ बड़े शोकका बिषय है कि बिचारे पापबन्ध करनेवाले संसारी जीव सुखोंसे सदा के लिए बिछुड़कर अनेक योनियों में लम्बे-लम्बे अरसे तक चक्कर काटते हैं। वे जितना अधिक दुःख भरते हैं उसका अन्त भी उतना अधिक दूर चला जाता है और उन्हें दुःखक्षयकी कभी प्राप्ति नहीं होती है ॥ ५१ ॥ दुःख - उपसंहार क्रमश: सबही और योनियोंके करोड़ों भेदों में वे जन्म लेते हैं और वहाँपर भी जन्म, जरा, मृत्यु आदि अनेक रोगोंको भरते हैं । कुटिल स्वभावयुक्त संसारी यह सब दुःख सहकर भी तिर्यञ्च गति में तनिकसा भी सुख नहीं पाते हैं। कुछ जीवोंको दूसरोंके उपद्रवोंके कारण शारीरिक दुःख प्राप्त होता है ॥ ५२ ॥ दूसरोंको अपने आप या दूसरों द्वारा मानसिक दुःखका संयोग पड़ता है तथा अन्य लोगोंके द्वारा शारीरिक और मानसिक दोनों दुःख सहे जाते हैं। यह सब ही दुःख इतने अधिक होते है कि कोई जीव इनका अनुमान नहीं कर सकता है ॥५३॥ इस प्रकार मुनिराज वरदत्तकेवलीने महाराज धर्मसेनको तिर्यञ्च गतिका स्वरूप, भेद, कायभेद, तिर्यञ्चगतिके कारण, १. म जरामृत्य° । २. [संख्याः ] । For Private Personal Use Only षष्ठः सर्गः [१११] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्मानुषों तां गतिं संप्रवक्तुं मुनीन्द्र प्रवृत्ते सुनिर्वेदमुक्ता। सभा चापि कर्ण निधायात्मचित्तं तुतोषातिमात्रं नरेन्द्रेण सार्धम् ॥ ५५॥ वराज चरितम् इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते तिर्यग्गतिविभागो नाम षष्ठः सर्गः। । उनका विशेष फल, वहाँ प्राप्त होनेवाले महादुःख और उनकी स्थितिका समय, तिर्यञ्चोंके कुल, जीवन तथा इन्द्रियों के विभागों ! । की अपेक्षासे विशेषतया वर्णन किया था ॥ ५४॥ इसके उपरान्त महामुनिराजने मनुष्यगतिका उपदेश देनेकी इच्छासे जब सावधानीसे बोलना प्रारम्भ किया, तो वैराग्यको उद्दीपन करनेवाली शैलीसे सम्बोधित उस सारीकी सारी सभाने राजाके समान ही अपने मनको कानमें स्थापित कर 1 दिया अर्थात् उसके मन और कान एक हो गये थे और राजा सहित पूर्ण सभा, अत्यन्त संतुष्ट रूपको प्राप्त हुई थी ॥ ५५ ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्ग-चरित नामक धर्मकथामें तिर्यग्गतिविभाग नाम षष्ठ सर्ग समाप्त बासनावरार-TELELORDITORIEDIOPARDASTI [११२ Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् सप्तमः सर्गः गति तृतीया शृणु संप्रवक्ष्ये समासतो मानुषजातिरेका । तामेव भूयो द्विविषां वदन्ति भोगप्रतिष्ठामथ कर्मसंस्थाम् ॥ १ ॥ पचोत्तरास्ते कुरवः प्रदिष्टा यथैव राजन्नथ देवसंज्ञाः । हैरण्यका हेमवताच रम्या हयाह्नवर्षा अपि पञ्च पश्च ।। २ ।। क्षेत्रस्वभावप्रतिवद्धसौख्या संख्यातस्त्रिशद 'धो भवन्ति । विशेषान्पृथग्लक्षणतोऽभिधास्ये ॥ ३ ॥ सुवर्णधातुप्रविकीर्णशोभाः । स्त्रीरिव भूविभाति ॥ ४ ॥ पुनर्भोगभुवां जाज्वल्यमानोत्तमरत्नचित्रा वैडूर्यमुक्तावरवज्ज्रसारैरलङ-कृता तासां सप्तम सर्ग हे राजन् ! तीसरी गति ( मनुष्यगति ) के विषय में सावधानीसे सुनिये अब मैं कहता हूँ । मनुष्यत्व सामान्यकी दृष्टिसे विचार करने पर मनुष्य जाति एक ही प्रकारकी है, तो भी सुखप्राप्ति के द्वारोंकी अपेक्षासे विचार करनेपर इसी मनुष्य जाति के दो भेद हो जाते हैं; जहाँपर मनुष्य साक्षात् श्रमके विना भोगों को प्राप्त करता है वह भोगभूमि है और कर्मभूमि वह है; जहाँ मनुष्यको पुरुषार्थं पर ही विश्वास करना पड़ता है ॥ १ ॥ भोगभूमि मध्यलोकका विभाग बताते समय आगममें पाँच उत्तरकुरु ( जम्बूद्वीपमें एक, घातकीखण्डद्वीपमें दो और पुष्कराद्ध में भी दो) तथा इसी प्रकार हे राजन् ! सुमेरुको दूसरी ओर स्थित देवकुरुओं की संख्या भी पाँच है। इनके साथ-साथ हैरण्यक, हैमवत, रम्यक और हरि नामके देशोंका प्रमाण भी उक्त प्रकारसे पाँच, पाँच ही है ॥ २ ॥ इन सब देशोंकी रचना और वातावरण ही ऐसा है कि यहाँ उत्पन्न हुये जीवोंको एक निश्चित मात्रामें बिना परिश्रम के ही सुख प्राप्त होगा, इन सब सुखोंका प्रमाण गिननेपर तोस प्रकारका होता है। इन भोगभूमियोंके विशेष वर्णनको अब मैं अलगअलग लक्षण, आदि बताकर कहता हूँ ॥ ३ ॥ भोग भूमिको भूमि भोगभूमियोंका धरातल सोने आदि धातुओंसे बना है अतएव इसकी छटा चारों ओर फैली रहती है । जाज्वल्यमान एकसे एक बढ़िया रत्नोंसे व्याप्त होनेके कारण वह चित्र-विचित्र होती है और भोगभूमियोंमें अत्यन्त सुलभ नीलम, मोती, उत्तम १. क संख्यावत । २. [ शोभा ] । १५ For Private Personal Use Only सप्तमः सर्गः [११३] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् सप्तमः सर्गः महेन'नीले रुचकप्रभैश्च कर्केतन स्वरसूर्यकान्तैः। रुजाहरैः शीतलचन्द्रकान्तैस्तता मही भात्यतिसर्वकालम् ॥५॥ क्वचिच्च बन्धूकमनश्शिलाभा क्वचिच्च जात्यञ्जनहैमवर्णा । क्वचिच्च सारङ्गविहनतुल्या क्वचिच्छशाहाङ कुरसप्रभा च ॥६॥ तृणानि यस्यां चतुरङ्गालानि मृदूनि सौगन्धिकगन्धवन्ति । दशार्धवर्णान्यतिकोमलानि नित्यप्रवृत्तानि मनोहराणि ॥७॥ मन्दप्रवाताभिहतानि तानि परस्परस्पर्शजनिस्वनानि । मुष्टानुनावभवणक्षमानि गन्धर्वगीतान्यतिशेरतेच ॥८॥ तुरुष्ककालागरुचन्दनानां लवङ्गकङ्कोलककुङ, कुमानाम् । एलातमालोत्पलचम्पकानां गन्धान्स्वगन्धैश्च विशेषयन्ति ॥९॥ वज्रमणि आदिका सद्भाव तो वहाँके पृथ्वी तलको ऐसा सजा देता है कि वहाँको भूमि सुसज्जित सुन्दर स्त्रीके समान आकर्षक लगती है ।।४।। महामहेन्द्र नीलमणियोंसे, रुचकप्रभ रत्नोंसे, कर्कतनों द्वारा, अत्यन्त जगमगाते हुए सूर्यकान्तमणियों द्वारा तथा आतपको शान्त करनेवाले चन्द्रकान्तमणियोंसे पुरी हुई पृथ्वी सब ऋतुओं और सब ही वेलाओंमें अत्यधिक शोभित होती है ॥ ५॥ किसी स्थानपर भूमिका रंग बन्धूक पुष्प या मनःशिला (गेरू ) के समान लाल है, दूसरे स्थलोंकी छटा जाति पुष्प, अञ्जन और सोनेके रंगकी है, अन्य स्थलोंकी कान्ति सारङ्ग (बगुला) पक्षियोंके पंखोंके समान है तथा कुछ अन्य स्थलोंकी छवि चन्द्रमाके अंकुरों (किरणों) के समान मोहक धवल है ॥ ६ ॥ _चारों तरफ उगी हुई भोगभूमिकी दूवके प्रधान गुण चार हैं-वह अत्यन्त सुकुमार होती है, उसकी गन्ध उत्तम सुगन्ध से व्याप्त है, अत्यन्त कोमल होते हुए भी उसके रंगोंको संख्या [ दशकी आधी ] पाँच है और वह मनमोहक दूब प्रतिदिन ऐसी मालूम देती है मानो नयी ही उगी हो ॥७॥ __ मन्द-मन्द पवनके झोंके जब दूबको झकोरे देते हैं तो उसके कोमल सुकुमार पौधे एक दूसरेको छूने लगते हैं उससे जो ध्वनि निकलती वह गन्धर्व देवोंके उन गीतोंको भी मात कर देती है जो मधुर स्निग्ध स्वर तथा उसकी प्रतिध्वनिके कारण अत्यन्त कर्णप्रिय होते हैं ॥ ८॥ _ वहाँपर व्याप्त सुगन्धियाँ अपनी गन्धके द्वारा तुरुष्क (लोवान ), कालागरु चन्दन, साधारण चन्दन, लवङ्ग, कंकोल १. म माहेन्द्र TRAPARIHARITAMARHTRAILERTARE [११४] Jain Education international Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्णवातोरुतुषारवर्षा मेघतु कालाशनिविद्युदुल्काः। क्षुद्रोगशोकव्यसनेतयश्च न सन्ति यस्यामुपभोगभूमौ ॥ १० ॥ नृपाश्च भृत्याः कृपणा दरिद्राः स्तेनान्यदाराभिहता' नृशंसाः । पञ्बांधकाः कुणिकुब्जखज्जाः षट्कर्मधर्माभिरता न यस्याम् ।। ११ ॥ तृणं जलं गुल्मलताङ घ्रिपाश्च विहङ्गमा वा विषकोटसर्पाः । परस्पराबाधकरा मगा वा न सन्ति दुःखोद्धबहेतवस्ते ॥ १२॥ पर्यन्तवैडूर्यशिलाद्युतीनि प्रफुल्लपद्मोप्पलसंकटानि । प्रकृष्टकारण्डवहं वसन्ति २ प्रसन्नतोयानि सरांसि भान्ति ॥ १३ ॥ १३ ॥ (गुग्गुल ) कुकुम, इलायची, तमाल, सब प्रकारके कमल तथा चम्पक पुष्पोंकी सुगन्धियोंको; जो कि इस लोकमें सर्वोपरि मानी जाती हैं, भी पछाड़ देती हैं ॥९॥ समशीतोष्ण वहाँपर शीतके कारण ठिठुरना नहीं होता है और न गर्मीमें हाय-हाय करनी पड़ती है, न आँधियोंके आनेकी शंका है और न हिमपातका आतंक है, न वर्षा ऋतुकी चिन्ता है और न उसके सहगामी बादलोंके अन्धकार, वज्रपात, बिजलीकी चमक और घड़धड़ाहटका ही भय है, वे भोगभूमियाँ ऐसी हैं जहाँपर दुभिक्षोंका भय नहीं है, न रोगोंका आक्रमण है, अकाल मृत्यु, आदि, न होनेसे शोकके कारणोंका भी अभाव है, चोरी, परस्त्रीगमन, आदि व्यसनोंका तो नाम भी नहीं है और सबको सम सुख होनेके कारण आततायी आदिके उत्थान रूपसे ईतियोंका होना तो असंभव ही है ॥ १० ॥ समान समाज भोगभूमिमें न कोई राजा है और न कोई सेवक है। कृपणों और निर्धनोंका तो नाम ही नहीं सुनायी देता है । चोरी करनेवालों और परस्त्री प्रेमियोंकी तो कल्पना ही असंभव है, तब निर्दयी और हिंसकोंकी संभावना ही कैसे हो सकती है ? न तो वहाँ कोई लंगड़ा, अन्धा तथा गूगा है और न कोई कुणि, कुवड़ा और हाथ-टूटा है । इसी प्रकार वहाँ ऐसा एक भी मनुष्य न मिलेगा जो असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, गो(भूमि)रक्षा और सेवा इन छह कर्मोंको करता हो ॥ ११ ॥ वहाँ ऐसी जलराशि, घास, झाड़ियों, लतामण्डपों और वृक्षोंका अभाव है जो किसी भी प्रकारसे दुःखके निमित्त हो सकते है । हों। पक्षी, पशु, विषैले कोड़े और साँप आदिसे होनेवाले दुःखोंकी तो चर्चा ही नहीं सुन पड़ती है। भोगभूमिमें उत्पन्न हुए मृग आदि पशु आपसमें भी मारपोट ( घात-उपघात ) नहीं करते हैं ॥ १२॥ निर्मल जलसे पूर्ण भोगाभूमिके जलाशयोंकी छटा निराली ही होती है। उनके चारों और वैडूर्यमणिकी शिलाओंसे बने १. [स्तेयान्यदारामिरता]। २.[°कारण्डवहंसवन्ति ] । .वहाँ ऐसी जल, वाणिज्य, गो(भूमि) रक्षा और स्वाहा और हाथ-टूटा है। इसी प्रकार वहां से हो सकती है ? न तो [११५] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RD वराङ्ग सप्तमः चरितम् मद्याङ्गतूर्याङ्गविभूषणाला ज्योतिर्ग्रहा भाजनभोजनाङ्गाः । प्रदीपवस्त्राङ्गवरप्रसंगा दशप्रकारास्तरवस्तु तत्र ॥ १४ ॥ अरिष्टमैरेयसुरामधूनि कादम्बरीमद्यवरप्रसन्नाः'। मदावहानासवनातियोग्यान्मद्याङ्गवृक्षाः सततं फलन्ति ॥ १५ ॥ मृदङ्गवीणावरशङ्खतालान्मुकुन्दसंगां व्रजदुन्दुभिश्च । सुखानुनादानुरुमर्दलांश्च तूर्याङ्गवृक्षा विसृजन्ति तत्र ॥ १६ ॥ किरीटहाराङ्गदकुण्डलानि ग्रीवोरुबाहदरबन्धनानि । स्त्रीपुसयोग्यानि विभूषणानि विभूषणाला विसृजन्ति शश्वत् ॥ १७॥ TATARAHATARIAGIRIOTA घाटोंकी प्रभा सुशोभित है, उनका मध्यभाग पूर्ण विकसित कमलों और नीलकमलोसे भरा रहता है और उत्तम कारण्डवों और हँसों की जोड़ियां उनमें विहार करती हैं ।। १३ ।। मद्यांङ्ग ( मदिगंग ), तूर्याङ्ग, विभूषणांग ज्योत्यंग, रहांग, भाजनांग, भोजनांग, प्रदीपांग, वस्त्रांग और वरप्रसंगांग अथवा माल्यांग ये दश प्रकारके श्रेष्ठ कल्प = वृक्ष होते हैं अर्थात् वृक्ष-करप-विना लिये देने वाले, स्वाभाविक संघटन होते हैं ।।१४।। दश कल्पवृक्ष मद्यांग वृक्ष सदा ही अरिष्ट ( सविधि निकाला गया सार) मैरेय ( रासायनिक क्रियासे निकाला गया फल फूलोंका सत् ) सुरा ( सड़ाकर निकाला गया फलोंका रस ) मधु (मधुमक्खियों द्वारा संचित पुष्प पराग आदि ) कादम्बरी (निर्मल प्रकारकी मदिरा), आदि मदको लानेवाले पदार्थोंको तथा अत्यन्त उत्तम आसवोंको अत्यन्त निर्मल और उत्तम मात्रामें उक्त कल्पवृक्ष देते हैं ।। १५॥ भोगभूमिमें उत्पन्नांतूर्यांग कल्पवृक्ष बढ़िया-बढ़िया मृदगों, वीणाओं तथा शंखतालोंको, आजकल न दिखनेवाले मुकुन्द संग और ग्वालोंकी बस्तियों में बजनेवाली दुन्दुभियोंको तथा आसानीसे बजाने योग्य बड़े-बड़े मर्दलों ( ढोलों) को वहाँपर यथेच्छ1 रूपमें देते हैं ।। १६ ॥ म भूषणांग वृक्ष वहाँपर स्त्रियों और पुरुषोंके योग्य मुकुट, हार, अंगद ( बाजूबन्द ), कुण्डल, गले, वक्षस्थल, भुजाओं, पेट आदिपर पहिनने योग्य मनोहर व सुन्दर आभूषणों आदि विविध प्रकारके मण्डनोंको सतत और सदा वितरण करते रहते । [११६] हैं॥१७॥ १. [प्रसन्मान् || २. [ संज्ञा वजदुन्दुर्भाश्च ] । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् नष्टान्धकारा वसुधाप्रवेशा धोंतिता भानशशिप्रकाशैः। ते ज्योतिषाका विपुलप्रकाशा विभान्ति नित्यं नयनाभिरामाः ॥१८॥ श्रीमण्डपान्मण्डितहर्म्यमालान् डोलाग्रहान्प्रेक्षणकाञ्जनानाः। सप्तमः ................... ॥ १९॥] (?) सर्गः शाखोपशाखास्वतिभासुरासु प्रवालपत्राङ्करपल्लवानि । प्रदीपतल्यानि सृजन्ति नित्यं ते दीपिताजा': सुखदर्शनीयाः ॥ २०॥ दुकूलकौशेयकवालजानि सच्चीनपट्टांशुककम्बलानि । वस्त्राणि नानाकृतिवर्णवन्ति वस्त्रावृक्षा ददते सदैव ॥ २१॥ सुगन्धिसच्चम्पकमालतीनां पुन्नागजात्युत्पलकेतकीनाम् । पचप्रकारा रचितायमाला माल्याङ्गवृक्षा विसृजन्त्यजत्रम् ॥ २२॥ भोगभूमिके समस्त भूखण्डोंपर व्याप्त अन्धकारको नष्ट करके जो सूर्यके उद्योत और चन्द्रमाको कान्तिसे उन्हें प्रकाशित कर देते हैं वे ही ज्योतिषांग कल्पवृक्ष हैं। इस जातिके वृक्ष विशाल प्रकाशपुञ्जके समान है इसीलिए उन्हें देखते ही नेत्र परम मदित हो उठते हैं तथा उनकी कान्ति सदा ही चित्तको आकर्षित करती है ॥ १८॥ सुखी जीवनके लिए उपयोगी समस्त उपकरण तथा सर्वांग सजावटसे युक्त निवास गृहों, उनके आगे बने विशाल श्रीमण्डपों, स्वास्थ्य तथा विनोदके साधन दोला ग्रहों तथा प्रेक्षण गृहोंको गृहांग कल्पवृक्ष देते हैं । उपयोगी तथा सुन्दर भाजन एवं स्वादु तथा स्वास्थ्यकर भोजन, भाजन-भोजनांग कल्पवृक्ष प्रदान करते हैं' ॥ १९ ।। जिनकी अत्यन्त जगमगाती और कान्तिमान प्रधान शाखा और उपशाखाओंपर निकली कोंपलें, पत्ते, अंकुर और पल्लव ऐसे मालम देते हैं मानो प्रकाशमान प्रदीप हैं उन्हें प्रदीपांग कल्पवृक्ष बताया है। इन्हें देखते ही नेत्रों तथा मनको बड़े सुखका अनुभव होता है ।। २० ।। वस्त्रांग वृक्षोंका यही कार्य है कि वे सर्वदा कपाससे बने उत्तरीय-अधरीय आदि वस्त्र, कोशाके वस्त्र, केशों (ऊन) से निर्मित उत्तम वस्त्र, चीनमें बने रेशमी वस्त्र, पाटके रेशोंसे निर्मित सूक्ष्म और लघुवस्त्र, कम्बल आदि नाना रंगों तथा ॥ विविध आकार और प्रकारोंके वस्त्रोंको भोगभूमियाँ मनुष्योंको अर्पित करते रहें ।। २१ ॥ [११७] माल्यांग वृक्षोंके अग्रभागमें परम सुगन्धियुक्त उत्तम चम्पा, मालती, पुन्नाग, चम्पा, जाति, (चमेली), नीलकमल, १. इस श्लोकका उत्तरार्ध पुस्तकमें नहीं है। १. [ दीषिकाङ्गाः]. राम Jain Education international Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् ते कल्पवृक्षाच दशकारा व्यालिङ्गिताः कामलतावतानैः । स्वभावशुद्धाः प्रतिभान्ति शश्वत्प्रियाङ्गनाङ्गे रमणा यथैव ॥ २३ ॥ भुवां तृणानां सरसां तरूणां विभुक्तिरुक्ता खलु भोगभूषु । ये तत्र गन्तुं प्रभवन्ति सन्तः समासतस्तानिह कीर्तयिष्ये ॥ २४ ॥ भद्राः प्रकृत्या विनयान्विता ये मायामदक्रोधवधेषु मन्दाः । सत्यार्जवक्षानृत्यतिदानशूरास्ते संभवन्त्युत्तमभोगभूमौ ॥ २५ ॥ तिष्ठन्ति यशांसि लोके । तस्मात्सुदानं सततं प्रदेयम् ॥ २६ ॥ ह्युपायं च फलप्रपञ्चम् । दानेन भोगाः सुलभा नराणां दानेन दानेन वश्या रिपवो भवन्ति दानं च दाता प्रतिसंग्रहीता देयं एतानि दानेऽधिकृतानि राजंस्ते यान्ति जीवाः खलु भोगभूमिम् ॥ २७ ॥ केतकी आदि सुविकसित पुष्पोंकी पाँच प्रकारकी माला अपने आप निकलती हैं, जिन्हें वे वृक्ष 'वरप्रसंग' करनेके इच्छुक भोगभूमियोंको लगातार देते रहते हैं ॥ २२ ॥ ये दशों प्रकारके कल्पवृक्ष चारों ओर उगी सुन्दर लताओंके समूहसे पूर्ण रूपसे घिरे हुए हैं। लताओंसे युक्त और अपने आप पवित्र और स्वच्छ वे कल्पवृक्ष ऐसे मालूम देते हैं जैसे कि सदा ही प्रेमिकाओं के बाहुपाशसे वेष्टित प्रेमी लगते हैं ||२३|| इत प्रकार भोगभूमि में उत्पन्न दूब, जलाशय, वृक्ष तथा भूमिकी शोभा और विभूतिको मैंने आपको बताया है। अब संक्षेपमें उनके विषय में कहूँगा जो भले मानुष मर करके वहाँ उत्पन्न हो सकते हैं ॥ २४ ॥ भोगभूमिके कारण जो स्वभावसे ही सर्वसाधारणके हितैषी होते हैं, जिनकी प्रकृतिमें विनम्रता समायी रहती है, छलकपट, अहंकार, क्रोध और हिंसा करनेकी जिन्हें कभी इच्छा नहीं होती है, सत्य बोलने, सीधेपन, क्षमाशीलता तथा प्रचुर दान देने के समय ही जिनकी वीरता प्रकट होती है, ऐसे सज्जन उत्तम भोगभूमि (विदेहों में ) में उत्पन्न होते हैं ॥ २५ ॥ दान देने से मनुष्यको यहाँ और परलोकमें समस्त भोग सरलतासे स्वयं प्राप्त होते हैं । संसारमें उन्हींकी कीर्ति चिरकाल तक रहती है जो निस्वार्थ भावसे दान देते हैं । और तो और दान (क्षमा, आदि का दान ) के द्वारा रिपु भी वशमें हो जाते हैं, अतएव प्रत्येक मनुष्यको विधिपूर्वक सुपात्रको दान देना ही चाहिये ।। २६ ।। हे राजन् ! दानके प्रसंग में जिन भद्रपुरुषोंने निरतिचार दानक्रिया, दाताकी योग्यता, ग्रहण करनेवालेकी सत्पात्रता, देय १. मा पावक्ष्य प. लप्रदं च । सप्तमः सर्गः [११८] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् पुनस्तद्विविधप्रकारमपात्रपात्रप्रविभागमाहुः । मिथ्यादृशोऽपात्रमसंयताश्च पात्रं तु सद्दृष्टिसुसंयता ये ॥ २८ ॥ अपात्रदानेन कुमानुषेषु सुपात्रदानेन च भोगभूमौ । दानशीलास्तस्मादपात्रं परिवर्जनीयम् ॥ २९ ॥ फलं लभन्ते खलु श्रद्धान्वितो भक्तियुतः समर्थो विज्ञान वल्लोभविवर्जितश्च । क्षान्त्यान्वितः सत्वगुणोपपन्नस्तादृग्विधो दानपतिः प्रशस्तः ।। ३० ।। सुदृष्टयस्तप्त महातपस्का' ध्यानोपवासव्रतभूषिताङ्गाः । ज्ञानाम्बुभिः संशमितोरुतृष्णाः प्रतिग्रहीतार उदाह्रियन्ते ॥ ३१ ॥ दानं वस्तुकी शुद्धि और उपयोग, देय वस्तुको जुटानेके उपाय तथा ग्रहीता पर उसका फल इतनी बातोंकों भलीभाँति जान लिया है । तथा विवेकपूर्वक जो दान देते हैं वे जीव निस्सन्देह भोगभूमिको जाते हैं ।। २७ । पात्र-अपात्र यहाँ दान ग्रहण करनेवालेकी सत्पात्रता और अपात्रताकी अपेक्षा से ग्रहीता प्रधान दो विभागोंमें बँट जाता है। मिथ्यादृष्टी और असंयमी जीवोंको अपात्र कहा, है तथा सत्यदेव, गुरु और शास्त्र में श्रद्धा करनेवाले सम्यग्दृष्टी सत्पात्र हैं ||२८|| मिथ्यादृष्टी अर्थात् असंयमी और भ्रान्तलोगों को दान देते हैं वे मनुष्य गतिकी कुत्सित योनियों में उत्पन्न होते हैं । सम्यक्ज्ञानी, संयमी, सद्धर्मी आदिको दान देनेसे भोगभूमि की प्राप्ति होती है और वहाँके सुखोंके रूपमें वे अपने दानका फल पाते हैं, अतएव जिनका स्वभाव दान देनेका है उन्हें प्रयन्न करके अपात्रोंसे बचना चाहिये ॥ २९ ॥ वाताका स्वरूप दाताओंकी सर्वप्रथम योग्यता है उसकी गाढ़ श्रद्धा, श्रद्धा होनेपर भी यदि उपेक्षासे दिया तो वह निरर्थक ही होगा इसलिए दाताको भक्तियुक्त होना चाहिये । दान देनेकी सामर्थ्य भी अनिवार्य योग्यता है । दानविधिके ज्ञाता होनेके साथ दाताका निर्लोभी होना भी आवश्यक है। उसके स्वभावमें शान्तिके साथ-साथ सात्त्विकता होना भी अनिवार्य है । फलतः जिसमें ये सब गुण हैं वही श्रेष्ठ दाता है ॥ ३० ॥ उत्तम पात्र सम्यकदृष्टी, दुर्द्धर तपस्याओंको तपनेवाले तपस्वी, जिनके शरीरपर उत्कृष्ट ध्यान, उपवास, यम, नियम आदिक आभा चमकती है तथा सत्य ज्ञानरूपी जलसे जिन्होंने भोग और उपभोगोंकी उत्कट अभिलाषारूपी प्यासको पूर्ण शान्त कर दिया है, वे ही आदर्श प्रतिग्रहीता कहे गये हैं ॥ ३१ ॥ १. क क्षान्त्याद्यतः । २. म सुदृष्ट बस्सप्त । ३. कबभूरिसारा: । For Private Personal Use Only सप्तमः सर्गः [११९] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् शास्त्राणि निःश्रेयसकारणानि आहारदानाभयभेषजानि । चत्वारि तान्यप्रतिमानि लोके देयानि विद्वद्धिरुदाहृतानि ॥ ३२ ॥ शास्त्रेण सर्वज्ञमुपैति दाता आहारदानादुपभोगवान्स्यात् । दयाप्रदानान्न भयं परेभ्यो व्यपेतरोगस्त्वथ भैषजेन ॥ ३३ ॥ कन्यासभहेमगवादिकानि केचित्प्रशंसन्त्यनदारवत्ताः । स्वदोषतस्तानि विजितानि व्यपेतदोषैर्ऋषिभिविशेषात् ॥ ३४ ॥ कन्याप्रदानादिह रागवृद्धिषश्च रागाद्भवति क्रमेण । ताभ्यां तु मोहः परिवृद्धिमेति मोहप्रवृत्ती नियतो विनाशः ॥ ३५ ॥ ALLERSwarupeesaasaram AIRavinायनाममा दान शास्त्रके पंडितोंने मोक्षप्राप्तिके प्रधान कारण शास्त्र, शरीर स्थितिका निमित्त आहार, निर्विघ्न रूपसे तपस्यामें साधक औषधि तथा संसारमात्रको सुखो बनानेका अमोघ उपाय, अभय ये चारों अनुपम वस्तुएँ ही इस संसारमें देने योग्य बनायी हैं ॥ ३२॥ दान-भेद शास्त्रदानमें वह शक्ति है, जो एक दिन दाताको भी सर्वज्ञ पदपर बैठा देती है, सत्पात्रमें दिये गये आहार दानके हो । प्रतापसे लोग प्रचुर भोगोपभोगोंको प्राप्त करते हैं । जो दूसरोंको अभय देते हैं वे स्वयं भी दूसरोंके भयसे मुक्त हो जाते हैं। औषध दान देनेका ही फल है, जो लोग पूर्ण स्वस्थ होते हैं ।। ३३ ॥ कन्यादान कुछ संकुचित मनोवृत्ति के लोगोंका कहना है कि कन्याको भूमि, गृह, स्वर्ण, गाय, भैंस, घोड़ा आदि गृहस्थीमें आवश्यक वस्तुएँ देना भी सुदान है और प्रशंसनीय है। किन्तु उक्त प्रकारके दानसे हुए दोषोंके कारण, वह छोड़ने योग्य ही है। विशेषरूपसे उन साधुओंके द्वारा जिन्होंने गृहस्थी अदके दोषमय आचरणको छोड़ दिया है ।। ३४ ।। [१२०] जब किसीको लड़की दी जायेगी तो उससे उन दोनोंमें राग हो बढ़ेगा, उस रागभावको कार्यान्वित करनेमें नाना । प्रकारकी परिस्थितियोंके कारण क्रमशः द्वेष उत्पन्न होगा। रागद्वेषसे मोहनीय दिन दूना और रात चौगुना बढ़ेगा और जब मोहका आत्मापर पूर्ण अधिकार हुआ तो विनाश निश्चित ही है ।। ३५ ।। १. [ सार्वश्य ] Jain Education interational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग PUBामाचाच सप्तमः - सर्गः चरितम् E दुःखाय शस्त्राग्निविषं परेषां भयावह हेममुवाहरन्ति । संताडनोद्वन्धनवाहनैश्च दुःखान्यवाप्नोति गवादिदेयम् ॥३६॥ भूमिः पुनर्गर्भवती च नारी कृष्यादिभिर्याति वधं महान्तम् । तदाश्रयाः प्राणिगणाश्च यस्माद्भदानमस्मान्न विशिष्टमाहः ॥ ३७॥ देशे च काले गुणवत्प्रदत्तं फलावहं तद्भवतीति विद्धि । लोकप्रसिद्ध व्यवहारमात्रा'दृष्टान्तमेकं शृणु कथ्यमानम् ॥ ३८ ॥ कपात्प्रसन्नैकरसं जलं यद्विसुज्यमानं सरणीमुखेन । तदेव नानारसतां प्रयाति द्रव्याण्युपाश्रित्य पृथग्विधानि ॥ ३९ ॥ पयो भवेद्धेनुनिपीतमम्भः शुण्ठ्या कटुत्वं मधुरं कदल्या। तथेक्षुणा तैर्गुडशर्कराद्यैः कषायसारः क्रमुकाभयाभ्याम् ॥४०॥ विवाहके समय कन्याके साथ यौतक ( दहेज ) रूपसे दिये गये खड्ग आदि शस्त्र, अग्नि तथा अग्निके साधन, विषादि परम्परया दूसरोंके दुःखके कारण होते हैं, दहेजमें दिया गया सोना और धन उक्त उपायोंका साधन होनेके कारण तथा चोरादिके कारण भयको उत्पन्न करता है तथा जामाताको दिये गये गाय, बैल आदि पशु तो साक्षात् ही पिटना, बँधना, जलाया जाना आदि अनेक दुःखोंको भरते हैं ।। ३६ ॥ गर्भवती स्त्री तथा खेती आदिके उपयोगमें आनेवाली भूमि ये दोनों ही अपनी जनन शक्तिके कारण महान संहारका कारण होती हैं, क्योंकि इनके उत्पादक स्थलोंपर रहनेवाले अनेक प्राणी हल आदि चलाते हो मर जाते हैं फलतः इन दोनोंके दानमें कोई विशेषता नहीं है ।। ३७ ।।। वही देय वस्तु ठीक समयसे उपयुक्त क्षेत्रमें यदि किसी गुणवान व्यक्तिको दी जाती है तो निश्चयसे उसका परिणाम उत्तम होता है। इसे ही समझनेके लिए व्यवहारकी प्रधानताको बतलानेवाला संसारमें अत्यधिक चालू एक उदाहरण सुनिये मैं कहता हूँ ।। ३८ ॥ दान कथा कुएँका एक ही रसयुक्त निर्मल जल जब किसी नालीसे निकाला जाता है और अलग-अलग स्थानों पर सींच दिया जाता है तो वही एकरस जल नाना प्रकारकी वस्तुओंसे मिलकर अनेक प्रकारके रसों और गुणोंको प्रकट करता है ।। ३९ ॥ गायके द्वारा पिया गया वही कूप-जल कुछ प्रक्रियाके बाद दूध हो जाता है। सोंठकी जड़में पहुंचकर उसका स्वाद १. क मात्राः । ROLAGAUAGEमच्यामजन्म [१२१] Jain Education international 94 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सर्पेण पोतं विषमादधाति तिक्तत्वमायाति च निम्बपीतम् । आम्लो रसस्तिन्त्रिणिकाकपित्थैः काम्लो भवेदामलकेन पीतम् ॥ ४१ ॥ देयं तथैकं ह्यनवद्यरूपं दाता च भक्त्या द्विगुणोपपन्नः । प्रतिग्रहीतुगुणतः फलानि फलन्त्यनेकानि सुखासुखानि ॥ ४२ ॥ भुक्तान्नवीर्येण हि केचिदत्र स्त्रीद्यूतहिंसा मदिराभिरक्ताः । परापवादाभिरता नृशंसाचिन्वन्ति पापान्यसुखप्रदानि ॥ ४३ ॥ केचित्पुनर्ज्ञानविशुद्धचित्ता दृढव्रताः शान्तकषायदोषाः । जितेन्द्रिया न्यायपथानुपेताः पुण्यानि कर्माणि समर्जयन्ति ॥ ४४ ॥ कटुतिक्त हो जाता है, कदली में जाकर वह मीठे केले उत्पन्न करता है, ईखमें प्रवेश करके वही जल सबसे मीठे गुड़ और शक्करको उत्पन्न करता है, सुपारी और हर्रमें पहुँचकर वह कषाय ( कसैले ] रसका कारण होता है ॥ ४० ॥ उसी मधुर-निर्मल जलको पीकर साँपका विष बढ़ता है, नीमकी जड़ोंसे खींचा गया वही रस उसके कडुवे स्वादका कारण होता है, इमली और कैंथको जड़ों में पड़ा वही जल खट्टे रसमें बदल जाता है और आँमडे तथा आँवलेके द्वारा पिया गया वही जल अम्ल रसका जन्मदाता होता है ॥ ४१ ॥ इसी प्रकार देय पदार्थ है, वह अपने आप सर्वथा दोषोंसे रहित है । किन्तु दाताकी योग्यताओं और भक्तिके द्वारा उसकी विशेषताएँ दूनी हो जाती हैं तथा ग्रहण करनेवालेकी योग्यताओंके अनुसार वह सुख-दुःखमय विविध प्रकारके फलोंको उत्पन्न करता है ।। ४२ ।। दान परिपाक निदर्शन 'भोजनमें खाये गये अन्नसे प्राप्त शक्तिके द्वारा इस संसारमें बहुत से लोग स्त्रियोंसे कामरति, जुआ, शिकार, हिंसा, शराब, गांजा आदि मादक द्रव्योंका सेवन करते हैं, दूसरे लोग उस शक्तिको दूसरोंकी अपकीर्ति करनेमें व्यय करते हैं और अन्य लोग निर्दयतामय कार्य करके भयंकर दुःखोंके दाता पापोंको ही कमाते हैं ।। ४३ ।। किन्तु दूसरे कुछ लोग जिनके हृदय ज्ञानरूपी निर्मल जलधारसे घुलकर रागद्वेषादि दोषोंसे निर्मल हो गये हैं, जो सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रहत्याग व्रतोंके पालनमें दृढ़ हैं, क्रोधादि कषाय तथा अन्य दोषोंको नष्ट कर दिया है, इन्द्रियाँ जिनकी आज्ञाकारिणी हैं तथा जो सदा न्यायमार्ग पर ही चलते हैं वे अपने भोजनसे प्राप्त शक्तिके द्वारा पुण्य कर्मोंका ही संचय करते हैं ॥ ४४ ॥ सप्तमः सर्ग: [ १२२] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् कुर्वन्ति ये ये न च पुण्यपापमवश्यमाहारबलेन दातुः । तांस्तांश्च राजन्स्वविपाककाले' ध्रव पुनस्तदद्वयमभ्युपैति ॥ ४५ ॥ असंयतेभ्यो वसतिप्रदानादाहारदानात्सहवासतस्तु । यथैव दण्ड्याः सह तैर्गहेशा आदातभिर्दानपरास्तथैव ॥ ४६॥ सुसंयतेभ्यो वसतिप्रदानादाहारदानात्सहवासतस्तु । यथैव पूज्याः सह तैर्गहेशा आदातभिर्दानपरास्तथैव ॥ ४७॥ अपात्रदानाच्च कुमानुषाणामनिष्टगात्रेन्द्रियसौख्यभोगाः । कुज्ञानसत्त्वद्युतिधीर्यशांसि भवन्त्ययत्तात्स्वयमेव तानि ॥ ४८ ॥ LAGIR जिन दाताओंके भोजनसे प्राप्त शक्तिके द्वारा पुण्यकर्म किये जाते हैं और पाप नहीं किये जाते हैं उन्हें फलप्राप्तिके अवसरपर पुण्य ही मिलता है तथा जिनके भोजनसे प्राप्त शक्तिके द्वारा पाप किया जाता है और पुण्य नहीं किया जाता है उन्हें फल प्राप्तिके अवसर पर निश्चयसे पाप ही मिलता है ।। ४५ ॥ असंयमी व्यक्तियोंको शरण देनेसे, उनका भरणपोषण करनेसे अथवा उनकी संगति करनेसे जिस प्रकार निर्दोष गृहस्थ उन अपराधियोंके साथ नाना प्रकारके दण्ड पाते हैं उसी प्रकार दानविमुख, कुकर्मरत लोगोंको दान देनेसे दाता लोग भो उनके कुकर्मों में हाथ बँटाते हैं ।। ४६ ॥ संयमी शिष्ट पुरुषोंको अपने घर पर ठहरानेसे, भोजनपान व्यवस्था द्वारा उनका स्वागत करनेसे तथा उनकी सुसंगतिमें रहनेके कारण ही साधारण गृहस्थ जिस प्रकार पूजा और सम्मानको पाता है उसी प्रकार स्वयं दानकर्मसे होने योग्य प्रतिग्रहीताके साथ उदार दानी भी पुण्य कमाते हैं ।। ४७ ।। ALESEDGIRecoraERY ___अपात्र सुपात्र दानफल अपात्रोंको दान देनेसे यह जीव कुत्सित मनुष्यों के समान अशुभ और अवगुणमय देहको पाते हैं फलतः उनकी इन्द्रियोंकी प्रवृत्तियाँ भी अकल्याणकी तरफ होती हैं, सुख और भोग भी पतनकी दिशामें ले जाते हैं। बिना किसी प्रयत्नके ही उनका ज्ञान दूषित हो जाता है, शक्ति और बुद्धिका झुकाव भी अनिष्ट कर होता है तथा उनकी शारीरिक और मानसिक शोभा तथा कोति भी कलंकित हो जाती है ।। ४८॥ १. म°स विपाक°। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग सप्तमः सर्गः चरितम् -RELEचय सुपात्रदानात्सुरमानुषाणां विशिष्टगात्रेन्द्रियसौख्यभोगाः। सज्ज्ञानसत्त्वातिधीर्यशांसि भवन्त्ययत्नात्स्वयमेव तानि ॥ ४९ ॥ व्यपेतमात्सर्यमदाभ्यसूयाः सत्यव्रताः क्षान्तिदयोपपन्नाः । संतुष्टशीलाः शुचयो विनीता निर्ग्रन्थशूरा इह पात्रभूताः ॥ ५० ॥ ज्ञानं तु येषां हि तपोधनानां त्रिकालभावार्थसमग्रदशि । त्रिलोकधर्मक्षपणप्रतिज्ञो' यान दग्धुमीशो न च कामवह्निः ।। ५१ ॥ येषां तु चारित्रमखण्डनीयं मोहान्धकारश्च विनाशितो यैः।। परीषहेभ्यो न चलन्ति ये च ते पात्रभूता यतयो जिताशाः ॥ ५२ ॥ सुपात्रको दिये गये दानके फलका अवसर आते ही देवों ओर विशिष्ट मनुष्यों तुल्य अनेक सद्गुणोंका आगार शुभ शरीर प्राप्त होता है, इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्ति भी कल्याणकारी होती है, सुख और भोग भी शुभबन्धके ही कारण होते हैं, स्वभावसे ही उनका ज्ञान सत्यमय होता हैं बिना प्रयत्नके ही, उवकी शक्ति और बुद्धि इष्ट कार्यों में लगी रहती है तथा उनकी शारीरिक कान्ति और सुयश दिनों दिन बढ़ता ही जाता है ।। ४९ ।। पाणिपात्र ही उत्तमपात्र सांसारिक प्रलोभनों और बाधाओंके सम्मुख अकेले ही जूझनेवाले निग्रन्थ मुनि ही सर्वोत्तम पात्र हैं, क्योंकि उन्हें दूसरोंका अभ्युदय देखकर बुरा नहीं लगता है अहंकार और ईर्ष्या तो उनके पास भी नहीं फटकते हैं, वे सत्यकी मूर्ति होते हैं, क्षमा, तथा दया गुणोंके तो वे भण्डार होते हैं, उनका स्वभाव संतोषसे ओतप्रोत होता है, हृदय और शरीर दोनों ही परम पवित्र होते हैं तथा ज्ञानवीर्यके पुज होते हुये भी वे विनम्रताकी खान होते हैं ।। ५०॥ जिन तपोधन ऋषियोंका ज्ञान तीनों कालों और लोकोंके समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको हथेलीपर रखे हुये आँवलेके समान देखता है, जो तीनों लोकोंमें धर्मका प्रचार करनेके लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, जिन्हें कामदेवकी ज्वाला जलाना तो कहे कौन में आंच भी नहीं पहुंचा सकती है ।। ५१ ॥ जिनका चरित्र किसी भी प्रकारके प्रलोभन, भय और बाधाओंसे खण्डित नहीं किया जा सकता है, मोहरूपी आध्यात्मिक अन्धकारको जिन्होंने समूल नष्ट कर दिया है तथा क्षुधा, तृषा आदि अठारह परीषह भी जिन्हें आत्म-साधनासे विचलित नहीं कर सकते हैं तथा आशारूपो नदीके उस पार पहुँचे हुये वे ऋषिराज ही सत्पात्र हैं ।। ५२ ।। TAGRAMIRRITATE १.मांत्रियोककर्म । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग सप्त चरितम् सर्गः सद्दष्टिसम्तानचरित्रबद्भ्यो भक्त्या प्रयच्छन्ति सुदृष्टयो ये। भुक्त्वा सुखं ते सुरमानुषाणां क्रमेण निर्वाणमवाप्नुवन्ति ॥ ५३॥ मिथ्यादृशः सद्वतदर्शनेभ्यः असंयतः केवलभोगकाङ्क्षाः । दत्वेह दानं परया विशुद्ध्या ते भोगभूमौ खलु संभवन्ति ॥ ५४॥ निगत्य गर्भादिवसांस्तु सप्त वसन्स्यथाष्ठमपालिहन्तः।। द्विसप्ततिस्तैस्तु' दिनैरथान्यैर्भवन्ति ते षोडशवर्षलीलाः ॥ ५५ ॥ स्त्रीपुंसयुग्मप्रसवात्मकास्ते सर्वे विशुद्धेन्द्रियबुद्धिसत्त्वाः। सर्वे च सल्लक्षणलक्षितानाः सर्वे कलाज्ञानगुणोपपन्नाः ॥ ५६ ॥ RELEADEPARASILIPINTERNATASHAURRELESED सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्रधारी मुनियोंको जो भव्यजीव भक्तिपूर्वक उक्त चार दान देते हैं वे सम्यकदृष्टी देवगतिके समस्त सुखोंको भोगकर उत्तम मनुष्योंमें जन्म लेते हैं, और मनुष्यगतिके अभ्युदयकी चरम सीमापर पहुंचकर क्रमशः अन्तमें मोक्ष-लक्ष्मीको वरण करते हैं ॥ ५३ ।। मिथ्यादृष्टी जीव, जो किसी प्रकारके आचरणका पालन नहीं करते हैं तथा सदा ही भोगों और उपभोगोंकी इच्छा किया करते हैं वे भी सत्य श्रद्धायुक्त व्रतधारो ऋषियोंको चार प्रकारके दानमेंसे कोई भी दान यदि परम शुद्धि और भक्तिके साथ इस भवमें देते हैं, तो निश्चयसे भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं ।। ५४ ।। भोगभूमि-जन्मादि वे ज्योंही गर्भसे निकलते हैं त्योंही उनके माता पिताकी मृत्यु हो जाती है, अतः जन्मके बाद वे एक सप्ताह पर्यन्त ऊपरको मुख किये जन्म स्थलपर पड़े रहते हैं और अपने पैरके अंगठेको चूसते हैं। और दो सप्ताह बीतते-बीतते ही उनका शारीरिक विकास इतना हो जाता है कि उनका शरीर और स्वभाव सोलह वर्षके किशोर और किशोरीके समान हो जाता है ॥ ५५ ॥ भोग-भूमियाँ जीव अपनी माताके उदरसे युगलरूपमें उत्पन्न होते हैं और युगल भी स्त्री और पुरुषका होता है । जन्मसे । ही उनकी इन्द्रियाँ, बुद्धि और शक्ति निर्दोष होती हैं। किसी भोगभूमियाका शरीर ऐसा नहीं होता है जिसपर शुभलक्षण न पाये जांय तथा उन सबमें जन्मसे ही ललित कलाओंका प्रेम, ज्ञान तथा शुभ गुण होते हैं ।। ५६ ॥ [१२५] १. [ द्विसप्तभि ] । Jain Education intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् द्वीपः समुद्रो भवनं विमानं सरः पुरं गोपुरमिन्द्रकेतुः । शङ्खः पताका मुसलं च भानुः पद्म शशिस्वस्तिकदामकूर्माः ॥ ५७ ॥ आदर्शसंहेभगजेन्द्रमत्स्याश्छत्रासिशय्यासनवर्धमानम् 1 श्रीवत्सचक्रानलवज्रकुम्भा हस्ताग्रपादेषु भवन्ति तेषाम् ॥ ५८ ॥ नराश्च सर्वे सुरतुल्यरूपा नार्यः सुरस्त्रीप्रतिमानभासः । विचित्रवस्त्रोज्ज्वलभूषणाङ्गाः सयौवनाः सस्मितमृष्टवाक्याः ॥ ५९ ॥ अन्योन्यगीतश्रवणानुरक्ता अन्योन्य वे षैरवितृप्तकामाः । चिरं रमन्ते वनिता नरासु परस्परप्रोतिमुखाः सदैव ॥ ६० ॥ परस्पराक्रीडनसक्तचित्ताः परस्परालङ्कृतकान्तरूपाः । परस्परालोकनतत्पराक्षा उदत्कुरौर देवकुरौ च जाताः ।। ६१ ।। भोगभूमिज शरीर उनकी हथेलियों और पैरोंके तलुओंमें द्वीप, समुद्र, भवन, विमान, जलाशय, नगर, गोपुर, ( प्रवेश द्वार ) इन्द्रकी ध्वजा, शंख, पताका, मूसल, सूर्य, कमल, चन्द्रमा, स्वस्तिक, माला, कच्छप, दर्पण । सिंह, हाथी, ऐरावत, मछली, छत्र, शय्या ( पलंग), सिंहासन, वर्धमानक ( ) श्रीवत्स, (पुष्पाकार चिह्न) चक्र, अग्निज्वाला, वज्र, कलश के चिह्न होते हैं, जो कि लौकिक सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार विभूतियोंके द्योतक हैं ।। ५७-५८ ।। भोगभूमिके सबही पुरुषोंके स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा कान्ति देवोंके समान होती है और समस्त नारियाँ तो साक्षात् ari ही होती हैं क्योंकि उनके अद्भुत वस्त्र, आभूषण और शृङ्गार सर्वथा मनोहर होते हैं, वे सब सदा युवतियाँ हो रहती हैं। वे मन्द मुस्कानके साथ जब बोलती हैं तो उनके शब्द कानमें अमृतकी तरह लगते हैं ।। ५९ ।। भोगभूमिया जुगलिया (एक साथ उत्पन्न पुरुष और स्त्री ) एक-दूसरेके गीत और प्रेमालाप सुननेमें ही मस्त रहते हैं । परस्परमें पुरुष स्त्रीका और स्त्री पुरुषका वेशभूषा देखते-देखते तृप्त ही नहीं होते हैं । वे सदा हो एक-दूसरे के प्रेमको पाने के लिए उन्मुख रहते हैं । इस प्रकार बे चिरकाल एक-दूसरेके साथ रमण करते हैं ॥ ६० ॥ उनकी आँखें एक-दूसरेका सौन्दर्य पान करनेमें ही व्यस्त रहती हैं। आपसमें पति-पत्नीका और पत्नी पतिका शृंगार करके एक-दूसरेके रूपको और अधिक मोहक बना देते हैं। वे एक-दूसरेको प्रिय क्रीड़ाको करनेमें ही अपना शरीर और मन दोनों लगा देते हैं ॥ ६१ ॥ १. [ नरेषु परस्परप्रीतिसुखाः ] । २. [ उदक्कुरौ ] । सप्तमः सर्ग: [१२६] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः वराङ्ग चरितम् राजस्त्रिपल्योपमजीविनस्ते हर्याहका रम्यकवासिनश्च । तान्द्विद्विपल्यद्वयजीविनश्च सुवेषयुक्तास्सुखवाधिमग्नाः ॥ ६२॥ हैरण्यका हैमवता नरा ये तेषां तु पल्योपममेकमाहुः । सर्वे च भोगाननुभूय पश्चाद्दिवं प्रयान्ति क्षतजम्भमात्रात् ॥ ६३ ॥ नात्मप्रशंसा न परापवादा मात्सर्यमायामदलोभहीनाः । स्वभावतस्ते सुविशुद्धलेश्या यस्मादतस्ते दिवमेव यान्ति ॥ ६४ ।। चक्रायुधस्याप्रतिशासनस्य दशाङ्गभोगप्रभवाच्च सौख्यात् । यद्भोगभूमिप्रभवं त्वनन्तं तत्सौख्यमित्येवमुदाहरन्ति ॥ ६५ ॥ सर्गः BACHARASTRAPATRATEepreseaweeTAMATIPATIPATHIPAT भोगभूमि-स्थिति ( आयु) जो उत्तरकूर और देवकूरुमें जन्म लेते हैं, हे राजन् ! उनकी अवस्था तीन पल्य प्रमाण होती है । मध्यम भोगभूमि अर्थात् हरि और रम्यक क्षेत्रोके निवासी जीवोंकी आयुका प्रयाण दो, दो पल्य है। यह सब भी उक्त प्रकारसे उत्तम वेशभूषाको धारण करते हैं और समस्त सुखोंके समुद्रमें डूबे रहते हैं ।। ६२ ।। जो जीव हैरण्यक और हैमवतक क्षेत्रों में व्याप्त जघन्य भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं वे सब वहाँपर एक पल्य लम्बा जीवन व्यतीत करते हैं । यह सब भोगभूमिया जीवन भर समस्त प्रकारके सुखों और भोगोंका रस लेते हैं और आयु पूर्ण होने पर एक छींक या जमायी लेकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं और जाकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं ।। ६३ ॥ भोगभूमियोंको विशेषताएं भोगभूमिया जीव न तो अपनी प्रशंसा स्वयं करते हैं और न दूसरोंकी निन्दा ही करते हैं, न उन्हें दूसरेके अभ्युदयसे । संक्लेश होता है न वे किसीकी वंचनाके लिए कपट हो करते हैं, न उन्हें अहंकार होता है और न किसी प्रकारका लोभ, स्वभावसे । ही उनका शरीर और भाव प्रशस्त होते है फलतः दोनों लेश्याएँ ( द्रव्य-भाव ) शुभ ही होती हैं । ६४ ॥ [१२७] ये ही सब कारण हैं कि वे मरकर स्वर्ग हो जाते हैं हैं। जिस चक्रवर्तीकी आज्ञाके विरुद्ध कोई शिर नहीं उठा सकता है उसको चौदह रत्नों और दश ऋद्धियोंके कारण जो सुख और भोग प्राप्त होते हैं, तुलना करनेपर भोगभूमिमें प्राप्त भोग और सुख उनकी अपेक्षा अनन्तगुणे होते हैं ऐसा आगम कहता है ।। ६५ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जराङ्ग चरितम् इति कथितमुदारदानपुण्यं प्रभवसुखं निरुपद्रवं विशालम् । दशविधतरुभिविसृज्यमानं ललिततरं नृपते समासतस्ते ॥ ६६ ॥ अशुभशुभफलस्य साक्षिभूतामवनिमयो गदितुं मुनौ प्रवृत्ते अतिहृषिततनूरुहो नरेन्द्रः श्रवणनिबद्धमना भृशं बभूव ॥ ६७ ॥ 1 इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते देवकुरूत्तरकुरुवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः । हे राजन् ! दाता दान आदिकी विशेषताओं पूर्वक दिये गये विशाल दानके पुण्यसे प्राप्त होनेवाले भोगभूमिके अत्यन्त ललित सुखको आपको संक्षेपसे समझाया है। दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे प्राप्त इस सुखमें न तो कोई बाधा ही आ सकती है और न इसकी सीमा ही है ॥ ६६ ॥ जब मुनिराज श्रीवरदत्त केवलीने पुण्य और पापके मिश्रित शुभ और अशुभ फलको रंगस्थली भूत गति ( मनुष्यगति ) के विषयमें उपदेश प्रारम्भ किया तो राजाको इतना आनन्द हुआ कि उसे रोमाञ्च हो आया और उसने अपने मनको पूर्णरूप से कर्णेन्द्रियमें केन्द्रित कर दिया ।। ६७ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द- अर्थ - रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें देवोत्तर-कुरु वर्णन नाम सप्तम सर्ग समाप्त । " For Private Personal Use Only SORG सप्तमः सर्ग: [१२८ ] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग अष्टमः सर्ग: चरितम् FORIER-SHASURE-RE-THE अष्टमः सर्गः षट्कर्मधर्माभिरताः सुवेशा द्वात्रिंशदेवाश विबेहसंज्ञाः । ऐरावतो भारतवर्षसाह्वस्ताभ्यां चतुस्त्रिशदुदाहरन्ति ॥१॥ ते पञ्चभिः संगुणिता नरेश शतोत्तरा सप्ततिरेव वा स्युः । आर्यास्त्वनार्या द्विविधा मनुष्यास्तत्रोद्भवन्तीत्यूषयो वदन्ति ॥ २ ॥ ये सिंहला बर्बरकाः किराता गान्धारकाश्मीरपुलिन्दकाश्च । कामबोजवाह्रोकरखसौद्रकाद्यास्तेऽनार्यवर्ग' निपतन्ति सर्वे ॥३॥ इक्ष्वाकुहर्य ग्रकरुप्रधानाः सेनापतिश्चेति पुरोहिताद्याः। धर्मप्रियास्ते नृपते त एव आर्यास्त्वनार्या विपरीतवृत्ताः॥४॥ -H अष्टम सर्ग कर्मभूमि संख्या इस जम्बूद्वीपके ही विदेह खण्डमें सुमेरुको पूर्व और पश्चिमदिशामें सोलह-सोलह सुन्दर देश ऐसे हैं जहाँके निवासी असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और सेवा इन छहों कर्मोंको करके जीवन व्यतीत करते हैं, इनके अतिरिक्त उक्त द्वीपके उत्तर और दक्षिणमें स्थित ऐरावत और भरतक्षेत्रके निवासियोंका भी यही हाल है फलतः उक्त बत्तीसमें यह दो जोड़ देनेपर । जम्बूदीपमें ही चौंतीस कर्मभूमियाँ हो जाती हैं ।। १॥ हे नरेश ! इस संख्या पाँचका गुणा ( क्योंकि 'धातकीखण्ड' और 'पुष्कराई' में जम्बुद्वीपसे दुगुने क्षेत्र, पर्वत आदि हैं) करने पर कुल कर्मभूमियोंकी संख्या ( सौ ) अधिक सत्तर अर्थात् एक सौ सत्तर हो जाती है। केवली भगवानने कहा है कि इन कर्मभूमियोंमें जन्म लेनेवाले लोग आर्य और अनार्यके भेदसे दो प्रकारके होते हैं ॥ २॥ आर्य-अनार्य देश सिंहल ( लंका ) में जन्मे लोग, साधारणतया जंगलोंके निवासी वर्वर या आटविक किरात ( भील, गोंड आदि), । गान्धार, काश्मीरमें उत्पन्न हुए लोग, पुलिन्द ( संथाल, आदि ) कम्बोज, वलख ( वाल्हीक ), खस, औद्रक ( उण्ड्र निवासी) आदि मनुष्योंकी गणना अनार्योंके समूहमें की गई है ।। ३॥ इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, उग्रवंश ( यादव आदि ) कुरुवंश आदि अग्रगण्य कुलोंमें उत्पन्न हुए राजा आदि, उनके मंत्री, । १.क चार्यबर्गे। Jain Education internationale aure-premergreememe-e-Awee-wespreasure-prepreneIRAMINE earesmereARPAPHARPAPERS [१२९ For Privale & Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अनेकजात्यन्तर संकटत्वादज्ञानतः कर्म गुरुत्वदोषात् । संसर्गतो दुःश्रुतिदुर्जनानां न लभ्यते मानुषजातिराशु ॥ ५ ॥ सामान्यभूते च मनुष्यलोके काम्बोजकाश्मीरक बर्बराणाम् । म्लेच्छाद्वहुत्वादतिदुर्लभं तं सुमानुषत्वं विबुधा निराहुः ॥ ६ ॥ तत्रापि भोज्यं हि कुलं न लभ्यं पुलिन्दचाण्डालकुलाकुलत्वात् । तथैव रूपं मतिरिन्द्रियाणि आरोग्यमर्थित्वमुदारधर्मम् ॥ ७ ॥ लब्ध्वापि सद्धर्ममती च कृच्छ्रात्सुदुर्धरं घोरतपोविधानम् । कषायघोरा विषयारयश्च कुर्वन्ति विघ्नं बहुभिः प्रकारैः ॥ ८ ॥ पुरोहित, सेनापति, दण्डनायकादि सव ही आर्य थे, क्योंकि इन्हें सत्धर्मं अत्यन्त प्रिय है फलतः इनका आचरण भी अनार्यों के असंयममय चरित्रसे सर्वथा विपरीत ( संयत ) होता है ॥ ४ ॥ मनुष्यगतिकी कर्मभूमियाँ अनेक वर्गोंके स्वरूपका शुद्ध ज्ञान नहीं है, आर्योंका आचरण मनुष्यको दुर्जनों की संगति, कुशास्त्र और कुज्ञान नहीं होता है ॥ ५ ॥ मनुष्य तथा आर्यत्व पुरुषोंसे ठसाठस भरी हैं, मनुष्यको आर्यत्व और अनार्यत्वके साधनों तथा और विचार दोनों ही विशाल हैं अतः उसका निर्दोष पालन दुष्कर है, सरलतासे प्राप्त हो जाते हैं, यही कारण है जो आर्यकुल सरलता से प्राप्त ही सामान्यरूपसे आकृति तथा वेश भूषा देखनेसे सब ही मनुष्य एक समान प्रतीत होते हैं इसके अतिरिक्त साधारणतया काम्बोज, काशमीरकी ओरये आये ऋषिक, तुखा [षा] र, शक, हूण आदि म्लेच्छ वर्ग के लोगोंकी संख्या अत्यधिक है कि इन कारणोंका विचार करके ही विद्वानोंने कहा था कि शुद्ध आर्यत्व इस पृथ्वीपर अत्यन्त कठिन हैं ॥ ६ ॥ भोज कल इसी प्रकार आर्यों में भी शुद्ध भोजकुलको पाना तो एक प्रकारसे असंभव ही समझिये, क्योंकि समय-समय पर आक्रमण करनेवाले पुलिन्द, चाण्डाल, आदिके कुत्सित कुलोंके लोग भी उसमें समा गये हैं। शुद्ध और कल्याणकारिणी बुद्धि, शुभ कर्मरत इन्द्रियों, घृणित रोगहीन स्वास्थ्य, न्यायसे अर्जित संपत्ति और वीतराग प्रभुसे उपदिष्ट जिनधर्मंकी भी यही ( दुर्लभतम ) अवस्था है ॥ ७ ॥ यदि किसी प्रकार कल्याणपथकी ओर चलनेवाली सुमति प्राप्त हो जाय तथा अनेक कष्ट झेलनेके बाद शुद्ध तपस्या की १. क बुद्धवापि । अष्टमः सर्गः [ १३० ] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरांग चरितम् STS Te विधिका पता लग भी जाता है तो क्रोधादि कषायोंकी सहायता के कारण भयंकर विषयरूपी शत्रु नाना प्रकारसे उस आचरण और ज्ञानकी उपासनामें विघ्न करते हैं ॥ ८ ॥ स्वप्नश्च भृत्यो युगचक्रकूर्मा द्यूतं च दास्यं परमाणवश्च । रत्नं तथाक्षश्च निदर्शनानि दशोपदिष्टानि मनुष्यलोके ॥ ९ ।। यथैव मेहः प्रवरो गिरीणां जलाश्रयानामुदधिविशिष्टः । गोशीर्षवृक्षस्तरुषु प्रधानस्तथा भवानां मनुजत्वमाहुः ॥ १० ॥ ग्रहेषु चन्द्रो मृगरामृगेषु नरेषु राजा गरुडोऽण्डजेषु । रत्नेषु वज्र' जलजेषु पद्मं यथा तथा सर्वभवेषु नृत्वम् ॥ ११ ॥ मनुष्यजातिर्ब्रतशीलहीना तिर्यङनराणामशुभं ददाति । दुःखान्यमेयानि च नारकाणा 'मनन्तशः प्रापयतीति विद्धि ।। १२ ।। इस मनुष्यलोक में जीवोंका विभाग समझाने के लिए स्वप्न, सेवक, युग, चक्र, कच्छप, जुआ, धन, धान्य, परमाणु, रत्न और पांसे यह दश उदाहरण दिये हैं ।। ९ ॥ मनुष्यगतिकी प्रधानता समस्त पर्वतोंमें जिस प्रकार सुमेरु उन्नत और विशाल है, नदी, तालाब, झोल, कूप आदि सब प्रकारके जलाशयों में जैसे समुद्र श्रेष्ठ है, संसारके नीम, अश्वत्थ, वर, पीपल, चन्दन आदि सब वृक्षोंमें गोशीर्ष ( गोरोचन ) के पेड़को जैसी प्रधानता है उसी प्रकार नरक, त्रिर्यञ्च मनुष्य और देवगतियोंमें उत्तम कर्मभूमियां मनुष्य ही सर्वोपरि हैं ॥ १० ॥ गुरु, भौम, रवि, शुक्र आदि ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारोंमें जैसा चन्द्रमा है, मृग आदि वन्य पशुओं में जैसी स्थिति मृगों के राजा सिंहकी है, मनुष्यों में जिस प्रकार राजा सबसे श्रेष्ठ, अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले पक्षियोंमें जो स्थिति गरुड़को है, रत्नोंमें जो माहात्म्य वज्रका है, जलसे उत्पन्न पदार्थोंमें जैसी कमलकी प्रधानता है, ठीक इसी प्रकार सब भवोंमें मनुष्यभवकी प्रधानता है ।। ११ ।। ऐसा मनुष्य भव ही अहिंसादि व्रत और सामाजिक आदि शीलोंसे हीन होकर इस जीवको तिर्यञ्चगति और कुमानुष जन्मके पतन की ओर ले जाता है। इतना ही नहीं नरक गतिके उन दुःखोंमें झोंक देता है जिनका कोई आदि अन्त नहीं है तथा जिन्हें यह जीव संयम प्राप्त न होनेसे एक, दो बार नहीं अनन्त बार भरता है ॥ १२ ॥ २. म तथा चक्षुनिदर्शनानि । १. क घायं । ३. म कारकाणां । AKISA अष्टमः सर्गः [ १३१ ] * Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् Prese मनुष्यजातिवं सशीलयुक्ता तिर्यङ्नराणामशुभं निहन्ति । दुःखान्यमेयानि च नारकाणामुन्मूल्य सिद्धि नयति क्रमेण ॥ १३ ॥ सैवेह दानेन समायुता चेद्विशिष्टभोगान् कुरुषूपभोज्य । देवत्वमापादयति क्रमेण अतो विशिष्टा नृपतेऽद्वितीया ॥ १४ ॥ सद्दृष्ठिसज्ज्ञानतपोन्विता चेच्चक्रेश्वरत्वं च सुरेश्वरत्वम् । प्रकृष्टसौख्या महमिन्द्रतां च संपादयत्येव न संशयोऽस्ति ।। १५ ।। सैकावधी 'नारकविशतिस्तु एकास्य जन्तोरबुधैर्मतोऽर्थः । मनुष्यलोकं ह्यपरैर्निराहुः केचित्समर्थं न जगत्त्रये च ( ? ) ।। १६ ।। यही मनुष्य पर्याय यदि अहिंसा, सत्य आदि व्रतोंको धारण कर सकी और सामायिक, अतिथिसंविभाग आदि शीलोंसे सम्पन्न हुई तो तिर्यञ्चगति और कुमानुष योनिकी सब ही विपत्तियोंको समूल नष्ट कर देती है और तो कहना ही क्या है नरकगतिके अपरिमित अनन्त दुःखोंका विध्वंस करके वह क्रमशः मोक्ष महापदकी ही प्राप्ति करा देती है ॥ १३ ॥ इसी मनुष्यपर्यायका यदि किसी तरह दानकी प्रवृत्तिसे गठबंध हो गया तो यह उत्तम भोगभूमि, देवकुरु और उत्तरकुरुके लोकोत्तर भोगोंका भरपूर रस पिलाकर वहींसे देवपदकी ओर ले जाती है । अतएव, हे नरेश ! मनुष्य पर्याय सब पर्यायों से बढ़कर है; इतना ही नहीं अपितु कहना चाहिये कि अन्य भवों और उसमें कोई तुलना ही असम्भव है ॥ १४ ॥ यदि मनुष्य जन्मको सम्यक दर्शन, ज्ञान और तपका सहारा मिल गया तो फिर कहना ही क्या है ? क्योंकि ऐसी अवस्था में उसका परिणाम या तो चक्रवर्ती पदकी प्राप्ति होता है अथवा देवोंकी प्रभुता इन्द्रपना होता है, नहीं तो संसार के सुखोंको चरम अवस्था अहमिन्द्र पद होता है ऐसा आप निश्चित समझिये ॥ १५ ॥ यही मनुष्य पर्याय एक मात्र ऐसी योनि है जो मानवको सृष्टिका उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकारी बनाती है ऐसा अज्ञ ( जगत्कर्तृत्ववादी ) लोग मानते हैं । किन्तु सार यह है कि मनुष्यजन्म तीनों लोकोंमें सबसे अधिक समर्थ है ऐसा ( उनमेंसे ) भी कितने ही लोग मानते हैं ' ॥ १६ ॥ १. की १. मूल में यह पद्य अत्यन्त अशुद्ध है । । २. ह्यपेरनिराहुः । अष्टमः सर्गः [१३२] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराज ताङमहासारवतीमवाप्य मनुष्यजाति त्रिजगत्प्रजानाम्। अल्पार्थमन्याः स्वमति निवेश्य भवन्ति भूत्या हि पुनः परेषाम् ॥ १७ ॥ त्रिलोकमूल्यं नरदेववृत्तमवाप्य ये कोद्रवतण्डुलार्थम् । विक्रीय च स्वाननभिज्ञतत्त्वा मूर्खाः परप्रेष्यकरा भवन्ति ॥ १८ ॥ मनुष्यभूमौ व्रतशीलदानमुत्वा कषायादितृणान्यपोह्य । स्वर्गादिसंप्रापकसौख्यबीजं चिन्वन्ति केचिन्नरजातिलब्धाः ।। १९ ॥ धर्मान्विताः सर्वसुखालयाः स्युः पापान्विता दुःखसहस्रभाजः । धर्मालसाः सर्वजनस्य भृत्या धर्मोद्यताः सर्वजनस्य नाथाः ॥ २०॥ अष्टमः सर्गः मनुष्यको भ्रान्ति इस प्रकार तीनों लोकोंकी समस्त पर्यायोंमें अत्यन्त कल्याणकारक महासार युक्त मनुष्य पर्यायको भी प्राप्त करके बहुतसे लोग अपनी मतिको साधारण तथा तुच्छ फलके ऊपर लगा देते हैं और दूसरोंकी सेवावृत्ति स्वीकार करके चक्रवर्तीकी योग्यताओंयुक्त जीवनको दास रहकर व्यतीत करते हैं ।। १७ ॥ __मनुष्योंके अधिपति चक्रवर्तीके समान आचरण और ज्ञानको सम्पत्ति रूप नरपययि-रत्न को पाकर, जिसके द्वारा तीनों लोकोंका प्रभुत्व भी मोल लिया जा सकता है, उसे-पाकर भी जो लोहा, कोदों, चावल-दालके लिए अपने आपको (नरपर्याय) बेच देते हैं, वे यथार्थको नहीं जानते है परिणाम यह होता है कि वे दूसरोंकी आज्ञाके अनुसार नाचते-फिरते हैं ।। १८॥ ___ मनुष्य योनिमें जन्मे दूसरे जीव मनुष्यभवरूपी खेतमें व्रत, शील और दानरूपी बीज वोते हैं, व्रतादिके पौधोंकी वृद्धिके । वाधक क्रोध, मान आदि कषायरूपो घास फसको उखाड कर फेक देते हैं तब इस खेतीमें से उस बीजको संचित करते हैं जो उन्हें स्वर्ग आदि सद्गतिरूपी फल देता है ।। १९ ॥ धर्माचरण ___जो प्राणी धर्मका पालन करते हैं उनको समस्त सुख अपने आप ही आ धेरते हैं तथा जिनका आचरण इसके विपरीत है अर्थात् पापामय है वे सब दुःखोंके घर हो जाते हैं। जो धार्मिक कृत्योंके करनेमें प्रमाद करते हैं उन्हें सबका दास होना पड़ता है तथा जिन्हें धार्मिक कर्मों में गाढ़ अनुराग और उत्साह होता है वे सब संसारके प्रभु होते हैं ॥ २० ॥ [१३३] .. १. [ प्रधानाम् ] | २. [ निषेध्य ]। ३. श्नान, म स्थान । ४. में जाति लब्ध्वा, [ जातिलुन्धाः] । Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः स्वामिन्प्रभो नाथ तवास्मि भत्य आज्ञाप्यतां कि करवाणि तेऽद्य। इति ब्रुवाणा बहबः पुमांसो व्रजन्ति भूत्यत्वमपेतपुण्याः ॥ २१ ॥ केचित्परेषां धनजीवितानि लेखप्रयोगैरथ वञ्चयित्वा । 'गत्यापपाकादद्रविणं परैस्तु (?) हत्वा स्वयं ते निधनं व्रजन्ति ॥ २२॥ प्रचण्डवातोद्धततुङ्गचञ्चत्तरङ्गभङ्गस्फुरदुग्रमत्स्यम् अगाधमम्भोनिधिमर्थलोभात्प्रविश्य केचिन्मरणं प्रयान्ति ॥ २३ ॥ अधीत्य विद्याश्च महाप्रभावाः संश्रुत्य तत्वार्थगुणानवेत्य ।। स्वेष्टावता न्यायकृता फलेन भिक्षांभ्रमन्तोऽपि न तां लभन्ते ।। २४ ।। आजीवशास्त्राणि बहन्यधीत्य ज्ञात्वा क्रियायोगविभागतां च ।। दुराशया जोर्णमठेष्वपुण्या व्यपेतसौख्या गमयन्ति कालम् ॥ २५ ॥ नामाचारपानामा 'हे स्वामि ! हे प्रभो! हे नाथ ! मैं आपका किंकर हूँ, आज्ञा दीजिये, मुझे आज क्या करना है ?' इत्यादि वचन कहते हुए अनेक पुण्य हीन पुरुष उन लोगोंको दासताको स्वयं स्वीकार करते हैं जिनका उत्साह धार्मिक कार्यों में दिन-दूना और रात चौगुना बढ़ता है ॥ २१ ॥ पापमूल परिग्रह कुछ व्यक्ति झूठे साँचे लेख लिखकर दूसरोंकी सम्पत्ति और कभी-कभी जीवनको भी ले लेते हैं, अथवा किसी और कूटक्रियासे दूसरेको सम्पत्ति छीनते हैं । किन्तु समय बीतनेपर जब इन कर्मोंके फलका उदय आता है तो वे स्वयं अत्यन्त निर्धन होते हैं ।। २२ ॥ अन्य कुछ लोग धनके लोभसे प्रचण्ड आँधीके कारण फुकारते हये समुद्र में घुस जाते हैं; ( यात्रा करते ) जिसमें उठती ॥ हुई लहरें थपेड़े मारती है और बड़े भयंकर मगरमच्छ हरते रहते हैं तथा जिसकी गहरायी अपरिमित होती है । फल यह होता है कि वहीं मर जाते हैं ।। २३ ॥ समस्त विद्याओंका अध्ययन करनेके कारण जिनका प्रभाव अत्यधिक बढ़ जाता है तथा सातों तत्त्वों और पदार्थोकी चर्चा सुनकर जो उनके विशेषज्ञ बन जाते हैं वे लोग भी अपने परम इष्टके रक्षक और समुचित न्याय करनेवाली फल व्यवस्थाके कारण काफी घूमते हैं तो भी शरीर यात्राके लिये आवश्यक कुछ ग्रास भिक्षाको भी नहीं पाते ।। २४ ।। जीव शास्त्र पर्यन्त अनेक शास्त्रोंमें पारगंत हो जाने तथा विविध प्रकारको क्रियाओं, विधियों और समयकी उपयोगिता १. [ गत्या विपाकात् ] । १३४] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gree वराङ्ग चरितम् शिल्पैरनल्पैः परिकर्मशुद्धैरपुण्यवन्तो वहुदुःखभाजः । परान्वराकाः परितोषयन्तो धनाशयात्क्लेशगणान्भजन्ते ॥ २६ ॥ संसर्गतो ये च निसर्गतो वा लोभाद्भयाद्वा दुरिताञ्चितानि । कर्माण्यकुर्वस्त्वपरा मनुष्या जीवन्ति ते प्रेष्यकराः क्रियार्ताः ॥ २७॥ पुण्यान्यकृत्वा स्फुटितानपादाःक्षुत्पीडिताः कार्पटिनः कृशानाः। भूमौ शयानाः खरकर्कशायां दीना ह्यभीक्ष्णं' खलु भिक्षयन्ति ॥ २८॥ धर्मे मति यन्न करोति धीमान्विद्वाज्जनो यद्वसुना विहीनः । रूपान्वितो दुर्भगतामुपैति तत्कर्मणां पापवतां विपाकः ॥ २९ ॥ TECE-STRENameeme आदि विशेष विभागोंको भलीभाँति जान लेनेके बाद भी अनेक मलीनमन मनुष्य प्राचीन मठोंमें पड़े रहते हैं और सुखोंसे वंचित होकर किसी प्रकारसे समय काटते हैं ।। २५ ।। धन पानेके प्रलोभनसे हो कितने ही पुण्यहीन तथा दुःख सागरमें पड़े व्यक्ति दूसरोंको प्रसन्न करनेके प्रयत्नमें लगे रहते हैं। उनकी अनेक विशाल कलाएँ जो कि प्रयोग द्वारा निर्दुष्ट और लाभप्रद सिद्ध होती हैं, वे भी दूसरोंके उपयोगमें आती हैं और । उनके भाग्यमें अनेक क्लेश ही पड़ते हैं ।। २६ ।। जो व्यक्ति अपनी रुचिसे, अथवा संगति और सहवासके कारण, किसी प्रबल प्रलोभनकी प्रेरणासे, या किसी भीषणताके आतंकसे पापमय कार्योंको करते हैं वे ही निकृष्ट मनुष्य दूसरोंके आज्ञाकारी दास होकर व्यर्थ ही अनेक आरम्भोंमें व्यस्त रहते हैं ॥ २७ ॥ पुण्यहीन जीबन पुण्यकर्म न करनेके कारण मनुष्योंके पैरोंके अग्रभाग रोगोंके आक्रमणसे फूट जाते हैं, तब वे पंगु होकर अत्यन्त कठोर। कंकरीली भूमिपर पड़े रहते हैं, भूखके मारे चिल्लाते हैं, वस्त्रके अभावके कारण एक टुकड़ेसे अपनी लाज ढकते हैं । इन कष्टोंके कारण उनका शरीर सूख जाता है, यह विपत्तियाँ उन्हें इतना दोन कर देती हैं कि विचारे दिन-रात भीख मांगते रहते हैं ॥२८॥ विद्वान् और शास्त्रज्ञ होनेपर भी मनुष्य जो धर्मकार्योंमें रुचि नहीं करता है, अनेक शास्त्रोंका पंडित होनेपर भी निर्धन होता है तथा कामदेवके समान सुन्दर होनेपर भी लोग उसे अपशकुन मानते हैं यह सब पापमय कर्मोंका ही विपाक है ।। २९।। saxee Cerememe- [१३५] वीना यह यानीका सचिव हर भी नि ष १. म दीनान्यभीक्ष्णं । Jain Education international Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् क्षुद्व्याधिदारिद्यवधोनबन्धैराक्रोशभीर्भनितारनाद्यैः दुःखैविबाधामुपयान्ति सत्त्वा यत्तत्फलं पापकृतं निराहुः ॥ ३० ॥ अनागसामप्यपराधभावं नृणां समारोप्य समाश्रितानाम् । यत्स्वामिभिर्दण्डवधाः क्रियन्ते तस्कृतानां फलमामनन्ति ॥३१॥ विबान्धवास्त्यक्तकलत्रपुत्रा विलेपनत्र परिवजिताश्च । मलीमसाः क्षामकपोलनेत्रा दुःखेन जीवन्ति जना विपुण्याः ।। ३२॥ दरिद्रतां नीचकुले प्रसूति मौख्यं विरूपत्वमभवतां च । अकल्पतां वापि समाप्नुवन्ति प्रायः पुमांसः सुकृतेरभावात् ॥ ३३ ॥ निराशयास्ते विभवैविहोनाः संश्लाघयन्तः परगेहभोगान् । पुण्यैरपेताः स्वकराग्रपात्रा देशादिवदेशं परिसंचरन्ति ॥ ३४॥ aaxenareARRAPAHARAS मनुष्यको मुख-प्यास और रोगोंके कारण जो पीड़ा होती है, निर्धनताके कारण जो आपत्तियाँ सहनी पड़ती हैं, वध, बन्धन आदि जो अनेक कष्ट भरने पड़ते हैं, गालो, अभिशाप, भर्त्सना और मारपीटके जो दुःख और अपमान सहने पड़ते हैं यह सब भी पूर्वकृत पापोंकी करतूत हैं ॥ ३० ॥ पूर्णरूपसे निर्दोष आश्रित व्यक्तियों पर बलपूर्वक झूठे अभियोग लगाकर स्वामियोंके द्वारा जो उन्हें कठिन-कठिन कारावास आदि दण्ड तथा शूली आदि पर चढ़ाकर जो वध किया जाता है, इन समस्त यातनाओंको विद्वान् आचार्य कुकर्मोका ही फल कहते हैं ।। ३१ ।। पुण्यहीन मनुष्य अपने जीवनको दुःखपूर्वक व्यतीत करते हैं, उनके कुटुम्बी भी उनका साथ नहीं देते हैं, और तो क्या, पत्नी औरस पुत्र-पुत्रियाँ भी उन्हें छोड़ देते हैं । इतना ही नहीं, उनकी शारीरिक आवश्यकतायें भी पूर्ण नहीं होती हैं-यथा, न तो वे कभी उबटन ही पाते हैं और न माला आदि सुरभि शृंगार फलतः शरीर मलिन हो जाता है तथा गाल और आँखें धंस जाती है ।। ३२॥ - पूण्य संचय न करनेके ही कारण अधिकतर मनुष्य निर्धन होते हैं, लोक निन्द्य नीच कुलोंमें उत्पन्न होते हैं, कूरूपता । और अशिष्टताको वरण करते हैं, तथा ऐसी अवस्थाको प्राप्त होते हैं जिसमें न तो दूसरे हो उन्हें कुछ समझते हैं और न स्वयं उनमें बढ़नेको सामर्थ्य रह जाती है ।। ३३ ।। ___ इन अवस्थाओंमें पड़कर वे सर्वथा निराश और निर्णयहीन हो जाते हैं, परिणाम यह होता है कि सदाके लिये निर्धन १. म पुण्यरुपेता। amerazeem Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् अष्टमः सर्गः नक्तंदिवं क्लेशसमाश्रितानि कर्माण्यनिष्टानि समाचरन्तः । दुःखादिताः सस्तविषण्णचित्ताः स्वेष्टान्यलब्धवा मरणं प्रयान्ति ॥ ३५॥ बाधिर्यमान्ध्यं कुणिकुब्जभावं क्लीबत्वमकत्वजडग्रहांश्च । आजन्मनस्ते तदवाप्नुवन्ति प्रायो जना दुष्कृतिनो वराकाः ॥ ३६ ॥ दुर्गन्धनासामुखकक्षदेशा नपुंसकाः श्मश्रुविहीनवक्त्राः । सत्वास्तु यत्पुंस्त्वगुणेविहीना भवन्ति मन्दा बत दृष्कृतेन ॥ ३७॥ प्रियाणि कुर्वन्प्रवदन् हितानि ददंस्तथार्थानपि संश्रयांश्च । यद्वेष्यतां सर्वजनस्य याति तदाहुरार्या दुरितप्रभावम् ॥ ३८॥ नेच्छाफलाप्तिनं च इष्टसंपत्प्रियेवियोगोऽप्रियसंप्रयोगः । सर्वाधिकाराश्च फलैविहोना अपूण्यभाजां हि नृणां भवन्ति ॥ ३९॥ सामानRTH-मारिया होकर दूसरोंके घरोंमें सुलभ भोगोंकी आश्चर्यपूर्वक प्रशंसा ही करते हैं, प्राप्तिके लिए पुरुषार्थ नहीं करते हैं तथा अकिंचन होकर I अपनी हथेलियोंको ही पात्र बनाकर माँगते हुये एक देशसे दूसरे देशमें चक्कर काटते हैं ।। ३४ ।। वे रात-दिन ऐसे घोर अकल्याणकारी कार्योंको करते हैं जिनके फलस्वरूप उनके क्लेश और अनुताप बढ़ते ही जाते हैं, फलतः वे दिन-रात दुःखोंकी ज्वालासे जलते हैं, उनका चित्त खिन्न हो जाता है तथा वे अपने मनोरथोंको पूरा किये बिना ही मौतके घाट उतर आते हैं ॥ ३५ ॥ पाप कर्मोके चंगुल में फँसे विचारे पुण्यहीन पुरुष प्रायः (अधिकता) अन्धे और बहिरे होते हैं, शरीर भी उनका एंचकताना और कुबड़ा होता है, गूगे और नपुसक भी वही होते हैं । वे इतने मूर्ख होते हैं कि जिस गलत बातपर अड़ जायेंगे हजार समझानेपर भी उसे न छोडेंगे । ऐसा भी नहीं है कि उक्त दोष उनमें संगति आदिके कारण आते हों, वे तो उनमें जन्मसे ही होते हैं ॥३६।। लोगोंके मुख, नाक, काँख आदिसे दुर्गन्ध क्यों आती है, कितने ही पुरुष आकारसे मनुष्य होते हुए भी नपुसक क्यों होते हैं ? बहुतसे युवकोंके चेहरेपर डाढ़ी-मूछ क्यों नहीं आती है ? तथा आकृति आदिसे पुरुष होते हुये भी लोगोंमें पुरुषके समान साहस, वीर्य और विवेक क्यों नहीं होता है ? उत्तर एक ही है, यह सब भी कुकर्मोंका हो फल है ।। ३७ ॥ सवका उपकार करते हुए भी, सर्वसाधारणसे प्रिय वचन बोलते हुए भी, आवश्यकताके समय दूसरोंको धन और आश्रय देते हुए भी, जिस मनुष्यसे सारा संसार शत्रुता करता है और उसका अहित चाहता है इसे भी पूज्य आचार्य पूर्वकृत महाकुत्सित कर्मोका प्रभाव ही मानते हैं ॥३८॥ जिन लोगोंने प्रयत्नपूर्वक पुण्य नहीं कमाया है उन्हें अपनी इच्छाके अनुकूल सफलता नहीं मिलती है, उनको सम्पत्ति [१३७] १८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् वर्णोत्तरे पुण्यगुणाभिरम्ये लक्ष्मीमति व्याप्तयशादिगन्ते । यदुवंशे' लभते प्रसूति सन्तस्तदाहः सुकृतानुभावम् ॥ ४०॥ मन्नाथवत्सप्रियपुत्र केति प्रलाल्यमानो' नियतं पितृभ्याम् । यद्बालभावाद्युवतामुपैति निर्वाच्यरूपः सुकृतं तदूचुः ॥ ४१ ॥ यूना वरिष्ठस्तु समस्समेषु मान्यः प्रियस्तत्पितृबान्धवानाम् । भौविचित्रैरुपगढवेषश्चक्रीच्यते पुण्यविभूतिदृप्तः ॥ ४२ ॥ श्लक्ष्णानि वासांसि महाधनानि विचित्ररागाणि च संवसानि(?) । गन्धान्सुगन्धीकुसुमस्रजश्च संसेवमानो रमते स पुण्यः ॥४३॥ अष्टमः सर्गः FoRECRUARGDELETERISPIRICERSEASTR RETARREARRIAREAD EAKIRT भी उनका भला नहीं कर पाती है, बेचारोंका प्रियजनोंसे विरह होता है और अहितु अप्रियजनोंका चिर समागम होता है । यदि किसी तरह कुल अधिकार प्राप्त हो ही जाते हैं तो उन सबसे भी कोई लाभ नहीं होता है ।। ३९ ।। समृद्धिशाली उन्नत वंशोंसे जो श्रेष्ठ पुरुष जन्म लेते हैं, उत्तम वर्ण (ब्राह्मण आदि ) को पाते हैं, पुण्यकर्म और सत्य आदि सुगुण जो उनके वंशकी शोभा बढ़ाते हैं तथा सम्पत्ति, ज्ञान, सुगति आदिसे उत्पन्न उनके कूलका यश जो दिशाओं और विदिशाओंमें फेल जाता है इस सबको आचार्योंने पुण्य कर्मोंका फल ही कहा है ॥ ४० ॥ पुण्य परिपाक मेरे स्वामी ? बेटा ? प्राण प्यारे पूत्र ? आदि प्रेम सम्बोधन कहकर जिसका लालन-पालन माता-पिताके द्वारा अत्यन्त यत्नपूर्वक किया जाता है, बिना किसी कष्ट या शोकसे ही जो शैशवसे यौवनमें प्रविष्ट होकर ऐसे सुन्दर और रूपवान हो जाते हैं कि उसका वर्णन शब्दों द्वारा करना अशक्य हो जाता है यह सब पुण्यका फल है ऐसा पूज्य आचार्योंने कहा है ।। ४१॥ ___ जो व्यक्ति पुण्यरूपी सम्पत्तिसे सम्पन्न है वह युवकोंका अग्रणी होता है, अपने समकक्षोंमें समानता ही नहीं पाता, अपितु उन सबका मान्य भी होता है। अपने माता-पिता, बन्धु-बान्धव, मित्रों आदिको परमप्रिय होता है। उसके वेशभूषा ही उसकी समृद्धि और पूर्णताको प्रकट करते हैं तथा वह नानाप्रकारके भोगों और उपभोगोंके साथ यथेच्छ क्रीड़ा करता है ।। ४२॥ उसके सबही वस्त्र कोमल और चिकने (तैलाक्त नहीं) होते हैं, निवास स्थान विपुल सम्पत्ति व्यय करके बनाये जाते हैं तथा उसके रंग ही चित्र विचित्र नहीं होते हैं अपितु उनमें सदा ही अलौकिक रागकी गूंज उठती रहती है । ऐसे महलोंमें पड़े हुए पुण्यात्मा जीव सुगन्धित पदार्थों, फूल मालाओं आदिसे मौज लेते रहते हैं ।। ४३ ।। AIRSन्य १. [यदृद्धवंशे । २. म पत्रिकेति । ४.क विभूतिदृष्टः। . ३. म प्रलाप्यमानो । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यान्म बरान चरितम् अष्टमः सर्गः शय्यासु मृद्वीषु सुखं शयानो भोगानुरक्ताभिरमा प्रियाभिः । विमानपृष्ठेषु रतेविचित्रं पृण्यानुभावादिवलसन्त्यभीक्ष्णम् ॥ ४४ ॥ वीणामृदङ्गप्रतिवोधितानि वंशानुनादक्रमरज्जितानि । गेयानि श्रृण्वन्नतिवल्लभानि रात्रंदिवं क्रोडति पुण्यकारी ॥४५॥ सभ्रविभङ्गाभिनयोपपन्नं वादित्रयालापलयानकारि । नृत्यं प्रपश्यन्नयनातिकान्तं सुकृत्प्रियाभिमुंदमभ्युपैति ॥ ४६ ।। अपक्व जम्बूफलरागकान्तं कान्तोपनीतं मणिभाजनस्थम् । मध्वासवं सत्सुरतोत्सवाढयं पिबन्सपुण्यो रमते सुखेन ।। ४७ ॥ भोगान्विताः शास्त्रसनाथवाचो गोष्ठीषु सत्काव्यकलाविदग्धाः । मान्याश्च पूज्याश्च नरा नराणां पुण्यैरुपेताः सततं भवन्ति ।। ४८ ।। TASTRATARRIम SAIRATRIKEचमान्चामाचरन्याचा पुण्यके प्रतापसे ही लोग मकानोंकी उत्तम छतोंसे ऊपर कोमलसे कोमल रमणीय शय्याओंपर सोते हैं तथा अत्यन्त अनुरक्त, मनवाञ्छित भोगोंके लिये सदैव उद्यत प्रिय नायिकाओंके साथ दिन-रात अद्भुतसे अद्भुत प्रेम-लीलायें करते हैं ।। ४४ ॥ पूर्वभवोंमें पुण्यकम करनेवाले व्यक्ति अगले जन्मोंमें वीणा और मृदङ्ग आदि बाजे बजाकर नींदसे जगाये जाते हैं, वाँसुरी आदि मनोहर यन्त्र बजाकर सदा ही उनका मनोरञ्जन किया जाता है तथा अत्यन्त मधुर हृदयहारी गाने आदि सुनते हुए वे दिन-रात क्रीड़ा करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं ।। ४५ ॥ । पुण्यात्मा जीव अपनी प्राण प्यारियोंके साथ, आनन्द सागरमें आलोडन करते हैं जिसमें गायकके आलाप और लयके अनुसार समस्त बाजोंकी ध्वनि रहती है तथा नर्तकी या नतंकके नेत्र भ्र विक्षेप, कटाक्ष आदि अभिनयोंके कारण वे राग अत्यन्त ॥ सुन्दर हो जाते हैं ।। ४६ ॥ ऐसे नृत्योंको देखते हुये, न हरे और न पके जामुनके फलकी लालिमाके समान लाल तथा कान्ताओंके द्वारा मणियोंके प्यालोंमें भरकर लायी गयी मधु मदिराको, जो कि कामाचाररूपी उत्सवमें सबसे श्रेष्ठ समझो जाती है, पीते हुए, केवल भोगोंकी इच्छासे पुण्य करनेवाला जीव सुखसे रमण करते हैं । ४७ ।। पुण्यरूपी निधिके स्वामो सदा ही यथेच्छ भोगोंसे घिरे रहते हैं । उनका अध्ययन इतना गम्भीर होता है कि गोष्ठियोंमें आगम प्रमाण सहित वार्तालाप करते हैं, काव्य, संगीत आदि ललित कलाओंमें भी पारंगत होते हैं तथा समस्त मनुष्योंके मान्य और पूज्य होते हैं ।। ४८ ॥ १.क वादित्रयोल्लाप, [वादित्रमालाप°]। २. क सुपुण्यो । चामा १३.1 S. Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः मत्तदिपस्कन्धगताः सुवेषाः सितातपत्रोच्छ्रितकान्तिकान्ताः । पत्तिद्विापाश्वैरनुगम्यमानाः प्रयान्ति केचिन्नवराः सभाग्याः ॥ ४९ ॥ नाथोऽयमस्माकमसौ क्षितोशो भुवनक्त्ययं ग्रामसहस्रमेकम् । संश्लाध्यमाना इति भृत्यमुख्यत्र जन्ति धीराः सुकृतैस्तु केचित् ॥ ५० ॥ कलत्रपुत्रप्रियबन्धुमित्रैः साधं सुखानीष्टतमानि हृष्टाः । रात्रौ दिवा चानुभवन्ति केचिद्धर्मप्रसादाः२ सुखिनः पुमांसः ॥ ५१ ॥ शय्यान्नपानाशनवित्तदानः सन्मानयन्तोऽथिजनान्प्रहृष्टाः। जीवन्ति केचित्सुखमक्षयार्था धर्मानभावेन मनुष्यवर्याः ॥५२॥ सौभाग्ययुक्ता खलु रूपसंपद्रूपत्वमारोग्यगुणैरुपेतम् । आरोग्यताभोगपरीतमुख्या भवन्ति पुंसां बहपुण्यभाजाम् ॥ ५३॥ कुछ पुण्यात्मा जीव उत्तम राजा होते हैं वे जब कहीं जाते हैं तो भाग्योदयके कारण वे मदोन्मत्त हाथोकी पीठपर सुन्दर वेशभूषाके साथ बैठते हैं। उनके ऊपर धवल छत्र लगाया जाता है जिसकी उन्नत कान्तिके कारण वे और अधिक सुन्दर प्रतीत होते हैं तथा उनके पीछे-पीछे पैदल, घड़सबार और हाथियोंपर सवार सेना चलती है ।। ४९ ॥ 'यह हमारे भरण पोषण करनेवाले प्रभु हैं, ये साक्षात् सारो पृथ्वीके राजा हैं, इनको हजारों ग्रामोसे राजस्व प्राप्त होता है, इत्यादि चाटु बचन कहकर अपने प्रधान सेवकोंके द्वारा प्रशंसित होते हुये अनेक धीर वीर पुरुष चलते हैं । यह सब भी उनके पुण्योंके प्रतापसे ही सम्भव होता है ।। ५१ ॥ अन्य सुखी पुरुष पुण्य कर्मोके फलोन्मुख होनेके ही कारण अपनी पत्नी, बाल बच्चों, मित्रों, कुटुम्बियों तथा अन्य प्रियजनोंके साथ मनचाहे प्रियसे प्रिय सुखों को दिन रात भोगते हैं और दुःखोंके अनुभवसे मुक्त होकर दिन रात प्रफुल्ल रहते हैं ।। ५१ ।। दूसरे नरपुंगव धर्मके प्रभावसे इतनी अधिक सम्पत्ति पाते हैं कि अत्यन्त प्रसन्नता और उल्लासके साथ याचकोंके झुडोंके झुडोंको भोजन, पान, अन्न, बिछौना, धन आदि देकर खूब संतुष्ट करते हैं तो भी उनकी सम्पत्ति घटती नहीं है और उनका जीवन सुख और सम्पन्नतासे हो बीतता है ।। ५२॥ जो पुरुष अत्यधिक पुण्यात्मा हैं उन्हें केवल सौन्दर्य ही नहीं प्राप्त होता अपितु वे सबको प्रिय होते हैं, उनके सौन्दर्यका सहचारी स्वास्थ्य गृण होता है तथा उनका स्वास्थ्य भी नानाप्रकारकी भोग-उपभोग सामग्रीसे घिरा रहता है ।। ५३ ।। १. क आधगम्य । २.[प्रसादात् ] । Resumessmenugreeamespeareresresprescream SHESHeam [१४०1 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अष्टमः सर्गः त्वग्घ्राणजिह्वाश्रुतिलोचनानामर्थेन्द्रियाणां प्रियमाचरन्तः । प्रत्येकमविविधप्रकारे रूपादिभिर्धर्मपरा रमन्ते ॥ ५४॥ एको हि पुण्याजितदीप्रकीतिरुद्वी क्ष्यते पुंभिरुदारशीयः । एकश्च धर्मप्रतिबद्धवीर्यः शननेकान्समरे विजेता ॥ ५५॥ मनुष्यजातौ भगवत्प्रणीतो धर्माभिलाषो मनसश्च शान्तिः। निर्वाणभक्तिश्च दया च दानं प्रकृष्ट पुण्यस्य भवन्ति पुसः ॥५६॥ नानाविधक्षत्रियवंशजाता वसुधरेन्द्रा ऋषभादिवर्याः । आहन्त्यमायुर्वरधर्मभक्त्या पूज्याश्च बन्दाश्च जगत्त्रयस्य ॥ ५७॥ केचित्पुनः शान्तकषायदोषा बुधा जिताशाः सुखिनस्त्विहैव । परत्र च प्रापितकामभोगा भवन्ति नाथा भवनत्रयस्य ॥ ५८ ॥ धर्म परायण मनुष्य स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र तथा कर्ण इन पांचों इन्द्रियों को हित-मित समस्त विषयों का यथेच्छ तथा अनेक प्रकारों से एवं विधि प्रसंगों के रूप में जो रस लेते है यह सब धर्म को पुट का ही फल है जो अर्थ और काम को भी उपयोगी बनातो है ।। ५४ ॥ पुण्यकार्योंके द्वारा कोई माताका लाल इतना अधिक यश और तेज कमाता है कि बड़ेसे बड़े पराकमी पुरुष भी उसके सामने आनेपर शिर उठा करके उसको आश्चर्यसे देखते हैं। इसी प्रकार कोई दूसरा सपूत धार्मिक कार्यों में ही अपनी सारी शक्तिको लगाकर अवसर आते ही अनेक शत्रुओंको युद्ध में परास्त कर देता है ।। ५५ ॥ प्रशस्त नरजीवनके कारण मनुष्य जन्म प्राप्त हो जानेपर भी वीतराग प्रभु द्वारा उपदिष्ट धर्मके ज्ञान और आचरणकी अभिलाषा, मानसिक शान्ति, मुक्त जीवों और मुक्तिके साधनोंके प्रति अनुराग, दयामय स्वभाव तथा दान देनेकी इच्छा केवल उन्हीं पुरुषोंको होती है जिन्होंने पूर्व जन्मोंमें अत्यधिक पुण्य किया है ।। ५६ ॥ इक्ष्वाकु आदि विविध उत्तम क्षत्रिय वंशोंमें उत्पन्न सारी (गन्तव्य = आयतन) पृथ्वीके एक-छत्र अधिपति आर्य ऋषभदेव आदि परम पवित्र धर्मकी प्रगाढ भक्तिके ही कारण अर्हन्तकेवली पदको पा सके थे। इतना ही नहीं बल्कि तीनों लोकोंके । वन्दनीय और पूज्य हो सके थे ।। ५७ ।। दूसरे कुछ लोग क्रोधादि कषायरूपी समस्त दोषोंको नष्ट करके आशाओंपर भी विजय पाते हैं इसीलिए वे ज्ञानी लोग १.क दीप्ति । २. म उदीक्षते। ३.[आर्हन्त्यमापु]। SRIDEUDAEELSEIRELESSERGINGERGARच्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितस् धर्मेण देवासुरमानुषाणां स्थानानि नानद्धिविशेषवन्ति । संप्राप्य सार्वज्ञ्यमनन्तरेण ततो ध्रुवं निर्वृतिमेव यान्ति ॥ ५९ ॥ मनुष्यजातिस्तु सुदुर्लभापि न वर्ण्यते संसृतिकारणत्वात् । शोलोपवासव्रतभावहीना' संसारयत्येव चिरं हि जीवान् ॥ ६० ॥ इदं हि मानुष्यमतीत्र कष्टं जरारुजाक्लेशशताकुलत्वात् । तस्माद्भूशं कष्टतमं त्वशौचमनित्यता कष्टतमा ततः स्यात् ॥ ६१ ॥ शुक्लार्तवोद्भूतममेध्यपूर्ण त्रवन्नवद्वारमनिष्टगन्धम् । जन्त्वाकरं व्याधिसहस्रकीर्णं तदा शरीरं शुचिविप्रहीणम् ।। ६२ ।। अपने इसी जन्म में ही अन्तरंग और बहिरंगरूपसे पूर्ण सुखो होते हैं। इसी सुखी जीवनको समाप्त करके जब परलोकमें पहुँचते हैं तो वहाँ पर भी उन्हें मन चाहे भोगोंकी प्राप्ति होती है तथा अन्त में वे तीनों लोकोंके कल्याणकर्ता होते हैं ॥ ५८ ॥ सद्धर्मका ही यह प्रभाव है जो जीव देवता, असुर और मनुष्य पर्यायके उन स्थानों को प्राप्त करते हैं जो ऋद्धि सिद्धि आदिके कारण तीनों लोकोंमें सर्वोत्तम माने गये हैं। इसके उपरान्त वे सर्वज्ञ पदको प्राप्त करते हैं और अन्तमें तीनों लोकोंको हितोपदेश देकर मोक्ष धामको चले जाते हैं जहाँसे लौटकर आना नहीं होता है ।। ५९ ।। मानवजन्म- अतिदुर्लभ इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य जन्म पाना अत्यन्त दुर्लभ है तो भी इसको ही प्रधानता नहीं दी जाती है क्योंकि साधारणतया यह संसार भ्रमणको बढ़ाता ही है। होता यह है कि जीव मनुष्य जन्म पाकर भी जब अहिंसादि व्रत, सामायिक, उपवास, आदि शीलोंका पालन नहीं करते हैं, और असंयत होकर ऐसे ही कार्य अधिक करते हैं, जिनका परिणाम चिरकाल तक संसारभ्रमण ही होता है ॥ ६० ॥ शारीरिक तथा मानसिक सैंकड़ों क्लेशों, रोगों, बुढ़ापा आदि अनेक बाधाओंसे ही अत्यन्त कष्टकर है। इससे भी अधिक कष्टकी बात यह है कि इसमें दूषित मन और सबसे बढ़कर कष्ट यह है कि उक्त त्रुटियोंके अतिरिक्त यह सर्वथा अनित्य ही है ।। ६१ ॥ अनर्थका मूल शरीर इस शरीर के कारण वीर्य और रज कोई पवित्र पदार्थ नहीं है, यह स्वयं भी मल, मूत्र, कफ आदि अपवित्र पदार्थोंसे परिपूर्ण है । यह पदार्थं भीतर ही हों ऐसी बात भी नहीं है अपितु दुर्गन्ध फैलाते हुये आँख, नाक, कान आदि नौ द्वारोंसे बहते हैं । १. क हीनान । २. [ कष्टतरं ]। ३. [ तथा ] । परिपूर्ण होनेके कारण मनुष्य पर्याय यो अपवित्र शरीर प्राप्त होता है । तथा अष्टमः सर्गः [ १४२] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਚh वराङ्ग बरितम् तादग्विधं कश्मलमुद्वहंस्तु बीभत्मचर्मास्थिशिराप्रणद्धम् । पित्तानिलश्लेष्मजराधिवासं को नाम विद्वान्वहतोह गर्वम् ॥ ६३ ॥ विज्ञानरूपद्युतिकान्तिसत्त्वं सौभाग्यबुद्धीन्द्रियबन्धवित्तम् । आयुर्वपुमित्रसमागमाश्च क्षणे क्षणेऽन्यत्वमुपैति सर्वाम् ॥ ६४ ॥ सन्ध्याभ्ररागस्तनयित्नुविद्युत्फेनोमिफुल्लद्रुमबुद्बुदाभम् तृणाग्रलग्नोदकबिन्दुतुल्यं मायोपमं मानुषजन्म शश्वत् ॥ ६५ ॥ गर्भेऽथ जातावथ बाल्यकाले तथा युवत्वे स्थविरत्वयोगे । अशौचताप्यध्रुवता रुजात्वं सर्वत्र सर्वस्य हि कर्मभूमौ ॥ ६६ ॥ इसमें अनेक प्रकारके कीटाणु व्याप्त हैं, इसीलिए सैकड़ों रोग इसे घेरे रहते हैं। फलतः यह शरीर अपने प्रारम्भसे लेकर अन्ततक 1 अशुचि ही है ।। ६२॥ इस तरहके मलिन पदार्थोंको ढोते हुए जो कि अत्यन्त तीव्र घृणाको उत्पन्न करनेमें समर्थ हड्डी, शिरा, तथा चमड़ेसे ढके हुये हैं, इतना ही नहीं, इन सबके साथ दुषित वात, पित्त, कफ, बुढ़ापा आदि भी लगे हैं, तो कौन ऐसा पुरुष है जो इस I शरीरके कारण किसी भी प्रकारका अभिमान करेगा ।। ६३ ॥ मानव पर्यायकी अनित्यता इस मनुष्यका विज्ञान, रूप, कान्ति, तेज, सामर्थ्य, दूसरोंसे किया गया स्नेह, सम्मान आदि बुद्धि, पदार्थोंके ग्रहणमें तीव्र १ इन्द्रियाँ, सगे सम्बन्धी, सम्पत्ति, आयु, आदर्श शरीर मित्र तथा उनकी सत्संगति सबही क्षायोपशमिक होनेके कारण क्षण-क्षणमें बदलते रहते है ॥ ६४ ।। यह मनुष्यभव सन्ध्या समय मेघों पर चमकती लालिमा, गरजते और बरसते बादलोंमें कौंधनेवाली निजलीकी चमक, जलपर तैरते फेन या उठती हुई लहरों. वृक्षोंके फूल, पानीके ऊपर तैरते बुदबुद तथा शरत समयमें दुबके ऊपर अटकी ओसकी बूंद अथवा इन्द्रजालियेकी मायाके समान क्षण भर ठहरने वाला है ।। ६५॥ इसके सिवाय कर्मभूमिमें जन्मे जीवको माताके गर्भमें, जन्मके समय या बादमें ज्ञान हीन बाल्य अवस्थामें, प्रमाद बहल युवा अवस्थामें तथा शारीरिक और मानसिक दुर्बलताके भण्डार बुढ़ापेमें सव स्थानोंपर सब प्रकारके रोगोंकी संभावना है, अपवित्रता और अनित्यता तो पीछा छोड़ती ही नहीं है ।। ६६ ।। १.[ सर्वम् ]। २. म बाल । thਬ ਦੀ ਓਜ਼Eh ३] . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् आयुर्नराणामथ पूर्वकोटिः प्रकीर्तितोत्कर्षविशेषभावात् । अन्तमुहर्त हि जघन्यतस्तु तत्कर्मभूमौ कथितं प्रमाणम् ॥ ६७ ॥ इति धर्मफलं सुखादिलितं यतिना वणितमर्थवविशालम् । दुरितस्य फलं समक्षभूतं तदपि प्रोक्तमनेकखेदभिन्नम् ॥ ६॥ सुखदुःखविमिश्रितं तु नृत्वं कथयित्वार्थगवेषिणे नृपाय । सुरलोककथां कथाविधिज्ञो गदितुं स्पष्टाक्षरां प्रवृत्तः ॥ ६९ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते कर्मभूमि विभागो नाम अष्टमः सर्गः। अष्टमः सर्गः राजETISHETREETIREMI स्थिति प्रमाण यदि कर्मभूमिमें मनुष्य आयुका उत्कर्ष अपनी अन्तिम सीमातक जाये तो मनुष्य अधिकसे अधिक एक पूर्वकोटि वर्षोंतक जीवित रहेगा । इसी प्रकार यदि कमसे कम समय तक ही मनुष्य जी सके तो उसकी आयुका प्रमाण एक मुहूर्तकी सोमा न लाँघेगा अर्थात् अन्तर्मुहूर्त होगा ॥ ६७ ।। इस प्रकारमे यतिराज वरदत्तकेवलीने सुख, भोगप्राप्तिके द्वारा जानने योग्य, सार्थक तथा विशालतम धर्माचरणके फलका वर्णन किया था । संसारमें सर्वसाधारणके अनुभवमें प्रतिक्षण आनेवाले पापकर्मोके फलोंको भी कहा था जो विविध प्रकारके । शोक और दुःखोंसे आत्माको आकुल कर देते हैं ।। ६८ ॥ तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त उत्सुक राजा धर्मसेनको सुख और दुःखकी रंगस्थली मनुष्य गतिका व्याख्यान देनेके पश्चात्, उपदेश कलाके मर्मज्ञ मुनिराजने स्पष्ट वचनों द्वारा देवताओंके लोककी कथा कहना प्रारम्भ किया था। ६९ ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरितनामक धर्मकथामें कर्मभूमि वर्णन नाम अष्टम सर्ग समाप्त [१४४] R L १.क भेदभिन्नम् । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग नवमः सर्गः नवमः सर्गः ततः प्रवक्ष्ये नप देवलोकांश्चतुर्विधान्सस्कृतिनां निवासान् । वैमानिकानां भवनाधिपानां ज्योतिर्गणव्यन्तरसंज्ञकानाम् ॥१॥ दश प्रकारा भवनाधिपानां ते व्यन्तरास्त्वष्टविधा भवन्ति । ज्योतिर्गणाश्चापि दशार्धभेदा द्विषट्प्रकाराः खलु कल्पवासाः॥२॥ ये कल्पवासा गणनाव्यतीतास्तेभ्यो प्रसंख्या' भवनाधिवासाः । तेभ्योऽधिका व्यन्तरदेवसंज्ञा ज्योतिर्गणास्त्वभ्यधिकाश्च तेभ्यः ॥३॥ सुपर्णनागो दधिदिक्कुमारा दीपारग्निविद्युत्स्तनितानिलाश्च । वशोपदिष्टास्त्वसुरैः सहैते द्वौ द्वावधेन्द्रास्तु भवन्ति तेषाम् ॥४॥ नाममायाराम-राम नवम सर्ग देव भेद हे राजन् ! मनुष्यगतिके बाद अब आपको मैं साधारणदृष्टिसे चार प्रकारके देवलोकका वर्णन कहता हूँ, जहाँपर पूर्वजन्ममें पुण्य करनेवाले, वैमानिक अथवा सोलह कल्पवासी, भवनोंके अधिपति (भवनवासी), जोतिर्गण ( ज्योतिषी) तथा । व्यन्तर नामघारी देवोंका निवास है ॥ १ ॥ भवनवासी देवोंके विशेषभेद असुरकुमार आदि दश हैं, किंपुरुष, किन्नर, आदि व्यन्तर देवोंके अवान्तरभेद कुल आठ ही हैं। ज्योतिषी देवोंके भेद सूर्य, चन्द्र आदि पाँच हैं और कल्पवासी देवके विशेषभेद इन्द्रोंकी अपेक्षा दोगुने छह अर्थात् बारह हैं ॥२॥ वैमानिक देवोंका प्रमाण गणनासे परे है अर्थात् वे असंख्यात हैं, भवनवासो देवोंकी संख्या कल्पवासियोंसे भी बहुगे। अधिक है, व्यन्तर देवोंकी संख्या भवनवासियोंसे भी अधिक है और ज्योतिषी देवोंकी संख्या तो व्यन्तरोंसे भी अधिक है ॥ ३ ॥ भवनवासी सुपर्णकुमार, नागकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, द्वीपकुमार, अग्निकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार, अनिलकुमार तथा इनमें असुरकुमारको जोड़ देनेषर भवनवासी देवोंके दश भेद होते हैं। इनके एक-एक वर्ग असुरकुमार आदिमें दो-दो इन्द्र होते हैं ॥ ४॥ [१४५] १.[तेभ्योऽतिसंख्या ]। २.द्विीपाग्नि]। १९ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः वराङ्ग चरितम् सर्गः भूताः पिशाचा गरुडाश्च यक्षा गन्धर्वकाः किन्नरराक्षसाश्च । संख्यानतः किंपुरुषैः सहाष्टौ तिर्यग्जगत्येव निवास एषाम् ॥५॥ सूर्याश्च चन्द्रास्त्वथ तारकाश्च ग्रहाश्च नक्षत्रगणास्तथैव ।। ज्योतिर्गणाः पञ्चविधाः प्रविष्टाः प्रभाप्रभास्थानगतिस्वभावाः ॥६॥ सौधर्मकल्पः प्रथमोपदिष्ट ऐशानकल्पश्च पुनद्वितीयः। सनत्कुमारो द्युतिमांस्तृतीयो माहेन्द्रकल्पश्च चतुर्थ उक्तः ॥७॥ ब्राह्मयं पुनः पञ्चममाहुरास्तेि लान्तवं षष्ठमुदाहरन्ति । स सप्तमः शुक्र इति प्ररूढः कल्पः सहस्रार इतोऽष्टमस्तु ॥८॥ व्यन्तरदेव भूत, पिशाच, गरुड ( महोरग), यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस तथा इनमें किंपुरुषको मिला देनेपर संख्याकी अपेक्षासे । व्यन्तरोंके आठ भेद हो जाते हैं। इनका निवास भवनवासियोंकी तरह वंशा (?) पृथ्वीमें या वैमानिकोंकी तरह ऊर्ध्वलोकमें नहीं है बल्कि ये तिर्यग्लोक या मध्यलोक में ही रहते हैं ॥ ५ ॥ ज्योतिष्कदेव सूर्य, चन्द्रमा, तारका-समूह, ग्रह तथा नक्षत्रोंके गण ये पांचों ज्योतिषी देवोंके प्रधान भेद हैं। इनकी गति और स्थान। के हो कारण प्रकाश और अप्रकाश होता है तथा अपनी अपेक्षा भी यह हमारे लिए योग्य स्थानपर होनेसे चमकते हैं और अन्तरालमें चले जानेसे छिप जाते हैं ।। ६।। वैमानिकोंमें प्रथम कल्पका नाम सौधर्म है, दूसरे कल्प या स्वर्गकी ऐशान संज्ञा है, सब प्रकारकी ऋद्धियोंसे जाज्वल्यमान सानत्कुमार तीसरा कल्प है, चौथे स्वर्गको माहेन्द्र कल्प कहते हैं ।। ७ ।। वैमानिकदेव पुरातन आचार्योने पञ्चम कल्पका नाम ब्रह्म ( ब्राह्म) कहा है; ( यह भी इन्द्रकी अपेक्षा है क्योंकि ब्रह्म और ब्रह्मोत्तरका एक ही इन्द्र होता है ) । उन्हीं श्रेष्ठ आचार्यने छठे कल्पकी लान्तव संज्ञा दो है ( यहाँ भी लान्तव और कापिष्ट दोनोंका एक ही इन्द्र होता है ), सातवां कल्प शुक्र नामसे समस्त संसारमें प्रसिद्ध है इसीमें महाशुक्र भी अन्तहित है, इसमें आगेके म आठवें कल्पका नाम सहस्रार है जिसमें शतारको भी समझना चाहिये ।। ८ ।।... [१६] Jain Education Intentional Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् यमानतं तन्नवमं वदन्ति स प्राणतो यो दशमस्तु वर्ण्यः । एकादशं त्वारणमामनन्ति तमारणं द्वादशमच्युतान्तम् ॥ ९ ॥ कल्पोपरिष्टादहमिन्द्रलोका ग्रैवेयकास्ते नवधा विभक्ताः । त्रयस्त्वधस्तात्रय एव मध्या ऊर्ध्वं त्रयश्चोत्तरवृद्धसौख्याः ॥ १० ॥ ग्रैवेयकेभ्यस्तु महाद्युतिभ्यः पञ्चोपरिष्टाद्विजयं जयन्तम् । तं वैजयन्तं ह्यपराजितं च सर्वार्थसिद्धि च विमानमाहुः ॥ ११ ॥ मध्ये भवन्तीन्द्रक संज्ञकानि श्रेणीगतान्यप्रतिभासुराणि । प्रकीर्णकानि प्रततानि राजन् विमानमुख्यानि विभान्त्यजत्रम् ॥ १२ ॥ दूर्वाङ्करश्यामलविग्रहाणि शुकच्छदाभान्यपराणि तानि । शिरीषपुष्पप्रतिमप्रभाणि सन्तोन्द्रगोपप्रतिमद्युतोनि ॥ १३ ॥ किया है, ग्यारहवें कल्पको आरण नाम से आनत स्वर्गको नौवाँ कल्प कहा है, प्रानत स्वर्गको दशम स्वर्गं रूपसे वर्णन समझाया है तथा आरणके बाद बारहवें स्वर्गका नाम अच्युत है । यह अन्तिम कल्प है क्योंकि इसके बादका देवलोक कल्पातीत है। सौधर्म आदि सोलह कल्पोंके ऊपर सारस्वत, आदित्य आदि अहमिन्द्र वर्गके देवोंका लोक है ।। ९ ।। CIENC अहमिन्द्रलोकसे ऊपर लोककी ग्रोवाके समान ग्रैवेयक लोक है इसके निवासी नो वर्गोमें बँटे हैं। इन नौमें तीनको अधो- ग्रैवेयक कहते हैं, मध्य में पड़े तीनोंका नाम मध्य-ग्रैवेयक है और ऊपरके तीनोंकी संज्ञा ऊर्ध्व-ग्रैवेयक है इनमें नीचे की ओरसे आरम्भ करके आगे-आगे (ऊपर) सुख बढ़ता ही जाता है ॥ १० ॥ अपने विमानों की सम्पत्ति तथा कान्तिसे अत्यन्त भासुर नव ग्रैवेयकों के ऊपर परमपुण्यमात्माओंके जन्मस्थान विजय, जयन्त, वैजयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि नामके पाँच विमान एक दूसरे के ऊपर-ऊपर हैं ॥। ११ ॥ स्वर्ग पटलोंका विन्यास इन स्वर्गीमें विमानोंकी रचना इस प्रकार है-मध्यमें 'इन्द्रक' या प्रधान विमान होता है, फिर उसकी दिशाओं और विदिशाओं में (आग्नेय, नैऋत, वायव्य, ईशान) श्रेणीबद्ध विमानोंकी पंक्तियाँ होती हैं । इन श्रेणीबद्ध विमानोंकी ज्योति अनुपम होती है, इन पंक्तियोंके आसपास जो विमान बिना क्रमके फेले हैं वे 'प्रकीर्णक' विमान हैं। इनमें जो इन्द्रक या प्रधान हैं उनकी शोभा चिरस्थायी तथा अलौकिक है ॥ १२ ॥ कुछ विमानों का रंग नूतन निकले दुबके अंकुरों के समान हरा है, दूसरे कुछ विमानोंकी छटा तोतेके पंखोंके रंग सदृश १. क यमामनन्तं नवमं । २. म पुस्तक एवाधिक पाठान्तरम् 'नवोपरिष्टादहमिन्द्रकल्पास्तेभ्यो महाकान्तिसमन्वितेभ्यः' । नवमः सर्गः [ १४७ ] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् मयूरपारापतकण्ठशालप्रवालजात्यजनदुग्धवर्णः व्याभिन्नपहरितालभेदैः समानवर्णान्यपराणि भान्ति ॥ १४ ॥ आदित्यतेजोऽधिकदीप्तिमन्ति कान्त्या पुनश्चन्द्रमसोऽधिकानि । दशार्धवर्णानि मनोहराणि मणिप्रभापल्लवितध्वजानि ॥ १५ ॥ ज्वलगृहबत्नमयविचित्रैर्वैडूर्यनस्तिपनीयकुम्भैः । वजोपधानः स्फटिकोपलस्थस्तम्भमंगाईः सततं वृतानि ॥ १६ ॥ पथग्विधैर्यगंजवाजिरूपतः शकुन्तैर्मकरेलताभिः । भित्याश्रितस्तैर्मनसाप्यचिन्त्यैः प्रकल्पितान्येव' च सर्वकालम् ॥ १७॥ मामा-NIRMAHAMANCHASE है, अन्य विमानोंकी प्रभा शिरीषके पुष्पोंके तुल्य है दूसरे विमानोंकी कान्ति इन्द्रधनुषके समान अनेक रंगकी है, शेष अनेक १ बिमानोंकी छटा भी अद्भुत है ।। १३ ।। कुछ विमानोंका रंग मोर और कबूतरके गलेके समान है, कुछ शंखके समान श्वेत हैं, दूसरे मूंगेके तुल्य लाल हैं, कुछ जातिके पुष्प और दुग्धके समान धवल हैं, कितनोंका रंग अंजनका-सम है, कितने ही नीले, लाल और श्वेत कमलोंके रंगसे भुषित हैं तथा अन्य कितनोंका ही हरिताल सदृश रंग है ।। १४ ।। विमान शोभा उन सब विमानोंकी दीप्ति मध्याह्नके सूर्यके तेजसे भी बढ़कर है, यदि उनकी कान्तिपर दृष्टिपात करिये तो उसे चन्द्रमासे भी बढ़कर पाइयेगा। उनके रंग यद्यपि दशके आधे पाँच रंगोंमेंसे ही कोई न कोई हैं तो भी वे अत्यन्त मनमोहक हैं, दुरतक फैली हुई मणियोंकी प्रभा ही उनके ऊपर फहरायी गयी ध्वजाओंका कार्य करती है ।। १५ ।। जगमगाते हुए बड़े-बड़े रत्नोंसे परि ण तथा बीच बीच में वैडूर्य मणियोंसे खचित (चन्द्रमाके विविध रूपों की नक्कासी) सुन्दर स्वर्णमय कलशों, वज्रसे निर्मित आसन ( कुर्सी ) युक्त तथा बृहत् स्फटिक मणिको शिला पर खड़े किये विशाल मृगाङ्कयुक्त स्तम्भोंसे सदा सब ओरसे घिरे हुए हैं ।। १६ ॥ विमानोंकी भित्तियोंपर पृथक-पृथक आकार और प्रकारके बनाये गये हाथी, घोड़ा आदिके चित्र, पक्षी, जलजन्तु मकर, आदि तथा लता कुंज आदिको चित्रकारी सदा ही उन्हें सुशोभित करती है, वह इतनी अद्भुत है कि उसके रूप रंगकी मनके द्वारा कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।। २७ ।। ARTHREATRIRTAI-RIमच्याच [१४८] १. म प्रकल्प्य तान्येव । Jain Education interational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः वराज चरितम् सर्गः प्रवालमुक्तामणिहेमजालैर्घण्टारवोन्मिश्रितकिङ्किणीकैः । विचित्ररत्नस्तवकावलोभिः पर्यन्तलम्बैरतिशोभितानि ॥१८॥ माहेन्द्ररत्नोज्ज्वलमालिकानि विशुद्धरूप्यच्छदपाण्डुराणि । विशिष्टजाम्बूनदभित्तिकानि महा_रत्नाचितभूतलानि ॥ १९ ॥ स्वभावशुभ्राणि महाद्युतीनि समीक्ष्य नृणां नयनामृतानि । अकृत्रिमाण्यप्रतिमानि नित्यं विमानमुख्यानि विभान्ति तत्र ॥ २०॥ द्वारैश्च जाम्बूनदबद्धमूलैः स्फुरत्प्रभ जमयैः कबाटैः। सोपानदेशैस्तपनीयबद्धभिन्नान्धाकाराणि महागहाणि ॥ २१ ॥ सूर्यप्रभैः सूर्यगभस्तितुल्यैश्चन्द्रांशुजालाधिकचन्द्रकान्तः । शुक्रप्रभैः शक्रसमानभाभिर्बलत्प्रभैः प्रज्वलदग्निकल्पैः ॥२२॥ विमानोंके चारों ओर मगा, मोती, मणि और सोनेकी मालाएँ तथा जालियाँ लटकती हैं, उनमें लटके हुए घण्टोंके गम्भीर घोषके साथ छोटी घटियों की टुनटुन ध्वनि अति मनोहर होती है, चारों ओर फैले हुए अद्भुत रत्नोंके गुच्छोंकी पंक्तियोंके द्वारा उनको शोभा अत्यधिक बढ़ जाती है ।। १८ ॥ विमानोंके चारों ओर लटकती झालरें महेन्द्रनील मणियोंसे बनायो गयी हैं, ऊपरकी छत अथवा चन्दोवे अत्यन्त शुभ्र (निर्दोष ) चाँदीसे बने हैं, समस्त भित्तियाँ भी विशेष प्रकारके सोनेको बनी हैं तथा धरातल भी महामूल्यवान रत्नोंको जड़कर बनाया गया है ।। १९॥ बिना किसी प्रकारके प्रयत्नके ही विमान निर्मल और भासुर रहते हैं, उनकी चमक कभी घटती नहीं है, देखनेपर ऐसे लगते हैं मानों आँखोंके लिए अमृत ही हैं, उन्हें कोई शिल्पकार नहीं बनाता हैं वे अकृत्रिम हैं, उनका उपमान खोजना भी कठिन है। ऐसे इन्द्रक विमान स्वर्गों में सदा ही सुशोभित होते हैं ।। २० ॥ .. उनके द्वार जाम्बुनद सोनेके द्वारा ही नीचेसे ऊपर तक बने हैं, किवाड़ वज्रके हैं जिनकी प्रभा चारों ओर दूर-दूर तक फैली है, दरवाजोंके आगेकी तथा अन्य सीढ़ियाँ तपनीय स्वर्णसे बनायी गयी हैं। इस प्रकार प्रकाशमय पदार्थोसे निमित होनेके कारण उन विशाल विमानोंमें कहीपर हल्का सा अन्धकार भी नहीं ठहरता ॥ २१ ॥ विमानोंका विशेष वर्णन सूर्यके उद्योतके समान जाज्वल्यमान सूर्यकान्त मणियों द्वारा, चन्द्रमाकी किरणोंसे भी अधिक कान्तिमान चन्द्रकान्त १. म° चूलितानि । चामाज्यारन्मामा- मामाचा Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् सुगन्धिनानावर धूपवासैः पुष्पप्रकारैर्बहुवर्णकैश्च । पृथग्विधैर्न्यस्त बलिप्रकारैरतुल्य कान्तीन्यनिशं विभान्ति ॥ २३ ॥ सोद्यानवापी हददी घिकाश्च पर्यन्तकान्तस्थितकल्पवृक्षाः । सौवर्णशैला रमणीयरूपास्तेषां गृहाणां तु बहिः प्रदेशाः ॥ २४ ॥ सुरेन्द्रलोकस्य विभूतिमेतां को ना' वदेद्वर्षसहस्त्रतोऽपि । ये तत्र गच्छन्ति पृथक्पृथक्तान् नराधिप त्वं शृणु संप्रवक्ष्ये ।। २५ ।। दयापरा ये गुरुदेवभक्ताः सत्यव्रताः स्तेयनिवृत्तशीलाः । स्वदारतुष्टाः परदारभीताः संतोषरक्तास्त्रिदिवं प्रयान्ति ॥ २६ ॥ मणियोंसे, शुक्र ग्रह तेज चमक समान कान्तियुक्त शुक्रप्रभ मणियोंसे, जाज्वल्मान और अग्निकी लपटके समान अरुण दीप्तियुक्त अग्निप्रभ मणियोंके कारण विमानों की शोभा है ।। २२ ।। विविध प्रकारकी उत्तमसे उत्तम सुगन्धयुक्त धूप आदि सुगन्धित पदार्थोंकी उत्कट (गंध) से, विविध वर्णके तथा अनेक आकार और गन्धयुक्त फूलोंसे तथा नाना विधियोंसे अलग-अलग रखी गयी बलि सामग्री (फूल, चौक, आदि) के द्वारा उन विमानोंकी कान्ति ऐसी लगती है कि उसे कोई भी उपमा देकर समझाना असंभव ही है । यह कान्ति अस्थायी या परिवर्तनशील नहीं होती है अपितु चिरस्थायी होती है ।। २३ ।। विमानोंके बाहर चारों ओर छूटे हुए प्रदेशोंकी रमणीयता भी अलोकिक ही होती है, उनमें स्थान-स्थानपर छोटे-छोटे उद्यान, बावड़ी, जलाशय, झील आदि बने रहते हैं, इनकी सब दिशाओं में अत्यन्त मनोहर कल्पवृक्षोंकी पंक्तियाँ खड़ी रहती हैं, बीच-बीचमें सोने आदि के सुन्दर रंगके मनमोहक क्रीड़ा पर्वत बने रहते हैं ॥ २४ ॥ देवलोककी संक्षेपसे कही गयी उक्त समस्त विभूतियोंको कौन ऐसा व्यक्ति है जो हजार वर्ष कहकर भी समाप्त कर सके ? अतएव हे भूपते ! जो पुण्यात्मा वहाँ जाते हैं उनको विशेष विगत बार मैं कहता हूँ; आप ध्यानसे सुनें ॥ २५ ॥ देवगतिका कारण जो दयामय व्यवहार करनेके लिए कमर कसे हैं तथा सत्य गुरु, देव और शास्त्र के भक्त हैं, जो सत्यव्रतको दृढ़तापूर्वक पालते हैं, जिन्होंने पूर्णरूपसे चोरीको छोड़ दिया है, जो अपनी पत्नीपर परम अनुरक्त हैं और संतुष्ट हैं तथा परकामिनी को देखकर पापमयसे त्रस्त हो जाते हैं, तथा संपत्तिको नियमित करके संतोष की आराधना करते हैं, वे दृढ़ साधु पुरुष निश्चयसे स्वर्गं जाते हैं ।। २६ ।। १. क को न्वा ( वा ? ) । pre नवमः सर्गः [१५० ] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् पाषण्डिनो ये जलवायुभक्षा व्रतोपवासैरकृशाः कृशाङ्गाः । बालाः स्वयं बालतपोभिरुग्रः पञ्चाग्निमध्ये च तपश्चरन्ति ॥ २७ ॥ asकामतो चरन्ति लोके बद्धाश्च रुद्धाः खलु चारकस्थाः । ब्रह्म परादिताः क्लेशगणान्सहन्ते ते सर्व एवामरतां लभन्ते ॥ २८ ॥ जलप्रवेशादनलप्रवेशान्मरुत्पपाताद्विषभक्षणाद्वा ' 1 शस्त्रेण रज्ज्वात्मवधाभिकामा अल्पविकास्ते दिविजा भवन्ति ॥ २९ ॥ अणुव्रतानां च गुणव्रतानां शिक्षाव्रतानां परिपालका ये । संभूय सर्वोद्धमतीन्द्रलोके महद्धकास्ते त्रिदशा भवन्ति ॥ ३० ॥ सत्यज्ञान और आचरण से अनभिज्ञ होते हुए भी जो तपस्याका स्वांग रचते हैं, महिनों केवल वायु और पानी पर ही रहकर ' कायक्लेश' करते हैं, सतत व्रत और उपवास करनेपर भी जिनका मन विषयोंसे विरक्त नहीं होता है यद्यपि शरीर कृश हो जाता है, ज्ञानहीन होने के कारण जो अज्ञानियों की विधिसे उग्र तप करते हैं जैसे कि चारों तरफ चार ज्वालाएँ जलाकर ग्रीष्मके मध्याह्नमें सूर्यकी तरफ देखते हुये पंचाग्नि तप करना आदि || २७ ॥ जो बिना किसी अभिलाषा या आसक्तिके ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं अथवा अन्य संयम करते हैं, सांसारिक कारणों से बन्धनको प्राप्त होनेपर, किसी स्थान विशेषपर ही रोके जानेपर, चरों ( खुफिया ) या अन्य राज्यकर्मचारियोंके द्वारा विविध प्रकारसे वेदना दिये जानेपर जो अनेक कष्टोंको साहसपूर्वक सहते हैं वे सबके सब अमरता ( देवगति ) को प्राप्त करते हैं ॥ २८ ॥ पानी में डूबकर जलती आगमें कूदकर, पर्वतसे गिरकर घातक विष पान करके, किसी शस्त्र के द्वारा तथा रस्सीमें गला फंसाकर जो लोग आत्महत्या करनेका प्रयत्न करते हैं उन्हें भी देवगति प्राप्त होती है। हाँ इतना निश्चित है उनकी ऋद्धियाँ बहुत ही कम होती हैं ।। २९ ।। उत्तम देवगति के कारण हंसा आदि पाँचों व्रतोंका आंशिक स्थूल ( अणुव्रतों ) पालन तथा दिग्व्रत आदि गुणव्रतों तथा सामायिक आदि चारों शिक्षाव्रतोंका निरतिचार रूपसे पालन करनेवाले पुरुष उन स्वर्गीमें जन्म लेते हैं जहाँपर सब ऋद्धियाँ सुलभ ही नहीं हैं। अपितु अपने चरम विकासको प्राप्त हैं। इस प्रकार वे महद्धिक देव होते हैं ॥ ३० ॥ १. म रुद्राः । २. कनरुत्प्रतापाद, [तरुप्रपाताद् ] । नवमः सर्गः [१५१ ] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग नवमः चरितम् सम्यक्त्वमेकं मनुजस्य यस्य हृदि स्थितं मेरुवदप्रकम्पम् । शङ्कादिदोषापहृतं नरेन्द्र न तस्य तिर्यड्नरके भयं स्यात् ॥ ३१ ॥ नाचारवन्तो विकृता विशीला गुणैर्व्यपेता व्रतदानहीनाः । असंयताः केवलभोगकाङ्क्षाः सदृष्टिशुद्धास्त्रिदिवं प्रयान्ति ॥ ३२॥ ये मार्दवाः शान्तिदयोपपन्नाः' शमात्मकाः शुद्ध शुभप्रयोगाः । ऋजस्वभावा रतिरागहोनास्ते स्वर्गलोकं मुनयो व्रजन्ति ॥ ३३ ॥ परोषहाणां क्षणमप्यकम्प्या द्विषट्प्रकारे तपसि स्थिताश्च । ये चाप्रमत्ताः समिती सदा ते त्रिगुप्तिगुप्तास्त्रिदिवं प्रयान्ति ॥ ३४॥ MALPAPANIPRADHARIHARDASTEMSHIPHATHIPARDSTIPS हे नरेन्द्र ! जिस व्यक्तिको जोव आदि सात तत्त्वोंपर ऐसी हार्दिक आस्था है कि जो सुमेरुकी भांति अडोल और अकम्प है, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, आदि आठ दोष जिसे छू तक नहीं गये हैं यदि ऐसे सम्यक् दृष्टीने किसी भी प्रकारका चरित्र धारण नहीं किया है उस शुद्ध सम्यक्त्वीको तिर्यंच और नरक गतिका भय कभी हो ही नहीं सकता है ।। ३१ ॥ चित्त विकृत है और स्वभावतः कुमार्गगामी है। अन्य कोई भी गुण उसके पास नहीं फटका है, व्रत, दान, आदिका नाम भी नहीं जानता है, असंयमी है तथा भोग और उपभोगोंकी प्राप्तिके लिए लालायित रहता है वह भी स्वर्गगतिको जाता है ॥ ३२॥ स्वभाव मार्दव जो प्रकृतिसे हो शान्ति और दयासे परिपूर्ण हैं, सबके साथ कोमलतापूर्ण व्यवहार करते हैं, किन्ही परिस्थितियोंमें । उद्वेजित नहीं होते हैं, जिनको समस्त चेष्टाएँ शुभावह और निर्दोष होती हैं, कपटहीन सरल स्वभावी तथा प्रेम, स्नेह आदिसे जो । परे हैं वे मुनिवर निश्चयसे स्वर्गकी शोभा बढ़ाते हैं ।। ३३ ।। भूख, प्यास, शील, उष्ण आदि बाईस परीषहोंके उपस्थित रहनेपर भी जो तपस्यासे क्षणभरके लिए भी नहीं डिगते हैं, जो अनशन, आदि छह बाह्यतपों तथा प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तरतपोंके आचरणमें दृढ़ हैं, जो ईर्या, भाषा, आदि पाँचों । समितियोंको सावधानीसे पालते हैं तथा जो सर्वदा ही मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति इन तीनोंका पालन करते है, वे अवश्य ही स्वर्ग में पदार्पण करते ॥ ३४ ।। I लए भी नहीं डिगते है, तथा जो सर्वदा ही मनोगस्तिपकि आचरणमें दढ [ १५२] HTRAILPAIHT ॥ १. [ मार्दवक्षान्ति ] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जराङ्ग चरितम् जितेन्द्रिया जीवदयाप्रवृत्ता वर्षावकाशातपवासयोगाः । जितोपसर्गास्तु विचूर्णिताशाः कल्पेश्वरास्ते पतयो भवन्ति ॥ ३५ ॥ येषां च सज्ज्ञानमुदारवृत्तं सद्दर्शनं चापि तपो विशुद्धम् । वैकादावहमिन्द्रलोके ते संभवन्तीति नरेन्द्र विद्धि ॥ ३६ ॥ ra मेघा शनिशक्रचापविद्युतडित्केतुहिमाम्बुवर्षाः । नभस्तलेऽस्मिन्सहसा भवन्ति तथा सुराणामपि जन्म वेद्यम् ॥ ३७ ॥ उत्पद्यमानाः शयनीयपृष्ठे अन्तर्मुहूर्तात्परिनिष्ठिताङ्गाः । व्याभासमानाश्च दिशो दशापि तपःफलं तेऽनुभवन्ति हृष्टाः ॥ ३८ ॥ प्राणिमात्रकी रक्षा करनेके लिए जो प्रमाद त्याग कर प्रयत्न करते हैं, स्पर्श आदि पाँचों इन्द्रियोंको जो जीत लेते हैं, वर्षाऋतुमें खुले प्रदेशमें (वर्षावास आदि ) तथा ग्रीष्म ऋतुमें उष्ण प्रदेशमें जो ध्यान लगाते हैं, भूख, प्यास आदि परीषहोंपर जो पूर्ण विजय पा लेते हैं तथा आशारूपी बंधनको जो चूर-चूर कर देते हैं वे ही जीव मरकर कल्पोंके अधिपति इन्द्र होते हैं ॥ ३५ ॥ जिन्होंने निर्दोष सम्यक् ज्ञानकी उपासना को है, अतिचाररहित विशाल सम्यक् चारित्रके जो अधिपति हैं तथा शंका आदि आठ दोषोंसे रहित परम पवित्र सम्यक्दर्शन भी जिनको सिद्ध हो गया है, वे रत्नत्रय विभूषित जीव हे भूपते ! नव ग्रैवेयकोंसे प्रारम्भ करके अहमिन्द्र आदि लोकपर्यंन्त जन्म ग्रहण करते हैं आप ऐसा समझें || ३६ || देवजन्म हमारे नभस्तलमें घनघटा, वज्रपात, इन्द्रधनुष, विद्युतप्रकाश, मेघोंकी गर्जना, धूमकेतु या पुच्छलतारेका उदय, वृष्टि तथा हिमवृष्टि जिस प्रकार अकस्मात् होते हैं उसी प्रकार स्वर्गलोक में देवोंका जन्म भी पहिलेसे कोई चिह्न न होते हुये भी सहा होता है ॥ ३७ ॥ वे अत्यन्त रमणीय शय्या ( जिसको इसी कारणसे उत्पाद शय्या कहा है) पर जन्म लेते हैं मुहूर्त के भीतर ही उनका संपूर्ण शरीर परिपूर्ण हो जाता है तथा उसके सब संस्कार भी हो लेते हैं। हैं तो उनकी कान्तिसे दशों दिशाएँ जगमगा उठती हैं, वे परम प्रसन्न रहते हैं और आनन्दसे अपने हैं ॥ ३८ ॥ Ro तथा जन्म लेते ही एक इसके बाद जब वे उठते पूर्वकृत तपका फल भोगते For Private Personal Use Only नवमः सर्गः [ १५३] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् TIRETREETrail प्रजायमानान्सहसा समीक्ष्य सुमङ्गलाविष्कृतपुण्यघोषाः । प्रस्फोटिताः श्वेणितमुष्टिनादाः (?)कुर्वन्ति देवा मुदिता नमन्तः ॥ ३९ ॥ नृत्यन्ति तत्राप्सरसो वराङ्गयो वीणाः सलोलं परिवादयन्ति । गायन्ति गीतानि मनोहराणि चित्राणि पुष्पाण्यभितः किरन्ति ॥ ४० ॥ ते दिव्यमाल्याम्बरचारुभूषा मनोऽभिनिर्वतितसर्वसौख्याः । ऐश्वर्ययोगद्धिविशेषयुक्वाः प्रियासहाया विहरन्ति नित्यम् ॥४१॥ दयातपोदानदमार्जवस्य सद्ब्रह्मचर्यव्रतपालनस्य । जिनेन्द्र पूजाभिरतेविपाकोऽप्ययं स इत्येव विबोधयन्ति ॥ ४२ ॥ स्वभावतो वालदिवाकराभाः स्वभावतः पूर्णशशाङ्कसौम्याः । स्वभावतश्चारुविभूषणानाः स्वभावतो दिव्यसुगन्धिगन्धाः ॥ ४३ ॥ जब अन्यदेव अकस्मात् ही नूतन देवोंको जन्मते देखते हैं तब वे अत्यन्त मंगलमय स्तुतियों तथा उनके पुण्यात्मापनको प्रकट करनेवाले 'जय' आदि घोषोंको करते हैं। इतना ही नहीं अपितु वे उनके जन्मकी सूचना देनेके लिए तालियां बजाते हैं, फटाके आदि स्फोटक पदार्थोंको फोड़ते हैं, तोपों आदिको सी क्ष्वेणित (धड़ाका) ध्वनि करते हैं तथा बड़े उल्लासके साथ निकट आकर उन्हें प्रणाम करते हैं ।। ३९॥ अति आकर्षक श्रेष्ठ सुन्दर शरीर धारिणी वरांगी अप्सराएँ उनके सामने नृत्य करती हैं, वे बड़े हावभावके साथ वीणाको विविध प्रकारसे बजाती हैं, मनको मुग्ध कर देनेवाले मधुर गीत गाती हैं, तथा रंग विरंगे फूलोंको हर तरफसे उनके ऊपर बरसाती हैं ।। ४० ॥ अतीव सुन्दर अलौकिक वस्त्र, माला तथा सुललित भूषणोंको धारण किये हुए वे देवलोक सी परिपूर्ण प्रभुता, असाWधारण तथा अविकल सम्पत्तिको प्राप्त करते हैं। उनकी सुख सामग्री विषयक समस्त अभिलाषाएँ मनसे सोचते ही पूर्ण हो जाती हैं तथा उनके लिए हो प्रतीक्षामें बैठी अनेक देवाङ्गनाओंके साथ वे दिन रात विहार करते हैं ।। ४१ ॥ दयामय भाव, निरतिचार तप, सत्पात्र दान, इन्द्रिय दमन, मानसिक सरलता, उत्तम ब्रह्मचर्यव्रतका प्रयत्नपूर्वक पालन, श्री एक हजार आठ देवाधिदेव वीतराग प्रभुकी अष्ट द्रव्य द्वारा भाव और द्रव्य पूजा करनेको प्रवृत्ति तथा उत्कट इच्छा आदिके परिपाकका ही यह सब फल है, ऐसा सज्ज्ञान भी उन्हें होता है ।। ४२ ।। देवशरोर ___ स्वभावसे ही उनका तेज अरुणाचलपर विराजमान सूर्य के समान होता है। किसी बाह्य प्रयल अथवा संस्कारके बिना 1 १.म पुण्यपापाः। २. [ प्रस्फोटितक्ष्वेडितमुष्टि नादान् ] । HEACHIKE [१५४] Jain Education intemnational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् आ जन्मनोऽवस्थितकान्तरूपा आ जन्मनोऽम्लान सुगन्धिमालाः । आ जन्मनस्ते स्थिरयौवनाइच आ जन्मनः प्राप्तमनोऽभिरामाः ॥ ४४ ॥ नित्यप्रवृत्तातिशयद्धयुक्ता नित्यप्रवृत्ताधिकदीप्तिमन्तो नित्यप्रवृत्तामलचारुहासाः । नित्यप्रवृत्तोरुसुखालयास्ते ।। ४५ ।। जरारुजा क्लेश शतैविहीनाः । समुल्लसत्कुञ्चितनील केशाः अनस्थिकायास्त्वरजोऽम्बराश्च सर्वे सुराः स्वेदरजोविहीनाः ॥ ४६ ॥ अपेतनिद्राक्षिनिमेषशोका महीतलस्पर्शविमुक्तचाराः । नभश्चरा यानविमानयाना अनूनभोगा दिविजा रमन्ते ॥ ४७ ॥ ही वे पूर्णिमा चन्द्रमाके समान शीतल और कान्तिमान् होते हैं। उनके स्वभावतः सुन्दर अंगोंपर किसी अन्य व्यक्तिकी सहायता के बिना ही सुन्दर अलंकार दिखायी देते हैं इसी प्रकार बाहरी सामग्री जुटाये बिना ही उनकी देहसे अद्भुत सुगन्धयुक्त गन्ध आती है ।। ४३ ।। जन्मके क्षणसे हो उनका रूप अत्यन्त कमनीय और कान्त होता है तथा पूरे जीवन भर उसमें न ह्रास होता है और न वृद्धि, जो सुगन्धित मालाएँ जन्मके समय उनके गलेमें पड़ती हैं वे जोवन भर उनका साथ नहीं छोड़ती हैं। जन्मके क्षण में ही वह युवा अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं। जो कि स्थायी होता है तथा जोवनके प्रथमक्षणसे आरम्भ करके जीवन भर उन्हें इष्ट पदार्थोंकी निर्बाध प्राप्ति होती है ॥ ४४ ॥ उनकी परम पूर्ण असाधारण ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ सर्वदा उनकी सेवा करती हैं, उनकी हृदयाकर्षक तथा निर्मल मुस्कान भी कभी रुकती नहीं है, कभी भी म्लान न होनेवाली उनकी द्युति भी निरन्तर जगमगातो ही रहती है तथा उन्हें प्राप्त महासुख भी बिना अन्तरालके हर समय उनका रंजन करते हैं ॥ ४५ ॥ देव- वैशिष्टय उनके लहराते तथा घुँघराले सुन्दर बालोंका रंग नीलिमा लिये होता है, बुढ़ापा, रोग तथा वहाँ सुलभ सैकड़ों रोगोंसे वे सब प्रकार बचे हैं, उनकी देहों में हड्डी नहीं होती है, न उनके कपड़ोंपर कभी धूल ही बैठती है इसी प्रकार किसी भी देवको न पसीना आता है और न रज-शुक्रका स्राव ही होता है ॥ ४६ ॥ न तो उन्हें नींद आती है, न उनकी आँखें कभी पलक झपाती हैं और न उन्हें कभी किसी कारणसे शोक ही होता है । वे चलते अवश्य हैं पर उनके पैर पृथ्वी नहीं छूते हैं, आकाशमें भी वे अपने-अपने वाहन विमानोंपर आरूढ़ होकर चलते हैं तथा उनके समग्र भोग समस्त प्रकारकी त्रुटियोंसे रहित होते हैं ॥ ४७ ॥ THE SH नवमः सर्गः [१५५] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pame- नवमः सर्गः SHAH उत्पाटयेयुः स्वभुजेन मेरुं महीं कराग्रेण समुद्धरेयुः । आदित्यचन्द्रावपि पातयेयुर्महोदधि चापि विशोषयेयुः ॥ ४८॥ व्याप्याशु तिष्ठेयुरथो जगन्ति अदृश्यरूपाः क्षणवद्भवेयुः । ईयुनिमेषाद्वसुधातलान्तं ते कामरूपाश्च भवेयुरीशाः ॥ ४९ ॥ इन्द्राश्च सामानिकलोकपालास्तथा त्रयस्त्रिशदनीकिनश्च । प्रकीर्णकाः किल्विषिकात्मरक्षा अथाभियोग्याः परिषत्त्रयं च ॥ ५० ॥ सौधर्मकल्पप्रभृतिष्वमीषु दशप्रकारा नप देववर्गाः। ज्योतिर्गणा व्यन्तरदेववर्गा न च त्रयस्त्रिशकलोकपालाः ॥५१॥ सुराङ्गना वैक्रियचारुवेषाः सुविभ्रमाः सर्वकलाप्रगल्भाः। विशिष्टनानद्धिगुणोपपन्ना गुणैरनेकै रमयन्ति देवान् ॥ ५२ ॥ RespenPHPaire-Swamipreswwesesear देव अपने भुजबलसे सुमेरु पर्वतको भी उखाड़ कर फेंक सकते हैं, सारा पृथ्वोको एक हाथसे उठा सकना भी उनके सामर्थ्यके बाहर नहीं है, एक झटकेमें वे सूर्य चन्द्रको पृथ्वोपर गिरा सकते हैं। वे अपनी शक्तिसे समुद्रको भी सुखाकर चौरस स्थल बना सकते हैं, यदि एक क्षणमें तीनों लोकोंको अपने आकारसे व्याप्त करके बैठ सकते हैं ।। ४८॥ तो दूसरे ही क्षणमें वे ऐसे अन्तर्धान ( विलीन ) हो सकते हैं कि उनके रूपका पता लगाना ही असम्भव हो जाता है। एक बार पलक मारने भरके समय में वे पृथ्वी के एकसे दूसरे छोरतक चल सकते हैं, वे सर्वशक्तिशालो संसारी अपने आकार इच्छानुसार बदल सकते हैं ।। ४९ ॥ देव-वर्ग प्रत्येक स्वर्गके देव साधारणतया इन्द्र (प्रधान) सामानिक ( इन्द्रकी बराबरीके देव ) लोकपाल ( दण्डनायक आदि) वायस्त्रिंश ( मंत्री, पुरोहित आदि ) अनीक ( सेनाके समान देव ) प्रकीर्णक (प्रजाके समान) किल्विषक (नीच देव ) आत्मरक्ष ( अंग रक्षक ) अभियोग्य ( सेवक स्थानीय जो सवारी आदिके काम आते हैं ) तथा परिषत् (सभासद ) ये दशों प्रकारके देव सौधर्म आदि सोलह कल्पोंमें पाये जाते हैं । सूर्यादि ज्योतिषी देवों तथा किन्नर आदि व्यन्तर देवोंमें त्रायस्त्रिश और लोकपालके सिवा आठ ही वर्गके देव होते हैं ।। ५०-५१ ॥ देवोंकी स्त्रियाँ अपनी विक्रिया ऋद्धिके द्वारा वेशभूषाको अत्यन्त ललित बनाती हैं, इनके हावभाव भी अतीव मनमोहक होते हैं, कोई ऐसी ललित कला नहीं है जिसमें वे दक्ष न हों, वे एकसे एक उत्तम ऋद्धियों और गुणोंकी खान होती हैं । इस प्रकार । अपनी बहुमुखी विविध विशेषताओके कारण वे देवोंके मनको हरण करती हैं।। ५२ ।। [१५६] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वनाथकायानुविकाररूपाः स्वनाथभावप्रियचारुवाक्याः । स्वनाथदृष्टिक्षमचारवेषाः स्वनाथसच्छासनसक्तचित्ताः ॥ ५३॥ युसुन्दरीणाममितद्युतीनां मनोहरश्रोणिपयोधराणाम् । तासां वपुर्वेषविलासभावान् कथं पुमान्वर्णयितु हि शक्तः ॥ ५४॥ एकः समुद्रो भवनाधिपानां पल्योपमं व्यन्तरकेषु विद्धि । ज्योतिर्गणेष्वभ्यधिकं तदेव सौधर्मकल्पे' द्विसमुद्रमाहुः ॥ ५५ ॥ सप्तैव माहेन्द्रमहाविमाने ब्रह्मेन्द्रकल्पे दश वर्णयन्ति । ते लान्तवे चापि चतुर्दशैव समुद्रसंख्या यतिराडवोचत् ॥ ५६ ॥ शुक्रे पुनः षोडश ते समुद्रः कल्पेऽष्टमेऽष्टादश सागरास्ते । ततः परं विशतिरानते च द्वाविंशतिस्त्वारणसंज्ञकल्पे ॥ ५७ ॥ उनका रूप ऐसा होता है कि उसे देखकर उनके पतियोंके शरीरमें हो विकार होता है, वे अपने-अपने प्राणनाथोंके भावोंके अनुकूल ही प्रिय वचन बोलती हैं, उनका वेश और शृंगार ऐसा होता है जो कि उनके पतियोंकी आँखोंमें समा जाता है तथा उनका मन सदा ही अपने पतियोंको आज्ञाका पालन करनेके लिए उद्यत रहता है ।। ५३ ।। देवियां अपरिमित सौन्दर्य और कान्तिको स्वामिनी स्वर्गीय अंगनाओंको शारीरिक रचना, वेशभूषा, प्रेमलीला, हाव-भाव । आदिका मनुष्य कैसे अविकलरूपसे वर्णन कर सकता है क्योंकि नितम्ब, स्तन आदि प्रत्येक अंगकी कान्तिको कोई सीमा नहीं है तथा प्रत्येक अंग ही मनोहर होता है ।। ५४ ।। देवोंको स्थिति भवनवासी देवोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण एक सागर प्रमाण है। व्यन्तरोंको आयुका प्रमाण पल्यको उपमा देकर समझाया गया है। ज्योतिषी देवोंको आयुका प्रमाण कुछ अधिक एक पल्य हो है, प्रथम स्वर्ग सौधर्ममें देवोंकी उत्कृष्ट आयु दो सागर प्रमाण है, ऐशान कल्पमें भी आयुका यही प्रमाण है ।। ५५ ।।। सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्पमें सात सागर उत्कृष्ट आयु है, ब्रह्म तथा ब्रह्मोत्तर कल्पोंमें उत्कृष्ट आयुको दश सागर [१५७] गिनाया है, यतियोंके राजा केवली प्रभुने लांतव तथा कापिष्ठ स्वर्गों में अधिकसे अधिक चौदह सागर प्रमाण आयु कही है ॥५६|| शुक्र, महाशुक्र स्वर्गामें ऐसी ही ( उत्कृष्ट ) अवस्थाका प्रमाण सोलह सागर है, अष्टम कल्प शतार तथा सहस्रारमें १. म °कल्पादि। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितस् एकै वृद्धिर्नव क्रमेण ग्रैवेयकेषु क्षितिपोपदिष्टा । सर्वार्थसिद्धेः खलु लोकमूनि त्रिशस्त्र'यश्चैव समुद्रसंख्याः ।। ५८ ॥ त्रिशून्यपूर्वास्तु दशैव वर्षा जघन्यतस्ते भवनेषु तेषु । तथैव ते व्यन्तर देववर्गे परावरज्ञाः परिमाणमाहुः ॥ ५९ ॥ ज्योतिष्मति ज्योतिषदेवलोके पल्योपमस्याष्टमभागमाहुः । एकं च पल्यं प्रथमे च कल्पे उत्कृष्टमेवोपरि तज्जघन्यम् ॥ ६० ॥ इत्येवं सुरनिलयांश्चतुष्प्रभेदानादित्यस्फुरितमयूख जालभासः । सद्धर्मप्रभवसुखाश्रयान्विचित्रान्संक्षेपाद्य तिपतिरेवमाचचक्षे ॥ ६१ ॥ उत्तम आयु अठारह सागर है, इसके ऊपर आनत-प्राणत कल्पों में बीस सागर है तथा आरण और अच्युत नामके स्वर्गो में बाईस सागर प्रमाण है ॥ ५७ ॥ हे पृथ्वीपालक ? इसके ऊपर प्रत्येक ग्रेवेयक में क्रमशः एक-एक सागर आयु बढ़ती जाती है अर्थात् अन्तिम ग्रैवेयक में उत्कृष्ट आयुका प्रमाण इकतीस सागर गिनाया है, विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित कल्पोंमें बत्तीस सागर है तथा लोकके शिखरपर स्थित सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न देवोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण तैंतीस सागर है ॥ ५८ ॥ जघन्य आयु पूर्वोक्त भवनवासी देवोंकी जघन्य आयुका प्रमाण (तीन शून्योंके पहिले दश वर्ष ( १०,०००) लिखनेसे ) अर्थात् उनकी जघन्य आयु दश हजार वर्ष है। उत्कृष्ट और जघन्य आयुके प्रमाणके विशेषज्ञोंने इसी प्रकार व्यन्तरों की भी जघन्य आयुको गिनाया है, अर्थात् दश हजार वर्ष बताया है ।। ५९ ।। जाज्वल्यमान उद्योतके पुज ज्योतिषी देवोंके लोकमें उत्पन्न हुये देवोंको कमसे कम अवस्थाका प्रमाण एक पल्यका आठवाँ भाग होता है । प्रथम सौधर्म और ऐशान कल्पमें जघन्य आयुका प्रमाण एक पल्य है इसके आगे पहिलेकी उत्कृष्ट आयु ही उसके अगले कल्प में जघन्य हो जाती है। यथा - सौधर्मं - ऐशानकल्पकी उत्कृष्ट आयु दो सागर हो सानत्कुमार माहेन्द्रकल्प में जघन्य हो जाती है ॥ ६० ॥ मुनियोंके अग्रणी श्रीवरदत्त केवलीने समीचीन धर्मके पालन करनेसे प्राप्त होनेवाले सुखोंके स्थान तथा अपनी छटाके द्वारा सूर्यके किरण जालके समान चारों प्रकारके देवलोकोंका उक्त प्रकारसे अत्यन्त संक्षेपमें वर्णन किया था ।। ६१ ।। १. त्रिंशत्य || For Private Personal Use Only नवमः सर्गः [१५८ ] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानां सुकृतफलान्यथाभिधाय सिद्धानां त्रिभुवनमस्तकस्थितानाम् । तत्सौख्यं परमपदेच शाश्वतं यत्प्रारेभे क्षितिपतयेऽभिधातुमीशः॥ ६२॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते देवलोकवर्णनो नाम नवमः सर्गः । नवमः चरितम् सर्गः पुण्यके परिपाक होनेपर स्वयं समागत स्वर्गीय सुखोंका व्याख्यान करनेके उपरान्त, तीनों लोकोंके ऊपर विराजमान, मोक्ष महापदको प्राप्त तथा अनन्तकाल पर्यन्त स्थायी अतीन्द्रिय सुखों स्वरूप सिद्धोंका स्वरूप राजा धर्मसेनको समझानेकी इच्छासे केवली प्रभुने मोक्षके विषय में कहना प्रारम्भ किया था ।। ६२ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरितनामक धर्मकथामें देवलोक वर्णन नाम नवम सर्ग समाप्त । [१९] Jain Education Intemational Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचार बराङ्ग चरितम् दशमः सर्गः दशमः सर्ग ऐकान्तिकात्यन्तिकनित्ययुक्त कर्मक्षयोद्भूतमनन्तसौख्यम् । शृणु त्वमेकाग्रमना नरेन्द्र समासतो मोक्षमुदाहरिष्ये ॥१॥ सर्वार्थसिद्धस्तु विशालकीर्तेर्गत्वोपरि द्वादश योजनानि । प्राग्भारभूमिर्नरलोकमात्रा श्वेतातपत्राकृतिरुद्वभाति२ ॥२॥ बाहुल्यमष्टौ किल योजनानि मध्यप्रदेशे नरदेव विद्धि । अमुल्यसंख्येयविभागतोऽन्ते प्रहोयते सा खल सर्वदिग्भ्यः ॥३॥ संख्यानतस्तस्त्रिगुणाधिकश्च तस्याः परिक्षेपविभाग उक्तः । यत्रासतेऽनिन्द्रियसौख्ययुक्ताः सिद्धा विशुद्धा इति शब्दमानाः ॥ ४ ॥ TRAII-RIचारनामस्म दशम सर्ग ज्ञानावरणो आदि आठों कर्मोंका सांगोपांग क्षय हो जानेसे प्रकट हुआ अनन्त सुख ऐकान्तिक (अद्वितीय ) है उसमें कभी भी दुःख लेशका समावेश नहीं होता है, वह सुखको चरमसीमा और परम विकास है तथा वह अपने पूर्णरूपमें सदा ही विद्यमान रहता है । अतएव हे नरेन्द्र ! आप इसे ध्यान लगाकर सुनिये मैं संक्षेपसे कहता हूँ॥१॥ मोक्ष स्थान जिस सर्वार्थसिद्धि विमानको कीतिको आगम में विस्तारपूर्वक गाया है, उसके भी ऊपर बारह योजन जाकर 'प्रारभार' नामकी भूमि है जिसका व्यास तथा परिधि मनुष्यलोक ( ढाई द्वीप प्रमाण ) के समान है। उसका आकार भी दुग्ध-धवल छातेके समान है ॥२॥ हे नरदेव ! इस प्राग्भार पृथ्वीको मोटायी मध्यमें आठ योजन प्रमाण समझिये, इसके बाद मध्य या केन्द्रसे आरम्भ करके सब दिशाओंकी ओर उसकी मोटायी घटती गयी है और अन्तमें अंगुलके असंख्येय भागसे भी कम रह गयी है ।। ३ ।। गणित शास्त्रकी विधिके अनुसार उसकी परिधिका विस्तार उसके व्यास ( ढाई द्वीपके व्यास ) के तिगुनेसे भी कुछ अधिक है ऐसा लोकविभाग प्रकरणमें कहा है। इस क्षेत्रके ऊपर ही सिद्धलोग विराजते हैं जो कर्ममलसे रहित हैं तथा अतीन्द्रिय सुखके भण्डार हैं अतएव वे 'विशुद्ध सिद्ध' शब्दसे पुकारे जाते हैं ।। ४ ।। 5_१. [ °नित्यमुक्तं ]। २. [ °विभाति ] । । १६० Jain Education international Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराङ्ग चरितम् पूतं च पुण्यं सुगतिप्रधानं कल्याणकं मङ्गलमुत्तमं च । लोकोत्तमं तत्परमं पवित्रं परं शुभं शाश्वतमव्ययं च ॥ ५॥ अनामयं क्लेशजराविहीनमदैन्यमव्याकुलमप्रमेयम् । अनिन्द्यमक्षोभ्यमपारमण्यं सुखास्पदं तुष्टिकपुष्टिकं च ॥ ६ ॥ अचञ्चलं रागविरागवय॑मभेद्यमद्रोहमबाधसंगम् । अपात्यमक्षीणमतुल्यमुद्धमनभ्यसूयं श्रवणीयमेव ॥ ७ ॥ अशक्रमित्रं' ह्यविनाश्यशवं निर्हेतुकं निर्वृति निष्कषायम् । अवस्थित योगवियोगहीनमलेश्यमक्षुतुषमप्रचिन्त्यम् ॥८॥ दशमः सर्गः i ttiretEaAIIMIREZचमायाम मोक्ष माहात्म्य यह सिद्धलोक स्वयं पवित्र है, पुण्य कर्मों द्वारा प्राप्य है, शुभगतियोंका मुकुटमणि है, कल्याण अवस्थाका प्रतीक है, सर्वश्रेष्ठ तथा शुभ ही शुभ है। हमारी व्याख्यानशैली अथवा शब्दनयके अनुसार वह उत्तम लोक है, संसारके समस्त पदार्थोसे A अत्यधिफ पवित्र है, चरम श्रेय है, सतत स्थायी है और कभी नष्ट नहीं होता है ॥ ५ ॥ व्यतिरेक दृष्टिसे देखनेपर वह समस्त रोगोंसे परे हैं, क्लेश, बुढ़ापा आदिका वहाँ प्रवेश नहीं है, दीनता वहाँसे बहुत दूर है, आकुलताका अभाव है, उसके परिमाणका अनुमान करते समय प्रमाणकी प्रगति रुक जाती है, निन्दा उसकी हो ही नहीं सकती, क्षोभकी वहाँ कल्पना भी शक्य नहीं है, वह सीमाओंमें नहीं समाता है, सबका अग्रणी है, आत्माके स्वाभाविक सुखका भण्डार है तथा जीवके शुद्ध स्वरूपका तोषक और पोषक है ।। ६ ।। चंचलताका वहाँ संचार नहीं है, राग-विरागसे रहित है, उसके खण्ड नहीं हो सकते, वहाँ द्रोह-विद्रोहका पूर्ण अभाव है, बाधाओंके समागमकी सम्भावना भी नहीं है। उसे गिराया नहीं जा सकता, गलता भी नहीं है, उसका उपमान खोजना अशक्य । है । वह भासमान है, अभ्यसूयासे परे है, हर प्रकार श्रवण और मनन योग्य है ।। ७ ।। शत्रु-मित्रके विभागसे रहित है, विनाश और शंकाकी संभावना भी नहीं है, किसी हेतुसे उत्पन्न नहीं है, समस्त । प्रवृत्तियाँ और कषायोंसे कलुषित नहीं है, वृद्धि-हानिसे हीन है, योग-वियोगसे सर्वथा दूर है, कृष्ण आदि लेश्या, क्षुधा-तृषासे अछूता है तथा कल्पनाके भी परे है ॥ ८॥ [१६१] tra १.[अशत्रुमित्रं]। 22 For Privale & Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् अभेद्य मच्छेद्यमना 'हदाहमदुःखमद्वेष्यमुदार सौख्यम् अनन्त्यमग्राह्यमजात्यमृत्युं अभव्य सत्त्वैर्मनसाप्यगम्यं गम्यं सुनिर्मलं तद्धयपुनर्भवं (पुनर्भव्यजनैः सुखेन । महामुनीनामभिकाङ्क्षणीयं शिवालयं मोक्षमुदाहरन्ति ॥ १० ॥ काङ्क्षन्ति शक्रप्रमुखा नरेन्द्रा नराः प्रशंसन्ति च शुद्धिमन्तः । पाषण्डिनो यं हि परीक्षयन्ति ये तत्र गच्छन्त्यथ तान्प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥ क्षमा विभूषाः पृथुशीलवस्त्रा गुणावतंसा दममाल्यलीलाः । निर्ग्रन्थशूरा धृतिबद्ध कक्षास्ते मोक्षमक्षीणमभिव्रजन्ति ॥ १२ ॥ गृहीत योगव्रतभूरिसाराः । बिभ्रति भक्तिभाजः ॥ १३ ॥ आ जीवितान्ताद्दृढबद्धसत्वा ये शीलभारं निरवद्यरूपं सुदुर्धरं च ॥ ९ ॥ उसका छेदन-भेदन नहीं हो सकता, न वहाँ दिन है और न दिनका आतप ही है, दुःख और द्वेषसे कोशों दूर है, विशालतम सुखोंकी भी वहाँ कोई गिनती नहीं है, न उसका अन्त है । वह इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण भी नहीं किया जा सकता है, जन्ममरणसे परे है, अत्यन्त निर्मल है तथा वहाँ पहुँचनेपर फिर जन्मग्रहण नहीं करना पड़ता है ॥ ९ ॥ भव्य जीवोंके द्वारा वह बिना आयामके ही प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु अभव्यजीव मनसे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते साक्षात् गमनकी तो बात ही क्या है ? श्रेष्ठसे श्रेष्ठ उग्र तपस्वी यतिराज भी जिसे पानेकी अभिलाषा करते हैं उसे ही शिवालय ( कल्याणोंका घर ) या मोक्ष कहते हैं ॥ १० ॥ इन्द्र आदि प्रधान देव तथा चक्रवर्ती आदि प्रधान राजा भी उसको आकांक्षा करते हैं, अन्तरंग बहिरंग शुद्धियुक्त श्रेष्ठ पुरुष भी उसका गुणगान करते हैं तथा संसारके समस्त पाखण्डी ( दार्शनिक ) जिसकी तर्ककी कसौटीपर कसके परीक्षा ( युक्तियों द्वारा सिद्ध) करते हैं। अब जो जीव उसे प्राप्त करते हैं उनका वर्णन करता हूँ ॥ ११ ॥ मोक्ष गामी क्षमा ही जिनका प्रधान अलंकार है, विपुल ( उत्तम ) चरित्र ही जिनका वस्त्र है, शान्ति आदि गुण ही जिनका मुकुट हैं, इन्द्रिय मनका दमन ही जिनकी सुन्दर माला है, तथा धैर्यरूपी कांछ जिन्होंने बाँध ली है ऐसे दिगम्बर मुनिरूपी वीर ही मनुष्य जीवनकी समाधिपर अनन्तकाल पर्यन्त स्थायी मोक्षको गमन करते हैं ॥ १२ ॥ जीवनका अन्त उपस्थित होनेपर भी जिनकी सामर्थ्यं और दृढ़ता बिखरती नहीं है, अनेक प्रकार के योगों और समस्त १. कमाह । दशमः सर्गः [ १६२ ] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् दशमः सर्गः पिधाय पापास्रवमिन्द्रियाणां सुसंयता गुप्तिमहाकपाटः । तपोऽग्निना संचितकर्मकक्षं दहन्त्यशेषं हि शमाचिषा ये ॥ १४ ॥ अतन्द्रिताः संपरिगा योगं जिनेन्द्र वक्त्राभिविनिस्मतार्थम'। ये द्वादशाङ्गं हि तदङ्गपूर्वमधीयते ये गणदेवदृष्टम् ॥ १५॥ आतं च रौद्रं प्रविहाय धीरा धयं तथा शुक्लमपि प्रशक्तम् । शभान्वितं ध्यानमनन्तभेदं ध्यायन्ति ये ध्यानरता विनीताः ॥१६॥ लोष्टेष्टकाकाञ्चनवज्रसारे मानापमाने स्वजने जने वा। लाभे त्वलाभे सुखदुःखयोर्वा समानभावाः शिवमाप्नुवन्ति ॥ १७ ॥ अभ्यन्तरं बाह्यमपि प्रशस्तं द्विषट्प्रकारं हि तपोविधानम् । चरन्ति ये कर्मविनाशनाय ते सर्व एवाक्षयमोक्षभाजः ॥ १८ ॥ मरामारामारावयाचा व्रतोंके विशाल सारको जो खींचकर आत्मसात् कर लेते हैं, जो अडिग भक्तिपूर्वक निर्दोष तथा परिपूर्ण शीलके उस भारको बहन करते हैं जिसे थोड़ी दूर ले जाना भी अतिकठिन है ।। १३ ।। जो परमसंयमी त्रिगुप्तिरूपी विशाल किवाड़ोंको इन्द्रियोंरूपी द्वारोंपर लगाकर पाप कर्मोके आस्रवको रोक देते हैं तथा पहिलेसे संचित कर्मोरूपी गहन वनको तपरूपी अग्निकी समभावरूपी ज्वालाके द्वारा समूल भस्म कर देते हैं ।। १४ ॥ आसनादि योग लगानेपर जो आलसको दूर भगा देते हैं, साक्षात् श्री एकहजार आठ तीर्थंकर केवलीके मुखसे विनिर्गत तथा गणधर स्वामी द्वारा गृहीत द्वादश-अंगरूप आगमको जो चौदह पूर्वो सहित मनन करते हैं ।। १५ ।। जो ध्यानवीर आर्त्त और रौद्र अशुभ ध्यानोंको छोड़कर शुभ धर्म और शुक्ल ध्यानमें ही लवलीन रहते हैं तथा अत्यन्त विनम्रताके साथ अनन्त प्रकारके शुभ भाव तथा ध्येययुक्त ध्यानोंको ही लगाते हैं ।। १६ ।।। पत्थर-ईंटातथा सोनेमें, वनके समान सारमय पदार्थमें, आदर निरादरमें, अपने सगे सम्बन्धियों तथा जनसाधारणमें, लाभ और हानिमें, सुख तथा दुःख में जिन योगियोंके समभाव रहते हैं वे मोक्ष लक्ष्मीका वरण करते हैं ।। १७ ।। मोक्षसाधक तप कर्मोको समल नष्ट करनेके लिए जो महर्षि अनशन, अवमौदर्य, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन १. [ निस्सृतार्थम् ] । मयमचायमचाच्याचमनामनामाच्यITAGE [१६३] Jain Education international Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAIR बराङ्ग दशमः चरितम् क्रोधादयोऽभ्यन्तरशल्यदोषा बाह्याश्च योषिद्धनवाहनाद्याः। त्यक्ताश्च' निजितमोहसेना तेषां ध्रुवं मोक्षमुदाहरन्ति ॥१९॥ यथोदयादुत्थितबालसूर्यो दिने चर तस्मिन्परिवर्तते सः। तथैव संपूर्णतपोविधाना अखण्डवृत्ताः परमाश्रयन्ति ॥ २०॥ कषायशाखं स्थिरमोहमूलमज्ञानपुष्पं बहुदुःखपाकम् ।। प्रज्ञाबलाः कर्मतरुं प्रभज्य मुनिद्विपास्तत्र सुखं वसन्ति ॥ २१ ॥ मोहक्षयाज्ज्ञानवृतिक्षयाच्च दृष्टयावृतेः संक्षयत: क्रमेण । तथान्तरायक्षयतश्च सर्वान् कैवल्यमुत्पाद्म विदन्ति भावान् ॥ २२ ॥ सर्गः ATREATSAIRAMETHISRUARY तथा कायक्लेश इन छह प्रकारके बाह्य तपों तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान इन छह प्रकारके अन्तरंग तपोंको सदा करते हैं बे निश्चयसे अक्षय मोक्षपदको पाते है ।। १८ ।। क्रोध आदि अभ्यन्तर शल्योंको तथा स्त्री, धन, वाहन आदि बाह्य शल्योंके दोषोंको जिन्होंने 'मनसा वाचा कर्मणा' छोड़ दिया है तथा मोहरूपी महाशत्रुको कषायादि बहुल महासेनाको पूर्णरूपसे पराजित कर दिया है उनके लिये मोक्षप्राप्ति ध्रुव है ॥ १९ ॥ उदयाचल से उदित होकर तथा मध्याह्नको तप करके उसी दिनके भीतर ही फिर बदलकर जिस प्रकार सूर्य अपनी प्रारम्भिक प्रकृतिको प्राप्त होता है उसी प्रकार समस्त तपस्याके विविध विधानोंको पूर्ण करके भी सम्यक्चारित्रकी निर्दोषताके रक्षक महामुनि आत्माको परम स्वाभाविक अवस्थाको प्राप्त करते हैं ।। २० ॥ विवेकरूपी महाशक्तिसे सम्पन्न मुनिरूपी मदोन्मत्त गज अनादिकालसे बँधे ( सुस्थिर) मोहरूपी जड़ोंपर खड़े, कषायरूपी शाखायुक्त, अज्ञान कुज्ञानरूपी फूलोंसे पूर्ण तथा दुःखरूपी पके फलोसे लदे कर्मरूपी विषवृक्षको उखाड़ कर फेंक देते हैं तथा मोक्षमें सहज सुखमय जीवन बिताते हैं ।। २१ ।। कर्म-क्षय क्रम मोहनीय कर्मके नष्ट होनेसे ज्ञानके रोधक ज्ञानावरणी कर्मका नाश होनेपर, दर्शनावरणीके सर्वथा लुप्त हो जानेके कारण तथा क्रमशः अन्तराय कर्मके गल जानेपर यह आत्मा केवलज्ञानको प्रकट करता है तब समस्त द्रव्योंको उनकी पर्यायोंके साथ जानता है ।। २२ ।। १. क रिक्ताश्च । २.क दिनेन । Jain Education international Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः गोत्रायुषी नाम च वेदनीयं चत्वारि तान्यप्रतिवीर्यवन्ति । कर्माणि संचूर्ण्य विधूतदोषा लोकोत्तरेऽनन्तसुखं लभन्ते ॥ २३ ॥ तुम्बीफलं मृत्प्रविलेपमुक्तं यथोदकस्योपरि तिष्ठतोह । कृती तथा कर्मविलेपमुक्तस्त्रिलोकमूर्धानमुपैति सद्याः ॥ २४ ॥ यथैव बीजं हुतभुक्प्रतप्तं न कल्पते तत्पुनरङकुराय। तपोऽग्निभस्मीकृतकर्मबीजं तथैव नालं पुनरुद्धवाय ॥२५॥ तालद्रुमश्च प्रतिलूनमूर्धा नासंभवादङ कुरमादधाति । स्नेहक्षयाचिरुपैति शान्ति तथैव कर्मक्षयतस्तु सौख्यम् ॥ २६ ॥ यथैव लोके नलवतितलं प्रभातकाले युगपत्प्रयाति ।। तथैव कर्माणि समानि येषां ते निर्वृति तत्क्षणतो व्रजन्ति ॥ २७॥ गोत्रकर्म, नामकर्म, वेदनीयकर्म तथा आयुकर्म इन अनुपम शक्तिशाली चारों अघातिया पापकर्माको भी आत्मशक्तिके प्रहारसे चकनाचूर करके समस्त दोषोंको हवा कर देता है। अन्तमें यह आत्मा इस संसारके परेके अतीन्द्रिय सुखको प्राप्त करता है ॥ २३ ॥ मुक्तजीवका ऊर्ध्वगमन मिट्टीका लेप लगाकर जल में फेंका गया तुम्बोफल लेप गल जानेपर जिस प्रकार तुरन्त ही पानीके ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार तपस्या करके कर्मबन्धको नष्ट करनेमें सफल जोव भी संसारसे मुक्त होकर तीनों लोकोंके मस्तक समान प्रारभार पृथ्वीपर सीधे चले जाते हैं ।। २४ ।। आगके ऊपर तपाया गया अथवा आगकी लपटोंसे झुलसा हुआ बीज उर्वराभूमिमें बोये जानेपर भी जिस प्रकार अंकुरको उत्पन्न नहीं करता है उसी प्रकार उग्र तपरूपी ज्वालासे झुलसा गया कर्मरूपी बीज फिर कभी भी पुनर्जन्मरूपी अंकुरको । उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं होता है ।। २५ ।। यदि तालवृक्षके ऊपरके पत्ते एक बार पूरे काट दिये जाँय तो उसमें नतन अंकुरकी उत्पत्ति असम्भव हो जाती है फलतः उसमें फिर डालपात नहीं ही आते हैं यही अवस्था एक बार पूर्णरूपसे क्षय हुए कर्मोकी है। स्वाभाविक सुखादिको आत्मा उसी तरह प्राप्त होता है जिस प्रकार तैलके नष्ट हो जानेपर दीपककी लौ शान्त हो जाती है ।। २६ ॥ दीपककी वर्ती या नलीमें चढ़नेवाला तेल जैसे प्रभात समयमें अकस्मात् समाप्त हो जाता है और दीपक शान्त हो। सामान्यतयRIमनाया Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् केचित्समुद्धामुपेतुकामा ' आत्मप्रवेशात्समयैश्चतुभिः । लोकत्रयं व्याय समीकृत्य कर्माणि निर्वान्ति विनष्टबन्धाः ॥ २८ ॥ एकाधिकास्त्वष्टशतान्तसंख्याः सिध्यन्ति सिद्धाः समयेन राजन् । जघन्यकालः समयस्त्वथैकः " षडेव मासा यदि सोऽधिकः स्यात् ॥ २९ ॥ आरोहकाः षट् समये जिनेन्द्राः प्रत्येकबुद्धान्दशधा वदन्ति । बोध्यान्पुनस्त्वष्टशतप्रसंख्यान् स्वर्गच्युतास्तेऽष्टशता भवन्ति ॥ ३० ॥ द्वावेव सोत्कर्षशरीर संस्थौ हस्वान्पुनस्तांश्चतुरो वदन्ति । मध्या तथाष्टौ समये प्रसिद्धाः समानदेहाः सुगति प्रयान्ति ॥ ३१ ॥ जाता है, उसी प्रकार जिन जीवों के अघातियाकर्म एक हो अनुपात में शेष रह जाते हैं, वे सब जीवनके अन्तिम क्षणमें एक साथ समाप्त हो जाते हैं और जीव शुद्ध स्वरूपको पा जाता है ॥। २७ ॥ समुद्धात जिन जीवों के शेष आयुकर्म तथा अन्य कर्मोंमें विषमता होती है वे समुद्धात करनेके प्रयोजनसे अपने आत्म प्रदेशोंको चार समयके भीतर हो सारे लोकमें फैला देते हैं। इस प्रकार अन्य कर्मोकी स्थिति भी आयुकर्मके अनुपातमें हो जाती है । फलतः वे अन्त समय में सब कर्मोंको नष्ट करके निर्वाणको प्राप्त होते हैं ॥ २८ ॥ निर्वाण संख्या हे राजन् ! किसी भी एक समयमें इस संसारसे यदि अधिक से अधिक जीव मुक्ति पावें तो उनकी संख्या आठ अधिक एक सो अर्थात् एक सौ आठ ही होगी। इस संसारके जीवोंको मुक्ति जानेमें कमसे कम अन्तराल एक 'समय' पड़ता है और यदि अधिक से अधिक लगा तो छह महीना भी हो सकता है ।। २९ ।। एक समय में अधिक से अधिक छह तीर्थंकर क्षपकश्रेणी चढ़ सकते हैं। इसी प्रकार यदि 'प्रत्येकबुद्ध' केवल एक साथ श्रेणी आरोहण करें तो एक समयमें उनकी संख्या दशसे अधिक न होगी। तथा बोधित-बुद्ध क्षपकश्रेणी आरोहकोंकी संख्या भी एक समय में एक साथ श्रेण्यारोहणकी दृष्टिसे एक सौ आठसे अधिक न होगी क्योंकि इस प्रकारके चरम- शरीरी जीव स्वर्गसे एक समय में अधिक से अधिक एक सौ आठ ही च्यवन ( आ सकते ) करते हैं ॥ ३० ॥ सोत्कर्षं शरीर धारी अधिकसे अधिक दो ही एक समय में सिद्ध हो सकते हैं तथा जिनके शरीर उत्कर्षादिसे होन हैं ऐसे १. म समुद्र । २. [ समं प्रकृत्य ] । ३. क समयस्तथैकः । दशमः सर्गः [ १६६ ] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R बराङ्ग दशमः सगः चरितम् यथैव ताड्यङ घ्रिपवीजमोक्ष एरण्डबीजप्रविसर्जनं वा। वह्नः शिखा चोर्ध्वमतीनि तानि तथैव चात्मोर्ध्वगतिस्वभावः ॥ ३२ ॥ असंगतात्पूर्वनियोगतश्च बन्धप्रणाशाद्गमनस्वभावात् । विनष्टकर्माष्टकलब्धसौख्या लोकान्तमाश्रित्य वसन्ति सिद्धाः ॥ ३३ ॥ शब्दादयो ये सुखदुःखमूला नश्यन्ति यस्मान्नृपते शरीरात् । तदाकृतिस्तत्परिमाणमात्राच्छायावदाभाति च सर्वकालम् ॥ ३४ ॥ यथा मधूच्छिष्टकृतं तु छिद्रं चाश्रित्य मूषापतितं सुवर्णम् । समं तदद्भावयवानपैति तथैव पूर्वाकृतिरेव तत्र ॥ ३५॥ PAHISHESHeapestere-eeHDreamPR एक समय में मुक्त होनेवाले मानवोंकी संख्या चार ही कही गयो है, मध्यम उत्कर्षयुक्त शरीरधारियों अथवा सामान्य देह युक्त जीवोंके विषय में यही प्रसिद्ध है कि एक समयमें अधिकसे अधिक आठ ही उनमेंसे सुगति ( मुक्ति) को प्राप्त करते हैं ।। ३१ ।। मक्ति-उदाहरण __जिस प्रकार ताड़ी वृक्ष के बीज परिपाकके पूर्ण होते ही बन्धन मुक्त हो इधर-उधरको उचट जाते हैं, अथवा जैसे अरण्डके बीजोंके आवरणके फटते ही वे चिटक कर ऊपर चले जाते हैं, अथवा जलता आगकी ज्वालाओंकी जैसी ऊपरको गति होती हैं उसी प्रकार बन्धन मुक्त जोवका गमन भी ऊपरकी ओर होता है ।। ३२ ।। अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहके छूट जानेसे, शुद्ध प्रकृति होनेके कारण, कर्मोंके निखिल बन्धनोंके नष्ट हो जानेके कारण तथा ऊर्ध्व-गमन स्वभाव होनेके कारण आठौं कौके समल क्षय होने पर उदित अतीन्द्रिय अनन्त सुखका स्वामी होकर सिद्धजीव लोकके ऊपर पहुँचकर सिद्धशिला (प्राग्भार ) पर ही ठहरता है ।। ३३ ।। मक्त-आकार __ हे भूपते ! सुखों और दुःखोंके प्रधान हेतु शब्द, स्पर्श, गन्ध आदि शरीरमेंसे विलीन हो जाते हैं फलतः शरीरका पौद्गलिक ( स्थूल ) रूप नष्ट हो जाता है, फलतः उसी उत्षेध आदिके मापका सूक्ष्म आकार मात्र शेष रह जाता है, जो कि मुक्ति पानेके बाद सदा ही प्रतिविम्बके समान शोभित होता है ।। ३४ ॥ मधु मक्खियोंके छिद्रोंमें वमन किया गया मधु जिस प्रकार छिद्रका आकार धारण कर लेता है, अथवा साँचे में ढाला गया सोना जिस प्रकार उसके आकारको ग्रहण कर लेता है उसी प्रकार मक्त जीव भो अपनी पहिलेकी आकृतिको उसके आंगो पांगके आकारके साथ केवल छाया रूपसे धारण करता है ।। ३५ ।। ११.[°ध्वंग तोनि]। २.क असंगताः । ३. क तु चिन्वं नाश्रित्य । E FERasERESHISHESARITSARIES [१६७] ESESwear Jain Education international Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् आदित्यचन्द्रग्रहतारकारच विमाननक्षत्रगणप्रमाणाः । यथैव तिष्ठन्ति नभस्तलेऽस्मिस्तिष्ठन्त्यनाश्रित्य तथैव सिद्धाः ॥ ३६ ॥ विभाति सूर्यस्तु यथाभ्रमुक्तो यथैव खड्गश्च विमुक्तकोशः । यथा शिलागर्भविमुक्तहेम कृती तथा कर्मरजोविहीनः ॥ ३७ ॥ दीपाश्च दोपाश्च यथैव गेहे नान्योन्यबाधां जनयन्ति भान्तः । परस्पराबाधन विप्रमुक्तास्तथैव सिद्धा निवसन्ति तस्मिन् ॥ ३८ ॥ अनेकदीपावलिभासमूहः संतिष्ठतेऽन्योन्यम बाधमानः । एवंगुणो रूपिषु विद्यते चेदरूपिणां तत्र किमस्ति वाच्यम् ॥ ३९ ॥ ज्योत्स्नापौ तौ शशिनो रवेश्च मणेश्च दीप्तिर्गुणिनां गुणा हि । सद्दृष्टि सज्ज्ञानगुणैविशिष्टैः कर्मक्षयादात्मनि संभवेताम् ' ॥ ४० ॥ मुक्त की स्थिति सूर्य, चन्द्रमा, तारका, ग्रह, नक्षत्र आदिके विमानोंकी एक बड़ी भारी संख्या जिस प्रकार इस आकाशमें बिना किसी आधारके स्थित है उसी प्रकार मुक्त जोव भी किसी अन्य पदार्थका सहारा लिये बिना ही आधार रूपसे इस आकाशमें विराजमान हैं ॥ ३६ ॥ बादलोंको चीर कर ऊपर आया सूर्य जिस प्रकार चमकता है, मियानसे बाहर खींची गयी प्रखर तलवार जैसी चमचमातो है, मिट्टी तथा पत्थरोंके बीच मेंसे निकालकर शुद्ध किया गया सोना जैसा अनुपम आभासे भासित होता है उसी प्रकार कर्मरूपी शत्रुओंकी विजयमें कृतकृत्य जीव भी कर्ममैलसे मुक्त होकर शोभता है ॥ ३७ ॥ यदि एक ही हमें अनेक दीपक जलाये जायें तो उन सबका प्रकाश जिस तरह एक दूसरेको नहीं रोकता है इसी तरह अनन्त सिद्ध जीव सिद्ध लोकमें रहते हैं पर किसी प्रकारसे आपस में एक दूसरे से टकराते नहीं हैं ॥ ३८ ॥ एक साथ अनेक दीप पंक्तियों को प्रज्वलित करने पर उनका प्रकाशपुञ्ज आपसमें बिना टकराये ही अन्धकार दूर करता है। यदि रूपी प्रकाश ( क्योंकि प्रकाश की पौद्गलिक है ) में ऐसी विशेषता है तो अरूपी सिद्ध जीवोंकी तो कहना ही क्या है ॥ ३९ ॥ सिद्ध स्वरूप सूर्यका प्रखर आतप-उद्योत, चन्द्रमाको हृदयहारिणी तथा नेत्रसुधा समान चन्द्रिका अन्य अनेक प्रकारके मणियोंकी १. [ संभवेयुः ] । 35224 दशमः सर्गः [ १६८] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् दशमः सर्गः व्यवस्थितानेव शशाङ्कसूयौं स्वान्स्वान्प्रदेशानवभासयेते । लोकं ह्यलोकं युगपत्समस्तं ते ज्ञानभासा प्रतिभासयन्ति ॥ ४१॥ सम्यक्त्वसज्ज्ञानचरित्रवीर्या निर्बाधता चाप्यवगाहनं च। अगौरवालाघवसूक्ष्मता च सिद्धष्वथाष्टौ हि गुणा विशिष्टाः॥ ४२ ।। मध्वक्ततोक्षणास्यवलेहनेन समानमुक्तं सुखमिन्द्रियाणाम् । दशाङ्गभोगप्रभवं सुखं यद्विषाक्तमृष्टाशनभुक्तितुल्यम् ॥ ४३ ॥ सुरेश्वराणामसकृदयुतीनां मनोज़नानासनविक्रियाणाम् । यदिन्द्रियार्थप्रभवं हि सौख्यं दग्धव्रणे चन्दनलेपतुल्यम् ॥४४॥ विच्छिन्नकर्माष्टकबन्धनानां त्रिलोकचूडामणिधिष्ठितानाम् । न चास्ति राजन्नुपमा सुखस्य तथापि किंचिच्छण संप्रवक्ष्ये ॥ ४५ ॥ दीप्ति तथा गुणियोंके समस्त असाधारण गुण भो, लोकोत्तर सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, आदि गुणोंके द्वारा कर्मोका क्षय हो जाने । पर प्रकट हुए आत्माके शुद्ध स्वरूप सामने न जाने आसानी से कहाँ छिप जाते हैं ।। ४० ॥ चन्द्रमा और सूर्य उपयुक्त आकारमें व्यवस्थित अपने-अपने प्रदेशोंको हो प्रकाशित करते हैं किन्तु ज्ञानको पदार्थों के ज्योतिसे भासमान सिद्ध जीव एक ही साथ लोक और अलोकमें स्थित समस्त पदार्थों को स्पष्ट रूपसे प्रकट कर देते हैं ।। ४१ ।। सम्यक्त्व, ( अनन्त दर्शन ) सम्यक्ज्ञान, ( अनन्त ज्ञान ) सम्यकचारित्र (अनन्त सुख ) वीर्य (अनन्त शक्ति) निर्वाधता, (किसी वस्तुसे न रुकना और न अन्य किसीको रोकना) अवगाहना, ( शरार को छाया) अगुरुलघु ( गौरव और लधुतासे होनता ) तथा सूक्ष्म ये आठ लोकोत्तर गुण सिद्धोंमें होते हैं। संसार-मुक्त सुख तुलना इन्द्रियोंके द्वारा पदार्थोंका भोग करनेसे जो सुख प्राप्त होता है उसकी तुलना मधुसे लिपटो तलवारके चाटनेके साथ की जाती है । दश प्रकारके कल्पवृक्षोंके कारण भोगभूमिमें जो ऐकान्तिक सुख प्राप्त होते हैं उन्हें भी विष मिले मधुर पक्वान्नोंके भोजनके समान आचार्यों ने कहा है ।। ४३ ।। विकिया ऋद्धिके द्वारा मन चाहे शरीर धारण करने में जो आनन्द आता है, सतत सर्वदा स्थायी कान्ति और दीप्तिके H अधिपति इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवोंके सुख भोग तथा अन्य समस्त भोगोंको इन्द्रियों द्वारा भोगनेमें जो रस आता है वह भी वैसा है जैसा कि जलनेसे हुए घाव पर चन्दनका लेप ।। ४४ ॥ किन्तु अनादिकालसे बँधे आठों कर्मोंके बन्धनोंको खण्ड-खण्ड कर देनेके कारण तीनों लोकोंके चूडामणिके समान उन्नत ॥ २२ [१६९] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् तिर्यग्भ्य उत्कृष्टसुखा नराइच तेभ्यो नरेभ्यः सुखिनो नरेन्द्राः । तेभ्योऽधिका भोगभुवो मनुष्याः सिद्धास्ततोऽनन्तसुखा भवन्ति ॥ ४६ ॥ ज्योतिर्गणा व्यन्तरदेवताभ्यस्तेभ्योऽधिकास्ते भवनाधिवासाः । सौधर्मजाताः सुखिनस्तु तेभ्यस्तेभ्यश्च तत्सौख्यतमास्तघोर्ध्वम् ॥ ४७ ॥ ग्रैवेयकाद्याः सुखिनस्तु तेभ्यस्तेभ्यो विशिष्टा विजयेश्वराद्याः । तेभ्यस्तु सिद्धार्थनिवासिदेवास्तेभ्योऽतुलात्यन्तसुखास्तु सिद्धाः ॥ ४८ ॥ किमम्बरं रागविवजितानां किं भोजनैः संशमितक्षुषानाम् । जलेन वा कि स्वपिपासितानां किमौषधैः कार्यमरोगिणां च ॥ ४९ ॥ स्थान पर जा कर विराजनेवाले सिद्ध जीवोंके अतीन्द्रिय सुखकी हे राजन् ! कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती है । उस सुखके विषय में कुछ कहता हूँ आप सुनें ॥ ४५ ॥ सिद्ध-सुख तिर्यञ्च जीवोंको जो कुछ सुख प्राप्त होता है, मनुष्योंका सुख उससे बहुत बढ़कर है । साधारण मनुष्यों की अपेक्षा आप राजालोग अधिक सुखी होते हैं । कर्मभूमिके चक्रवर्ती आदि से भी भोग भूमिके मनुष्य बहुत अधिक सुखी होते हैं, किन्तु सिद्धजीव भोगभूमियोंसे भी अनन्त गुने सुखी होते हैं ।। ४६ ।। देवगति में व्यन्तर सबसे कम सुखी हैं। ज्योतिषी देव उनमे भो अधिक सुखी होते हैं, भवनवासी देवोंके सुखका परिमाण ज्योतिषियों से बहुत आगे है, किन्तु सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न देवोंका सुख भवनवासियोंसे भी बढ़कर है इस प्रकार कल्पवासियों में ज्यों-ज्यों ऊपर जाइयेगा त्यों-त्यों सुखकी मात्रा बढ़ती ही जायगी ॥ ४७ ॥ अच्युत कल्पके देवोंसे ग्रैवेयकवासी देव अधिक सुखी हैं। विजय, जयन्त, वैजयन्त तथा अपराजितवासी देवों का सुख इनसे भी बढ़कर है तथा इनसे बहुत बढ़कर सर्वार्थसिद्धिवासियों का सुख है किन्तु सिद्ध जीवोंके चरम और परम सुखको तो उक्त सांसारिक सुखसे कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है ।। ४८ ।। जिन्होंने राग आदि भावोंको नष्ट कर दिया है उन्हें कपड़ोंसे क्या प्रयोजन ? जिनका क्षुधा वेदनीय कर्म सदा के लिये शान्त हो गया है, भोजन उनके किस काम आयेगा ? प्यासकी ज्वाला जिनमें वुझ गयो है पानी उनपर क्या प्रभाव करेगा ? समस्त रोगोंको जिन्होंने दूर भगा दिया है औषध उनके किस काम आयेगी ॥ ४९ ॥ Jan Education International DRCM दशमः सर्गः [१७०] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः चरितम् कि वाहनाचैरगतिक्रियाणां किमासनाद्यैरपरिश्रमाणाम् । किमीक्षणैर्वा सकलार्थाभाजा' प्रश्नादिभिः किं सदसद्विदां च ॥ ५० ॥ स्नानादिभिः किं मलवजितानां तेजोमयानामथ तेजसा किम् । कि यक्तिभिनिष्ठितकर्मकाणां रागादिभिः कि विगतस्पहाणाम् ॥५१॥ किं वा गृहाद्यैः परिकर्ममुक्तैव्यंपेतशीतातपबाधनानाम् । शब्दादिभिः किं नरदेव बाह्यरलेपकानां जगदुत्तमानाम् ॥ ५२॥ यथैव चन्द्रोदधिभास्कराणां न चास्ति काचिद्धथुपमा नृलोके । तथैव तेषां परिनिष्ठितानां न विद्यतेऽन्या ह्य पमा नृलोके ॥ ५३॥ वर्णश्च वर्णस्य रसै रसस्य स्वरैः स्वरस्याप्युपमात्र यद्वत् । अतीन्द्रियाणामपि निर्वृतानामौपम्यसिद्धेर्न हि संभवोऽस्ति ॥ ५४ ॥ जिन्होंने गमन को क्रियाको छोड़ दिया है वाहनसे उन्हें क्या प्रयोजन ? जिन्हें किसी प्रकारकी थकान ही नहीं होती। है आसन उन्हें क्या सुख देगा? समस्त पदार्थोको हाथपर रखे आँवलेके समान देखने वालोंको क्या आँखोंकी आवश्यकता है ? भले तथा बुरेके विवेकके जो भण्डार हैं वे शंका, प्रश्न आदि करनेका कष्ट क्यों करेंगे ।। ५० ॥ जो सब प्रकारके मैलसे हीन हैं वे स्नान क्यों करेंगे? जो स्वयं तेजपुञ्ज हो गये हैं वे बाह्य ओज और प्रकाशकी अपेक्षा क्यों करेंगे? अपने समस्त कर्तव्योंको पूर्ण कर देनेवाले, योजनाएँ क्यों बनायेंगे? इच्छाओंके विजेता राग आदि भावोंको क्यों अपने में आने देंगे ॥५१॥ जो समस्त प्रकारके परिकरसे मुक्त हो चुके हैं, जिन्हें शीत, उष्ण, धूप आदिकी बाधा कष्ट नहीं दे सकती है वे किसलिए गृह आदि आश्रयकी चाह करेंगे? इसी प्रकार हे राजन् ! संसारके सर्वश्रेष्ठ सिद्ध जीवोंको, जो कि सब प्रकारसे अलिप्त हैं उन्हें शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंकी इच्छा क्यों होगी ? ॥ ५२॥ सिद्ध-सुखके निदर्शन इस संसारमें चन्द्रमा, समुद्र, सूर्य आदि पदार्थोंकी किसी अन्य पदार्थ के साथ तुलना नहीं की जा सकती है क्योंकि उनके लिये कोई उपमान ( जिसकी उपमा दी जाती है ) ही नहीं मिलता है, इसी प्रकार परमपदमें स्थित सिद्धोंकी उपमा भी इस संसारके किसी पदार्थसे नहीं दी जा सकती है ।। ५३ ।। इस संसारमें किसी एक रंगकी उपमा दूसरे रंगोंसे दी जाती है इसी प्रकार एक रसको अन्य रसोंसे, तथा एक स्वरकी १. म सकलोमिलोकात् । २. म त्रिलोके । [१७१] . Jain Education interational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः वराङ्ग चरितम् ये निष॑तानामुपमा वदन्ति होनोपमास्ते नृपतेऽनभिज्ञाः । तुल्योपमानं भुवि नास्ति किंचित्त एव तेषामुपमा भवेयुः ॥ ५५ ॥ आदित्यतोऽन्यो भुवि नास्ति भास्वान् समुद्रतोऽन्यो न जलाश्रयश्च । न चोच्छितोऽन्याऽस्ति गिरिगिरीन्द्रान्न मोक्षतोऽन्योऽस्ति' सखप्रतिष्ठा ॥५६॥ तुलां विना तुल्यमशक्यमिष्टं मातुं न शक्यं खल मानहीनम् । सहेतुकैतुपथव्यतीतं न शक्यते बोधयित वचोभिः॥ ५७॥ संसारघोरार्णवपारगाणां द्रव्यादितत्त्वार्थसुदर्शनानाम् । महौजसां क्षायिकसत्सुखं यन्न तत्समस्तं गदितु हि शक्यम् ॥ ५८ ॥ IPPROAPAHARRAIPMAJSTHAKAARRENTASHARMA किन्हीं दूसरे स्वरोंसे किसी प्रकार तुलना की जाती है किन्तु संसारसे पूर्ण छुटकारा पाकर अतीन्द्रिय सुखोंके भोक्ता सिद्धोंकी उक्त प्रकारकी ( एक सिद्धकी दूसरे सिद्धके साथ ) तुलना भी संभव नहीं है ।। ५४ ।। हे भूपते ! जो लोग सांसारिक बन्धनोंसे मुक्त सिद्धोंकी कोई उपमा देते हैं वे उपमाके रहस्यको नहीं समझते हैं, वे अज्ञ क्योंकि उनका सादृश्य होनोपमा (उत्तम पदार्थकी निकृष्ट से तुलना यथा सफेद दाढ़ी युक्त मुखको पूर्णिमाके चन्द्रमाके साथ) हैं। उनके समान दूसरा उपमान पृथ्वी पर है ही नहीं । यदि कोई उनका उपमान हो सकता है तो वह स्वयं ही है ॥ ५५ ।। इस लोकमें कोई भी पदार्थ सूर्यसे अधिक आतप और उद्योत युक्त नहीं है, समुद्रसे बढ़कर कोई जलका आश्रय नहीं है । तथा पर्वतोंके राजा सुमेरुको अपेक्षा पृथ्वोतल पर कोई भी पर्वत अधिक ऊँचा नहीं है इसी प्रकार यो समझिये कि कोई भी सुखोंका आश्रय मोक्षकी अपेक्षा बड़ा नहीं है ।। ५६ ।। किसी भी इच्छित पदार्थको तुला ( तराज ) के बिना तौलना असाध्य है, यदि कोई माप न हो तो पदार्थोंका प्रमाण । बतलाना असंभव है इसी प्रकार जो पदार्थ अनुमान और तर्कके क्षेत्रसे बाहर है उसे हेतु युक्त वचनोंके द्वारा समझाना भी असंभव है ॥ ५७॥ [१७२] समस्त दुःखोंसे व्याकूल संसाररूपी घोर समुद्रके जो उस पार चले गये है, जीव, धर्म, अधर्म आदि छहों द्रव्यों तथा । सातों तत्त्वोंको जो साक्षात् देखते हैं तथा महा प्रतापी सिद्धोंमें जिस क्षायिक अनन्त-सुखका उदय होता है उसका अविकल वर्णन । कौन कर सकता है ? ॥ ५८ ॥ १.मोक्षतोऽन्यास्ति ] । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग दशमः चरितम् सर्गः तिर्यग्नराणां नरकामराणां महीपते क्षीणपुनर्भवानाम् । पृष्टा त्वया संसदि ते मयोक्ता यथाना गतयश्च पञ्च ॥ ५९॥ तासां चतस्रो गतयो गतीनां संसारसंज्ञाः कथिताः सुधीभिः । जरारुजामत्युविजिता ये निःश्रेयसायैव यतस्व राजन् ॥ ६०॥ धर्माभितप्तां वसुधां यथैव सुरेश्वरः प्रावृषि तोयसेकैः । प्राह्लादयत्साधपतिः सभां तां क्लेशादितां धर्मजलस्तथैव ॥ ६१ ॥ यती ब्रुवाणे जिनधर्मसारं राज्ञः प्रसन्न वदनं सरागम् । दिवाकरांशुप्रतिबोधितस्य पद्मस्य कान्ति सकलां दधार ॥ ६२ ॥ निशम्याशु धर्म बुधा मुक्तकामा यतीन्द्रस्य पार्वे तपस्स्था बभूवुः । गहीत्वार्थसंकल्पमल्पे। विजुः परे गेहधर्मे मतिं संनिदध्युः ॥ ६३॥ मायामाचा संसार एवं मोक्ष हे पृथ्वीपालक ! नारकियों, तिर्यञ्चों, मनुष्यों, अमरों तथा पुनर्भवको नष्टकर देनेवाले सिद्धोंके विषयमें जो आपने इस सभामें प्रश्न किये थे उनको उसी क्रमसे मैंने पाँचों गतियोंमें विभक्त करके आपको कहा है ।। ५९ ।। इन पाँचों गतियोंमेंसे प्रथम चार अर्थात् नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देवगतिको ही विद्वान् आचार्य संसार कहते हैं, किन्तु, जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्युसे परे होने के ही कारण पंचमगतिको परम कल्याण (निःश्रेयस) कहा है, अतएव हे राजन् ! आप भी इसीकी प्राप्तिके लिए सतत प्रयत्न करें। ६० ।। ग्रीष्म ऋतुमें सूर्यके प्रखर आतपसे तपायी गयी धरिणीको देवताओंका प्रभु ( इन्द्र काव्य जगतकी मान्यताके अनुसार) वर्षा ऋतुमें मूसलाधार पानी वर्षा कर जैसे शान्त कर देता है। उसी प्रकार मुनियोंके स्वामी श्रीवरदत्त केवलीने सांसारिक क्लेशोंसे झुलसी गयी उस सभाको धर्मोपदेशरूपी जलको वृष्टि करके भलीभाँति प्रमुदित कर दिया था ॥ ६१ ॥ केवली महराजके धर्मोपदेश देते समय उनकी ओर उन्मुख रागयुक्त राजाका विकसित मुख ऐसा कान्त मालूम देता था मानो प्रातःकालके सूर्यकी किरणोंके पड़नेसे कमल खिल गया हो ।। ६२ ।। उपदेश-परिणाम श्रोताओंमें जो पुरुष विशेष ज्ञानी थे उन्होंने धर्मके सारको सुनकर तुरन्त ही समस्त सांसारिक अभिलाषाओंको छोड़१.[ संकल्पमन्ये । [१७३] w Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अयोत्याय साध्विन्द्रमिन्द्रः पृथुव्यः परीत्य प्रणम्य प्रणुत्यात्मशक्त्या । ॐ द्विपेन्द्राधिरूढो नृपश्छत्रमध्ये महत्या विभूत्या पुरं संप्रविष्टः ॥ ६४ ॥ इति धर्मंकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थं संदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते मोक्षाधिकारो नाम दशमः सर्गः । कर ऋषिराज वरदत्तके चरणोंमें रहकर तपस्या करनेका निश्चय किया था, दूसरे सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिका संकल्प करके चले गये थे तथा शेष लोगोंने गृहस्थके आचारको निरतिचाररूपसे पालनेका निर्णय किया था ॥ ६३ ॥ इसके उपरान्त ही पृथ्वीके इन्द्र ( धर्मसेन ) ने उठकर साधुओंके इन्द्र ( केवली ) की तीन प्रदक्षिणाएँ कीं अपनी योग्यता अनुसार स्तुति की तथा प्रणाम किया । तथा हाथियोंके इन्द्रकी पीठपर चढकर श्वेत छत्रके नीचे बैठ कर उसने अपनी विशाल राजसंपत्ति के साथ नगर में प्रवेश किया था ।। ६४ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द अर्थ-रचनामय वराङ्गचरितनामक कर्मकथामें मोक्षाधिकार नाम दशम सर्ग समाप्त । १. कमिन्द्रोत्कटान्य:, [ पृथिव्याः ] । For Private Personal Use Only दशमः सर्गः [ १७४ ] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश सर्गः __ एकादशः सर्गः गते नरेन्द्रे हितसंकथाभिः स्वयं वराङ्गो मुनिमभ्युपेत्य । कृताजिलिनिजितकामशत्रं संदिग्धबुद्धिः पुनरभ्यपृच्छत् ॥१॥ जीवस्य मिथ्यात्वमनादिबद्धं संसारिणस्तच्च कतिप्रकारम् । कथं तु सम्यक्त्वमुपैति जीवः संचक्ष्व मिथ्यात्वपथादपायम् ॥२॥ एवं स पृष्टो भगवान्यतीशो गुणाकरः शान्तमनाः प्रवक्तुम् । मिथ्यात्वसम्यक्त्वविकल्पतत्त्वं प्रारब्धवान्प्रश्नविनिर्णयार्थम् ॥३॥ ऐकान्तिकं सांशयिकं च मूढं स्वाभाविकं वैनयिक तथैव । व्यवग्राहितं यद्विपरीतसंज्ञं मिथ्यात्वभेदानवबोध सप्त ॥४॥ एकादश सर्ग वरांग प्रश्न पूर्वोक्त प्रकारसे आत्मकल्याणके लिए अत्यन्त उपयोगी धर्मकथा सुन करके जब महाराज धर्मसेन लौट गये, तब कामदेवरूपी महाशत्रु के मान मर्दक श्रीवरदत्तकेवलोके पास कुमार वरांग हाथ जोड़कर बैठ गये और उनसे कुछ प्रश्न किये, क्योंकि उनके मनमें कुछ शंकाएं उठ रही थीं ।। १ ।। हे गुरुदेव ! संसार चक्रमें पड़े हुए जोवके साथ यह मिथ्यात्व अनादि-कालसे बँधा हुआ है ऐसा श्रीमुखसे सुना, किन्तु वह कितने प्रकारका है ? इस मिथ्यामार्गसे कैसे मुक्ति मिलती है. इसके कारण क्या-क्या अनर्थ होते हैं तथा किस आचारविचारसे जोव सम्यकत्वको प्राप्त करता है । इन सबके उत्तर स्पष्ट रूपसे कहनेका अनुग्रह करिये ॥ २॥ मिथ्यात्त्व-वर्णन यतिराज वरदत्तकेवली गुणोंकी खान थे। तथा उनका चित्त परम करुणा भावसे भासमान था । अतएव उक्त प्रकारसे प्रश्न किये जानेपर उसके शुद्ध समाधान करनेकी भावनासे ही उन्होंने मिथ्यात्त्व और सम्यक्त्वके विकल्पों तथा उसके सारभूत । तत्वका व्याख्यान करना प्रारम्भ किया था ॥ ३ ॥ हे युवराज! मोटे रूपसे ऐकान्तिक, ( किसी पदार्थको एक अवस्थापर हो पूरा जोर देना यथा 'संसार नित्य ही है' ), # सांशयिक, (पदार्थक विषयमें विकल्प करते रहना यथा ( 'स्त्रो मुक्ति हो सकती है या नहीं' ) मूढ, (किसी पदार्थको जानता ही [१७५] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग एकादशः चरितम् जीवादितत्त्वं न च वेत्ति किंचिदेकान्तमिथ्यात्वविमोहितात्मा । जात्पन्धमयः खलु चित्रकर्म द्रष्टु विबोद्धं च यथा न शक्तः ॥५॥ हिसानुधर्मस्त्वथ वेहिंसां संदेहमिथ्यात्वविमूढचित्तः।। संदिग्धबुद्धिर्न च निश्चिनोति गोऽश्वान्तरं दूरगतं यथैव ॥६॥ श्रेयो यदज्ञानमिति ब्रवीति संमूढमिथ्यात्वनिरस्तबुद्धिः । विषामतज्ञो विषमेव पीत्वा यथा विनाशं शवशं प्रयाति ॥ ७॥ आहोस्विदज्ञानतया विबुद्धि हिंसाहिसेति मति विधत्ते । सुवर्णमिच्छन्नसुवर्णधातु धमत्यथाज्ञः श्रममभ्युपैति ॥८॥ सर्गः मानाबाना- 4 नहीं) स्वाभाविक, ( प्रकृतिसे विपरीत या अशुद्ध श्रद्वानकी रुचि ) वनयिक, ( राम भा ठोक, रावण भो, वीर भी शुद्ध, बुद्ध, भी सत्य ) व्युद्ग्राहित ( अज्ञान मूलक कुछ भी हठ ) तथा विपरीत ( सांसारिक पदार्थों के ज्ञानमें अपेक्षावाद अनावश्यक है ) ये सात मिथ्यात्वके भेद कहे हैं ।। ४ ।। मिथ्यात्वोंके लक्षण तथा दृष्टान्त एकान्त मिथ्यात्वने जिस जीवके आत्माको अपने अन्धकारसे ग्रस लिया है वह जीव, अजीव आदिके क्रमसे इन तत्त्वोंको समझ ही नहीं सकता है । ऐसा समझिये कि वह 'जन्मसे अंधे' व्यक्तिके समान चित्र, मूर्ति, आदि सुन्दर कार्योंको न तो देख सकता है और न जान ही सकता है ।। ५ ॥ जिस व्यक्तिका चित्त संदेह मिथ्यात्वके रंगसे सराबोर है वह यह भी नहीं निश्चित कर पाता है कि हिंसा करना धर्म है अथवा अहिंसा पालन श्रेयस्कर है । जिस किसी विषयको सोचता है वहीं उसकी बुद्धि संदेहमें पड़ जाती है। वह उस दृष्टाके समान होता है जो बहुत दूर खड़े पशुको देखकर यह निर्णय नहीं कर पाता कि वह कुत्ता है या गाय ॥ ६॥ जिसका विवेक सम्मूढ़ मिथ्यात्वके द्वारा पराजित कर दिया गया है वह यही कहता फिरता है कि 'ज्ञानसे लाभ ! व्यर्थको आकुलता बढ़ती है, अतएव अज्ञान ही सबसे अधिक आनन्दमय है।' जिस व्यक्तिको विष और अमृतकी पहचान नहीं है, वह विषको पोकर नष्ट होनेके लिए विवश होता है, यही गति सम्मूढ़ मिथ्यात्वीको होती है ॥ ७॥ अज्ञान-मिथ्यात्वी जीवको बुद्धि सर्वथा नष्ट हो जाता है, फलतः वह हिंसाको ही अहिंसा समझता है अथवा यों समझिये कि यह सब अज्ञानका ही प्रभाव है कि वह सोना बनानेको इच्छासे ऐसो मूल धातु को भट्टीमें जलाता है जिससे सोना । बन ही नहीं सकता है । परिणाम यह होता है कि उसका समस्त परिश्रम व्यर्थ ही होता है ॥ ८॥ THRAMERIELTS [ १७६] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् श्रुतं तदर्थं कलुषीकरोति स्वभावमिथ्यात्वविदूषितात्मा' । सशकरं क्षीरमहिः प्रपाय विपाककाले विषमादधाति ।। ९ ।। चन्द्रार्कंनक्षत्र महीजलाद्या विनीत मिथ्यात्वविमोहितस्य । देवा दिवि स्वर्गतिभिः पताका मतिर्मरुद्भिः समुदीरिते च ॥ १० ॥ कुदृष्टिदृष्टान्तविनष्टमार्गेर्यद्ग्राहिताख्यो हतधीर्मनुष्यः । चौरेण नोतो गहनान्तराणि यथैव जात्यन्धगणः प्रणष्टः ॥ ११ ॥ सतः पदार्थान्विपरीतदृष्टिविपर्ययं पश्यति बुद्धिदोषात् । जवेन नावो जलमध्ययायो यथा महीपर्वतकाननानि ॥ १२ ॥ अभव्य मिथ्यात्वमनाद्यनन्तमनाद्यनन्तश्च यथैव कालः । भव्यात्मनां सान्तमनादि तच्च तेष्वेव केषामपि सादि सान्तम् ॥ १३ ॥ स्वाभाविक मिथ्यात्वसे जिसका अन्तःकरण कलुषित हो चुका है उसे हो अपनी मति अनुसार कुमार्गके समर्थनमें लगाकर दूषित करता है। मिला मिष्ट दूध पिलाया जाता है, किन्तु वह विष ही उगलता है ॥ ९ ॥ विनीत मिथ्यात्वके नशेके कारण जिसका हृदय मूच्छित हो गया है वह सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पृथ्वी, नदी तथा अन्य जलाशय आदिको देवता मानता है। इतना ही नहीं उसकी समझके अनुसार स्वर्ग में रहनेवाले देवताओंके द्वारा आकाशमें पताका भी फहरायी जाती है ॥ १० ॥ मिथ्यामागियोंके भ्रान्त दृष्टान्तोंपर श्रद्धा करनेके कारण व्युद्ग्राहित मिथ्यादृष्टीको सन्मार्ग स्पष्ट होनेपर भी सूझता नहीं है क्योंकि उसकी सद्बुद्धि उक्त संस्कारोंके कारण पंगु हो जातो है फलतः उसको वही दुर्दशा होती है जो कि उन लोगोंकी होती है जो जन्मांध चोरोंके कहनेमें आकर घने जंगल में चले जाते हैं और वहीं विनाश के मुखमें जा पड़ते हैं ॥। ११ ॥ विपरीत मिथ्यादृष्टी जीव संसारके प्रत्येक पदार्थ का उल्टा ही समझता है। उसकी मति इतनी दूषित हो जाती है कि वह किसी पदार्थ के वास्तविकरूपको परख ही नहीं सकता है। जैसे कि पानीकी धारापर जोरसे बहती नौकापर बैठा नाविक आसपास के पर्वत, वन और भूमिको जोरसे दौड़ता हुआ देखता है अपने आपको नहीं ॥ १२ ॥ वह जिस किसी सत्य शास्त्रको सुनता या पढ़ता है। उसकी अवस्था साँपके समान होती है जिसे शक्कर भव्याभव्य तथा मिथ्यात्व अभव्य जीवके मिथ्यात्वका न तो प्रारम्भ है ( अनादि ) और न कभी समाप्ति ही होगी ( अनन्त ) अर्थात् वह काल १. क विरूक्षितात्मा । २. म समधीरिते, [ समुदीरते ] । ३. [ ° मार्गो ] । ४. म व्यग्राहिताभ्यो, [ व्युदग्राहिताख्यो ] । २३ एकादश: सर्गः [१७७] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् मिथ्यात्वतो मोहविवृद्धिमाहुर्मोहात्प्रवृत्युद्भवमामनन्ति । प्रवृत्तितोऽनेकविधं हि जन्म दुःखं ततो जन्मवशादवश्यम् ॥ १४ ॥ मिथ्याविनाशात्क्षयमेति मोहो मोहक्षयान्नश्यति सा प्रवृत्तिः । प्रवृत्तिनाशान्न च जन्म तत्स्यात्तन्नाशतो नाशमिति दुःखम् ॥ १५ ॥ दुःखप्रणाशात्सुखमभ्युपैति नृदेवविद्याधरभोगभूषु । तपोऽग्निना दग्धमलः क्रमेण निर्वाणसत्सौख्य'मपैति जीवः ॥१६॥ स्पृष्टं यदा वर्शनमात्रमेतद्येनेह जीवेन मुहूर्तमेकम् । संसारवासे बृहदुग्रदुःखे स पुद्गलानां परिवर्ततेऽर्धम् ॥ १७ ॥ र एकादशः सर्गः द्रव्यके समान अनादि-अनन्त है। किन्तु भव्यजीवका मिथ्यात्व अनादि होते हए भी सान्त ( समाप्तियुक्त ) होता है। तथा किन्हीं-किन्हीं भव्यजीबोंका तो सान्त ही नहीं सादि (निश्चित समय पहिले बँधा ) भी होता है ।। १३ ।। मिथ्यात्वकी संसार कारणता मिथ्यात्वके कारण आत्मामें मोहरूपी अन्धकार बढ़ता है। उचित तथा अनुचित आरम्भ तथा प्रवृत्तियोंका प्रधान उद्गमस्थान मोह ही है। आरम्भ परिग्रहका अवश्यंभावी फल नाना योनियोंमें जन्म-ग्रहण करना है और जब जन्म परम्परा है तब समस्त प्रकारके दुःखोंसे कौन बचा सकता है ।। १४ ।। मिथ्यात्वका नाश होते ही मोह न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। मोहरूपी उद्गमस्थानके न रहनेपर प्रवृत्तिरूपी धार भी सूख जाती है। प्रवृत्तिके रुकनेका फल होता है जन्मचक्रका रुकना तथा जन्ममरण परम्पराके टूटते ही उसके कारण होनेवाले समस्त दुःखोंका भी आत्यन्तिक क्षय हो जाता है ।। १५ ।। दुःखोंके नाश होते हो उनके विरोधी-सुखोंका उदय होता है, फलत: जीव उत्तम कर्मभूमि या मनुष्यों, भोगभूमि, विद्याधर और देवगतिके, दुःखको छायाहित सुखों का ही प्राप्त करता है। इसके बाद उग्र तपरूपी अग्निके द्वारा वह कर्मोरूपी कूड़ाकर्कटको जला देता है और इस क्रमसे अन्त में निर्वाणके सुखको प्राप्त कर लेता है ।। १६ ।। सम्यकदर्शन जिस समय किसी जीवके द्वारा केवल एक मुहर्त भरके लिए भी सम्यकदर्शन धारण किया जाता है उसी समय भयंकर तथा भारी दुःखोंसे परिपूर्ण संसारमें उसका भ्रमण बहुत घट जाता है। उसके बाद वह अधिकसे अधिक आधे पुद्गल परिवर्तनके बराबर समय पर्यन्त ही जन्ममरण करता है तदुपरान्त उसकी मुक्ति अवश्यंभाविनी है ।। १७ ।। । १. क निर्वाणतत्सौख्य° । GREEURSELEASEASESPERIERSHEELARAHINEUROPEnaच्य [१७८] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकादशः सर्गः गृहीतसम्यक्त्वमतिः स्थिरात्मा षट्पष्टिकालं जलधिप्रसंख्यम् । स्वर्गावनिक्षेमसुखं निषेव्य पश्चादवाप्नोति च मोक्षसौख्यम् ॥ १८ ॥ सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धः सम्यक्त्वलाभान्न परोऽस्ति लाभः॥१९॥ त्रिकालविद्धिस्त्रिजगच्छरण्यैर्जीवादयो येऽभिहिताः पदार्थाः । श्रद्धानमेषां परया विशुद्धचा सद्दर्शनं सम्यगुदाहरन्ति ॥ २० ॥ नैसर्गिकं तद्धयुपदेशजं च सदर्शनं तद्विविधं जिनोक्तम् । तत्क्षायिकं ह्यौपशमं च मित्रं तदेव भयस्त्रिविधं वदन्ति ॥ २१ ॥ यथैव चक्षः पटलावतं यन्न पश्यति द्रव्यगुणादितत्त्वम् । तदेव भूयः पटलादपेतं समीक्षते द्रव्यगणादिभावान् ॥ २२॥ किन्तु जब कोई दृढ़-श्रद्धानयुक्त आत्मा वास्तव सम्यक्त्वको धारण कर लेता है तब उसका संसार भ्रमण उंगलियोपर गिना जा सकता है। क्योंकि इसके बाद वह छयासठ सागर प्रमाण समयतक स्वर्गलोकके सुखों और भोगोंका आनन्द लेता है। और अन्त में निश्चयसे मोक्ष जाता है ।। १८ ॥ संसारमें अनेक स्पृहणीय रत्न हैं किन्तु उनमेंसे कोई भी सम्यक्त्वरूपी रत्नसे बढ़कर नहीं है, सम्यक्त्व श्रेष्ठतम मित्रोंसे भी बड़ा मित्र है, कोई भी भाई सम्यक्त्वसे बढ़कर हितैषी नहीं हो सकता है तथा कोई भी लाभ ऐसा नहीं है जो सम्यक्त्वलाभकी आंशिक समता भी कर सके ।। १९ ।। सम्यक्त्व स्वरूप तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान द्वारा तीनों लोकोंके समस्त द्रव्यों और पर्यायोंको जानते थे। फलतः वे तीनों लोकोंके प्राणियोंके एकमात्र सहारा थे, उन्होंने ही जो जीव, अजोव आदि सात तत्त्व कहे हैं उन पर परम शुद्धिके साथ श्रद्धा करना ही सम्यकदर्शन है ऐसा आगम कहता है ॥ २० ॥ कभी जीवको अपने आपही जीवादि सात तत्त्वोंका श्रद्धान हो जाता है और कभी-कभी सद्गुरुका उपदेश सुननेपर ऐसा होता है। इसीलिए सर्वज्ञ प्रभुने सम्यक्त्वके नैसर्गिक और अधिगमज ये दो भेद किये हैं। कारणभूत आवरणके लोपको अपेक्षा इसके क्षायिक, (क्षयसे उत्पन्न ) औपशमिक ( रोधक कर्मके उपशम या दब जानेसे उत्पन्न ) तथा मिथ (क्षायोपशमिक, क्षय तथा उपशम दोनोंसे उत्पन्न ) ये तीन भेद होते हैं ।। २१ ॥ सम्यक्त्व उदय जब आँखमें जाली पड़ जाती है तो उसके द्वारा सामने पड़े हुए पदार्थ तथा उनके वर्ण आदि गुण देखना संभव नहीं । GIRELIासनसन्चारमन्नाराम [१७९] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग एकादशः सर्गः चरितम् तथैव मिथ्यापटलावृतं यत्सम्यक्त्वचक्षुर्न च वीक्षतेऽर्थान् । तदेव सज्ज्ञानशलाकयाशु' समज्जितं पश्यति सर्वभावान् ॥ २३ ॥ प्रसन्नमिथ्यामलकर्दमेषु जीवेषु जीवादिरथावगम्य । यथैव भूशैलवनप्रदेशः संदृश्यते शान्तमलास्वथाप्सु ॥ २४ ॥ मिथ्यान्धकारोदयमन्दभावे सवेदकः पश्यति जीवतत्त्वम् । यथैव वैडूर्यमणिप्रदीपो गृहे घटादीनवलोकतेऽर्थान् ॥ २५ ॥ व्यपेतदुर्दर्शनमोहनीयो यक्षोऽपि कः पश्यति सर्वभावान् । यथैव मेघादपनीतमूतिर्लोकं विवस्वानिव दीप्तरश्मिः ॥ २६ ॥ होता है। लेकिन जब उपयुक्त चिकित्साके द्वारा वह जाली दूर कर दी जाती है तो वह आँख पदार्थों और गुणोंको स्पष्ट देखने लगती है ।। २२ ।। इसी प्रकार जब आत्माकी स्वाभाविक दर्शनशक्ति मिथ्यात्वरूपी जालीसे ढक जाती है तो वह जीव, आदि पदार्थोंकी श्रद्धा कर ही नहीं सकता है, किन्तु सम्यक् ज्ञानरूपी शलाकाके द्वारा जब मिथ्यात्वरूपो जालो काट दी जाती है तो वही आत्मा समस्त तत्त्वोंका आत्म साक्षात्कार करता है ।। २३ ।। जब जीवका मिथ्यात्वरूपी कीचड़ नीचे बैठकर दूर हो जाता है तो वह शरत्कालीन जलकी धाराके समान निर्मल हो। जाता है । तब उसमें जीवादि पदार्थोंका उसी प्रकार साक्षात्कार होता है जिस प्रकार पानीका मैल साफ हो जाने पर उसमें आसपासके वन, पर्वत और भूमिके प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखायी देते हैं ।। २४ ।। मिथ्यात्वरूपी अन्धकारके प्रसारके करनेपर बेदक-सम्यकदुष्टी जीव, जीव तत्त्वके रहस्यको उसी प्रकार अति स्पष्ट रूपसे साक्षात्कार करता है । जैसे कि वैडूर्यमणिरूपी दीपक के विशद प्रकाश हो जानेपर घरमें रखे हुए घट, पट आदि पदार्थ साफ-साफ दिखने लगते हैं ॥ २५ ॥ मिथ्यात्व मोहनीय नामक दर्शनमोहनीयकी प्रकृतिके नाश हो जानेपर और तो कहना ही क्या है, साधारण यक्ष भी समस्त पदार्थोंका वैसे ही साक्षात्कार करता है, जैसे कि बादलोंके फट जानेपर जगमगाती हजारों किरणोंका स्वामी सूर्य संसारके समस्त पदार्थोंको दिखाता है ॥ २६ ॥ [१८०] १.क शलाकया सु। २. क गम्याः, [ °गम्यः]। ३. म मलास्विवाप्सु । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः बराङ्ग चरितम् FAIRPERSourismR प्रशान्तपङ्खोदकतुल्यमाचं वैडूर्यरत्नप्रतिमं द्वितीयम् । तत्क्षायिकं बालदिवाकराभं तित्रस्त्रयाणामुपमा भवन्ति ॥ २७॥ मिथ्यानिवृत्ति लभतेऽन्तरात्मा सम्यक्त्वलाभादपरिश्रमेण । ज्ञानं ततो ज्ञेयविशेषदर्शि ज्ञानेन सद्भावगुणोपलब्धिः ॥२८॥ सद्धावविज्ञप्तिफलोदयेन ध्रुवं विजानाति हिताहितानि । हिताहितज्ञो मतिमानवश्यं संसारवासे न रतिं करोति ॥ २९ ॥ विभक्तसंसारनिवासरागो बिभेति जात्याचसुखावहेभ्यः । भयादितः प्राणिगणेषु नित्यं दयापरः स्यान्निरवद्य भावः ॥३०॥ सर्गः RIAPRIDEU सम्यक्त्वदृष्टान्त प्रथम अर्थात् औपशमिक सम्यकदर्शन उस जलाधारके समान होता है जिसमें कीचड़ नीचे बैठ भर गया है ( नष्ट नहीं हुआ है, पानीके हिलते ही ऊपर आ जायगा) क्षायोपशमिक सम्यकदर्शनको तुलना वैडूर्यरत्नको ज्योतिके साथ की गयी है (रंगयुक्त प्रकाश ) तथा तृतीय क्षायिक सम्यकदर्शन तो उदीयसान सूर्यके हो समान होता है। इस प्रकार तीनों दर्शनोंकी यह तीन उपमाएँ हैं ॥ २७ ॥ रलयत्र का उदयक्रम जब आत्मामें सम्यक्त्वका उदय हो जाता है तो बिना किसी परिश्रमके हो आत्मा में से समस्त मिथ्यात्व अपने आप ही विलीन हो जाता है । यह सब होते ही उसका ज्ञान सम्यकजान हो जाता है जो कि समस्त द्रव्यों और पर्यायों को युगपत् जानता है तथा सम्यक्-ज्ञानकी प्राप्ति होते हो आत्मा के उत्तम भाव और गुण भी अपने आप चमक उठते हैं ॥ २८॥ सम्यक्ज्ञान और अच्छे भावों का फल होता है कि आत्माको अपने हित और अहितका निश्चित विवेक हो जाता है। जिस ज्ञानी पुरुषको अपने कल्याणमार्ग और पतन मार्गका ज्ञान हो गया है वह पुरुष अपने संसारी कर्मों में सर्वथा फैस नहीं । सकता यह निश्चित है ॥ २९ ॥ जिस जीव को संसारिक सुख, अभ्यदय आदि से वैराग्य हो गया है वह जन्म, मरण आदि के दुःखों का ध्यान आते ही काँप उठता है। जो जीव पापसे भयभीत है वह दुख के कारण बुरे भावोंसे बचता है, सदा शुभ भाव करता है तथा प्राणीमात्र पर दयावृत्ति रखता है ।। ३० ।। NARTA [१८१] १.क द्रुतं । Jain Education international Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग तया पुनः स्थापयते मनस्स्वं मनः प्रसादाज्जयतीन्द्रियाणि । जितेन्द्रियस्त्यक्तपरिग्रहः स्याद्विरक्तसंगो विहरत्यथैकः ॥ २१ ॥ ईर्यापथादिष्वपि चाप्रमत्तो निर्वेदसंवेगविशुद्धभावः । परीषहान्दुविषहान्विजित्य तपस्क्रियां तां यतते यथोक्ताम् ॥ ३२ ॥ संप्राप्य सार्वज्यमनुत्तम श्रीविधूय कर्माणि निरस्तदोषः । निःश्रेयसां शान्तिमदारसौख्यां लब्ध्वा चिरं तिष्ठति निष्ठितार्थः ॥ ३३॥ इत्येवमुश्विरसत्सुताय धर्माभिरागोद्यतसत्क्रियाय । सम्यक्त्वमिथ्यात्वफलप्रपञ्चं सविस्तरं साधुपतिर्जगाद ॥ ३४ ॥ एकादशः सर्ग: चरितम् चारित्र प्राप्ति पापचिन्ता नष्ट हो जाने के कारण मन स्थिरता को प्राप्त होता है । मन निर्मल होते हो इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। A जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं उसे परिग्रह छोड़ते कितनी देर लगती है ? और जब परिग्रह से पल्ला छूट जाता है तो वह एकाविहारी हो जाता है अर्थात् महाव्रतों को धारण कर लेता है ।। ३१ ।। वैराग्य भावना से उत्पन्न तीव्र तितिक्षामय भावोंके प्रवाहसे जब मनोभाव अधिकतर निर्मल हो जाते हैं तो आत्मा ईर्या, भाषा आदि पाँचों समितियों का प्रमाद त्यागकर पालन करता है। इतना ही नही भूख, प्यास आदि उन बाइसों परोषहों को भी जीतता है जिनका सहन अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार वह आगममें कही गयी विधि के अनुसार तपस्या करने का पूर्ण प्रयत्न करता है ।। ३२ ॥ इस विधि से समस्त क्षुधा, तृषा आदि दोषों और चारों धातिया कर्मोका नाश करके वह संसार की सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मी और शोभाका अधिपति होकर सर्वज्ञ हो जाता हैं. तथा अन्तमें सबही कर्मोका सर्वथा क्षय करनेके उपरान्त मोक्षकी विशाल शान्ति और सुखको वरण करता है। वह कृतकृत्य हो जाता है फलतः मोक्ष में जाकर अनन्त कालतक वहीं विराजता है ॥३३॥ पृथ्वीपालक महाराजा धर्मसेन के सुपुत्र कुमार वरांगको धर्मसे प्रेम था और और सत्कार्य करने का वास्तविक उत्साह था इसीलिए साधुओंके स्वामी श्रीवरदत्तकेवलीने उसके लिए उक्त प्रकारसे मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वके भेद और फलोंको विस्ता- रपूर्वक समझाया था ॥ ३४ ॥ न्यायालयानाTERLItcाचारायचा [१८] १. म अमुत्तमा, श्रीः। . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग एकादशः चरितम् सर्गः मुनीन्द्रवाक्यादवबुद्धच तत्त्वं विहाय मिथ्यात्वमनादिबद्धम् । प्रहृष्टरोमाकरिताङ्गयष्टिः कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं वभाषे ॥ ३५ ॥ अणुव्रतानां परिपालका ये ते मङ्गलं ये च तपश्चरन्ते । स्थातु तपस्युग्रतमे न शक्तो व्रतानि देष्टु कुरु मे प्रसादम् ॥ ३६॥ भवत्प्रसादोदयलब्धदृष्टिः कुतीर्थदुर्मार्गनिवृत्तदृष्टिः । नरामरैरप्यविकम्प्यदृष्टिवतानि गलाम्यहमात्मशक्त्या ॥ ३७॥ मदोद्धतैः क्षत्रियपुङ्गवैस्तैः परस्पराघातनिमित्तजातम् । विहाय तयुद्धमुखं तदेकं' मुने परप्राणिदया ममाशु ॥ ३८ ॥ परोपघातानृतदुर्वचांसि परस्वहारित्वमपार्थरोषः। पराङ्गनालिङ्गानसंगसौख्यमाजीवितान्तादमुचं यतीश ॥ ३९ ॥ बाHिILIPIERGARHIROHINETRISEASEARHIROHTAS मनि वरांगकी भव्यता मुनिराज वरदत्तकेवली के वचन सुनते ही जीव, आदि तत्त्वों का कुमार वरांगको सत्य ज्ञान हो गया था, अपाततः अनादिकाल से बँधा हुआ उसका मिथ्यात्व वहीं नष्ट हो गया था। इससे उसे इतना आनन्द हुआ था कि पूरे शरीरमें रोगाञ्च हो आया था, तब उसने हाथ जोड़कर गुरुवरसे ये वाक्य कहे थे ॥ ३५ ।। हे प्रभो ! जो जोब केवल अहिंसा आदि पांचों अणवतोंका निरतिचार रूप से पालन करते हैं वे तथा जो और उठकर तपस्या करते हैं, वे भी कल्याणमार्गको प्राप्त होते हैं, किन्तु मैं अपने में इतनी शक्ति नहीं पाता हूँ जो मुझे उग्र तपस्यामें भी अडिग बनाये रखें इसीलिए मुझे व्रतों की दीक्षा देने का अनुग्रह करिये ॥ ३६ ।। आपकी असीम अनुकम्पासे मेरी अन्तरङ्ग दृष्टि खुल गयो है अतएव कुमतों और जीवनके पापमय मार्गोंसे मुझे पूर्ण घृणा हो गयो है । आज मुझे वह दृष्टि ( सम्यक्त्व ) प्राप्त हुई है जिसे मनुष्य क्या देव भी नहीं दूषित कर सकते हैं इसीलिए मैं अपनी शक्तिके अनुसार व्रतोंको ग्रहण करता हूँ ॥ ३७ ।। महत्त्वाकांक्षी श्रेष्ठ क्षत्रिय अपने पराक्रमके अभिमानसे उद्दण्ड हो जाते हैं फलतः अपनी प्रभुता बढ़ानेके लिए आपसमें आक्रमण करते हैं जिसके निमित्तसे पर्याप्त हिंसा होती है अतएव मर्यादा रक्षाके लिए किये गये युद्धको एक हिंसाको छोड़कर हे मुनिराज? शेष सब प्राणियोंपर मेरा दयामय भाव हो गया है ।। ३८ ।। - हे यतिराज ! दूसरेको हिंसा, असत्य या कटुवचन, दूसरेको सम्पत्तिका हरग, निष्प्रयोजन परिग्रह संचय तथा दूसरेकी १. [ तथैकं]। २. [ ममास्तु ] । [१८३] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशम्य भव्यस्य वचो मुनीन्द्रः प्रसन्नभावस्य समाहितस्य । कृताभ्यनुज्ञः' स्वयमेव तस्मै चकार सम्यग्वतरोपणानि ॥ ४० ॥ तेषां व्रतानां बहभिः प्रकारैः फलान्यभिप्रेतफलप्रदानि । इहाप्यमुत्रापि यशस्कराणि प्रदर्शयामास नृपात्मजाय ॥ ४१ ॥ अन्धो यथा तुष्यति नेत्रलाभान्निधेः प्रलाभाच्च यथा दरिद्रः ।। तथा गृहीतव्रतभारसारो ह्यभूतपूर्वा मुदमाससाद ॥ ४२ ॥ महर्षिपादावभिनय भूयस्तपोऽधिकाम्शीलनिधींश्च साधन । प्रदक्षिणीकृत्य पुनः प्रवन्ध विसर्जयामास यथाना ॥४३॥ एकादशः सर्गः पत्नीके आलिंगन और सुरतके सुखको मैं जीवनपर्यन्तके लिए छोड़ता हूँ ।। ३९ ।। READHIRERNARAYARIRAATiweTA- मर ब्रतदीक्षा कुमार वरांग भव्य थे इसीलिये वे अपनेको धर्ममार्गपर लगा सके थे। तथा वे वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न थे । यही कारण था कि जब आचार्य प्रवरने उनके वचन सुने तो उन्हें व्रत ग्रहण करनेकी अनुमति दी थी तथा स्वयं हो विधिपूर्वक उनको व्रतोंकी दीक्षा दी थी॥ ४० ।। इसके अतिरिक्त उनको यह भी तरह-तरहसे समझाया था कि उक्त पांचों व्रत किस तरह व्रतीको मनवाञ्छित फल देते हैं । व्रतोंको पालन करनेसे जोव इस लोकमें यश-पूजाको कैसे प्राप्त करता है तथा परलोकमें सुख भोगोंका अधिपति होता है यह सब उसे स्पष्ट करके समझाया था ।। ४१ ।। अन्धेको यदि आँखें मिल जाय तो जैसा वह प्रसन्न होता है, अथवा किसी अत्यन्त दरिद्र व्यक्तिको यदि विशाल कोश मिल जाय तो जिस प्रकार वह आनन्दविभोर होकर नाचता है उसी प्रकार व्रतोंके सारभूत नियमोंको ग्रहण करके राजपुत्र भी आनन्दसे फूला न समाता था क्योंकि यह सुख ऐसा था जिसे इसके पहिले उसने कभी जाना हो न था ।। ४२।। इसके उपरान्त उसने ऋषिराजके चरणोंमें पुनः साष्टांग प्रणाम किया था तथा विशाल तपरूपी निधिके अधिपति गुणोंकी राशि समस्त मुनियोंकी भक्ति-भावसे वन्दना तथा प्रदक्षिणा करके उसने परम्परा और क्रमके अनुसार उनसे बिदा ली थी ।। ४३ ॥ mammeHarpeHRISTIANESHespeareSAARAATREATREES [१४] १. म कृताभिनुजैः । Jain Education interational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATR एकादशः. वराङ्ग चरितम् गृहीतसम्यक्त्वदृढव्रतात्मा आत्मषिदेवैः कृतसाक्षिकस्तु । मुनेर्गणांस्तान हृदि संविधाय' लब्धाभ्यनुज्ञः पुरमभ्यगच्छत् ॥ ४४ ॥ पुरं विशालं प्रविभक्तशालं चन्द्रांशुजालामलकीतिमालम् । अरातिसैन्यक्षपणातिकालं विवेश वृद्धः क्रमशः सलीलम् ॥ ४५ ॥ नरेन्द्रपुत्रो नगरं प्रविश्य वयोपचारं पितरौ समीक्ष्य । प्रणम्य पादं प्रणिपातनाहं सुखं निविष्टो मुनिसंकथाभिः ॥ ४६॥ तथा तपस्को विजहार यत्र ततश्चकार स्वशिरः शयानः। बालस्वभावं प्रविहाय विद्वान्प्रज्ञानवृत्ति प्रचचार धीरः ॥ ४७ ॥ सर्गः E SaksTEURRIGELUAGEDESIAFIR ATRETIRITUAzawaz गुरुवर, सच्चे देव और आत्माकी साक्षीपूर्वक लिये गये व्रतों और सम्यक्त्वके पालनमें राजकुमार अडिग और अकम्प था । मुनियों के दम, शम, त्याग आदि गुणोंकी उसके हृदयपर गहरी छाप पड़ी थी फलतः उनसे चलनेकी अनुमति प्राप्त करके उन्हीं के गुणोंको विचारता हुआ अपने नगरको चला गया था । ४४ ।। - संयत राजकुमार वह विशाल नगर भी अपने उन्नत और दृढ़ परकोटाके कारण दूरसे ही अलग दिखता था, गृहों और अन्य स्थानों पर लटकती वन्दनवार और मालाएँ चन्द्रमाकी किरणोंके जालके समान निर्मल और मोहक थीं, अपनी दृढ़ता तथा अन्य सुरक्षाओंके कारण शत्रुसेनाको नष्ट करनेके लिए यह यमसे भी भोषण था। ऐसी राजधानोमें कुमारने बड़ों के साथ धीरे-धीरे प्रवेश किया था ।। ४५ ॥ राजपुत्रने नगरमें वापिस आते ही घर पहुँचकर शिष्टाचारके अनुसार सबसे पहिले अपने माता-पिताके दर्शन किये थे, तथा पूजा और नमन करने योग्य उनके चरणोंमें प्रणाम करके वहीं शान्तिपूर्वक बैठ गया था। इसके बाद भी वह मुनिराजको ही पुण्य कथा करता रहा था ॥ ४६ ॥ उसपर मुनिराजका इतना गम्भीर प्रभाव था कि उनके चले जानेपर भी वे जिस दिशामें विहार करते थे वह सोते A समय उसी दिशाकी ओर शिर करता था। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह हुआ था कि अब उसने बालकों ऐसी खिलवाड़ी प्रकृति को छोड़ दिया था। अब वह विद्वान् विशेषज्ञ पुरुषोंके समान गम्भीरतापूर्वक व्यवहार करता था ॥ ४७ ।। D EI a topauasana [१८५] २. [ नयोपचारं ]। ३. [ तदा तपस्वी ] । १. [ संनिघाय ]। २४ _Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकादशः सर्गः प्रातः कुमारः कृतमङ्गलार्थो जिनेन्द्रबिम्बार्चनतत्परोऽभत । ततो गुरून्साधुतमान्यप्रपूज्य पश्यत्युपस्थानगतः स्वकार्यम् ॥ ४८॥ तत्रोपविष्टो जिनदेवमार्ग प्रकाशयन्संकथयन्परेभ्यः । विचारयन् हेतुभिरप्रदृष्टः पुरोत्तमेऽरंस्त सदा वराङ्गः॥ ४९ ॥ स्थानासने निष्क्रमणे सभासू शय्याधिरोहे क्षुतज़म्भणेषु । सदा नमस्कारपदानि पञ्च करोति सद्भावपुरस्सराणि ॥५०॥ प्रजेष्टकारी' मितमृष्टभाषी विशिष्टशास्त्रार्थनिविष्टबुद्धिः।। अशिष्टशासी खलु शिष्टपालो कुदृष्टिदृष्टान्तपथैरपेतः ॥५१॥ ग्लानातिबालस्थविराङ्गनानां मर्यादया पश्यति कार्यजातम् । दयापरान्धर्मरुचीन्विनीतान्प्राज्ञांश्च सन्मानयते यथावत् ॥ ५२ ॥ SeareaRASHTeameraprasweepenetress-REARRAHames कु० वरांगको दिनचर्या राजकुमार बहुत सवेरे उठ जाता था और सूर्योदयके पहिले हो स्नानादि मांगलिक कृत्योंको समाप्त करके अष्टद्रव्यसे श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवको पूजामें लग जाता था। इसके उपरान्त गुरुओं तथा साधुओंकी यथायोग्य विनय करके उपस्थान (स्वाध्यायशाला ) चला जाता था। वहाँपर भी वह स्वके आत्माके उत्थान को प्रयत्न करता था ॥४८॥ वहाँपर बैठकर भी वह केवली प्रणीत धर्मको हो प्रभावना करता था, स्वयं समझता था तथा दूसरोंके साथ भी उसी। की चर्चा करता था । प्रत्येक बात को शास्त्रोक्त हेतुओंसे ही नहीं अपितु नतन तर्कोसे भी सोचता था। उत्तमपुरमें अब उसका मनोविनोद सदैव इस प्रकार होता था । ४९ ।। किसी स्थानपर बैठते समय, घरसे बाहर निकलनेके अवसरपर, सभामें जाते हुए, शय्यापर लेटते समय, छींक या जभायी लेनेके प्रसंग आदि सभी अवसरोंपर वह सद्भावपूर्वक पंच-नमस्कार मंत्रका उच्चारण करता था। वह इतना जागरूक था कि सदा प्रजाका भला करता था ॥ ५० ॥ जब बोलता था तो परिमित और मधुर, उसका मन शास्त्रोंके गढ़ तत्त्व समझनेमें ही उलझा रहता था, असंयमी दुर्जनोंको दण्ड देता था, शिष्ट साधु पुरुषोंका पालन करता था और मिथ्यात्व मार्गपर ले जानेवालों तथा उनके आदर्शोसे दूर रहता था ।। ५१ ॥ विविध प्रकारके रोगोंसे पीड़ित, अत्यन्त भोले अथवा मूर्ख अभिभावक होन शिशु, अत्यन्त वृद्ध तथा महिलाओंके कामों। १. क प्रचेष्टकारी। २. क पंथेरुपेतः । SURGIsraiseRSEURELusaisasRTHEATRE Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः नृपस्तु पुत्रस्य गुणानुदाराउजनेरितान्संसदि संनिशम्य । प्रहृष्टचेताः प्रियकृत्प्रजानां कृतार्थमात्मानमर्मस्त सद्यः ॥ ५३ ॥ स्वपुत्रसत्कृत्यनुरक्तबुद्धेनूपस्य चित्तानुगतं विदित्वा । अनन्तचित्राजितदेवसाहा' विज्ञापय मन्त्रिवरा नरेन्द्रम् ॥ ५४॥ प्रकृत्यनुज्ञातगुणो विनीतो दक्षः कृतज्ञश्च कृती सुशास्त्रः । एतेषु सर्वेषु भवत्सुतेषु योग्यः प्रजाः पालयितुं वराङ्गः ॥ ५५ ॥ तेषां हितप्रीतिनिवेदकानां स्वराज्यसंवर्धनतत्पराणाम् । निशम्य वाक्यान्यनुमन्य राजा राज्याभिषेकाय शशास सर्वान् ॥ ५६ ॥ सर्गः HEALTHHAHAHRI HAMATAANTHAN की मर्यादापूर्वक छानबीन करता था । जो दयामय कार्यों में व्यस्त रहते थे, धर्माचरणके विशेष प्रेमी थे, स्वभावसे ही विनम्र थे तथा विशेष ज्ञानी थे ऐसे सब लोगोंका मर्यादाके अनुकूल सन्मान करता था ।। ५२॥ सुपुत्रानुराग तथा संतोष महाराज धर्मसेन राजसभामें जब लोगोंको कुमार वरांगके सेवापरायणता, न्याय-निपुणता, आदि उदार गुणोंकी प्रशंसा करते सुनते थे तो उनका हृदय प्रसन्नताके पूरसे आप्लावित हो उठता था। ऐसे योग्य पुत्रके कारण वह तुरन्त ही अपने आपको कृत्कृत्य समझते थे, क्योंकि प्रजाओंको सुखी बनाना उन्हें भी परमप्रिय था ।। ५३ ।। अपने पुत्रके सुकर्मोको देखकर राजाका मन और मस्तिष्क दोनों ही उसपर दिनों-दिन अधिक अनुरक्त होते जाते थे, मंत्रियोंने राजाके मनकी इस बातको भांप लिया था अतएव अनन्तसेन, चित्रसेन, अजितसेन तथा देवसेन चारों प्रधान मंत्रियोंने राजाके पास जाकर निम्न प्रकारसे निवेदन किया था ।। ५४ ॥ राज्याभिषेक प्रस्ताव ___ महाराज ! कुमार वरांग स्वभावसे ही विनम्र और मर्यादापालक हैं, प्रत्येक कार्यको करनेमें कुशल हैं, आश्रितों तथा । हितुओंकी कार्य क्षमताको परखते हैं (फलतः लोग अनुरक्त हैं ) सब प्रकारसे योग्य हैं, समस्त शास्त्रोंके पंडित हैं तथा प्रजा उनकी इन सब विशेषताओंको समझती है इसीलिए उनपर परम अनुरक्त है । इन सब कारणोंसे महाराजके सब पुत्रोंमेंसे कुमार वरांग ही प्रजाका भली-भाँति पालन करनेमें समर्थ हैं ॥ ५५ ॥ महाराज धर्मसेनके राज्यको सब प्रकारसे सम्पन्न बनाने में उन मंत्रियोंका काफी हाथ था, तथा उनकी सम्मति हित। १. [धीवराह्वा]। २. [ व्यज्ञापयन् ] । [१८७] Jain Education international Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् आज्ञापितास्ते वसुधेश्वरेण अमात्य सेनापतिमन्त्रिवर्गाः । श्रेष्ठिप्रधानाः पुरवासिनश्च वीथिप्रवेशोतकेतुमाला पर्णाविधानोज्ज्वलपूर्णकुम्भाः सुगन्धिसच्चन्दन कुङ्कुमावता महावस्त्राभरणा युवानः । संपादयांचकुरभीप्सितानि ॥ ५७ ॥ विन्यस्तनानाबलिभक्तिचित्राः । सतोरणालम्बितलोलमालाः ॥ ५८ ॥ गृहीत चित्रध्वजपाणयस्ते आजग्मुरत्युज्ज्वलचारुवेषाः ।। ५९ ।। पुराङ्गना मङ्गलयोग्यलीला: सलज्जिकाः सिज्जितभूषणाढ्याः । अलङ्कृताङ्गचः समदाः सलीलं समन्ततो निर्ययुरम्बुजास्थाः ॥ ६० ॥ कर और प्रिय होती थी अतएव जब राजाने उनके उक्त वचनोंको सुना तो उनसे सहर्ष सहमत होकर कुमारके राज्याभिषेककी तैयारी करनेकी आज्ञा दी थी ॥ ५६ ॥ पृथ्वी के प्रभु धर्मसेन द्वारा आज्ञा दिये जानेपर ही राज्यके आमात्यों, विभागीय मंत्रियों, सेनापतियों, सेठों तथा सेठों की श्रेणियों तथा समस्त पुरवासियोंने थोड़ा सा भी समय व्यर्थं नष्ट किये बिना, राजाके मनके अनुकूल प्रत्येक कार्यको सुसज्जित कर दिया था ॥ ५७ ॥ नगर सज्जा प्रत्येक मार्ग या गलीके प्रारम्भ होनेके स्थान ( मोड़ ) पर तोरण खड़े किये थे उनपर मालाएँ और ध्वजाएँ लहराती थी तथा उनके सामने सुन्दर मांगलिक चौक पूरकर उनपर पुष्प, फल आदि पूजाकी सामग्री चढ़ायी गयी थी। स्वागत द्वारके दोनों तरफ अत्यन्त उज्ज्वल मंगल कलश रखे थे जो कि निर्मल जलसे भरे थे और उनके मुख सुन्दर हरे पत्तोंसे भली-भाँति ढके थे । तोरणकी प्रत्येक ओर चंचल मालाएँ लहरा रही थी ॥ ५८ ॥ नगर के सब ही युवक बहुमूल्य कपड़े और गहने आदि को पहिनकर सुगन्धित चन्दन, कुकुम, आदि मांगलिक पदार्थों को उपयोग करते थे फलतः उनका वेशभूषा सर्वथा स्वाभाविक, अत्यन्त उज्ज्वल आकर्षक लगता था। इस प्रकार सजकर वे उत्सव की तैयारी में रंग विरंगे तथा सचित्र ध्वजाएं लेकर घूमते थे ॥ ५९ ॥ नगर की नायिकाओं की वेशभूषा तथा चेष्टाएं भी उत्सव के समय के अनुकूल थीं। वे स्वभाव से ही लजीली थीं तो भी उन्होंने उत्सव के लिए अंग, अंग का शृङ्गार किया था उनके भूषणों से मनोहर 'झुनझुन' ध्वनि निकलती थी । सबके मुख कमलोंके समान विकसित और आकर्षक थे। ऐसी युवतियां यौवनके मद और विलासके साथ नगरमें इधर-उधर आती-जाती रहती थी ॥ ६० ॥ Jkk एकादशः सर्गः [१८८1 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकादशः सर्गः शुभे मुहूर्ते करणे तिथौ च सौम्यग्रहेषूपचयस्थितेषु । सिंहासने श्रीमति राजपुत्रं निवेशयां पूर्वमुखं बभूवः ॥ ६१ ॥ आनन्दितप्रीतिमुखे हताशाः' पुरप्रवेशं सकलं ननाद (?) । वंशा मुदङ्गाः पणवाः स्वरैस्स्वैरापूरयां सर्वदिशां बभूवः ॥ ६२॥ अष्टादशश्रेणिगणप्रधाना बहुप्रकारैर्मणिरत्नमिश्रः। गन्धोदकैश्चन्दनवारिभिश्च पादाभिषेकं प्रथम प्रचक्रः ॥ ६३ ॥ सामन्तभूमीश्वरभोजमुख्या आमात्यसांवत्सरमन्त्रिणश्च । ते रत्नकुम्भैर्वरवारिपूर्णमूर्धाभिषेकं मुदिताः प्रचक्रुः ॥ ६४ ॥ स्वयं नरेन्द्रो युबराजपट्ट पुरस्कृतश्रीयशसे बबन्ध । नपाज्ञयाष्टौ वरचामराणि संचिक्षिपूस्तान्यभितस्तरुण्यः॥६५॥ राज्याभिषेक जिस शुभ तिथि, करण और मुहुर्तमें रवि, शशि आदि नवग्रह सौम्य अवस्थाको प्राप्त करके अपने-अपने उच्च स्थानों में में पहुँच गये थे उसी कल्याणप्रद मुहुर्त में राजाने कुमार वरांगको अत्यन्त शोभायमान महाय सिंहासन पर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठाया था ।। ६१ ॥ उस आनन्द और प्रीतिके अवसर पर नगर के प्रत्येक प्रवेश द्वारपर, बांसुरी, मृदंग, पटह आदि बाजे जोर-जोर से बजाये जा रहे थे, उनकी ध्वनि आकाशको चीरती हई दुरतक चली गयी थी और उनके स्वरसे सब दिशाएं गज उठी थीं॥६२।। सबसे पहिले शिल्पी, व्यवसायी आदि अठारह श्रेणियों के मुखियोंने वरांगके चरणों का अभिषेक सुगन्धित उत्तम जलसे किया था। उस जलमें चन्दन घुला हुआ था तथा विविध प्रकारके मणि और रत्न भो छोड़ दिये थे ।। ६३ ॥ इसके उपरान्त सामन्त राजाओं, सम्बन्धी श्रेष्ठ भूपतियों, भुक्तियोंके अधिपतियों, आमात्यों, मन्त्रियों सांवत्सरों ! ( ज्योतिषी, पूरोहित आदि) ने आनन्द के साथ रत्नोंके कलशोंको उठाकर कूमारका मस्तकाभिषेक किया था। उनके रत्नकुम्भों में भी पवित्र तीर्थोदक भरा हआ था ।। ६४ ।। अन्तमें महाराज धर्मसेनने अपने आप उठकर कुमार को युवराज पदका द्योतक पदक ( मुकुट तथा दुपट्टा) बांधा था जो कि लक्ष्मी और यशको बढ़ाता है। तथा महराज को आज्ञासे आठ युवती चमरधारिणियोंने कुमार के ऊपर सब तरफ से चमर ढोरना प्रारम्भ कर दिये थे । ६५ ।। या रहसन का अजसे अाठर युवती का श्योराणन पुमार तशा इश्व [१८९ १.क हताशा। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः HARIZEDIARRIAGEarth चलत्पताकोज्ज्वलकेतुमाला प्राकारकाञ्ची स्तुतितूर्यनादा। प्रपूर्णकुम्भोरुपयोधरा सा पुराङ्गना लब्धपतिस्तुतोष ॥ ६६ ॥ सबालवृद्धं जनमात्मनीनं पुराणि राष्ट्राणि च पत्तनानि । यानानि रत्नानि च वाहनानि समर्पयामिपतिः सुताय ॥ ६७॥ यथा मयि स्नेहनिबद्धचित्ताः सर्वे भवन्तो मम शासनस्थाः । तथावनीन्द्रास्तनयस्य नित्यं भवन्तु' वश्या इति तानुवाच ॥ ६८ ॥ जगज्जना बालनराधिपं तं श्रियोज्ज्वलन्तं नयनाभिरामम् । किरीट सत्कुण्डलहारभारं प्रोचुः समीक्ष्यात्ममनोगतानि ॥ ६९ ॥ म नगर में चारों ओर पताकाएँ लहरा रही थी, निर्मल केतु और मालाएं हर तरफ दिखायी देती थीं, नगर को परकोटा, रूपी करधनी ने घेर रखा था, स्तुति पाठक और बाजों का शोर गूंज रहा था, तथा हर स्थान पर जलपूर्ण कलशोंरूपी स्तनों को भरमार थी । इन सब सादृश्यों के कारण नगर-लक्ष्मी एक स्त्री के समान शोभाको प्राप्त थी तथा ऐसा मालूम देता था कि नगर । रूपी स्त्री युवराज रूपी वरको पाकर सन्तोष से रास-लीला कर रही है ।। ६६ ॥ इसके उपरान्त महाराज धर्मसेन ने बच्चे से लेकर वृद्धपर्यन्त अपने कुटुम्बी और परिचारकोंको, राज्य के सब नगरों पत्तनों ( सामुद्रिक नगर ) आश्रित राष्ट्रों, समस्त वाहनों, रथ आदि यानों तथा रत्नों को विधिपूर्वक अपने पुत्रको सौंप दिया । था ।। ६७॥ अधिकारार्पण उसने उपस्थित नागरिकों, कर्मचारियों, सामन्तों आदिसे यह भी कहा था कि आप लोग जिस प्रकार मुझपर प्रम करते थे, मेरे अनुगत थे तथा मेरी,आज्ञाओं और शासन का पालन करते थे उसी प्रकार आप लोग मेरे पुत्रपर सदा प्रेम करें ने और उसके शासन को मानें ।। ६८ ।। राजा वरांग बाल नपति वरांग अपनी शोभा और लक्ष्मीके द्वारा चमक रहे थे, दर्शकों की आँखें उन्हें देखकर शीतल हो जाती थीं, शिर पर बँधे मुकुट, कानों में लटकते कुण्डलों तथा गले में खेलतो मणिमाला, आदि के कारण वह और अधिक आकर्षक हो गये। थे । उनको देखते ही दर्शकों के मनमें अनेक भाव उठने लगते थे जिन्हें उन लोगों ने निम्न प्रकारसे प्रकट किया था ।। ६९ ।। [१९०] बाम । १. म भजन्तु । २.क तिरीट। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः सर्वान्नरेन्द्रानभिभूय भासा रराज सम्यग्युवराज एषः। प्रणष्टमेधे गगने निशायां ग्रहानिवैका परिपूर्णचन्द्रः॥७०॥ एतस्य पूजितपुण्यबीजं विद्मो वयं चेदमितप्रभस्य । विसज्य पूर्वापरयोगतार' समर्चयिष्याम इति व्यवोचत् ॥७१ ॥ दायादकानां च नृपात्मजानां चेतांसि तान्याकुलितान्यभूवन् । कुलं बलं रूपमपोह लब्ध्वा स्थानं च यन्न शलभामहीति ॥ ७२ ॥ ग्रहाश्च तारा निशि मन्दमन्दं प्रकाशमानाः पुनरर्कभासा। "आदर्शनं यान्ति यथैव लोके तथा वयं बालनपार्कभासा ॥ ७३ ।। बाल्यात्प्रभृत्येव हि मल्लयुद्धे प्रधावने वा हयवारणानाम् । पञ्चायुधे शास्त्रपरीक्षणे वा नास्मत्समो बालनृपः कदाचित् ॥ ७४ । perpe-Teamrecameremediemediesmeare-Paper यह युवक राजा अपनी कान्ति और तेजके द्वारा समस्त राजाओं को जीत लेता है, इसकी शोभा निर्दोष और अनुकरणीय है । यह यहाँपर वैसा ही शोभित हो रहा है जैसा कि पूर्णिमाका चन्द्रमा मेघमाला के फट जानेपर आकाशके समस्त ग्रहों और नक्षत्रोंके बीच चमकता है ॥ ७० ॥ इसकी प्रभा अपरिमित है, यदि हम किसी तरह पूर्वभवमें संचित किये गये इसके पूण्यकर्मों रूपी बोज को जान पाते तो आगा पीछा सोचना छोड़कर तथा छोटे बड़ेके भेदभावको भुलाकर भक्तिभावपूर्वक इसकी पूजा हो करते, इस प्रकारसे अनेक लोग कह रहे थे ।। ७१ ॥ राजाके दूसरे पुत्र जो कि पूर्ण राज्य पानेके अधिकारी हो सकते थे, किन्तु पा न सके थे, उनके चित्त युवराज वरांग का पूर्वोक्त अभ्युदय देखकर दुखी हो गये थे । वे सोचते थे 'हम भी उत्तम कुलमें उत्पन्न हुये हैं, हम भी रूपवान हैं तथा हमारी भुजाओं में भी पराक्रम है तो भी हम राज्यलक्ष्मी के द्वारा वरण न किये गये ।। ७२ ।। रात्रिके अन्धकार में चन्द्रमा,शनि आदि ग्रह तथा रोहिणी आदि तारे मन्द प्रकाश करते हैं, किन्तु प्रातःकाल जब सूर्य । उदित होता है तो उसके तीक्ष्ण उद्योतमें सब न जाने कहाँ लुप्त हो जाते हैं, हमारी भी यही अवस्था है, आजतक हम भी राज के भागी थे किन्तु आज से युवक राजा के प्रतापमें हम लुप्त हो गये हैं ।। ७३ ।। आजका युवक राजा बचपन से ही मल्ल युद्ध में, दौड़में, हाथी घोड़े को सवारोमें, तलवार, भाला आदि पाँच मुख्य हथियार चलानेमें तथा शास्त्रों की सूक्ष्म गुत्थियाँ सुलझानेमें कभी भी हम लोगों की समानता न कर सका था । ७४ ।। १. [ °योग्यतां च ]। २. [ व्यवोचन् ]। ३. [ अदर्शनं । ४. क हयवारणेषु । [१९१] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् घ SAKS-JA संसेव्य तादृग्विधमल्पसत्त्वं संजीवमानो' मरणं वरं तत् । देशातिथित्वं ज्वलनप्रवेशो विषाशनं वा क्षममित्यवोचन् ॥ ७५ ॥ तेषां पुनर्मानमदोद्धतानां नृपात्मजानां वचनं निशम्य । प्रत्यूचुरन्ये क्षितिपालपुत्रा औदार्यतो रागविनोदनाय ॥ ७६ ॥ सत्वाधिकः शिल्पकलाविदग्धो विपश्चिदप्युन्नतवंशजो वा । रूपान्विता वा कृतिनः पुरस्तात्प्रधावतीत्येष विनिश्चयो नः ॥ ७७ ॥ पुष्पाणि ताम्बूलविलेपनानि चित्राणि वस्त्राणि विभूषणानि । आ बायोवः प्रविभज्य भुङ्क्ते न तस्य हानिर्भवतां विनाशः ॥ ७८ ॥ इस प्रकारके साधारण शक्तिशाली व्यक्तिको-जो कि आज राजा बन बैठा है सेवा करके तथा उसे अपना प्रभु मानकर जीवित रहने से तो हम लोगों का मर जाना ही अच्छा है, यदि शस्त्र से मरना कष्टकर है तो विष खाकर या आगकी ज्वाला में कूदकर प्राण गंवाना चाहिये । यदि यह भी शक्य नहीं है तो इस देश को छोड़कर देश देश मारा फिरना भी उपयुक्त होगा ।। ७५ ।। गुणज्ञता का उपदेश मिथ्या अहंकार के नशे में आकर उक्त प्रकार से अशिष्ट व्यवहार करनेवाले उन राजपुत्रों की उक्त ईर्ष्यामय उक्तियों को सुनकर दूसरे राजपुत्रोंने जो कि बड़े राजाओं के पुत्र थे तथा अधिक विशाल हृदय ही नहीं गम्भीर भी थे उनके निराशाजन्य क्रोधसे मनोविनोद करनेकी इच्छा से निम्न वचन कहे थे ।। ७६ ।। माना कि तुम अधिक पराक्रमी हो, शिल्प आदि समस्त कलाओंका पंडित हो इतना ही नहीं विद्वान् भी हो और उच्च कुल में उत्पन्न भी हुये हो, सुन्दर और आकर्षक रूपवान अथवा रूपोत्तम हो, तो भी हम लोगों का दृढ़ निश्चय है कि ऐसे सुयोग्य व्यक्तिको भी पुण्यात्मा के आगे-आगे दौड़ना पड़ता है । यतः राजकुमार बरांग समस्त पुण्यात्मा लोगोंके अगुआ हैं इसीलिए राजा होने योग्य हैं ।। ७७ ।। इसीलिए बालकपन से ही आप लोग उसके सौभाग्यके कारण सुलभ सुन्दर वस्त्र, अद्भुत आभूषण, फूल मालाएँ' पान पत्ता, सुगन्धित तेल, उबटन, आदिभो उससे बाँट बांटकर भोगते थे । किन्तु इससे उसकी कोई हानि नहीं हुई क्योंकि यह सब भोग उसके भाग्य में लिखे हैं, हां, आप लोगोंका सत्यानाश अवश्य हो गया है क्योंकि आज आप लोग किसी काम के नहीं हैं । १. [ संजीवतां नो ] । २. म अवोचत् । ३. म चौदार्यतो । एकादश: सर्गः [१९२ ] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः वराङ्ग चरितम् सर्गः केनाभिषिक्तः करिरावनेषु तत्तल्यरूपास्त्वितरे गजाश्च । वन्या गजास्तेऽपि वशानुगाश्चेत्कथं न वश्यः परपोषजीवी ॥ ७९ ॥ न शक्यतेऽर्कः स्थगितुं करेण नासूयता नश्यति या परस्त्रीः । अपुण्यवदिभः कृतपूर्वपुण्याः संसेवनोया इति लोकसिद्धम् ।। ८० ॥ अथेतरे मानमदान्धनेत्रा भृशं स्वरोषस्फुरिताधरोष्ठाः । सगद्गदासक्तनिधृष्टवाक्या नृपात्मजोक्ताश्चुकुपुस्तदानीम् ॥ ८१ ॥ राजात्मजा कि न भवाम सर्वे कि मातरोऽन्येनमता: कुलीनाः । कि शौर्यवीर्यधुतिधैर्यहीनाः किं वाथ लोके व्यवहारबाह्याः ॥ २ ॥ स किं विसोढुयुवराज्यभारं स्थितेषु चास्मासु विगृह्य सक्तः ।। सुवर्णसारो निकषोपलेन भविष्यति व्यक्तिर'वश्यमाशु ।। ८३॥ न्यमानामामामा-मामाया हाथियोंके राजाको जंगल में मब हाथियों का (गजराज) मुखिया कौन बनाता है उसका कोई अभिषेक नहीं होता है । तथा दूसरे अनुचर हाथी भी रूप, आकार आदिमें उसके ही समान होते हैं। अपने आप अपना भरणपोषण करनेवाले जंगली हाथो भी यदि कारणान्तरसे दूसरोंके वशमें हो जाते हैं तो दुसरेकी कृपाकर पलापूषा व्यक्ति क्यों अपने पालकका अनुगामी न होगा? आप लोग विवेकसे काम लें।। ७८-७९ ।। क्या सूर्यका प्रकाश हाथको आडसे रोका जा सकता है? तथा दूसरे को सम्पत्ति ईर्षा करनेसे नष्ट नही होता है । यह संसारका सुविख्यात नियम है कि विशेष पुण्याधिकारी पुरुषों की सेवा और भक्ति उन लोगोंको करना ही चाहिये जिन्होंने पूर्वजन्ममें कोई पुण्यकर्म नहीं किया है ।। ८० ॥ वहाँपर कुछ ऐसे भी व्यक्ति थे जिनको विवेकरूपो आँखें अहंकाररूपी मद ( नशे ) के कारण मुंद गयी थी। यही , कारण था कि योग्य राजपुत्रोंके पूर्वोक्त वचनोंको सुनकर वे उस समय अत्यन्त कति हो उठे थे। उनका क्रोध इतवा बढ़ गया था कि उनके ओठ फड़कने लगे थे, गला रुध भारी हो गया था तो भी वे कुत्सित और अश्लोल वाक्य बक रहे थे ।।८१|| क्या हम लोग राजाके पुत्र नहीं हैं, क्या हमारी माताका कूल (जाति) शुद्ध नहीं है, हम लोग पराक्रम, बाहुबल, तेज, कान्ति, धैर्य आदि किस गुणमें वरांगसे कम हैं ? ऐसी कौन-सी लौकिक व्यवस्था अथवा व्यवहार है जिसे हम लोग नहीं समझते हैं ।। ८२ ॥ [१९३ ] मत्सरी पुरुष-कर्म क्या आपका विशेष पुण्याधिकारी राजकूमार हम लोगोंके होते हए भो युद्ध करके युवराज पदको धारण कर सकता १.क परमोपजीवी। २. [ नासूयया ] | ३. [ परश्रीः]। ४. [ मातरो नो न मताः । ५. [ शक्तः ]। ६. [ व्यक्तम° ] | _Jain Education intemation २५ PEDIमामा-भान्सामन्याशाचानाबाद माचा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् म्यान्मा है ? कसौटी पर कसने के बाद हो सोनेको शुद्धि और सचाई शोघ्र हो प्रकट हो जाती है ऐसा आप लोग निश्चित समझें ॥ ८३ ॥ इस प्रकारसे बक-झक करनेके बाद उन अशिष्ट राजपुत्रोंने एक दूमरेको ओर देखा और संकेन द्वारा अपने कुकर्त्तव्यका निश्चय कर लिया था । इसके उपरान्त वे न निर्दय राजकुमार सुषेणके नेतृत्व में प्रहारोंका आदान-प्रदान ( युद्ध) करनेकी इच्छासे उठ खड़े हुए थे ॥ ८४ ॥ इत्येवमाभाष्य नरेन्द्रपुत्राः परस्पराक्तविनिश्चयार्थाः । ततः सुषेणप्रमुखा नृशंसा उत्तस्थुरत्र व्यवहारबुद्ध्या ।। ८४ ।। ते मन्त्रिणस्तान्सहसा समीक्ष्य विजृम्भितक्रोधविरूढ दर्पान् । निष्केवलं वाक्कलह प्रवृत्तान्निवारयां राजसुतान् बभूवुः ॥ ८५ ॥ युवनृपतिमुदीक्ष्य राजपुत्रास्तुतुषुरुदारधियः स्वभावभद्राः । सकलुषहृदयाः प्रवृद्धरागा रुरुषुरनुष्ठितमत्सरास्तथान्ये ॥ ८६ ॥ अथ युवनृपतिविशालपुण्यः सकलदिगन्तविसर्पिकीर्तिमालः । अवनिमुदधिमेखलाकलापां मुदितजनां स बभूव जेतुकामः ॥ ८७ ॥ इतिधर्मंकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थं संदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते युवराज्यलाभो नाम एकादशमः सर्गः । इसी समय अनन्तसेन, आदि मंत्रियोंने देखा कि सुषेण, आदि अहंकार तथा हठ भी रौद्रताका रूप धारण कर रहा है, तथा व्यर्थ ही उन्हें समझा बुझाकर मूर्खता करनेसे रोक दिया था ।। ८५ ।। में १. [ एकादश: ] । जो राजा तथा राजपुत्र स्वभावसे ही शान्त और भले थे तथा जिनका विवेक विशाल था वे युवक राजाको देखकर उनकी योग्यताओंके कारण हृदयसे संतुष्ट हुए थे । तथा अन्य राजकुमार जिनके मन मलीन थे, स्वार्थं बुद्धि और पक्षपात बढ़ा था तथा जो दूसरेका अभ्युदय देखकर जलते थे वे वरांगको राजसिंहासनपर देखकर आपाततः कुपित हुए थे ॥ ८६ ॥ युवक राजा वरांगका पुण्य विशाल था, उनको कीर्ति दशों दिशाओंके सुदूर ओर-छोर तक फैली थी अतएव उन्होंने पिताके द्वारा जीती गयी उस पृथ्वीको दिग्विजय करनेका निर्णय किया जिनकी करधनी उसे चारों ओरसे घेरनेवाले समुद्र हैं। और जिसपर सुखी और सम्पन्न लोग निवास करते हैं ।। ८७ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा में युवराज्यलाभ नाम एकादश सर्गे समाप्त । राजकुमार सहसा ही अत्यन्त कुपित हो उठे हैं उनका मुखसे वाचनिक कलह कर रहे हैं। तब उन्होंने जाकर एकादशः सर्गः [ १९४] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् द्वादशः सर्गः सहोपविष्टा नृपाङ्गनाभिर्वररूपिणोभिः नरदेवदेवी । तुतोष पुत्रस्य हि राज्यलाभं संश्रुत्य राजप्रहितान्मनुष्यात् ॥ १ ॥ अभ्यागतं प्रीति निवेदनाय संपूज्य वस्त्राभरणप्रदानैः । नरेन्द्रपत्नी स्वजनस्य मध्ये अद्यास्मि देवीति मुदाभ्यवोचत् ॥ २ ॥ श्रुत्वा वराङ्गस्य हि यौवराज्यं सर्वाः सपत्न्यो गिरमित्थमूचुः । अस्माकमस्मत्सुतबान्धवानां पुरापि नाथासि विशेषतोऽद्य ॥ ३ ॥ तासां समाजे नृपसुन्दरीणां काचिन्नृपेष्टा मृगपूर्वसेना | अमर्षसंक्षोभितमानसा सा अधोमुखी स्वं भवनं जगाम ॥ ४ ॥ द्वादश सर्ग मातृ-स्नेह तथा विमाता असूया अन्तःपुरके सौन्दर्य-गुणों की खान महाराजा धर्मसेनकी पट्टरानी अन्य अन्तःपुरमें विराजमान थीं कि उसी समय नृपतिवरके द्वारा भेजे गये किसी यौवराज्याभिषेककी सूचना दी। पुत्रकी राज्यप्राप्तिका समाचार पाते ही वे आनन्दविभोर हो उठी थीं ॥ १ ॥ व्यक्ति इस प्रिय तथा सुखद समाचारको लेकर आया था उसका महारानीने वस्त्र, आभूषण आदि भेंट करके स्वागत सम्मान किया था। हर्षसे प्रसन्न होकर उसने अपने सगे सम्बन्धियोंसे भी उसी समय यह कहा था कि 'मैं आज वास्तवसे देवी हुई हूँ ॥ २ ॥ रानियों तथा एकसे एक रूपसियोंके साथ संदेशवाहकने महारानीको उनके पुत्र वरांगके किन्तु वरांग युवराजपद पानेकी सूचना सुनकर ही महारानीकी सौतोंने ये वाक्य कहे थे 'हे महारानी आप हम लोगों, हमारे पुत्रों तथा सगे सम्बन्धियोंको पहिलेसे पालक पोषक थीं और आजसे तो विशेषकर आप हम लोगोंकी रक्षक हैं ||३|| राजाकी इन अनुपम सुन्दरी रानियोंके समूहमें एक रानी राजाको बहुत प्यारी थी, उनका नाम ( सेना शब्दके पहिले मृग शब्द जोड़ने से बनता ) मृगसेना था। उक्त समाचार सुनकर उनका चित्त क्रोधसे इतना अधिक खिन्न हो उठा था कि उन्होंने अपना मुख नीचा कर लिया और वहाँसे उठकर अपने प्रासादमें चली गयी थी ॥ ४ ॥ न्याय द्वादशः सर्गः [१९५] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तत्रोपविश्य वदधुनेत्रा कराग्रसंधारितवामगण्डा । विचिन्तयन्तो कृतमीश्वरेण निनिन्द सा दुःकृत 'पाक मित्थम् ॥ ५ ॥ न स्यात्सुतः किं नृपतेः प्रियो वा के वा गुणा मत्तनये न सन्ति । ज्येष्ठे सुते राज्यधुरः समर्थे पराभिषेकं तु कथं सहिष्ये ॥ ६ ॥ इत्येवमात्मन्यविचायं कार्यं मुहुर्मुहुः कोपवशाज्ज्वलन्ती । सुषेणमाहूय विविक्तदेशे प्रोवाच राज्ञी सुतमात्मनस्तम् ॥ ७ ॥ नो वत्स कार्यं विदितं त्वयैव वराङ्गनाम्नो युवराज्यलाभम् । ज्ञात्वा यतः क्षीणनृपात्मशक्तिः स्थितोऽसि तूष्णीं धिग्पौरुषत्वम् ॥८॥ नीचानुवृत्तेः प्रियजीवितस्य निरस्तसत्वस्य हि मन्दशवतेः । परावधूतार्थपराक्रमस्य का जन्मवत्ता भुवि पुत्र पुंसः ॥ ९ ॥ वहाँ जाकर बैठते ही उसकी आँखोंसे आँसुओंकी धार बह पड़ी थो। शोक और गालको हथेली पर रख लिया था। रह रहकर वह यही सोचता थी कि सर्वशक्तिमान देवने कृत पापोंके परिणामकी निन्दा करती थी ॥ ५ ॥ अनुतापके कारण उसने अपने बाँये यह क्या किया ? तथा अन्तमें पूर्व • क्या मेरा पुत्र, राजपुत्र नहीं है, वह राजाको प्यारा क्यों नहीं है ! ऐसे कौनसे गुण हैं; जो मेरे लाड़लेमें न हों । संसारमें सुयोग्य बड़े लड़केपर ही पिता राज्यभार देता है, किन्तु उक्त गुणयुक्त मेरे बड़े बेटेको छोड़कर दूसरेका राज्याभिषेक कैसे सह्य होगा ॥ ६ ॥ रानी मृगसेना निराशाजन्य क्रोधकी लपटोंसे रह-रहकर झुलस उठती थो अतएव वह उक्त प्रकारकी द्विविधाओंके कारण मन ही मन अपना कर्त्तव्य निश्चित नहीं कर पाती थी। फलतः उसने अपने प्रियपुत्र सुषेणको एकान्तमें बुलाया और उसको निम्न प्रकार से कहना ( भरना ) प्रारम्भ किया था ॥ ७ ॥ कुमाताको भर्त्सना हे बेटा ! वरांग नामके राजपुत्रको युवराज पद प्राप्त हो रहा है इस बातका तुम्हें स्वयं ही पता लगाना चाहिये था न? यदि तुम्हें यह बात पहिलेसे ज्ञात थी और इसे जानकर भी अपने आपकी या राजाकी शक्तिको कम समझकर तुम चुप रहे, तो तुम्हारे पुरुषार्थ और पुरुषत्व दोनोंको धिक्कार है ॥ ८ ॥ • जीवनके मोहमें पड़कर जो व्यक्ति हीन पुरुषों के समान आचरण करने लगता है, शक्तिके कम होनेके कारण जो पुरुष १. क साधुः कृत । २. [ ज्ञात्वा च यत्क्षीण° ] । ३. [ धिगपौरुष त्वम् ] ४. म वा जन्मव्रर्ता (?) । द्वादश: सर्गः [१९६ ] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः बराज चरितम् सर्गः समीक्षमाणा गुणवेविकायास्तस्याः सुतस्यापि वरां विभूतिम् । प्राणान्विसोलु न सहेऽति'मात्रं शिरस्तु मे विस्फुट तीव कोपात् ॥१॥ मात्रैवमुक्तो निजगी सुषेणो नैवाम्ब नाज्ञायि न चानशक्तेः (?) ।। राज्ञा कृतं वेत्त्यनवेक्ष्य सर्वमथाशिषं युद्धमति विगृह्य ॥ ११ ॥ तदैव कैश्चिन्नुपजैः सहायैरुद्यम्य खड्गं स्फुरदंशुजालम् । त्वं वा महीं पाह्यथवा वयं वा इति स्थितं मान्यरुचत्समन्त्री ॥१२॥ बचो निशम्यात्मसुतस्य राज्ञो आइय तं मन्त्रिणमात्मनोनम् । पूर्वोपचारैरभिसंप्रपूज्य वचः प्रसादमवोचदित्थम् ॥ १३ ॥ । पराक्रम करना छोड़ देता है तथा जिसके बल और पराक्रमको दूसरे लोग नष्ट कर देते हैं, उस मनुष्यके इस पृथ्वी पर जन्म लेनेसे क्या लाभ ? ॥ ९॥ में जब गुणदेवीके सौभाग्यका सोचतो हूँ और उसके पुत्रको उत्कृष्ट विभूति और वैभवका विचार करती हूँ, तब, क्रोधको अधिकताके कारण मेरा माथा फटने लगता है, तथा इन गहित प्राणोंको तो मैं अब बिल्कुल धारण कर ही नहीं सकती हूँ। १० ॥ सुषेणको दुरभिसंधि माताके द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से लांछित किये जानेपर सुषेणने निर्वेदपूर्वक कहा 'हे माता ! मुझे इसका पता नहीं था ऐसी बात नहीं है, और न मैं कम शक्तिशालो होनेके कारण ही चप रह गया है, अथवा यह सब राजा ( मेरे पिता) के द्वारा । ही किया गया है इस बातको भी उपेक्षा करके मैं तो युद्ध करनेका निर्णय करके वहीं डट गया था ।। ११ ॥ उसी समय कुछ और राजपुत्र मेरी सहायताके लिए कटिबद्ध हो गये थे फलतः मैंने वह तलवार उठायी थी जिसकी। जाज्वल्यमान किरणों को चारों ओर चकाचौंध फैला रही थी। "हे वरांगकुमार ! तुम या हम लोग हो पृथ्वोका पालन करेंगे?" कह-कर जब मैं मैदानमें जम गया था तब मुझे उस बुड्ढे मंत्रीने रोक दिया ।। १२ ॥ मृगसेनाका कुचक्र अपने पुत्रके वक्तव्यको सुनकर रानीने अपने विश्वस्त मंत्रीको बुलाया था। आते ही पहले तो उसका खूब स्वागत । सब स्वागत सन्मान किया और उसके उपरान्त साहसपूर्वक उससे यह वचन कहे थे ।। १३ ।। WALATASTISEMERGANISAR [१९७] १.क अतिमात्रां। २.क निस्फुटति । ३.[ मां न्यरुषत् ] । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः यथा पितृभ्यां प्रहितोऽस्मदर्थ तथोपकारो भवता कृतश्च । पत्नै म संपरिवर्ध्य भयो विच्छेत्स्यसि त्वं तव का चिकीर्षा ॥१४॥ वयं विशुद्धा यदि च त्वदर्थे अस्मत्सुहृद्धिः सुकृतं यदि स्यात् । निवयं तस्याद्य हि यौवराज्यं सुषेणयास्थापय यौवराज्ये ॥ १५ ॥ न्यायादपेतं यदि यक्तिमच्चा निशम्य राजीवचनं सबद्धिः। अपक्षरागस्त्वतिदूरदर्शी चिरं परीक्ष्येतदवोचदर्थम् ॥ १६ ॥ वाञ्छन्ति ये नाशयितु सपुण्यं ते यान्ति पूर्व हि विनाशमाशु । मत्तद्विपेन्द्रैः सह युध्यमानाः प्रयान्ति नाशं कलभाः पुरैव ॥ १७॥ न शक्यते स्थापयितु गतश्रीनं शक्यते नाशयितु पृथुश्रीः।। यथात्मना पूर्वमुपाश्रितश्रीस्तथैव सा संश्रयते नरः श्रीः ॥१८॥ जैसा कि मेरे माता पिताने आपको हमारी सहायताके लिए यहाँ भेजा था आपने समय पड़नेपर हमारी वैसी ही रक्षा की है, किन्तु जिस वृक्षको आपने इतनी चिन्ता और यत्नसे बढ़ाया है अब फिर उसे ही क्यों काटते हैं ! क्या आपकी कर्तृव्यशक्तिका यही रूप है ? ।। १४ ।। यदि हम लोग आपको दृष्टिमें शुद्ध हैं अथवा यदि हम लाग आपके शुद्ध पक्षपाती हैं, यदि हमारे कुटुम्बियों और मित्रोंने आपका कभी कोई उपकार किया है तो आज उस ( वरांग ) के यवराज पदके अभिषेकको उलट दीजिये और सुषेणको युवराजके सिंहासनपर बैठा दीजिये ।। १५ ॥ मंत्रीकी बुद्धि प्रखर तथा सत्पथ गामिनी थी अतएव रानीके नीति और न्यायके प्रतिकूल हो नहीं अपितु सर्वथा युक्तिहोन वचनोंको सुनकर भी उसके मनमें किसी प्रकारके पक्षपातकी भावना तक न जगी थी। वह अत्यन्त दूरदर्शी था। फलतः रानीके पूर्वोक्त कथनपर उसने काफी देरतक मन ही मन विचार किया और अन्त में इस प्रकारसे उत्तर दिया था । १६ ।। सन्मन्त्री-उपदेश _ 'जो व्यक्ति पुण्यात्मा साधुपुरुषोंका नाश करना चाहते हैं वे सबसे पहिले अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक स्वयं ही इस संसारमें निःशेष हो जाते हैं । क्या आपने नहीं सुना है कि जंगलमें जब हाथियोंके बच्चे विसी कारणसे मदोन्मत्त हाथियोंसे भिड़ जाते हैं । तो वे बड़े हाथियोंका बालबांका किये विना स्वयं ही पहिले मर जाते हैं ।। १७ ।।। जिस व्यक्तिके भाग्यसे लक्ष्मी उतर गयी है उसे प्रयत्न करके भो उन्नत पदपर नहीं बैठाया जा सकता है । इसी प्रकार । १. [ यदयुक्तिमच्च ]। २.क नर श्रीः, [ नरं श्रीः] । ।१२ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः अनागतं कार्यमुपस्थितं च येऽनात्मबुद्धचा प्रविचारयन्ति । स्वकार्यसिद्धि ानवाप्य मूढास्ते संश्रितैस्तैः सह यान्ति नाशम् ॥ १९ ॥ अबुद्धिमभिः प्रविकितोऽर्थो विनाशमभ्येष्यति निश्चयेन । आश्रित्य तस्माद्युवराजमेव संजीवनं नो हितमित्युवाच ॥ २०॥ इत्युत्तरं बुद्धिमतोपदिष्टं प्रत्युत्तरं वक्तमसावशक्ता। सा मन्त्रिणं प्राथितकार्यसिद्धौ प्रयाचमाना संसूतेन देवी ॥ २१ ॥ संचिन्त्य मन्त्री स्वशिरः प्रकम्प्य स्वस्वामिसंबन्धमवेक्षमाणः । संपूज्य देवीं ससुतां नताङ्गो भक्त्या क्रियाविगिरमित्युवाच ॥ २२ ॥ sweenawesomenexampesprespearespe-SHAYARITASupreypreerease जिसकी लक्ष्मी पुण्य और पुरुषार्थके कारण बढ़ रही है उसकी प्रतिष्ठा तथा पदका नष्ट करना भी संभव नहीं है । सत्य ता यह है कि पूर्वभवोंमें जीवके द्वारा जिस विधिसे पुण्यरूपी लक्ष्मी कमायो जाती है उसी विधिसे वह लक्ष्मो उस पुरुषको उत्तर भवोंमें वरण करती है ॥ १८ ॥ आ पड़े सामने खड़े करने योग्य कार्यको तथा भविष्यके कर्तव्यरूपसे उपस्थित होनेवाले कार्यको स्वयं समझे बिना ही केवल दूसरोंकी बुद्धि और तर्कणासे जो व्यक्ति समझनेका प्रयत्न करते हैं, उन मूर्खाको अपने कार्यमें सफलता नहीं मिलती है, इतना ही नहीं बल्कि उन कुमंत्रियों को सम्मतिको माननेके कारण वे स्वयं नष्ट होते हैं और साथमें उन अज्ञोंको भी ले डूबते जिनके पल्ले में बुद्धि नहीं है उनके द्वारा सोचो गयो याजनाएँ निश्चियसे विनाशके उदर में समा जाती हैं। इसलिए हम सबका इसीमें हित तथा कल्याण है कि हम युवराज वरांगको शरणमें रहकर अपना जीवन शान्तिसे बितावें ।' यही उसकी सम्मतिका सारांश था ।। २० ।। अकार्यमें सफल अनुनय हित तथा अहितके सूक्ष्मदृष्टा उस विवेको मंत्रीसे अपनो प्रार्थनाका उक्त उत्तर पाकर रानोको कोई प्रत्युत्तर ही नहीं । सूझा था इसलिए वह अपने मुखसे कुछ भी न कह सको थो। किन्तु जिस कार्यके लिए उसने मंत्रीसे निवेदन किया था उसीकी में सफलताके लिए वह अपने पुत्रके द्वारा याचना कराती हो रहो केवल स्वयं चुप बैठ रही थी ।। २१ ।। याचनाकी पुनरावृत्तिको सुनकर मंत्रोने सम्पूर्ण घटनाक्रमको गम्भीरतापूर्वक एक बार फिरसे विचारा, उसने अपने और अपने स्वामी ( रानोके पिता और माता ) के बोचके सम्बन्धपर भो एक तीक्ष्ण दृष्टि डालो, विमर्ष और निश्चयसूचक ढंगसे १.क प्रतिचारयन्ति । Jain Education intomational Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् LOPMETHNICATI द्वादशः सर्गः यद्यस्ति पुण्यं तनयस्य तेऽस्य' तन्मे सहायत्वमुपैति देवि । कालेऽभ्युपायोद्यतशस्त्रशक्तिः सिद्धय यतिष्ये धृतिमेहि साध्वि ॥ २३ ॥ अन्योन्यसंप्रत्ययकारणानि परैरवज्ञातपथस्थितानि । रहस्युपामन्त्र्य तदर्थजानि शनैरपेयुर्दढगूढमन्त्राः ॥ २४ ॥ संधकामश्च सुषेणराज्यं वराङ्गराज्यं विनिहन्तुकामः । तिष्ठन्त्रजज्जाग्रदपि स्वयं च रन्ध्राणि पश्यन्प्रणिनाय कालम् ॥ २५ ॥ उद्यानयाने बलदर्शने वा सभास्वरण्येषु पुरान्तरेषु । क्रीडासु नानाविधकल्पनासु छिद्रप्रहारो स बभूव तस्य ।। २६ ॥ i mensinessuremstmenesTRISHNASHea H IRDatext-423LIT. अपने शिरको हिलाया, इस प्रकार किसी निर्णयपर पहुँचकर कर्तव्यके विशेष ज्ञाता उस मंत्रीने पुत्र सहित रानीको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और निम्नप्रकारसे कहा । २२॥ ___ 'हे देवि ! यदि आपके इस पुत्र सुषेगका वास्तवमें कुछ भी पुण्य अवशिष्ट है तो वह सब आजसे ही प्रकृत कार्यमें मेरा सहायक हो ? मैं सब प्रकारसे उपाय करके शस्त्रको शक्ति या सैन्यबलको खड़ा कर लेनेपर समय आते ही सफलताके लिए पूर्ण प्रयत्न करूँगा, तब तक हे साध्वि ? आप धीरज धरें ।। २३ ॥ इसके उपरान्त आपसी सन्देह दूर करने तथा विश्वास दिलानेको इच्छासे उन्होंने प्रकृत कार्य सम्बन्धी अनेक विषयोंपर एकान्तमें गढ़ मंत्रणा की थी, जिसको उचित स्थान, काल और व्यक्तिके साथ किये जानेके कारण दूसरोंको गंध भी न लगी थी। इस प्रकार दृढ़ और गम्भीर मंत्रणा करनेके बाद वह चला गया था ।। २४ ।। अब उसकी यही अभिलाषा था कि किसी प्रकार सुषेणका राज हो तथा कुमार वरांगके राज्यकालका शोघ्रसे शीघ्र अन्त हो । अतएव वह बैठे हुए, चलते हुए, सोते-जागते हुए, आदि सब ही अवस्थाओंमें वरांगके राज्यके दुर्बल तथा दूषित अंगोंको स्वयं ही खोजनेमें सारा नमय बिताता था ।। २५ ॥ कुमार वरांगके वायु सेवनके लिए उद्यानमें जानेपर, शारीरिक शक्तिके प्रदर्शनके अवसरपर, सभामें राजकार्य करते । समय, आखेट आदिके लिए वनमें जानेपर, किसी दूसरे नगरमें पहुँचनेपर, खेल कूदमें तथा नाना प्रकारकी अन्य कल्पनाओंके सहारे वह कुमार वरांगके छिद्रोंको (कमियों) खोजता था और उन सब दुर्बलताओंको अपने कामकी सिद्धिमें लगानेका प्रयत्न करता था ॥ २६ ॥ ResmameeSpasmamepreneamr casRTAWA [२००] । १. म तस्य । २. म तिमाह° । Jain Education international Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग द्वादशः सर्गः चरितम् ताम्बूलधूपाञ्जनभैषजेषु वस्त्राद्यलचारविलेपनेषु । मालासु शय्यासनवाहनेषु द्रष्टं नरं प्राणि शशाक राज्ञः ॥ २७॥ नवान्नवांस्तानपरिश्रमेण प्राप्तानदाराविषयोपभोगान् । अभ्यर्थमानानकृतैर्मनुष्यैः समश्नुवानस्य । ततः कदाचिद्भुगलीश्वरेण संप्रेषितौ तौ युवभूमिपाय । जात्या किशोरौ कमनीमरूपावावासभूमौ शुभलक्षणानाम् ॥ २९ ॥ शुभान्वयौ बालमृगेन्द्रतुल्यौ हयोत्तमौ भूमिपतिः समीक्ष्य । को नाम शक्तो विनिनेतुमेतावित्यभ्यवोचत्सहसा सभायाम् ॥ ३०॥ तद्वाक्यलब्धावसरः स मन्त्री उत्थाय सोऽन्तर्हदि जातहर्षः। मत्तोऽस्ति कश्चित्पुरुषो विनेता द्रक्ष्यामि साधं कतिचिहिनानि ॥ ३१ ॥ यह सब करके भी वह कुमार वरांगके कपड़ों, आभूषण, विलेप, पानपत्ती, धूप आदि सुगन्धित पदार्थों, माला आदि वर प्रसंग, शय्या, आसन तथा घोड़ा आदि वाहनकी व्यवस्थामें कोई दुर्बल स्थान ( छिद्र ) या व्यक्ति न पा सका था जिसके द्वारा वह उसके जीवनपर आक्रमण करता ॥ २७॥ उसका समय उन कृतघ्न नीच पुरुषोंसे मिलते जुलते वोतता था जो शारीरिक, मानसिक या अन्य किसी प्रकारका परिश्रम नहीं करते हैं। तथापि पुण्य-श्रमके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली विशाल भोग-उपभोगको सामग्री तथा इन्द्रियोंके अन्य विषयोंको प्रतिदिन नये-नये रूप और ढंगसे पानेकी अभिलाषा करते हैं ।। २८॥ षड्यन्त्र प्रारम्भ इस प्रकार बहुत समय वीत जानेपर एक दिन भृगलोके एकच्छत्र अधिपतिने युवा राजा वरांगके लिए दो श्रेष्ठ घोड़े भेजे थे। उन दोनोंकी जाति (मातृकुल, नस्ल) तथा अन्वय (पितृकुल) उन्नत और शुभ थे, उनकी अवस्था भी उस समय किशोर थी, दोनोंका रूप अत्यन्त आकर्षक था, घोड़ोंमें जितने भी शुभ लक्षण हो सकते हैं उन सबकी तो वे दोनों निवास भूमि ही थे ॥२९॥ तथा देखनेपर वे रूढ मृगराज ( नहीं) सिंह के उत्तम मृगके शावकों समान भोलेभाले लगते थे। जब राजाने इन दोनों किशोर घोड़ोंको देखा तो सहसा हो राजसभा में उसके मुखसे निकल पड़ा कि इन दोनों घोड़ोंको कौन व्यक्ति भलीभांति शिक्षा देकर निकाल सकता है ।। ३०॥ राजाके इस वाक्यने मंत्री को षड्यंत्र करनेका अवसर दिया फलतः आनन्दसे उसका हृदय विकसित हो उठा था १.[ द्रष्टुं न रन्ध्राणि । २. क विनेतुमेता, [ शक्तो हि विनेतु.]। ३. [ साथ ] । Jain Education international de [२०१] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् Part-arke इत्युक्तवन्तं गतवन्तमन्तं शास्त्रार्णवस्योत्तरमन्त्रिणं तम् । संपूज्य राजा वरहेमरत्नैरश्वोत्तमौ तौ विससर्ज तस्मै ॥ ३२ ॥ तेनाश्वशास्त्रक्रमको विदेन मासैश्चतुभिः परिपुष्टात्रौ । धूपाज्जनैर्मन्त्र पवित्रभूतैर्हयोत्तमौ तौ दमितौ यथावत् ॥ ३३ ॥ न्यायोपदेशेन च दान्त एको मायाप्रयोगेन तथा द्वितीयः । गृहीतशिक्षौ तपनीयभाण्डावादाय मन्त्री नृपमाससाद' ॥ ३४ ॥ पुराद्वहिर्मण्डलभूमिमध्ये आरुह्य सोऽश्वं जनतासमक्षम् । वीथीविभागैर्गमयन्सलीलं जहार सद्यो युवराजचित्तम् ।। ३५ ।। फलतः उसने खड़े होकर कहा था 'यदि कोई पुरुष मुझसे बढकर घोड़ा निकालनेवाला हो तो मैं उसके साथ कुछ दिनोंतक इन घोड़ों को शिक्षित करके देखूंगा कि कौन पहिले सुशिक्षित करता है ।। ३१ ।। यह सब हो जानते थे कि उक्त मंत्री समस्त शास्त्रोंरूपी समुद्रोंके पारंगत है अतएव जब उसने पूर्वोक्त प्रकारसे उत्सुकतापूर्वक उत्तर दिया तो राजाने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, तथा उत्तम सुवर्णके आभूषण, रत्न आदि देकर उसका सन्मान करके उसको वह दोनों बढ़िया घोड़े निकालने के लिए दे दिये थे ।। ३२ ।। प्रकृत मंत्री अश्वशास्त्र ( लक्षण आदि से घोड़ा पहिचानना, किस बातका घोड़े पर क्या असर होता है, इत्यादि सब ही बातें) तथा घोड़े की शिक्षा के क्रमका विशेषज्ञ था। उसने धूप, अञ्जन, मंत्र तथा अन्य प्रकारसे दोनों घोड़ों को पवित्र किया था। इसके उपरान्त उन दोनों हृष्ट-पुष्ट उत्तम घोड़ों को विधिपूर्वक चार माहतक पालतू बनाकर शिक्षा दी थी ।। ३३ ।। एक घोड़ेको शुभ गतियों आदिकी न्याययुक्त (शुभ) शिक्षा देकर सर्वथा उपयोगी बनाया था तथा दूसरे को छल कपट करनेका अभ्यास कराके भयावह बना दिया था। निकाले जानेके बाद दोनों घोड़े ऐसे सुन्दर लगते थे मानो असीम द्रव्यसे भरे शुद्ध सोनेके कलश हैं । अन्त में इन दोनों घोड़ों को लेकर एदिकन मंत्री राजा के सामने उपस्थित हुआ था ।। ३४ ।। नगरके बाहर एक वृत्ताकारविशाल क्रीड़ा क्षेत्र था, वहीं पर राजा और प्रजा नये घोड़ोंका कौशल देखनेके लिए एकत्रित हुए थे। सबके सामने मंत्री वहाँ सोधे घोड़े पर सवार होकर उसे नाना प्रकारको मुन्दर चालें चला रहा था, जिन्हें देखते ही युवक राजाका चित्त उन घोड़ों पर मुग्ध हो गया था ।। ३५ ।। १. म आससार । For Private Personal Use Only द्वादशः सर्गः [२०२] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः अश्वक्रियास्वप्रतिकौशलस्य ज्ञात्वा कुमारस्य सदर्थतोषम् । सर्वाश्च सभ्यानभिसंस्तुवानानुवाच मन्त्री प्रियमित्थमाशु ॥ ३६ ॥ अतो विशिष्टो हय एष राजंस्तवैव योग्यस्त्विति संप्रभाष्य । दुःशिक्षितं वारितवागशीलं निवेदयामास युवेश्वराय ॥ ३७ ।। प्राप्तव्यतायास्तुरगानुरागायुवत्वगर्वोद्धतगौरवाच्च । दुर्गाहितं तं ह्यपरीक्ष्य साक्षादारोढुमिच्छन् नृपतिस्तदानीम् ॥ ३८ ॥ तुरङ्गमनाङ्गतरवल्गं सद्रत्नविद्युत्परिणद्धगात्रम् । मानल्यवेषः क्रिययाभिरुह्य चित्रं महत्या गमयां बभूव ॥ ३९ ॥ अथर्जुना तेन यथाविनीतः कशा कशष्ठैरवबोध्यमानः (?)। क्रोधोद्धतो वायुसमानरंहा धनुविमुक्तेषुरिव प्रयातः ॥ ४० ॥ षड्यन्त्र कार्यान्वित कुमार वरांग घोड़ोंको चाल, आदि क्रियाओं में इतने दक्ष थे कि इस विषयमें दूसरा उनकी बराबरी कर ही नहीं सकता था, फलतः वे घोड़ेकी शिक्षासे परम संतुष्ट हुए थे। मंत्री को जब इस बातका पता लग गया तो उसने घोड़ेकी प्रसंसा करनेवाले वहाँ उपस्थित नागरिकों का इन मधुर वाक्योंसे शीघ्र संबोधन किया था ।। ३६ ।। हे महाराज! यह दूसरा घोड़ा जिसकी आप तथा सब लोग प्रसंसा कर रहे हैं इस घोड़ेसे भी बहुत अधिक विशिष्ट है तथा आपके ही चढ़ने योग्य है; यह कहकर उसने दुसरे घोड़ेको जिसे छलकपट की शिक्षा दी गयी थी तथा जिसका स्वभाव और चेष्टाएँ अशुभ हो चुकी थीं उसे हो ले जाकर युवक राजाके सम्मुख उपस्थित कर दिया था ॥ ३७॥ भवित्तव्य वैसी ही थी इस कारणसे, घोड़े पर आरूढ़ होकर होने को तीव्र अभिरुचिके कारण अथवा यौवनमें सुलभ उद्धततासे उत्पन्न आत्म गौरव की भावनाके कारण ही युवराज वरांगने उस कुशिक्षित घोड़ेकी परीक्षा करना आवश्यक न समझा तथा उसी समय उसपर सवार होनेके लिये उद्यत हो गया था ।। ३८॥ वह घोड़ा भी क्या था, उसका अंग-अंग चंचल और सुन्दर था, उसका शरीर उत्तम रत्नोंकी माला, आदि सज्जासे ढका हुआ था । कुमार वरांग मंगलमय अवसरोंके लिए ही उपयुक्त-साधारणतया सवारी के लिए अनुपयुक्त–वेशभूषामें ही उस घोड़े पर विधिपूर्वक चढ़ गये और आश्चर्य की बात है कि तुरन्त ही उसे महती सरपट गतिसे चलाना प्रारम्भ कर दिया ।। ३९ ।। इसके उपरान्त जैसी कि उसे कुटिल शिक्षा दी गयी थी उसीके अनुसार बार-बार लगाम खींचकर कशा मारकर रोके 1 १. [ तदर्थं ] । २. [ °वेग° ]। ३. [ आरोढुमच्छत् ] । ४. [ चित्तं....रमयां ] । ५. म शशाक शष्ट । ६. म रहो। DASHRATIVELYRIEDOSTIOANTARIKE [२०३ ] माया Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् दुःशिक्षया क्षोभितदुष्टचित्तो नरेश्वरेणाश्वमता श्रमेण । निवय॑मानोऽप्यनिवृत्तवेगः क्रोधादतिक्रम्य गतोऽतिदूरम् ॥ ४१ ॥ संज्ञानभिज्ञेन नरेश्वरेण कृतानि कर्माण्यफलान्यभूवन् । उन्मार्गशिक्षे हि तुरङ्गमुख्य वक्रस्वभावे स्वकृतानि यद्वत् ॥ ४२ ॥ द्वाभ्यां भुजाभ्यामथ संनिरोद्ध यथा यथावाञ्छदतुल्यतेजाः । निरुध्यमानस्तुरगो जवेन तथा तथाधावदवार्यवीर्यः ॥ ४३ ॥ ग्रामाकरांश्चापि म'टम्बखेटान्पुराणि राष्ट्राणि बहून्यतीत्य । देशान्तमाशु प्रजगाम वाजी पातों यथोत्पातिकवातधमः ॥ ४४ ॥ द्वादशः सर्गः PS.COWASSASSWWWWWWWW जानेपर भी वह घोड़ा क्रोधके कारण उदण्ड होता जाता था और उसपर नियन्त्रण रखना असम्भव हो रहा था । थोड़ी ही देरमें उसका वेग वायु के समान तीव्र हो गया था फलतः वह धनुषपरसे छोड़े गये बाणकी तरह बहुत दूर निकल गया था ॥ ४० ॥ . मंत्री को कुशिक्षाने घोड़े के हृदयको इतना दूष्ट तथा क्षुब्ध कर दिया था कि अश्वचालनमें कुशल युवक राजा ज्यों-ज्यों पारश्रम करके उसे पीछेको मोड़ना चाहता था त्यों-त्यों उसका क्रोध बढ़ता था और गतिका बेग थोड़ा-सा भी नहीं घटता था, फलतः वह कितने ही स्थानोंको पार करता हुआ बहुत दूर निकल गया था ।।४।। अकस्मात् आये उपद्रवके कारण विचार करनेमें अक्षमर्थ राजा घोडेको नियन्त्रणमें लानेके लिए जो-जो प्रयत्न करता था वह वह निष्फल होता था क्योंकि उस बलिष्ठ एवं उत्तम घोडेको उल्टा आचरण करनेकी ही शिक्षा दी गयी थी। उसके साथ किये गये प्रयत्नोंका वही हाल हो रहा था जो कि सत्कर्मोका नीच स्वभाववाले व्यक्ति पर होता है ।। ४२ ॥ _ अनुपम पराक्रमी युवक राजा दोनों हाथोंसे लगामको खींच कर ज्यों-ज्यों उस दुष्ट घोड़ेको रोकनेका प्रयत्न करते थे, रोके जानेके कारण ( उल्टा अभ्यास होनेसे इसे वह दौड़नेका संकेत समझता था) त्यों-त्यों उसकी गति बढ़ती ही जाती थी। 7 उसकी शारीरिक शक्ति भी नियन्त्रणसे परे थी इसलिए वह और अधिक वेगसे दौड़ता था ।। ४३ ।। मार्गमें पड़े अनेक ग्रामों, खनिकोंकी बस्तियों मडम्बों, खेटों, नगरों, राज्यों आदिको शीघ्रतासे पार करता हआ वह 8 किसी अज्ञात देश में वैसे ही जा पहुंचा था जैसे, ऊपरकी ओर फेंका गया जल नीचे आता है अथवा जिस प्रकार प्रलयकी आँधी 1 [२०४] । बहती है अथवा जैसा धुआँ उड़ता है ।। ४४ ।। DEARRIEEEEEEEEET- चाouTIMESSETTE १. क मडम्ब। २.क पाथो। ३. म यथोत्पातित । Jain Education international Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग द्वादशः चरितम् सर्गः अथेतरे वाजिगजा नराश्च महाजवास्तेऽप्यनुगन्तुकामाः । नाशक्नुवन्पक्षिगणाः समेताः खे संपतन्तं गरुडं यथैव ॥ ४५ ॥ क्वचित्तरूणां गहनान्तरेषु निम्नोन्नतोपान्तवनस्थलीषु । तुरङ्गवेगानन्यपतच्छिरस्स्थं किरीटमनाच्च विभूषणानि ॥ ४६॥ अथोत्तरीयं निपपात भूमौ माला विशीर्णा हृदयं विषण्णम् ।। तनश्चकम्पे वदनं शशोष बभ्राम दष्टिः पिदधौ अतिश्च ।। ४७॥ अथावनोशः क्रममन्दशक्तिहयप्रवेगोन्मथितप्रतापः । बल्लीतृणाच्छादितकृपरन्ध्र पपात तेनैव हयेन सार्धम् ॥४८॥ निपत्य तस्मिन्स पुराकृतेन हयो मृतश्चूर्णितसर्वगात्रः । लतां गृहीत्वा स्वयमन्तराले कपाच्छनैर्ध्वमथारुरोह ॥ ४९ ॥ वराङ्गकी अवस्था इधर उसे वेरोक भागता देखकर उसका पीछा करनेके लिए कितने हो अत्यन्त वेगशाली घोड़े, हाथी तथा मनुष्य उसके पीछे दौड़कर भी उसे उसो प्रकार नहीं पा सके थे जैसे बेगसे झपट्टा मारकर उड़नेवाले गरुड़को आकाशमें समस्त पक्षी मिलकर भी नहीं रोक पाते हैं ।। ४५ ॥ वह दुष्ट घोड़ा अत्यन्त घने और नीचे वृक्षोंके नीचेसे तथा मागोंके आसपासको नीची ऊँची वनस्थलियोंमेंसे अत्यन्त । वेगसे दौड़ा जा रहा था, फलतः इतस्ततः उलझकर वराङ्गके मस्तकपर बंधा मुकुट तथा अन्य अंगोंसे आभूषण गिर गये थे ॥४६॥ उत्तरीय ( ऊपरका दुपट्टा ) वस्त्र पृथ्वीपर गिर गया था, गलेकी माला फंसकर टुकड़े-टुकड़े होकर गिर गयी थी, हृदय विषादसे भर गया था, पूर्ण शरीर आवेगसे काँपने लगा था, अनुताप और पिपासाके मारे मुख सूख गया था, आँखें अनिष्टकी आशंकासे घूमने लगी थीं तथा कान बहरेसे हो गये थे ।। ४७ ।। इतनी देरतक घोड़ेकी अत्यन्त तीव्रगतिको सहनेके कारण राजाकी शक्ति धीरे-धीरे कम होने लगी थी तथा सारा पराक्रम और पुरुषार्थ ढीला पड़ चुका था। फल यह हुआ कि लताओं तथा घाससे ढके हुये एक कुएँमें वह उस दुष्ट घोड़ाके साथ जा पड़ा ।। ४८ ॥ अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मोके कुफलसे कुएँ गिरते ही उस दुशिक्षित घोड़ेका अंग-अंग चकनाचूर हो गया था और । १. क तिरीट'। २. क स्वपुराकृतेन । ३. म स्वयमन्तराणि । -HATRAPAHARAMESHISHEAHESHPAHAre [ २०५] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् तत्रोपविश्याप्रतिकान्तरूपः क्षुधा तृषा श्रान्ततनुढेवेन्द्रः। सशर्करापांशुखरप्रदेशे महीतले मोहमुपाजगाम ॥ ५० ॥ आप्यायितः शीतवतानिलेन शनैः समुन्मीलितचारुनेत्रः । उच्छ्वस्य दीर्घ स्वतन विलोक्य निनिन्द संसारचलस्वभावम् ॥ ५१ ॥ विचिन्त्य मातापितरौ स्वबन्धन्मित्राणि भूत्यानथ देशकोशान् । वधूच ता देववधूसमानाः क्लेशाभिभूतो विललाप तत्र ॥५२॥ शोको भवेद्वन्धुजनैवियोगाद्धयं त्वभूद्राजसुताभिमानात् । कोपोऽभवन्मन्त्रिकृतावमानाद्विरागताभदनवस्थितत्वात् ॥ ५३॥ RELIERSP द्वादशः. सर्गः वह तुरन्त मर गया था। किन्तु युवक राजाने बोचमें ही किसी बेलको पकड़ लिया था फलतः मृत्युसे बच गया और धीरे-धीरे कुएंसे बाहर निकल आया था ।। ४९ ॥ वनवासी अशरण वरांग बाहर आते ही युवराजने बैठकर मुक्तिकी साँस लो थी, किन्तु उसका अनुपम कान्तिमान तथा वलिष्ठ युवक शरीर भी भूख प्यासके कारण बिल्कुल थक गया था। परिणाम यह हुआ कि बाल, धूल, कंकड़ आदिके कारण अत्यन्त कठोर स्थलपर ही मूच्छित होकर गिर गया ।। ५० ।। किन्तु जंगलकी शीतल वायुने उसके ताप और थकानको दूर करके फिर उसमें चैतन्य भर दिया तब उसने धीरे-धीरे अपने सुन्दर नेत्रोंको खोला। आँखें खोलते हो उसने विषादसे दीर्घ साँस लेकर एक बार अपने पूर्ण शरीरपर दृष्टि डाली थी, जिसे देखते ही आपाततः उसके मुखसे संसारकी अस्थिरताको निन्दा निकल पड़ी थी॥ ५१ ।। जब उसे अपने वृद्ध माता-पिताका ध्यान आया, बन्धु बांधवों तथा मित्रोंकी मधुर स्मृतियाँ आयीं, आज्ञाकारी सेवकों, राज्य तथा खजानेके स्मरण आये तथा स्वर्गकी अप्सराओंके समान सुन्दरी तथा गुणवती स्त्रियोंके विरहके कारण हृदयमें टीस उठी तो उसका हृदय दुःखसे भर आया और वह विलाप करने लगा था ॥५२॥ कुटुम्बी, हितैषी, प्रेमियों आदिसे विरह हो जानेके कारण उसे दुःख हुआ था, किन्तु दूसरे ही क्षण उसका यह अभिमान ( आत्मविश्वास ) जाग उठा कि वह राजपुत्र है। यह सोचते ही उसे धैर्य बँधा फिर क्या था, इसके उपरान्त उसे मंत्रीका कपट याद आया और वह क्रोधसे लाल हो उठा था। दूसरे ही पल संसारको अस्थिरता पर दृष्टि पड़ते ही उसे वैराग्य हो आया था ।। ५३ ॥ १. [ शोकोऽभवद्वन्धु'] । IRATRISATISHARE [२०६] Jain Education international Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः यद्यजनावद्हृदि सत्त्वहीनो निरर्थमासे विजने वनेऽहम् । आपत्प्रतीकारमवेक्षमाणो नावश्यमाप्स्यामि पुनविभूतिम् ॥ ५४॥ अरण्यवासो न शुभावहो मे इह स्थितेनैव गृणोऽस्ति कश्चित् । इतो वजामीति मति निधाय धुति प्रतिष्ठाप्य महानुभागः ॥ ५५॥ प्रालम्बकाद्यानि विभूषणानि भ्रष्टावशेषाण्यवलुउच्य देहात् । विसृज्य कृपे च विचिन्त्य दूरं ततः प्रतस्थे नवरोऽतिसत्त्वः ।। ५६ ॥ भुजङ्गमातङ्गविहङ्गजुष्टां महाटवों श्वापदसेवितां ताम् । अनेकवृक्षापगुल्मकक्षां चचार दिङ्मूढमतिः स एकः ॥ ५७ ॥ सूर्ये तदास्तगिरिमभ्युपेते व्याघ्रं च तत्कालमनुप्रयासम् । समीक्ष्य चासन्नतयातितर्ण नपात्मजः पादपमारुरोह ॥ ५५॥ पुरुषार्थका उदय यदि मैं कोमलांगी ललनाकी तरह मनोबलको खोकर निराश होकर इस निर्जन जंगलमें पड़ा रहता हूँ, कुछ पुरुषार्थ नहीं करता हूँ और यही आशा लगाये रहता हूँ कि अपने आप ही किसी प्रकार इस विपत्ति से मुक्ति मिल जायगी तो निश्चित है कि अब मैं पुनः राज्य सम्पदाको न पा सकूगा ।। ५४ ।। यदि मैं अब बनवास करनेका हो निर्णय कर लू तो न मेरा भला होग। और न यहाँ रहनेसे और किसीका ही कोई शुभ होगा। यह सब सोचकर उस महा-भाग्यशालो राजकुमारने धीरज बांधा और कहा, यहाँसे चलता हूँ ।। ५५ ।। इस निर्णयको करके प्रालम्बक (लम्बा हार आदि लटकते भूषण) आदि उत्तम भूषगोंको जो दौड़ते समय गिरनेसे बच गये थे उन्हें अपने आप शरीरपर से नोंचकर उप कुंये में फेंक दिया था तथा थोड़ी देर सोचकर वह महाशक्तिशाली नृपति वहाँसे किसी दूर देश को चल दिया था ।। ५६ ।।। जिस जंगलसे बह चल रहा था वह सांपों, हाथियों, भयकर पक्षियोंसे खचाखच भरा था विविध प्रकारके हिंस्र पशु सिंह आदिका तो घर ही था। उसमें पग-पग पर घने वृक्ष, छोटे छोटे पौधे, झाड़ियाँ आर खोहों समान घना वन मिलता था, हा समान ना मामलता था, वह इन सबमें से चला जा रहा था, यद्यपि उसे दिशा तक का ज्ञान न था ।। ५७ ।। इस प्रकार चलते-चलते सूर्य के अस्ताचलपर जा पहुँचते हो उसने देखा कि एक बाध उसका पीछा कर रहा था तब वह युवक राजा उसे अपने अत्यधिक निकट पाकर बड़ी शीघ्रता के साथ एक वृक्षपर जा चढ़ा था ॥ ५८ ।। For Privale & Personal use only DISCLAIMERaaनालाबाराया [२०७] Jain Education international Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् आहत्य पुच्छेन तलं धराया दृष्ट्वोर्द्धदृस्टिविटपे निविष्टम् । उद्वेजयन्भीमवपुस्तदानीं शार्दूलपोतः प्रसभं जगर्ज ।। ५९ ।। शार्दूलनिर्भत्सन विस्मिताक्षः शाखान्तरे भूमिपतिनिविश्य । निरीक्षमाणः स च तद्विकारान् कृच्छ्रेण रात्रि गमयां वभूव ॥ ६० ॥ वियोगचिन्ताकलुषीकृतस्य परिश्रमम्लानमुखाम्बुजस्य । क्षुत्तर्षतान्तस्य' सवुः स्थितस्य एका निशानेकनिशेव सासीत् ।। ६१ ।। न चामिषा सा प्रतिबद्धचित्तो निर्गन्तुमिच्छन्निपतिष्यतीति । शार्ङ्गं लयान प्रतिलिप्समानो राजपुत्रोऽप्यवरोहमैच्छत् ॥ ६२ ॥ मत्तमहाकरोन्द्रं करेणुभिः सार्धमभिप्रयातम् । इत्थंगते विलोक्य दूरान्नृपतिर्ननाद व्याघ्र गजेन्द्र ेण विमर्दयिष्यन् ॥ ६३ ॥ आपत्ति में आपत्ति उसी समय सिंहके शावकने क्रोधसे भूमिपर अपनी पूंछ मारकर ऊपर नजर फेंकी। तथा राजकुमार को वृक्ष को शाखा पर बैठा देखकर उसने अपने भयंकर शरीरको फुलाकर उसी समय बड़े जोरसे गर्जना की थी ।। ५९ ।। सिंह की धमकी युक्त गर्जनाको सुनकर राजकुमारी की आँखें भय तथा आश्चर्य से फैल गयी थीं। उस शाखातक उचक सकनेका कुछ भय था इसलिए वह दूसरो शाखा पर जा बैठा और वहोंसे सिंह को क्रोध, लपकने, आदि कुचेष्टाओं आदि समस्त विकारों को देखते हुए उसने किसी तरह अत्यन्त कष्ट एवं चिन्ता में रात काटी थी ॥ ६० ॥ १. मक्षुततार्तस्व । वियोग शोक और भविष्यको चिन्ताओंके कारण वह उदास था, दिन रातके परिश्रमके कारण उसका सदा विकसित मुखकमल भी म्लान हो गया था, भूख और प्याससे व्याकुल था इतना ही नहीं वह अत्यन्त विषम परिस्थितियों में पड़ गया था और दुखद स्थानपर बैठा था फलतः उस एक रातको काटनेमें हो उसे ऐसा लगा था मानो कई रातें बीत गयीं हों ॥ ६१ ॥ उस सिंहका चित्त मांसकी आशा में इतना लीन हो गया था कि 'अब तब गिरेगा' यहीं सोचने के कारण वह वृक्ष के नीचे से हिलना भी नहीं चाहता था, तथा युवक राजा भी हृदयसे यही चाहता था कि वह सिंह चला जाय इसी आशा में वह नीचे उतरनेका विचार भी न करता था ।। ६२ । जब यह जटिल परिस्थिति हो गयी थी तो उसी समय राजाने दूरसे देखा कि एक मदोन्मत्त जंगली हाथी हथिनीके साथ चला जा रहा है, 'उसने सोचा क्यों न सिंहको मत्त हाथीसे कुचलवाया जाय' इसी इक्छासे उसने जोर से हाथी को ललकारा था ।। ६३ ।। ४. क निमर्दयिष्यं, [ निमन्त्रयिष्यन् ] । न २. [ चामिषाशाप्रति° ] । ३. [ निर्गन्तुमैच्छत् ] द्वादश: सर्ग: [२०८] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् आकर्ण्य नादं सहसा निवृत्तः क्रोधोद्धृतः' सोच्छ्रितकर्णपुच्छः । विशेषसंप्रश्नुतिदानलेखो' गर्जन्गजो वायुरिवाजगाम ॥ ६४ ॥ गजं तमायान्तमुदग्रकोपाव्याघ्रः समुत्प्लुत्य तदंश कुम्भे। बष्टोऽतिरुष्टः स च दन्तकोटया जघान शार्दूलमधो निहत्य ॥ ६५ ॥ स तस्य संप्रेक्ष्य गजेश्वरस्य जयं महान्तं रिपुमर्दनस्य । अन्तर्गतप्रीतिमनाः कृतज्ञो युवेश्वरो वाक्यमिदं जगाद ॥६६॥ ममाशरण्यस्य बने स्थितस्य व्याघ्रातिनिर्भर्त्सनभोषितस्य । व्यपेतमित्रार्थकलत्रकस्य त्वयेभ दत्ता प्रियजीविताशा ॥ ६७॥ द्वादशः सर्गः मनुष्य की गर्जना सुनकर हाथी एकदम लौट पड़ा, क्रोधमें चूर होनेके कारण उसके कान और पूंछ खड़े हो गये थे उसके गण्डस्थलों से मदजल की विशेष मोटो धार बह रहो थो, ऐसा वह उद्दण्ड हाथो चिंघाड़ता हुआ वायुके वेगसे उस स्थल पर आ टूटा ।। ६४ ॥ हाथी को लपकके आता देखकर सिंहको क्रोधाग्नि 'भभक उठी थी फलतः उसने उछलकर सिंहके गण्डस्थल पर पंजा मारा । इस प्रकार काटे जानेपर हाथीका क्रोध अन्तिम सीमा को लांघ गया था अतएव उसने सूडसे नीचे गिराकर दांत की नोकसे उसे मार डाला था । ६५ ।। सिंह ऐसे शत्रु को चकनाचूर कर देनेवाले उस हाथियोंके राजाको उस महान् विजयको देखकर विपद्ग्रस्त राजकुमार का मन और हृदय प्रेमसे भर आये थे। युवराजका कृतज्ञताका भाव इतना उमड़ आया था कि सहसा उसके मुखसे यह बचन निकल पड़े थे ।। ६६ ॥ कृतज्ञतानुभवन हे गजराज ! मैं इस वनमें ऐसी परिस्थितिमें पड़ गया है कि यहाँ मुझे कोई शरण नहीं है, भूखा बाघ क्रोधसे बारबार गरजकर मुझे धमका रहा था जिससे मैं अत्यन्त डर गया था, न मेरे पास धन है न मित्र ही हैं जो सहायता करें और न स्त्री ही है जो दुःखमें भाग बटाती ऐसे असहाय मुझमें तुमने ही परमप्रिय जीवनकी आशाका संचार किया है ॥ ६७ ।। AmrupauranRIESELIGAR [२०९] २. क संप्रश्रुति, [ संप्रति ]। ३. क वाजिरिवाजगाम । ४. म तदंशु, [ तदेस ] । १. [ क्रोधोद्धतः]। ५. क दष्टेतिरुष्टः। Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् Like The Tikk गजेश्वरस्त्वं मनुजेश्वरोऽहं त्रातुं भवानेव हि मामतोऽर्हः । आपद्गतानां हि सतां सहाया भवन्ति लोके महतां महान्तः ॥ ६८ ॥ पूर्वं महीपालसुतस्त्वभूवन्तीत' सुतोऽहं तव नागवर्यं । तवोपचारप्रतिकारता हि न शक्यते जन्मशतेन कर्तुम् ॥ ६९ ॥ प्रियाभिराभिर्वर हस्तिनोभिर्वनं चिरं पालय वीतशोकः । इतीभमित्थं वचनैः प्रशस्य गते करीन्द्रेऽवततार वृक्षात् ॥ ७० ॥ क्षुधाभिभूतस्तृषया परीतः पानीयमिच्छंस्त्वरितं तरस्वी । यथार गजेन्द्रानुविर्मादतेन व्रजन्स रोऽपश्यददूरदेशे ॥ ७१ ॥ सरः प्रसन्नोदकमत्यगाधं मन्दानिलोत्कम्पितरङ्गमालम् । सच्छन्न फुल्लोत्पल पुण्डरीकं मदप्रलापाण्डज मृष्टनादम् ॥ ७२ ॥ तुम हाथियोंके अधिपति हो और मैं भी मनुष्यों का शासक हूँ अतएव तुम्हारा ऐसा जीव ही मेरी सहायता कर सकता है, किसी अन्य शक्तिशालोके वशकी यह बात नहीं है। संसार का यहो नियम है कि जब साधुचरित महात्मा लोग विपत्ति में पड़ जाते हैं तो उनके समकक्ष महापुरुष ही उन्हें सहारा देते हैं ।। ६८ ।। मैं जन्म से ही राजपुत्र था और विमाताके षड्यन्त्र से दुष्ट घोड़े पर सवारी करने से यहाँ इस दुःस्थितिमें पड़ गया था । हे गजराज ! तुमने मेरा उद्धार किया है। आपकी इस कृति (रक्षा) का प्रत्युपकार (बदला) में संकड़ों जन्मों में नहीं कर (चुका) सकता हूँ ॥ ६९ ॥ श्रेष्ठ हथियाँ जो कि तुम्हारी प्रियतमा हैं इनके साथ चिरकाल तक जंगलकी रक्षा करो, तुम्हें कभी किसी प्रकारके शोक संतप्त न होना पड़े, इत्यादि प्रिय बचन कहकर उसने हाथी की प्रशंसा की थी। तथा जब हाथी भी जंगलमें दूसरी ओर चला गया था तब वह शान्तिसे वृक्षपर से उतर आया था ।। ७० ।। भूखने उसकी दुरवस्था कर डाली थी, प्यासने भखसे भी अधिक व्याकुल कर रखा था अतएव वह वेगशील तथा पुरुषार्थी युवक तुरन्त ही पानीकी खोज में निकल पड़ा था । श्रेष्ठ हाथियों के दलके पैरोंसे घास, लता, पृथ्वी आदि कुचल जानेसे जो मार्ग बन गया था उसे पकड़ कर चलते गजराजने थोड़ी दूरपर एक तालाब देखा ।। ७१ ।। तब वह बढ़कर उस मनोहर पर अत्यन्त गड्डे तालाब पहुँचा था, जिसका पानी अत्यन्त निर्मल था, उसकी थाह पाना १. [ सुतस्त्वभूमित: ] । २. [ पथा ] । ३. [ संछन्न° ] । For Private Personal Use Only द्वादश: सर्गः [२१०] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः चरितम् तत्तीरफुल्लद्रुममञ्जरीनां गन्धैः सुगन्धीकृतचारुतोयम् । मत्तभ्रमत्षट्पदगीतरम्यं मनोहरं शीतलमाससाद ।। ७३ ॥ हंसामना बालनृपं समीक्ष्य कुलाङ्गनावद्ददृशुस्तिरस्थाः । अन्तर्दधुः काश्चन काश्चिदस्थर्मष्टं जगुर्वेश्यवधवदन्या:२ ॥ ७४ ।। आसाद्य तत्तीरमुखप्रदेशं प्रक्षाल्य धीमानथ पाणिपादम् । पिपासितः क्षामनयाम्बु शीतं पपौ पलाशेन पयोरुहस्य ॥ ७५ ॥ सुवर्णरूप्योत्तमभाजनेषु त्रिजातकर्पूरकवासिताम्भः । प्रियाकराग्रोपहृतं मनोज्ञं यः पीतवानराजगृहे यथेष्टम् ॥ ७६ ।। सर्गः PATREETTERRIESARDAS समाचाRPANERUTISMURARISHAINEERPUR कठिन था, मन्द-मन्द बहती हवाके झोकोंसे उसका पानी हिलता था और सुन्दर लहरें एकके बाद एक करके उठती आती थी, पूर्ण विकसित पुण्डरीक ( श्वेत कमल) तथा उत्पलों ( नीले कमलों ) से वह पटा हुआ था पुष्पों के पराग आदि को पीकर मस्त हुए हंस आदि पक्षियों की मधुर कूज से वह गूज रहा था ।। ७२ ।। रोटी के लिए आकुल राजा किनारे पर खड़े वृक्ष फल रहे थे उनकी मंजरियों की सुगन्धि से पूरे जलाशयका मधुर जल सुगन्धित हो गया था, तथा। पुष्पोंपर इधर उधर उड़नेवाले भौरे फूलोंका मधु पीकर मत्त हो गये थे और गुजार कर रहे थे, जिसके कारण उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गयी थी ऐसे शीतल सरोवर पहुँचकर वरांगने सांस लिया। ७३ ।।। उस जलाशय में किलोलें करनेवाली सुन्दरी हंसियो के सामने जब राजकुमार पहुँचा था, तो उनमें से कुछ हंसियों ने लजीली कुलीन बहुओं के समान, आंख बचाकर तिरछी नजर से उसे देखा था, दूसरी नव बधुओं के समान फूलों में छिप गयीं थीं, अन्य ज्योंकी त्यों बैठी रही थीं तथा कुछ ऐसी भी थीं जिन्होंने वेश्याओं के समान मधुर-मधुर बोलना प्रारम्भ कर दिया । था।। ७४ ॥ विवेकी राजकुमार ज्यों ही उस सुन्दर जलाशय के किनारे पहुंचे त्यों ही सबसे पहिले उन्होंने अपने धल धूसर हाथ पैरों में को धोया। वहाँ अत्यन्त प्यासे और दुर्बल थे इसलिए उन्होंने कमल के पत्ते के दोने से धीरे-धीरे शीतल जलको पिया था ।।७।। रंक राजा एक समय था जब यही राजकुमार अपने राजमहलोंमें त्रिजात (सुगन्धि, शीतल त्रिफली आदि ) कपूर आदि मिलानेसे सुगन्धित, सोने या चाँदीके निर्मल रमणीय पात्रोंमें भरे गये तथा अप्सराओंके समान युवती प्राणप्यारियोंके द्वारा दिये । गये प्यासवर्द्धक जलको जितना चाहता था उतना पीता था। ७६ ।। १..क गुशुस्त्विरस्थाः, [ दुद्रुवुस्तिरस्स्थाः , स्तटस्थाः ]। २. क वश्य । ३. क पिपासितक्षाम° । TRATAREER [२११] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः वरांग चरितम् सर्गः शार्दूललालाविलमध्वखिन्नो वरद्विपानां मदवारितिक्तम् । 'हंसांसविक्षुब्धतरङ्गमालमसंस्कृतं वारि पपौ कुमारः ॥ ७७ ॥ हस्त्यश्वयानान्यभिसंस्कृतानि आरुह्यमाणो भटसंकटेन । श्वेतातपत्रोज्ज्वलचामराङ्कः क्रीडार्थमुद्यानवनं ययौ यः।। ७८ ॥ विनष्टमार्गः स्फुटितानपादो विशीर्णवासा ग्लपिताङ्गाष्टिः । स एव पद्भयामटवीप्रदेशं खरं सपाषाणमयं चचार ॥ ७९ ॥ पुरा हि सच्चन्दनकुङ्कमाक्तः प्रदग्धकालागरुधूपितो यः। स एव संस्वेदमलाविदग्धो बभ्राम कक्षे मलिनाम्बरेण ॥ ५० ॥ चाRTERSIRIRALASAIRATRIOREITHEREnte किन्तु आज उसी राजकुमारने मार्गके परिश्रमसे थक कर ऐसे पानीको पिया था जिसमें सिंह आदि हिंस्र पशुओंकी लार घुली थी, बड़ेसे बड़े मदोन्मत्त हाथियोंके गण्डस्थलोंसे बहा मदजल भी उसमें मिलने से तीता हो गया था, तथा हंस आदि पक्षियोंने उसे इतना बिलोया था कि उसमें लहरें उठने लगी थीं इतना ही नहीं वह अनछना और अप्रासुक भी था ।। ७७ ॥ जो राजकुमार पहिले खेल कूद अथवा मनोविनोदके लिए यदि उद्यानको जाता था तो वह हर प्रकारसे सजाये गये तथा हाथियों या घोड़ों द्वारा खींचे गये यानों ( सवारियों) पर चढ़कर ही नहीं जाता था; अपितु उसके शिरपर धवल छत्र लगा रहता था, सुन्दर निर्मल चमर ढोरे जाते थे और योद्धाओंकी बड़ी भारी भीड़ उसके पीछे-पीछे चलती थी॥ ७८ ॥ किन्तु आज वही राजकुमार पथरीली, ककरीलो और अत्यन्त कठोर जंगली भूमिपर नंगे पैरों चला जा रहा था। इतना हो नहीं, वह रास्ता भूल गया था अथवा यों कहिये कि उसके सामने कोई रास्ता था ही नहीं, उसके पैरोंके तलुये और अंगुलिया ठोकर खा-खा कर फूट गये थे, काँटों और झाड़ियोंमें उलझकर कपड़े चिथड़े-चिथड़े हो गये थे तथा कोमल शरीर स्थान-स्थानपर नुच और खंरुच गया था ।। ७९ ।। पहिले जब वह राजा था तो उसके शरीरका प्रक्षालन करके उसपर उत्तम चन्दन और कुंकुमका लेप किया जाता था। इसके बाद उसे कालागरू आदि श्रेष्ठ चन्दनोंकी धपका धुआँ दिया जाता था, किन्तु आज वही सुकुमार शरीर अविरत बहे पसीने और मलसे बिल्कुल पुत गया था। इतना ही नहीं अत्यन्त मैले कूचेले चिथड़ोंसे लज्जा ढके वह गहन वनमें मारा मारा फिर रहा था ।। ८०।। HreemegeTHeamPaweeteamPSHPUReaweTHRSSRPREPAHIPARDA [२१२] १. क हस्तावलि°, [ हंसाबलि॰] । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सर्गः पञ्चेन्द्रियाणां विषयाननूनान्यः प्राप्तवान्पुण्यफलोदयेन। स एव पूजितपुण्यनाशान्नैकेन्द्रियं तर्पयितु समर्थः ॥ ८१॥ य एव पर्याप्तसुखार्णवस्थः श्रीमङ्गलाशीर्वचनैः प्रणतः । दुर्भाष्यमाणस्त्वपि वासुकुन्तैर्दुःखार्णवे स क्षणतः पपात ॥ ८२॥ एवंविधानां हि महद्धिकानां नैकाकररग्रामपुराधिपानाम् । सूर्यत्विषामूच्छितपौरुषाणां यद्यावदीदृक्क्षणतोऽभ्युपैति ॥ ८३ ॥ नित्यं परप्रेषणतत्पराणां नक्तंदिवं क्लेशसहस्रभाजाम् । निकृष्टवृत्तित्वमुपागतानां किमस्ति वाच्यं कृमिमानुषाणाम् ॥ ८४ ॥ यद्येवं शकटमयोमयं सुबद्धं तत्स्याच्चेदनिलबलेरणप्रणीतम् । योद्धण्डं प्रचयकृतं प्रभज्जनेयं कि तिष्ठेदतिलघुचञ्चलस्वभावम् ॥ ५॥ चाचा-चURSIODELESEPSIGHTFAGUGRमाचामाच्या पुण्यकर्मोंके उदयके कारण जिस राजकुमारको पहिले पाँचों इन्द्रियोंके भोग्य विषय परिपूर्ण मात्रामें यथेच्छरूपसे प्राप्त होते थे, उसीके पुण्यकर्मोकी फलोन्मुख शक्तिके उदयके रुक जानेके कारण वही राजकुमार आज एक इन्द्रियको भी शान्त करने में असमर्थ था ।। ८१ ॥ सब प्रकारसे परिपूर्ण सुखोंके समुद्र में आलोडन करते हए जिस युवक राजाकी लोग मंगल गीतों और स्वस्ति-वाचन आदि आशिषमय वचनीसे स्तुति करते थे वही सर्वगुणसम्पन्न राजकुमार जब शिवा (सेही) तथा उल्लू आदि पक्षियोंके कर्णकटु कुशब्दोंको सुनता था तो अपने भाग्य परिवर्तनको सोच सोचकर एक क्षणमें वही दुःखके महासमुद्रमें डूबने और तैरने लगता था ।। ८२॥ युवराज वरांग ऐसे अतुल तथा असीम वैभव और प्रभुताके स्वामियोंका, जिनके राज्यमें एक, दो नहीं अपितु अनेक विशाल नगर, सम्पत्तिको उद्गम खनिक बस्तियाँ तथा सम्पन्न.ग्राम हों, इतना ही नहीं जिनका प्रताप सूर्यके समान सम्पूर्ण विश्वको आक्रान्त कर लेता हो, पूर्व पुरुषार्थ ( पुण्य ) के नष्ट हो जानेपर उनकी भी जो, जितनी समस्त सम्पत्ति होती है वह, उक्त प्रकारसे क्षणभरमें लुप्त हो जाती है।। ८३ ।। तब फिर उन नरकीटोंका तो कहना ही क्या है जो सर्वदा दूसरोंकी आज्ञाको कार्यान्वित करनेके लिए तत्पर रहते हैं, दिन-रात हजारों प्रकारके क्लेशोंको भरते हैं तथा जिनकी जीविकाके साधन अत्यन्त निक्रिष्ट हैं ।। ८४ ॥ यदि कोई गाड़ी लोहा-लोहा हो लगाकर उत्तम प्रकारसे अत्यन्त दृढ़ बनायी जाय और यदि वह भी ऐसी हो जाय १. म स्त्वसिवासकुन्ती , [स्त्वपि वा शकुन्तः, स्त्वशिवं शकुन्तैः ] | २. म नवाकर । ३. म कृति । ४. म यत्पत्रं । ५.क तिष्ठेदतिचलनस्व' । . [२१३1 Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराम द्वादशः चारखर आहोस्वित्कनकमयं शरावपात्रं तन्निष्ठां व्रजति यदीह मषिकाभिः। श्रद्धेयः' किमु घृतपूरितो गुडावतः श्रीमोदस्थित इति मुषिकाबिलेषु ॥८६॥ एवं ये अतिबलसत्त्वसारयुक्ताः सेवाज्ञामतिविभवोरुवर्यवन्तः । अवस्थामतिविकृतामधाश्नुवोरन् कि बण्यं मृगपशुभिः समान पुंसः ॥ ८७ ॥ निर्मुच्य स्वजनगतं मनः पृथुश्रीरात्मानं स तु वृतिसंपदावलम्ब्यम् । पीत्वाम्भो विगततषो यवावनीन्द्रः स्नानार्थं जलममलं शनैर्जगाहे ॥८८॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुवर्गसमन्विते स्फूटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते युवराजसरोदर्शनो नाम द्वादशमः सर्गः। सर्गः कि वायुके झोंकेके मारे चापसे चलने (उड़ने) लगे और टुकड़ों का ढेर होकर आँधीमें उड़ जाय तो बतलाइये कि सूखे पत्तोंका बड़ा भारी ढेर भी क्या आँधीके झोंके सह सकेगा? जो बेहद हल्का होता है स्वभावसे ही अत्यन्त चंचल होता है तथा साधारण वायुके झोंकेसे भी उड़ने लगता है ।। ८५ ।। विचित्रा कर्मपद्धतिः अथवा यों समझिये कि मजबूत पक्के मिट्टीके सकोरेको सोनेसे भरा जाय और यदि वह भी चहोंके द्वारा कुतरा जाकर सदाके लिए कुगति (नाश) पा जाता है तो क्या चहोंके बिलमें रखा गया श्रीमोदक ( उत्तम लड्डू) सुरक्षित समझा जा सकेगा, जबकि उस मोदकसे घी टपकता हो और गुड़ अथवा शक्कर उसमें बड़ी मात्रामें मिलायी गयी हो ।। ८६ ॥ जो पुरुष धैर्य, शारीरिक तथा मानसिक बल, विवेक तथा सहनशक्ति आदि गुणोंसे परिपूर्ण हैं, जिनमें सेवकों, आज्ञाकारियों, सुमति, विभव तथा परिस्थितियोंको पैदा करके उन्हें बनाये रखनेको असीम (घृति ) शक्तिकी कमी नहीं है वे भी । पूर्वकृत पाप-कर्मोंके उदय होनेसे, इस प्रकार सरलतासे हुई ऐसी महाविकृत दुःखमय अवस्थामें जा पड़ते हैं । तो जो मनुष्य हिरण आदि पशुओंके समान इन्द्रियोंके दास दुर्बल और ज्ञानहीन हैं, उनको तो कहना ही क्या है ।। ८७ ।। आध्यात्मिक विशाल लक्ष्मीके स्वामी राजकुमारने, माता-पिता, बन्धु-मित्र, पत्नियों आदिके स्मरणमें लीन मनको 'येन केन प्रकारेण' उधरसे मोड़कर अपने आपको धैर्य और सहनरूपी महाशक्तिके सहारे खड़ा किया था-अर्थात् घरके लोगोंकी मधुर स्मृतियोंको भूलकर सामने खड़ी विपत्तियोंको धैर्यपूर्वक सहनेका निर्णय किया था। युवक राजाने पानी पीकर अपनी प्यास-4 को शान्त कर दिया था, इसके उपरान्त उसने शारीरिक क्रान्तिको भी कम करनेकी इच्छासे स्नान करनेका निर्णय किया था। इस निर्णयको पूरा करनेके हो लिए वह उक्त जलाशयके निर्मल बलमें धीरे-धीरे धुसा था ।। ८८ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें युवराज-सरोदर्शन नाम द्वादशम सर्ग समाप्त। १. क शुद्धेयुः। २. [ श्रीमोदः ]। ३.क समेषु । ४. समवृति , [शमधृति ]। ५. [ द्वादशः] । w ने शारीमयपूर्वक सहनेका महाशक्तिक मत पत्नियों से Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज योदशः चरितम् सर्गः त्रयोदशः सर्गः सरः प्रविष्योत्पलफुल्लपकूकं प्रकृष्टकारण्डवसारसाकुलम् । मृदा कबायेव महापहारिमा निघृष्य 'सस्नावनकुलमात्मनः॥१॥ पुनः सरोऽन्तर्गतरागमानसः स्वकर्मनिष्पत्तिफलप्रचोदितः। श्रमव्यपोहार्थमगाघवारिणि ततार दोा सुतरं तरङ्किणि ॥ २॥ चिरं हि तीर्वा कमलोत्पलान्तरे तरङ्गसंगप्रविधौतदेहिनः । विनिर्ययासोः महसानुसृत्य तं जग्राह नक्रश्चरणं महीपतेः ॥३॥ विबुध्य नक्रग्रसनं स दुर्धरं बलाद्वहिनिष्पतितुं समुद्यतः । अशक्नुवन्क्षीणबलो निरास्पदो विचिन्तयामास विषण्णमानसः ॥ ४॥ त्रयोदश सर्ग कर्मगति जलाशयमें उत्पल और पंकज खिले हुए थे, उच्च जाति के बगुला और सारसोंके समूहसे वह परिपूर्ण था । उसमें उतरकर राजकुमारने अपने शरीर पर कशेली मिट्टी को मला जो कि मैलको छुटा सकती है तथा शरीरको खूब रगड़-रगड़कर अपनी इच्छाके अनुकूल पूर्ण स्नान किया था ।। १॥ इस प्रकार राजकुमारके हृदयमें तालाबके बोचमें जाकर गाता लगानेको रुचि उत्पन्न हो गयी थी, इस रुचिके आकर्षणसे, अथवा अपने पूर्वकृत कर्मों का फल वहाँ उस रूपमें मिलना हो था अतएव भवित्तव्यताको प्रेरणा से ही उसने मार्ग की थकान तथा रात्रि जागरणकी क्लान्तिको दूर करनेके हो लिए अपने आप तालाब के लहरोंसे आकुल अगाध जलपर हाथोंसे तैरना प्रारंभ कर दिया था ॥ २ ॥ इसके बाद उत्पलों और कमलोंके बीच काफी देर तक तैरता रहा, वहाँपर लहरोंके थपेड़ोंसे उसका शरीर धुलकर स्वच्छ हो गया था अतएव निकलने की इच्छासे वह ज्यों ही मुना था कि अकस्मात् पोछा करके किसी घड़ियालने युवक राजा का परे पकड़ लिया था ॥ ३ ॥ मह पता लगते ही कि घड़ियालने पैर को अत्यधिक दृढ़ताके साथ दातोंसे दबा लिया है उसने पूरी शक्ति लगाकर बाहर निकल भागनेका प्रयत्न तत्परताके साथ प्रारम्भ किया। किन्तु उसका शारीरिक बल लगातार आयो विपत्तियोंके कारण । १. म स स्नात्यनु। २. [ सुतरां । ३. म तरङ्गरङ्ग । salmsमच्यायमचETELLITERA [२१५] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् क्षीण हो गया था, तथा आस-पास कोई सहारा भी न था फलतः नकसे बचनेमें असमर्थ था। तब उसका हृदय विषाससे भर गया और वह सोचने लगा थ। ॥। ४ ॥ व्यपेतशार्दूलभयस्य मे पुनः किमेतदन्यत्समुपस्थितं महत् । द्रुतमाग्रपातोद्भवदुःखचेतसो बभूव भूयो मुसल' भिघातवत् ॥ ५ ॥ पुरे च राष्ट्र े च गिरौ महीतले महोदधौ वा सुहृदां च सन्निधौ । नभस्स्थले वा वरगर्भवेश्मनि न मुञ्चति प्राक्कृतकर्म सर्वथा ॥ ६ ॥ अयं विनिःप्रतिकारकारणः सुदुर्धरः किं करवाणि सांप्रतम् । विचिन्त्य कर्माणि पुरा कृतानि बभूव राजा सुविशुद्धभावनः ॥ ७ ॥ अनेकजात्यन्तरदुःखकार कान्कषायदोषान्विषमांस्तथाविधान् विसृज्य जग्राह महाव्रतादिकं परं च निःश्रेयससाधनात्मकम् ॥ ८ ॥ 1 आर्त एवं शुभचिन्त किसी उपाय सिंहका भय नष्ट होते ही मुझपर यह दूसरी महा विपत्ति कहाँसे आ टूटी ? यह तो वही हुआ कि कोई मनुष्य वृक्ष उन्नत शिखरपर से गिरके उसकी चोटों के दुःख को सोच ही रहा था कि उसपर फिर मूसलों की लगातार मार पड़ने लगी ।। ५ ।। पूर्व जन्ममें किये गये शुभ वा अशुभ कर्मों के फल जीवको कहीं भी नहीं छोड़ते हैं। चाहे वह अपने राज्यमें रहे या अपना नगर न छोड़े, चाहे पर्वत पर चढ़ जाये या महा समुद्रकी तहमें जाकर छिपे, चाहे भूतल पर ही एक स्थानमें दूसरे स्थान पर भागता फिरे, या मित्रों और हितषियोंसे घिरा रहे, चाहे आकाश में उड़ जाये अथवा खूब मजबूत तलधर में छिप जाये ||६|| कर्मों के फलों की अटलता की यह विधि ऐसी है कि कसो कारण अथवा योजनासे इनका प्रतीकार नहीं किया जा सकता है। यह तो जीवको ऐसा बाँधती है कि वह हिल भी नहीं सकता है। ऐसी अवस्थामें मैं क्या करूँ ?' उसने एक बार पुनः पूर्वकृत समस्त कर्मों की आलोचना की और कर्मोंको फल व्यवस्थाको निष्प्रतीकर (अपरिहार्य ) सोचकर अनित्य, अशरण, एकत्व आदि विशुद्ध भावनाओं को भाना प्रारम्भ किया ॥ ७ ॥ क्रोध आदि कषाय दोष ऐसे भयंकर है कि नरकादि विषम अवस्थाओं में घसीटते हैं तथा विविध जन्म-जन्मान्तरों में सब दुःखों को देते हैं अतएव उन्हें छोड़कर उसने अहिंसा आदि पांचों महाव्रतों को धारण किया था। क्योंकि यह महाव्रत ही मोक्ष प्राप्ति के परम शक्तिशालो साधन है ॥ ८ ॥ १. क मुशलाभि । For Private Personal Use Only त्रयोदशः सर्गः ( २१६] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः चरितम् विशुद्धवाक्कायमनस्समाहितः कृताञ्जलिभक्तिजलार्द्रमानसः । नुनाव सामान्यविशेषसत्पदैर्वचोभिरव्याकुलितार्थशोभनैः ॥९॥ गिरां पति सद्यशसां च संनिधिं धियामधीशं दहनं स्वकर्मणाम् । निसर्गशुद्धान्वयधर्मशिनं जिनं नमामीष्टफलप्रदायिनम् ॥१०॥ विनष्टकर्माष्टकबुद्धिगोचरं समस्तबोध्येष्टहितार्थदर्शनम् । सुदृष्टिचारित्रपथाधिनायकं नतोऽस्मि निर्वाणसुखैधितं जिनम् ॥ ११ ॥ व्यपेतसर्वेषणधीरसद्बत प्रशस्तशुक्लप्रविधूतदुर्नयम् । अवाप्तनिर्वाणसुखं निरामयं नतोऽस्मि तं विघ्नविनायकं जिनम् ॥ १२॥ सर्गः उसने मन, वचन और कायको शुद्ध करके शुभ ध्यानमें लगा दिया था, भक्तिरूपी जलसे उसका हृदय द्रुत हो उठा था अतएव उसने वीतराग प्रभुके आदश के आगे हाथ जोड़ लिए थे तथा पंच परमेष्ठीके सम्मिलित तथा पृथक्-पृथक् स्तोत्रों को पढ़कर नमस्कार कर रहा था। उसके मुखसे निकलते शब्द तथा उनके अर्थ दोनोंमें व्याकुलताको छाया तक न थी अतएव वे ॥ बड़े मनोहर लगते थे ॥९॥ जिनभक्ति हो शरण मैं श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करता हूँ जिनको भक्ति आत्माको विशुद्ध करके, मनचाहे फलों को देती है । तथा जो जिनेन्द्रदेव दिव्यध्वनिके स्वामी हैं, सत्य और यशके उत्तम कोश हैं, पूर्ण ज्ञानके प्रभु हैं, अपने कर्मोरूपी ईंधन के लिए जलती ज्वाला हैं तथा 'वस्तु स्वभावमय' होने के कारण जिसकी अनादि परम्परा परम शुद्ध है, ऐसे धर्म को दिखाने वाले हैं ॥ १० ॥ ___ आठो कर्मों के भलीभांति नष्ट हो जानेसे उत्पन्न जिनके पूर्णज्ञानमें संसारके सबही जानने योग्य पदार्थ, विशेषकर । इष्ट और हितकारीपदार्थ साक्षात् झलकते हैं । जो सम्यक्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्रमय रत्नत्रयके सुपंथके चलाने वाले हैं तथा अन्तमें निर्वाणरूपी अनन्त सुखको प्राप्त करके शोभित हो रहे हैं ऐसे जिनेन्द्र प्रभु को नमस्कार करता हूँ। ११ ।। धन आदि समस्त ऐषणाओं ( अभिलाषाओं ) तथा मिथ्यात्वमय व्रतों की असारता को जिन्होंने प्रकट कर दिया है, परम पवित्र शुल्क-ध्यान के द्वारा जिन्होंने दुनियाँके कुनयरूपी काले बादलों को उड़ा दिया है, समस्त विघ्नको जीत लिया है, सब प्रकार के रोगोंसे परे हैं तथा निर्वाण महासुखके स्वामी हैं ऐसे जिनेन्द्र प्रभुके चरणों में प्रणाम करता हूँ॥ १२ ॥ [२१७] २८ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्यतां दृष्टिपथानुरोधिनी सुरूपतां चापि सुयौवनं वपुः।। सुविभ्रतो यस्य मनो मनोभुवा न नाशितं तं प्रणतोऽस्मि यत्नतः ॥ १३ ॥ चतुर्विधामेत्य गति सुदुःखिताः स्मराग्निना ये निहताः शरीरिणः । त्रयोदशः शमाम्भसा शान्तिमिताः स यस्य वै जिनो हि मेऽद्य प्रददातु सत्सुखम् ॥ १४ ॥ सर्गः शरीरि'कायस्थितिसंगशिनं निरज्जनं नि रितं निरामयम् । अमोघविद्यं निरवद्ययोगिनं शरण्यतां यामि तमद्य शान्तये ॥ १५ ॥ त्रिलोकबन्धुस्त्रिजगत्प्रजाहितस्त्रिलोकचूडामणिराप्तकेवलः । त्रिकालदर्शी सुगति समेयिवान्स मां जिनो रक्षतु दुःखसंकटात् ॥ १६ ॥ शरीरमें यौवन समुद्र लहरा रहा था तथा आँखों को हठात् अपने ओर आकर्षित करनेवली मूर्तिमान सुन्दरता, (रूपवती स्त्रियों ) के सदा ही आँखों के सामने रहने पर जिन वीतमोह जिनेन्द्र प्रभुके मेरू समान अडिग मन को कामदेव के द्वारा थोड़ा भी, वासना दूषित न किया जा सका था उनके चरणोंमें त्रियोग-पूर्वक प्रणाम करता हूँ ॥ १३ ॥ नरक आदि चारों गतियों में जन्म मरण करके बुरे-बुरे दुखों को भरनेवाले तथा अप्रतीकार कामको ज्वालामें भस्म किये गये संसारी जीव जिन वीतराग प्रभुको प्रशमभावरूपी जलधारासे सिक्त होकर आत्मिक शान्तिको प्राप्त हुए हैं उन्हीं कर्मजेता जिनेन्द्रदेव की भक्तिः इस विपत्ति कालमें, मेरे कल्याणकारक सुख का कारण हो । १४ ।। सांसारिक सुखोंकी शान्ति प्राप्त करने को अभिलाषासे मैं आज उन्हीं जिनेन्द्र देवकी शरण लेता हूँ जिन्होंने शरीरी (आत्मा) और शरीरके रहस्यको तथा सम्बन्धको आत्मदृष्टिसे साक्षात् देखा था, जो सब प्रकारकी कालिमाओं से परे हैं, पाप उनकी तरफ देख भी नहीं सका है, रोगोंको उनतक पहुँच ही कैसे हो सकती है ? जिनका अनन्तज्ञान सत्य और सफल है । तथा जो सब दोषों से रहित योगी हैं ॥ १५ ॥ प्राणिमात्र पर वात्सल्य करनेके कारण जो तीनों लोकोंके सगे भाई हैं, समस्त भुवनोंकी प्रजाका कल्याण चाहते हैं, । तीनों लोकोंमें मुकुटमणिके समान श्रेष्ठ हैं, मिथ्या मार्गकी वंचनासे बचाकर सन्मार्ग दिखानेके कारण आप्त हैं, केवली हैं फलतः भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानको साक्षात् देखते हैं, तथा अन्तमें जिन्होंने सबसे बढ़कर गति (मोक्ष ) को प्राप्त किया है उन्हीं कर्मजेता प्रभुका आदर्श मुझे भी दुखों और संकटोंसे पार करे ॥ १६ ॥ [२१८] .क शरीर। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः चरितम् सर्गः सजातयो रोगजरोख्मत्यवो यथाक्रमं लोकमिमं जिघांसवः । समुद्धता येन चिराय निस्तुषाः स मे विमुक्ति विदधातु नक्रतः ॥ १७ ॥ निरस्तदर्नीतिविशेषसाधनो विशिष्ट दिव्याष्टसहनलक्षणः । परीषहक्लेशविजिष्णुरद्य मां स रक्षतु प्राहमुखाग्जिनेश्वरः ॥ १८॥ इति स्तुवानं प्रविशुद्धचेतसं स्थितं च सम्यग्जिनदेववर्त्मनि । स्तुतिप्रसादैधितपुण्यपौरुषं ददर्श यक्षो सहसा नृपात्मजम् ॥ १९ ॥ निरीक्ष्य या तं भृशमापदि स्थितं वयान्विता सा 'वसदारितात्मकम् । अदृष्टरूपा शनकैः सुदर्शना विमोचयां ग्राहभयानुभव ॥ २०॥ अपेतनक्रो बहिरेत्य तत्क्षणात्सविस्मयः सर्वदिशो निरीक्ष्य च । न किंचिदैक्षिष्ट विमोचकं परं जिनप्रसादाविदमित्यमन्यत ॥ २१ ॥ Came-Re-HTHASHTHHTHHAPagews क्रमपूर्वक सारे संसारको अपने चक्कर में डालकर नष्ट करने वालो जन्म महाव्याधि से प्रारब्ध जीवनव्यापी रोग, बुढ़ापा और मृत्युको संसारिक विषयोंकी प्यास को सुखाकर जिन्होंने अनन्तकालके लिए उखाड़ कर फेंक दिया है, उन्हीं संसार जेता प्रभु की भक्तिके प्रसाद में मैं भी घड़ियालके मुख से मुक्ति पाऊँ । १७ ।। _ विशेष तर्क प्रणालीके द्वारा जिन्होंने मिथ्या न्याय शैलोका दिवाला खोल दिया है, लोकोत्तर एक हजार आठ लक्षणोंके स्वामी हैं, क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहोंको जीत लिया है तथा जो किसी भी प्रकारके क्लेशोंके आक्रमणको व्यर्थ कर देते हैं उन्हीं दोषजेता वीतराग प्रभुका स्मरण आज नक्रके मुखसे मेरी मुक्तिका कारण हो ॥ १८॥ शुभभावका फल अत्यन्त सरल और शुद्ध अन्तःकरणसे जिनेन्द्र देवकी उक्त स्तुतिमें लीन, पूर्णरूपसे जिनदेव प्रणीत धर्ममार्ग में स्थित तथा निष्काम स्तुतिके प्रभावसे तत्क्षण बढ़े हुए पुण्यके स्वामो युवक राजपुत्र पर उसी समय अकस्मात् ही किसी यक्षिणोकी दृष्टि जा पड़ी ॥ १९ ॥ कठोरतम विपत्तिमें पड़े हुए तथा सब प्रकारसे विवश होकर भी अपने प्राणोंको धारण किये हुए राजपुत्रको देखते ही उसकी स्त्री हृदय-सुलभ करुणा उमड़ आयी फलतः दर्शनीय रूपराशिकी स्वामिनी उस यक्षिणीने अपने आपको प्रकट किये बिना। ही राजपुत्रको धीरेसे ग्राहके मुखसे छुड़ा दिया था ॥ २० ॥ नक्रके मुखसे छुटकारा पाते ही वह सीधा तालाबके बाहर आया और उसी क्षण सब दिशाओं में दृष्टि दौड़ायी।। । १. [व्रतधारि]। २१९) Jain Education interational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग त्रयोदशः चरितम् इदं मनुष्यत्वमनेकजन्मतः सुलभ्य जात्यादिगुणांश्च सर्वथा। प्रवञ्चितो मोहबलैरितः 'स्मृतिरितस्त्रिभिः शतमोऽस्मि नित्यशः ॥ २२ ॥ तपश्च सज्जानमनूनदर्शनं त्रिरत्नमेतत्त्रिजगद्वितप्रदम् । जिनप्रसादोदयतो भवे भवे तदस्तु मे संसृतिमोक्षकारणम् ॥ २३ ॥ इति ब्राणस्य महीपतेः शनैनिशम्य देवी वचनं प्रसन्नवत् । विसृज्य वैकारिकरूपमात्मनः स्थिता पुरस्ताद्विपरीक्षितुं पुनः ॥ २४ ॥ प्रलम्बहारोज्ज्वलहेमकुण्डला प्रफुल्लमा लस्तबकावतंसिनी। कराग्रसंधारितमाधवीलता वराङ्गना सस्मितमब्रवीद्वचः ॥ २५ ॥ सर्गः DeliचायनाममाRAIRATRE किन्तु उसके आश्चर्यका तब ठिकाना न रहा जब उसने अपने आसपास किसी भी ऐसी वस्तुको न पाया जो उसका विमोचक हो सकती थी। अन्तने उसने समझा था कि 'जिनेन्द्रदेवकी भक्तिके प्रसादसे हो वह बच गया है' ॥ २१ ॥ नरक, तिर्यञ्च तथा देवयोनिमें अनेक जन्म धारण करनेके पश्चात् इस मनुष्य जन्मको पाकर तथा इसमें भी शुद्ध । मातृ-पितृ कुल जाति, स्वास्थ्य आदि श्रेष्ठ गुणोंको प्राप्त करके भी मोहनीय कर्मसे पूर्ण प्रेरणा तथा शक्ति पानेवाले आठों कर्मों1 के द्वारा मैं बुरी तरह ठगा गया हूँ यह स्मरण होते हो उसने निर्णय किया था कि 'इसो समयसे मैं अपने मन, वचन और काय तीनोंको अत्यन्त शुद्ध रखूगा' ॥ २२ । आठों दोषों रहित परिपूर्ण सम्यकदर्शन. यथार्थदर्शी सम्यकज्ञान तथा सम्यकचारित्र लोकत्रयमें सुविख्यात ये तीनों रत्न भव-भवमें जिनेन्द्रदेवकी भक्तिके प्रसादसे मुझे प्राप्त हों और मेरी संसार यात्रा तथा मुक्ति प्राप्तिमें सहायक हों ।। २३ ।। जब युवक राजा अपने आपको सम्बोधन करके उक्त वाक्य कह रहा था, उसका उद्धार करनेवाली देवी यह सब सुनकर मानों प्रसन्न ही हो गयी थी। अतएव अपने विक्रिया ऋद्धिजन्य सूक्ष्मरूपको त्याग कर युवराजको परीक्षा लेनेके लिए ही अपने स्वाभाविक सुन्दर रूपमें उसके सामने आ खड़ी हुई थी ।। २४ ॥ उसकी शंख समान सुन्दर ग्रीवामें लम्बा हार लहरा रहा था, कानोंमें सोनेके सुन्दर कुण्डल चमक रहे थे, विकसित पुष्पोंकी माला तथा फूलोंके गुच्छोंके ही कर्णभूषणोंकी शोभा भी विचित्र थी तथा वह अपने हाथमें माधवी लताकी मंजरी लिये थी। इस स्वाभाविक अल्प शृंगारसे उस उत्तम नारीका सौन्दर्य चमक उठा था, इसपर भी उसने वराङ्गसे स्मितपूर्वक वार्तालाप प्रारम्भ किया था॥ २५ ॥ RAMELESEATHERSITrwarSHTRA २२० । मामा १. [ लैरितिस्मृतीरित°]। २. [°माला ] | Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः विबोद्ध मिच्छाम्यहमागमः कुतः इह स्थितो वा किम ते प्रयोजनम् । क्व वा गमिष्यस्यमुतः प्रवेशान्न चेद्विरोधोऽस्ति वदार्य मे स्फुटम् ॥ २६ ॥ स तां निरीक्ष्याप्रतिरूपकारिणी विचारयामास यथावदीश्वरः। ... इयं हि कि दिव्यवधून मानुषी मनुष्यवेषा किमु राक्षसी स्वयम् ॥ २७ ॥ निराश्रये श्वापदसेविते बने व्यपेतशङ्का विजने विलासिनी । प्रवर्तितभ्रललिताननेन्दुना समेत्य मां पृच्छसि का न कस्य वा ॥ २८ ॥ निगृह्य भावं स्वमनोषितं हि सा ह्यथान्यद्वक्ता वचसाविशकिनी। व्यपेतपुण्या वसुधेश्वरात्मजा वसामि मूढेति जगाद देवता ॥ २९ ॥ "हे आर्य ? मैं जानना चाहती हूँ कि आप किस स्थानसे आये हैं ? यहाँ निवास करनेमें आपका कौनसा प्रयोजन है ? अथवा इस वीहड़ वन प्रदेशसे आप कहाँ जायेंगे ! यदि आपके प्रारम्भ किये गये प्रकृत कार्यमें उक्त प्रश्नोंके उत्तर देनेसे कोई बाधा न आती हो तो स्पष्ट करके उत्तर दीजिये ।। २६ ॥ जिसके निर्दोष एवं पूर्णरूपके साथ संसारका अन्य कोई सौन्दर्य समता न कर सकता था उस रूपवतीको देखते ही युवक राजा गम्भीर विचारधारामें बह गया था। उसने सोचा था 'क्या यह रूपराशि किसी देवकी प्राणप्रिया तो नहीं है ? मनुषी ही है ? अथवा किसी दारुण राक्षसीने वञ्चना करनेके लिए यह मानुषीका सुन्दर रूप धारण किया है ।। २७॥ यक्षिणीकी जिज्ञासा सिंहादि हिंस्र पशुओंसे परिपूर्ण इस निर्जन गहन वनमें आप निर्भय और निशंक होकर विचरती ही नहीं है अपितु अपनी । भृकुटियोंके विलास, मुखचन्द्रकी रूपचन्द्रिकाको बिखेरती फिरती हैं। यहाँपर दूर-दूर तक कोई आश्रय स्थान भी नहीं है तो भी कहीसे टपककर मुझसे प्रश्न करती है, फलतः यह कौन है तथा किसको पुत्री वा पत्नी है ? ॥ २८॥ htthREA RE [२२१॥ प्रणय-प्रस्ताव उसने उस समय अपने मनके सच्चे भावोंको छिपा लिया था, उसके मनमें कुछ था और बोलती कुछ और ही थी, उसकी एक-एक बात शंकाओंको उत्पन्न करती थी । इन परिस्थितियोंमें उसने कहा था। 'हे आर्य ! मैं एक विशाल राज्यके । अधिपतिकी औरस सन्तान हूँ, मेरा पूर्वपुण्य समाप्त हो गया है अतएव सब कुछ भूलकर और खोकर इस निर्जन वनमें अकेली | रहती हूँ।। २९ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARA बराङ्ग त्रयोदशः सर्गः चरितम् परिभ्रमन्ती कृतपूर्वधर्मतो भवन्तमद्राक्षमिहैव सांप्रतम् । इतः प्रभूत्येव वशानुवर्तिनी भवेयमार्तामति गृहाण माम् ॥ ३०॥ अहं सुदुःखा' प्रविनष्टचेतना निरास्पदा तत्प्रतिकारदुर्लभा। त्वमेव भर्ता शरणं गतिश्च मे किमर्थमासे प्रतिवाक्यदुर्लभः ॥ ३१ ॥ अनेकविज्ञानकलाविदग्धया तयाभिपष्टो बहशः प्रगल्भया । स्वकेशवस्त्राङ्गविरूक्षतां स्वयं समीक्ष्य तां किचिदुवाच लज्जितः ।। ३२ ॥ सुभाषितं खल्विदमात्मनो वचः प्रियं च तथ्यं च तथैव शोभते । न मे गतिः काचिदपीह विद्यते गतिस्तवार्ये कथमस्मि कथ्यताम् ॥ ३३ ॥ स्वयं प्रबुद्धः प्रतिबोधयेत्परान् परान प्रतिष्ठापयते स्वयं स्थितः। स्वयं न बुद्धस्त्वनवस्थितः कथं परानवस्थापनरोध नक्षमः ॥ ३४ ॥ T पूर्व जन्ममें कोई पुण्य किया होगा उसीके प्रतापसे इस अटवीमें भटकते हुए यहाँपर इस समय आपके दर्शन पा सकी हूँ। क्या कहूँ, आपको देखते ही मेरा मन वा शरीर आपके वशमें हो गया है। मैं सब प्रकारसे दुःखी हूँ, संसारमें मेरे लिए अन्य कोई आशा अथवा सहारा नहीं है अतएव मुझे स्वीकार करिये ॥ ३०॥ मैंने इतने दारुण दुःख सहे हैं कि एक प्रकारसे मेरी चेतना हो नष्ट हो गयी है, अब मेरा कोई ठिकाना नहीं है, मैं । अपनी विपत्तियोंका स्वयं कोई प्रतीकार नहीं कर सकती हूँ अतएव तुम ही मेरे भरण पोषण कर्ता हो, तुम्हारे सिवा मुझे और कोई शरण नहीं है, मेरा उद्धार तुम्हीं कर सकते हो, बोलो, क्या कारण है, अरे, उत्तर भी नहीं देते हो ॥ ३१ ॥ देखनेसे ऐसा प्रतीत होता था कि वह विविध ज्ञान और सकल कलाओंमें पारंगत है । साथ ही साथ वह इतनी ढीट थी कि वह उत्तर न पाकर वरांगको बार-बार हिलाती थी। उसके लगातार स्पर्शके कारण और अपने बालों तथा पूर्ण शरीरको रूक्षता, कपड़ोंकी दुर्दशाको देखकर वह लज्जासे गड़ गया था। तो भी लजाते-लजाते कुछ बोला था ।। ३२॥ स्वदारसंतोषी वरांग 'आपके प्रिय वचन निश्चयसे मेरे लिए सुभाषित हैं अतएव ग्राह्य हो सकते हैं, किन्तु आप यह भी तो जानती हैं कि प्रियवाक्यके समान ही यथार्थ सत्यवाक्य हितकर्ता सत्यवाक्य भी शोभा पाता है । आप देखतीं हैं कि वर्तमानमें यहाँ मेरे निर्वाहका ! यहा मनवाहका [२२२] भी कोई मार्ग नहीं है ।। ३३ ।। __अतएव हे आर्य ? मैं आपका सहारा कैसे हो सकता हूँ, आपही बतावें ! जो व्यक्ति स्वयं जागता है वही दूसरोंको १.[ सदुःखा]। २. म पसं। ३. [°बोधन]। HISRAELIVESTMEILLY . Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थवमुक्तानुजगाद सा गिरं न युज्यते ते प्रतिवाक्यमीदृशम् । निगद्यते कापुरुषैरकामिभिः प्रतीच्छ मां भक्तिमतीमुपाश्रिताम् ॥ ३५॥ तयोवितं वाक्यमनसाधनं निशम्य सद्यौवनरूपवानपि । त्रयोदशः स्वदारसंतोषरतिव्रतं महद विचिन्स्य तामित्थमुवाच भूपतिः ॥३६॥ सर्गः अहं पुरा सर्वशस्तु पादयोः प्रणम्य मर्ना बहमानतोऽहंतः।। स्वदारसंतोषसमाहितं व्रतं गृहीतवानस्मि मुनीन्द्रसाक्षिकम् ॥ ३७॥ नवा न काम्यस्मि न चास्म्यपौरुषोन कामिनी वापि' सुगात्रि चिन्त्यताम् । गृहोतदारव्रतभूषणस्य मे अयुक्तमेतद्वतलङ्घनं पुन: ॥ ३८॥ जगा सकता है । जो न तो स्वयं जागता है और जिसको निजी स्थिति अत्यन्त डबाँडोल है वह कैसे दूसरोंकी नींद तोड़ सकता है अथवा उनको दूसरों को कैसे स्थिर कर सकता है ।। ३४ ।। कटु-कोमल परोक्षा युवक राजा वरांगसे इस प्रकारके उत्तरको सुनकर वह फिर बोली थी,-'हे आर्य ? आपको इस प्रकारका उत्तर देना शोभा नहीं देता। ऐसी बातें तो वे करते हैं जो कापुरुष है अथवा जिनकी समस्त अभिलाषाएँ व प्रेमपिपासा शान्त हो गयी हैं। + मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ और तुमपर अट्ट भक्ति करती हूँ इसलिये मुझे स्वीकार करो' ॥ ३५ ।। कुमार वरांगका यौवन चढ़ावपर था, सुन्दर-सुभग तो वह थे ही, इसके अतिरिक्त सामने खड़ी सुन्दरीके प्रिय वचन भी कामको जगानेवाले ही थे, तो भी उनको सुनते ही राजकुमारको अपनो पलीमें ही रतिको केन्द्रित करनेवाला स्वदारसंतोष व्रत याद आ गया था । फलतः कुछ समय तक विचार करनेके बाद युवक राजाने उससे यह वचन कहे थे । ३६ ।। लैङ्गिक सदाचार का आधार पत्नी हे आर्ये ? अबसे कुछ समय पहिले मुझे परमपूज्य, समस्त पदार्थोंके साक्षात्-द्रष्टा केवलीके चरणोंमें अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक नमन करनेका अवसर प्राप्त हुआ था। उसी समय मैंने अनेक मनिवरोंके सामने 'स्वदार संतोष' व्रतको ग्रहण किया था । यह व्रत मनुष्यके कामाचारको नियन्त्रित करके उसे समाधि की ओर ले जाता है ।। ३७ ॥ [२२३ ] ___'मैं कामी नहीं हूँ ऐसा बात नहीं है, तब तुम कहोगी क्या पुस्त्व से रहित हूँ' ऐसा भी मत समझो, आपको अपने ॥ विषयमें शंका हो सकती है सो हे सुन्दरी ! आप कमनीय युवती नहीं हैं ऐसा तो सोचा ही नहीं जा सकता है । सत्य यह है कि १.क नोपि। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् त्रयोदशः दृढवतत्वे स्थिरबुद्धितां तदा विबुध्य' देवी परिहृष्टमानसा । स्थिता स्वरूपेण नभस्युवाच सा परीक्षणायारकृतमष्यतामिति ॥ ३९ ॥ सुदर्शनेनाप्रतिमेन केवलं स्थिता वयं शीलगुणविवजिताः । व्रतेन सदृष्टियथानुगामिना स्थितो यतस्तेन सुराधिको भवान् ॥ ४० ॥ स्वसा तवाहं नरदेव धर्मतो गुरुमहान्नो वरदत्तसन्मुनिः । तवास्तु तद्भद्रमिति प्रशस्य तं नभस्स्थले सान्तरधाच्च तत्क्षणात् ॥ ४१ ॥ ततो विमुक्तो भयसंकटद्वयादितः किमु स्यात्करणीयमुत्तरम् । प्रयाम्यथासे किमु वा करोम्यहमितीहमानो गमनं व्यरोचत ॥ ४२ ॥ सर्गः Do मैं स्वदार-संतोष नामके व्रतसे भूषित हूँ और आप जानती हैं कि किसी भी व्रत को लेकर उसे तोड़ डालना कितना नीच काम है, ॥ ३८॥ म यह सुनकर देवीको विश्वास हो गया था कि उसकी बुद्धि स्थिर है और ग्रहीत व्रतका पालन करनेमें वह अत्यन्त दृढ है, तब उसका हृदय प्रसन्नतासे परिपूर्ण हो गया था। इसके उपरान्त उसने अपने वास्तविकरूप में आकाशमें खड़े होकर ये वाक्य कहे थे "आपकी परीक्षा लेनेके लिए मैंने जो कुछ किया है वह सब क्षमा करियेगा ।। ३९ ॥ यक्षीपर सुप्रभाव देवगतिको प्राप्त हम लोगोंको स्थिति तीनों लोक में अनुपम केवल सम्यक्दर्शनके हो कारण है, अहिंसा आदि व्रतों, सप्तशीलों तथा मलगुणों आदिका पालन करना हमारे लिए संभव नहीं है। किन्तु आपका जीवन सम्यक्त्व के सर्वथा अनुकूल पाँचों व्रतोसे युक्त है इसीलिए हे युवराज आप देवोंसे भी बढ़कर हैं ।। ४० ।। हे नरदेव! जहाँतक धर्मका सम्बन्ध है मैं आपकी बहिन लगती हूँ, क्योंकि मुनियों के अग्रणी परमपूज्य वरदत्त केवली हमारे भी गुरु हैं । आपका सब प्रकारसे अभ्युदय हो' इत्यादि वाक्योंके द्वारा युवराज को भूरि-भूरि प्रशंसा करके एक क्षण भरमें ही वह आकाश में अन्तर्धान हो गयी थी ।। ४१ ।। ___ भविष्य-चिन्ता इस प्रकार युवराज वरांग दो भयों तथा संकटों से मुक्ति पा सके थे इसके उपरान्त प्रश्न यह था। इसके आगे क्या करना चाहिये ? यहीं पड़ा रहूँ ? यहाँ से चल दूं ? अथवा करूँ तो क्या करूँ ?' इत्यादि विचारोंमें जब वह गोते लगा रहा था तो उसे यही अधिक उपयुक्त और कल्याण कर जंचा था कि 'यहाँसे चल देना चाहिये ।। ४२॥ । १. म निबुध्य । २. कमुष्यताम्, [ परोक्षणाय । ३. [°पथा]। ४. क सुधीगु (गुं) रुनों । बाबासमा [२२४] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् शनैः समुत्थाय ततो युवाधिपो वरं वनं स्निग्धत रूपशोभितम् । गिरिस्रवच्छीत जलाविलान्तरे ददर्श रम्यं पनसं फलाकुलम् ।। ४३ ॥ स तैः फलैर्हेमसमानकोशकैः पितॄन्प्रतर्प्य प्रविनीय तु क्षुधाम् । स्वकार्यसिद्धये नृपतिर्वनान्तरात्ततः प्रतस्थे वरनागविक्रमः ॥ ४४ ॥ नदीरगाधा ह'दवारिकाकुला गिरींश्च निम्नोन्नतदुर्गसंकटान् । प्रदेशस्तरुषण्डमण्डितान्भुजद्वितीयो विचचार सोद्यमः ॥ ४५ ॥ विशीर्णवस्त्राः कपिलाङ्गमूर्धजाः प्रवृद्धगण्डस्थलरोमभीषणाः । सिताप्रदन्ता रुधिरोरुदृष्टयः पिपीलिकापङ्क्तिनिभा वनेचराः ॥ ४६ ॥ परिभ्रमन्तं गिरिकन्दरोदरे यदृच्छया तं ददृशुः पुलिन्दकाः । गृहीतदण्डासिशरासनात्मकाः प्रतर्जयन्तः परिवव्रिरे नृपम् ॥ ४७ ॥ इसके उपरान्त युवराज वहाँसे चुपचाप उठा और चल दिया था । हरे तथा सुन्दर महातरुओंसे शोभायमान वह उत्तम वन पर्वतोंसे झरते हुए शीतल जलकी धाराओंसे परिपूर्ण था । उसीमें चलते-चलते, कुमारने एक सुन्दर पनस ( कटहल ) तरु देखा जो कि फलोंके भारसे पृथ्वीको चूम रहा था ॥ ४३ ॥ युवराजने उसके फल तोड़कर उनके भीतरसे सोनेके समान कान्तिमान पीले कावे निकालकर पहिले तो इष्ट देवकी उनसे पूजा की थी और फिर शेषको खाकर अपनी भूखको शान्त किया था। इसके उपरान्त अपने जोवनके उद्देश्यको सफल करने लिए ही श्रेष्ठ हाथीके समान पराक्रमी युवराज उस वनसे चल दिया था ॥ ४४ ॥ अथाह नदियों कमलोंसे ढके विशाल तालाबों, सघन जंगलोंसे व्याप्त नोचे ऊँचे अतएव न चलने योग्य पर्वतोंको तथा कटे टूटे वृक्षोंठ ठोंसे परिपूर्ण भीषण जंगली प्रदेशों में जीवन के लिए प्रयत्न करता हुआ वह चला जा रहा था। तथा इस अवस्थामें उसका एकमात्र साथी केवल उसकी भुजाएँ ही थीं ॥ ४५ ॥ पुलिन्द आक्रमण उन सब ही पुलिन्दोंके कपड़े चिथड़े- चिथड़े हो रहे थे, शरीरका अंग-अंग तथा केश भूरे ( धूमिल ) हो रहे थे, गालों पर बाल (रोम ) इतने बढ़ गये थे कि उनके मुख अत्यन्त डरावने लगते थे, आगे के सफेद, सफेद दाँत चमकते थे, बड़ीबड़ी आँखों में रुधिर चमकता था तथा चोटियोंकी पंक्तिके समान वे हजारोंके झु'डोंमें चले जा रहे थे ॥ ४६ ॥ इस प्रकार किसी विशेष उद्देश्यके विना पर्वतों तथा गुफाओंमें टक्कर मारते हुए युवराज वरांगको पुलिन्द १. क हृदवालकाकुला, [ हृदवारिजाकुला ] । २. म कपिला । ३. म पुलोद्रकाः । २९ For Private Personal Use Only त्रयोदश: सर्गः [ २२५] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् परीत्य सर्वे युगपन्निगृह्यतामितः कुतो मा चल दोनजोवित । क्व गच्छसोति प्रतिगृह्य निर्दया बबन्धुरुद्धांन्तकुलाग्रपाणयः ॥ ४८ ॥ लतां गले संपरिषज्य दुर्दमा मुहुस्तुदन्तो धनुरग्रकोटिभिः। अदण्डनाहं सुकुमारमीश्वरं विनिन्युरात्मावसथाय दस्यवः ॥४९॥ पुलीन्द्रपल्लों द्विपदन्तसंवृतां मृगास्थिमांसोरुकलेवराञ्चिताम् । वसान्त्रवल्लरविकोणमण्डपां प्रवेशयामासुरनिष्टगन्धिनीम् ॥ ५० ॥ दुरात्मभिाधजनैरभिद्रुतः सबन्धनो वेदनया विरूक्षितः । जुगुप्सनीये नयनाप्रिये गृहे स्मरन्न शेते स्वपुराकृता क्रियाम् ॥ ५१॥ त्रयोदशः सर्गः जातिके वनवासियोंने देखा था। युवराजको देखते ही उन्होंने अपने-अपने डंडे , तलवारें, धनुषबाणोंको हाथों में सम्हाल लिया था और अंट संट बककर युवराजको धमकाते हुए उस पर चारों ओरसे आ टूटे थे ।। ४७ ।। अकस्मात् ही उन सबने चारों तरफसे घेरकर कहा था 'पकड़ लो, अरे दीन जोवनको व्यतीत करनेवाले ? यहाँसे किधर भी मत हिल, कहाँ भागता है इसके उपरान्त उन निर्दयोंने पकड़कर हाथोंमें जोरसे पकड़े गये कुठारोंको घुमाते हुए उसको बाँध दिया था । ४८ ॥ उसके गलेको एक लताकी रस्सोमें फंसा लिया था। वे निर्दय उद्दण्ड नीच दस्यु धनुषके नुकीले भागसे बार-बार उसको कुरेदते थे, यद्यपि सुकुमार युवराज वरांग ऐसे थे कि उन्हें दण्ड देना सर्वथा अनुचित था। इस प्रकार कष्ट देते हुए वे उन्हें अपनी पुलिन्द बस्तीमें ले गये थे ।। ४९ ॥ वहाँ पहुँचते हो, वे उन्हें अपनी बस्तीके राजाकी झोपड़ी पर ले गये थे। इस झोपड़ेके चारों ओर हाथियोंके दाँतोंकी बाढ़ थी, हिरणों की हड्डियों, मांस और पूरीकी पूरी लाशोंसे वह पटी था, बैठनेके मण्डपमें भी चर्बी, आतें, नसें आदि सब तरफ फैले पड़े थे तथा उसमें ऐसी दुर्गन्ध आ रही थी जिसे क्षण भरके लिए दूरसे भी सूचना असम्भव था॥५०॥ दुराचारी निर्दय भीलोंसे नाना प्रकारके कष्ट पाता हुआ, बन्धनमें पड़ा तथा शारीरिक वेदनाके कारण अत्यन्त व्याकुल युवराज घोर घृणाको उत्पन्न करनेवाले तथा आँखोंमें शूल समान चुभते हुए उस झोपड़ेमें पहिले किये गये अपने भोग। विलासमय जीवनको सोचता हुआ किसी प्रकार पड़ा रहता था, सोना असम्भव था ॥ ५१॥ [२२६] Jain Education intemational For Privale & Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAL त्रयोदशः सर्गः - IIHSHAHIReaturaiyaमामा-मामा कुमन्त्रिणा मन्त्रमुखेन वैरिणा समर्पितं प्राप्य तुरङ्गमाधमम् । इमामवस्थामनुभूय सांप्रतं क्व वा गमिष्यामि कृतान्त कथ्यताम् ॥ ५२ ॥ पुरा मया कि तु' कृतं ह्यजानता विपाकतिक्तं हि दुरीहितात्मना । अनेकदुःखार्णववीचिसंकटान्निवृत्तिरद्यापि न मेऽस्ति पापिनः ॥ ५३॥ वियोगचिन्तापरिखिन्नचेतसस्ततश्च शार्दूलभयाद्विनिच्युतः । जलाशयान्निर्गमितस्य मे पुन:3 इदं महत्कष्टतमं ततोऽभवत् ॥ ५४॥ अहो दुरन्ता दुरनुष्ठिताः क्रिया अवश्यभाव्यास्त्वविचार्यवीर्यकाः । अवन्ध्यरूपाश्च विपाकदुस्सहा इति प्रचिन्त्यात्मनि मौनमादधौ ॥ ५५ ॥ तमोगहे पूतिकचर्मसंवृते बहुप्रकारे क्रिमितीव्रदर्शके । संमार्जनादिप्रतिकर्मवजिते महीतले शीतलवायुबाधने ॥ ५६ ॥ मंत्री पर क्रोध तथा आर्तध्यान ऊपरमे हितेषी मंत्रीका रूप धारण करनेवाले नीच शत्रु, मंत्रीके निकालनेके बाद भेंट किये गये विपरीत गामी घोड़ेपर चढ़कर ही मैंने इन एकसे एक बुरी अवस्थाओंका अनुभव किया है। हे कृतान्त ! तुम्हों बताओ अब मैं कहाँ जाऊँ ।। ५२ ॥ फलको बिना जाने ही पापमय प्रवृत्तियोंमें लिप्त मेरे द्वारा पूर्व जन्ममें कौनसे अशुभ कर्म किये गये होंगे जिनका परिपाक होनेपर ये अत्यन्त कडुवे फल प्राप्त हो रहे हैं । इसीलिए मुझ पापो को आज भी संकटरूपी घातक तथा उन्नत लहरोंसे व्याप्त, इस दुःखरूपी समुद्रसे छुटकारा नहीं मिल रहा है ।। ५३ ।। मेरा हृदय माता-पिता, कलत्र आदिके वियोगजन्य दुःखसे यों ही अत्यधिक खिन्न था, उसपर भी सिंहका भय आ पड़ा था, किन्तु उससे भी छुटकारा मिला था, तालाबमें नक्रके मुखमें पड़कर भी बच गया था फिर उसके भी बाद यह महाविपत्ति कहाँसे आ टूटी ।। ५४ ।। कुत्सित तथा पापमय कर्मोंका आचरण कितना भयंकर और दुःखद है। कुकर्मोका अन्त सर्वदा बुरा ही होता है। भगीरथ प्रयत्न करके भी उसे टाला नहीं जा सकती है क्योंकि उसकी शक्ति ऐसी है जिसका कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता है। ऐसी भी संभावना नहीं की जा सकतो है कि पापकर्मोकी फल देनेको शक्ति वन्ध्या हो जायगी । तथा इनका फल भी क्या होता 1 हैं? अत्यन्त असह्य।' मन ही मन इस प्रकारसे सोचकर वह चप हो गया था ।। ५५ ॥ भीषण कारागार जिस भागमें वह बन्दी था वह घर केवल अन्धेरेसे हो बना-सा प्रतीत होता था, उसके प्रत्येक कोनेमें चमड़ा भरा था । १.[कि नु]। २. ( विनिश्च्युतः । ३.क पुनविदं, [ पुनस्त्विदं ]। ४. [ °दंशके ] | IARRIAGEHLEAPRIASISATTATRIGINGRESS [२२७) Jain Education interational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् क्षुधापमानाङ्गविबन्धपीडनैरनिष्टगन्धद्रवणेऽप्रियेक्षणैः । अनात्मवश्यस्य सहस्र संगुणा गता निशा सा बहुदुः खचिन्तया ॥ ५७ ॥ ततः प्रभाते च कुसुम्भभृत्यका महीपति तं कलुषान्तरात्मकाः । प्रगृह्य याता वनदेवतागृहं द्विजा ऋतुं छागमिव' प्रहिंसितुम् ॥ ५८ ॥ तदैव कौसुम्भिममेयवीर्यकं वनं प्रयान्तं मृगयाभिकाङ्क्षया । उदग्रकोपश्च रणत्रमर्दनाद्ददंश दंष्ट्रोग्रविषो भुजंगमः ॥ ५९ ॥ स तेन दष्टः क्षणमात्रतः पुनः पपात भूमौ विषवेगमूच्छितः । विमोहितासु प्रसमीक्ष्य बान्धवाः पितुः सकाशं ह्यभिनिन्युरावृताः ॥ ६० ॥ जिससे तीव्र सडांद आ रही थी। नाना प्रकारके मच्छर, चींटी आदि क्रमियोंका वह अक्षय भंडार था; यह सब लगातार काटते थे, झाडू देना, लीपना, पोतना आदि संस्कार तो उस घरके कभी हुए हो नहीं थे, उसका धरातल सीलके कारणसे चिपचिपाता था तथा वायु भी वहाँ ठंडो ही मालूम होती थी ।। ५६ ।। इसके अतिरिक्त भूख से देह दृट रही थी, अपमानको ज्वाला शरीरको जला रही थी, रस्सियोंके बंधन अंग-अंग में चुभ रहे थे, स्थानकी गंध और रक्तादिकी धारा विकट वेदनाको उत्पन्न करते थे, आँखोंके सामने जो कुछ भी आता था वह सब ही अप्रिय था तथा ऊपरसे दुःख और चिन्ता भी अपरिमित थीं। इन सब कारणोंसे विचारे सर्वथा पराधीन युवराजको एक रात बिताने में ही ऐसा कष्ट हुआ मानों हजारों रातें बीत गयी हैं ॥ ५७ ॥ नरबलि सज्जा किसी प्रकार सुबह होते ही पुलिन्दोंके अधिपतिके सेवक, जिनके अन्तःकरण इतने मलीन थ कि उनसे दया आदिकी संभावना करना ही अशक्य था- उस राजा वरांगको जबरदस्ती पकड़कर धनदेवीके मन्दिरको वैसे ही घसीट ले गये थे, जैसे यज्ञमें नियुक्त ब्राह्मण, यज्ञके बकरेको बलि करनेके लिए ले जा रहे हों ।। ५८ ।। इसी बीच में पुलिन्दपति के अनुपम तथा अमित पराक्रमी पुत्रको, जो कि आखेट करनेकी इच्छासे, जंगलमें जा रहा था -- अत्यन्त कुपित महाविषैले साँपने काट लिया था, क्योंकि उसके पैरसे वह साँप कुचल गया था ।। ५९ ॥ काटनेके बाद विष इतने वेगसे पूरे शरीर में फैला कि वह भीमकाय पुलिन्द क्षणभर में ही मूच्छित होकर धड़ामसे पृथ्वीपर गिर पड़ा था। चारों तरफ घेरकर खड़े सगे सम्बन्धियोंने देखा कि उसको चेतना नष्ट हो रहो है और वह मूच्छित हो रहा है तो वे सबके सब बड़ी तेजीसे उसे पिताके पास उठा ले गये थे || ६० ॥ १. [ क्रतुण्छागमिव ] । त्रयोदश: सर्गः [ २२८] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः TRAIPimenewsmRANIKPSHRAMMAHIMALPARASIMILIARHA गतासुमुवीक्ष्य स तं वनेश्वरो यथावचार्या' गृहमीक्षितुं गतः। तमासितं तत्र नपं सबन्धनं समीक्ष्य पप्रच्छ विषप्रणाशनम् ॥ ६१॥ 'पुलीन्द्रनाथेन स चोदितो भृशं करोम्यहं निविषमित्यभाषत । त्रयोदशः तदैव तुष्टाः परिमुच्य बन्धनं कुरु प्रसादं त्वमिहात्मसूनवे ॥ ६२ ॥ ततो नृपो मन्त्रपुरस्कृतैः पदैर्महर्षियोगीश्वरसाधुसाधितः । जिनेश्वराभिष्टवमिश्रिताम्बुभिः सिषेच तस्मिन्विषदोषहारिभिः ॥ १३ ॥ यथा यथा मन्त्रितवारिबिन्दुभिः प्रसेचितः कुम्भमुखात्परिस्रुतैः । तथा तथा निविषतामपेय वान्प्रसन्नचेताः प्रकृति ययौ पुनः॥ ६४॥ ततः कुसुम्भप्रमुखाः पुलोन्द्रकाः कराङ्गुलिभ्रामणविस्मितेक्षणाः । महापराधोऽकुशलात्मभिः कृतः क्षमस्व नाथेति ययाचिरे भृशम् ॥६५॥ जंगलके राजाने जब अपने पुत्रको पूर्ण रूपसे अचेतन देखा तो विषका प्रतिकार खोजता हुआ वह वनदेवीके मन्दिरमें जा पहुँचा उसमें घुसते हो पुलिन्दपतिकी दृष्टि महाराज वरांग पर पड़ो जो अपने बन्धनोंमें जकड़े विवश पड़े थे। दुःखसे व्याकुल भीलनाथने उनसे पूछा था-"क्या तुम विषका उपचार करना जानते हो ।। ६१ ॥ पुलिन्दोंके प्रभुसे उक्त प्रश्न पूछे जानेपर कुमार वरांगने उत्तर दिया था-"मैं निश्चयसे किसी भी आदमीका पूरा विष दूर कर सकता हूँ।" यह सुनते ही वह वनराज अत्यन्त प्रसन्न हुआ था, उसने तुरन्त ही उनके बन्धन तुड़वा दिये थे और प्रार्थना की थी कि 'आप इस समय मुझपर अनुग्रह करें ।। ६२॥ विषापहारं मणि' - पुलिन्दपतिके लड़केके पास पहुँचकर राजाने ( वरांगने) (विषजन्य अचेतना आदि समस्त रोगोंको शान्त करनेसे समर्थ ) परम ऋषियों, श्रेष्ठ योगियों तथा सफल साधुओंके द्वारा विधिवत् जगाये गये मंत्रोंका पाठ करनेके साथ, श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवके स्तवनोंका उच्चारण करते हुए विषवेगमें मूच्छित युवक पुलिन्द पर जलके छींटे देना प्रारम्भ किया था॥६३।।। कलशके मुखसे बहते हुए मंत्रपूत जलके छींटे ज्यों-ज्यों मूच्छित भीलपर दिये जाते थे, त्यों-त्यों उसका विष उतरता जाता था और उसके शरीरका उतना भाग विषके विकारसे मुक्त होता जाता था। इस प्रकार थोड़ी ही देरमें वह प्राकृतिक [२२९] अवस्थामें आ गया था और तन-मनसे प्रसन्न हो गया था। ६४ ।। यह देखकर पुलिन्दनाथ 'कुसुम्भ' आदि प्रधान भील बड़े आश्चर्यमें पड़ गये थे। हाथकी अंगुलियोंका मोड़ना और १. [ यथापचर्यागृह ] । २. क पुलिन्द। ३. [ °मुपेयिवान् ] । SARDARMERISPELA राजाना पुलिन्दपतिकम विणका उपकुमार वर्गगमन्न हुआ बाम Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः प्रहृष्य भूयः कटकादिभूषणान्विचित्रवस्त्राणि च संप्रदाय ते । 'वरान्नमेतत्तव योग्यमिष्यतां श्रमं व्यपोह्य क्रमतः प्रयास्यसि ॥६६॥ तमूचिवान्नोवनकार्यमस्ति मे न माल्यगन्धाम्बरभूषणादिभिः । महापथं दर्शय देशगामिनं विमुच्यतां लध्वभियाम्यविघ्नतः ॥ ६७॥ ततः पुलिन्दाधिपतेश्च शासनान्नरैः सुदूरं गमितो नरेश्वरः। प्रदर्श्य मार्गान्बहुदेशगामिनः पुननिवृत्ता वनगोचरास्तदा ॥ ६८ ॥ गतेषु तेषु स्वकृतानुरूपतां विचिन्त्य सम्यग्बहुशो नराधिपः । स्वदेशयानं प्रति किं विशेषतो व्रतान्यदेशाटनमिष्यते क्षमः ॥ ६९ आँखोंका चंचलतापूर्वक घुमाना ही यह सूचित करता था कि उनके आश्चर्यका ठिकाना नहीं था। अन्तमें उन्होंने बड़े आग्रहपूर्वक यही प्रार्थना की थी "हे नाथ ! गुणोंको पहिचाननेमें असमर्थ हम जड़बुद्धियोंने आपके साथ महान अपराध किये हैं, हमारो मूर्खताका ख्याल न करके उन्हें क्षमा कर दीजिये ॥ ६५ ।। जब कुमारने उन्हें सरलतामें यों हो क्षमा कर दिया तो वे इतने प्रसन्न हुए थे कि उन्होंने तुरन्त कटक (पैरोंका भूषण ) आदि उत्तम आभूषणों तथा नाना प्रकारके अद्भुत वस्त्रोंको लाकर युवराजको भेंट किये थे । 'यह बढ़िया अन्न-पान आपके योग्य है इसे स्वीकार करिये आप अपनी थकान और घावोंके ठीक हो जानेपर ही यहाँसे जा सकेंगे' ॥ ६६ ॥ आगेके मार्गको शोध इस प्रकारके वाक्योंसे कृतज्ञता प्रकट करनेवाले भिल्लराजसे युवराजने केवल इतना ही कहा था-'मुझे भात, दाल । आदिकी आवश्यकता नहीं है, सुगन्धिमाला, सुन्दर सुगन्धित वस्त्रों तथा कटक आदि आभूषणोंसे भी मुझे कोई सरोकार नहीं है, आप किसी देशको जानेवाले उत्तम मार्गको मझे दिखा दीजिये और बिदा दीजिये ताकि मैं जल्दी ही किसी विघ्न बाधाके, बिना वहाँ पहुँच सकूँ ॥ ६७ ।। यह सुनते ही पुलिन्दपति कुसुम्भने तुरन्त आज्ञा दी थी। जिसके अनुसार कितने हो भील नरेश्वर वरांगको काफी दूरतक अपने साथ ले गये थे। वहाँपर कई देशोंको जानेवाले उत्तम मार्ग दिखाकर वनखण्ड निवासी वे उक्त भील लोग लौट गये थे॥ ६८॥ भावो कर्तव्य-द्विविधा मार्ग दिखानेके लिए साथ आये भीलोंके लौट जानेपर नराधिप वरांगने बार-बार गम्भीरतापूर्वक भलीभाँति यही सोचा। १.क वराङ्गमेतत् । २. क विशिष्यतो । [२३०॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज किमत्र चिन्स्यं कुशलानुबन्धि' यत्तदा त्वयुक्तागतिसिद्धिकारकम् । यथा परैर्नो परिभूयते पुनस्तथा हि कार्य स्वहिताभिलाषिणा ॥ ७० ॥ महापदं प्राप्य नरोत्तमः पुनर्न चैच्छदात्मप्रियबन्धुदर्शनम् । नराधमः स्त्री धनमानवजितः स बन्धुसंगं कृपणो हि वाञ्छति ॥७१ ॥ यथैव राज्यादनपीय तत्क्षणाच्चकार मां निविभवं पुराकृतम् । तथैव राज्यं सुकृतं यदस्ति चेत्तदैव मां स्थापयतु स्वकालतः ॥ ७२ ॥ इमामवस्थामनभय यद्यहं व्रजामि चेदबन्धसकाशमाशया। भवाम्यरीणां परिहासकारणं स्वबन्धमित्रष्टजनातिशोचनः ॥ ७३ ॥ ॥ त्रयोदशः सर्गः मच AFRASTROHAIRanrammasumaAPAHIRPATHAARPATHADHIPARATIBAnter था कि उसके उस समय उदयको प्राप्त कर्मों के अनुरूप कौनसा कर्तव्य कल्याण कर हो सकता था। विशेषकर अपने देशको लौट जाना कैसा होगा, अथवा दूसरे-दूसरे देशोंमें पर्यटन करना ही उपयुक्त होगा ।। ६९ ॥ ऐसी परिस्थितियोंमें जो उपाय कुशल क्षेमका बढ़ानेवाला हो उसका सोचना हो क्या है, किन्तु यदि उद्देशकी सफलतामें बाधक गति असम्भव हो हो तब तो अपने हित और उत्कर्षको चाहनेवाले व्यक्तिको वही मार्ग पकड़ना चाहिये जिसपर चलकर, फिर दूसरोंके द्वारा तिरस्कृत होनेको आशंका न हो ।। ७० ।। न बन्धुमध्ये श्रीहोन जीवितं पुरुषार्थी श्रेष्ठ पुरुष लोकोत्तर महान् पदोंको पाकर भी अपने परम प्रियजनों तथा बन्धुबान्धवोंके दर्शन करनेकी अभिलाषा, क्या नहीं करते हैं ? किन्तु अपनी स्त्री-बच्चोसे बिछुड़कर तथा सम्पत्ति, वैभव, सन्मान आदिको खोकर भी जो व्यक्ति अपने मित्रों अथवा कुटुम्बियोंके साथ रहना चाहता है वह अत्यन्त कृपण और दोनहोन नर है ।। ७१ ॥ मेरे पूर्वकृत कुकर्मोंके विपाकने राज्य सिंहासनपरसे खोंचकर एक क्षण भरमें ही जिस प्रकार मुझे अमित वैभव और प्रभुतासे वंचित कर दिया है, यदि मेरा पुण्य शेष है तो वह ही समय आनेपर मुझे उसी प्रकार राज्यसिंहासनपर स्थापित करे ऐसा स्व-संबोध किया था ।। ७२ ॥ इस प्रकारकी दयनीय दुरवस्थामें पड़ा हआ मैं यदि सहायता या उद्धारकी आशा लेकर अपने कुटुम्बियों और मित्रोंके पास जाऊँगा तो मेरे बन्धु-बान्धव, मित्र तथा प्रिय लोग मेरा होन अवस्थाको देखकर खेद खिन्न होंगे और इससे भी बुरा तो यह होगा कि शत्रुओंको मेरा उपहास करनेका अवसर मिलेगा ।। ७३ ।। १. म कुशलानुबन्धे । २. म यदा त्वयुक्ता । ३. क श्रीधन। ४. [रराज्ये ""वेत्तदेव । E ATREELIGIRLikes [२३१] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAGAL वरांग न चोभयं मे परदेशदर्शने भविष्यतीति स्वमति विधाय सः । महापथेनाप्रतिमाभपौरुषस्ततः प्रतस्थे स्वमतानसिद्धये ॥ ७४ ॥ खरान्प्रदेशानस्थलनिम्ननिर्जलान गिरीन्दरी: काननकक्षकन्दरान् । अतीत्य सूर्यास्तमनेऽङ्घ्रिपोपरि ह्यशेत कायोप सृति विचिन्तयन् ॥ ७५ ॥ पुनः प्रभाते तरुतोऽवतीर्य तं प्रयान्तमध्वानमवेक्ष्य साथिकाः। प्रबाध्य निर्भर्त्य निरुध्य निर्दया उपेत्य पप्रच्छरथाति गतिम् ॥ ७६ ॥ क्व यासि कि पश्यसि कि प्रयोजनं क्व वेश्वरो वा क्व च तस्य नाम किम् । कियबलं वा कतियोजने स्थितं वदेति संगृह्य बबन्धुरीश्वरम् ॥ ७७ ॥ त्रयोदशः सर्गः चरितम् L ECTION HIPPEHPATHISRPARISHIDARSHASTRASIPOSTPIRSINHere यदि मैं विदेश चला जाता हूँ तो अपनोंके दुःख तथा शत्रुओंके उपहास इन दोनोंका कारण न होऊंगा' यह सोचकर उसने दूसरे देशोंमें भ्रमण करनेका निर्णय किया था। विविध विपत्तियाँ झेलनेपर भी उसके आत्मबलको सीमा न थी इसलिए उक्त निर्णय करनेके उपरान्त ही वह यवराज अपने इष्टको लिद्धिके लिए एक विस्तृत लम्बे रास्ते पर चल दिये थे ।। ७४ ।। वरं वनं व्याघ्र गजेन्द्र सेवितं कंकरीले, पथरीले कठोर स्थलों, जलहीन किन्तु समुद्रतलसे भी नोचे प्रदेशों, पर्वतों, भयंकर गुफा मागों, जंगलों, अत्यन्त घने दुर्गम वनों तथा कन्दराओंको पार करता हुआ वह बढ़ता जाता था। ज्यों ही सूर्य अस्ताचल पर पहुँचते थे वह किसी वृक्ष पर चढ़ जाता था और कार्य तथा घटनाओंकी शृंखलाको सोचता हुआ रात काट देता था ॥ ५ ॥ सूर्योदय होते ही वह वृक्षसे नीचे उतरकर चल देता था। एक दिन इसी प्रकार मार्गपर चलते हुए उसे व्यापारियोंके सार्थ ( काफिले ) ने देखा था, देखते हो वे निर्दय उसके चारों ओर जा पहुंचे और बाधा देकर उसको रोक लिया था। यद्यपि इस संसारमें युवराजका कोई चारा (गति ) न था तो भी उन सबने डाँट डपटकर उससे उसका गम्य स्थान आदि पूछा था ।। ७६ ।। सशंक प्रश्न "कहाँ जाते हो ! क्या जाँच पड़ताल करते फिरते हो? इस अन्वेषणका क्या प्रयोजन है ? तुम्हारे अधिपतिका नाम क्या है ? वह इस समयपर कहाँ है ? उसका नाम क्या है ? उसके सैन्य-बलका प्रमाण कितना है ? यहाँसे कितने योजनकी दूरीपर ठहरा है ? इत्यादि सब बातोंको तुरन्त बताओ।' कहकर उन लोगोंने युवक राजाको बन्धनमें डाल दिया था ।। ७७ ॥ १. क कायोनुसूर्ति, [ कायोपस्थिति ] । । २३२ ] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग त्रयोदशा . चरितम् अथागतः सार्थपरोक्षणाय चेत्परीक्ष्यतां साधु परोक्ष्य चारिकः । प्रवालमुक्तामणिरूप्यकाञ्चनैरयं भूतः सार्थ इतो निगद्यताम् ॥ ७८॥ नचारिकोऽहं न च वित्तमार्गणो न दुष्टबुद्धिर्न च चौर्यतत्परः। न कस्यचित्प्रेष्यजनो भवाम्यहं भ्रमामि निःकेवल 'मित्युवाच सः ॥ ७९ ॥ वयं न विद्मोऽर्थपतिः प्रमाणको गुणागुणान्वेषणतत्परायणः । स एव जानाति यवत्र युक्तिमानिति वाणाः पतये प्रणिन्यिरे ॥८॥ सबन्धनं चारुसमग्रयौवनं सुलक्षणव्यज्जनल क्षविग्रहम् । समीक्ष्य सार्थाधिपतिर्न तस्करो विमुच्यतां लध्वयमित्युवाच सः ॥ ८१ ॥ सर्गः 'हे गुप्तचर ! यदि तुम हमारे सार्थको सम्पत्ति आदिका पता लगाने हो आये हो तो आओ (व्यंगपूर्वक कह रहे हैं) चारों तरफ घूमकर भलीभाँति सब बातोंका अनुमान कर लो। यहाँसे जाकर अपने अधिपतिसे कह देना कि यह सार्थ मूंगा, मोती, मणि, चाँदो, सोना आदि बहुमूल्य संपत्तियोंसे परिपूर्ण है।' सार्थका समाधान इसके उत्तरमें युवराजने कहा था-'न तो मैं किसोका गुप्तचर हूँ, न मैं धन सम्पत्तिको खोजमें घूम रहा हूँ, न मेरे मनमें हो किसी प्रकारका पाप है, न चोरी मेरो अजीविकाका साधन है और न मैं किसीके द्वारा भेजा गया किंकर ( गुप्तचर ) हो हूँ। आप इतना विश्वास करें कि भाग्यका मारा मैं केवल निरुद्देश्य भ्रमण ही कर रहा हूँ ।। ७९ ।। सार्थपतिके सामने इस उत्तरसे उन्हें संतोष न हुआ था अतएव उन्होंने कहा था-'हम लोग कुछ नहीं जानते, दोषों और गुणोंका विवेक करने में हमारे प्रधान सार्थवाह अत्यन्त कुशल हैं, अतएव आपके विषयमें वे ही निर्णय कर सकेंगे। क्योंकि ऐसे विषयों में क्या कर्तव्य युक्तिसंगत होगा यह वही समझते हैं।' यह कहकर वे युवराजको सार्थवाहके सामने ले गये थे ।। ८० ॥ परिपूर्ण यौवन, सुन्दर तथा बन्धनोंसे जकड़े हुए राजकुमारके शुभ लक्षणोंसे व्याप्त शरीरको देखकर ही सार्थवाहको उसकी कुलीनताका विश्वास हो गया था अतएव उसने आज्ञा दी थी कि 'इसे तुरन्त ही बन्धनोंसे मुक्त करो, यह सैकड़ों सार्थोंका स्वामी है, चोर नहीं हो सकता है ।। ८१ ॥ [२३३] १. कनः केवलं । २. म लक्ष्म, [ लक्ष्य ] । ३० Jain Education international Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितस् नरेन्द्रपुत्रः स्वयमेव वा नृपः शरीरचार्वाकृतिसौम्यदर्शनः । कथं न्विमामापदमाप्तवानयं स सार्थनाथः परिपृच्छति स्फुटम् ॥ ८२ ॥ कुतस्तवायातिरितः क्व गच्छसि पिता च माता च सुहृज्जनः क्व ते । श्रुतं च गोत्रं चरणं च नाम कि न चेद्विरोधो वद वत्स पृच्छतः ॥ ६३ ॥ स एवमुक्तः प्रविचक्षणो नृपः परीक्ष्य पूर्वापरकार्यमब्रवीत् । इयं स्ववस्था कथयत्ययत्नतः किमेतया संकथया विमुच्यताम् ॥ ८४ ॥ निशम्य तद्वाक्यमुदारसौष्ठवं समूचिवान्ससंदि सार्थनायकः । अहो विशुद्धान्वयतास्य पश्यतो' न विस्मयं गच्छति नैव कुप्यति ॥ ८५ ॥ इति प्रशंसन्गुणरूपसंपदं निरीक्ष्य च क्षामकपोलनेत्रताम् । करेण हरतं प्रतिगृह्य दक्षिणं स नीतवानात्मनिवासमादरात् ॥ ८६ ॥ यह किसी प्रबल प्रतापी राजाका पुत्र है, अथवा स्वयं ही यह कोई बड़ा राजा है, इसका शरीर और मुख आदिकी आकृति मनमोहक हैं, यह विचारा इस प्रकारको आपत्ति में कैसे आ फँसा है!' कहकर निम्न प्रश्नोंको सार्थं पति ने स्पष्ट रूपसे पूछा था ।। ८२ ।। आप किधरसे आ रहे हैं ? यहांसे कहाँ जाते हैं ? आपके पिता, माता तथा मित्र बान्धव कहाँ पर निवास करते हैं ? आपकी शिक्षा क्या है। आपका गोत्र क्या है ? तथा आप किस आचरणको पालते हैं । हे वत्स ! यदि इनका उत्तर देनेसे इष्टकार्यमें बाधा न पड़ती हो तो मेरी जिज्ञासाको पूर्ण करो ।। ८३ ।। गम्भीर ाजकुमार राजकुमार स्वभावसे बुद्धिमान और लोकाचारमें कुशल थे अतएव उन्होंने अपने पर बीते कर्मों तथा कर्त्तव्योंका आगापीछा सोचकर इन सब प्रश्नोंके उत्तर में यही कहा था "मेरी वर्तमान अवस्था ही सब स्पष्ट बतला रही है तब बतानेका और क्या प्रयत्न किया जाय। इन सब बातोंसे क्या प्रयोजन ? कृपा करके मुझे छोड़ दोजिये" ॥ ८४ ॥ कुलीनताका भक्त सेठ सागरवृद्धि राजकुमारके अत्यन्त सज्जनता और साधुतासे युक्त वचनोंको 'सुनकर सार्थं पति ने अपने सब साथियोंकी गोष्ठी में प्रसन्नता और उत्साह के साथ घोषित किया था 'अरे ! इसकी परमोत्कृष्ट कुलीनताको आप लोग देखें हमारे विभिन्न व्यवहारोंसे न तो इसे आश्चर्य ही होता है और न हम लोगोंके अपमानोंके कारण यह कुपित ही है ।। ८५ ॥ इस प्रकारसे उसके क्षमा आदि गुणों, रूप आदिको हृदयसे 'श्लाघा करते हुए उसकी दृष्टि राजकुमारके दुर्बल तथा १.[ पश्यत ] २. म संमदं । त्रयोदशः सर्गः [ २३४ ] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः बराङ्ग चरितम् प्रदाप्य पाचं वणिजां पतिस्ततो हितं वचः श्रोत्रसुखं निगद्याच। वरासने वेत्रमये निवेश्य तं सतैलसंवाहनतामकारयत् ॥७॥ दयासंप्रयुक्तो वणिक्वेणिनाथः शशासात्मभृत्यं लघु स्नापयेति । यथेष्टं वरान्नं चतुभिस्त्वहोभिरभुङ्क्ताग्रतः श्रेष्ठिनः संनिविष्टः ॥ ८॥ सुगन्ध सुमाल्यं वरं वस्त्रयुग्मं प्रदायात्मशक्त्या क्षमस्वेत्यवोचत् । भवद्भिः सहैवागमिष्यामि तावदिति प्राह सोऽप्येवमस्त्वित्युवाच ॥ ९ ॥ इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते सागरवृद्धिसंदर्शनो नाम त्रयोदशमः सर्गः । सर्गः न्यायमचाचELAICHIELHI कृश' कपोलों और नेत्रों पर रुक गयी थी। यह देखकर उसने आदर और स्नेहसे युवराजका दायाँ हाथ अपने हाथमें ले लिया था और आग्रहपूर्वक उसे अपने तम्बूमें ले गया था ।। ८६ ।। मार्गमें वह युवराजके हितको प्यारी-प्यारी बातें करता गया था। तम्बूमें पहुँचते हो उस सम्पत्तिशाली सार्थवाहनें स्वयं पैर धोनेके लिए पानी मँगवाया था। इसके उपरान्त यात्रामें उपयुक्त वेतोंसे बने उत्तम आसन पर बैठाकर अपने सामने । ही उस वरांग के शरीर का मर्दन, लेपन, अभ्यङ्ग आदि करवाया था ।। ८७॥ वणिकोंकी श्रेणीके अधिपतिके हृदयमें स्नेहमिश्रित दया कुमारके प्रति उभर आयी थी। इसकी प्रेरणा इतनी प्रबल थी कि उसने अपने सेवकोंको आज्ञा दी थी कि 'वे यवराजको सुकुमारता पूर्वक बहुत शीघ्र स्नान करावें।' इसके अतिरिक्त वह युवराजके लिए बढ़ियासे बढ़िया भोजन उनकी इच्छाके अनुकूल बनवाता था। तथा प्रारम्भके चार छह दिन पर्यन्त तो युवराजको सेठजीके साथ ही भोजन करना पड़ता था ताकि वह संकोच न कर सके ।। ८८॥ __ यात्राको सुविधाओंके अनुसार वह अपनी पूर्णशक्ति भर कुमारको चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ, उत्तम माला आदि वर प्रसंग, बढ़ियासे बढ़िया उतरीय तथा अधरीय वस्त्रोंकी जोड़ी देता था, तो भी कहता था 'असुविधाके लिए क्षमा करें'। यह सब देखकर युवराज कुमारने कहा था कि 'कुछ समय तकमें आप लोगोंके साथ ही चलता हूँ' इसपर सेठने कहा था 'आपकी कृपा, ऐसा ही हो' ॥ ८९ ।।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें सागरवृद्धि-दर्शन नाम त्रयोदश सर्ग समाप्त । [२३५) १. क निगद्यत । वरासने वेत्रमयाववेनसि निवेश्य संवाहनतामकारयत् ॥ २. [ त्रयोदशः ] । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः बराङ्ग चरितम् चतुर्दशः सर्गः एकाकिनारण्यपथेन याता प्राप्तानि दुःखानि सुदुस्सहानि । इति प्रसंधार्य निवृत्तयानः सार्थाधिपेनैव सहोपविष्टः ॥१॥ प्रगृह्य मानाकृतिचारुवेषान्विभूष्य माल्याम्बरभूषणानि । भुक्त्वा यथेष्टं वणिजस्तु गोष्ठीनिष्ठ: २समध्व्यासत संकथाभिः ॥२॥ सार्थेन सर्वद्धिमताधिनस्ते सहागता ये नटनर्तकाद्याः । वागनचेष्टाकृतिकौशलं स्वं प्रारेभिरे दर्शयितु यथावत् ॥३॥ गायन्ति गीतानि मनोहराणि नृत्यन्ति नत्यान्यपरे विधिज्ञाः । वाद्यानि वीणाम रजादिकानि शिक्षानपूर्व प्रतिवादयन्ति ॥ ४ ॥ TGARSHEELAI MEAGURIHITROGETHEREURDURGALASHES चतुदश सर्ग "बुधेरण्यपथेनगम्यते" 'दुर्गम तथा भीषण जंगली मार्गोपर एकाकी भटकते हुए मैंने कैसे-कैसे हृदय विदारक अत्यन्त असह्य सैकड़ों दुःखों को सहा है' इसको, उतने दिनोंके अनुभव का निष्कर्ष मानकर ही युवराजने अपने निरुद्देश्य भटकनेको समाप्त कर दिया था और सार्थपतिके साथ ही चलने लगा था ।।१।। सार्थपतिके द्वारा सादर समर्पित सुन्दर वस्त्रों वेशाभूषाओंको ग्रहण करके, सुगन्धित मालाओं, आभूषणों आदिसे अपने आपको आभूषित करके अपने यथार्थ कुलीन आकारको प्रकट करके यथेच्छ भोगों' उपभोगों का रस लेता हुआ वह सबका प्रिय हो गया था। उन लोगोंकी गोष्ठीमें उत्तम कथाएँ कहता हुआ बैठता था ॥ २॥ धन प्राप्ति करनेके परम इच्छुक जो नट, ( स्वांग रचने वाले ) जो नतंक आदि अत्यन्त सम्पत्ति और समद्धियुक्त उस सार्थके साथ चल रहे थे, उन लोगोंने भी इसे रसज्ञ समझकर अपने शरीर, वचनों तथा विशेष अंगोंकी परिष्कृत कुशलता अभिनय का विधिपूर्वक इसके सामने प्रदर्शन करना आरम्भ कर दिया था ॥ ३॥ संगीत विशारद लोग मनको मोहित करनेवाले मधुर गीत गाते थे, नृत्य-कलामें निपुण दूसरे लोग विधिपूर्वक विविध नृत्य करते थे तथा अन्य लोग अपनी उत्तम शिक्षाके अनुकूल वीणा,मुरज, मृदंग आदि बाजोंको सुचारु रूपसे बजाते थे ॥ ४ ॥ १. म गोष्ठे निष्ठः। २. [ समध्यासत ] । ३. म मुरुजा। Jain Education international For Privale & Personal use only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः प्रहाससंलापविलासवन्ति रसानविद्धानि सुकल्पितानि । लोकप्रवृत्तानि कथान्तरेषु भाण्डाविचित्राणि विलम्बयन्ति ॥५॥ तदैव दिग्रक्षणतत्पराक्षाः पुलिन्दसंदर्शनतो विभीताः। अभ्येत्य तूर्ण वणिजां समूहे इत्थं पुनः सागरवृद्धिमूचुः ॥ ६ ॥ महाबलौ क्रूरतमावसह्यौ कालो महाकाल इति प्रतीतौ । पुलिन्दकानां त्रिचतुस्सहस्रराजग्मतुर्नाथ हितं कुरुष्व ॥ ७॥ दिग्रक्षकाणां वचनं निशम्य आहूय युद्धाय नरान्सुभृत्यान् । वाग्दानमानैरभिसंप्रपूज्य संनातेति प्रशशास तूर्णम् ॥ ८॥ सनातस्तान्नुपतिः समीक्ष्य श्रुत्वातितूर्ण पृतनाद्वयस्य । सखेटकं खड्गवरिष्ठमेकं श्रेष्ठिरममापि त्वमुपानयस्व ॥९॥ SHREETHEATREE-THEP HERAIHEATRENARRAHARASHTRA कथाओं के बीच-बीच में भांड लोग संसारमें अत्यन्त प्रचलित बातों का ही बड़ी विचित्र विधिसे स्वांग ( नकल ) करते थे। यह स्वांग तीव्र हँसी, नाना प्रकार की बार्ताओं तथा हाव भावोंसे युक्त रहते थे, हास्य आदि नव रसोंमेंसे सने रहते थे तथा उनकी कल्पना व शृंगार भी शिष्ट होता था।५॥ रंगमें भंग जिस समय इधर राव-रंग हो रहा था उसी समय सार्थ की रक्षाके लिए सब दिशाओं में नियुक्त रक्षकोंने शीघ्रतासे वणिकों की गोष्ठीमें आकर उनके प्रधान सागरवृद्धिसे निम्न संदेश कहा था। ये अंगरक्षक अपनी अपनी दिशाका तत्परतासे निरीक्षण कर रहे थे तथा भीलों को देखकर डर गये थे ।। ६ ॥ हे स्वामी अत्यन्त शक्तिशाली, निकृष्टतम निर्दय, संभवतः न रोके जाने योग्य, काल तथा महाकाल नामोंसे प्रसिद्ध पुलिन्दोंके नायक, भीलोंकी तीन चार हजार प्रमाण सेनाके साथ हमारे ऊपर टूटे आ रहे हैं । ऐसी अवस्थामें जो कुछ हितकारी हो उसे करनेकी आज्ञा दीजिये ॥ ७॥ रण आवेश दिशाओंमें नियुक्त रक्षकोंके उक्त संदेश को सुनकर सार्थपति सागरवृद्धिने अपने विश्वस्त पुरुषों तथा स्वामीभक्त सेवकों को बुलाया था। उत्साह वर्द्धक प्रशंसामय वाक्यों, भविष्यमें उन्नतिको आशा, आदर आदिसे उनका सत्कार करके उन्हें आज्ञा दी थी कि वे सब युद्धके लिए अति शीघ्र तैयार हो जाय ।। ८ ।। अपनी सेनाके भटोंको युद्धके लिए सजता देखकर तथा आक्रमण करनेवाली भीलोंकी दोनों सेनाओंके रणवाद्यों की . १.[भाण्डानि चित्राणि विडम्बयन्ति । २. म श्रेष्ठिन्नयामि । २३. Jain Education intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितस् बालः कृशाङ्गः सुकुमारकोऽसि सुदुर्धरं युद्धमुखं हि भद्र । किमायुधेनास्स्व मयैव सार्धमित्युक्तवान्सार्थपतिः कुमारम् ॥ १० ॥ अथानयोर्व्याधिवणिग्ध्वजिन्योविद्युद्व पुश्चञ्चलशस्त्रवत्योः 1 शृङ्गाण्यदभ्राः पटहाश्च शङ्खा उद्वेजयन्तोऽतिभृशं विनेदुः ॥ ११ ॥ पुलिन्दनाथ बृहदुग्रवीर्यो द्विषट्सहस्रेण बलेन साकम् । शरोरुवर्षं प्रतिवर्षयन्तौ प्रत्युद्गतौ वन्यगजेन्द्रलीलौ ॥ १२ ॥ प्रत्यागतांस्तान्वणिजः समीक्ष्य पुलिन्दसेना ज्वलदग्निकल्पा । धनुर्धरास्तीक्ष्णमुखैः पृषत्केर मोघपातैविविधुविचित्रैः ॥ १३ ॥ ध्वनिको सुनकर युवराज वरांगने सेठके पास पहुँचकर कहा था - 'हे सार्थवाह ढालके साथ एक उत्तम खड्गको मुझे भी दिलाने को कृपा कीजिये ॥ ९ ॥ सेठ का स्नेह 'हे भद्रमुख सबसे पहिली बात तो यह है कि तुम सुकुमार युवक हो' दूसरे कष्टोंके कारण अत्यन्त दुर्बल और कुश हो गये हो, तीसरे तुम संभवतः नहीं समझते हो कि युद्धमें सामने जाना कितना कष्टकर और कठोर है। हे वत्स, हथियारका क्या करोगे, मेरे ही साथ तुम रहो।' इस प्रकार सार्थंपतिने समझाने का प्रयत्न किया था ।। १० ।। संघर्ष समारम्भ सार्थपति और पुलिन्दपति दोनोंकी ( ध्वजिनी ) सेनाएँ ऐसे तीक्ष्ण और घातक शस्त्रोंसे सज्जित थों जैसा कि चंचला बिजलीका शरीर होता है। ज्यों ही वे एक दूसरे के सामने आयीं त्यों ही दोनों तरफसे सींगोंके बाजे, नगाड़े, पटह और शंख भीषण रूपसे बजने लगे थे । वे साधारण लोगोंको व्याकुल और भीत करने के लिये काफी थे ॥ ११ ॥ काल और महाकाल दोनों व्याधपति स्वयं भी अत्यन्त बलशाली और उग्र थे तथा उनके साथ [ दो छह अर्थात् ] बारह हजार निर्दय सेना थी अतएव वाणोंको अत्यन्त वेगोंसे मूसलाधार वर्षाते हुये वे दोनों जंगली हाथियोंके समान संहार करते हुए सार्थंपतिकी सेना पर टूट पड़े थे ॥ १२ ॥ जलती हुई दावाग्नि के समान सर्वनाशक भोलों की उस सेनाको अपने सामने प्रहार करता देखकर ही सार्थंपति की सेना के सफल धनुषधारियोंने अत्यन्त तीक्ष्ण तथा विचित्र वाणोंके द्वारा भीलोंको सेनाको भेद दिया था। क्योंकि इनके वाण अपने लक्ष्यसे थोड़ा भी इधर-उधर न होते थे ।। १३ ।। चतुर्दश: सर्गः [ २३८ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w e वरांग चतुर्दशः चरितम् सर्गः e -SHESHeacupressure- s क्रोधोखता मानमवावलिप्ता लोभाभिभूता वृढबद्धवैराः । सुबद्धकक्षाः गृहीतशस्त्रा:' परस्परं जघ्नुरुपेत्य शूराः ॥ १४ ॥ दण्डाभिघातैः क्षपणैः प्रहारैः 'सभिण्डमालैमुसलैस्त्रिशूलैः । कुन्तैश्च टबैगुरुभिर्गदाभिः सतोमरैः शक्त्यसिमुद्गरैस्तु ॥ १५ ॥ विदार्य वक्राणि विभिद्य कायान्वितुद्य नेत्राणि विकृत्य वाहून । शिरांसि विच्छिद्य परस्परस्य निपातयां भूमितले बभूवुः ॥ १६ ॥ 'शिरांसि निस्तीक्षणतमैर कुन्तैरमर्षमाणास्तु वणिक्पुलिन्दाः । अन्योन्यमर्माणि विचिच्छिदुस्ते प्राणाजहः केचन मच्छिताश्च ॥ १७ ॥ वक्षस्सु तेषां समरप्रियाणां स्रवन्महाशाणिततोयधाराः । रेजुभशं क्रोधबलेक्षणानां तटे गिरीणामिव गैरिकाम्भः ॥१८॥ e -HeaupanesamarpeamSHE इतनी देरमें दोनों सेनाओंके वीर योद्धाओं का क्रोध बहुत बढ़ चुका था फलत; वे अत्यन्त रुद्र और उद्दण्ड हो उठे थे, प्रत्येक अपने स्वाभिमान और अहंकारमें चूर था, दोनों को सफलता से प्राप्त होनेवालो सम्पत्ति का लोभ था, अतएव स्वार्थोंका संघर्ष होनेके कारण एक दूसरेके प्राणोंके ग्राहक बन बैठे थे, सब युद्धके लिये पूरे रूपसे सजे थे तथा हाथोंमें दृढ़तामें शस्त्र लिये थे, आपाततः एक दूसरे पर घातक प्रहार कर रहे थे । १४ ।। दारुण रण डण्डोंके प्रचण्ड प्रहारमें, क्षणपोंके तोव्र आक्षेप द्वारा, भिन्दपालों को मारसे, मूसलोंकी चोटोंसे, त्रिशूलोंको भेदकर । कुन्तों और टंकों की वर्षासे, भारी गदाओंको मारसे, तोमर ( शापल ) शक्ति ( सांग ), खड्ग, कृपाण और मुद्गरोंके अनवरत में प्रहारों से कोई किसी का मुख चीर देते थे, शरीरको फोड़ देते थे, आँखें नोच लेते थे, भुजाएँ काट देते थे तथा बल पूर्वक एक दूसरे का शिर काटकर पृथ्वीपर गिरा देते थे। १५-१६ ॥ सार्थपति तथा पुलिन्दपति को सेनाके भट क्रोध और वरसे पागल होकर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण तलवारों और उससे भीषण भालोंसे एक दूसरे का शिर काटकर गिरा देते थे तथा परस्परमें मर्मस्थलों को निर्दयतापूर्वक छेद देते थे। इस प्रकारके प्रहारों से कितने ही योद्धा वीरगति को प्राप्त होते थे तथा अन्य कितने ही मूच्छित होकर धराशायो हो जाते थे ॥ १७ ।। योद्धाओं की आँखों से क्रोध और शक्तिके भाव टपके पड़ते थे । युद्ध उन्हें परम प्रिय था अतएव वक्षस्थल पर प्रबल १. क°वस्थाः। २. [ सभिन्दपाल° ] । ३. [ शरासिभिस्तीक्ष्णतमैश्च कुन्त ] । ४. मतमै रकण्है । [२३९] Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्दशः सर्गः TATACHARGETARICHARITREATREa स संप्रहारो रणकर्कशानां वीरव्रणालङ्कृतभासुराणाम् । मत्तद्विपेन्द्रोपमविक्रमाणां पर्यन्तसंघट्टसमो बभूव ॥ १९॥ एवं प्रवृत्ते समरेऽतिघोरे पादाभिधातप्रभवै रजोभिः । संछादितं खं धरणीतलं च सैन्यद्वयं प्रापददृश्यरूपम् ॥ २०॥ महाहवः शोणितचन्दनाक्तो 'बहप्रकाराबदचारुलीलः । क्षरद्विलोलान्त्रनिबद्धमालः सन्ध्याम्बुदाकारवपुर्वभार ॥ २१ ॥ 'असक्क्रिमिश्रोणिरुजांसि भूयस्तान्येव सिन्धूरवषि बभ्रुः । ते चापि योधा द्विगुणाभिरोषाः परस्परं प्रेक्ष्य जिहिंसुरुग्राः ॥ २२ ॥ पुलिन्दकानां वणिजां च घोरं मुहर्तमेवं समयुद्धमासीत् । ततः पुलिन्दरभिभूयमानाः पराबभूवुर्वणिजो भयार्ताः ॥ २३ ॥ प्रहार होने पर उनके विशाल वक्षस्थलों से बहती मोटो तथा तीव्र रक्तधारा वैसी ही परम शोभा पाती थो जैसीकी पहाड़ों के ढालोंपर गेरू मिले पानी की धारा चमकती है ॥ १८ ॥ दोनों तरफके योद्धा रुद्र तथा कठोर भट थे। उनके शरीर वीरों के अनुरूप बड़े बड़े घावोंसे सुशोभित हो रहे थ तो भी मदोन्मत्त हाथी के समान उनके अमित बलमें कोई कमी दष्टिगोचर न होती थी। इन्हों कारणोंसे वह युद्ध प्रलयकालीन युद्धके समान भीषण और दारुण हो उठा था ।। १९ ।। रण का रूपक उक्त प्रहारमें अत्यन्त घोर युद्ध होनेके कारण दोनों तरफके योद्धाओंके पैरोंसे उड़ायी गयी धूलके बादलोंने पृथ्वी तथा आकाश दोनोंको ढक लिया था फलतः कुछ समयके लिये दोनों सेनाएँ अदृश्य हो गयी थीं ॥ २० ॥ उस समय वर्द्धमान वह महायुद्ध, रक्तरूपी चन्दनसे भूषित ( लाल ) होनेके कारण, नाना प्रकारके उछलते हुऐ मणि मय अंगद भूषणों ( बिजलीके समान ) की चमकसे तथा लटकती हुई चंचल आँतोंरूपी मालाके पड़ जानेके कारण, संध्या समयके रक्त तथा विद्युतमय मेघके समान प्रतीत होता था ॥ २१ ॥ चारों तरफ उड़ती हुई विपुल धूल ही रक्त मिल जाने पर थोड़ी ही देरमें सिन्दूरके रंगसे विभूषित होकर भूमिकी विचित्र शोभा दिखा रही थी। उस समय योद्धा किसी प्रकार एक दूसरेको देख सकते थे। देखते ही उनका क्रोध दुगुना हो जाता था फलतः परस्परमें दारुणसे दारुण प्रहार करते थे ।। २२ ।। पुलिन्द भटों और सार्थपति के योद्धाओं का घोर युद्ध एक क्षणमें तो ऐसा मालूम देता था मानों दोनों बराबरी से लड़ १क द्विपेन्द्रोत्तम । २. म बाहु। ३. क अस्कृमि । ४. [ श्रेणिरजांसि ] । चमचममचायचय [२४०] Jain Education international Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् मष्टान्नपानानि हि योषितश्च भोगांश्च चित्रान्समनुस्मरन्तः। न्यायाजितक्षेमघना वयं तु न योध्दुमीशा इति ते प्रदुद्रुवुः ॥ २४ ॥ विज्ञाय भङ्ग वणिजां तदानीं पुलिन्दसेना प्रबला सती सा। सार्थ कृतार्थ विदितार्थसंख्यमितोऽमुतः प्रारभत प्रलोप्तुम् ॥ २५ ॥ विद्रावयन्ती वणिजां प्रभुत्वं समन्ततः 'प्राय पुलिन्दसेना। तां राजपुत्रः प्रसमोक्ष्य शूरश्चुक्षोप शार्दूल इवातिधृष्टः ॥ २६ ॥ हत्वा प्रदस्यून्समरागतांस्तान्वणिग्जनं तं परिपालयामि । अहोस्विदत्रैव च दस्युसंधैर्हतो मृतः स्वर्गमितः प्रयामि ॥ २७ ॥ लामोसमय-reamRELETTER रहे हैं। किन्तु इसके बाद दूसरे ही क्षण पुलिन्दों का वेग बढ़ा और उनसे दबाये जाने पर सार्थपतिके सैनिक भयसे आकुल होकर बुरी तरह हारने लगे थे ।। २३ ॥ इस प्रकार प्राणोंका संकट उपस्थित होते हो उन्हें स्वादिष्ट मिष्ट-अन्न तथा मधुर पीनेकी वस्तुओंका ख्याल हो आया । था, नाना प्रकारके विचित्र भोग पदार्थोंका स्मरण हो आया तथा अपनी प्राणप्यारियों के वियोगके विचारने उनमें एक सिहरन पैदा कर दी थी। इन सब विचारोंसे प्रेरणा पाकर हम लोग न्यायमार्ग से धन कमाकर शान्ति पूर्वक जीवन बिताने वाले हैं, इन जंगलियोंसे युद्ध में पार नहीं पा सकते।' कहते हुए उन लोगोंने बुरी तरह भागना प्रारम्भ किया था ।। २४ ॥ सार्थसेना का पलायन __ अत्यन्त शक्तिशालिनो पुलिन्दों की विजयी सेनाने सार्थवाहकी सेना को तितर-बितर होकर छिन्न-भिन्न हुआ समझ कर, व्यापार करनेमें सफल होनेके कारण असंख्य सम्पत्ति से परिपूर्ण सार्थ को 'इधरसे, इधरसे' कहकर लूटना, काटना, मारना प्रारम्भ कर दिया था ॥ २५ ॥ ___ सम्पत्ति कमानेमें कुशल वणिकोंके वैभव और प्रभुता को चारों ओरसे आक्रमण करके पुलिन्दोंकी सेना एक एक करके । नष्ट करती जा रही थी । इस लूटमारमें लोन भिल्लसेनाको देखकर प्रबल पराक्रमी राजपुत्रके क्षोभकी सीमा न रही थो । अतएव वह अत्यन्त ढोठ सिंहके समान आवेशमें आकर टूट पड़ा था ॥ २६ ॥ 'युद्ध में उतरे हुए इन नीच दस्युओं को गिन गिनकर मारके विपत्तिमें पड़े वणिकोंकी रक्षा और पालन करूँगा अथवा A [२४१] के लड़ता हुआ इन्हीं नीच दस्युओंके समूह में घुसकर इनके प्रहारों से यहीं मर कर वीर उपयुक्त गति ( स्वर्ग) को यहीं से चला जाऊँगा ॥ २७ ॥ १. [प्राप]। २. [ चुक्षोभ ] । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् चतुर्दशः सर्यः एवं विनिश्चित्य पुलिन्दमेकं पादप्रहारेण निपात्य भूमौ । सखेटकं खड्गमवार्यवीर्यः प्रसह्य जग्राह मृगेन्द्रसत्त्वः ॥ २८॥ उद्भ्राम्य खड्गं विधिवस्क्रियावान् प्रविश्य मध्ये शरसंकटस्य । शरप्रपातान्यपि वञ्चयित्वा पुलिन्दनाथात्मजमाप तूर्णम् ॥ २९॥ पूर्व त्वमेव प्रहरस्व तावत्पश्यामि पश्चादलमावयोस्तु । इत्येवमुक्तो धृतशस्त्रपाणिस्तस्थौ पुरस्ताद्तमुग्रवीर्यः ॥ ३०॥ निरुध्यमानः क्षितिपात्मजेन पुलिन्दनाथस्य सुतोऽतिमुग्धः । नरेश्वरं तं प्रजहार रोषादशिक्षितो वन्य इव द्विपेन्द्रः ॥३१॥ नैष प्रहारोऽसुनिपातदक्षः क्षमस्व में सांप्रतमेकघातम् । इति ब्रुवन्खेटकखड्गहस्तः क्रोधोद्धतो बल्गनमाचकार ॥ ३२ ॥ PRIMARSeenEURSHI T PARADARमरम्मामलान्यास वराङ्ग का पराक्रम राजपुत्र यह निर्णय कर पाये थे कि एक पुलिन्द उनके सामने से निकला, उन्होंने उसे जोरसे लातमार कर पृथ्वीपर गिरा दिया था क्योंकि उनके पराक्रम का न तो कोई प्रतिरोध हो कर सकता था। इसके उपरान्त शीघ्रही सिंहके समान शक्तिशाली 'युवराजने उस गिरे हुए भोलके हाथसे ढाल सहित तलवार को छीन लिया था । २८ ।। फिर क्या था? शस्त्रचालनमें कुशल राजकुमार ढंगसे उस तलवारको चलाते हुए वाणोंकी बौछारमें घुस गये थे, किन्तु अपने रण कौशलके कारण वाणोंको मारको व्यर्थ करते जाते थे और थोड़ी ही देरमें वे पुलिन्दपतिके पुत्रके सामने जा पहुंचे थे ॥ २९ ॥ पुलिन्दनाथके पुत्रको सम्बोधन करके उन्होंने कहा था-'पहिले तुम ही मुझ पर प्रहार करो इसके बाद दोनों का बल देखा जायेगा।' यह सुनते ही दारुण पराक्रमी पुलिन्दोंका युवराज भो हाथमें शस्त्रोंको लिये हुए बड़ी तेजीसे बढ़कर राजपुत्रके सामने आ पहुंचा था ।। ३० ।। पुलिन्दपुत्र और वराङ्ग विचारे पुलिन्दोंका युवराज रणकलामें मूर्ख था, व्यवस्थित युद्ध करनेकी शिक्षासे अछूता था अतएव युवराजने ज्योंही उसे आगे बढ़नेसे रोका त्यों ही उसने कुपित होकर अशिक्षित जंगली मस्त हाथीके समान युवराज वरांगपर आक्रमण कर दिया था। ३१ ॥ प्रवीर युवराजने पुलिन्द पुत्र के इस बारको अपनी शस्त्र-शिक्षा तथा शरीर पराक्रमके द्वारा बचाकर 'तुम्हारा यह । प्रहार वेध्यपर चुमाचुम (पूरा ) पड़कर उसे नष्ट करनेमें समर्थ नहीं है, लो, तैयार हो जाओ, अब मेरे एक प्रहारको तो सम्हालो । IRISPEAKSHARASARLATESPELATSANE [२४२] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः बराङ्ग परितम् शिक्षाबलेनात्मपराक्रमेण स तं प्रहारं प्रतिवार्य वीरः । प्रहारमेक प्रदवावमोघं येनाहतोऽसन्प्रजहौ स कालः ॥ ३३ ॥ कालस्य कालप्रतिमः पिताऽसौ लोके महाकाल इति प्रतीतः। हतं सुतं प्रेक्ष्य रुजा प्रदीप्तः समाप्तकालः स्वयमाययौ सः ॥ ३४॥ हत्वा सुतं मे क्व न गच्छसि त्वं यद्यस्ति शौयं तव तिष्ठ तिष्ठ । त्वा मन्तकप्राभूतिकेऽतियुक्तो भवेयमयैव हि मा वरिष्व ॥ ३५ ॥ वैवस्वते मे न च भक्तिरस्ति न चाप्यहं त्वद्वचनावजामि । त्वं भक्तिमान्योग्यतमश्च तस्मै त्वां प्रापयामीति जगाद राजा ॥ ३६॥ किमत्र चित्रैर्वचनैनिरर्थकर्योत्स्ये प्रतीक्षस्व हि मा चलस्त्वम् । इत्याश्रितो योद्धमना युवेन्द्रः सोऽप्यागतस्तीवनिबद्धवैरः ॥ ३७॥ इस प्रकार ललकारते हुए युवराजने ढालको सम्हालते हुए और खड्गको घुमाते हुए क्रोधके आवेशमें आकर एक लम्बी फलांग ली थीं ।। ३२॥ तथा अपनी शस्त्र-शिक्षा तथा पराक्रम के पुल्लिङ्ग पूत्र के वार को काटते हुए, इसी अन्तरालमें एक ऐसा सच्चा सटीक हाथ मारा था कि जिसके लगते ही पुलिन्दोंके युवराज कालके प्राण पखेरू उसका शरीर छोड़कर उड़ गये थे ।। ३३ ॥ कालका पिता पुलिन्दनाथ तो यमकी साक्षात् प्रतिमा था इसीलिए उसको लोग महाकाल नामसे जानते थे । जब उसने अपने प्रिय पुत्रको मरा देखा तो क्रोधकी ज्वाला उसके शरीरमें भभक उठी थी। काल (उसका पुत्र) क्या समाप्त हुआ था उसका काल (आयु) ही समाप्त हो गया था अतएव बलीके बकरे के समान वह स्वयं राजपुत्रके सामने उपस्थित हुआ था ॥३४॥ पुलिन्दराज से युद्ध 'मेरे प्राणप्यारे पुत्रको मारकर तुम कहाँ भागते हो, यदि वास्तवमें कुछ पराक्रम है तो ठहरो और मुझसे लड़ो। हे सुकुमार! तुम आज मेरे हाथसे यमराजके लिये अत्यन्त उपयुक्त उपायन (भेंट या वलि) हो सकोगे । ३५ ।।' 'उसके वचनोंको सुनकर युवराजने भी कहा था-मुझे यमके प्रति स्वतः कोई भक्ति नहीं है, और न मैं तुम्हारे कहने से ही यमलोक जा सकता हूँ। ऐसा मालूम होता है कि तुम्हें यमपर बड़ी भक्ति है तथा तुम सब प्रकार से योग्य भी हो अतएव मैं यमके लिये तुम्हें हो आज स्वर्गलोक भेजता हूँ॥ ३६ ॥ इसके अतिरिक्त भांति भांति की बेढंगी बातें कहने से क्या लाभ है। अब मैं लड़ता हो हूँ, मेरे प्रहारकी प्रतीक्षा करो, १.क समास्त°। २.[ स्वमन्तकप्राभूतके°]। ३. [ भवेदमा व....वारेष्ठ ]। ४. म वैवस्वता। ५.क तद्वचनाद । (२४३] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् परस्परोद्वञ्चनकुञ्चिताक्षौ परस्परच्छिद्रपरायणौ तौ । परस्पराघातविवृद्धरागौ परस्परं जनतुरुग्रकोप ॥ ३८ ॥ प्रपञ्चयत्यात्मकलाबलेन । पुलिन्द 'नाथस्य तु शस्त्रपातं नरेन्द्रपुत्रस्य दृढप्रहारस्तस्याङ्गभङ्ग बहुशश्चकार ॥ ३९ ॥ ऊर्ध्वप्रहारे प्रपेदे अधःप्रहारे पुनरुत्पपात । सम्प्रहारे विययौ च पाश्वं ररक्ष शिक्षागुणतः स्वगात्रम् ॥ ४० ॥ उत्कृष्य खड्गं विधिनोपसृत्यास्थानं समास्थाय रुषा परीतः । वामांसमाक्रम्य जघान तस्य मत्तद्विपं सिंहशिशुर्यथैव ॥ ४१ ॥ लब्धप्रहारः क्षितिपात्मजेन विभ्रान्तदृष्टिः स पुलिन्दनाथः । स्फुरत्तनुर्भूमितले पपात दवाग्निनात्युच्छ्रितशालकल्पः ।। ४२ ।। भागो मत' इतना कहकर लड़नेकी इच्छासे ही युवराज सन्नद्ध होकर खड़े हो गये थे। पुलिन्दपति महाकालको भी पुत्र घातक होनेके कारण युवराजसे दृढ़ तथा प्रबल वैर था अतएव वह भी इनके सामने जम गया था ।। ३७ ।। द्वन्द्व प्रारम्भ होते ही वे एक दूसरे को धोखा देनेके लिए विचित्र प्रकारसे आँखें मींचते थे, परम्पर में दुर्बल स्थान तथा क्षणकी खोज में लगे थे, आपसी प्रहारोंसे उन दोनोंका ही क्रोध तीव्रतासे बढ़ रहा था फलतः कुपित होकर किये गये प्रहार अधिक उग्र होते जाते थे ॥ ३८ ॥ युद्धकला नैपुण्य पुलिन्दनाथ के अत्यन्त दृढ़ प्रहारको भी उसका शत्रु ( वरांग ) अपनी युद्ध कलाकी निपुणता द्वारा निरर्थक कर देता था, किन्तु राजपुत्रका सटीक शस्त्रपात उसके शत्रु महाकालके अंग-भंगको बार बार करता जा रहा था ।। ३९ ।। महाकाल जब राजपुत्र वरांग के ऊपरी भाग पर शस्त्र मारता था तो वे झुककर बच जाते थे' पैरों आदि अधोभाग में प्रहार होने पर उचक जाते थे, मध्य अंगपर प्रहार होते ही किसी बगल में घूम जाते थे । इस प्रकार शस्त्र शिक्षाके सांगोपांग अभ्यासके बलपर अपनी रक्षा कर रहे थे ॥ ४० ॥ इस समय तक राजपुत्र भी क्रोधके नशेमें चूर चूर हो गया था अतएव विधिपूर्वक तलवार को महाकालके सामने फैलाकर यद्यपि वह उसके निकट ही किसी भयानक स्थान पर जा पहुँचा था, किन्तु इसी समय उसने पुलिन्दनाथ के बांयें कंधे पर आक्रमण करके, वैसा ही प्रहार किया जैसा कि सिंह शावक मदोन्मत्त हाथी पर करता है ॥ ४१ ॥ राजपुत्र वरांग का क्रूर प्रहार पड़ते ही उसके झटकेसे पुलिन्दनाथ महाकाल की आँखें घूमने लगी थीं, पूरा शरीर १. [ इत्यास्थितो ] २. म पुलीद्र । ४. म 'शालि । २. [ प्रवञ्चयत्यात्म° ] । ३. म उत्क्र. प्य । चतुर्दशः सर्गः [ २४४ ] Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् शेषांश्च दस्यून्प्रतियोद्ध कामान् जघान तांस्तान्समरे युवेन्द्रः । पलायमानानपरान्निरुध्य चिच्छेद तेषां करकर्णनासम् ॥ ४३ ॥ नृपात्मजेन प्रतिहन्यमानास्तमेव केचिच्छरणं प्रजग्मुः । विन्यस्य वक्त्रे त्वपरे तृणानि जिजीविता 'शाः प्रययुर्भयार्ताः ॥ ४४ ॥ हतेश्वरे सापि पुलिन्दसेना दुद्राव शस्त्राणि विसृज्य दूरात् । नरेश्ववादित शत्रुपक्षः पुनर्निवृत्तः समराजिराय ॥ ४५ ॥ रणावनौ सिहरवानुकारी क्षेमप्रशंसी पटहो ननदं । प्रत्यागतास्ते पप्रच्छुरन्योन्यमविनतां च ॥ ४६ ॥ पटहस्वनेन डगमगाने लगा था और वह धड़ामसे भूमिपर उसी प्रकार जा गिरा था जिस प्रकार दावाग्निसे जलकर बहुत ऊँचा शालमली तर लुड़क जाता है ।। ४२ ।। इसके उपरान्त जो जो पुलिन्द भट लड़नेके निश्चय से आगे बढ़ते थे उन सबके सबको एकाकी राजपुत्र ने संघर्ष में समाप्त कर दिया था, यह देखकर जब बाकी भीलोंने भागना प्रारम्भ किया तो उन्हें बीचमें हो रोककर युवराजने उनके नाक कान काट दिये थे ।। ४३ ।। पूर्ण विजय इस प्रकार राजपुत्र के द्वारा घास-पात के समान मारे काटे जानेपर कितने ही पुलिन्द भट उसीकी शरण में चले आये थे । तथा अन्य कुछ लोग मुखमें घास ( दूव ) दबाकर जीवित रहने के लिये ही उसके सामने भयसे काँपते हुए शरण में आये थे ।। ४४ ।। सेनापति महाकालके मर जानेपर वह पुलिन्द सेना इतनी भीत हो गयी थी कि उसके सैनिक दूरसे ही युवराजको देखकर शस्त्रोंको फेंक फेंक कर भाग गये थे । इस प्रकार शत्रु तथा शत्रुसेनाका मर्दन करके राजपुत्र वरांग भी लौटकर फिर समरांगण में आ गये थे ।। ४५ ।। विजयी वराङ्ग का स्वागत विजयी युवराज लौटकर आते ही समरभूमिमें विजय, क्षेम कुशल तथा उपद्रवकी समाप्तिकी सूचना देनेके लिये बहुत जोरसे पटह बजा था जिसकी सिंहनाद समान ध्वनिसे पूरा प्रदेश गूँज उठा था। उसे सुनते ही सार्थके सब आदमी आकर इकट्ठे हो गये थे तथा परस्पर में एक दूसरे की क्षेम कुशल, क्षतहीनता आदि को पूछने लगे थे ।। ४६ ।। १. [विजीविताशा: ] । २. [ हृतेश्वरा ] । ३. [ नरेश्वरोद्ग्राहित ] चतुर्दश सर्गः [ २४५ ] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्ग: विघाटिता रत्तसुवर्णपेटा भिन्नानि भास्वन्मणिभाजनानि । दुकूलकौशेयकचामराणां भारान्विशीर्णानथ वीक्षमाणः॥४७॥ तत्रावनीन्द्रं परिमूच्छिताशं व्रणस्रवच्छोणितलिप्तगात्रम् । ईषच्छवसन्तं हि निमीलिताक्षं रणाजिरे सार्थपतिस्त्वपश्यत् ॥ ४८ ॥ शरासिपातव्रणमण्डिताङ्गः श्रमाभिभूतो विनिपत्य भूमौ । रराज राजा कमनीयरूपो लाक्षारसक्लिन्न इवेन्द्रकेतुः ॥४९॥ हा' वत्स कि जातवदार्यवर्य किं मौनमास्थाय सुखोषितोऽसि । उत्तिष्ठ भन्नाशु कुरु प्रसादं प्रदेहि नाथ प्रतिवाक्यमेहि ॥५०॥ बालोऽसहायो बलवजितश्च सकर्पटोऽजनिथ शत्रुसैन्यम् । युवा समर्थः स्वपदे स्थितश्चेत्स शासनः शान्तवधाः प्रति स्यात् ॥५१॥ APERSPELIEReatsautanaLASEASELERSatsanc इसके तुरन्त बाद ही वे सब तोड़े गये रत्नों तथा सोनेके सन्दूकों, टुकड़े टुकड़े करके फेंक दिये गये जगमगाते हुए मणियों के भूषणों तथा फेंककर इधर उधर अस्त-व्यस्तरूपमें पड़े हुए उत्तम वस्त्र , कोशाके वस्त्र , चमर आदि की गाठोंको देखते हुए सार्थपतिने देखा था कि समरांगणमें पृथ्वीपालक युवक राजा आँखें मीचे पड़ा है ।। ४७ ॥ निकट जाने पर पता लगा कि वह मच्छसेि अचेत है, यद्यपि थोड़ो थोड़ी सांस रह रहकर चल रही है, उसके सम्पूर्ण शरीरमें असंख्य घाव लगे थे तथा उनसे बहते हुए रक्तसे उसका शरोर लथपथ हो गया था।। ४८॥ वाणों और खड्गोंके प्रहार से लगे घावों द्वारा शरीरको भूषित करके, अति परिश्रमसे अचेत होकर राजपुत्र पृथ्वी पर गिर गया था। किन्तु स्वभावसे लावण्यपूर्ण उसका शरीर उस अवस्था में भी बड़ा आकर्षक था । ऐसा प्रतीत होता था मानो इन्द्रध्वज लाक्षाके रसमें भींगकर गिर गया है ।। ४९ ॥ आहत वराङ्ग 'हाय वल्स ! तुम्हें क्या हो गया है ! हे श्रेष्ठ ! बोलो, क्यों मौनधारण करके आनन्द पूर्वक पृथ्वीपर सो गये हो ? हे भद्र ! उठो, शीघ्र ही हम सब पर कृपा करो, हे नाथ ! कृपा करके प्रतिवचन दो, उठो, चलो ॥ ५० ॥ अभी तुम बालक ही हो, अनेक कष्टोंको लगातार सहनेके कारण दुर्बल तथा कृश हो गये हो, कोई साथी अनुगामी भी नहीं है, पहिनने को कवच भी नहीं है तो भी साधारण कपड़े पहिने हुए हो तुमने अकेले ही शत्रु सेमाको मार काट करके १. [ हा वत्स जातं तव किं वदार्य ] । [२४६] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् कुशलोऽस्यतीव । अयत्नतस्त्वं पुनराधमण्यं प्रसव्य यातः कृतोपकारः प्रतिकार होनो गतासवे किं करवाणि ते हि ॥ ५२ ॥ नैवाद्रवत्वं कुलबन्धुदेशान्स्मृत्वापि यांस्तुष्टमना ब्रुवेयम् । कि वा स्वदेशं न गतोऽसि भद्र इति ब्रुवन्विप्रललाप सार्थी ॥ ५३ ॥ वणिग्जनानां करमर्शनेन शीतोदकैश्चन्दनवारिभिश्च । आध्यायमानो व्यजनानिलैश्च उन्मील्य नेत्रद्वयमालुलोके ॥ ५४ ॥ ततो मुहूर्तात्प्रतिलब्धसंज्ञः शनैः समुत्थाय कुमारवर्यः । प्रभाषमाणो विगतश्रमस्सन् सुखं निषण्णः परिचारितस्तैः ॥ ५५ ॥ आश्चर्यमस्मान्न च विद्यतेऽन्यज्जोवो गतोऽस्य प्रतिसंनिवृत्तः । इति ब्रुवाणा वणिजां प्रधानाः सविस्मयाः संतुतुषुः समेताः ।। ५६ ।। समाप्त कर दिया है जब तुम पूर्ण स्वस्थ और सबल हो जाओगे, युवावस्थाके पूर्ण विकासको प्राप्त होओगे, अपने योग्य पदपर पहुँचोगे तथा तुम्हारा शासन चलेगा तब समस्त देशमें वध आदि पाप ही शान्त हो जायेंगे ।। ५१ ।। बिना किसी हीन इच्छा और विशेष प्रयत्न के बिना ही तुम मुझे अधम ऋणी ( जो उपकार का कोई प्रत्युपकार नहीं करता है ) बनाकर इस लोकसे चल गये हो, तुम अत्यन्त उदार तथा कुशल हो। तुमने मेरा अपार उपकार किया है, किन्तु मैं परिवर्तन में कुछ भी न कर सका, इस समय तुम्हारे प्राणहीन हो जानेपर मैं अभागा क्या करूँ ।। ५२ ।। हाय ! तुमने अपने उन्नत वंश, कुटुम्बी तथा देशके विषय में भो कभी एक शब्द न बताया था, जिन्हें जान करके किसी प्रकार वहाँ पहुँचकर उन्हें तुम्हारी वीरगाथा सुनाकर संतुष्ट होता । हा ! भद्र ! तुम अपने देश ही क्यों न लौट गये !' इत्यादि वाक्योंको कहकर सार्थपति अत्यन्त करुण विलाप करता था ।। ५३ ।। आहतोपचार इसी अन्तरालमें अनेक वणिक उसको हाथोंसे दबा रहे थे ठण्डे पानी के छींटे दे रहे थे, चन्दन-जल उसके मस्तक आदि प्रदेशों पर लगा रहे थे तथा धीरे-धीरे सुकुमारतापूर्वक पंखेसे हवा कर रहे थे। इन सबके द्वारा शरीरका श्रम दूर होनेसे उसमें शक्ति और चेतना जाग्रत हो रही थी फलतः उसने धीरेसे दोनों आँखें खोलकर अपने आस पास दृष्टि दौड़ायो थी ॥ ५४ ॥ इसके उपरान्त एक मुहूर्तं भर में हो वह पूर्ण चैतन्य हो गया था तब वह आर्यकुमार धीरेसे उठकर कुछ-कुछ बोला था। धीरे धीरे थकान दूर हो जानेपर वह सुखसे बैठ सका था तब उन सब वणिकोंने उसकी पूर्ण परिचर्या की थी ।। ५५ ।। इससे बढ़कर कोई दूसरा आश्चर्यमय कार्यं इस संसारमें हो ही नहीं सकता है कि इसके प्राण एकबार शरीर छोड़ चतुर्दशः सर्गः [ २४७ ] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्दशः सर्ग: सार्थाधिपो तद्धदि जातहर्षः कृतस्य स प्रत्युपकारमिच्छन् । सबनलक्षं च सुवर्णकोटी ददौ नपायाप्रतिपौरुषाय ॥ ५७ ॥ आनीतमर्थ प्रविलोक्य धीमान्नैवागमद्विस्मयमाभिजातः' । तस्यानुमानं स पुनविदित्वा दत्स्व त्वमिष्टेभ्य इतोत्थमचः ॥ ५८॥ तद्वाक्यतः सार्थमलुब्धबुद्धः शशास सर्व क्रियते तथेति । आज्ञापिताः स्वाजलिभिर्दरिद्रा नटा विटाश्चादधुरादरेण ॥ ५९ ॥ तं स्नापयित्वा व्रणशोणिताक्तं 'क्षिप्तौषधानि व्रणरोपणानि । शमं प्रचक्रुः कतिदिनैश्च स्वाम्याज्ञया ते भिषजां वरिष्ठाः ॥ ६० ॥ कर भी फिर लौट आये हैं।' इस प्रकार अपने आश्चर्यको प्रकट करते हुए सार्थपति तथा सार्थके लोग अब भी आश्चर्यसे मुक्ति नहीं पा रहे थे तथा उनके उत्कट संतोष की भी सीमा न थी ॥ ५६ ।। इस घटनासे सार्थपति सागरवृद्धिके हृदयमें तो हर्षका समुद्र ही लहरें मार रहा था, रह-रहकर अपने ऊपर किये गये उपकार के परिवर्तनमें कुछ करनेको अभिलाषा उनमें प्रबल हो उठती थी अतएव उत्तम तथा अनुपम लाखों रत्न तथा कोटियों प्रमाण सुवर्ण लाकर उसने अद्वितीय पराक्रमी राजपुत्रके सामने रख दिये थे ।। ५७ ।। वराग-कश्चिद्भट भेंटरूप से सामने लायी गयी विपुल सम्पत्तिको देखकर विवेकी राजकुमारको थोड़ा भो आश्चर्य या कौतुहल न हुआ था। कारण, वह स्वयं कुलीन था और इससे अनेक गुनी सम्पत्ति का स्वामी रह कुका था । सार्थपतिकी मानसिक भावनाका । अनुमान करके उसने यही कहा था-"आप इस धनराशिको अपने इष्ट तथा प्रियजनोंमें वितरण कर दीजिए । ५८ ॥ उसकी सुमति, लोभके द्वारा न जीती जा सकी थी अतएव उसके कथनके अनुसार ही सार्थपतिने अन्य मुखियोंसे कहा था कि 'जैसा कश्चिद्भट कहते हैं उसके अनुसार काम कर दिया जाय।' इस आज्ञाको सुनकर सार्थके सब नट, विट तथा अन्य दरिद्र वहाँ इकट्ठे हो गये थे । उन सबने हाथ जोड़कर बड़े आदर पूर्वक उस दानको ग्रहण किया था ।। ५९ ।। पुनः स्वस्थ्य-लाभ सार्थके.साथ चलने वाले उत्तम वैद्योंने सबसे पहिले घावोंके रक्तसे लथ पथ उसके शरीरका सतर्कतासे अभिषेक किया। था फिर क्रमशः घावोंको भर देने वाली उत्तम तथा अचूक औषधिको लगाकर सार्थपतिकी आज्ञाके अनुसार थोड़े ही दिनोंमें उसके सब घावों एवं दुर्वलताको शान्त कर दिया था ।। ६० ।। । १. [°जात्यः ]। २. [क्रियता]। ३. [ क्षिप्त्वोषधानि] । For Private & Personal use only aaspeesmameenneIANASTHAMARENESIRAHASRANASI [२४८] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग वरितस् ततः प्रशस्ते दिवसे तु सार्थः संप्रस्थितो राष्ट्रमभिप्रवेष्टुम् । नरेश्वरः सागरवृद्धिनैव शनैः प्रयातः शिबिकाधिरूढः ॥ ६१ ॥ नटा विटा : कापटिका भटाश्च सार्थानुयाता द्विजजातयश्च । देशान्तरं प्राप्य समान्तरेषु ते तस्य कीर्तिं प्रथयां बभूवुः ।। ६२ ।। द्विषट्सहस्रं तु पुलिवृन्दं जित्वा रणे मत्तकरीन्द्रलील: । कश्चिद्भटः सार्थमथैक एव वने ररक्षेति यशस्ततान ॥ ६३ ॥ ग्रामेषु राष्ट्रेषु पुरेषु चैव विश्रम्य सार्थः खलु तत्र तत्र । शनैः प्रपेदे स्वपुरं पुराणं निर्विघ्न संपादितभाण्डसारः ॥ ६४ ॥ कृतार्थ कार्यं प्रतिसंनिवृत्तं निशम्य ते सागरवृद्धिवृद्धम् । स्त्रियः पुमांसश्च सबालवृद्धाः प्रत्युद्ययुर्नागरिकाः सामग्राः ॥ ६५ ॥ सार्थका ललितपुरको प्रस्थान इसके उपरान्त अत्यन्त शुभ मुहूर्त में सार्थंने आगे आने वाले राष्ट्र में प्रवेश करने के लिये विधिपूर्वक प्रस्थान किया था। उस समय नरेश्वर वरांग भी सार्थंपति सागरवृद्धिके साथ एक पालकी पर चढ़कर धीरे-धीरे चल रहा था ॥ ६१ ॥ धनकी आशासे सार्थके पीछे पीछे चलने वाले नट, विट, कन्थाधारी याचक तथा पुरोहित आदि ब्राह्मणोंने उन सब नये नये देशों में - जिनमें से इस अन्तराल में वह सार्थं गया था - जाकर युवक वीर की विशाल कीर्ति को प्रसिद्ध कर दिया था ।। ६२ ।। " मदोन्मत्त करीन्द्रके समान दारुण प्रहार करनेवाले 'कश्चिद्भट' (किसी योद्धा) ने ( द्विगुणित छह हजार ) बारह हजार प्रमाण पुलिन्दोंके निर्दय समूहकी युद्धमें अकेले ही जीतकर हमारे विशाल सार्थकी गहन वन में रक्षा की थी " यह कीर्ति चारों ओर फैल गयी थी ।। ६३ । विभिन्न ग्रामों, विविध नगरों तथा पृथक्-पृथक् राष्ट्रों में यथा-सुविधा पड़ाव डालता हुआ सागरवृद्धिका सार्थं बिना fair for बाधा मार्ग में लाभप्रद तथा उपयोगी विक्रय वस्तुओंको मोल लेता हुआ धीरे-धीरे उस नगर में जा पहुँचा था जहाँसे वह पहिले चला था ।। ६४ ।। 'नगरका सर्वश्रेष्ठ सागरवृद्धि सेठ अपार सम्पत्तिके अर्जन रूपी कार्यमें सफल होकर फिर नगरको लौट रहा है' यह समाचार सुनते ही पूरे नगरके स्त्री-पुरुष, बच्चे, बुड्ढे आदि सब ही निवासी उसकी अगवानी करनेके लिए आ पहुँचे थे ॥ ६५ ॥ चतुर्दशः सर्गः [ २४९] Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः स्त्रीभिः समं सागरवृद्धपत्नी कृतार्थयात्रं स्वपति विवृक्षुः । कश्चिद्धटं ख्यातयशोवितानं पूर्व तमालोकितुमाजगाम ॥६६॥ तां श्रेष्ठिपत्नी निरवद्यभावां कश्चिद्भटो वीक्ष्य ससंभ्रमः सन् । प्रत्युत्थितो मातृसमासभीप्सन् 'सा चापि मेने स्वसुताधिकं तम् ।। ६७ ॥ ततः स्वभर्तारमुपेत्य साध्वी प्रहृष्टभावा विनयं नियुज्य । चिरप्रवासागतमादरेण पप्रच्छ किंचित्कुशलं प्रियस्य ।। ६८॥ स्वबन्धुमित्राणि च पुत्रदारान्सनागरान्स्थानविशेषयुक्तान् । समानवृत्तान्वयवृत्तशीलान्समीक्ष्य तान्कौशलमभ्यपृच्छत् ॥ ६९ ॥ सार्थ-स्वागत सार्थपति सागरवृद्धिकी श्रीमतीजो भो सफल यात्रासे लौटे अपने पतिका स्वागत करनेके लिए अन्य स्त्रियोंके साथ गयी थीं। इस समय तक कश्चिद्भट ( क्योंकि वरांगका नाम अज्ञात था) की यशोगाथा उस नगरमें भी सर्वविश्रुत हो चुकी थी, फलतः श्रीमती सागरवृद्धि भी अपनो सहेलियोंके साथ सबसे पहिले उसे देखने गयी थीं।। ६६ ।। पवित्र स्नेह आदि भावोंसे परिपूर्ण सेठानोको देखकर ही कश्चिद्भट संकोचमें पड़ गया था । अतएव उसे अपनी माताके समान पूज्य मानते हुए वह उसका आदर करने के लिए त्वरासे उठ बैठा था। साध्वी सेठानीने भी उसे अपने पुत्रसे अधिक o माना था ।। ६७ ।। - इसके बाद उस पतिपरायणाने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए अपने जीवितेशके पास पहुँचकर शालीनता, शिष्टाचार तथा विनयके अनुसार उसका स्वागत किया था । तथा दीर्घ काल पर्यन्त प्रवासमें रहनेके बाद लौटे हुए अपने प्राणप्रियसे उसको कुशलक्षेम तथा प्रिय बातें पूछी थीं ॥ ६८ ॥ पुनर्मिलन दृश्य सार्थपति सागरवृद्धि भी बड़े उत्साहके साथ अपने बन्धु-बान्धवों, मित्रों, पुत्रों तथा पनियोंसे मिलकर उनकी कुशल पूछते थे। इसी प्रकार वह अपने नगर-निवासियोंसे भेंट करके उनके पुत्र-कलत्र आदिको क्षेम-कुशल पूछता था। नगरमें विशेष पदोंपर नियुक्त लोगों तथा अपने समवयस्क, समान शील, समान कुलोन तथा आचरणवाले व्यक्तियोंके प्रति भी उसका ऐसा ही व्यवहार रहा था ।। ६९ ॥ १. कसा चाभिमेने। Jain Education Interational For Private & Personal use only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितस् भेंट, कुशलवार्ता के समाप्त हो जानेपर उसने क्रमशः सबको अपनी यात्रा के विवरण के प्रसंग में पुलिन्द सेनाका आक्रमण तथा पलायन, पुलिन्दपति महाकाल और युवराजकालका कालधर्म ( मृत्यु ) तथा कश्चिद्भटका वह तेज और पराक्रम जिसकी कोई समानता न कर सकता था, यह सब घटनाएँ लोगों को सुनायी थीं ।। ७० ।। वीर ( कश्चिद्भट) पूजा यात्रा विवरण सुनते ही उस नगरके शिल्पियों, कर्मकारों, वणिकों आदिकी अठारहों श्रेणियोंके प्रधानों तथा सागरवृद्धिने सन्मानपूर्वक कश्चिद्भटका स्वागत किया था तथा भेंट दी थी । अन्तमें सुन्दर तथा महत्ता के अनुरूप बेशभूषाको धारण करके बड़े भारी ठाट-बाटके साथ उसने उस नगर में प्रवेश किया था ।। ७१ ।। पुलिन्दसेनागमनिर्गमौ कालोoकालद्वयधर्मं कालम् । कश्चिद्भश्चाप्रतिपौरुषं च सर्वं तथाचष्ट यथानुवृत्तम् ॥ ७० ॥ अष्टादशश्रेणिगणप्रधानैः संपूजित: सागरवृद्धिना च । कश्चिद्भटश्चारुविशाल वेशो महाविभूत्या नगरं विवेश ॥ ७१ ॥ श्रेष्ठ ततः स्वं भवनं प्रविश्य व्याहृत्य कश्चिद्भटमादरेण । पृथक्पृथग्द्रव्यमनेकरूपं तत्तत्तु तस्मै कथयांबभूव ।। ७२ ।। इमाः स्वसारस्त्वनुजास्तवेमे इयं हि माता स्वजनस्तवायम् । इदं धनं पुत्रकमित्रवर्गः सर्वं त्वदायत्तमितः प्रविद्धि ॥ ७३ ॥ इत्येवमर्थाधिपतिस्तमर्थं सजीव निर्जीवमयत्न सिद्धम् । संदर्भ्य भूयः स्वजनैः समेतः सुखं कृतार्थः स्वगृहेऽभ्यवासीत् ॥ ७४ ॥ जब सागरवृद्धि अपने घरमें पहुँच चुके थे तो उन्होंने अत्यन्त वात्सल्य और आदरपूर्वक कश्चिद्भटको बुलाकर अपने घरमें पड़ी अनेक प्रकारकी अतुल सम्पत्तिको अलग-अलग करके दिखाकर उसे बताया था कि कहाँपर क्या पड़ा है ॥ ७२ ॥ तथा 'यह तुम्हारी बहिनें हैं, ये तुम्हारे छोटे भाई हैं, यह तुम्हारी माताजी हैं, ये तुम्हारे सेवक आदि आश्रितजन हैं। ये पुत्र -मित्र समस्त जनसमूह तथा यह समस्त सम्पत्ति तुम्हारे ही वशमें है ऐसा बिना भेदभाव के समझो || ७३ ।। सागरवृद्धिका सर्वस्व समर्पण सार्थं पति इस प्रकार अपने आपही सदा बढ़ती हुई, अपनी स्थावर तथा जंगम संपत्ति, सजीव तथा निर्जीव विभव २. क तनुजास्तमे । ३. म तदायत्तं । ४. [ स्वगृहेऽभ्यवात्सोत् ] । १. मी For Private Personal Use Only चतुर्दश: सर्गः [२५१] Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RROP बरानु चरितम् चतुर्दशः अथान्यदा श्रेणिगणप्रधानाः समन्त्र्ये वृद्धैरमुकूलवृत्तः । अभेत्य' पल्या सह सोपचारं कश्चिभटं कान्त तयेत्थमूचुः ॥ ७५ ॥ अस्मिन्पुरे ये वणिजः प्रधाना अनेककोट्यर्थविशेषवन्तः । त्वद्र्पविज्ञानगणान्समीक्ष्य प्रदातुमिच्छन्ति सूताः प्रतीच्छः ॥७६ ॥ अपेत भाग्यस्थिरसत्वसारो वने भ्रमंस्त्वां कथमप्यपश्यन् । तदेव पर्याप्तमितः किमु स्यादित्यूचिवान्सागरवृद्धये सः ॥ ७७॥ श्रेष्ठी पुनः सर्वमिदं तवैव निश्शङ्कितो भुक्ष्व दधत्स्व' पुत्र । यथेच्छसि त्वं तु तथा भजस्व मा मैव इत्थं वद इत्यवोचत् ॥ ७ ॥ सर्गः ERATOPATILLAG आदिको कश्चिद्भटको दिखाकर अपने आपको कृतकृत्य माना था। तथा अपने घरमें कुटुम्बियोंके साथ उनके बीच में रहकर सुखसे जीवन व्यतीत कर रहा था ।। ७४ ।। नतन विवाह प्रस्ताव इस प्रकार पर्याप्त समय बीत जानेपर एक दिन नगरकी श्रेणियों और गणोंके प्रधान सेठ सागरवृद्धिने शास्त्रके अनुकूल संयमी तथा विचारक अपने समवयस्क वृद्धोंसे मत विनिमय करके अपनी धर्मपत्नीके साथ कश्चिद्भटके गृहमें गया था । आवश्यक शिष्टाचारके बाद उन्होंने कश्चिद्भटके सामने अत्यन्त सुन्दर प्रकारसे यह प्रस्ताव रखा था ॥ ७५ ॥ 'इस नगरमें अनेक ऐसे प्रमख व्यवसायी हैं जिनकी सम्पत्ति अनेक करोड़ोंसे अधिक ही नहीं है, अपितु असाधारण है। तुम्हारे स्वास्थ्य, सौन्दर्य, सुशिक्षा तथा सदाचार आदि गुणोंको देखकर वे सब अपनी सुशील संस्कृत तथा स्वस्थ कन्याओको । तुमसे ब्याहनेके लिए उत्सुक हैं । हमारा आग्रह है कि वत्स ! तुम भी स्वीकार कर लो' ।। ७६ ।। संकोच तथा संयम 'जब मेरे पूर्व जन्मोंमें अजित भाग्यने मुझे छोड़ दिया था, मेरी सम्पत्ति और विभव नष्ट हो चुके थे तथा शारीरिक बलकी नींव भी हिल चुकी थी, इधर-उधर टक्कर मारता जंगल में फिर रहा था तब किसी पुण्यकर्मके उदयसे आपके साथ भेंट हो गयी, मेरे लिए इतना ही अप्रत्याशितसे भी अधिक है। इस सबसे क्या हो सकता है।' इतना ही उत्तर युवराजने सेठजी 11 को दिया था ।। ७७ ॥ यह सुनकर सेठने पुनः आग्रह करके कहा था 'हे पुत्र हमारे पास जो कुछ भी है वह सब तुम्हारा ही है, संकोच छोड़१. म अभीत्य, [ अम्येत्य ] । म कान्त नयेत्थ । ३. [ प्रतीच्छ]। ४.क अपेत्य भाग', [ भाग्योऽस्थिर']। । ५. [ अपश्यम् । ६. म तदत्स्व । For Privale & Personal Use Only [२५२ Jain Education international Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् इत्यु चिषि श्रेष्ठिनि सोऽभ्यवोचद्यथेष्टचेष्टः सह शिष्टगोष्ठया। वसाम्यथैवं यदि रोचते ते कि दारकार्येण विमुच्चयामि ॥ ७९ ॥ स तस्य चित्तानुगतं विदित्वा तथा तथास्तामिति संप्रधार्य । प्रियाणि सार्थाधिपतिनिगद्य स्वधर्मकर्माभिरतो बभूव ॥ ८॥ अथान्यदोद्यानवनं प्रयाता वणिक्सुताः शिष्टघटाश्च सर्वाः । संमन्य कश्चिद्भुटमादरेण श्रेष्ठी भवेत्यूचरुदारवत्तम् ॥११॥ नरेन्द्रपुत्रोऽहमभूवमादौ युवावनीन्द्रस्तु युवत्वकाले । प्रवर्धमानो वणिजां प्रभत्वं पर्याप्तमेतावदिहात्मवदभ्यः ॥ २॥ PROPERTRAITADA न्यान्यायालयानमा कर इसका भोग करो, जिसे चाहो उसे दो तथा जिस प्रकारकी तुम्हारी अभिलाषा हो उसी तरहसे इसका उपयोग करो। किन्तु जैसा तुमने अभी कहा है वैसा मत कहो' ।। ७८ ।। पिता तुल्य सेठ जीके द्वारा उक्त वचन कहे जानेपर विनम्रतापूर्वक कुमारने कहा था 'मनचाहे खेल, कूद आदि कार्य । करता हूँ, शिक्षित शिष्ट पुरुषोंके साथ ज्ञानगोष्ठी करता हुआ आनन्दसे ही समय काट रहा हूँ। यदि मेरे जीवनका यह ढंग ही काफी रोचक है और मैं प्रसन्न हूँ तो फिर ब्याह करनेसे क्या लाभ है ? इससे मुझे छुट्टी दीजिये' ।। ७९ ॥ इस उत्तरके आधारपर सेठ कश्चिद्भटके मनकी बातको समझ सका था अतएव उसने मन ही मन निर्णय किया कि 'जैसा चल रहा है उसी प्रकार चलने दिया जाय । फलतः सार्थपात इधर-उधरको अनेक मनोरंजक बातें करके लौट आया था और अपने धर्म तथा कर्तव्य कर्मों के पालनमें सावधानीसे लग गया था ।। ८० ।। राजा सेठ हुआ इस घटनाके कुछ दिन बाद एक दिन नगरके सब ही श्रीमान् वणिकों की लड़कियाँ वनविहारके लिए उद्यानमें गयी थीं। वहाँपर उन्होंने बड़े आदर और भक्तिके साथ कश्चिद्भटको आमंत्रित किया था। जब वह उनके पास पहुंचा तो वे सब उत्तम कलशोंको लेकर उसके पास खड़ी हो गयी थीं और उससे सानुनय निवेदन करने लगी थीं कि वह भी सेठ बनना स्वीकार कर ले ॥ ८१॥ यह सुनते ही उसके मनमें विचारोंका ज्वार आ गया था 'जीवनके प्रभातमें सम्मान्य राजपुत्र था, धीरे-धीरे बढकर । किशोर अवस्थाको लांघकर ज्योंही युवा अवस्थामें पदार्पण किया तो युवराज पदपर अभिषेक हुआ था, तथा धीरे-धीरे विकासको करते हुए आज वणिकोंके प्रभुत्वको प्राप्त हो रहा है, क्या किसी मनस्वीके लिये इतना ही पर्याप्त है ।। ८२ ।। १. म इत्याचिषि । २. [ विवञ्चयामि ] | PALEGALI २३] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः प्रवर्धमानः किल भूमिपालः श्रेष्ठित्वमाप्नोति च लोकवादः । स एष वादो मयि सत्यभूत आप्नोति नामानि बहूनि जीवः ॥२३॥ प्रीति त्वमीषां न निवारयामि एतच्च पश्यामि वणिक्प्रभुत्वम् । इति स्मरन्नात्मपुराकृतानि तेषामनुज्ञाय बभूव तूष्णीम् ॥ ८४ ॥ कश्चिद्धटस्याप्रतिपौरुषस्य विज्ञाय चित्तं ललितानगर्याम् । वणिक्सुताः शिष्टघटाः प्रपद्य श्रेष्ठित्वपट्टहि बबन्धुरिष्टाः ॥ ८५॥ वणिक्प्रभुत्वेन विराजमानं कश्चिदभटं कान्ततमं गुणौधः। समीक्षमाणाः पुरवासिनस्ते इदं समूचुः स्वमनोऽभिलाषम् ॥ ८६ ॥ सर्गः mame-SHARE- ISHeame-HSHeese- SamaASHTRIES जब कोई राजा दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता है तो वह सेठ ( क्योंकि उसकी सम्पत्ति-कोश-बहुत बढ जाता है) हो जाता है यह लोक प्रसिद्ध कहावत है । यह सूक्ति मुझपर पूरी-पूरी घटती है। ठोक हो है संसार-चक्रमें पड़े जीवके अनेक नाम रखे ही जाते हैं ।। ८३ ॥ इन लड़कियोंके स्नेहमिश्रित आग्रहको न मानना अनुचित ही होगा, पर यह भी देख रहा हूँ कि वणिकोंके प्रभुत्वको ग्रहण करनेमें क्या सार है, अस्तु । इस प्रकारसे अपनेपर घटित हए पहिले अभ्युदय, उत्कर्ष, विपत्ति, आदिका स्मरण करते हुए उसने सेठोंकी पुत्रियोंको अनुमति दे दी थी और स्वयं चुप हो गया था ।। ८४ ।। श्रेष्ठो अभिषेक जब सेठोंकी लड़कियों को अनुपम पराक्रमी कश्चिद्भटकी विचारधाराका पता लग गया तो उन सबने मिलकर हाथों में मंगल कलश लिये हुये श्रेष्ठीपदकी आवश्यक रीतियोंको पूरा किया था तथा ललितनगरोके सेठोंको प्रधानताका द्योतक पट्ट । । उसे बाँध दिया था ।। ८५ ।। कश्चिद्भट ( युवराज वरांग ) स्वभावसे ही बड़े सुन्दर थे, इसके साथ-साथ उनमें अनेक गुण थे जो उनकी कान्ति और तेजको और भी बड़ा देते थे । इन सबके ऊपर उन्हें वणिकों का नेतृत्व प्राप्त हो गया था। इस प्रकार उनके अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही सौन्दर्य निखर आये थे फलतः उन्हें देखनेवाले ललितपुर निवासियोंने निम्न प्रकारसे अपने हार्दिक उद्गार प्रकट किये थे ।। ८६ ॥ [२५४॥ । १. म श्रेष्ठित्वमाप्तोऽपि । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H चतुर्दशः पूर्व तु पुण्योपचितान्मनुष्यान्स्वयं धनः श्रीमुखताः श्रयन्ते । वियोगधीवुःखविपत्तिशोकाः श्रयन्ति मानकृतः पुमांस्तु (?) ॥ ७ ॥ कुतो गतो व्याधगणान्बभज्ज' कुतो गतः श्रेष्ठिसुतत्वमाप । कुतो गतः सार्थपतिर्बभूव कुतो गतः सर्वजनैः प्रकथ्यः ॥ ८८॥ कश्चिद्भटः सार्थपतिः सदारः पुत्राश्च पौत्रा बहुबन्धुवर्गः । पुरोपवासव्रतपुण्य पुण्यं सहार्जयित्वा तदिहागताः स्युः ॥ ८९ ॥ रूपं वपुः शौर्यमथापि शीलं शुचित्वमारोग्यमुदारबुद्धिम् । जगज्जनाक्षिप्रियतापटुत्वं कश्चिद्भटः केन सुलब्धवान्स्यात् ॥ ९॥ पुरा त्वनेनाध्युषितं पुरं यत्तस्मिन्मनुष्या न च भाग्यवन्तः। यस्मिन्पुरेऽनेन वसन्ति सार्ध ते भाग्यवन्तस्त्विति केचिदूचुः॥ ९१ ॥ A PAIFeateEERIFIDESHIRAHESHASTRIESREPRESH जिन पुरुषार्थो पुरुषोंने अपने पूर्व जन्मोंसे परिपूर्ण पुण्य कमाया है उनको धन, शोभा-शक्ति और सुख सामग्री स्वयं ही घेर लेते हैं। इसके विपरीत जो प्रमादी लोग अकरणीय कार्यों में अपनी शक्ति नष्ट करते हैं उनको वियोग की आशंका, वियोग दुःख, विपत्ति, शोक आदि सतत कष्ट होते हैं ।। ८७॥ गुणग्राही ललितपुर ___ 'कब कहाँसे जाकर इसने पुलिन्दोंकी विशाल सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया, किस पुण्य प्रकृतिके प्रतापसे सागरवृद्धि को यह पुत्रके समान प्रिय हो गया, किम प्रकार अनायास ही इस नगरके श्रेणियों और गणोंका प्रधान सार्थपति हो गया है तथा कोई नहीं जानता है कि कैसे तथा क्यों इसीकी चर्चा सबके मुखोंपर है ।। ८८ ।। स्पष्ट है कि परम यशस्वी कश्चिद्भट तथा शीलवती परम अनुरक्त पत्नी, गुणी पुत्र-पौत्र, स्नेहशील तथा अनुरक्त बन्धु बान्धवों सहित हमारे सार्थपति सागरवृद्धि , आदि व्यक्ति अपने पूर्व जन्मोंमें उपवास, व्रत, आदि करनेसे उत्पन्न पवित्रपुण्य को बड़ी मात्रा में संचित करके ही इस संसार ( जन्म ) में आये हैं ।। ८९ ।। कश्चिद्भटने ऐसे कौनसे शुभ कर्म किये होंगे जिनके परिपाक होनेसे उसे इस भवमें सर्वाग सौन्दर्य, अविकल तथा स्वस्थ शरीर, अद्वितीय पराक्रम, शारीरिक तथा मानसिक शुद्धि, रोगहीनता, सर्वतोमुखी बुद्धि, संसार भरके लोगोंकी आँखों में समा जाने वाली सुभगता, प्रत्येक कार्यमें पटुता तथा विकार गाधक सुविधाएँ होनेपर भी अडिंगशील प्राप्त हुए हैं ।। ९ ।। पण्यात्माका प्रेम पहिले यह जिस नगरमें निवास करता था वहाँके लोगों का भाग्य अनुकूल नहीं था, नहीं तो इससे वियोग क्यों होता? १.[धनस्त्रीसुखदाः]। २. म गणाद्वभञ्ज । ३. [°जन्य ] । । [२५५] Jain Education international Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्दशः सर्गः गुणाधिकेनाप्रतिपौरुषेण यदुज्झितं शून्यवदेव तत्स्यात् । इदं पुरं भद्रगुणं प्रकृत्या सौभद्र मेवेति च केचिदृचः ॥ ९२॥ नणां प्रियोऽसौ खलु पौरुषेण रूपेण नारीनयनाभिकान्तः । विद्व'दगुरुणां विनयोपचारैः कश्चिद्धटोऽतिप्रियतां प्रयातः ॥ ९३ ॥ एवं महात्मा प्रथितप्रणादः कश्चिद्भटाख्यां प्रतिलभ्य शूरः। बराअनामत्वमथावसृज्य वणिग्जनः सार्धमुवास तस्मिन् ॥ ९४ ॥ आख्यायिकाभिश्च कथाप्रपञ्चैर्नाट्यैश्च गोतैः परिवादिनीभिः । उद्यानयाने रहिहेतुभूतैः कश्चिद्भटेन प्रतिनीयतेऽद्धा ॥ ९५ ॥ तब दूसरे कहते थे हमें इस सबसे क्या प्रयोजन ! हम तो इतना जानते हैं जिस किसी नगरमें जिन लोगोंको इसके साथ रहनेका । सौभाग्य प्राप्त होता है वे लोग निश्चयसे बडे भाग्यशाली हैं ।। ११ ।। पुरुषार्थमें जिसका कोई तुलना नहीं कर सकता है, गुणोंसे जिसे कोई लांघ नहीं सकता है, ऐसे इस पुरुष सिंहके द्वारा जो नगर छोड़ दिया गया है वह सूना ही हो गया होगा? यह नगर अपनी प्राकृतिक सम्पत्तियों के कारण यों ही कल्प (स्वर्ग) ॥ मय समझा जाता था किन्तु अब इसके समागमके द्वारा तो सर्वथा कल्याणकारी तथा सम्पन्न ही हो गया है । ९२॥ अपने अनुपम पुरुषार्थ और पराक्रमके कारण यह मनुष्योंको प्रिय है, निर्दोष सौन्दर्य तथा कान्ति इसे कुल ललनाओंकी आँखोंका अमृत बना देते हैं। अपनी विनम्रता तथा शिष्टाचारके द्वारा यह विद्वानों तथा बड़ों-वृद्धोंके हृदयमें स्थान कर लेता है। इस प्रकार यह कश्चिद्भट सबके लिए परम प्रिय हो गया है ।। ९३ ।। उक्त प्रकारसे उस पुण्यात्माका यश दूर-दूर तक फैल गया था अपनी वीरतासे उपाजित कश्चिद्भट ही उस शूरका । नाम हो गया था, तथा अपना प्रथम नाम वरांग उसने छोड़ ही दिया था। इस प्रकार ललितपुरमें वह वणिकोंके साथ निवास कर रहा था ।। ९४ ॥ ललितपुरकी दिनचर्या ___ आख्यायिकाएँ कह सुनकर, कथाओंको बढ़ाकर कथन तथा श्रवण, नाटक आदिका दर्शन तथा अभिनय, गाना, वीणा आदि बाजे बजाकर तथा मनोविनोद तथा प्रकृति प्रेमके कारण उद्यानको जाना इत्यादि कार्योंके द्वारा कश्चिद्भटके दिन कटते थे ॥ १५ ॥ १. म विद्वन्। [२१ ] Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A R चतुर्दशा सरितम् सर्गः एकान्ततः संस्मरति स्वबन्धन् कदाचिदन्तर्गतवाहभावः । कदाचिदुन्मत्त इव ब्रवीति स्वस्थः कदाचित्परमार्थवृष्टया ॥ ९६ ॥ ललितपुरनिवासिभिर्वणिग्भिः सुखधनधर्मफलानि पृच्छ्यमानः । अकथयदखिलानि तानि तेभ्यो युवनृपतिः स जगत्प्रयोजनानि ॥ ९७ ॥ पुनरथ सकलान्कलान्गुणांश्च प्रतिगमयन्पुरधीवणिग्जनानाम् । जिनमतममलं प्रकाशयंश्च ललितपुरं ललितैः सहाध्युवास ॥ ९८॥ इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते ललितपुरप्रवेशो नाम चतुर्दशः सर्गः । riGANDROREZ जब कभी एकान्त मिलता था तो वह माता-पिता, पत्नी, आदि कुटुम्बियोंको याद करता था फलतः कभी-कभी उसके अन्तरंगको दाह भभक उठती थी। इतना ही नहीं कभी-कभो वियोगके उभारके असह्य हो जाने पर वह पागलके समान स्वयं ही बोलता था और सुनता था, तथा अन्य समय जब निश्चयनयको दृष्टि खुल जाती थी तो सर्वथा शान्त और उदासीन हो जाता था ।। ९६ ॥ ललितपुर निवासी सेठोंके द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'सुख, धन तथा धर्मका क्या फल ( उपयोग ) है तथा यह किन कर्मोंके फल हैं ।' उस युवक राजाने गृहस्थाश्रममें रहनेवालों के सांसारिक किन-किन प्रयोजनोंमें सुखादि कितने उपयोगी हैं यह सब उन लोगोंको पूर्णरूपसे स्पष्ट करके समझाया था ।। ९७ ।। इसके अतिरिक्त ललितपुर-निवासी समस्त वणिकोंको समस्त कलाओं तथा श्रेष्ठ गुणोंकी शिक्षा देता हुआ वह महा बद्धिमान ललितपुरके स्वभाव तथा शरीरसे ललितजनोंके साथ निवास करता था तथा निर्मल जिन-मतकी प्रभावना करता था ॥ ९८॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक, धर्मकथामें ललितपुर-प्रवेश नाम चतुर्दश सर्ग समाप्त । HIROINSTRETRETRIES HAIRPERelateratraneeliksansk ( २५७ Jain Education Interational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड पञ्चदशः चरितम् पञ्चदशः सर्गः अथोत्तमपुरे तस्य वाजिनापहृतस्य यत् । वृत्तान्तं कथितं सर्वमिदमन्यन्निबोधत ॥१॥ राजानो राजपुत्राश्च मन्त्रिणो दण्डनायकाः। भोजका भृत्यवर्गाश्च ये राज्ञा सह निर्गताः ॥ २॥ युवराजाधिरूढं तं वाजिनं वायुरंहसम् । 'अनुगम्याप पश्यन्तो बभ्रमुस्ते बनान्तरे ॥३॥ अपरे संनिवृत्त्याशु तुरङ्गहृतनायकाः। 'आक्रोशन्तो विषण्णास्ते निवेदयितुमागताः ॥ ४ ॥ पितरं तस्य संदृश्य बालादित्यसमप्रभम्। ससंभ्रमा समाश्रित्य वचनं चेदमब्रुवन् ॥५॥ वाजिनावार्यवीर्येण दुविनीतेन पार्थिव । वायुवेगप्रतापेन युवराजोऽपहारितः॥६॥ सर्गः पञ्चदश सगे कपटी मंत्री द्वारा दुःशिक्षित घोड़ेके द्वारा उत्तमपुरसे हरण किये गये राजकुमार पर जो जो बीती, उसका पूर्ण वृतान्त हम कह चुके हैं । इसके अतिरिक्त ( उत्तमपुर में उसके कुटुम्बी पत्नी आदिको क्या अवस्था हुई ) और जो हुआ उसे भी सुनिये तथा समझिये ॥१॥ उत्तमपुरमें बीती महाराज धर्मसेनके साथ-साथ जो, जो राजा लोग, शिष्ट राजपुत्र, समस्त मंत्री, सेनापति तथा अन्य सैनिक कर्मचारी, भुक्तियों (प्रान्तों) के शासक तथा अन्य सेवकों का समूह युवराजको खोजनेके लिए निकले थे ॥ २॥ इन्होंने उस घोड़ेका पीछा करना चाहा था जिसपर युवराज वरांग सवार थे। किन्तु उस घोड़ेका वेग वायुकी गतिके समान तीव्र था, अतएव पूरी शक्ति लगा कर दौड़ने पर भी वे उस घोड़ेको न देख सके, कि वह किधरको भाग रहा था, फलतः इधर उधर एक जंगलसे दूसरेमें टक्कर मारते फिरते थे ॥ ३ ॥ अन्य कुछ लोगोंने जब समझा कि उनके युवराजको दुष्ट घोड़ा न जाने कहाँ ले गया है तो उन्होंने घोड़े, उसे निकालने वाले, भेटमें भेजनेवाले तथा अपने भाग्य आदिके लिए अपशब्द कहना प्रारम्भ किया था तथा बड़े खेद खिन्न हो गये थे। वे | बहुत जल्दो लौट आये थे और अपने प्रयत्न की असफलताका समाचार राजाको देने आ पहुँचे थे ।। ४ ।। प्रभातके सूर्यके समान क्रोध और पश्चातापसे रक्तवर्ण उसके पिताको देखकर उन लोगोंने बड़ी त्वरा और भयपूर्वक निम्न वचनोंको उनसे कहा था ॥ ५॥ हे महाराज ! वह घोड़ा इतना प्रबल और हठो था कि उसे वशमें रखना असंभव था, इस पर भी उसे विपरीत आच [२५८] याच्याच । १. [ अमुगम्य प्रपश्यन्ता]। २. म आक्रोशन्ते । Jain Education intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् केनापि हयरूपेण दवदानवरक्षसा । सर्वेषामग्रतो नीतो वराङ्गस्तु महीपते ॥७॥ तेषां तद्वचनं श्रुत्वा समाहयात्ममन्त्रिणः । मन्त्रमध्यास्त मतिमान्यवराजाय वाहने (?) ॥८॥ विचारयत केनायं द्विषता नोपवाहितः। 'कुमारोभ्यतरस्वेन बत बाह्यन मण्डले ॥९॥ रूपलावण्यलोभेन विद्याबलयुवा स्त्रिया। देवरक्षःपिशाचैर्वा हृतः स्यात्पूर्ववैरिभिः ॥ १०॥ इत्याज्ञाप्य नूपोऽमात्यान्मण्डलानि प्रतीक्षितुम् । दूतान्संप्रेषयामास मार्गनार्थमितोऽमुत:॥११॥ ते मडम्बपुरग्रामा न्नधरण्यगिरिव्रजान् । परीत्य न च पश्यन्तो निराशाः पुनराययुः ॥ १२ ॥ पञ्चदशः सर्ग: WWW TE रण करनेकी शिक्षा ही दी गयी थी, उसकी गतिका वेग वायुके समान तीव्र था तथा वायुके समान वह अवाध्य था यही कारण है कि वह राजपुत्रको ले भागा है ।। ६ ।। हे महीपते ! हमारा तो विश्वास है कि वह साधारण घोड़ा नहीं था अपितु कोई पूर्वभवका वैरी देव, दानव या राक्षस ही घोड़ा बनकर आया था। यही कारण है कि वह हम सबके देखते ही देखते युवराज वरांग ऐसे प्रबल प्रतापी कुशल अश्वाR रोहीको भो लेकर भाग गया है ।। ७॥' तुरन्त लोटकर आये लोगोंके उक्त वचनों को सुनकर राजाने अपने सबही बुद्धिमान तथा भक्त मंत्रियोंको बुलाया था । राजा स्वयं विपुल विवेकी थे तो भी युवराज के अपहरणके उद्देश्यों तथा उनपर क्या क्या बीत सकती है, इत्यादि बातों का स्पष्ट विचार करनेके लिए उन्होंने मंत्रियोंके साथ मतविनिमय करना प्रारभ किया था ॥ ८॥ अपहरण हेतु विमर्ष आप लोग भलिभांति सोचें की वर्तमान राजमण्डल में कौन ऐसा हमारा शत्रु है जिसने इस प्रकार कपट करके युवराजका अपहरण कर लिया है । बड़े आश्चर्य की बात है, कि क्या यह अपहरण किसी ऐसे व्यक्तिने कराया है जो हमारे बीचमें घसा हआ है अथवा किसी बाहरीके द्वारा ही यह सब किया गया है ॥९॥ ऐसा भी देखा गया है कि तन्त्र-मन्त्र आदि विद्याओंमें प्रवीण शक्ति तथा प्रभुता युक्त पद पर विराजमान स्त्रियों के द्वारा उनका अपहरण कराया जाता है जिनके सौन्दर्य-स्वास्थ्य पर वे मोहित हो जाती हैं। अथवा पूर्वभवका वैरी कोई देव, राक्षस अथवा पिशाच उसे हर ले गया है ।। १० ।। इस शैलीसे प्रकृत विषय पर विचार करनेके लिए मंत्रियोंको आज्ञा देकर राजाने समस्त राजमण्डलोंमें युवराज का पता लगाने के लिये तथा स्वयं यह देखनेके लिए कि इस अपहरण की वहाँ पर क्या प्रतिक्रिया हो रही है, अपने सुयोग्य दुतोंको राजधानीसे सब दिशाओंमें भेजा था ॥ ११ ॥ गुप्तचरों की शोध ये दूत लोग सतर्कतापूर्वक ग्राम, मडम्ब, नगर, नदी, वन, पर्वत तथा वजों ( पशुपालकों की बस्ती ) के भीतर जाकर ॥ १. [ कुमारोऽभ्यन्तरत्वेन । २. क मार्गणार्थमतोऽमुतः । ३. म°ामान्मध्वयरण्य° । सन्दरामयाराम [२५९] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् केचिदश्वानुमार्गेण गत्वा दूरं बनान्तरे। वाजिनं तु गतप्राणं कूपेऽपश्यन्तदृच्छया ॥ १३ ॥ युवराजमपश्यन्तो भ्रान्त्वा बननदीगिरीन् । कक्षवृक्षापाकीर्णान् पुरमेव गतास्ततः ॥ १४ ॥ कटकं कटिसूत्रं च केयूरं कुण्डलद्वयम् । अश्वभाण्डं च संगृह्य राज्ञे सर्व निवेदयन् ॥१५॥ श्रुत्वा तेषां वचो राजा दृष्ट्वा तस्यङ्गभषणम् । मुञ्चन्नुष्णं च निःश्वासं दुःखसंभ्रान्तलोचनः॥ १६ ॥ गण्डस्थलं करे न्यस्य सुतं शोचन्मुहमहः। प्रत्युवाच पुनस्तेभ्यः कम्पयन्करपल्लवम् ॥ १७ ॥ कथाकाव्यपुराणेषु अश्वेनापहृता इति । अश्रयन्तमिदं सर्व प्रत्यक्ष समुपस्थितम् ॥ १८ ॥ पञ्चदशः सर्गः Date-HITARAKHANDHereAHHHHHORANP एक एक स्थल को सूक्ष्मरूपसे देखते थे तथा चिह्न पानेके लिए नाना प्रकारसे परीक्षा करते थे। परन्तु जब उन्हें राजकुमारका पता देने वालो एक भी वस्तु या बात नहीं मिली तो वे निराश होकर लौट आये थे ।।१२।। जो लोग क्रीड़ास्थल से ही घोड़ेके पीछे दौडे थे वे घोड़ेके पद-चिह्नोंके सहारे जंगलमें बहुत दूरतक चले गये थे। इस प्रकार जंगलमें भटकते हुए उन्होंने किसी वनमें खोजते हुए देखा कि एक कुयेंमें मरा घोड़ा पड़ा था ।। १३ ।। किन्तु वहाँ उन्हें न तो युवराज ही दिखे थे और न कोई ऐसा चिह्न ही मिला था जो उनके अशुभ को आशंका पैदा # करता। आपाततः वे युवराजकी खोजमें पर्वतों, गहरी नदियों तथा विशाल-जीर्ण वृक्षों, छोटे-छोटे पौधों तथा अगम्य घने वन-- खण्डोंमें व्याप्न अरण्योंमें भटकते रहे थे। अन्तमें असफल होकर वे भी नगर को लौट आये थे ।। १४ ।। उन्हें अरण्यमें युवराजके कटक, कटिसूत्र ( करधनी ) कानकी लोंगें तथा दोनों कुण्डल भी मिले थे। जिन्हें वे घोड़े के साज तथा अन्य वस्तुओंके साथ वापिस लेते आये थे तथा लौटकर यह सब वस्तुएँ राजाके सामने उपस्थित कर दी थीं तथा । अपना समस्त वृत्तान्त सुना दिया था ॥ १५ ॥ पिताको दुश्चिन्ता घोड़े का पीछा करनेवाले इन स्वामिभक्त अनुयायियोंके वृत्तान्त को सुनकर तथा सामने पड़े युवराजके पैर, हाथ, । आदिके आभूषणोंको देखकर राजा शोक सागरमें डूब गया था। उसके मुखसे उष्ण श्वास निकलती थी, दुःखके आवेगसे आँखें घूम रही थीं ॥ १६ ॥ निराशा और विवशताके कारण अपने बांये गालको हथेली पर रखकर बार-बार पुत्रके लिए शोक करता था । अरण्य से लौटे सच्चे सेवकों को उत्तर देनेके लिए जब उसने हाथ उठाया तो वह कप रहा था तो भी उसने अपने आपको संभालकर उन्हें उत्तर दिया था ॥१७॥ H कथाओं काव्य-ग्रन्थों तथा पुराणों में हो ऐसे वृत्तान्त सुने थे जिनमें घोड़ोंके द्वारा पुरुषोंके अपहरणकी घटनाएँ भी थीं। किन्तु जो कुछ अबतक सुना ही था वह सब भाग्यदोषसे आज प्रत्यक्ष हो गया है ॥ १८॥ । १. [ न्यवेदयन् । २. म अधूर्षतमिदं, [ आश्रूयन्त इदं ]। For Private & Personal use only TRAPATI [२६.1 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांग चरितम् PAGA सुतदु:खहिमाक्रान्तं मम्लौ वदनपङ्कजम्। तुषाराम्बुसमाक्रान्तं प्रफुल्लमिव पङ्कजम् ॥ १९ ॥ यद्वत्पूर्ण शरच्चन्द्रो निःप्रभो राहुणावृतः । राजेन्द्रो निर्बभौ तावच्छोकग्रहसमाप्लुतः ॥ २० ॥ यथा हृतमणिर्नागो भग्नदन्तो गजोऽपि वा । तथा गतसुतो राजा न रेजे कान्तिमानपि ॥ २१ ॥ एवं दुःखार्णवे मग्ने पत्यो वर्षचरोत्तमाः " । गुणदेव्यै यथावृत्तमुपगम्याचचक्षिरे ॥ २२ ॥ श्रुत्वा पुत्रवियोगं सा देवी बाष्पाकुलेक्षणा । हा पुत्र केन नीतस्त्वमित्युक्त्वा न्यपतद्भुवि ॥ २३ ॥ ततः परिजनैस्तूर्णं शीतलव्यजनानिलैः । चन्दनोदकसंमिश्रैर्गात्रसन्धिषु पस्पृशे ॥ २४ ॥ राजाका विवेक-शोक पुत्रकी विपत्ति रूपी हिमके पातने सर्वदा विकसित राजाके मुखकमलको भो म्लान कर दिया था। उसके मुखको देखकर उस कमलका स्मरण हो आता था जो थोड़े समय पहिले पूरा खिला था किन्तु तुषारपात होनेके कारण थोड़े समय बाद ही बिखर कर श्रीहीन हो गया था ।। १९ ।। शरद की पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्रमा जिसकी कान्ति सब दिशाओंको शान्त और धवल बना देती है। यदि उसे राहु ग्रह आकर ढक ले तो उसकी जो अवस्था होती है वैसी ही अवस्था महाराज धर्मसेन की पुत्रपर आयो महाविपत्ति की आशंका उत्पन्न शोक के कारण हो गयी थी ॥ २० ॥ जब नागके फण परसे मणि नोंच लिया जाता है, अथवा मदोन्मत्त गजेन्द्रका जब अग्रदन्त तोड़ दिया जाता है तो पूरा शरीर स्वस्थ बलिष्ठ रहने पर भी उनकी शोभा नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार सहज कान्तिमान राजा पुत्रके अपहरणके बाद कान्तिहीन और निस्तेज प्रतीत होता था ।। २१ ।। अन्तःपुर में समाचार इस प्रकार महाराजके शोकसागर में डूब जाने पर कोई सर्वश्रेष्ठ प्रतीहार ( साहस करके ) अन्तःपुर को गया था ! वहाँ पहुँचकर उसने इधर क्रीड़ास्थलीसे लेकर अबतक जो युवराज सम्बन्धी दुर्घटनाएं हुईं थीं वे सब क्रमसे महारानी गुणदेवीको सुना दी थीं ।। २२ ।। इस प्रकार अचानक उपस्थित पुत्रके वियोगकी दुःखमय कथा को सुनते ही माता गुणदेवी की आँखें आँसुओंके वेगसे धुंधली हो गयी थीं। शोक का आवेग इतना प्रबल था कि वे 'हा पुत्र ! तुम्हें कौन ले भागा है', कहकर कटी हुई लता के समान भूमिपर पछाड़ खाकर गिर गयी थीं ॥ २३ ॥ यह देखते ही सेवकजन तथा कुटुम्बी चारों ओरसे दौड़कर आये थे । वे ठंडे पंखोंसे हवा करते थे तथा शरीरके सुकुमार संधि स्थलों पर चन्दनके जलसे मिली शीतल वस्तुओंको लगा रहे थे ॥ २४ ॥ १. [ वषैधरोत्तमाः ] पञ्चदशः सर्गः [ २६१] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग शनैराप्यायिता देवी उन्मोल्य नयनद्वयम् । हा वत्स क्व गतोऽसीति विविधं विललाप सा ॥ २५ ॥ तवागतात्र या पीडा सा मे किन भविष्यति । वरं मे मरणं वत्स जीवितं किं त्वया विना ॥ २६ ॥ कुण्डलाङ्कितगण्डस्य हारशोभितवक्षसः । तव यद्दर्शनं पुत्र त्रैलोक्यैश्वर्यतोऽधिकम् ॥ २७॥ वत्स हित्वाऽनवद्यानं विद्वज्जननिषेवितम् । कथं स्मरन्ती जोवामि विनयाचारभूषितम् ॥१२॥ चलच्चामरवन्देन ज्वलन्म'कुटशोभया। ज्वलन्तं यौवराज्येन कथं वा विस्मराम्यहम् ॥ २९ ॥ मया वियोजिताः पुत्रा मृगाणामन्यजन्मनि । तत्कर्मपरिणामोऽयं सादृष्टिक मुपस्थितम् ॥ ३०॥ अत्राणाशाश्वतासारा जन्मवत्ता हि देहिनाम् । सा मयाद्य परिज्ञाता जाता नैवास्ति कस्यचित् ॥३१॥ चरितम् । पञ्चदश सर्गः इस प्रकार धीरे-धीरे देवी की चेतना वापस आयो थी। तब उसने दोनों आँखोंको खोलकर'हा वत्स ! कहाँ चले गये हो', आदि वाक्य कहकर भाँति भाँतिका करुण विलाप करना प्रारम्भ कर दिया था ॥ ३५ ।। ___ माताका विलाप 'हे बेटा ! यह दुर्घटना तथा इसके कारण उत्पन्न जो पीड़ा तुम भर रहे होगे वह, हाय दैव ! मुझपर क्यों न आ टूटी। अब तो मेरा मर जाना ही कल्याणकर होगा, हे वत्स ! तुम्हारे विना जीनेसे क्या लाभ ? ।। २६ ।। कुण्डलके चुभनेसे पड़े चिन्ह युक्त तुम्हारे गालका तथा मणिमय हारसे आभूषित तुम्हारे विशाल वक्षस्थलको देखना हो हे पुत्र ! मेरे लिये तीनों लोकों के राज्य की प्राप्तिसे होनेवाली प्रभुता और वैभवसे भी बड़ा सुख था ॥ २७॥ समस्त विद्वान् तुम्हारी सेवा करते थे तुम्हारे सुन्दर स्वस्थ शरीरमें एक भी कमी न थी तथा तुम्हारा आचरण विनय और संयमसे परिपूर्ण था, हा ! मैंने ऐसे एकमात्र सुपुत्रको खो दिया। अब तुम्हें याद करते हुए मैं कैसे जीवित रहूँ ।।२८।। जब तुम्हारा युवराजके पद पर अभिषेक हुआ था तो तुम्हारे सुन्दर विस्तृत मस्तकपर जगमगाता मणिमय मुकुट बाँधा गया, तुम्हारे ऊपर धवल चमर दुर रहे थे। युवराज पदकी प्राप्तिके कारण तुम्हारा वह दैदीप्यमान प्रतापी स्वरूप मैं कैसे भूलू ॥ २९ ॥ मैंने अन्य जन्मोंमें मृगियों और मृगोंसे उनके बच्चोंको दूर किया होगा। यह उसी पापकर्मका साक्षात् तथा समान परिणाम है जो मेरे ऊपर आ पड़ा है ।। ३० ।। इस संसारमें देहधारी जीवोंका जन्म ग्रहण करना कितना रक्षा हीन है, कितना अनित्य है तथा कितना भयंकर एवं सारहीन है, यह मैंने आज भलीभाँति अनुभव कर लिया है। यह दुःखमय अवस्था और किसीकी आजतक नहीं हुई होगी ॥३२॥ १. [ °मुकुट]। २. [ सांदृष्टिक]। ३. [शाता] । RELEASELLERGEमनायमचाचा [२६२] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग पुरात्मचरितं कर्म तववश्यमवाप्यते। प्रतिषेद्ध नियन्त वा न शक्यं त्रिदशेरपि ॥ ३२॥ एवं पुत्रवियोगेन मनस्संतापकारिणा। महीपतौ च देव्यां च तद्दुःखं मूर्तितां गतम् ॥ ३३ ॥ भार्यास्त्वनुपमाद्यास्ता विबुधेन्द्राङ्गनोपमाः। वियोगं युवराजस्य श्रुतवन्त्यस्तु तत्रसुः ॥ ३४ ॥ वायुनातिप्रचण्डेन लता इव विकम्पिताः। भर्तृदुःखानिलहता निपेतुर्वसुधातले ॥ ३५॥ ततो वामनिकाः कुब्जा धात्र्यः सपरिचारिकाः । रुदन्त्यस्त्वरयाभ्येत्य सर्वास्ताः परिवतिरे ॥३६॥ अपराश्चेतनावन्त्यः शोतलोदकबिन्दुभिः। गोशीर्षचन्दनाक्तैस्तैः सिषिचः परितोऽजनाः ॥ ३७॥ पञ्चदशः सर्यः चरितम् यसयतमन्न्यमा पूर्वभवमें आत्मा जिन भले बुरे कर्मोको करता है वे कर्म अपने फल-रूपमें उस जीवको अवश्य प्राप्त होते हैं । उसे न तो कोई रोक सकता है और न कोई वशमें ही कर सकता है, मनुष्यको तो शक्ति ही क्या है, देव भी कुछ नहीं कर सकते हैं॥३२॥ इस प्रकार होनहार पुत्रका अकस्मात् वियोग हो जानेसे उत्पन्न दुःखने राजा तथा रानीके गानसिक संतापको उसकी अन्तिम सीमासे भी आगे बढ़ा दिया था। यही कारण था कि वियोगका दुःख राजा-रानीमें साकार हो गया था उन्हें देखते हो ऐसा प्रतीत होता था कि यह प्रौढ़ जोड़ी दुःखको मूर्ति ही है ।। ३३ ।। भारतीय पत्नी युवराज वरांगकी अनुपमा आदि धर्मपत्नियाँ शील तथा स्वभावमें देवोंके अधिपति इन्द्रको इन्द्राणियोंके ही समान थीं। जब उन्हें समाचार मिला कि कोई दुष्ट घोड़ा युवराजको ले भागा है तो वियोगकी कल्पनासे हो वे अथाह भवशोक समुद्रमें डूब गयीं थी ॥ ३४ ॥ स्वभावसे कोमल तथा चञ्चल लताको यदि अत्यन्त प्रचण्ड आँधीके झोंके झकझोर डालें तो जो उसका जो हाल होता है, वही दीनहीन अवस्था; पतिपर पड़े दुःखरूपी आँधीके निर्दय झकोरोंके मारे उन सब सुकुमार बहओंको थीं, वे निढाल होकर 4 पृथ्वीपर आ गिरी थीं ॥ ३५ ॥ इन्हें मूच्छित होकर गिरते देखकर अन्तःपुरमें नियुक्त बौने, कुबडे, धात्रियाँ तथा अन्य सब ही परिचारिकाएँ, जो उस भयानक परिवर्तनके कारण घबड़ा गयी थीं और रो रही थीं, चारों तरफसे दौड़ी और मूच्छित बहुओंको उन्होंने चारों ओरसे घेर लिया था ॥ ३६॥ इस सर्वव्याप्त हड़बड़ीमें भी जिनका विवेक काम कर रहा था उन्होंने बहओंके शिर आदि मर्म स्थानोंपर शीतल जलके छींटे देना प्रारम्भ किया था। गौरोचनके जलसे तथा चन्दनके जल आदि द्वारा सुकुमार स्थानोंको अत्यन्त त्वरा और तत्परता के साथ आर्द्र किया था ॥ ३७॥ १. म निकम्पिताः। २. म सपरिचारकाः । [२६३] Jain Education interational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसन तालवन्तानिलहरिमणिभिः पुष्पदामभिः । सुखसंस्पर्शनं चक्रुश्चलदलयपाणयः ॥३८॥ अथोपलब्धसंज्ञास्ता युवराजप्रियाङ्गनाः । विलपन्त्यो रुदन्त्यश्च स्फुरन्त्यश्च समुत्थिताः ॥ ३९॥ निरर्था इव वाङ्माला लता निःकुसुमा इव । युवराजस्य भार्यास्ता भर्तृहोना न रेजिरे ॥ ४० ॥ काश्चिद्धेमजलास्पृष्टा विषण्णकमलाननाः। अश्रुधारां विमुञ्चन्त्यः प्रचेलुदु:खवायुना ॥ ४१ ॥ गण्डदेशे कर न्यस्य विकीर्णासितम्र्धजाः। काश्चिज्जगहिरे भोगान्दुरन्तान्विगतस्पहाः॥४२॥ काश्चिन्म दुपदन्यासैः करै रक्तोत्पलोपमैः। दुःखवेगातिविभ्रान्ता नन्तुः कौशलादिव ॥४३॥ पञ्चदशः सर्गः E-SIReapeume-Re- SeateESHPaire-sa-STHeasure-RE-SARPAN मूच्छित राजवधुओंको परिचर्या में वे इतनी लोन थीं कि उनके सुकुमार हाथ बिजलीकी तरह वेगसे चल रहे थे। कोई ताड़के पत्तोंके पंखोंसे हवा कर रही थीं, दूसरी शीतल हारों या मणियोंके द्वारा उनके शरीरको छूती थी । फूलकी मालाओंको मर्मस्थलोंपर लगा रही थी, क्योंकि इन सब वस्तुओंका स्पर्श सुखद और शान्तिप्रद होता है ।। ३८ ॥ म इस प्रकारको परिचर्याके कुछ समय पीछे युवराजको कुलीन प्राण-प्यारियोंको फिरसे संज्ञा ( होश ) वापिस आयी थी। संज्ञा आते ही उन्होंने हृदयद्रावक रुदन भर विलाप करना प्रारम्भ कर दिया था तथा लड़खड़ाती हुई उठकर बैठ गयी थीं ॥ ३९ ॥ पत्नियोंका शोक-सन्ताप कर्णप्रिय तथा सुन्दर शब्दोंके द्वारा की गयी निर्थरक वाक्यरचना जिस प्रकार आकर्षण हीन होती है तथा जैसे वह लता व्यर्थ होती है जिसपर फूल नहीं आते हैं उसी प्रकार शरीरसे सुन्दर तथा गुणवती युवराजको वही बहुएँ उसके बिना सर्वथा श्रीहीन ही दिखती थीं ॥ ४० ॥ कुछ बहुओंके मुखपर जब शीतल जलके छींटे दिये गये थे, तभी विषादकी तीव्रताके कारण वे विकसित तथा सुन्दर मुख कमलके समान म्लान दिखते थे, आँखोंसे आँसुओंकी धार बह रही तथा दुःखरूपी झंझाके झोकोंसे वह रह-रहकर सिहर उठती थों ( सब हो विशेष लताके रूपकको स्पष्ट करते हैं क्योंकि हिमपातसे फूल मुरझा जाते हैं, ओसका पानी बहने लगता है और हवासे हिलने लगती हैं ॥ ४१ ॥ दूसरी राजवधुओंको संसारसे इतनी प्रबल निराशा हो गयी थी कि हताश होकर उन्होंने हथेलोपर गाल रख लिये थे, कुष्ण कुंचित केशोंके बंधन खुल जानेके कारण वे इधर-उधर फैल गये थे तथा वे अनित्य सांसारिक भोगोंको खूब गर्हणा कर रही थीं। ४२॥ । अन्य सुकुमार सुन्दरियोंके दुःखकी तीव्रताके कारण मस्तिष्क ही फिर गये थे, वे पागलोंकी तरह अनजाने हो नाचती थीं, किन्तु उनके चरण सहज कोमल तथा सुन्दर थे, हाथोंकी हथेलियाँ लाल कमलोंके समान सुन्दर तथा आकर्षक थीं फलतः वे । धीरे-धीरे पैर रखकर जब हाथ हिलाती थीं तो ऐसा लगता था कि वे पागल नहीं हैं अपितु कलापूर्वक नाच रही हैं । ४३ ॥ For Private & Personal use only ६ [२६४] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R वियोगतापसंतप्ताः काश्चिन्मम्लुः क्षणात्पुनः। काश्चित्प्रकृतितन्वङ्गचश्छिन्नमूला लता इव ॥४४॥ काश्चित्कारुण्ययुक्तानि गीतानि मधुरस्वरः। तद्गणख्यापकान्येव विलेपविविधानि ताः ॥ ४५ ॥ कृतान्त निर्भय क्रूर स्त्रीवधंध्रुवमापवसि। प्रियादस्मान् वियोज्य स्वमित्यूचुः काश्चिदङ्गानाः । ४६ ॥ अस्मान्वा नय तं देशं तमिहानय वा प्रियम् । अन्यथा हि कृतान्तस्ते महापातो भविष्यति ॥ ४७ ॥ एवमाक्रन्दमानास्ताः स्रवदश्रुविलोचनाः। उत्पतन्त्यः पतन्त्यश्च जग्मुः श्वशुरमीक्षितुम् ॥ ४८ ॥ उपगम्यावनीशस्य प्रणिपत्य हि पादयोः। इत्थं विज्ञापयांचाः सर्वा युवनृपाङ्गनाः॥४९॥ R बरान चरितम् पञ्चदशः सर्गः वियोगकी-ज्वालाकी लपटोंसे कुछ राजवधुएँ एक क्षण भरमें ही बिल्कुल मुरझा गयी थी अन्य बहुएँ जो स्वभावसे ही बड़ी सुकुमार तथा दुबली-पतली थीं उनकी वियोगके दुःखपूरके थपेड़ोंसे वही अवस्था हो गयी थी जो सहज सुन्दर तथा मृदुल लताको जड़ें काट देनेपर हो जाती है ।। ४४ ।। राजवधुओंका कण्ठ स्वभावसे ही मधुर था, रोते-रोते उन्हें अपने पतिके अनेक गुण याद आते थे जिन्हें वे अत्यन्त करुण तथा हृदय-विदारक ढंगसे गा, गाकर विलाप करती थीं और उसके गुणोंको स्मरण करके और अधिक दुःख पाती थीं।। ४५॥ उनमेंसे कूछ कुलवधुएँ तो जीवनसे इतनी हताश हो गयी थीं कि वे उद्धत होकर यमराजका सम्बोधन करके कहती थीं-हे कृतान्त ! तुम इतने निर्दय तथा निघृण हो कि तुम्हें निश्चयसे स्त्रीकी हत्याका पाप लगेगा, क्योंकि हम लोगोंको । प्राणनाथसे वियुक्त करके तुमने हमारी मृत्युका आह्वान ही किया है ।। ४६ ।। यदि स्त्री हत्यासे बचना चाहते हो तो या तो हम सबको उस देशमें ले चला जहाँ प्राणनाथको ले गये हो, या उनको हम लोगोंके बीचमें ले आओ । यदि इन दो में से एक भो विकल्प तुम्हें नहीं स्वीकार है तो निश्चय समझो। हे कृतान्त ! तुम्हारे मस्तकपर स्त्री-हत्या ऐसे अधम पातकका टीका लग ही जायगा ।। ४७ ।। पूर्वोक्त प्रकारसे वे रुदन और विलाप करती थीं, उनको आँखोंसे बहतो हुई आँसुओंको नदी उमड़तो ही आती थो, एक क्षण भरके लिए भी उसमें विराम न आता था । विपत्तिका कोई प्रतीकार न देखकर वे अन्तमें ससुरके चरणोंमें गयी थीं, किन्तु मार्ग में भी वे गिर-गिर पड़ती थीं और उठती-पड़ती चली जा रही थीं ॥ ४८ ।। ससुरसे दुःख रोना महाराज धर्मसेनके पास पहुँचते ही वे उनके चरणोंमें गिर पड़ी थीं युवराजके वियोगने उन बधुओंको इतना विह्वल कर दिया था कि राजाके निजी दुःखका ख्याल न करके उन्होंने राजासे निम्न नम्र निवेदन किया था ॥४९ ।। ३४ Jain Education intemational IAGEIRHAIRPEAREDEIRE-IIIEIRETRIPETHALALASARLAI [२६५] Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् ५१ ॥ ५२ ॥ न्यायविदुष्टनिग्राही धर्मराजः प्रजाहितः । दयावानिति सर्वत्र कीर्तिस्ते विश्रुता भुवि ॥ ५० ॥ अतो वयमिमाः सर्वा अनाथा दीनवृत्तयः । आगताः शरणं त्वद्य बिना चात्मपति प्रभो ॥ दया स्त्रीबालवृद्धेषु कर्त्तव्येत्यधुना जगुः । इति मत्वा महाराज त्वं प्रमाणं क्रियाविधौ ॥ इति नानाविचित्राणि विलपन्त्यो वराङ्गनाः । चुक्रुशुः करुणं घोरं श्वशुरस्यान्तिके स्नुषाः ॥ ततः कञ्चुकिनो वृद्धा अन्तः पुरमहत्तराः । तद्दासीदासभृत्याश्च चक्रराक्रन्दनं महत् ॥ तेषां स्त्रीबालवृद्धानां रुदतां करुणध्वनिः । अभू रेस्प्रक्षुभ्यतोयस्य समुद्रस्येव निस्वनः ॥ ५५ ॥ गुणदेवी स्नुषा दृष्ट्वा स्वपुत्रोत्कण्ठगद्गदा । न शशाक वचो वक्तुं बाष्वव्याकुललोचना ॥ ५६ ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ हे पिताजी ! आप न्याय नीतिमें पारंगत हैं, सत्यका पता लगाकर दुष्ट पुरुषोंका कड़ा निग्रह करते हैं, प्रजामात्रका हित करने के लिए अपने आपको भी भूले हुए हैं, दीन और दुखियोंपर जितनी स्वाभाविक दया आपको है उतनी किसीकी हो ही नहीं सकती. यही कारण है कि आपको संसार धर्मराज मानता है तथा आपकी कीति पूर्ण पृथ्वीपर फैल रही हे ॥ ५० ॥ यही विशेषताएँ हैं जो अपके चरणोंमें आज हम सबको ले आयी हैं। हम आपसे शरणकी याचना करती हैं, क्योंकि अपने पति से वियुक्त हो जानेके कारण आज हम अनाथ हो गयी हैं तथा हमारी मानसिक तथा शारीरिक सब ही वृत्तियाँ दीनअवस्था में पहुँच गयी हैं ॥ ५१ ॥ नीतिशास्त्रमें कहा है कि विपत्ति में पड़े बालक, स्त्री तथा वृद्धोंपर सब कार्य छोड़कर दया करनी ही चाहिये । इस नीतिवाक्यको समझकर हे महाराज! आप हो जानें कि हम लोगों के विषय में कौन सा कर्त्तव्य कल्याण कर होगा ।। ५२ ।। जैसा कि पहले कहा है इसी प्रकारके अद्भुत तथा विविध ढंगोंसे वे कुलीन वधुएँ विलाप करती थीं । ससुर के पास पहुँचकर उनके हृदयका बाँध हो टूट गया था इसीलिए वे अत्यन्त करुण तथा घोर चीत्कार कर रही थीं ॥ ५३ ॥ शोक सागर उन शिष्ट कुलीन वधुओं को कलपता देखकर उन लोगों की दासियाँ, कुबड़े, बौने आदि सेवक, अन्य परिचारक, अनुभवी वृद्ध कञ्चुक तथा अन्तःपुरमें नियुक्त महामात्य तथा अन्य लोग भी बुरी तरह चीखने लगे थे। उस समयका आन्द वास्तवमें बहुत विशाल और दारुण था ।। ५४ ।। अपने पर, अवस्था आदिको भूलकर रोनेमें मस्त स्त्रियों, बच्चों तथा बुड्ढोंके कण्ठोंसे निकली करुण ध्वनिका वैसा ही घोरनाद हो रहा था, जैसा कि समुद्र में उस समय होता है जब वह ज्वार-भाटा या आंधी आदिसे क्षुब्ध हो जाता है ।। ५५ ।। पुत्रवियोगसे पागल माता महारानी गुणदेवो अपने पुत्रके वियोगसे यों हो गद्गद हो रही थी, उसपर भी जब सुकुमारो- सुन्दरी बहुओंको उक्त १. क जगी । २. [ । For Private Personal Use Only GARC पञ्चदशः सर्ग: [ २६६ ] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् रत्नहारप्रवालांश्च नूपुरप्रकटाङ्गदम्। मुक्ताप्रलम्बसूत्राणि मालावलयमेखलाः ॥ ५७ ॥ कटकान्यूरुजालानि केयूराः कर्णमुद्रिकाः। कर्णपूरान् शिखाबन्धान्मस्तकाभरणानि च ॥५८॥ कण्ठिकावत्सदामानि रसनाःपादवेष्टाकाः। आलण्ठ्याकुच्य सर्वाणि चिक्षिपुविदिशो दिशः॥ ५९॥ पतितैरङ्गतस्तासां राजीनां विगतौजसाम् । द्यौरिव ग्रहनक्षत्रैर्भूषणैर्भूरभासत ॥ ६०॥ सर्वासां राजपत्लोनां समेतानां समग्रतः। कृताञ्जलिरुवाचेदं युवराजप्रियाङ्गना ॥६१॥ न जीवितुमितः शक्ता विना नाथेन पार्थिव । त्वया प्रसादः कर्तव्यः पावकं प्रविशाम्यहम् ॥ ६२॥ पञ्चदशः सर्गः IELमायानारामान्यतया प्रकारसे रोते विलपते देखा तो उनके नयनोंमें भी आसुओंकी बाढ़ आ गयी तथा दुःखका आवेग इतना बढ़ा कि उनके मुखसे एक शब्द भी न निकल सका था ।। ५६ ।। उन्हें एक प्रकार उन्माद सा हो गया था अतएव रत्नोंके तथा मोतियों के हारोंको विछओं तथा चमचमाते अगवों को सुतमें मोती पिरोकर बनायी गयी करधनी, कर्णफल आदिकी झालर रत्नों और मणियोंकी माला, हाथोंके कड़े, । करधनी ।। ५७ ॥ भाँति-भाँतिको घूघुरुओंकी झालरयुक्त सुन्दर पाद-कटक, कर्णभूषण, कानोंका लोगें, कर्णपूर, केशोंके जूटेमें गुथे मुक्ताहार, शीर्षफल आदि मस्तकके आभरण, रत्नोंके विविध हार, मूंगोंके आभूषण, पैरोंके सौभाग्य चिह्न नुपुर भुजाओंके । आभूषण बाजूबन्ध (अंगद ), गलेको कण्ठी ।। ५८ ॥ श्रीवत्समणि युक्त मुक्तादाम, छोटी-छोटी घंटियों युक्त रसना तथा पैरको ढक लेनेवाला चरणभूषण पायल इन सब भूषणोंको शरीरपरसे नोच, झटक कर दिशा, विदिशाका ख्याल किये बिना ही रानियाँ इधर-उधर फेंकती जाती थीं। ५९ ॥ शोकके आवेगसे उत्पन्न इन क्रियाओंके द्वारा म्लान रानियोंकी कान्ति तथा तेज नष्ट होता जा रहा था उनके द्वारा शरोरपरसे उतारकर फेंके गये भूषणोंसे पृथ्वी पट गयी थो। भूषणयुक्त पृथ्वीको शोभा वैसी ही थो जैसी कि ग्रह, नक्षत्र तथा ताराओंसे प्रकाशमान आकाशकी होती है ।। ६० ।। उस दुःखको घड़ीमें लगभग सबही अन्तःपुरकी रानियाँ विशेषकर युवराजकी सब ही वधुएँ अपने-अपने महलोंसे आकर । वहाँ इकट्ठी हो गयी थीं। इनमें जो वधु युवराजकी परम प्रिय थी वह उठकर खड़ी हो गयी थी और दोनों हाथ जोड़कर महाराज धर्मसेनसे निवेदन कर रही थी।। ६१ ।। 'हे पिताजी ! पतिसे वियुक्त होकर हम सब अब और अधिक समय तक जीनेमें सर्वथा असमर्थ हैं, अतएव अब आपको हृदय कड़ा करके हमपर अनुग्रह करना ही चाहिये, मैं तो अब जलतो ज्वालामें प्रवेश करतो हूँ ।। ६२ ।। RESEALTraiचान यामाचरम्यान [२६७] । १. म प्राकटाङ्गदम् । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRAAHIR वराङ्ग राजा निशम्य तद्वाक्यं द्विगुणं दुःखविद्रुतः। क्षरन्नेत्रोदकास्यः प्रत्युवाच ततः स्नुषाम् ॥ ६३ ।। मैवं स्वनुपमे मंस्थास्तदत्यन्तमशोभनम् । असंमतं च साधूनां पुनर्दु:खाय कल्प्यते ॥ ६४ ॥ शस्त्ररज्ज्वादिघातश्च मण्डलेन च साधनम् । भृगुप्रपतनं चैव जलवह्विप्रवेशनम् ॥ ६५॥ देहत्यागश्च गृध्रेभ्यो जिह्वोत्पाटविषाशनम् । एतानि मरणान्यानिषिद्धानि महात्मभिः ।। ६६ ॥ निःशोला निर्नमस्कारा निर्वता निर्गणा नराः। जरामरणरोगार्ताः क्लिश्यन्तीति विनिश्चिनु ॥६७॥ त्रिलोकगरवोऽर्हन्तः सर्वज्ञास्तत्त्वशिनः । ते पवित्रं च मामुल्यं मत्कुलस्य ममापि च ॥६॥ पञ्चदशः चरितम् सर्गः ATRAPATHAPATRAPATHPURPATRASTHAARAमा "प्रवाह रेवावधर्यते ___ इस हताशापूर्ण निश्चयको सुनते ही राजाका पुत्रवियोगसे उत्पन्न दुःख दुगुना हो गया था, शोकके आवेगसे वे पिघलसे उठे थे, अतएव उनके ऐसे स्वभावसे ही धीर गम्भोर व्यक्तिका मब भो अश्रुधारासे भीग गया था तथापि हृदयको कड़ा करके उन्होंने पुत्रवधुओंको समझाया था ।। ६३ ।। 'बेटी अनुपमा ! तुम इस प्रकारको बात सोचो भी मत, आत्महत्या अत्यन्त अशोभन कार्य है, इसीलिए पुराण, आचार्यों तथा साधु पुरुषोंने इसको करनेका उपदेश नहीं दिया है, अपितु तीव्रतम विरोध किया है । क्योंकि ऐसा करनेसे इस भवमें आ पड़ी। विपत्तिका भी उपशम नहीं होता है, इतना ही नहीं भव-भवके दुःख बढ़ते हैं ।। ६४ ।। आत्महत्या हिंसा है। किसी हथियारसे गला आदि काटकर मृत्युको बुलाना, गलेमें रस्सोकी पांश डालकर प्राण त्याग देना, तलवार या भालेकी नोकपर गिरकर, शरीरको वेधकर, पहाड़के उन्नत शिखरपरसे गिरना, पानीमें डूब कर मरना ।। ६५ ॥ लपलपाती आगकी ज्वालामें कूदकर प्राण दे देना, जंगल आदि एकान्त स्थानमें जाकर पड़ जाना और अपनी देहको । गीध, चील, आदि पंछियोंसे नुचवाकर त्याग देना, जिह्वा काटकर फेंक देना तथा विष खा कर प्राण त्यागना इन सब आत्महत्याके उपायोंका जगत्-पूज्य श्रेष्ठ महात्माओंने निषेध किया है ।। ६६ ।। हे पुत्रि ! जो सच्चे देव, शास्त्र तथा गुरुकी नति नहीं करते हैं, व्रतोंसे दूर भागते हैं, गुणोंको गर्हणा करते हैं, शील सदाचारसे जिनकी भेंट भी नहीं है तथा रोगों, बुढ़ौती तथा मृत्युसे जो सदा आक्रान्त रहते हैं, ऐसे अज्ञानी लोग हो उक्त ढंगोंसे । अपने प्राणोंका विध्वंस करते हैं ।। ६७ ॥ किन्तु तुम जानती हो हो कि श्री अर्हन्त परमेष्ठी अपनी विशाल तपस्या, सर्वांग ज्ञान तथा लोकवात्सल्यके कारण ! [२६८) तीनों लोकोंके पथ प्रदर्शक गुरु हैं क्योंकि वे समस्त तत्त्वोंके साक्षात् द्रष्टा हैं, सर्वज्ञ हैं। उनका ही आदर्श मेरे कुल तथा मेरी । ही दृष्टिमें पवित्र है तथा कल्याणकारी है ॥ ६८ ॥ १. [कल्पते । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करोषि यदि मद्वाक्यं धर्मे धत्स्वात्मनो मतिम् । शनैरेव महाम्भोधि तारयत्यापदार्णवम् ॥ ६९॥ इत्युक्ता भूभुजा साध्वी श्वशुरं धर्मवत्सलम् । यस्त्वया शिष्यते धर्मः स एवोपास्यते मया ॥७॥ इति तस्या वचः श्रुत्वा नरेन्द्रः प्रीतमानसः'। स्नुषाशोकविनाशाय साधनामन्तिकं ययौ ॥ ७१ ॥ राजा ताभिः समाश्रित्य शान्तं यमधरं मुनिम् । परिक्रम्य प्रणम्यैवं प्रोवाच विनयान्वितः॥७२॥ युवराजवियोगेन दुःप्रतिज्ञास्ववस्थिताः। एतासां बुद्धिमास्थाप्य सद्धमं प्रतिपादय ॥७३॥ ततो मुनिपतिस्तासां शोकनिष्टप्तचेतसाम् । वक्तुं मनःप्रसादाय प्रारब्धो मधुरा गिरा ॥ ७४ ॥ पञ्चदशः परितम् सर्गः SHISIO-ममन्यमानाम - अतएव यदि बेटी मेरा कहना मानो तो वीतराग सर्वज्ञ प्रभुके द्वारा उपदिष्ट धर्मके आचरणमें मन तथा शरीरको लगाओ। वीतराग तीर्थंकरोंका जैनधर्म ही नौकाके समान अपने आश्रितोंको आपत्तिरूपी महासमुद्रके पार ले जाता है ।। ६९ ॥ धर्म ही शरण है धर्मनिष्ठ राजाके द्वारा उक्त प्रकारसे ढाढस दिलाये जानेपर सती साध्वी अनुपमाने अपने धर्मवत्सल ससुरसे सविनय । इतना ही निवेदन किया था-'हे पिताजी ! आप जिस धर्मपर श्रद्धा करनेको कह रहे हैं मेरे द्वारा भी मन, वचन, कायसे उसी धर्मको उपासना की जाती है ।। ७० ॥ प्रधान पुत्रवधू अनुपमा देवीके उत्तरको सुन कर राजा मन हो मन अपनी बहूकी योग्यतापर बड़े प्रसन्न हुए थे । अतएव अपनी नवोढा पुत्रवधुओंके वियोगजन्य शोककी ज्वालाको शान्त करनेके अभिप्रायसे हो वे विषयनिलिप्त निम्रन्थ साधुओंकी सेवामें गये थे।। ७१॥ धर्मो रक्षति रक्षितः सब पुत्रवधुओंको साथ लेकर महाराज धर्मसेन मुनिराज यमधरके चरणोंमें पहुंचे थे, जो परमशान्त योगी थे। पहुंचते ही अपने कुटुम्बके साथ महाराजने उनकी तीन प्रदक्षिणा की थीं तथा साष्टांग प्रणाम करनेके उपरान्त पूर्ण विनयपूर्वक महाराजसे निवेदन किया था ॥७२॥ 'हे गुरुवर ! एक दुष्ट घोड़ा युवराज वरांगको किसी अज्ञात दिशामें ले गया है अतएव अपने पतिके वियोगसे विह्वल होकर मेरी पुत्रवधुएँ शास्त्रके विरुद्ध कुप्रतिज्ञाएँ करके उन्हें पूर्ण ( आत्मवध ) करनेपर तुली हैं। आप अनुग्रह करके इनमें सन्मति कर इन्हें वीतरागधर्मका उपदेश दीजिये' ।। ७३ ।। विवेक दृष्टि ' 'मुनिवरने देखा कि राजपुत्रकी सब बहुओंके चित्त शोककी ज्वालामें तप कर कर्त्तव्य तथा अकर्तव्यके ज्ञानसे हीन हो । DRETIREMAITR-RHIRGETमान्य [२६९) १. म प्रीति । २.कदुःप्रतिज्ञाः । Jain Education interational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितस् म प्रायेण प्राणिनो दुःखं सुखमत्यल्पमुच्यते । संस्काराः क्षणिकाः सर्वे भगुराः प्रियसंगमाः ॥ ७५ ॥ यौवनं बाधते नृणामैश्वयं त्वनवस्थितम् । आयुर्वायुविनिधूं ततृणलग्नाम्बुचञ्चलम् ॥ ७६ ॥ प्रीतिः सन्ध्याम्बुदाभेव संपदो विद्युता समाः । नानारूपा रुजस्तीव्रास्तनवः फेनदुर्बलाः ॥ ७७ ॥ करण माता पिता कस्य कस्य भार्या सुतोऽपि वा । जातौ जातौ हि जीवानां भविष्यन्ति परे परे ॥७८॥ आत्मैव चात्मनो बन्धुरात्मा चैवात्मनो रिपुः । आत्मनोपार्जितं कर्म चात्मनैवानुभुज्यते ॥ ७९ ॥ प्रीतिपूर्वं कृतं पापं मनोवाक्कायकर्मभिः । न निवारयितुं शक्यं संहितैस्त्रिदशैरपि ॥ ८० ॥ गये हैं अतएव उनके रागके रंगमें रंगे हृदयोंको शान्त तथा स्वच्छ एवं स्थिर करनेके लिए उन्होंने मधुर वाणी से समझाना प्रारम्भ किया था ॥ ७४ ॥ प्रायः करके संसारमें जीव दुःख ही सदा भरते हैं सुख तो इतना कम है कि कभी-कभी प्राप्त होता है । पर सुख दुःख ही क्या, सब ही संस्कार क्षणिक हैं आपाततः प्राणप्रिय जनोंका समागम ही कैसे नित्य हो सकता है ? वह भी अन्य संस्कारोंकी भाँति नष्ट होता ही है ॥ ७५ ॥ जिसका उभार आनेपर मनुष्य अपनेको सब कुछ समझता है उसी यौवनको कुछ समय बाद रोग, बुढ़ापा आदि जरजर कर देते हैं, जिसका अभिमानरूपी नशा मद्यसे भी भयंकर होता है उस वैभवकी चंचलता कौन नहीं जानता ? कौन नहीं देखता है कि यह जीवन उस ओसकी बूँदके समान हैं जो वायुके झोकोंसे हिलते दूबके तिनके पर जमा रहता है ॥ ७६ ॥ प्रीति के रहस्य को समझना है तो सन्ध्या समय बादलोंकी मनमोहक लालिमापर दृष्टि डालो, सम्पत्तिके स्वरूपको आकाश कौंधनेवाली विद्युत रेखा ही साक्षात् दिखा देती है। रोगों के भेदों तथा उनकी कष्ट देनेकी सामर्थ्यको पूर्णरूपसे बताना असंभव है तथा जिस शरोरमें यह रोग उत्पन्न होते हैं वह पानोके बुदबुदेसे भी दुर्बल है ॥ ७७ ॥ कौन किसकी माता है ? कौन किसका पिता है ? किसकी कौन जीवनसहचरी है ? तथा कौन किसका पुत्र हो सकता हैं ? अरे ! यह सब जन्म-जन्म में बदलते जाते हैं तथा नये नये जीव यह स्थान ग्रहण करते रहते हैं ॥ ७८ ॥ तथ्य तो यह है कि आत्मा ही स्वयं अपना परमहितैषी बन्धु है । तथा आत्मा ही अपने आपका दारुण शत्रु है। आत्मा स्वयं जिन शुभ अशुभ कर्मोंको करता है उन सबके भले बुरे परिणामको भी वही भरता है ।। ७९ ।। यदि कोई आत्मा अभिरुचिपूर्वक मन, वचन तथा कायसे किसी पापको करता है तो वह उसके परिपाक होनेपर उदयमें आगे उसके फलको नहीं रोक सकता, साधारण आत्माकी तो शक्ति हो क्या है; यदि समस्त देव लोग भी इकट्ठे होकर प्रयत्न करें तो वे भी नहीं रोक सकते हैं ।। ८० ।। पञ्चदशः सर्गः [ २७० ] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् बन्धभि त्यमित्रैर्वा मन्त्रोपायबलैरपि । वित्तैर्वात्मकृतं पापं तदशक्यमसेवितुम्॥८१॥ यद्यद्विनिर्मितं कर्म येन येनान्यकर्मणि'। तस्य तस्यानुमार्गेण तदिहागत्य तिष्ठति ॥ ८२॥ अज्ञानावृतचित्तानां रागद्वेषवतां नृणाम् । क्षणवद्वद्धिमाप्नोति तत्कर्म यदनेकधा ॥८३ ॥ तीव्रमध्यममन्दैस्तु परिणामप्रपञ्चनैः। तीव्रमध्यममन्दं तत्फलमात्मा समश्नुते ॥ ८४ ॥ हिंस्यन्ते हिंसकाः पापैरापद्यन्तेऽपवादकाः। मुष्यन्ते मोषकास्त्वन्यैविलुप्यन्ते विलोपकाः ॥ ८५॥ बध्यन्ते बन्धकास्तीत रुध्यन्ते रोधकाः पुनः । बाधकास्तु विबाध्यन्ते विष्यन्ते द्वेषकारिणः ॥८६॥ पञ्चदशः सर्गः RELA बन्धु बान्धवोंको सहायताके द्वारा, सेवकों और मित्रोंके बलसे, मन्त्रोंका शक्ति या अन्य योजनाओंके चमत्कारके कारण अथवा असंख्य संपत्तिके बलपर भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है कि उसे पूर्वकृत कर्मका फल न भोगना पड़े।। ८१ ।। कर्म हो विधाता है पूर्वजन्ममें जो जो भले बरे कार्य जिस जिस शुभ या अशुभ द्वारसे किये जाते हैं उन उन समस्त कर्मोंके फल उत्तरकालमें उन उन व्यक्तियों या उन्हों व्यक्तियों के द्वारा ही प्राप्त होते हैं ।। ८२ ॥ किन्तु जिन प्राणियोंके चित्तोंको अज्ञानरूपी अन्धकारने घेर लिया है, जिन व्यक्तियोंकी प्रकृति राग तथा द्वेषसे व्याप्त है, उनके लिए ही क्षणके समान अल्पकालीन पाप कर्मोंका फल अनन्तकालके समान अनेक रूपों द्वारा बढ़ता है ।। ८३ ।। साधारणतया जीवोंके परिणाम तोव्र, मध्यम तथा मन्दके भेदसे तीन ही प्रकारके होते हैं, फलतः इन आधारोंके अनुसार ही पापकर्मोंका फल भी आत्माको क्रमशः तीव्र, मध्यम तथा मन्द सुख दुःख आदिका अनुभव कराता है ।। ८४ ।। कानके लिए कान जो स्वयं हिंसा करते हैं वे दूसरे पापो हिंसकोंके द्वारा मारे जाते हैं। दूसरोंको बुराई करनेमें हो जिन्हें सुख मिलता है। उनकी भो दूसरे खूब बुराई करते हैं । चोरोंको भी उनसे अधिक बलवान् लूट लेते हैं, जो दूसरोंकी धरोहरें लुप्त कर देते हैं अन्य। लोग उनके साथ भी वैसा ही करते हैं ।। ८५ ॥ दूसरोंको बन्धनमें डालनेवाले स्वयं भी बन्धनके तीव्रतम दुःख नहते हैं, अन्य पुरुषोंको गतिविधिमें बाधा देनेवालोंको अलंध्य बाधाओंका सामना करना पड़ता है ।। ८३ ।। nesearIRIRLAHARI ॥ १. म तदशक्यं निषेषितु। २. [ येनान्यजन्मनि ] | ३. के पापैरुपाद्यन्ते, [पापैरपाद्यन्ते । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A बराम दण्डयन्ते दण्डका दण्डैः शुच्यन्ते शोचकारिणः । वञ्चकास्तु प्रवञ्च्यन्ते वियुज्यन्ते वियोजकाः ॥७॥ सायं पादपमभ्येत्य निशायां तु सहोषिताः। इतोऽमुतः प्रभाते तु यथा गच्छन्ति पक्षिणः ॥८॥ तथा कुलतरुं प्राप्य मा दुरितवृत्तयः। सहोषित्वा पुनर्यान्ति 'स्वकर्मवतवम॑ना ॥ ८९ ॥ यथा नावं समारुह्य व्यतीत्य' कुलदुर्गमम् । स्वभाण्डमथ विक्रेतु भ्रमन्ति नगराकरान् ॥ ९०॥ तथा कर्मपथारूढाः प्राणिनो दुःखभाजिनः । पापभाण्डं च विक्रेतु व्रजन्तीह 'चतुर्गतीः ॥ ९१॥ यथा पतन्ति पर्णानि प्रकीर्णानि महीतले । संचीयन्तेऽनिलैकेन वियुज्यन्तेऽपरेण च ॥ ९२ ॥ पञ्चदशः सर्गः चरितम् asaraswatashain जिनका व्यवसाय दण्ड देना है उनपर भीषण दण्ड लगाये जाते हैं, बिना कारण हो दूसरोंको रुलानेवाले स्वयं भो । शोकमें घुल घलकर रोते मरते हैं, क्या संसारके कुटिल ठग दूसरोंसे नहीं ठगे जाते हैं कौन ऐसा व्यक्ति हैं जो दूसरोंको विरह ह्निमें झोंककर स्वयं उससे अछूता रह गया हो, दूसरोंको घेरकर लूट खसोट करनेवाला कौन ऐसा है जो स्वयं घेरेमें न पड़ा हो, # संसार भरसे द्वेष करके कौन व्यक्ति किसीका प्रेम पा सका है ।। ८७ ।। दुनिया रैन बसेरा सन्ध्याके समय अनेक दिशाओं और देशोंसे उड़कर पक्षी किसी वृक्षपर पहुंचते हैं, रात भर सब एक साथ वहीं निवास करते हैं किन्तु प्रातःकाल अरुणोदय होते हो वे इधर उधर अपने अपने मार्गोपर चले जाते हैं। क्या संसार समागमको यही अवस्था नहीं है ।। ८८ ॥ वैभाविक परिणतिको प्रेरणासे दुष्कर्मों में लगे प्राणी पक्षियोंके समान ही किसी कुटुम्ब रूपी वृक्षका आश्रय लेते हैं, कुछ समय तक साथ साथ रहते हैं किन्तु अपने अपने कर्मोंके उदय होनेपर कर्मोंके द्वारा बनाये गये मार्गोपर चले जाते हैं ॥८९॥ __जैसे बहुतसे विभिन्न देशोंसे आगत यात्री एक ही नावपर सवार होकर कठिनतासे पार करने योग्य धारा या जलाशयको पार करते हैं, दूसरे किनारे पर उतरते हो वे अपनी अपनी सामग्रीको बेचनेके लिए अलग अलग अनेक नगरों तथा आकरोंको चले जाते हैं ॥ ९ ॥ इसी प्रकार दुःखोंकी सत्तारूपो भारसे लदकर कर्मरूपो महामार्गपर चलनेवाले समस्त जीव भो अपने पापोंके भारको बेचनेके लिए ( उदयमें लाकर निर्जरा करनेके लिए ) इस संसारकी चारों गतियोंमें घूमते हैं ।। ९१ ॥ पतझड़का समय आनेपर वृक्षोंके पत्ते अपने आप इधर उधर गिर जाते हैं, फिर वसन्तकी समीरका एक झोंका आता है, उन सब पत्रोंका एक ढेर कर देता है, थोड़ी देर बाद दूसरा आता है और न जाने उन्हें किधर किधर बिखेर देता है ॥९२॥ [२७२] 1 १. म स्वकर्मकृत। २.क व्यतीतकुल। ३.म विक्रीतु। ४. म च दुर्गतीः । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग तथा जीवाः समुद्धताः प्रकीर्णा हि महीतले। चोयन्ते कर्मणैकेन नीयन्ते स्वपरेण च ॥१३॥ यथोदितस्य सूर्यस्य ध्र पतनमग्रतः । प्रदीप्तस्य प्रदीपस्य चोपशान्तिर्यथोदिता ॥१४॥ यथा नभसि मेघानां विलयः पुरतः स्थितः। तथा जातस्य जीवस्य मरणं ध्रुवमग्रतः ॥१५॥ पार्थिवाः खेचराश्चैव केशवाश्चक्रवर्तिनः। मानवा ब्रह्मरुद्राश्च योगसिद्धा दमेश्वराः ॥९६॥ इन्द्राश्च चन्द्रसूर्याख्या' लोकपालास्त्वनी किनः । पतन्ति स्वेषु कालेषु त्राता कश्चिन्न विद्यते ॥९७॥ यथैव मत्तमातङ्गः प्रविश्य कदलीवनम् । पाद दन्तकराग्रेश्च प्रमद्नाति महमहः ॥९॥ पञ्चदशः सर्गः चरितम् सांसारिक समागम भी ऐसे ही हैं, अनादिकालसे वर्तमान जीव-लोकमें जीव इधर उधर सब स्थानोंपर व्याप्त हैं। । । किसी एक कर्मका थपेड़ा उन्हें एक कुल, पुरा, नगर, देश आदिमें इकट्ठा कर देता है, किन्तु दूसरा उन्हें यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखेर देता है ।। ९३ ॥ अवनति ही निश्चित है यह ध्रुव सत्य है कि जो सूर्य प्रातःकाल उदित होकर सारे संसारको आँखें अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है वह | मध्याह्नको पूर्ण प्रतापो होकर आगे सन्ध्या तक पहुँचते-पहुंचते अस्त हो जाता है । जो दीपक जलाये जानेपर आसपासके स्थलको आलोकित कर देता है वह भी अन्त समय आनेपर बुझ हो जाता है ।। ९४ ।। आकाशमें मेघोंके एकसे एक उत्तम आकार बनते हैं, किन्तु वे देखते-देखते हो विलीन हो जाते हैं इसी प्रकार जो जीव जन्म लेकर प्रकट हुआ है वह आयु समाप्त होनेपर मृत्युके कारण अवश्य हो कहों लीन हो जायेगा ।। ९५ ।। मृत्युमें आश्चर्य नहीं परम प्रतापी राजा लोग, अलौकिक विद्याओंके अधिपति खेचर, अनन्त प्रभावशाली नारायण (राम, बलभद्रादि), भरत, आदि पट्खंड विजयी चक्रवर्ती, शलाका पुरुष, रुद्र ( शिव, द्वोपायनादि ) यौगिक सिद्धियोंके अधिष्ठाता तांत्रिक मांत्रिक ।। ९६ ॥ इन्द्रिय निग्रही परम तपस्वी, सोलह स्वर्गों के इन्द, परम उद्योतमान चन्द्रमा और सूर्य, यम, वरुण, कुबेर आदि लोकपाल तथा लक्ष्मण अर्जुनके समान महासेनापति भो जब आयुकर्म समाप्त हो गया तो ये सब क्षुद्र कीटको तरह मृत्युके मुखमें पड़े। कोई भी शक्ति उनको रक्षा नहीं कर सकी ।। ९७ ।। आयुकर्मको बलबत्ता जैसे कोई मदोन्मत्त हाथी किसी कदली वनमें घुस जावे तो वह बिना किसी संकोचके जिधर भी बढ़ता है उधर ही केलेके पेड़ोंको पैरोंसे कुचलकर, दाँतोंसे फाड़कर तथा सूडसे मरोड़कर बार-बार मसलता है ।। ९८।। १. म सूर्याख्यो। २.क पाददण्ड । Jain Education international३५ PARASIRAHARASpee-aur-Sure- se-premem RELATESPEASANSARITALIRDARSHESHARIRST [२७३] arpan Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तथैव मृत्युमातङ्गस्तिर्यग्नरसुरासुरान् । प्राप्तकालान्प्रमृद्नाति दिवानिशमवारितः ॥९९॥ तिर्यग्योनिषु सर्वासु मर्त्यदैत्यामरेषु च । नारकेषु च दुर्वायौं विहरत्यन्तकः सदा ॥१०॥ विषैश्च विषमाहारैः पानीयैरनलानिलः। शस्त्रोल्कावह्निसंपातैाधिरूपरुपैति सः॥१०१॥ जरया मृत्युना जात्या क्लेशाननुभवंश्चिरम् । आत्मा संसारवासेऽस्मिन्बम्भ्रमीति पुनः पुनः ॥१०२॥ यत्र जीवस्य जातिः स्यात्तत्रावश्यं जरा भवेत् । जरापरोतगात्रस्य ध्रुवं मृत्युभविष्यति ॥१०३॥ जातेदु:खं परं नास्ति जरसः कष्टं न विद्यते। भयं च मृत्युतो नास्ति तत्र यत्सेव्यते ध्रुवम् ॥१०४॥ ह्योविद्धि' निर्गतं जन्म स्वोदच्च तदनागतम् । अद्यवद्वर्तमानं स्यादित्युक्तं कर्मदशिभिः ॥१०५॥ पञ्चदशः सर्गः उसी प्रकार मृत्यु ( आयुकर्मको समाप्ति ) रूपी पागल हाथी नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देवगतिरूपी कदली वनोंमें घूमता है। तथा जिन जोवोंके आयु कर्मको इतिश्री आ पहुँचतो है उन्हें दिन रात निर्दयतापूर्वक कुचलता जाता है, उसे कोई | रोक नहीं सकता है ॥ ९९ ॥ अंत करनेवाला ( यम = आयुकर्म ) तिर्यञ्च, मनुष्य, अमर तथा नारकों सब ही योनियोंमें अबाधरूपसे घूमता है संसारकी कोई शक्ति उसको रोक नहीं सकती है ।। १०० ॥ वह विषके प्रयोग, अनियत असंगत भोजन-पान, अग्निकाण्ड, आँधी अथवा विषाक्त वायुप्रवाह, युद्ध प्रसंग, वज्रपात, साधारण आग तथा विविध प्रकारके अनेक रोगोंके रूपमें संसारके प्राणियोंपर झपटता है ।। १०१ ।। परवशता, पराधीनता तथा उत्साहहीनतामय बुढ़ापा, किये करायेको स्वाहा करनेवालो मृत्यु, गर्भावासके महा दुखोंसे A पूर्ण जन्मके प्रसंगों द्वारा यह आत्मा इस संसार चक्रमें पुनः पुनः बिना रुके ही चक्कर काटता है ।। १०२ ॥ त्रिदुःख जहाँ पर किसी जीवका जन्म होता है वहाँपर निरपवादरूपसे वृद्धावस्थाका आविर्भाव होता ही है, तथा जब किसी प्राणीके शरीरको बुढ़ौतीने जरजर कर हो दिया है तो उसको यदि कोई बात अटल है तो वह मृत्यु हो है ।। १०३ ।। संसारमें अनन्त दुःख है पर कोई भी दुःख प्रसवके दुःखोंकी समानता नहीं कर सकता है, कष्ट भी संसारमें एकसे एक बढ़कर हैं पर बुढ़ौतीका कष्ट सबसे बढ़कर है, इसो प्रकार त्रिलाकमें कोई ऐसा भय नहीं है जिसको नुलना मृत्युभयसे की जा सके । तथा सबसे बड़ी परवशता तो यह है कि इन तोनों घाट सबको ही उतरना पड़ता है ।। १०४ ।। जो कर्मोंके शास्त्रके विशेषज्ञ हैं उनके मतसे जन्मको बोते हुए कलके समान समझना चाहिये, जो अब तक सामने नहीं [२७४ १. [ ह्योवद्धि]। Jain Education interational २. क स्त्वोवञ्च, [ श्वोवच्च ] । For Privale & Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् = S रात्रिस्तमोमयी चात्र कृतान्तं समुपेष्यति । कश्चिद्वन्धुर्न हि त्राता कृतो धर्मोऽभिरक्षति ।। धर्मो दयामयः प्रोक्तो जिनेन्द्रजितमृत्युभिः । तेन धर्मेण सर्वत्र प्राणिनोऽश्नुवते सुखम् ॥ तस्माद्धर्मे धत्स्व यूयमिष्टफलप्रदे । स वः सुचरितो भतुः संयोगाय भविष्यति ॥ एको धर्मस्य तस्यात्र सुपायः स तु विद्यते । तेन पापात्रबद्वारं नियमेनापि दीयते ॥ व्रतशीलतपोदान संयमोऽहंत्प्रपूजनम् । दुःखविच्छित्तये सर्व प्रोक्तमेतदसंशयम् ॥ अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिःप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि इत्येतद्द्द्वादशात्मकम् ॥ १११ ॥ ११० ॥ आया है उस आनेवाले कलके समान मरणको जानना आवश्यक है तथा जो आत्मापर घट रहा है उसे वर्तमान पर्यायकी तुलना 'आज' से की गयी है ।। १०५ ।। १०६ ।। १०७ ॥ १०८ ॥ १०९ ॥ अज्ञानके गाढ़ अन्धकारसे व्याप्त रात्रि इस संसार में सदा ही रहती है अतएव कृतान्त रूपी चोरको सदा अवसर मिलता है वह आयेगा और ले भागेगा, कोई भाई बन्धु या रक्षक उससे न बचा पायेगा, केवल उस धर्मको छोड़कर जिसका कि जीवने स्वयं आचरण किया है ।। १०६ ।। वीतराग तीर्थंकरोंने तपस्याके द्वारा मृत्युको जीता था, उनके उपदेशके अनुसार दयापूर्ण आचार-विचार ही धर्म है, क्योंकि इस धर्मको धारण करने तथा आचरण करनेसे हो संसारके जोव सुख पा और दे सकते हैं ।। १०७ ।। दया धर्मका मूल अतएव हे राजबधुओ ! तुम सब उस दयामय धर्मं में ही अपने आपको लगाओ, क्योंकि वह सब ही अभिलषित पदार्थोंप्राप्ति कराता है । तब कोई कारण नहीं कि उसका विधिपूर्वक आचरण करनेपर भी आप लोगोंका पतिसे पुनः संयोग न हो ॥ १०८ ॥ इस संसार में सब अशुभोंका सफल प्रतीकार एक ही है, वह है पूर्वोक्त दयामय धर्मं । यह निश्चित है कि पापकर्मो के आनेका द्वार यदि किसके द्वारा नियमसे बन्द हो सकता है तो वह धर्म ही है ।। १०९ ।। अणुव्रतों पालनीय हैं। अहिंसा आदि पाँच व्रतोंका पालन, सामायिक आदि सात शीलोंको साधना, अभ्यन्तर तथा बाह्य तप, इन्द्रियोंका संयम तथा अष्टद्रव्यके द्वारा वीतराग प्रभुकी द्रव्य तथा भावपूजा ये सबके सब सांसारिक दुःखोंको जीर्णं करके बिखरा देने के प्रधान उपाय हैं इसमें अणुमात्र भी संशय नहीं है ।। ११० ।। साधारणतया तीन श्रेणियों में विभक्त व्रतों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रहपरिमाणके भेदसे अणुव्रत १. [ नियमेनाविधीयते ] | २. त्रिःप्रकार गुण । For Private Personal Use Only पञ्चदशः सर्गः [ २७५ ] Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F देवतातिथिप्रीत्यर्थ मन्त्रौषधिभयाय वा । न हिंस्याः प्राणिनः सर्वे अहिंसा नाम तव्रतम् ॥ ११२ ॥ लोभमोहभयद्वेषैर्मायामानमदेन वा। न कथ्यमन्तं किंचित्तत्सत्यव्रतमुच्यते ॥ ११३ ॥ क्षेत्र पथि कले' वापि स्थितं नष्टं च विस्मृतम् । हार्य न हि परद्रव्यमस्तेयव्रतमुच्यते ॥ ११४॥ स्वसमातृस्वसाप्रख्या द्रष्टव्याः परयोषितः। स्वदारैरेव संतोषः स्वदारव्रतमुच्यते ॥ ११५ ॥ वास्तुक्षेत्रधनं धान्यं पशुप्रेष्यजनादिकम् । परिमाणं कृतं यत्तत्संतोषव्रतमुच्यते ॥ ११६ ॥ बाल पञ्चदशः बराङ्ग चरितम् सर्गः AIRSSIRESTRASTRATPAT - R APATAMARHATARPRASADHE पाँच प्रकारके हैं । गुणवतोंके दिग्वत, देशव्रत तथा अनर्थदण्डत्यागवत ये तीन विभाग हैं तथा शिक्षाव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण तथा अतिथिसंविभागके भेदसे चार प्रकारका है, इस प्रकार सब व्रतोंको संख्या बारह होती है ॥ १११ ।। अहिंसाको सरल परिभाषा देवताओंको प्रसन्न करके उनकी कृपा प्राप्त करनेके लिए घरपर आये अतिथिका सत्कार करनेके लिए ( वैदिक कथा है कि जब बाल्मीकिके यहाँ विश्वामित्र गये थे तो स्वयं अहिंसक वाल्मोकिने राजर्षिके स्वागतके लिए गाय मरवायी थी। आज। कल भी लोग म्लेच्छ अधिकारियोंकी पार्टीमें 'टिन' मांस आदिको व्यवस्था करते हैं), मन्त्र साधनेको लिप्सासे (सूअर आदि काटना), औषधिरूपसे ( अण्डा, सोरवा एलोपैथ डाक्टर खिलाते हैं । अथवा किसो भयके कारण संसारके किसो भयके कारण संसारके किसी भी प्राणीको नहीं मारना चाहिये । इसे हो अहिंसा अणुव्रत कहते हैं ।। ११२ ॥ सत्यका सरल स्वरूप किसो प्रकारके लोभको प्रेरणासे, किसी विषयके उत्कट मोहके कारण, डराने धमकानेसे, वैमनस्यका प्रतिशोध करनेकी अभिलाषासे, मायाचार या चाटुकारिताके प्रसंगमें, अहंकार या किसी और दम्भके कारण किसी भी प्रकारके असत्यको जिह्वापर न लानेको ही सत्य अणुव्रत कहते हैं ॥ ११३ ॥ अस्तेयका रूप साधारण स्थल या खेतमें, मार्गपर अथवा खलिहानमें रक्खी हुई, प्रमादसे गिरी हुई अथवा भूली हुई किसी भी वस्तुको उसके स्वामीकी स्वीकृतिके बिना न उठानेको ही अस्तेय अणुव्रत कहते हैं ।। ११४ ।। स्वदार-संतोष अपनी विवाहित पत्नीके अतिरिक्त संसारकी सब ही देवियोंको अपनी माता, बहिन तथा बेटोकी श्रेणीमें रखकर देखना, सोचना तथा चर्चा करना, साथ ही साथ अपनी पत्नियों ( पत्नी) से परम संतुष्ट रहनेको स्वदारसन्तोष व्रत कहते हैं ॥ ११५ ।। [२७६ ] परिग्रहपरिमाण महल-मन्दिर-मठ आदि, बगीचा-खेत-जमींदारी आदि, सोना-चाँदो आदि धन, व्यापार आदिकी दृष्टिसे अन्नोंका, १. [कुले ]। २. [ °मातृसुता]। ३. म परिमाणकृतं । RSARDAREES.. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊधिो दिग्विविक्स्थानं कृत्वा यत्परिमाणतः। पुनराक्रम्यते नैव प्रथम तद्गुणवतम् ॥ ११७॥ गन्धताम्बूलपुष्पेषु स्त्रीवस्त्राभरणादिषु । भोगोपभोगसंख्यानं द्वितीयं तद्गणव्रतम् ॥ ११८ ॥ दण्डपाशबिडालाश्च' विषशस्त्राग्निरज्जवः। परेभ्यो नैव देयास्ते स्वपराधातहेतवः ॥ ११९ ॥ छेदं भेदवधौ बन्धगुरुभारातिरोपणम् । न कारयति योऽन्येषु तृतीयं तद्गुणवतम् ॥ १२० ॥ शरणोत्तममानुल्यं नमस्कारपुरस्सरम् । व्रतवद्धय हदि ध्येयं सध्ययोरुभयोः सदा ॥ १२१॥ पञ्चदश चरितम् सर्गः a te-AROPARDA संचय, गाय-भैंस-बैल-घोड़ा-आदि पशु तथा सेवा टहल आदिके लिए आवश्यक किंकरोंके परिमाणका निश्चय कर लेना कि इतने1 से अधिक नहीं रखेंगे, इसे संतोष अथवा परिग्रह-परिमाण व्रत कहते हैं ॥ ११६ ।। दिग्वत ऊपर तथा नोचे, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्खिन दिशाओं में तथा आग्नेय, वायव्य, नैऋत तथा ईशान विदिशाओंमें आने जानेके क्षेत्रका निश्चय करके फिर किसी भी कारणसे उसके बाहर न जानेको दिग्वत नामका गुणव्रत कहते हैं ॥ ११७॥ भोगोपभोगपरिमाण तैल इत्र ( क्रीम, स्नो, पाउडर आदि ) आदि सुगन्धित पदार्थ, पान, पत्ता, सुरती (बीड़ी, सिगार आदि ) फूल, माला आदि वरप्रसंगों, पत्नियों, कपड़ों तथा आभूषणों आदि उपभोग भोगोंको अपनी सात्त्विक आवश्यकताके अनुकूल तालिका बनाकर शेष सबके त्यागको भोगोपभोग-परिमाणव्रत कहते हैं ।। ११८ ॥ अनर्थ-दण्डत्याग डंडा फंसानेकी पास या रस्सी, चूहोंको स्वाभाविक शत्रु बिल्ली, विष, शस्त्र, आग, सांकल आदि ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके द्वारा मनुष्य दूसरोंका सरलतासे वध कर सकता है। तथा उतनी ही आसानीसे आत्महत्या भी कर सकता है इन्हें किसीको न देना ॥ ११९ ॥ दूसरोंके नाक, कान आदि अंग न छिदवाना, न कटवाना, किसोको हत्या न करवाना, प्राणिमात्रको बन्धनमें डालनेका हेतु न होना तथा पशुओं तथा अन्य सब हो प्राणियोंपर उनकी सामर्थ्यसे अधिक भार न लदवाना, यह सब ही तीसरा अनर्थदण्डत्याग गुणव्रत है ।। १२० ।। सामायिक चित्तको एकान और शान्त करनेके कारण जो सबसे उत्तम शरण हैं ऐसे वीतराग प्रभुके आदर्शको पंच नमस्कार मंत्रके उच्चारणपूर्वक प्रातःकाल तथा सन्ध्या समय अप्रमत्त होकर मनसे सदा चिन्तवन करना सामायिक व्रत है ।। १२१ ।। न्चारमाध्यमाच्या useum [२७०] १.क बिरालाश्च । २. म योग्येषु । Jain Education international Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग परितम् समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावनाः। आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिक व्रतम् ॥ १२२॥ मासे चत्वारि पर्वाणि तान्युपोष्याणि यत्नतः । मनोवाक्कायसंगुप्त्या स प्रोष'धविधिः स्मृतः ॥ १२३ ॥ चतुर्विधो वराहारः संयतेभ्यः प्रदीयते । श्रद्धादिगुणसंपत्त्या तत्स्यादतिथिपूजनम् ॥ १२४ ।। बाह्याभ्यन्तरनैःसंग्याद्गृहीत्वा तु महाव्रतम् । मरणान्ते तनुत्यागः सल्लेखः स प्रकीयंते ॥ १२५॥ इत्येतानि व्रतान्यत्र विधिना द्वादशापि ये। परिपाल्य तनु त्यक्त्वा ते दिवं यान्ति सव्रताः ॥ १२६ ॥ पञ्चदशः सर्ग: eHASHeSeedesiresumeme-wearesawesur-SIPATHOSHDHIS संसारके प्राणियोंके योनि, श्रेणि, कूल तथा गोत्रकृत भेदको भुलाकर सबको एकसा समझना, इन्द्रियों और मनको चंचलताको रोकना, स्व तथा परके लिए कल्याणकारक शुभ विचारोंको हृदयमें स्थान देना, दुःख, शोक, हानिके विचारोंसे उत्पन्न आर्तध्यान, वैर, प्रतिशोध आदि भावमय रौद्रध्यानको छोड़कर पूर्ण प्रयत्नपूर्वक चित्तको जिनेन्द्रके आदर्शमें लोन करनेको ही सामायिक शिक्षाव्रत कहते हैं । १२२ ॥ प्रोषधोपवास प्रत्येक मासमें दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी होती हैं। इस प्रकार कुल चार पर्व होते हैं। इन चारों पर्व दिनों में मनोगुप्ति ( मनका पूर्ण नियन्त्रण ) वचनगुप्ति ( बचनका पूर्ण नियंत्रण ) तथा कायगुप्ति ( कायका पूर्ण नियंत्रण ) का पालन । करते हुए अत्यन्त सावधानीके साथ एकाशन या उपवास करनेको ही प्रोषध शिक्षाव्रत बताया हे ।। १२३ ।। अतिथिसंविभाग निग्रन्थ संयमी मुनिराज शरीरकी स्थितिके लिए हो शास्त्र में बतायो गयो विधिके अनुसार परम पवित्रतापूर्वक तैयार किये गये खाद्य, पेय आदि चार प्रकारके ही आहारको ग्रहण कर सकते हैं। अतएव उन्हें इस प्रकारके प्रासुक भोजनको श्रद्धा, भक्ति आदि दाताके आठ गुणोंके साथ नवधाभक्तिपूर्वक देनेको अतिथि पूजन ( संविभाग ) नामका तीसरा शिक्षाव्रत कहते सल्लेखना प्रामाणिक निर्यापकाचार्यके मुखसे जीवनके अन्तको निकट समझ कर दस प्रकारके बाह्य तथा चौदह प्रकारके में अभ्यन्तर, इस प्रकार चौबीसों प्रकारके परिग्रहको पूर्णरूपसे त्यागकर पूर्ण अपरिग्रही रूपको प्राप्त करके अहिंसा आदि पाँचों महाव्रतोंको धारण कर लेना तथा मृत्यु आनेपर ऐसी विशुद्ध अवस्थामें शरीर छोड़नेको सल्लेखना शिक्षाव्रत कहते हैं ।। १२५ ।। इस प्रकार मैंने बारहों व्रतोंके संक्षिप्त लक्षण कहे हैं। मनुष्य भवमें जो प्राणी इन सबका विधिपूर्वक पालन करते हैं [२७८) तथा अन्तमें मरण भी व्रतोंकी विधिके अनुसार ही करते हैं वे सच्चे व्रती श्रावक निश्चयसे अगले भवमें स्वर्ग पाते हैं ॥ १२६ ॥ १.क संप्रोषधविधिः । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग H सौधर्मादिषु कल्पेषु संभूय विगतज्वराः। तत्राष्टगुणमैश्वर्यं लभन्ते नात्र संशयः ॥ १२७ ॥ अप्सरोभिश्चिरं रत्वा वैक्रियातनभासुराः । भोगानतिशयान्प्राप्य निश्च्यवन्ते सुरालयात् ॥ १२८॥ हरिभोजोग्रवंशे वा इक्ष्वाकृणां तथान्वये। उत्पद्यैश्वर्यसंयुक्ता ज्वलन्त्यादित्यवद्भुवि ॥ १२९॥ विरक्ताः कामभोगेषु प्रबज्यैवं महाधियः । तपसा दग्धकर्माणो यास्यन्ति परमं पदम् ॥ १३०॥ इत्येतद्यतिना प्रोक्तं दुःखविच्छित्तिकारणम् । ताश्च तद्वचनापास्तशोकाग्रहधियोऽभवन् ॥ १३१॥ अथोत्थाय मुनीन्द्रस्य पादौ नरपतेः स्नुषाः । प्रणम्य जगहः सर्वा व्रतान्युक्तानि शक्तितः॥१३२॥ पञ्चदशः सर्गः बरितम् स्वर्गसुख जब वे यहाँसे मरकर सौधर्म, ऐशान आदि कल्पोंमें जन्म लेते हैं, तो वहाँ उन्हें किसी भी प्रकार दुःख शोक नहीं होता है। इतना ही नहीं अणिमा, महिमा, गरिमा आदि आठ ऋद्धियोंसे सुलभ ऐश्वर्य भी उन्हें प्राप्त होते हैं इसमें थोड़ा सा भी सन्देह नहीं है ॥१७॥ उनकी देह तेजमय तथा वैक्रियक ( जिसे मनचाहे आकारमें बदल सकते हैं तथा जिससे अलग इच्छानुसार आकार धारण कर सकते हैं ) होती है, बड़े लम्बे अरसे तक वे अनुपम सुन्दरो अप्पराओंसे रमण करते हैं, परिपूर्ण भोगों तथा अद्भुत । । अतिशयोंको प्राप्त करके आयुकर्म समाप्त होनेपर ही वे वहाँसे आते हैं ।। १२८ ।। देवायुको समाप्त करके जब वे इस पृथ्वीपर जन्म लेते हैं तो इस लोकके पूज्य हरिवंश, सर्वप्रधान, भोजवंश अथवा उग्रवंश शलाकापुरुषोंकी खान इक्ष्वाकुवंशमें ही उत्पन्न होते हैं । यहाँपर भी उन्हें इतना अधिक ऐश्वर्य और शक्ति प्राप्त होती है कि उसके कारण वे समुद्रान्त वसुधा तलपर सूर्यके समान तपते और प्रकाशित (मान्य) होते हैं ।। १२९ ।। वे भोग उपभोगकी असोम सम्पत्तिसे घिरे रहनेपर भी परम ज्ञानी होते हैं। अतएव कुछ समय बाद उन्हें संसारके विषय-भोग तथा कामवासनासे विरक्ति हो जाती है तो वे स्वैराचार विरोधिनी जिन-दीक्षाको धारण कर लेते हैं। फिर उग्र तपरूपी ज्वालाको प्रदीप्त करके उसमें कर्ममेलको भस्म करके परमपद मोक्षको प्रस्थान कर जाते हैं ।। १३० ॥ रागाग्नि शान्ति मुनिराज यमधरने इस प्रकारसे संक्षेपमें दुःखके समूल नाशके कारणोको समझाया था युवराजकी विरहिणी पत्नियोंने यतिराजके उपदेशरूपो अमृतके प्रभावसे शोक दुःख तथा आत्महत्याकी हठको छोड़ दिया था ॥ १३१ ।। महाराज धर्मसेनकी सब पुत्रवधुओंने उठकर विनयपूर्वक यतिपतिके चरणोंको शान्तचित्तसे प्रणाम किया था। इसके J उपरान्त उन सबने हो अपनी सहनशक्तिके अनुकूल अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रतोंको धारण किया था । १३२ ॥ [२७९] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग ततो राजा पुनस्तासां वियोगहतचेतसाम् । हृदयानन्दजननी गिरमित्थमुवाच सः ॥ १३३ ॥ मा भूवं विक्लवाः सर्वा आसतां धर्मवाञ्छया। उपक्रान्तैरुपायैस्तैः कुमारं मृगयाम्यहम् ॥ १३४॥ परिपम्य मुनि राजा भक्तिप्रेमाचेतसा । प्रणम्यान्तःपुरैः सार्थ स्नुषाभिश्च पुरं ययौ ॥ १३५ ॥ अचान्यदा सुखासीनं राजानममितप्रभम्। चैत्यपूजाभिलाषिन्यश्चक्रुर्विज्ञापनं स्नुषाः ॥ १३६ ॥ ततो विज्ञापितो राजा कारयामास मासतः । शरत्कालाम्बुदाकारं जिनेन्द्रभवनं शुभम् ॥ ९३७॥ मेघचुम्बितकूटाग्रं स्फुरत्केतुविराजितम्। चलद्धण्टारवोन्मियं ज्वलत्काञ्चनपीठिकम् ॥ १३८॥ पञ्चदशः चरितम् सर्गः ransminantseuktakpakisatsARRIERus यह सब होनेपर भो राजाने देखा था कि उनके हृदयोंपर जा पतिवियोगसे ठेस लगी है वह निर्मूल नहीं हुई है अतएव उनके हृदयोंमें आशा और आनन्दका संचार करनेके लिए उसने फिरसे उनसे निम्न वाक्य कहे थे-'हे पुत्रियों ! तुस सब अब खेद खिन्न मत होओ ।। १३३ ।। शान्त चित्तसे धर्मके आचरणमें मनको लोन करते हुए समयको बिताओ। इस बीच में, मैं भी सब दिशाओंमेंसे सब विधियोंसे फैलाये गये विविध उपायों द्वारा युवराज वरांगको ढूढ़ता हूँ' ।। १३४ ॥ दृढ़ता धर्मरुचि मुनिराज यमधरके धर्मोपदेशका शोकसे विह्वल बहुओंपर साक्षात् प्रभाव देखकर महाराज धर्मसेनका हृदय भक्तिके उभारसे द्रुतहो पिघल, उठा था। अतएव उन्होंने भक्तिभावसे ऋषिराजकी तीन प्रदक्षिणाएँ करके प्रणाम किया था। तथा अपनी पुत्रवधुओं और रानियों आदि अन्तःपुरके साथ राजधानीको लौट आये थे ।। १३५ ॥ जिन मन्दिर निर्माण एक दिन महाराज धर्मसेन निश्चिन्तसे होकर शान्तिसे बैठे हुए थे, उनका अनुपम तेज चारों ओर छिटक रहा था किन्तु उसी अन्तरालमें पुत्रवधुओंने समाचार भेजा था कि 'हम सब श्री एकहजार आठ देवाधिदेव तीर्थंकर प्रभु की पूजा करना चाहती हैं ।। १३६ ॥ बहुओंकी इस अभिलाषाका पता लगते ही महाराज धर्मसेनने एक अति विशाल जिन मन्दिर का निर्माण कराया था । जिसका उत्षेध और रंग शरद् ऋतु के मेघोंके समान था । विशेषता यही थी कि ऐसा विशाल जिन मन्दिव एक मासमें ही तैयार हो गया था ॥ १३७ ॥ उस जिनालयका सबसे ऊपरी शिखर बादलोंका चुम्बन करता था, उस पर फहराये गये विशाल तथा विचित्र केतु आकाशमें लहरा रहे थे, सतत हिलते हुए घंटोंके गम्भीर नादसे वातावरण गूजता रहता था तथा गर्भगृहमें निर्मित सोनेकी वेदी का आलोक सब दिशाओंमें जगमगा रहा था ।। १३८ ।। [२८० Jain Education international Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LATTA बराङ्ग पञ्चदशः चरितम् सर्गः प्रतिमाः स्थापितास्तत्र नानारत्नविनिर्मिताः । भुनारादर्शशलादि परिवारोपशोभिताः ।। १३९॥ पूर्वमष्टाह्निकं भक्त्या देव्यः कृत्वा महामहम् । प्रारब्धा नित्यपूजार्थ विशुद्धेन्द्रियगोचराः ॥१४०॥ चरुभिः पञ्चवर्णैश्च ध्वजमाल्यानुलेपनैः। दोपैश्च बलिभिश्चूर्णैः पूर्जा चक्रर्म दान्विताः॥१४१॥ उपवासेन तन्वयः शुद्धवाग्मनसःक्रियाः । स्तोत्रैर्मन्त्रेश्च गीतेश्च जिनान्सन्ध्यासु तुष्टुवः॥ १४२ ॥ शेषकालं जिनेन्द्राणां धर्मसंकथया तया । पुस्तवाचनया चापि गमयामासुरुत्तमाः ॥ १४३ ॥ कदाचित्संयतेभ्यस्ता दानधर्मपरायणाः। शुद्धयादिभिर्गुणैर्युक्ता पात्रदानानि संददुः ॥ १४४ ॥ उस महावेदीके ऊपर भाँति-भांतिके वैडूर्य आदि रत्नोंसे निर्मित तीर्थंकरोंकी मनोज्ञ मूर्तियां स्थापित की गयी थीं। वेदी के चारों ओर भ्रङ्गार, आदर्श, पंखा, चमर आदि अष्ट-प्रातिहार्य मंगल-द्रव्योंकी स्थापना की गयी थी। जिससे गर्भगृहकी शोभा और निखर उठी थी ॥ १३९ ।। अष्टाह्निक विधान सबसे पहिले राजाकी पुत्रवधुओंने आषाढ़, कात्तिक, फाल्गुनके अन्तिम आठ दिन पर्यन्त चलनेबाला नदोश्वरद्वीपका महा विधान किया था। इसके उपरान्त मन तथा इन्द्रियोंको सन्मार्गपर लानेमें सहायक नित्य-पूजा विधान प्रारम्भ किया था ॥ १४० ॥ वे प्रतिदिन पवित्र नैवेद्य, पांच रंगके पुष्पों, ध्वजा, माला, अभिषेक तथा अनुलेपन, रत्नोंके दीपक, चूर्ण किये गये चन्दन आदिको बलि आदिके द्वारा वीतराग प्रभुकी पूजा करती और प्रसन्न होती थीं ॥ १४१ ।। उन दिनों वे अपने मन, वचन तथा कायको भीतर बाहर शुद्ध रखती थीं, प्रतिदिन उपवास करती थीं जिससे शरीर दिनोंदिन कृश होते जाते थे। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन संध्यावन्दनाको जाती थीं और भाँति-भाँतिके स्तोत्रों और मंत्रों द्वारा जिनेन्द्र देवकी स्तुति करती थीं ॥ १४२ ।। इन सबसे बचे शेष समयको भी वे कुलीन बहुएँ भगवान वीतरागकी धार्मिक कथा करनेमें व्यतीत करती थीं। अथवा जिन शास्त्रोंके पठन-पाठनमें लगाती थीं। वे उस समय आगम के अनुकूल विधिसे दान और धर्म करती, करती थकती न थीं कभी कभी वे शुद्धि, आदि अष्टगुणोंको धारण करती हुई इन्द्रियसंयमी यतियोंको उपकरण, शास्त्र, आदि उत्तम दान देती थीं।। १४३॥ धर्मकाम योग युवराज वरांगकी पत्नियाँ उक्त प्रकारसे सत्पात्रको दान, महान व्रतोंका पालन, मन्दकषायिता आदि गुणों तथा [२८१] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्येवं नपवनिता व्यपेतशोका दानोरुखतगुणभावसक्ताः। देवानां सकलविदां ययाचिरे ताः पादेषु प्रणतषियः पति प्रतीष्टाः ॥ १४५॥ औत्सुक्यप्रतिहतमानसाः कदाचिद्गण्डा न्तप्रणिहितचारुहस्तपनाः । पक्ष्मा ग्रश्रुतसलिला मुहुश्च सन्त्यः संवध्युर्युवनपति समागमाशाम् ॥ १४६ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वरांगचरिताश्रिते अन्तःपुरविलापो नाम पञ्चदशः सर्गः। पञ्चदशः सर्गः वैराग्य आदि भावनाओंके आचरणोंमें लीन थीं फलतः उनका वियोग का शोक भी किसो मात्रामें उपशान्त हो गया था। समस्त द्रव्य पर्यायोंके साक्षात् द्रष्टा सर्वज्ञ प्रभुओंके चरणोंमें साष्टांग विनत होकर वे यही प्रार्थना करतो थीं कि उनके पति का अभ्युदय हो । १४५ ॥ इतना होने पर भी विरह जन्य उत्कण्ठाकी मेघमाला उनके हृदयपटल पर छा ही जाती थी, तब वे अत्यन्त हताश होकर अपनी कृश सुकुमार हथेलीपर कपोलोंको रख लेती थीं, उनके पलक आसुओंसे भीग जाते थे, उनसे अश्रुधार बह निकलती थी, बार बार शीतल श्वांस लेती थीं और सब कुछ भूलकर पतिके समागम की आशाके विचार-समुद्रमें डूब जाती थीं ॥ १४६ ।। चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द-अर्थ रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें अन्तःपुर,विलापनाम पञ्चदश सर्ग समाप्त । (२२1 १.क प्राणिहित. २,[स्रुतसलिला]। ३. म समागताशां । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् षोडशः सर्गः अयैवमुर्वीपतिसूनुरियै विभागवद्भिर्ललितैरुदारैः 1 तेषां च पुत्रैरनुगृह्यमाणो रेमे च तस्यां ललितापुह्नर्याम् ॥ १ ॥ क्रीडां यथा मत्तगजो वनेषु प्रलाल्यमानो गजकामिनीभिः । लेभे गति बन्धगतोऽपि तद्वत्स्वाभिर्नृपोऽप्यत्र हि दुष्क्रियाभिः ॥ २ ॥ एवं नृपस्यान्यनरेन्द्र पुर्या व्यामिश्रयोगेन सुखासुखेन । कालोऽगमत्कर्मवशेन तस्य यशोगुणश्रीधनभाजनस्य ॥ ३ ॥ तस्यां तु पुर्या वसति क्षितीन्द्र प्रवृत्तमन्यत्प्रकृतं महद्यत् । यथागमं तद्विनिगद्यमानं शृण्वन्तु सन्तो गुणभारतस्राः ॥ ४ ॥ षोडश सर्ग काहू उर दुचिताई ललितपुरके श्रीमान् सेठ लोग धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थों धन, धान्य आदिके विभाजनमें कुशल थे, शरीर और मन दोनोंसे सुन्दर थे तथा व्यवहारमें अत्यन्त उदार थे । इन लोगोंके सब ही गुण इनके पुत्रोंमें भी थे । फलतः इन सबके अनुग्रह को स्वीकार करता हुआ पृथ्वीपति वरांग वहाँपर आनन्दसे रमा हुआ था ॥ १ ॥ जब वन्य हाथी यौवनके मदमें चूर होकर जंगल जंगल घूमता है तो युवती हथिनियाँ उसके पीछे पीछे दौड़ती हैं तथा यथेच्छ प्रकारसे वह उनके साथ रतिका सुख लेता है, किन्तु अपने असंयत आचरणके कारण बन्ध को प्राप्त होकर दुख भरता है, बिल्कुल यही हालत युवराज वरांगकी थी ॥ २ ॥ दूसरे राजाकी राजधानी में पूर्वकृत पाप कर्मोंका उदय होनेपर वह बाह्य सुख तथा आन्तरिक दुखके मिश्रित अनुभव को करता हुआ एक विचित्र अवस्थामें दिन काट रहा था । यद्यपि वह स्वयं निर्मल यश, अवदात गुण, अनुपम क्रान्ति तथा असंख्य सम्पत्तिके स्वामी थे ॥ ३ ॥ जिस समय युवराज वरांग ललितपुरीमें निवास कर रहे थे उसी समय वहां पर जो एक अति विशाल परिवर्तन घटित हुआ था उसका आगम में वर्णन मिलता है, में उसके अनुसार यहाँपर वर्णन करूँगा, ज्ञान-पिपासा आदि गुणोंके भारसे नम्र आप सज्जन पुरुष उसे ध्यान से सुनें ॥ ४ ॥ षोडशः सर्गः [ २८३ ] Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् आसीन्नरेन्द्रो मधुराधिपस्तु' नाम्नेन्द्रसेनः प्रथितो धरण्याम् । तस्याग्रपुत्रो बलवीर्य दृप्त उपेन्द्रसेनो युवराज् बभूव ॥ ५ ॥ समस्त सामन्तनिबद्धपट्टो समस्तसामन्तगणातिधैयौं शौर्योद्धतावप्रतिकोशदण्डौ समस्तसामन्तमदावरोधौ । १. [ मथुराधिप । बभूवतुश्चन्द्रदिवाकराभौ ॥ ६ ॥ गृहीतसामन्तसमस्तसारौ । तौ स वारणेन्द्रः अतुल्यवीर्यः देवसेनस्य नरेश्वरस्य गजेन्द्र माशुश्रवतुश्चरेभ्यः ॥ ७ ॥ शुभपीवराजो मदत्रतिक्लिन्नकपोलवेशः । स्रवदम्बुदाभश्चलद्गिरिप्रख्यतमोऽतिसस्वः ॥ ८ ॥ प्रभुता का मद उस समय यादवोंकी नगरी मथुरामें जो प्रतापी राजा राज्य करता था वह इन्द्रसेन नामसे पृथ्वी पर प्रसिद्ध था। महाराज इन्द्रसेन का बड़ा बेटा उपेन्द्रसेन था जिसे अपने पराक्रम तथा सैन्य, कोश आदि बलका बड़ा अहंकार था। वह अहंकारी मथुराधिपका पुत्र इसी समय युवराज पदपर आसीन हुआ था ।। ५ ।। इन बाप बेटे को आसपासमें समस्त सामन्त राजाओंने अधिपति माना था और अपनी प्रभुताका पट्टा स्वयं सामने बढ़कर उसने ग्रहण किया था। इन दोनोंने समस्त सामन्त राजाओंके प्रभुताके अहंकारको चूर कर दिया था। किसी भी सामन्त इतना धैर्य और साहस न था कि वह उनके विरुद्ध शिर उठाता अतएव वे दोनों बाप-बेटे सूर्य और चन्द्रमाके समान चमक रहे थे ॥ ६ ॥ असीम वीर्य और तेजके कारण वे उदण्ड हो गये थे। उनके कोश और दण्ड ( सैन्य आदि ) की कोई समानता न कर सकता था। अपने सब सामन्त राजाओंके सार ( सेना तथा कोश ) को उन्होंने बल पूर्वक झटक लिया था। इनके चरोंके द्वारा इन्हें समाचार दिया गया था कि 'ललितपुरके अधिपति महाराज देवसेन के पास सर्वोत्तम हाथी है ॥ ७ ॥' ललितपुर का सुन्दर हाथी वह हाथी ऐसा हृष्ट पुष्ट तथा सुन्दर था कि उसे देखते ही आकर्षण हो जाता था, उसके गण्डस्थल से सदा ही मदजल बहता था जिसके प्रवाहसे उसके दोनों कपाल स्निग्ध और आर्द्र रहते थे, उसकी शक्तिका अनुमान करना हो कठिन था, उसका रंगरूप बरसते हुए मेघ के समान था, इतना अधिक दृढ़ और विशाल था कि वह चलता फिरता पर्यंत ही प्रतीत होता था ॥ ८ ॥ For Private Personal Use Only षोडशः सर्गः [ २८४ ] Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् क्रियाविधिक्षेत्रगुणैरुपेतः । भद्रान्वयो भद्रमना विनीतः मधुप्रभाख्यः सुविभक्त गात्रः पूर्व प्रदेशोन्नतचारुकुम्भः ॥ ९ ॥ तमिन्द्रसेनो वरवारणेन्द्र बज्जिघृक्षुर्धमानतः । लेखेन साम्ना रहितेन तेन संप्रेषयामास स दूतवर्यम् ॥ १० ॥ ततो हि दूतः पथि काननानि नदीगिरिप्रस्रवणान्तराणि । देशान्वजन्प्रामवरांश्च पश्यन् स देवसेनस्य विवेश देशम् ॥ ११ ॥ क्रमात्पुरं तल्ललिताभिधानं प्रपासभोद्यानविशेषरम्यम् । शनैः समासाद्य स दूतमुख्यो ददर्श भूपं विधिनोपसृत्य ॥ १२ ॥ ततस्तु राजा प्रतिमुच्य लेखं लेखोपचारेण च वाचयित्वा । विज्ञाय लेखार्थमपेतसामं' चिक्षेप लेखं कुपितो धरण्याम् ॥ १३ ॥ वह हाथियोंकी भद्र नामक जातिमें उत्पन्न हुआ था, हृदयसे शान्त था, भली-भाँति शिक्षित किया गया था, कार्य करना, विधिको समझना, क्षेत्रको पहिचानना आदि गुणों का भंडार था उसके शरीरका अनुपात तथा अंगों का विभाग आदर्श स्वरूप था, तथा उसके सुन्दर सुडौल गण्डस्थलोंका आँगेका भाग ऊँचा था ॥ ९ ॥ इस मधुप्रभ नामके आदर्श हाथीको मथुराका राजा इन्द्रसेन प्रेमपूर्वक न मांगकर बलपूर्वक ललितपुरके अधिपतिसे छीन लेना चाहता था । वह अपनी प्रभुता और कोशके अभिभानमें इतना चूर था कि उसने जिस पत्रको लिखकर उक्त हाथीकी चाह प्रकट की थी उसमें सामनीतिका नाम ही न था । अपने बहुमान्य दूतको इस प्रकारके पत्रके साथ उसने भेजा था ॥ १० ॥ वह दूत भी मार्गमें भाँति-भाँति के वनोंको देखता हुआ, उन्नत पर्वत, गम्भीर नदी तथा पर्वतोंसे बहते हुए मनोहर झरनोंको लांघता हुआ, अनेक देशों में प्रवास करता हुआ तथा उत्तम ग्रामोंको देखता हुआ क्रमशः महाराज देवसेनके राष्ट्रकी सीमामें जा पहुँचा था ॥ ११ ॥ दूतका आना इसके उपरान्त धीरे-धीरे वह उस राजधानी के पास जा पहुँचा था जिसका ललितपुर नाम सार्थक ही था क्योंकि वह उद्यानों, पियाउओं, अतिथिशालाओं, सभा आदिके द्वारा अत्यन्त मनमोहक थी । मथुराधिपति के दूतने धीरेसे नगर में प्रवेश करके राजसभाके उपयुक्त शिष्टाचारपूर्वक महाराज देवसेनके दर्शन किये थे । १२ ॥ अभिमानको ठेस महाराज देवसेनने भी दूतके हाथसे लेखको लेकर खोला था तथा बाह्य शिष्टाचारके अनुसार उसको पढ़ा भी था । १. कसात्वं । For Private Personal Use Only षोडशः सर्ग: [ २८५ ] Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराक चरितम् स ताम्रनेत्रः स्फुरिताधरोष्ठः कोपादविज्ञाय परात्मशक्ती । निर्भर्त्स्य दूतं परुषैर्वचोभिर्वामेन पादेन ममर्द लेखम् ॥ १४ ॥ अपेत सामानि वचांसि राजा जगाद दूतं पुरतः स्थितं तत् । उक्तेन किंवा बहुना शृणु त्वं युद्धादृते तस्य न शान्तिरस्ति ॥ १५ ॥ समस्त सामन्तधनानि यानि विक्रम्य जग्राह पुरा बलेन । तान्येव जीर्यन्त्वलमन्यवित्तैः श्रमव्ययाक्षेमकरैरनथैः ॥ १६ ॥ भो दूत आस्तां नृपतिस्त्वदीयो निजेन राज्येन हि तुष्टिमेतु । स्थाने न चेत्स्थास्यति सर्वथान्यं संस्थापयिष्याम्यहमेत्य तत्र ॥ १७ ॥ पढ़कर उसने देखा कि पत्रमें 'साम' का नाम ही न था और उद्धततासे भरा हुआ था। फलतः उसका क्रोध भभक उठा था, और लेखको उसने भूमिपर फेंक दिया था ।। १३ ।। क्रोधके कारण महाराज देवसेनके नेत्र लाल हो गये थे, आवेशके वेगसे ओठ काँप रहे थे । क्रोधने विवेकको ढक लिया था फलतः उन्हें अपनी और शत्रुकी शक्तिका ध्यान ही न रहा था उन्होंने दूतको कठोर शब्द ही न कहे थे अपितु भर्त्सना भी की थी, इतना ही नहीं मथुराधिपके पत्रको उसके दूतके सामने ही पैरसे मसल दिया था ।। १४ ।। इतनेसे भी उनका क्रोध शान्त न हुआ था, सामने विवश खड़े दूतसे उन्होंने जो वचन कहे थे उनमें साम ( शान्ति ) की छाया तक न थी । उन्होंने कहा था 'बहुत कहने से क्या लाभ ?' ।। १५ ।। मथुराधिपकी भर्त्सना तुम सुनो, हे दूत युद्ध के बिना इस अपमानकी शान्ति हो ही नहीं सकती है । तुम्हारे राजाने इसके पहिले आक्रमण करके अपने पराक्रमके बलपर सब सामन्त राजाओंकी जो विपुल सम्पत्ति छीन ली है उसे ही वह पचानेका प्रयत्न करे । उसके सिवा अब दूसरोंको और अधिक सम्पत्ति या वैभवको अपहरण करनेका प्रयत्न न करे। कारण; ऐसा करने में उसका विपुल परिश्रम ही व्यर्थं न जायगा अपितु उसके अशुभ तथा अन्य अनर्थोंका होना भी बहुत संभव है ।। १६ ।। त ? तुम्हारे राजाको अब शान्त रहना चाहिये । उसे अपने राज्यके वर्तमान विस्तारसे ही संतोष करना चाहिये । उपयुक्त स्थान या मर्यादा है, उसके भोतर ही यदि वह न रहेगा तो मैं ही वहाँ आकर किसी दूसरे व्यक्तिको उसके सिंहासन पर बैठा दूँगा, इसमें थोड़ा भी सन्देह मत करो ॥ १७ ॥ HERE षोडशः सर्गः [ २८६ ] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम् संस्थाप्यमानोऽपि मयेन्द्रसेनः स्यातुं न चेच्छेत्स्वकुलोचितेन । प्राग्यद्गृहीतं च धनं परेषां तद्वा' अहिष्यामि दुरात्मनोऽहम् ॥ १८॥ अथ त्वरा वास्ति हि पौरुषं वा आगम्यतां सर्वबलेन सद्यः । य आवयोर्जेष्यति युद्धशौण्डो भवन्तु हस्त्यश्वपुराणि तस्मै ॥ १९॥ इत्येवमाघोष्य सभासमक्षं संतज्यं रोषादपभीस्तदा म् । विरोधबुद्धया न ददौ स्वलेखं कृत्वार्धमुण्डं विससर्ज दूतम् ॥२०॥ ततो विसृष्टो वसुधेश्वरेण प्रस्तात्मचित्तस्तु कृतार्धमुण्डः।। परिस्पृशन्स्वं स शिरः करेण जगाम तुष्णी ललिताह वपुर्याम् ॥ २१ ॥ षोडशः सर्गः MITRAATETAPAHESAIRATRAPAMPAIRPARIHARATPAD मेरे द्वारा ही यह इन्द्रसेन मथुराके राज्य सिंहासन पर बैठाया गया है । अब यदि वह शक्तिके दर्पमें अपने कुलमें चली आयी परम्पराके अनुकूल आचरण नहीं करता है, तो इसके पहिले उसने बलपूर्वक जितना भी दूसरोंका धन छीन लिया है, उस दुष्ट, कदाचारीकी वह सबकी सब सम्पत्ति मैं दूसरोंके द्वारा लुटवा दूंगा ॥ १८॥ अथवा यदि उसे इतनी जल्दी है कि मेरे आनेकी प्रतीक्षा नहीं कर सकता है, अथवा उसमें यदि कुछ भी पौरुष है तो वह समाचार पाते ही अपनी पूरी सेनाके साथ मुझसे युद्ध करनेके लिए चला आवे। हम दोनोंमेंसे जो अधिक युद्धकुशल होगा तथा जो विजयी होगा, हारे हुएके देश, नगर, हाथी, घोड़ा आदि भी सर्वथा उसीके होंगे ॥ १९ ॥ ललितपुरके राजा उस समय इतने कुपित थे कि भय आदि दूसरे भाव उनके पास भी न फटकते थे, अतएव उन्हें भरी सभाके सामने ही दूतको बुरी तरहसे डाँटकर उक्त घोषणा की थी। उन्होंने मथुराधिपका विरोध करनेका निर्णय कर लिया था इसी कारण उसके पत्रका कोई उतर भो न दिया था तथा दूतका आधा सिर मुड़ा कर उसे वापिस कर दिया था॥२०॥ दूतका अपमान ___ आधा शिर मुड़ जानेके कारणो मथुराधिपके दूतके चित्तमें बड़ा डर बैठ गया था । अतएव महाराज देवसेनने ज्योंही उसे राजसभा छोड़नेकी आज्ञा दी त्योंही अपने अधघुटे सिर पर हाथ फेरता हुआ वहाँसे चल दिया था, तथा अपमानका इतना गहरा धक्का उसे लगा था कि वह चुपचाप बिना कुछ कहे ही ललितपुरसे चल दिया था ॥ २१ ।। मायान्यनामाचELIGITAL [२०] १. क तद्वामयिष्ये खलु मान्वरिष्ठाः। २. क कृतार्थदण्डं । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अथो ह्य ुपस्थानगतः स्वदूतं प्रत्यागतं त्वप्रतिलेखमात्रम् । दृष्ट्वा कृताङ्कं पुरतो नृपाणां चुक्रोध राजा भृशमिन्द्रसेनः ॥ २२ ॥ प्रोन्नत मानदप्तः परावमानैकरसानभिज्ञः । स्वभावतः मुहुर्मुहुः श्वासविकम्पिताङ्गो जज्वाल वाताहतवह्निकल्पः ॥ २३ ॥ मत्तोऽधिकाः शक्तिबलप्रतापैयें पार्थिवास्तेः सह योध्दुकामः । युद्धाय लेखान्विससर्ज तेभ्यो भयादितास्ते प्रददुर्धनानि ॥ २४ ॥ असौ वराको नयविन्न च सौ परात्मशक्त्यज्ञतया तिमूढः । स मृत्यवे केवलमिद्धर्माग्नि पतङ्गवाञ्छति संप्रवेष्टुम् ॥ २५ ॥ युद्धयागकी सज्जा दूत लौटनेका समाचार पाकर मथुराधिप इन्द्रसेनने उसे भरी राजसभामें अपने कार्यका समाचार देनेके लिए बुलाया था; किन्तु जब उसने देखा कि दूत बिना उत्तरके हो नहीं लौटा है अपितु उसके शरीर पर अपमान की छाप ( अर्धं मुंडन ) भी लगा दी गयी है तो उसके क्षोभका पार न रहा था। राजसभामें विराजमान अनेक राजाओंके समक्ष ही वह देवसेनके ऊपर अत्यन्त कुपित हुआ था ॥ २२ ॥ स्वभावसे हो उसका अभिमान अत्यन्त बढ़ा हुआ था जिसके कारण वह किसीको कुछ समझता ही न था। दूसरेके द्वारा अपमानित होनेपर कैसा अनुभव होता है यह वह स्वप्न में भी न सोच सकता था । अवएव क्रोधके आवेशमें वह बार-बार लम्बी श्वास खींचता था जिससे उनका सारा शरोर काँपता था, तथा प्रत्येक वार क्रोधकी छटा उस पर वैसे ही बढ़ती जाती थी जैसे कि हवा लगने से आगकी ज्वाला लफलफाती हैं ॥ २३ ॥ मथुराधिपकी क्रोधाग्नि जो राजा लोग मंत्र आदि शक्तियों, सैन्य आदि बलों तथा पराक्रममें मुझसे बढ़कर है, मैं उनके साथ भी दारुण युद्ध करने के लिए कटिबद्ध था । अतएव जब मैंने युद्ध का आह्वान करते हुए उन्हें पत्र भेजे तो वे सब भयसे पानी-पानी हो गये थे और बिना मांगे ही उन्होंने अतुल सम्पत्ति मेरे चरणों में अर्पित की थी || २४ ॥ तब फिर इस छुद्र ललितपुराधिपतिकी तो बात ही क्या है ? यह नीति शास्त्रसे सर्वथा कोरा है, उसे अपने बलका भी ठीक ज्ञान नहीं तो वह महामूर्ख दूसरोंके विषय में जानेगा ही क्या ? केवल मर जानेके लिए ही यह जलती ज्वालाके समान उद्धत मेरी सेनामें पतंगको तरह घुस कर प्राण दे देना चाहता है ।। २५ ।। ११. म योद्ध कामाः । HC THC षोडशः सर्गः [ २८८ ] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् विशिष्ट एवाप्रतिमल्लहस्ती ददौ पुनर्मेऽप्रतिमल्लकल्पम् । युद्धाभितृप्तिश्चिरकालतो मे भविष्यतीति प्रजगाद राजा ॥ २६ ॥ मद्वाक्यनीतौ यदि नैव तिष्ठेललोभाच्च ददिभिमानतो वा। निष्कृष्यते श्रीललिताह्वपुर्याः संस्थापयिष्यामि वशस्थमन्यम् ॥ २७ ॥ एकस्य हेतोः करिणो यदासौ तेच्छेत्सुखं जीवितुमुन्नताशः । मत्सैन्यनिर्वासितपौरराष्ट्रो मामेव गन्ता शरणं हताशः ॥ २८ ॥ सर्वक्षितीशेष्वहतप्रताप२ आज्ञा मदीयामवमन्यमानः । सत्यमित्रः सकलत्रपुत्रः सकोशदण्डः क्षयमेष्यतीति ॥ २९ ॥ PTESHPAPremiereSewareneuvesarewee फिर भी अनुपम तथा अद्वितीय हाथी के स्वामी ललितपुरनरेशने मुझको बहुत अद्भुत वस्तु दो है क्योंकि इस संसारमें कोई भी योद्धा ऐसा नहीं है जो मेरी समता करनेका साहस करे। तो भी बहुत लम्बे अरसेके बाद मेरी युद्ध करनेकी अभिलाषा इस स्वयं आगत शत्रुकी कृपासे पूर्ण होगी । इन वाक्योंके द्वारा उसने अपने क्रोधको प्रकट किया था ।। २६ ॥ मैं जो कहूँगा उसोको नोति मानकर यदि पालन करेगा ता चाहे उसको इस उद्दण्डताका कारण लोभ हो, आत्मगौरव हो या घमंड हो, मैं उसे ललितपुरीके सिंहासन परसे चोटो पकड़ कर नोचे खींच लूंगा। तथा किसी दूसरे ऐसे व्यक्तिको । वहाँ स्थापित करूँगा जो मेरे वश में रहना स्वीकार करेगा ॥ २७ ॥ शत्रुपराभवको कल्पनाए यदि यह ललितपुरका अधिपति केवल एक हाथीके कारण अपने सुखमय राज्य तथा महत्त्वाकांक्षाओंसे परिपूर्ण जीवनको भी नहीं चाहता है तो निश्चित समझिये कि मेरी प्रबल प्रतापयुक्त सेना उसे अपनी राजधानीसे ही नहीं अपितु अपने राष्ट्रसे भी खदेड़ कर निकाल देगी । तब उस अभागेको समस्त आशाएं मिट्टोमें मिल जायेंगो और वह मेरे चरणोंमें शरणकी याचना करता हुआ आयेगा ॥ २८ ।। जब कि वह मेरे उस प्रचण्ड शासनको अवहेलना करता है जिसका प्रभाव संसारके समस्त राजाओंमें अक्षुण्ण है तब । यह निश्चित है कि वह अपनी प्राण प्रियाओं तथा पुत्रों, विपत्ति में सहायक मित्रों वा आज्ञाकारी सेवकों तथा असीमकोश वा रणकुशल सेनाके साथ सदाके लिये नष्ट हो जायेगा ।। २९ ।। पलान्चान्नानागारमान्याना [२८९] १. क दधौ। २. [ प्रतामामाज्ञां]। _Jain Education intemationa३७ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग षोडशः सर्गः परितम् अनर्थकः किं बहुभिः प्रलाः फले ध्रुवं कार्यमुपैति व्यतक्म् ि । इत्येवमाविष्कृतसत्प्रतिज्ञो बहिस्तदेवाशु पुराज्जगाम ॥ ३०॥ महेन्द्रसेनप्रवरा महीन्द्रा उपेन्द्रसेनप्रमुखाश्च पुत्राः । पदातिहस्त्यश्वरथैः समेता नरेन्द्रयातानुपथं प्रयाताः ॥ ३१ ॥ अक्षाश्च वङ्गा मगधाः कलिङ्गाः सुह्माश्च पुण्ड्राः कुरवोऽश्मकाश्च । आभीरकावन्तिककोशलाश्च मत्स्याश्च सौराष्ट्रकविन्ध्यपालाः ।। ३२॥ महेन्द्रसौवीरकसैन्धवाश्च काश्मीरकुन्ताश्चरकासिताह्वाः। ओद्राश्च वैदर्भवैदिशाश्च पञ्चालकाद्याः पतयः पृथिव्याम् ॥ ३३ ॥ PHIPASHeamenamesearcANIRHeareARATHIRDanepreneseenet बहुत अधिक निरर्थक बकझक करनेसे क्या लाभ है ? मेरे द्वारा निश्चित किया गया कर्त्तव्य तो तब ही लोगोंकी दृष्टिमें आता है जबकि वे उसका फल सामने देखते हैं।' इस प्रकार अपनी अटल प्रतिज्ञाको राजसभामें प्रकट करके उस उद्दण्ड । मथुराके राजाने, विना विलम्ब किये उसी समय अपनी राजधानीसे प्रस्थान कर दिया था ॥ ३०॥ RASच्याच्यPRAasanasRLESS युद्धयात्रा उसके प्रस्थान करते ही उसके पब ही राजपुत्र जिनका प्रधान उपेन्द्रसेन था, तथा सब हो आज्ञाकारी राजा लोग जो कि अपना नेता महाराज प्रवरसेनको मानते थे, इन सबने भो अपनो हाथी, घोड़ा, रथ तथा पैदल सेनाको साथ लेकर उसी मार्गसे बढ़ना प्रारम्भ किया था जिसपर आगे-आगे इन्द्रसेन चला जा रहा था ।। ३१ ।। इस महासेनामें अंग (बंगालका भाग) वेश, बंग, (बंगाल) मगध, ( बिहार ) कलिङ्ग, ( उड़ीसा तथा मद्रास प्रेसीडेन्सीका गंजम जिला आदि भाग ) सून ( दक्षि०-पश्चिम बंगाल । पूण्ड (संथाल-प०, वीर भूमि, ) कूरू, अश्मक ( राजधानी मस्सग थी ) अभीरक, अवन्ति, ( उज्जन भोपाल आदि मालवा) कोशल ( उत्तर अवध दक्षिण = मध्यप्रान्तका अ-महाराष्ट्री भाग ) मत्स्य, (भरतपुर आदि ) सौराष्ट्र ( गुजरातका भाग) विन्ध्यपाल, (विन्ध्य प्रदेशका राजा) ॥ ३२ ।। महेन्द्र (महेन्द्र पर्वतका राजा) सौवोर, ( गुजरातका भाग ) सैन्धव ( सिन्ध) काशमीर, कुन्त [ ल ], ( कर्नाटक) चरक, असित ओद्र (ड्र-बंगाल-उड़ीसा) विदर्भ ( बरार) विदिशा ( भेलसा) पञ्चाल (पंजाबका भाग) आदि देशोक राजा लोग ॥ ३३ ॥ [२९०] १. क आभीरकावन्तिन। २. म चौदाश्च, [ औद्राश्च] Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् सर्गः समेत्य सर्वे स्वबलैरुदारैरनेकशस्त्रास्त्रविभूतिमद्भिः। उत्थापितच्छत्रसुकेतुचिह्ना निश्चक्रमुभूपतयः प्रयोद्धम् ॥ ३४ ॥ प्रदानमानकरसाप्तवीर्याश्चिकीर्षवः स्वामिहितानि भृत्याः । इहात्मशौयं प्रतिदर्शयामो रणे नृपाणामिति केचिदाहुः ॥ ३५॥ अस्वामिकार्याणि पुनर्बहनि दिनान्यतीतानि निरर्थकानि । अद्यात्मशक्ति नपतेः समक्ष प्रकाशयिष्याम इति न्यवोचन् ॥ ३६॥ पश्यामि तावत्समराजिरेऽस्मिन् नणां पुनः सारमसारतां च । स्याद्ध मकेतौ कनकस्य शुद्धिर्व्यक्ति प्रयातीति निराहुरन्ये ॥ ३७ ॥ नृपेन्द्रसेनो बृहदुग्रसेनः कृतात्मशक्तिबहुकोशदेशः। अवार्यवीर्यो दृढबद्धवैरः सुनोतिनीतार्थविशुद्धबुद्धिः ॥ ३८ ॥ अपनी अपनी विशाल सेनाके साथ सम्मिलित हुए थे इनमेंसे प्रत्येक की सेना नाना प्रकारके विशेष शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित थी। सब अपने अपने चिन्हयुक्त देशकी ध्वजाएँ फहराये चले जा रहे थे । प्रत्येक देशके राजाका छत्र भी अलग-अलग रंगरूपका था। इनमें एक भी ऐसा राजा न था जो घोर युद्ध करनेके लिए लालायित न रहा हो ।। ३५ ।। युद्ध मद . इन सेनाओंमें जो वीर बढ़े चले जा रहे थे उनके हृदय भेटों, स्वागत, सन्मानों, पदवृद्धि आदिके द्वारा इतने बढ़ गये। थे कि बे सब कुछ की बाजी लगाकर अपने प्रभुका हित करना चाहते थे। राजाओंमेंसे कोई-कोई राजा कहते कि इस युद्ध में हम लोग अपनी अपनी शर-वीरताका वास्तविक प्रदर्शन करेंगे ।। ३५ ।। प्रभुका कोई भी काम न करते हुए एक नहीं अनेक अगणित दिन व्यर्थ ही बीत गये हैं। बहुत समय बाद यह अवसर मिला है। महाराज इन्द्रसेनके सामने ही अपने सच्चे बल, धैर्य और रणकौशलका प्रदर्शन करूँगा' इस तरह उत्साह भरे वचन कहते थे ।। ३६ ।। इस महायुद्ध की रणस्थली के प्रांगणमें मैं देखूगा कि मनुष्य में कितनी शक्ति हो सकती है अथवा मनुष्य शरीर और और जीवन कितने सारहीन हैं । इसी बीच में कोई दूसरे बोल पड़ते थे-अरे भाई आगमें (धुंआ ही जिसकी ध्वजा है ) तपाये जाने पर ही सोना शुद्ध होता है तथा उसके चोखेपनको परखनेका भी यही उपाय है ।। ३७ ।। आत्माभिमान महाराज इन्द्रसेनकी सेना विशाल होनेके साथ-साथ अति साहसी तथा उग्र भी है। इनका आत्मबल भी इतना पुष्ट । है कि दारुण विप्लवके समय भी थोड़ा सी कमी नहीं आती हैं । मथुरा राज्यके विशाल विस्तारको कौन नहीं जानता है तथा । eyewwweseHearresteemergeswesteresawesomewrestless [२९१ Jain Education international For Privale & Personal use only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः बराङ्ग चरितम् सर्गः एतैर्गुणैन्यूनतमस्तु राजा मानकसारो ललितेश्वरोऽसौ । तस्यास्य चेति प्रविचिन्त्यमानं तदन्तरं स्यान्मशकेभयोर्यत् ।। ३९ ॥ अहो तपस्वी ललितेश्वरोऽसौ नोऽपीक्षते स्वं तु बलाबलं यत् । महार्णवानन्तबलेन राज्ञा युयुत्सुरजस्त्विति केचिदूचुः ॥ ४०॥ अथैकमत्तद्विरदस्य हेतोरपोप्स'ति श्रीपुरकोशदेशान् । अकौशलं तस्य हि मन्त्रिणां च निरीक्ष्यतामित्यरे निराहः ॥४१॥ न मन्त्रिणां वा वचनं शुणोति ते वा हितं नास्य वदन्त्युपेत्य । विनाशकालः समुपस्थितो वा बलीयसा यत्कुरुते विरोधम् ॥ ४२ ॥ कोशका अनुमान करना हो निरा पागलपन है । आजतक मथुराधिपके पराक्रमको किसोने नीचा नहीं दिखाया है, वह जिससे वैर बाँध लेता है उसे कभी नहीं भूलता है । प्रत्येक विषयका विचार तथा विधान सर्वांगसुन्दर नोतिके अनुसार करता है तथा उसकी 1 बुद्धि इतनी प्रखर है कि किसी विषयको समझने में कहीं भी धोखा नहीं खाती है ।। ३८ ॥ शत्रुनिन्दा दूसरी तरफ ललितपुराधिपति है,उसमें इन गुणोंमेंसे एक भी गुण नहीं है । यदि उसकी कोई विशेषता है तो बस यही कि वह आत्म-गौरवको ही सब कुछ मानता है। जब हम मथुराधिप तथा ललितपुरेश इन दोनों स्वामियों की योग्यताओंके अन्तर को सोचते हैं, तो वही अन्तर दिखायी देता है जो एक मच्छर और मदोन्मत्त हाथीमें होता है ।। ३९ ।। दुसरे कुछ लोगोंका मत था कि 'यह विचारा ललितपुरेश बड़ा ही अज्ञ है जो वह अपनी सैन्य, कोश आदि शक्तियों तथा अन्य दुर्बलताओं और छिद्रोंको भी नहीं देखता है। वह निरा मुढ़ ही है जो महासमुद्रके समान अति विशाल तथा अनन्त सेनाके संचालक मथुराके राजाके साथ युद्ध करनेके लिए उद्यत है ।। ४० ।। अन्य लोगोंका मत था कि देखो तो केवल एक शुभलक्षणयुक्त मदोन्मत्त हाथीके लिये अपनी प्रभुता, वैभव, राजधानी । तथा सुसम्पन्न राष्ट्रको खोये देता है । फलतः केवल वही ( ललितपुरेश ) नीति-ज्ञानविहीन नहीं है अपितु उसके मंत्री राजनीति A के व्यवहारमें अत्यन्त अकुदाल हैं ।। ४१ ॥ संभव है कि उसके मंत्री राजनीतिमें पारंगत हों किन्तु वही उनकी सम्मतिको न मानता हो, अथवा यही समझिये कि उसके विनाशको मूहुर्त आ पहुँची है इसीलिये वह इतने विपुल शक्तिशालीसे विरोध कर रहा है ।। ४२ ।। बाबासनाबरनामामाराम (२९२१ १. [ अपोहति । Jain Education international Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dura बराङ्ग षोडशः चरितम् महाबलस्यास्य पुरः कुतः स्यात्स्थातु हि शक्तिललितेश्वरस्य । सहैव नागेन विमुच्य देशं पलायतेऽसाविति केचिदूचुः ॥ ४३ ॥ सुनीतिमार्गेण समाचरन्तो जयन्ति शत्रुघ्नहतोऽपि हीनाः । अनीतिमन्तो बलिनोऽपि गम्या नैकान्तमस्तीत्यपरे निराहः ॥ ४४ ।। यः शक्तिमांस्तं पुनरप्रमत्तस्तथाप्रमत्तं न च दीर्घसूत्रः । तो नीतिमांस्तं खलु दैवयुक्तो जेष्यत्यरीनित्यपरे समूचुः ॥ ४५ ॥ एवं ब्रुवाणास्तु परस्परस्य जेतुं प्रविष्टाः परदेशमाशु । प्रविष्टमात्रेण पुरं विमुच्य ननाश देशं सकलं क्षणेन ॥ ४६ ॥ सर्गः HHHHerewHEApAH क्षुब्ध समुद्रके समान विशाल तथा उग्र सेनाके साथ आक्रकण करते हुए इस मथुराधिपके समक्ष जमकर आक्रमण रोकनेकी भी सामर्थ्य विचारे ललितपुरेशमें कहाँसे आवेगी ? परिणाम यही होना है कि वह मदोन्मत्त हाथोको लेकर अपना देश # छोड़ देगा और कहीं भी भाग जावेगा । ऐसा कुछ अन्य विचारक कहते थे ।। ४३ ।। 'जो राजा कोश, दण्ड, मन्त्र आदि शक्तियोंमें अपने शत्रुसे हीन होते हुए भी नीतिशास्त्रके अनुसार प्रत्येक विषयपर गम्भीर मंत्रणा करते हैं और तब उसे कार्यान्वित करते हैं, वे बुद्धिमान केवल नीतिबलसे ही अपने शत्रुको जीत लेते हैं । तथा । नीतिमार्गके प्रतिकूल आचरण करनेवाले महाबली भो अपने साधारण शत्रुओंके द्वारा जीते जाते हैं फलतः किसी एक बात को ही निश्चित नहीं कहा जा सकता है। ऐसा नीतिशास्त्रके पंडितोंका मत था ।। ४४ ।। अन्य लोगोंका दृढ़ मत था कि 'जो सर्वशक्तिसम्पन्न है उसे भी वह जीत सकता है, जो एक क्षणके लिए भी प्रमाद नहीं करता है ऐसे अप्रमादी पर भी उसकी विजय होती है, जो किसी कार्य में लग जानेपर एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देता है। शीघ्रकारीको भी नीतिमानके आगे झुक जाना पड़ता है और जिसके पक्षमें दैव होता है उसके विरुद्ध नीतिमान भी शिर पीटता , रह जाता है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार आपसमें वार्तालाप करते हए इन्द्रसेनके पक्षके राजा लोगोंने विजय यात्राके मार्गको कब समाप्त कर दिया था इसका उन्हें पता भी न लगा था। उन्होंने देखा कि वे शत्रु के देशमें जा पहुँचे थे शत्रु-सेनाने ज्योंही ललितपुर राज्यमें प्रवेश किया त्योंही उसने जो ग्राम आदि सामने पड़ा उसीको नष्ट भ्रष्ट कर डाला था इस प्रकार केवल राजधानी हो शत्रुके प्रहारसे अक्षत रह गयी थी।। ४६ ।। रामसन्यासमानामनामनाममायरामान्य AHOSHIARPAPE [२९३ १. [शत्रून्न हि तेऽपि ] । Jain Education international Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग षोडशः सर्गः ततः प्रजास्ताः परचक्रभीता हुतावशिष्टं धनधान्यसारम् । आदाय सर्व सकलत्रपुत्राः पुरं प्रविष्टा ललिताख्यमुख्यम् ॥ ४७ ॥ सा चापि सेना महती क्षितिशां पुरी महासारवतीं विशालम् । सगोपुराट्टालकतोरणां तां निरुध्य तस्थौ सतृणाम्बुकाष्ठाम् ॥ ४५ ॥ समीक्ष्य सेनां मधुराधिपस्य महद्धियुक्तां ललितेश्वरोऽसौ । स्वान्मन्त्रिणो मन्त्रगुणप्रवीणानाय तैर्मन्त्रविधि चकार ॥४९॥ एषोऽपि शत्रुः प्रबलः प्रधृष्यः पुरं समावेष्ट्य हि संनिविष्टः । वयं च होना बलमित्रकोशेढुंगं च सद्दुर्गगुणैरपेतम् ॥५०॥ अस्मे न मे दन्तिवरस्य दित्सा परेण साकं न च यो कामः। पुरं त्यजामिति न मेऽभिलाषः परीक्ष्य तद्योग्यमिह प्रवाच्यम् ॥ ५१॥ HTe-we-wesomeSewere-e- SeriesHORTHeawee-we-se-wes यज्याच्यामाराममायमराजचम यादवों की वर्वरता शत्रुओंके सर्वग्रासी आक्रमणसे राज्यकी प्रजामें उनकी निर्दयता का आतंक बैठ गया था । लूट खसोटसे जिसके पास जो कुछ बच गया था उस धन, धान्य तथा अन्य सार पदार्थोंको लेकर सारे राज्यकी प्रजाने अपनी स्त्री बच्चोंके साथ प्रधान नगरी (ललितपुर) में शरण ली थी।। ४७।। किन्तु मधुराधिप इन्द्रसेनके सहायक राजाओंकी विशाल वाहिनीने उस विशाल राजधानी को भी चारों तरफसे घेर लिया था क्योंकि वह राजधानी अपरिमित वैभवसे परिपूर्ण थी। उसके प्रधान द्वार, ऊँची ऊँची अटालिकाएँ तथा तोरण आदिकी शोभा अनुपम थी। शत्रु सेनाने ऐसा घेरा डाला था कि नगरीमें घास-फूस ईंधन-पानी आदिका पहुँचना भी दुर्लभ हो गया था ।। ४८॥ उस समय महान श्री, सम्पत्ति तथा तेज विभूषित मथुराधिपकी विशाल सेना ललितपुरके द्वार खटखटा रही थी। उसे देखते ही महाराज देवसेनने अपने प्रधान मंत्रियोंको बुलाया था, वे सबके सब समय तथा नीतिके अनुकूल सम्मति देनेमें दक्ष थे। अतएव महाराजने उनके साथ गम्भीर मंत्रणाको प्रारम्भ करते हुए कहा था ।। ४९ ।। संकटकालीन मंत्रणा 'इसमें संदेह नहीं कि हमारा शत्रु प्रबल है। उसे बड़ी कठिनतासे पीछे ढकेला जा सकता है, विशेषकर तब, जबकि उसने राजधानीके चारों ओर दृढ़ घेरा डाल दिया है। हमारा निजी दण्डबल ही उससे हीन है। हमारे सहायक पक्षके मित्र राजा, कोश तथा दुर्गोंकी संख्या भी उसके सामने नगण्य ही है। हमारे प्रधान किले में भी अभेद्य उत्तम किलेके गुण नहीं हैं ॥५०॥ तो भी मैं इसे अपने हस्तिरनको नहीं देना चाहता हूँ। तब आप कहेंगे युद्ध करो, सो मैं इस शत्रुके साथ लड़ना भी [२४] Jain Education international Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् इत्येवमुक्ता वसुधाधिपेन सदबुद्धयः स्वामिनि नित्यभक्ताः । तत्कालयोग्यं स्वमतिप्रणीतं यथानुपूर्व्या विदधचतम् ॥ ५२ ॥ नैवेह कार्यो बलवद्विरोषो दोषः समस्तुल्यबलविरोधे । न्यूने विदित्वा खलु देशकालौ क्रिपाप्रसिद्धि लभते नरेन्द्रः ॥ ५३ ॥ सामना प्रदानेन च कार्यसिद्धि बाञ्छन्ति तज्जा निरूपद्रवत्वात् । क्षयव्ययक्लेश सहस्रमूलौ मृत्योः पदं भूमिप भेददण्डौ ॥ ५४ ॥ मानोऽन्तरं सर्वनरेश्वराणां मानस्तु कल्याणफलप्रदायी । अयं प्रकृत्या भृशमात्ममानी तस्मात्तु मान्यो भवतीन्द्रसेनः ॥ ५५ ॥ नहीं चाहता हूँ । ऐसी अवस्थामें पलायन ही गति हो सकती है किन्तु मैं नगरको छोड़नेको कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ अतएव आप सब बातोंका सूक्ष्म अन्विक्षीण करके जो सर्वथा उपयुक्त उस मार्गका बतावें ॥ ५१ ॥ वे सब ही मंत्री महाराज देवसेनके परमभक्त थे तथा बुद्धिके धनी थे, अतएव जब महाराजने अपनी उक्त सूझको उनके सामने उपस्थित किया तो उन लोगोंने उस समय उन परिस्थितियोंमें जो कुछ सबसे उत्तम हो सकता था, उसे अपनी बुद्धि के अनुसार सोचकर अपने पदके क्रमसे अपनी-अपनी सम्मति प्रकट की थी ॥ ५२ ॥ प्रथम मंत्री की सम्मति राजनीतिका यह मूलमंत्र ही है कि अपनेसे प्रबल शत्रुके साथ किसी भी प्रकार हो, वैर नहीं करे। किन्तु उसका यह तात्पर्य नहीं कि समान शक्तिशालीसे युद्ध करना सरल है क्योंकि उसमें अनेक ऐसे दोष हो सकते हैं जो विजयमें बाधा दें। अपने से हीन शत्रु पर भी यदि नरेन्द्र देश और कालका विचार करके आक्रमण करता है तो निश्चित है कि उसका प्रयत्न पूर्ण सफल होता है ।। ५३ ।। नीतिशास्त्र के पंडितों की तो यह स्पष्ट सम्मति है कि साम, दान आदि छह उपायोंमेंसे सामका प्रयोग करके ही अपने कार्यको सिद्ध कर लेना चाहिए कारण, इसमें किसी प्रकारके उपद्रव और हानिको आशंका नहीं है । हे भूमिपाल !, छह उपायोंमें से भेद तथा दण्ड यह दोनों - असंख्य प्राणों आदिका नाश, अपरिमित धनका व्यय तथा हजारों प्रकारके क्लेशों और अशुभोंकी प्रधान जड़ ही नहीं है अपितु मौतकी खान ही हैं ॥ ५४ ॥ आप्यायन ही उपाय है सब राजाओं में यदि कोई पारस्परिक भेद है तो वह मानका ही तो है। जितने भी शुभ तथा उन्नतिके अवसर हैं वे सब आदर-मान बढ़नेके साथ ही प्राप्त होते हैं आपके द्वार पर पड़ा हुआ आपका शत्रु आप जानते हो हैं स्वभावसे अपने सन्मान का बड़ा भारी लोलुप है, अतएव हमें इन्द्रसेनका स्वागत सत्कार करके बचना चाहिये ॥ ५५ ॥ For Private Personal Use Only षोडशः सर्गः [ २९५] Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् षोडशः स्यान्मानहानिर्यदि सन्धिभागे मा भूत्स दोषः स्मृतिपदिष्टम् । स्वकार्यसिद्ध्यै प्रददौ महेन्द्रो मानं विहायैहिकलोहिताङ्कम् ॥ ५६ ॥ धनेन देशेन पुरेण साम्ना रत्नेन वा स्देन गजेन वापि । स येन येनेच्छति तेन तेन संदेय' एवेति जगौ सुनोतिः ॥ ५७॥ तद्यक्तिमत्स्यात्खलु सार्वभौमे नरेश्वरे सर्वगुणैरुपेते। अयं गुणैर्मध्यम इन्द्रसेनः शक्यो विजेतुं परमं श्रयेण ॥ ५॥ यद्देयमस्मै वसुधाधिपाय तद्देव कस्मैचिदपि प्रदाय । अस्योपरिष्टाद्वयमानयामो बलान्वितं तं यदि रोचते ते ॥ ५९॥ सर्यः ILIARREARREARTIमानामा wewewewSWAWASAWA यदि आप सोचते हों कि सन्धिका उपाय ग्रहण करनेसे जहाँ शत्रुका मान बढ़ेगा वहीं आपका आत्मगौरव धूलमें मिल जायेगा? सो यह दोष ही नहीं हो सकता है क्योंकि स्मृतियोंमें कहा है कि दैवी सम्पत्तिके एक मात्र प्रभु महेन्द्रने भी अपने इष्ट कार्यकी सिद्धि के लिये उसने अपने स्वाभिमानको भी छोड़कर इस संसारके राज्यको उपेन्द्र (नारायण) को दे दिया था जिसका लक्षण (चिह्व) रक्त ( कमल ) ही था । ५६ ॥ श्रेष्ठ नीति इस परिस्थितिमें यही कहती है कि धन देकर, राज्यका भाग देकर, नगर समर्पित करके, अलभ्य रत्नोंकी भेंट भेजकर अथवा किसी भी अन्य उपायके द्वारा, और तो क्या यदि इस युद्ध के मूल कारण हाथी को ही लेकर, अथवा जो कुछ वह चाहे वही सब देकर इस समय उससे प्राण बचाना चाहिये ।। ५७ ।। साहाय्य ही उपाय उक्त प्रकारसे प्रणत हो जाना उचित होगा यदि आक्रमण करनेवाले राजामें किसी सार्वभौम चक्रवर्तीके सब ही गुण होते । किन्तु महाराज जानते ही हैं कि इस इन्द्रसेनकी जो योग्यताएँ हैं वे बड़ो खींचातानीके बाद उसे मध्यकोटिका राजा बना सकती हैं । अतएव इसे किसी उत्तमकोटिके राजाकी सहायता लेकर जीतना बिल्कुल सरल है ॥ ५८॥ हे प्रभो ? आप इसे जो कुछ भी देकर संधि मोल लेना चाहते हैं, उतना ही किसी अन्य राजाको भेंट करके हम उसे (सम्पत्ति देकर सपक्ष बनाये गये राजाको) इसके ऊपर आक्रमण करने को कह सकते हैं, क्योंकि वह इससे भी अधिक बलशाली होगा, यह सब हो सकता है ।। ५९ ।। AMA [२९. PASWA K । १. [ संधेय ]। २. [ परमश्रमेण ] । Jain Education international Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः चरितम् उत्साहमन्त्रप्रभुशक्तियोगाज्यायानयोध्याधिपतिः क्षितीशाम । श्रीवीरसेनोऽस्ति तमाश्रयाम इत्याचचक्षे विनयादिद्वतीयः ॥६॥ किं तेन राजा बलवत्तमेन स्वकार्यसंसिद्धिपरायणेन । इदं पुनर्यक्तिमदर्थमन्यद्बवीमि वाक्यं यदि रोचते ते ॥६१॥ सन्तीह पुर्या सुजना समद्धा अगाधतोयाश्च तडागवाप्यः।। शूरा मनुष्याश्च परैरहार्यास्त्वं चापि शक्तित्रयमभ्युपेतः ॥ ६२॥ मुख्येषु भेदं प्रतिदर्शयन्त'स्तद्धीवचां सारधनं नियोज्य ।। पाष्र्णी तथोत्थाप्य हि तस्य देशे विगृह्यते नाशनमेव युक्तम् ॥ ६३ ॥ सर्गः यदि आपको अनुमति हो तो हम अयोध्याके महाराज श्री वीरसेनकी शरणमें जावें, क्योंकि वर्तमानके सब राजाओंमें जहाँतक मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति तथा उत्साहशक्ति इन तीनोंका सम्बन्ध है, वे सबसे बढ़कर हैं।' दूसरे मंत्रीने बड़ी विनम्रताके साथ अपनी यही सम्मति दो थी ।। ६० ।। प्रतिरोध तथा भेद तीसरे मंत्रीने कहा था 'हे महाराज उत्तरकोशलके अधिपति श्रीवीरसेन; इसमें सन्देहका लेश भी नहीं है कि सबसे अधिक बलशाली हैं। किन्तु वे सर्वदा अपने स्वार्थ की ही सिद्धिमें लगे रहते हैं अतएव उनसे हमारा क्या लाभ हो सकता है ? । यदि आपकी रुचि हो तो मैं एक दूसरा हो प्रस्ताव उपस्थित करता हूँ जो कि अधिक युक्तिसंगत तथा कल्याणकारी है ॥ ६१ ॥ आपकी इस राजधानीमें एक दो नहीं अनेक सज्जन परम सम्पत्तिशाली हैं ( जिनका धनकोश को अक्षय कर देगा) । कितने ही तालाब, बाबड़ियाँ आदि इतने गहरे हैं कि उनकी थाह पाना ही असंभव है ( अतएव जनताको जल आदिका कष्ट नहीं हो सकता ) तथा असंख्य ऐसे वीर पड़े हुए हैं जिन्हें शत्रु प्राण खपाकर भी नहीं पछाड़ सकता है। सबसे ऊपर आप स्वयं हैं। ही क्योंकि आप तीनों शक्तियों से सम्पन्न हैं ।। ६२ ॥ शत्रुके प्रधान सहायकों, सामन्तों तथा सेन नायकोंमें आपसी मतभेदका अपवाद करनेवाले तथा उसकी वास्तविकता# से पूर्ण परिचित चरोंको ( अथवा खब धन देकर उसके ही सलाहकारोंको) अपना कर्तव्य निभानेके लिए नियुक्त कर दिया जाय । तथा उसके अपने राज्यमें किसी समर्थ राजाके द्वारा पीछेसे आक्रमण करवा कर उसे समूल नष्ट कर देना ही उचित [२९७] १. [°स्तद्धीमतां] । २. म सारवघं । २८ Jain Education international Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः चरितम् अभ्यर्ण एषोऽपि च मेऽप्यकालः स पाठिणरप्यस्य तु पार्वतीयः। अतो न सन्ध्याश्रयतां प्रयामः स्थाप्याम' एवेत्यवदत्स मन्त्री ॥ ६४॥ साधूक्तमेभिर्नुपमन्त्रिमुख्यैः सन्ध्याश्रयस्थानगुणैः प्रसिद्धिः। एषां प्रयोगस्य गतस्तु कालो ह्यकालतस्तेऽपि भवन्त्यनाः ॥ ६५ ॥ यह तसंप्रेषणकाल एव सामप्रदानाद्युचितानुपायान् । अकूर्म चेद्ध मिप सा सुनीतिः कालात्ययः संप्रति दोष ऐषः ॥६६॥ एभिस्त्रिभिर्मत्रिवरैर्महोश कार्य यदुक्तं तदपोहनीयम् । न मे प्रियं युक्तिविजितत्वादित्याचचक्षे विजयश्चतर्थः ॥ ६७॥ स इसकी सेना तथा राष्ट्र के पीछे वह पहाड़ी राज्य पड़ता है (जो आसानोसे इसके विरुद्ध उभारा जा सकता है)। । इसके सिवा वर्षा ऋतु भी अति निकट आ पहुंची है फलतः इसे लौटकर आत्मरक्षा करना दुसाध्य हो जावेगा । अतएव मेरा दृढ़ । मत है कि सन्धि मार्गका अनुसरण करना सर्वथा नोतिके प्रतिकूल है। अपितु कुछ समय तक घेरमें ही पड़े रहकर शत्रुको A दुर्बल करेंगे। ६४ ॥ मंत्री-विजयकी वाक्पटुता ___हे महाराज ! आपके इन तीनों प्रधान मंत्रियोंने जो क्रमशः बताया है कि संधि, आश्रय और स्थानको ग्रहण करनेसे में पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है वह सर्वथा नीति शास्त्रके अनुकूल है। उसमें यदि कोई कमी है तो यही कि उक्त तीनों मार्गोंके प्रयोगका समय ही वीत चुका है। अब यदि असमयमें इनका प्रयोग किया जायेगा तो वह शास्त्र-सम्मत होते हुए भी अनर्थ ही करेगा क्योंकि उनका अब अवसर नहीं है ।। ६५ ।। जिस समय आप मथुराधिपके दूतको वापस कर रहे थे यदि उसी समय साम, दाम आदि उपायोंको व्यवहार किया होता तो वह अत्यन्त उचित होता । और वह उत्तम श्रेणीको नीतिमत्ता भी होती, किन्तु इस समय वह सुअवसर हाथसे निकल गया है फलतः नयो विकट परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं, यही कारण है उक्त प्रयोग इस समय सदोष है ।। ६६ ।। हे महोश ! मेरे सुयोग्य सहयोगी इन तीनों कुशल मंत्रियोंने जो कार्य इस समय करनेको कहे हैं। वे इस समय सर्वथा छोड़ने योग्य हैं। वे उपाय मुझे जरा भी नहीं जंचते हैं क्योंकि उनका समर्थन किसी भी युक्तिसे होता नहीं है, इस प्रकार चौथे मंत्री विजयने अपनी सम्मतिको प्रकट किया था ।। ६७ ॥ १. [स्थास्याम]। २. क अकर्म । [२९८] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् सर्गः मय - RALIARIRRITALIRALAGHATANTRA 'यत्कारणः स्यादनयोविरोधो नरेन्द्रयोरप्रतिवीर्यभासोः। स एव हस्ती यदि दीयते चेत्युस्त्वाभिमानस्य हि कोऽधिकारः ॥ ६८ ॥ अयं च राजेन्द्र समानसेनो नरेन्द्रसेनः समरे समर्थः । सर्वस्वमादाय तु यातुकामः कथं पुनर्यास्यति हस्तिमात्रात् ॥ १९ ॥ कालो व्यतीतो नरदेव शान्तो दानाश्रयस्थानविधिस्तथैव ।। उपस्थितौ संप्रति भेददण्डौ तस्मादव ये धत्स्व मति न चान्यत् ॥ ७० ॥ धनं शरीरं बलमायुरैश्यं चिरं न तिष्ठन्ति मनुष्यलोके । यशांसि पुभिः समुपाजितानि स्थायोनि यस्माद्यशसे यतस्व ॥ ७१॥ उपेन्द्रसेनो बलवानीति त्वमवैहि मंस्थाः प्रथितोरुसत्त्वः । कार्यस्य तस्या[] पुरःसरस्य नासाध्यमस्ति क्षितिपाल लोके ॥७२॥ दंड तथा भेद ही उपाय ( मंत्रियोंकी ओर दृष्टि घुमाते हुए ) "आप जानते हैं कि महाराज देवसेन तथा मथुराधिप इन्द्रसेन दोनों ही बलवीय तथा तेजमें अपनी सानी नहीं रखते । इन दोनोंके बीच में जो महा वैर हुआ है उसका जो मूल कारण है, वही हाथी; यदि इस समय आक्रमकको दे दिया जाय, तब हमें क्या अधिकार है कि हम लोग भी अपनेको पुरुष समझें या आत्म गौरव की बात करें ॥६८॥ इसके अतिरिक्त मधुराधिपति भी राजाओंके इन्द्र चक्रवर्तीके समान विशाल और उग्र हैं, इन्द्रसेन स्वयं भी युद्धसंचालनकी कलामें अत्यन्त निपुण है, तथा अपमानित होनेके कारण वह हमारे राज्यका सर्वस्व ही लूटकर लौटना चाहता है, तब । बताइये केवल हाथी लेकर ही वह कैसे लौट जायगा ॥ ६९।। हे महाराज! इतना निश्चित मानिये कि शान्ति, दान, आश्रय तथा स्थान इन चारों उपायोंके व्यवहारका अवसर सर्वथा निकल चुका है। अब हमारे सामने दो ही मार्ग खुले हैं, वे हैं भेद तथा दण्डके, अतएव आप उनका प्रयोग करनेकी हो सोचिये, इसके अतिरिक्त अब और कुछ भी नहीं हो सकता है ।। ७० ।। परिवर्तनशील मनुष्यलोकमें न तो प्रभुता ही सदा रहती है, और न अपरिमित सम्पत्ति ही चिरस्थायिनी है । जब शरीर ही किसी न किसी दिन नष्ट हो जाता है तो उसके आश्रित बलवीर्य कहाँ रहेंगे तथा आयुका तो अन्त निश्चित ही है। किन्तु यदि कोई पुरुष सत्कर्म करके यश कमा सके तो वह अवश्य 'काले कल्पशते' पर्यन्त ठहरेगा ।। ७१ ॥ यश हो जोवन है अतएव यशको सामने रखकर ही हमें प्रयत्न करना चाहिये । मथुराका राजा इन्द्रसेन निसन्देह अत्यधिक बनवान है, १. [ यत्कारणं....... विरोधे । २. क कार्यस्य सन्तीति। ३. [ तस्यात्म ] । RRIAGIRIJहामन्च Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् षोणशः सर्गः तथापि भूपाः समरे कृतार्थाः स्निग्धा नरेन्द्राः स्वमनोऽनुकलाः । गृहोतशस्त्रास्त्रबलार्थशास्त्राः सन्ति प्रभूता नृपतेः सहायाः॥७३ ॥ श्रयं यशस्यं विदुषां प्रशस्यं तेजस्कर मन्त्रिवरोपदिष्टम् । निशम्य वाक्यं हृदयावर्षी क्षितीश्वरः संमुमुदे स तस्य ॥ ७४ ॥ तंपूज्य तान्मन्त्रिगणानशेषान्विशेषपूजां विजयाय कृत्वा । संभासमक्ष समराभिलाषी युद्धाय सर्व नपतिः शशास ।। ७५ ॥ राजानुमत्या विजये जयेषो शरानुरक्तप्रतिबोधनाय । तस्यां महत्यां ललितापुर्या सघोषणां निर्गमयांचकार ।। ७६ ॥ उसका विशाल वीर्य और तेज सम्पूर्ण देशमें प्रसिद्ध है। तथा हे क्षितिपाल ! जिस सेना के आगे-आगे वह स्वयं चलता है उसके लिए इस संसारमें कोई भी कार्य असाध्य नहीं है ।। ७२ ।। तो भी महाराज ! जो अनेक राजा लोग आपके सहायक हैं वे भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। उन्होंने भी अनेक घोरातिघोर संग्रामोंमें सफलता पायी है। वे राजा लोग केवल आपके अनुकूल हो नहीं हैं अपितु आपपर उनका अपार स्नेह भी है। उनके पास सब प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित संगठित सैन्यबल ही नहीं है अपितु उनका कोश भी अक्षय है । इतना ही नहीं वे नीतिशास्त्र आदिके परम पंडित हैं ।। ७३ ।' युद्धं देहि प्रधानमन्त्रीके द्वारा उपस्थित किया गया भेद तथा दण्ड नोति के प्रयोगका प्रस्ताव महाराराज देवसेनके तेज और यशको बढ़ानेवाला ही न था अपितु आर्थिक विकासमें भी साधक था। उसकी सबसे प्रधान विशेषता तो यह थी कि उसे सब ही विद्वानोंने पसन्द किया था। अतएव हृदयको आकर्षक उक्त प्रस्तावको सुनकर महाराज देवसेन अपने मन्त्री विजयपर परम प्रसन्न हुए थे ॥ ७४ ॥ इसके उपरान्त राजाने सब ही मन्त्रियोंका उनके पदके अनुसार स्वागत सत्कार किया था और विशेषकर मन्त्रिवर विजयका । भरी सभामें उन्होंने आपने सामन्त आदि सब ही राजाओंको युद्धके लिए तुरन्त संनद्ध होनेकी आज्ञा दी थी क्योंकि वे निर्णय कर चुके थे कि युद्ध अवश्य करेंगे ।। ७५ ।।। ___मन्त्री विजय चाहता था कि उसके प्रभुको निश्चित विजय हो अतएव राजाकी स्वीकृतिपूर्वक शूरों तथा राजभक्त १. म अर्थ । २. म सर्वान्नृपतीन् शशास। ३. [ विजयो]। ४. [ स्वघोषणां] । For Privale & Personal Use Only [३०.] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् राजापि युद्धाभिमुखः ' सबन्धुः प्रवीक्ष्यते शत्रुविमर्दनाय । सन्मानदानैकर साप्तवीर्याः पुंस्त्वाभिमानास्त्वरयाभ्युपेताः ॥ ७७ ॥ एवंविधा सर्वजनाधिगम्या महाविभूत्या नृपशासनेन । भेर्या नदन्त्या परिघोषणा हि बंभ्रम्यते वारणमस्तके सा ॥ ७८ ॥ कश्चिद्भटः कान्तवपुस्तदानीं वामा ग्रहस्तापित गण्डदेशः । बलं समीक्ष्य स्वपुरान्तकस्य दध्यौ स्वयं किं क्रियते मयेति ॥ ७९ ॥ * व्याधिते च व्यसनिन्यनाथे क्षुत्पीडिते शत्रुजनाभिभूते । द्वारे नृपाणां पितृभूमिभागे संतिष्ठते यः किल सोऽतिबन्धुः ॥ ८० ॥ लोगोंका उत्साह बढ़ाने तथा उन्हें अपने कर्त्तव्यका स्मरण कराने के लिए ही विशाल ललितपुर नामक राजधानीमें उसने एक महाघोषणा करवा दी थी ॥ ७६ ॥ हमारे महाराज देवसेन अपने कटुम्बियों तथा मित्रोंके साथ युद्धके लिए कटिबद्ध हैं । वे शत्रुके मानको मर्दन करनेके लिए अनुकूल अवसरकी प्रतीक्षामें रुके हुए हैं। जिन लोगोंको राज सम्मान प्राप्त करनेकी अभिलाषा है, अथवा जो अपने राज्य का गौरव बनाये रखने के लिए सम्पत्तिका मोह छोड़ सकते हैं तथा जिन्हें अपने पुरुष होने का स्वाभिमान है, वे सब शीघ्रता से महाराजकी सेवामें उपस्थित हों ।। ७७ ।। युद्ध घोषणा इस ढंगकी उदार घोषणा राजाकी आज्ञासे बड़े ठाट बाटके साथ सारे नगरमें की गयी थी। इसके साथ-साथ विशाल भेरी भी बजायी जाती थी । तथा हाथोके मस्तकपर आरूढ़ ( व्यक्तियोंने ) इस घोषणाको नगरके एक कोने से दूसरे कोने तक फैला दिया था ।। ७८ ॥ उसी समय कश्चिद्भट (युवराज वरांग) अपनी हथेली पर बायां गाल रखे बैठे हुए थे, उनके स्वस्थ सुन्दर शरीरसे कान्ति छिटक रहो थी । वे समूची उस सेनाको देख रहे थे जिसे उनके निवास भूत नगरको नाश करनेके लिए शत्रुने चारों ओर फैला रखा था। वह मन ही मन सोचते थे कि 'मेरे द्वारा इस समय क्या सहायता की जा सकती है ॥ ७९ ॥ वरांगमें उत्साहको बाढ़ प्राणान्तक रोगोंमें फँसे, किसी प्रकारकी अन्य विपत्ति में पड़े, अनाथ, भूखसे व्याकुल, शत्रुओंके द्वारा निर्दय रूपसे तिरस्कृत हुए, राजदरबार में अपराधी रूपसे बुलाये गये तथा पितरोंकी भूमि श्मशान पर जो व्यक्ति दूसरोंका हर प्रकारसे सहायता करता है वही सच्चा बन्धु है ॥ ८० ॥ १. म शुद्धाभिमुखः । २. [ प्रतीक्षते ] ३. [ हस्तापित ] | ४. क यो व्याधिते, [ सम्याधिके ] । षोडशः सर्गः [ ३०१] Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडसः सर्गः अहं च अत्रैव कयापि युक्त्या वसामि मूढः स्वहिताहिताय । एषोऽपि मे मातुल एव राजा प्रियोऽरिसैन्यैरभिविद्रुतश्च' ।। ८१॥ अभ्येत्य दूरादपि युक्तिमत्स्यात् सहायकृत्यं स्वजनेन कर्तुम् । तद्वन्धुना कार्यविदा मयाद्य समक्षभूतेन कथं प्रहेयम् ॥ २ ॥ वराङ्गनामा तव भागिनेयः सूतोऽस्म्यहं धर्मनरेश्वरस्य। इति 'ब्रुवं चेल्ललितेश्वराय न श्रद्दधात्येष च मां हसेद्वा ॥८३ ॥ इमान्स्वबन्धन्मम धर्मलब्धानुद्दिश्य योत्स्येऽहमिति ब्रवीमि । वणिक्सुतत्वात्परिभूयमानः सभासमक्षं लघुतां व्रजामि ॥ ८४ ॥ यमGEORGETHERAPIAHIRGAMAHAD PIRITERATURESHPATHAMPARAN कृतज्ञतामय भाव परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर मैं किसो भो तरह सही; यहाँ रहता ही है, यद्यपि यह नहीं जानता कि इस निवाससे । मेरा लाभ होगा या अलाभ । महाराज देवसेनने मेरे सगे मामा हो हैं इसके अतिरिक्त यह विचारे इस समय शत्रुओंकी सेना द्वारा सताये जा रहे हैं, अतएव सम्बन्धी ही नहीं व्यसनमें भी पड़े हैं ।। ८१ ।। सगे सम्बन्धीका कर्तव्य है कि यदि उसके किसी सम्बन्धी पर कोई विपत्ति पड़े तो चाहे वह कितने भी दूर हो उसे , । वहींसे दौड़कर सहायता करनी ही चाहिये। तब मुझे तो अपने कर्तव्यका ज्ञान है तथा मैं इतने निकट हूँ कि सब कुछ मेरी आँखों । के आगे ही हो रहा है तब मैं अपने आपको इस कार्यसे कैसे बचा सकता हूँ ? ।। ८२ ।। भाव सेवा समर्पण "मैं आपका सगा भानजा हूँ, मेरा नाम वराङ्ग है, मैं उत्तमपुरके अधिपति महाराज धर्मसेनका पुत्र हूँ।" यह सब । बातें यदि आज जाकर ललितेश्वर देवसेनसे स्वयं कहूँगा तो विश्वास नहीं करेंगे, इतना ही नहीं बहुत संभव है कि मेरे उक्त वचन सुनकर मेरो हँसी भी करें ।। ८३ ।। पूर्व पुण्यके उदयसे मैंने इन सब सेठोंको अपने धर्मबन्धके रूपमें पाया है तथा मैं इन सबको तरफसे इनके प्रतिनिधिके रूपमें आपकी सेनाके साथ लडूंगा, यह कहता हूँ तो मैं वणिक-पुत्र समझा जाऊँगा, फलतः लोग मेरे उत्साहकी अवहेलना करेंगे और मैं पूरी भरी राजसभाके सामने बिना कारण नीचा देख गा ।। ८४ ।। t aS सम TEMAPIPARAMIReau T१. क °निघृतश्च । २. म अभीग्य । ३. [ इत्या व ] । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशः सर्गः कोस्यान्न' युक्तिनिरवद्यरूपा समाश्रयेयं श्वशुरस्य हेतोः। अज्ञातशस्त्रव्यवहारदक्षो भटोऽहमस्मीत्युदिते न दोषः॥८५॥ मपोपकारं मम कुर्वतस्तु कोात्मवासः प्रकटो ध्रुवं स्यात् । इत्यात्मचिन्तागतमानसः सन् शुश्राव घोषं स तु घोषणायाः ॥८६॥ तां मत्तमातङ्गशिरोऽधिरूढामाप्लुध्यमाणां पटहस्वनेन । संश्रुत्य कश्चिद्भट उन्नतश्रीः किं कि किमित्येतदपुच्छदाशु ॥७॥ ते पच्छयमाना वरवारणस्थाः स्वस्वामिसंदेशवशानुवत्ताः । यात्यद्य राजा समराङ्गणाय रिपून्निहन्तुं त्विति संजजल्पुः ॥ ८८॥ निशम्य तेषां वचनं पथश्रीः कश्चिद्भटः सोऽप्यनवार्यवीर्यः। सहायकृत्यं नृपतेश्चिकीर्षन् शूरः प्रकृत्या द्विगुणं जहर्ध ॥ ८९ ॥ ऐसी कौन-सी युक्ति हो सकती है जिसमें कोई दोष न आता हो तथा जिसका बहाना करके मैं ससुरको सेवा कर सकूँ। "मैं एक अज्ञात योद्धा हूँ तथापि यदि आप विश्वास करें तो समझिये कि मैं सब शस्त्रोंके चलानेमें अत्यन्त कुशल हूँ", यह कहने में कोई दोष भी नहीं है ।। ८५ ।। जब मैं अद्भुत रूपसे राजाकी सेवा तथा उपकार करूंगा तो निश्चित है कि मेरी कीतिके द्वारा ही मेरे माता-पिता, निवास स्थान, अपने आप ही प्रकट ही जायेंगे।" इस प्रकार जब वह मन ही मन चिन्तामें मग्न था उसी समय उसने राजघोषणा की ध्वनिको सुना था ।। ८७ ।। मदोन्मत्त हाथीके ऊपर बैठा हुआ व्यक्ति उसे कह रहा था तथा दीर्घ स्वरमें बजते हुए पटह आदि बाजे उसको और गम्भीर तथा दूर तक सुने जाने योग्य कर रहे थे । अत्यन्त शोभाययान कश्चिद्भटके कानमें जब उसको ध्वनि पड़ी तो उसने T'क्या, क्या' करके शीघ्र ही पूरो घोषणाके विषयमें जिज्ञासा की थी ॥ ८७ ॥ घोषणाको पुष्टि उत्तम हाथीपर सवार घोषणा करनेवालोंसे जब प्रश्न किया गया तो उन्होंने अपने स्वामीको आज्ञाके अनुसार ही वहीं से उत्तर दिथा था 'महाराज देवसेन अपने शत्रुओंका समूल नाश करनेके लिए आज ही समरभूमिको जा रहे हैं' ॥ ८८॥ धोषणाका स्वागत कश्चिद्भटका वीर्य और तेज ऐसा था जिसके सामने कोई टिक हो नहीं सकता था अपने आप ही वह इस ऊहापोहमें १.[का स्यान्नु]। २. [ समाश्रये यां]। ३. क तां पुष्यमाणां, [ °माधुष्यमाणां ] । For Privale & Personal use only न्यायाचनाचारवान्याचELINSAR [३०३] Jain Education international Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एषा हि नूनं मम भाविनी श्रीर्नृपस्य वा पूर्वकृतो दिपाकः । यत्र कार्य प्रतिचिन्तयामि तदेव साक्षात्समुपस्थितं मे ॥ ९० ॥ इति प्रचिन्त्यात्मनि निश्चितार्थो गुरुं समाहूय निवेश्य भूयः । युद्धाय राज्ञा सह संव्रजामि त्वं मामनुज्ञाय विमुञ्च तात ॥ ९१ ॥ तद्वाक्यसंत्रस्ततनुः पितास्य स्नेहानुरागादभिगृह्य पादौ । कुरु प्रसादं शृणु मे वचस्त्वं हितानुबन्धं प्रियमप्रियं वा ॥ ९२ ॥ जानामि ते शौर्यमवार्यमन्यैः शस्त्रास्त्रयोः कौशलमप्रधृष्यम् । प्रत्यक्षमेतन्मम सर्वमासीत्तथाप्यहं कार्यमिदं प्रवक्ष्ये ॥ ९३ ॥ युद्ध्वापि केचित्सुकृतैवहीना अप्राप्तभोगा मरणं प्रयान्ति । व्यपेतशोकाः स्वगृहे वसन्तो भोगान्विचित्रानुपभुञ्जतेऽन्ये ॥ ९४ ॥ पड़ा था कि किस प्रकार राजाकी सहायता करे, फलतः जब उसने घोषकों के वचन सुने तो उसका हर्षं दुगुना हो गया था, तथा आत्मोल्लास के कारण उसकी शोभा अत्यन्त विशाल हो गयी थी ।। ८९ ॥ यह घटना निश्चय से भविष्य में होनेवाली मेरी श्रीवृद्धिको सूचित करती है, अथवा महाराज देवसेनके पूर्वं कृत पुण्यकर्मका उदय होनेसे ही ऐसा संयोग उपस्थित हुआ है, कि मैं इस समय यहाँपर जिस कार्यको सोच रहा था वही कार्य अपने आप सामने आकर उपस्थित हुआ है। इस प्रकार सोच विचार करके उसने अपने मनमें कर्त्तव्यका निर्णय कर लिया था ||१०|| इसके उपरान्त उसने अपने पूर्वज सेठ सागरवृद्धिको बुलाकर आदरपूर्वक बैठाया था तथा उनसे निवेदन किया था कि 'मैं महाराज देवसेन के साथ समरके लिए जाता हूँ आप स्वीकृति देकर मुझे विदा करें ॥ ९१ ॥ पितृत्वका मोह कश्चिद्भके इन वचनों को सुनते ही उसके धर्मपिताका पूरा शरीर भयके आकस्मिक संचारके कारण काँपने लगा था। स्नेह तथा अनुरागके आवेशमें आकर सेठने उसके पैर पकड़ कर कहा था 'हे वत्स ! मुझ पर कृपा करो तथा मेरे वचनों को सुनो, जिन्हें मैं तुम्हारे हितकी आकांक्षासे प्रेरित होकर कह रहा हूँ, यह मत सोचो कि वे प्रिय हैं या कटु ॥ ९२ ॥ मैं तुम्हारी शूरता को जानता हूँ, यह भी देख चुका हूँ कि दूसरा कोई भट उसे परास्त नहीं कर सकता। यह भी मुझे ज्ञात है कि तुम्हारे शस्त्रास्त्रोंकी मारसे कोई नहीं बच सकता है। क्योंकि यह सब मेरी आँखोंके सामने घट चुका है तो भी मैं आपसे इस समय कार्यको कहता हूँ ।। ९३ ।। कितने ही रणवांकुरे सफलतापूर्वक युद्ध करके भी पूर्वपुण्य शेष न रह जानेके कारण युद्धके फलों - भोगोपभोग वैभव षोडश: सर्गः [ ३०४ ] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडस सर्गः वृत्ति विचित्रां स्वकृतानुरूपां पुंसां विचार्य क्षयिणी च लक्ष्मीम् । प्रीत्येह च श्रेयसि यधुनक्ति तदेव कार्य विदुषा नरेण ।। ९५॥ भोगाभिलाषात्तव विक्रमश्चेद्धोगान्यथेष्टानहमानयामि । वराङ्ग अथार्थहेतोर्यवि ते प्रयासः सन्तीह ते पुत्र हिरण्यकोटयः ॥ ९६ ॥ चरितम् । देशं च कालं च कूलं बलं च परीक्ष्य कृत्यानि जनैः क्रियन्ते । संचिन्त्य तत्सर्वमुदारबुद्धे निर्वर्त्यतां युद्धकृताभिलाषः ॥ ९७ ॥ युद्धं त्वया 'यत्कृतमासि पूर्वमद्यापि तन्मे भयमादधाति । तस्मादहं त्वां शिरसाभियाचे युद्धेन कि वा सुखमास्व वत्स ॥ ९८॥ आदि फलों-को प्राप्त करनेके पहिले ही वोरगतिको प्राप्त होते हैं। तथा कुछ दूसरे ऐसे व्यक्ति भी हैं जो समरभूमिमें विना गये ही अपने घर पर आनन्द और प्रसन्नतासे रहते हैं। तथा विविध प्रकारके भोगोंका रस लेते हैं ।। ९४ ।। मनुष्योंकका स्वभाव तथा आचार अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार हो होता है, समस्त संपत्ति और वैभवका विनाश अनिवार्य है इन दोनों बातोंको भलोभाँति समझ कर विद्वान व्यक्तिके द्वारा वही कार्य किये जाने चाहिये जो कि इस भवमें तथा अगली पर्यायमें अभ्युदय और कल्याणको दिशामें ले जा सकते हों ।। ९५ ।। यदि तुम इस कारण युद्ध में जा रहे हो कि उसके पुरस्कार-स्वरूप पर्याप्त भोग प्राप्त होंगे, तो तुम यहीं रहो । मैं तुम्हारे लिए मनचाहे भोग जुटाये देता हूँ । अथवा अपनी सम्पत्ति बढ़ानेके लिए हो यदि तुम इस विकट प्रयत्नको करना चाहते हो, तो हे वत्स ! तुम्हारे घरमें ही असंख्यकोटि सुवर्ण पड़ा है ।। ९६ ।। जो बुद्धिमान पुरुष हैं वे देश, काल, अपना कुल तथा बलको भलोभाँति समझ कर ही नये-नये कार्योंमें हाथ लगाते हैं। फलतः आप भी उक्त चारों बातोंको सोचिये और समझिये कारण आपकी प्रतिभा विशाल है। अतएव आप युद्ध में भाग लेनेकी इच्छाको त्याग दीजिये ।। ९७ ।। सेठकी रणभीरता प्रवासके समय जंगलमें दस्युओंके साथ तुमने जो दारुण युद्ध पहिले किया था उसके स्मरण मात्रसे मैं आज भी डरकांप जाता हूँ, अतएव मैं अपना शिर झुकाकर अथवा अपने शिरकी सौगन्ध खाकर प्रार्थना करता हूं, कि सुखपूर्वक अपने घरमें रहो युद्धसे भला क्या लाभ है ?' || ९८ ।। १. [ यत्कृतमस्ति, यत्कृतमास ] । __Jain Education intematio३९ ARREARSitaramatiPRAam [३०५] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो तपस्वी वत मन्दसत्त्वः स्वजातिसादृश्यमताभिधानः। मामप्ययं यन्मनुते स्वाजातावित्येवमात्मन्यथ संप्रदध्यौ ॥ ९९॥ पित्रैवमुक्तः सुत इत्थमूचे नार्थेन कृत्यं विषयेन कार्यम् । न यौवनोदाममुवां' वशस्थो न चाप्यहं इलाध्यतया करोमि ॥१०॥ स्त्रीबालवृद्धानगतीन्विपन्नाननाथदोनातुरभीतवर्गान् । आपद्गतानाश्रमवासिनश्च त्रातुं मयायं मनसि प्रयासः ॥१०१॥ प्रजाहितक्षेमसुखप्रसिद्धय राज्ञो विजित्यैव रिपोर्वधाय । तवापि कोत्ये मम धर्मदेतोर्यवेऽनमन्यस्व न वारयस्व ॥ १.२॥ श्रेष्ठी सुतस्याभिमतं विदित्वा चेष्टानुरूपां च यथार्थवार्ताम् ।। तस्योत्तरं वक्तुमशक्नुवन्स तूष्णी बभूवार्थपतिविधिज्ञः॥१०३ ॥ धर्मपिताके द्वारा उक्त प्रकारसे निषेध किये जानेपर युवराजने मन ही मन सोचा था 'खेदका विषय है कि यह साधु स्वभावी सेठ शारीरिक तथा मानसिक बलसे होन है, विचारा अपनी जातिके अनुकूल संस्कारोंसे भरा है और वैसी ही बातें करता है । मुझको भी यह अज्ञानके कारण अपने ही वर्ण या जाति का समझता है ।। ९९ ॥ - इसके बाद उन्होंने कहा था 'हे पिताजी! न तो मुझे सम्पत्तिसे कोई प्रयोजन है और न मुझे राज्यसे हो कोई सरोकार है । लहराते हुए यौवनके अनुकूल प्रखर तथा भरपूर भोगों तथा विषयोंका मुझ पर कोई अधिकार नहीं है और न में यशलिप्सासे प्रेरित होकर ही युद्धके लिए प्रयाण करना चाहता हूँ। १०० । अपितु संकटके मुख में डाले गये स्त्री, बालक तथा वृद्ध, अनाथ, स्वयं दीन, रोगग्रस्त, आक्रमणसे भीत, तथा शत्रुके अनाचारके कारण विपत्तिमें पड़े आश्रमवासी साधु तथा आर्यिकाओं, श्रावक तथा श्राविकाओंको' रक्षा करनेके लिए ही मैंने अपने मनमें उक्त निश्चय किया है। तथा उसे प्रयोगमें लानेके लिए ही मैं प्रयत्न कर रहा हूँ। १०१॥ प्रजाका कल्याण करनेके लिये तथा कुशल, सुख तथा सम्पत्तिको पूर्ण सफलताके लिए, राजा देवसेनकी परिपूर्ण विजय A को देखनेको इच्छासे, शत्रुका वध करनेकी अभिलाषाके कारण, आपका यश बढ़ानेके अभिप्रायसे तथा अपने धर्म ( कर्तव्य ) 2 को पूरा करनेकी प्रेरणासे ही मैं समरमें जा रहा हूँ। अतएव आप मुझे जानेको स्वीकृति देवें ।। १०२॥ मौनं सम्मतिलक्षणं यह सब सुनकर सार्थपति सागरवृद्धि अपने धर्मपुत्रके मनकी बातको जान गये थे, तथा जैसा वह बोलता था उसी ॥ १. म°मुदा। २. [विजित्य च]। [३०] Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हये रथे वा वरवारणे वा पञ्चायुधेनात्मपराक्रमेण । महाहवे योऽत्र मया युयुत्सुस्तस्यास्मि कालः कथितेन किं वा ॥१०४ ॥ इत्येवमाभाष्य पितुः समीपे तदेव' संप्रेष्य पुनर्घटायाम् । समर्थ्य सम्यग्पितरं सहायैः संप्रेषयामास नृपान्तिकं सः ॥ १०५ ॥ कश्चिद्भटो मे तनयो वरिष्ठः साचिव्यमिच्छुः समराङ्गणे ते । मां प्राहिणोद्देव यदत्र युक्तं तत्संविधत्स्व त्वमकालहीनम् ।। १०६ ॥ पुराप्यशृण्वन्विजयप्रधानास्ते तस्य सर्व श्रुतवीर्यसत्त्वम् । ध्रवं जयो देव तवैव भावी इति ब्रुवाणाः सचिवाः शशंसुः ॥ १०७॥ भावके अनुकूल उसकी चेष्टाएँ भी हो रहीं थीं। वह अपने सामर्थ्य और कर्तव्यको भी जानते थे फलतः वह पुत्रको उत्तर न दे सके थे अपितु चुप ही रह गये थे ॥ १०३ ।। इस महायुद्धमें जो भी आश्वारोही, रथी योद्धा तथा मदोन्मत्त हाथी पर आरूढ़ वीर, मेरे साथ खड्ग, वाण, आदि प्रसिद्ध पांच शस्त्रों तथा अपने पराक्रमके द्वारा मुझसे युद्ध करना चाहेगा आप इतना विश्वास रखें मैं उसका शुद्ध काल (यम) ही सिद्ध होऊँगा । और अधिक तो आपसे कहूँ ही क्या ॥ १०४ ॥ पित्ताकी सान्त्वना ___ इत्यादि वचनोंको पिताके सामने कहकर उसे ढाढस दिलाया था तथा उसी समय अपनी व्यवस्थाको जमानेके लिए उसे ही राज्य सभामें भेजा था। उसने सहायकोंके साथ अपने धर्मपिताका भली भांति समर्थन करके उसे महराज देवसेनको सभाको चलता किया था ।। १०५ ॥ सेठका प्रस्ताव अवस्था तथा योग्यताओंमें ज्येष्ठ मेरा पुत्र कश्चिद्भट आपके इस युद्ध में आपका सहगामी होनेके लिये परम उत्कण्ठित है। इसी अभिलाषाको आपके सामने रखनेके लिए उसने मुझे आपके चरणोंमें भेजा है। हे देव ? इस दिशामें आप जो कुछ भी उचित समझें, वह समय गंवाये बिना शीघ्र ही करें ।। १०६ ।। वीरका स्वागत श्रीविजय आदि प्रधान मंत्रियोंने पहिलेसे ही सब सुन रखा था कि 'कश्चिद्भटका पराक्रम तथा सामर्थ्य अद्भुत है ! फलतः उन्होंने कहा था 'हे महाराज निश्चयसे आपकी ही विजय होनेवाली है'। यह कहते हुए उन सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। १०७॥ [३०७) १.[तमेव]। २.[गमे ] | Jain Education international Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् न श्रेष्ठपुत्रस्त्ववणिक्स्वभावान्न प्राकृतः कर्माणि किलकेन पुलिन्दसेना rafण विशेषवन्ति हता विजित्येति किमत्र चित्रम् ॥ १०९ ॥ देवेन देवेन्द्रसमेन साकं श अथ गुणगणमुक्त्वा श्रेष्ठिनस्ते सुतस्य, नृपसचिवपुरोधाः शिष्टमित्रेष्टवर्माः ' । इति जगदुररीणां धारयन्ती मनांसि, नदतु विजयिनी नो युद्धसन्नाहभेरी ॥ ११० ॥ नृपतिरनुनिशम्य क्षेमयोगावहानि, श्रुतविनयधराणां मन्त्रिणां तद्वचांसि । श्रुत परिणतदुद्धिस्त्वदर्चाः २ प्रपूज्य रिपुबलमय तीर्थं निश्चितार्थो बभूव ॥ १११ ॥ इति धर्मंकथोद्देशे चतुर्वंर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते राजसंक्षोभो नाम षोडशः सर्गः । 'वह सेठका बेटा हो ही नहीं सकता क्योंकि उसके स्वभावमें वणिक्-सुलभ एक भी बात नहीं है, उसे जनसाधारण भी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसका एक-एक लक्षण राजपुत्रत्वको सिद्ध करता है। उसके आचार-विचारमें ऐसे ही लक्षण अधिक देखे गये हैं जो कि क्षत्रियोंमें ही हो सकते हैं ॥ १०८ ॥ मदोन्मत्त हाथी के समान उद्दण्ड तथा निरंकुश भीलोंको बारह हजार प्रमाण सेनाको केवल एकाकी कश्चिद्भटने मारकाट कर साफ कर दिया था। तब देवोंके अधिपति वज्रायुध के समान आपके साथ वह शत्रुओंको जीतेगा इसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है ।। १०९ ।। १. [ वर्गा ] । युद्धघोष इस प्रकार सेठ सागरवृद्धि धर्मपुत्र के समस्त गुणोंकी प्रशंसा करके महाराज देवसेन, महामंत्री लोग, पुरोहितों, मित्र राजाओं तथा शिष्ट हितैषीजनोंने एक साथ यही कहा था कि युद्धकी तैयारीकी सूचना देनेवाली हमारी 'विजयिनी' नामकी महाभेरी बजायी जावे, जिसके शब्दोंको सुनकर शत्रुओंके हृदय काँप जावें ॥ ११० ॥ 'महाराज देवसेनने क्षेमकुशल आदिके सूचक मंत्रियों के वचनोंको शान्तिसे सुना था क्योंकि वे सबके सब मंत्रो शास्त्रों में पारंगत थे तथा विनय भारसे दबे ( विनम्र ) हुए थे। उनकी अपनी मति भो शास्त्रानुकूल मार्ग पर चलती थी अतएव श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेव के चरण कमलोंकी पूजा करके उन्होंने शत्रु सैन्यरूपी समुद्रको पार करनेका दृढ़ निश्चय किया था ॥ १११ ॥ पार्थिवलक्षणत्वात् । बहूनि तस्मिन्नुपलक्षितानि ॥ १०८ ॥ द्विषट्सहस्रा मददन्तिगर्वा । चारों वर्गसमन्वित सरल शब्द - अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें राजसंक्षोभ नाम षोडश सर्गं समाप्त । ३. [ नाथं ] । २. म बुद्धिस्त्वहं दब्जा: । षोडशः सर्गः [ ३०८] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग सप्तदशः सर्गः चरितम् सप्तदशः सर्गः अथावनीशो मतिमद्भरायः स्वबन्धुभिर्मन्त्रिभिराप्तवर्गः। संमन्त्र्य युद्धाभिमुखस्तदैव स्वाहूतवान्सागरवृद्धि सूनुम् ॥ १॥ कश्चिद्भटः स्वर्ललितैर्वयस्यैर्वणिम्भिरन्यैश्च समेत्य तर्णम् । सिंहासनस्थं वसुधेन्द्रसिंह ददर्श सोऽन्तर्गतहर्षभावः ॥२॥ अन्योन्यनामश्रवणाभिरागावन्योन्यमुद्वीक्ष्य च संप्रहृष्टौ।। ज्ञानंश्च' नेयेऽथ नरेश्वराय वक्तुं वराङ्गो न विवेद राजा ॥३॥ स्थितं पुरस्ताद्विनयं प्रयुज्य सल्लक्षणैरूजितसर्वगात्रम् । समीक्ष्य नागेन्द्र समानलीलं कश्चिद्भट भूपतिरित्थमूचे ॥ ४ ॥ सप्तदश सर्ग सविचार निमंत्रण उस समय महाराज देवसेन समर यात्रा करनेके लिए प्रस्तुत थे अतएव कश्चिद्भटकी प्रशंसा सुननेके बाद उन्होंने परम विवेकी पूज्य पुरुषों, अपने भाई बन्धुओं, मंत्रियों तथा अन्य विश्वासास्पद पुरुषोंके साथ कश्चिद्भटके विषयमें मत विनिमय किया था । तथा उसकी समाप्ति होते ही सेठ सागरवृद्धिके परमप्रतापी धर्मपुत्रको आदरपूर्वक बुलाया था ॥१॥ वह अपने समवयस्क, सुन्दर सेठोंके पुत्र तथा मित्रोंके साथ अत्यन्त त्वराके साथ राजसभामें जा पहुंचा था, जहाँपर पृथ्वीके पालक राजाओंमें सिंहके समान पराक्रमी महाराज देवसेनको उसने सिंहासनपर विराजमान देखा था ॥२॥ महाराज देवसेन तथा तथोक्त कश्चिद्भटके बीच एक दूसरेका नाम सुनते ही पारस्परिक अनुराग उत्पन्न हो गया था फलतः जब उन दोनोंने एक दूसरेको देखा तो वे बड़े संतुष्ट तथा प्रसन्न हुए थे। कश्चिद्भट ( वरांग) महाराज देवसेनको वास्तवमें जानता था फलतः वह न सोच सका था कि महाराजसे क्या कहे तथा कुछ समय पर्यन्त नरेश्वरकी भी यही अवस्था थी ॥३॥ युवराज (कश्चित्भट ) पूर्ण विनय तथा शिष्टताके साथ महाराज देवसेनके सामने खड़े थे, उनके कान्तिमान तथा तेजस्वी शरीरपर शुभ लक्षण चमक रहे थे । ललितेश्वरने श्रेष्ठतम हाथोके समान उन्हें निर्भय खड़ा देखकर निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया था ॥४॥ १. [ जानश्च ]। २. [ ततु] । [३०९) Jain Education international Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् TRA यो भूपतेर प्रतिकूलकारी योऽनर्थतासंशमनं करोति । यो वा युधि स्थैर्यमत न जह्याद्यो वा सहायत्वमुपैति युद्धे ॥ ५ ॥ यो दर्शयेद्युक्तिमतीं च नीति हितप्रवृत्ति प्रतिबोधनाय । स एव बन्धुश्च सुतश्च मित्रं गुरुर्गरीयानिति लोकसिद्धम् ॥ ६ ॥ तथापि मैत्री 'ध्रुवमावयोस्तु पुरातनी काचिदिहापि चास्ति । अकृत्रिम प्रेम गुणावबद्ध स्त्वयि स्वबन्धाविव मेनुरागः ॥ ७ ॥ मत्पुण्यतो वा तव भाग्यतो वा महाजनानां सुकृतप्रभावात् । जित्वा रिसैन्यं यदि संनिवृत्तो दास्यामि ते मत्सुतयार्धराज्यम् ॥ ८ ॥ ततो बृहद्रत्न पिनद्धहारं किरीट' केयूरककुण्डलानि । प्रलम्बसूत्रं कटिबन्धनं च पट्टे च तस्मै प्रददौ नरेन्द्रः ॥ ९ ॥ सस्नेह स्वागत जो व्यक्ति भूपाल तथा उसके शासनके विरुद्ध आचरण ( षड्यन्त्र ) नहीं करता है, राष्ट्र या राजाके विकासमय उपस्थित हुए अनर्थोंको शान्त करता है, घनघोर संग्राम में सब ओरसे आक्रमण होनेपर भी जिसका धैर्य और कर्त्तव्यबुद्धि अस्त नहीं होते हैं जो अकस्मात् ही कहींसे आकर युद्धमें सहायता देता है ॥ ५ ॥ विपत्ति आक्रमणके कारण हित-अहित विवेकहीन व्यक्तियोंकी आँखें खोल देनेके लिए जो व्यक्ति ऐसी नीति बतलाता है जो सर्वथा युक्तिसंगत हो तथा कल्याणकारी कार्य करनेको कहता है वही सच्चा बन्धु है, है तथा श्रेष्ठतम गुरु भी वही है' यह सारे संसार में प्रसिद्ध सिद्धान्त है ॥ ६ ॥ वही पुत्र है, मित्र इसके अतिरिक्त इस भवमें ही हम दोनोंके बीच कोई प्राचीन प्रेम सम्बन्ध अवश्य रहा है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मेरा अनुराग तुमपर वैसे ही बढ़ रहा हैं जैसा कि अपने किसी निकटके बन्धु बान्धवपर होता है । तथा उसका कारण कोई कृत्रिम सम्बन्ध नहीं है अपितु अकृत्रिम प्रेम ही उसका एकमात्र बन्धन है ॥ ७ ॥ मैं अपने पुण्य कर्मों के प्रतापसे, अथवा तुम्हारे सौभाग्यसे अथवा राज्योंमें बसनेवाले सज्जनोंके शुभ कर्मोंके कारण इस युद्ध में शत्रुको सेनाको जीतकर यदि लौट आया, तो अपनी पुत्रीके हाथके साथ तुम्हें अपना आधा राज्य भी दूँगा ॥ ८ ॥ इस प्रकार से अपने अनुरागको वचनों द्वारा प्रकट करके ललितेश्वरने रत्नोंको पिरोकर बनाया गया बड़ा तथा बहुमूल्य हार, शिरका लघु मुकुट, केयूर, कुण्डल, बहुत लम्बा सूत्र, कमरबन्ध तथा पदका द्योतक पट्टा उसे समर्पित किया था ||१९|| १. मद्र पमावयोस्तु | २. क तिरीट । सप्तदशः सर्गः [ ३१०] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् सप्तदशः सर्गः अन्याश्च सन्मान्य यथोपचारं भृत्यान्भृशं निश्चितमर्थवादी । आहय मन्त्रीश्वरदण्डनाथान्संनहातेत्याशु शशास योद्धम् ॥१०॥ नरेश्वरो भास्वरसत्किरीट श्छत्रोच्चलच्चामरकेतुलक्ष्यः । सुकल्पितं मत्तमहागजेन्द्रमारुह्य देवेन्द्र इवाभ्यराजत् ॥ ११ ॥ संना सर्वायुधसंवृतस्थ स्कन्धे गजस्याप्रतिमल्लनाम्नः । कश्चिद्धटस्त्वप्रतिमश्चकाशे यथोदयस्योपरि बालसूर्यः ॥ १२ ॥ मदप्रभिन्नस्रवदागण्डं मातङ्गमम्भोदसमाननादम् । अरिंजयं तं विजयोऽधिरूढः शोभां दधौ चन्द्रमसोऽभ्रमनि ॥ १३ ॥ वीरपजा कश्चिद्भटके साथ-साथ महाराजने अन्य भटोंका भी उनकी योग्यता आदिके अनुसार स्वागत सत्कार किया था। इस सबसे निवृत्त होकर वे अपने अन्तिम निर्णयकी घोषणा करना चाहते थे फलतः मंत्रियों, कोषाध्यक्षों तथा दण्डनायकोंको बुलाकर उन्होंने आज्ञा दी थी कि 'आप लोग युद्ध करनेके लिए शीघ्रातिशीघ्र सन्नद्ध हो जा' ।। १०॥ समरयात्रा समरयात्राके समय मदोन्मत्त उन्नत तथा पुष्ट करिवरपर विराजमान महाराज देवसेन ऐसे मालूम देते थे मानो ऐरावतपर इन्द्र बैठे हैं । अत्यन्त रमणीय मुकुट उनके शिरपर जगमगा रहा था, चमर ढुर रहे थे, हौदेपर ध्वजा फहरा रही थी तथा हाथी भी कौशलपूर्वक सजाया गया था ।। ११ ॥ अप्रतिमल्ल नामके सुसज्जित हाथीपर युद्धके सब अस्त्र पहिलेसे ही यथास्थान रख दिये गये थे। इसी अनुपम हाथीके ऊपर कश्चिद्भट आरूढ़ हुआ था। कश्चिद्भटका अपना तेज ऐसा था कि दोनों सेनाओंमें कोई उसकी समता न कर सकता था। अतएव हाथीपर विराजमान होकर वह ऐसा प्रतीत होता था मानों प्रातःकालका सूर्य उदयाचलपर प्रकट हो रहा है ॥ १२ ॥ जिस हाथी पर मंत्रिवर विजयने प्रस्थान किया था उसका नाम अरिञ्जय था, यौवनके मदके कारण उसका कपाल फट पड़ा था, मदजलकी धारसे उसके गण्डस्थल गीले थे तथा उसकी चिंघाड़ वर्षाकालोन मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर थी । अतएव उसपर चढ़े हुए विजयमंत्रीकी शोभा वही थी जो कि बादलके ऊपरसे उदित हुए चन्द्रमाकी होती है ॥ १३ ॥ १.क तिरोटः। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः बरान चरितम् सर्ग: e westawesomemae-we-m चमूपमन्त्रीश्वरराजपुचाः गृहीतशस्त्रा युधि दुःप्रधर्षाः । आरुह्य मत्तद्विरदेन्द्रवृन्दं प्रतस्थिरे योद्धम भीप्सवस्ते ॥ १४ ॥ ते कुजराः काञ्चनरज्जुधाराः श्वेतोल्लसच्चामरवीज्यमानाः । मयूरपिन्छध्वजतुजकूटा रेजुविसीगिरयो यथैव ॥ १५॥ रथाश्च सद्रत्नसुवर्णनद्धा भास्वध्वजच्छत्रचलस्पताकाः । महारथैरप्रतिमैनिविष्टाः कल्पान्तसूर्या इव ते विरेजुः ॥ १६ ॥ युद्धाध्वभारक्षमसत्त्वयुक्ता विचित्रवर्णाः कुलशीलशुद्धाः ।। तुरनमा वायुसमानवेगाः समोयुरुर्वीपतिशासनेन ॥ १७॥ SHRESTHesiresemSHeare इनके अतिरिक्त सब ही सहायक राजा, राजपूत्र तथा समस्त सेनापति अपने अपने शस्त्रोंको लेकर चुने हुए बढ़ियाबढ़िया सुशिक्षित हाथियोंपर आरूढ़ होकर समरस्थलीकी ओर चल दिये थे। यह सबके सब लड़नेके लिए व्याकुल थे क्योंकि युद्ध में इनकी प्रतिद्वन्द्विता करना अति कठिन था ।। १४ ।। हस्तिरथ सैन्य योद्धाओंके वाहन होकर युद्धस्थलीमें जानेवाले यह हाथी भी अपने ऊपर पड़ी सोनेकी रस्सियोंसे चमचमा रहे थे, प्रकाशमान श्वेत चमर उनपर दुर रहे थे उनके ऊपर लहलहाती उन्नत ध्वजाओंपर मोरकी पूँछके शिखर खड़े किये गये थे। अतएव वे सबके सब हाथी चलते-फिरते पर्वतोंको शोभाको आँखोंके सामने प्रकट कर देते थे ॥ १५ ॥ ललितेश्वरकी सेनाके सब ही रथोंमें उत्तम रत्न तथा सोनेका जड़ाव था, चमकती हुई छोटी-छोटी ध्वजाएँ चारों ओर लगी थीं उनपर लगे छत्रोंको द्युति भी अनुपम थी तथा शिखर पर लहलहातो ध्वजाओंका प्रकाश तो अनुपम ही था । इस बाह्य शोभाके अतिरिक्त उनपर एक एक महारथी (जो अकेले हो दश हजार भटोंसे युद्ध करता है) योद्धा विराजमान था। इन सब कारणोंसे वे रथ प्रलयकालमें उदित हुए अनेक सूर्योके विमानोंकी समता करते थे । अश्वारोही-पदाति ___ युद्धयात्राके लिए महाराजकी अन्तिम आज्ञा होते ही वायुके समान द्रुत गतिसे दौड़नेवाले श्रेष्ठ घोडोंकी सेना बाहर निकल पड़ी थी। इस सेनाके प्रत्येक घोड़ेमें युद्धमार्गके परिश्रम तथा भारको सह सकने योग्य शक्ति तथा शिक्षा थी, सब ही घोड़ोंकी:जाति ( नस्ल ) तथा वंश उत्तम थे तथा उनके विचित्र रंग तो देखते ही बनते थे ।। १७ ॥ १.क योद्धमभीप्सुवंस्ते । [३१२] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् अनेकवेषो बहुदेशभाषस्तटिद्वपुश्च 'ञ्चलघूर्णितास्त्रः । तेषां पुनर्वाजिरथद्विपानां पदातिसंघः पुरतः प्रतस्थे ॥ १८ ॥ चित्पुनर्भूपतिशासनस्था: केचित्स्वभावोत्तममानदृप्ताः । केचित्परेन्द्रः परिभूयमाना उत्तस्थिरे योद्धुमभीप्सवस्ते ॥ १९ ॥ देशार्थसंग्रामपुरकरांच ताम्बूलवस्त्रोत्तमभूषणानि । प्रदाय योsस्मान्सकलत्रपुत्रान् बभार सन्मान पुरस्सराणि ॥ २० ॥ तस्येश्वरस्याप्रतिशासनस्य समक्षतो मानमदोद्धतानाम् । शिरांस्य रीणामसिभिनिकृत्य निवेदयन्तो अनिरुणो भवामः ॥ २१ ॥ स्वजीवितं बन्धुजनं विहाय जिघृक्षवो ये प्रतिमल्लनागम् । प्रगृह्य तेषां वरवाहनानि निष्कासयामो निरपत्रपांस्तान् ॥ २२ ॥ इस हस्ति, अश्व तथा रथमय महासेनाके आगे-आगे पदाति ( पैदल ) सेना चल रही थी । अपने-अपने राष्ट्र आदिके द्योतक उनके वेश नाना प्रकारके थे, वे अनेक देशोंसे आये थे अतएव उनकी भाषाएँ भी बहुत थों तथा युद्ध के उत्साहमें वे अपने अपने शस्त्रोंको घुमाते थे, जो बिजली के समान जगमग तथा चंचल थे ॥ १८ ॥ युद्धके हेतु पदाति सेना कुछ भट केवल महाराज देवसेनकी आज्ञाको पालन करनेके लिए ही लड़ना चाहते थे, दूसरे कुछ सैनिक स्वभावसे ही स्वाभिमानी थे फलतः ऐसे अवसरोंपर शान्त रह ही नहीं सकते थे, अन्य अधिकांश सैनिक ऐसे थे जिनको शत्रु राजाने कष्ट दिया था तथा अपमान किया था अतएव उसके विरुद्ध लड़ना उनका धर्म हो गया था ।। १९ ।। विशाल भूभागों का अधिपतित्व देकर अथवा उत्तम नगरों, सम्पत्ति बहुल आकरों तथा सम्पन्न ग्रामोंका शासक नियुक्त करके, उत्तम वस्त्र, आभूषण, भोजन, पान-पत्ता आदिको सुलभ करके जिस राजाने हमें ही नहीं हमारी स्त्री तथा बच्चोंका उदासीनतासे नहीं अपितु सम्मानपूर्वक भरण-पोषण किया है ।। २० ।। तथा राज्यका शासन अथवा शासनकी मान्यतामें कोई अन्य नृपति जिसकी समता नहीं कर सकता है, आजके युद्ध में उस ही धर्मराजके समक्ष अहंकार के नशेमें चूर फलतः उद्दण्ड शत्रुओं के शिरोंको घासके समान तलवारसे काटकर उनके चरणों में बलि कर देंगे । और इस प्रकार महाराजके महा ॠणसे ऊरण होनेका प्रयत्न करेंगे ॥ २१ ॥ वीरों के उद्गार जो अधम शत्रु अपने सगे सम्बन्धियों की नहीं अपने परमप्रिय जीवनको भी बलि करके ललितेश्वरके 'अप्रतिमल्ल' १. [fe° । ] Yo २. म निकृत्य । ३. [ निणा ] । सप्तदक्षः सर्गः [ ३१३] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REL सप्तदशः ये निष्कृपा न्यायपथावपेता विनाश्य देशान्स्वजनं विलुम्प्य । तेषां गदाभिः प्रविचूर्ण्य देहान् विशोषयिष्याम इहाजिभूमौ ॥ २३ ॥ ये स्वामिनं नः परिभूय हृष्टाः प्रत्यागता लोभनिविष्टचेष्टाः । तानद्य हत्वा समरे दुराशांश्च' काकगृध्रानभितर्पयामः ॥ २४ ॥ एवं भटाश्चित्रमुदाहरन्तस्तुरङ्गमातङ्गरथाधिरूढाः समुद्यतास्त्रा' धरणीन्द्रगेहान्निश्चक्रतुर्भूपतिना सहैव ॥ २५ ॥ कश्चिद्भट योदुमभिवजन्तं नरेन्द्रवेषोद्धतचारुलोलम् । समीक्षमाणाः पुरवासिनस्ते जजल्परित्यं स्वमनोगतानि ॥ २६ ॥ ADATA-मन्ना नामक हस्ति-रत्नका अपहरण करनेके लिए उद्यत हैं, आज समर-स्थलीमें बलपूर्वक उनके उत्तम वाहनोंको ही नहीं ले लिया जायगा अपितु तिरस्कृत करके उन निर्लज्जोंको यहाँसे खदेड़ दिया जायगा ।। २२ ॥ जो अत्यन्त दयाहीन तथा निर्दय हैं, नीतिमार्गसे योजनों दूर हैं, हमारे देशके ग्रामों, आकरों आदिका जिन्होंने विनाश किया है तथा हमारे देश बन्धुओंका निधूण वध किया है, आज उन दुष्टोंकी पापमय देहोंको गदाओंकी मारसे चूर-चूर करके समरस्थली रूपी आंगमें सुखा देंगे ॥ २३ ॥ जिन अर्थलोलुपोंकी प्रवृत्तियोंका लोभ ही नियन्त्रण करता है, फलतः हमारे नीति-निपुण महाराजका तिरस्कार करके जो नरकीट प्रसन्न हुए थे आज समरक्षेत्रमें उन सब दुरात्माओंकी ऐहिक लीला समाप्त करके उनके शरीरोंको मांसलोलुप काकगोध-आदि पक्षियोंको तर्पण कर देंगे ॥ २४ ॥ रणरंगमें मस्त योद्धा लोग पूर्वोक्त प्रकारसे अपने उत्साहको प्रकट करते हुए घोड़ों, हाथियों तथा रथोंपर सवार होकर महाराज देवसेनके साथ ही भूपतिके प्रसाद (राजभवन ) से निकले थे। उन सबके हथियार प्रहारके लिए सुसज्जित ही नहीं थे। अपितु वे उन्हें निकालकर हाथमें लिए जा रहे थे ।। २५ ।।। वरांग का राजरूप [३१४] शत्रुकी युद्धको खाज मिटानेके लिए ही समरयात्रा पर जानेवाले कश्चिद्भटको देखकर ललितपुरके नागरिकोंके मनमें 4 जो भाव उत्पन्न हुए थे विशेषकर राजाओंके उपयुक्त वेशभूषाके कारण बढ़े हुए उसके मनोहर रूपको देखकर, उन सबको उन्होंने । आगे कहे जानेवाले वाक्यों द्वारा प्रकट किया था ॥ २६ ॥ १. [°श्वकाक] | २. म समुद्य तास्त्रा। ३. [ निश्चक्रमुः ] । -2238ATHI Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैवासि भवार्थविशेषदर्शी हितस्य वक्ता चन तेऽस्ति कश्चित् । न योग्यमेतद्वणिजां हि युद्धं कि वान्वयाचिन्तितमेतदाय ॥२७॥ अनेकहस्त्यश्वरथैः प्रकोणं बलं महद्योधसहस्रपूर्णम् । युद्धाविजेतुं समरे न शक्यं मा साहसं कर्म कृथाः प्रशाम्य ॥ २८॥ कुतश्चिदागत्य वणिक्सुतोऽभूत्कुतश्चिदागत्य वनेश्वरोऽभूत् । कुतश्चिदागत्य जनप्रियोऽभूत्त्वं वत्स मा मृत्युपथं प्रयाहि ॥ २९ ॥ पुरा वराकानटवीचरांस्तानशिक्षितानल्पमतोन्पुलिन्दान् । जित्वा रणे सागरवद्धिपुण्यादिदं तथैवेति मनस्यमंस्थाः ॥३०॥ सप्तदशः सर्गः NEELOPARGALRSEREITHIRD निको विशेषरूपसे कोई तुम्हारे हित तथा शुभकी चिन्ता करनेवाला नहीं है। न कोई ऐसा ही है जो तुम्हें हितका उपदेश । दे सके ? क्या तुम नहीं समझते हो कि इस प्रकार युद्धमें भाग लेना वणिकोंको शोभा नहीं देता है। अथवा हे आर्य ? यह तुमने क्या विचित्र निर्णय कर डाला है जिसे तुम्हारे वंशमें कभी किसीने मनसे भी न सोचा होगा ।। २७ ॥ नागरिकोंका मोह महाराज देवसेनकी यह विस्तृत सेना, जिसमें असंख्य अश्वारोही और गजारूढ़ योद्धा हैं, रथोंकी भी संख्या कम नहीं है तथा हजारों अनुपम महायोद्धाओंसे पूर्ण है, ऐसी यह सेना भी संभव है कि शस्त्र प्रहार करके विजय करनेमें समर्थ न हो । अतएव तुम ( कश्चिद्भट ) अतिसाहस मत करो, शान्त होओ और अब भी रुक जाओ ।। २८ ।। किसी अज्ञात स्थानसे आकर तुम अपने शुभ लक्षणोंके कारण सार्थपतिके धर्मपुत्र हो गये थे, इसी प्रकार अकस्मात् 8 अपनी योग्यताओंके कारण वणिकोंकी प्रधानताको पा सके थे तथा कुछ ज्ञात अथवा अज्ञात कारणोंसे ही तुम जनसाधारणके स्नेहभाजन हो गये थे । अतएव हे वत्स ! यों ही मृत्युके मार्गपर क्यों चले जा रहे हो ।। २९ ।। जनसाधारणको कल्पना इसमें सन्देह नहीं कि इसके पहिले तुमने अकेले ही पामर पुलिन्दोंको जीता था किन्तु वे जंगल-जंगल भागनेवाले रणकलामें सर्वथा अशिक्षित थे तब रणनीति तथा योजनाको तो जानेंगे ही क्या? इसके अतिरिक्त उस विजयमें सेठ सागरवृद्धिका पुण्यातुम्हारा प्रधान सहायक भी था। अतएव इस महासमरको भी मन ही मन वैसा ही मत समझो ।। ३० ।। HIRURALIGIRL [३१५] १.क चिन्तितमेतदायम्, [ किं वा त्वया चिन्तितमेतदाय ]। २. [ युद्ध विजेतु]। ३. क जनेश्वरो। ४. म मनस्यमस्थ ।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः बराङ्ग चरितम् सर्गः सुनन्दया किं तव राजपच्या संक्लेशवैरास्पदभूतया ते। या काचिदत्रैव वणिग्जनानां सुतानुकूला च सुखेन लभ्यते ॥ ३१॥ कि श्रेष्ठिपुत्रस्य नृपात्मजा वै वेलोदधि चतुमयं प्रयासः । गजेन्द्रवृन्दैः परिमृद्यमानं समुद्धरेतिक वद सा सुनन्दा ॥ ३२ ॥ एवं ब्रवाणानपरे निषिध्य समूचरित्थं वचनैयथार्थः । वणिक्सुतो राजकुमार एष वपुः प्रकाशीकुरुते स्ववंशम् ॥ ३३ ॥ जयारिसेनां स्वभुजोरुवीर्य२ भद्राणि मंक्ष्वाप्नुहि भद्रमात्या । इत्थं शशंसुस्त्वपरे वांसि स्वाशीर्जयप्रीतिपुरःसराणि ॥ ३४ ॥ जित्वा रिपूनप्रतिमप्रभावो व्यपास्य राज्ञो हृदयस्य तापम् । लभस्व देशं स्वस्तां च पूजां यशःपताकामिति केचिदूचुः ॥ ३५ ॥ यमन्यमान्य eHereaseenetHmmenew . राजपुत्री सुनन्दा को पाकर ही तुम्हारा कौन-सा बड़ा हित हो जायगा, क्या तुम नहीं जानते हो कि वह तुम्हारे लिए कितने अपरिमित संक्लेश तथा अमिट वैरका कारण होगी? जो कोई भी सेठोंकी पुत्री तुम्हारे योग्य तथा उचित होगी वही तुम्हें बिना किसी परिश्रम या भयके सरलतासे ही प्राप्त हो जायगी ।। ३१ ।। सार्थपतिके पुत्रका प्रभुताके वातावरण में राजपूत्रीसे सम्बन्ध ही कैसा? तुम्हारा यह ( युद्ध विजय) प्रयत्न तो हाथों-हाथों प्रबल उन्नत लहरोंसे आकीर्ण समद्रके उस पार जानेके समान है। जब समरभूमिमें तुम्हें मदोन्मत्त हाथियोंके झुण्ड रोदते हुए निकल जायेंगे उस समय क्या, वह सुनन्दा तुम्हें उस संकटसे बचा लेगी।। ३२।। विवेकियोंकी बातें _ इन उद्गारोंको प्रकट करने में लीन मोहप्रवण व्यक्तियोंको कुछ समझदार सज्जन रोक देते थे तथा उनको समझानेके लिए यथार्थ बातोंको कहते थे । 'जिसे आप लोग सार्थपतिका पूत्र समझे बैठे हैं वह वणिक् पुत्र नहीं है अपिनु राजकुमार ही है। । देखते नहीं हैं, उसका तेजोमय शरीर हो उसके राजवंशको प्रकट कर रहा है ।। ३३ ॥ अपने प्रचण्ड भुजदण्डोंके प्रबल पराक्रम द्वारा शत्रुओंकी सेनाको जीतो, शीघ्रसे शीघ्र ही राज्यप्राप्ति, आदि कल्याणोंको प्राप्त करो तथा हे आर्य ! सब प्रकारसे तुम्हारा शुभ हो। इस विधिसे नागरिक पहिले उसकी विजयकी शुभकामना करते हुए आशीर्वाद देते थे और उसका गुणानुवाद करते थे ।। ३४ ॥ तुम्हारे प्रताप और प्रभावकी सीमा नहीं है, शत्रओंका मानमर्दन करके ललितेश्वरके पराभवजन्य मानसिक तापको १. म वीर्यात् । २. [ भक्ष्वाप्नुहि ] । ३. [ खद्रमार्य ] । For Privale & Personal Use Only तयRELATUREच्या Jain Education international Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एवं जनानां बहुभिर्वचोभिः प्रशंस्यमानः स्तुतिमङ्गलेश्च । पुरो बहिभूपतिना सहैव जगाम कश्चिद्भट ऊर्जितश्रीः ॥ ३६ ॥ ज्वलत्किरीटाङ्गदचाहाराः समुच्छ्रितातिध्वजकेतुलक्ष्याः । नरेन्द्रसिहा बृहदुग्र रोषाः परस्परं ते ददृशुः ससैन्याः ॥ ३७ ॥ प्रभञ्जनाभ्याहतचञ्चलोमिरदानादो जलधिर्यथैव । तथैव रोषानिलवेगनुन्नः सेनार्णवः सोऽतिभृशं चकम्पे ॥ ३८ ॥ गजा जगर्जुस्तुरगा हिहेषुर्ज्यामन्दनादान् रथिनः प्रचक्रुः । पदातिसैन्यस्य च सिंहनादैराधना' तदिक्का धरणी बभूव ॥ ३९ ॥ शान्त करो, इसके पीछे सन्मान में आधे देशका राज्य प्राप्त करो, राजदुलारीके पति बनी तथा सबके पूज्य होते हुए अपनी यशपताकाको देशदेशान्तरोंमें फहरा दो' ।। ३५ ।। वीरानराग कश्चिद्भटको देखकर नागरिक लोग उक्त प्रकारसे अनेक वचन कहकर उसकी प्रशंसा ही नहीं करते थे अपितु स्तुति - के साथ-साथ उसके लिए मंगल कामना भी करते थे। इस प्रकार प्रशंसित होता हुआ वह महाराज देवसेन के साथ ही नगरके बाहर निकल गया था। उस समय उसका तेज तथा कान्ति दोनों हो अन्यन्त उज्ज्वल हो रहे थे ॥ ३६ ॥ समरस्थली के प्रांगण में इकट्ठे हुए दोनों पक्षोंके राजाओंके किरीट, अंगद तथा सुन्दर मणिमय हार चमचमा रहे थे, उनके वाहनों के ऊपर लहराती हुई ऊँची-ऊँची पताकाओं को देखकर ही यह पता लगता था कि 'कौन कहाँका राजा है'। उनमें से प्रत्येकको अपने शत्रुके ऊपर बहुत तीव्र क्रोध था जिसे शान्त करनेके लिए ही अपनी-अपनी सेनाओंको साथ लिये हुए वे एकदूसरेको देख रहे थे || ३७ ॥ रणरंगका प्रदर्शन भयंकर वेगयुक्त आँधीसे चंचल होने पर जब समुद्र में ऊँची लहरें उठती हैं तथा वह मेघोंकी गर्जनासे भी भयावह रोर कर उठता है । ऐसे ही क्षुब्ध समुद्रके समान क्रोधरूपी आँधीसे बौखलाया हुआ वह सेनासमुद्र भी अकस्मात् बड़े वेगसे उफन पड़ा था ।। ३८ ।। हाथी चिंघाड़ रहे थे, घोड़े जोरोंसे हिनहिना रहे थे, रथोंपर आरूढ़ योद्धाओंके धनुषोंकी ज्याका तीव्र शब्द हो रहा था, पैदल सैनिक भी सिंहके समान हृदयको हिला देनेवाला नाद कर रहे थे तथा ऐसा मालूम हो रहा था कि पृथ्वी की सब दिशाएँ रुद्र कर्णोद्वेजक रोरसे भरी हुई हैं ।। ४९ ।। १.[ For Private Personal Use Only सप्तदशः सर्गः [ ३१७] Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e-upe-are शङ्खाश्च भेर्यः पटहाश्च घण्टा वंशास्तथा मर्दलका हलाश्च । प्रावटपयोदा इव ते रवेण प्रपूरयन्तो गगनं विनेदुः ॥ ४० ॥ स्थानानि संपाद्य चतुविधानि विस्फार्य चारूणि धषि दोभिः । आकर्णपूर्णानवकृष्य पाणौ परस्परं ते विविधर्नशराः ॥४१॥ तैरीर्यमाणा निशिताः पृषत्का मनोजवा हेमनिबद्धपुङ्खाः । वक्षांस्यरीणां विभिदुः पथूनि कूटान्यथोल्का इव पर्वतानाम् ॥ ४२ ॥ अथेन्द्रसेनस्य नराधिपस्य सेनाऽप्रसह्याभिययौ सरोषा । उद्धार्य खड्गानशनिप्रकाशान्प्रत्युद्ययौ देवनरेन्द्रसेनाम् ॥४३॥ सप्तदशः सर्गः एक ओर शंख फूके जाते थे तो दूसरी ओर भेरियाँ पोटो जातो थीं, कोई पटह बजाते थे तो दूसरे घंटाको ठोक रहे थे, अन्य लोग बाँसके भोंपू, मर्दल ( मृदंग-सा बाजा) काहल, आदि बाजोंको मस्तीसे पीट रहे थे। इन सब युद्धके बाजोंकी । सम्मिलित ध्वनिसे आकाश वैसा ही गूंज रहा था जैसा कि वर्षाकालीन मेघोंकी गर्जनासे भर जाता है ।। ४० ।।: दोनों सेनाओंके युद्धस्थलीमें खड़े हो जानेके बाद सैनिकोंने चार प्रकारके स्थानोंको बनाया था । पहिले दोनों भुजाओंसे फैलाकर सुन्दर धनुषोंपर डोरियाँ चढ़ायो थीं इसके पश्चात् बाण चढ़ाकर हाथसे डोरोको कानतक खींचकर दोनों सेनाओंके वीर सैनिकोंने परस्परमें प्रहार करना आरम्भ कर दिया था। वाणोंके पंखे ( पिछले भाग ) सोनेके बने थे ॥ ४१ ॥ युद्धारम्भ वीर सैनिकोंके द्वारा बलपूर्वक फेंके गये ऐसे वाण मनको गतिके वेगसे छुटते थे तथा सामने खड़े शत्रुओंके विशाल तथा दृढ़ वक्षस्थलोंको उसी प्रकार भेद देते थे जैसे आकाशसे गिरती हई बिजली पर्वतोंके उन्नत तथा विस्तृत शिखरोंको खंडखंड कर देती है ॥ ४२ ॥ प्रत्याक्रमण मधुराधिपतिकी अत्यन्त कुपित सेनाने बड़ी दृढ़ता तथा धृष्टताके साथ एकाएक आगे बढ़कर ललितेश्वरकी सेना पर आक्रमण किया था, जिसे घेरा डालते हए देखकर ही महाराज देवसेनकी सेनाने मियानसे तलवारें निकाल कर शत्रु से अधिक वेग और दृढ़ताके साथ प्रत्याक्रमण किया था। ललितेश्वरके सैनिकोंके हाथोंसे चलाये गये खड्गोंकी ज्योति बिजलीके समान में [३१८) प्रकाशित हो रही थी ।। ४३ ।। SHEATREATHEHREETreeSTHAN-Seegreemename-AIRe- १.[°सेना]। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः परितम् ASTRAIPukson I स्वस्वामिसंबन्धकृतप्रतिज्ञा निबहरागाः समरेऽभिलाषाः । स्ववीर्यमानोन्नतबद्धकक्षाः परस्पराङ्गानि भृशं प्रजहः॥४४॥ ईलोभिरालालितभासुराभिः पादातयः प्राक्सहसाभिहन्य। शिरांस्युरांस्यूरुकटोररीणां विचिच्छिदुस्तीक्ष्णमुखीभिराशु ॥ ४५ ॥ शरैः परास्त्राण्यभिताड्य शूरा निर्भत्स्य॑ वक्षांसि ललचिरेऽन्ये । तेलध्यमाना विगतास्त्रहस्ताः प्रसा तान्मुष्टिभिराशु जघ्नुः ॥ ४६ ॥ गर्वोभिरुर्वीभिरथा यसोभिर्गदाभिरुभ्राम्य महाबलास्ते ।। विचूर्णयांचक्रुरभीत्यर शत्रून्वज्राभिघाता इव पर्वतेन्द्रान् ॥ ४७ ॥ कचग्रहेण प्रदने प्रसह्य निपात्य भूमौ छुरिका प्रहारैः। विदार्य वक्षो जठराण्यरीणां प्राणान्विचिन्वन्त इवाशु"रन्ये ॥ ४८॥ दोनों ही सेनाओंके भट स्वामिभक्त थे, प्रभुकी विजयके लिए प्रतिज्ञा कर चुके थे, अपने प्रभुके प्रति राग तथा शत्रु राजाके प्रति द्वेषसे पूर्ण थे, युद्ध करनेके लिए लालायित थे, उन्हें अपनी शक्तिपर विश्वास था, बड़े अभिमानी थे तथा करनेट्स मरनेके लिए कटिबद्ध थे । अतएव बड़े वेगके साथ परस्परके अंग काट-काट कर फेकते जाते थे ॥ ४४ ॥ पदातियुद्ध पदाति योद्धाओंने पहिले ही आक्रमण में ईली शस्त्रका प्रयोग करके शत्रुओंके सिर, वक्षस्थल, जंघा, कमर आदि अंगोंको अकस्मात् ही काट डाला था । क्योंकि ईलियोंकी धार अत्यन्त तीक्ष्ण थी । शत्रुओंके रक्तमें रंगकर वे बिल्कुल लाल हो गयी थीं तथा उनका गहरा लाल रंग खूब चमक रहा था ।। ४५ ।। कुछ शूर योद्धा अपने प्रतिद्वन्द्वीके शस्त्रोंको बाणोंकी मारसे ही बेकाम कर देते थे । दूसरे कुछ वीर सन्मुख आये शत्रुकी भर्त्सना करते हए उचक कर उसकी छातीपर पहुंच जाते थे। इसके बाद लाँघे गये शस्त्रहीन सैनिक अवसर पाकर उन आक्रमणकारियोंको बलपूर्वक घूसे मारकर समाप्त कर देते थे ॥ ४६॥ अन्य महाशक्तिशाली योद्धा अत्यन्त विशाल तथा भारी लोहेको गदाओंको घुमाते थे जिनके प्रहारोंसे अपने चारों ओर आये शत्रु ओंको ऐसा चकनाचूर कर देते थे जैसे कि आकाशसे गिरे वज्रका अभिघात साधारण पर्वत नहीं महापर्वतोंको चूर-चूर कर देते हैं ।। ४७ ।। साक्षात् संघर्षमें कुछ योद्धा शत्र के बालोंको पकड़ कर झटकेसे पृथ्वी पर पटक देते थे । फिर कृपाणका निर्दय प्रहार १.क °यसाभिः। २. [ अभीत°]। ३. [ प्रथमे । ४. म छुरिता। ५. [ इवासुरण्ये ] । RETREILLAG [३१९] Jain Education international Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् केचित्पुनर्लब्धशिरःप्रहाराः क्षरन्नवासस्थगितात्मवक्त्राः । नैरेक्ष्यमाणा ध्वनिनावगम्या इतोऽमुतो जग्मुरहीनसत्त्वाः ॥ ४९॥ विहाय चाभ्यर्णतयाप्नवाने प्रसह्य चक्रः सहसा नियुद्धम् । केचित्परेषां प्रतिगृह्य शस्त्रं व्याहन्तुकामा मुमुचुस्तदानीम् ॥५०॥ परे पराक्षोणि वितुद्य कुन्तैस्ते निःक्रिया वाक्कटुरूक्षबाणैः। अधिक्षिपन्तो ज्वलिताग्निकल्पा विसर्जयामासुरवज्ञयान्यान् ॥५१॥ प्रत्यागतानुद्यतशस्त्रपाणीन् प्रहर्तु कामानभितः समोक्ष्य । प्रवञ्च्य शिक्षाबलकौशलेन विनम्य पार्शनिबबन्धरन्ये ॥५२॥ सप्तदशः सर्गः करके उनके पेटको फाड़ देते थे, वक्षस्थलोंको चीर डालते थे तथा इन सब उपायोंसे शीघ्र ही उनके प्राणोंको चुनकर फेंक देते थे॥४८॥ किन्ही योद्धाओंके शिर पर ही शत्रु का प्रबल प्रहार पड़ता था, मस्तक फट जाता था और रक्तकी धार बह निकलती थी, जिससे उनका मुख आदि बन्द हो जाता था। फलतः वे अपने शत्रु ओंको नहीं देख पाते थे, तो भी शत्र ओंके शब्दसे उनकी दिशाका पता लगाकर अपने आसपासके शत्रओं पर स्वयं शक्ति क्षीण न होनेके कारण आक्रमण करते ही थे ॥ ४९॥ शत्रु के अत्यन्त निकट आ जानेपर कुछ योद्धा शस्त्रोंका प्रहार छोड़कर एकदम आगे बढ़कर मल्लयुद्ध करने लगते थे । दूसरे भट अपने शत्रु ओंके शस्त्रोंको छीनकर उन्हें मारनेके लिए कटिबद्ध हो जाते थे, किन्तु उसी समय युद्धनीतिका स्मरण आ जानेके कारण छोड़ देते थे । कुछ ऐसे भी शूरवीर थे जो भालोंकी मारसे शत्रु ओंकी आँखें फोड़ देते थे।॥ ५० ॥ मल्लयुद्ध तब वे नेत्रहीन हो जानेके कारण कुछ कर न सकते थे, फलतः उनके अन्तरंग क्रोधकी ज्वाला भभक उठती थी और वे अपशब्दोंरूपी कटु तथा तीक्ष्ण बाणोंसे अपने शत्र ओंपर आक्रमण करते थे, किन्तु आँखें फोड़नेवाले योद्धा तिरस्कारपूर्वक उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाते थे ।। ५१ ॥ प्रहार करनेकी इच्छासे कुछ योद्धा शस्त्र सहित हाथोंको ऊपर उठाये हुए ही अपने शत्रु को हर तरफसे घेरते थे। किन्तु उन्हें ऐसा करते देखकर वे अपनी युद्धकलाकी कुशलतासे उनको युक्तिको विफल कर देते थे। इतना ही नहीं उनपर। [३२० ] कुशलतासे पाश फेंककर उन्हें बाँध लेते थे ।। ५२ ॥ १. म स्थनितात्म। २. [ निरीक्ष्यमाणा ] । ३. क प्नुवाने, [ विहायसाभ्यर्णतया प्रयाणे ] । राजमायमचन्चचमचमचमाचमन्याम Jain Education international Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितस् शस्त्रबभिदुर्नृशंसाः ॥ ५३ ॥ परेषामभिसंस्कृतानि । शिरांस्यला' सूत्पलवत्प्रसह्य ॥ ५४ ॥ केचित्पुरापि प्रतिबद्धवैराः पुर्नावशेषेण हि युद्धशौण्डाः । संज्ञाभिराहूय परस्परस्य गात्राणि केचित्पुनर्लोहनिबद्धदण्डे चण्डाः एक प्रहारेस्तु दृढैरभिन्दन् केचित्प्रभिन्नाः परशुप्रहारैः समुद्गरैस्तीक्ष्णमुखेश्च टङ्कैः । परे गदाघातविचूर्णिताङ्गास्तदैव जग्मुः परलोकमुप्राः ॥ ५५ ॥ तेषां मवोद्भिन्नगजाकृतीनां रणप्रियाणां कृतपौरुषाणाम् । शूरव्रणालङ्कृतभासुराणां सुसंहारतुमला बभूव ॥ ५६ ॥ कितने ही ऐसे रणवांकुरे थे जो इस युद्ध के पहिलेसे ही एक दूसरेके पक्के वैरी थे, फिर इस समय तो कहना ही क्या था? वे परस्परमें नामसे सम्बोधन करके अपने शत्रु को उसका नाम लेकर अपने सामने बुलाते थे और उसे शस्त्रोंके द्वारा निर्दयतापूर्वक छेद डालते थे ॥ ५३ ॥ युद्ध की भीषणता कुछ क्रुद्ध तथा उग्र भटोंके दण्डे लोहेकी मूठसे मढ़े थे । ये लोग अपने शत्रुओंके विधिपूर्वक शिरस्त्राण आदिके द्वारा सुरक्षित शिर पर एक ऐसा दृढ़ तथा सटीक प्रहार करते थे कि उनके शिर एक ही चोटमें वैसे ही फट जाते थे जैसे तुम्बी पत्थर की चोटसे खंड-खंड हो जाती है ॥ ५४ ॥ तीक्ष्ण परशु प्रहारोंसे अनेक योद्धाओंके शरीर फट गये थे, कुछ लोग भारी मुद्गरों तथा तेज धारयुक्त टंकोंको मारसे छिन्न-भिन्न हो गये थे, अन्य कितने ही गदाकी सतत मारसे पिस गये थे और वे सब तेजस्वी देखते-देखते इस लोकसे प्रयाण कर गये थे ॥ ५५ ॥ इन समस्त योद्धाओंको रण अत्यन्त प्रिय था, अतएव उसकी सफलता के लिये इन्होंने परिपूर्ण पुरुषार्थं किया था । अपने अहंकार उद्रेक तथा रक्त आदि लग जानेके कारण उनकी आकृतियाँ मदबहाते हाथियोंके समान हो गयी थीं। वीरोंके उपयुक्त घावोंके द्वारा उनके पूरे शरीर भूषित हो गये थे, तो भी उनके चलते हुए दृढ़ तथा सटीक प्रहार और भी तीव्र और भयानक होते जा रहे थे ॥ ५६ ॥ १. [ शिरांस्यलाबूत्पल° ] ४१ २. [ बभूवुः ] । For Private Personal Use Only सप्तदधाः सर्गः [ ३२१] Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् नृकुञ्जराः केचिवहीनसत्त्वाः पादप्रवेशप्रथितान्त्रमालाः । विरेजिरे युद्धभुवि भ्रमन्तः पाशावबद्धा इव मत्तनागाः ।। ५७ ।। केचिन्नृसिंहा रुधिराक्तशस्त्राः परप्रहारप्रभवोरुवीर्याः । विरेजुराजावतिघोररूपा घ्नन्तो गजेन्द्रानिव दृप्तसिंहाः ॥ ५८ ॥ स्वान्त्राणि केचिज्जठरघृतानि' निगृह्य वामाङ्गकरैर्नृ शूराः । संगृह्य गखान्यथ दक्षिणैस्तु विरेजुराजाविव राक्षमास्ते ।। ५९ ।। अन्तः प्रक्रोपात्परिवृत्तनेत्राः केचित्राघातनिरस्तजीवाः । निः पीड्य दन्तैर्दशनच्छदांस्ते निपेतुरुर्व्या तु सहस्रकोटधा ॥ ६० ॥ रणरति कुछ श्रेष्ठ योद्धा जिनको शक्ति और पराक्रम थोड़ा भी कम न हुआ था वे युद्धक्षेत्रमें दौड़-दौड़कर आक्रमण कर रहे थे । इसी उपक्रममें उनके पैरोंमें मृतकों की आँतँ फँस गयी थीं तो भी उनकी गतिमें कोई अन्तर न आया था । अतएव वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो पाशसे बंधे हुए मत्त हाथी ही रणभूमिमें इधर-उधर दौड़ रहे हैं ॥ ५७ ॥ कितने ही ऐसे पुरुषसिंह ( श्रेष्ठ पुरुष ) थे जिनके शस्त्रास्त्र शत्रुके रक्त से लथपथ हो गये थे तथा शत्रुओंपर प्रहार करते-करते थकनेकी अपेक्षा उनका बलवीर्य और बढ़ सा गया था फलतः वे शत्रुओंको मारनेमें ही लोन थे । उनका यह घोररूप देखकर उन सिंहोंका स्मरण हो आता था जो क्रोधके आवेशमें मत्त गजोंपर आक्रमण करते हैं ॥ ५८ ॥ शस्त्रोंकी मारसे किन्हीं - किन्हीं योद्धाओंके पेटकी आंतें बाहर निकल आयी थीं। किन्तु उन शूरोंने उन्हें बायें हाथसे दबा लिया था और दायें हाथसे दृढ़तापूर्वक खड्ग पकड़ कर वे जब प्रहार करते थे तो साक्षात् राक्षसोंकी भाँति भयंकर दिखते थे ।। ५९ ।। हार्दिक क्रोधका आवेश बढ़ जानेके कारण कितने ही योद्धाओंकी आँखें घूम रही थीं, इस पर भी जब शत्रुका निर्दय प्रहार हुआ तो उनके प्राण पखेरू भी उड़से ही गये थे । तथापि अन्तमें जब सहस्रकोटी ( हजार दातोंकी गदा ) का प्रहार पड़ा तो वीरतापूर्वक व्यथाको सहनेके लिए हो उन्होंने ओठोंको दाँतोंसे चबा लिया था और आह निकाले बिना ही धराशायी हो गये थे ।। ६० ।। १. मतानि । For Private Personal Use Only सप्तदशः सर्गः [ ३२२] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् उरस्सु केचित्समरप्रियाणां निहत्य पूर्व पृथुसर्वलोहै। नि:कष्य यातांबरयानबाध्य' तैरेव तांस्तीवरुषः प्रजहः ॥ ६१॥ परस्पराघातविघट्टितास्त्राः परस्परं पीनभुजेनिपीड्य । निपात्य भूमावतिरोषरौद्राः क्रमेण चक्रुस्तदरोत्तरांस्तान् ॥ ६२॥ खड्गैः प्रहन्तनितरेतरस्य विलोक्य वैराग्यमयुः सुभीताः। रागः समो मध्यमधीषु जातः शौर्यान्वितेषु द्विगुणो बभूव ॥ ६३ ॥ लब्धप्रणाः श्रान्ततमा रुदन्तस्तृषादिताः शीतलजलाभिलाषाः । लज्जां विहायैव जिजीविषन्तः प्रदुद्रुवुः साध्वससन्नचित्ताः ॥ ६४॥ सप्तदशः सर्गः रणकला प्रदर्शन समरके रागमें मस्त कितने ही योद्धाओंके वक्षस्थलपर कोई-कोई शत्रु सर्वलोह (पूराका पूरा लोहेसे बना अस्त्र) आयुधसे पहिले प्रबल प्रहार करते थे। किन्तु जब वे आगेको बढ़ने लगते थे तब उसी सर्वलोह आयुधको निकाल कर वे उन्हें 1 रोक लेते थे और उसीका प्रहार करके मार डालते थे ॥ ६१ ।। आपसमें सतत प्रहार करते रहनेपर जब भटोंके अस्त्र टूट जाते थे तो एक दूसरेको अपनी-अपनी पुष्ट तथा बलिष्ठ भुजाओंसे दबाकर पृथ्वापर पटक देते थे। क्रोधसे अत्यन्त उग्र होकर वे लड़ते-लड़ते अपने प्रतिद्वन्दियोंके पैर ऊपरकी ओर और शिरको नीचे कर देते थे। ६२ ॥ रणदर्शनकी प्रतिक्रिया जो लोग स्वभावसे भीरु और दुर्बल थे वे योद्धाओंको खड्गों द्वारा आपसमें जुझता देखकर भयसे विह्वल हो गये थे। जो न तो भीरु थे और न प्रथम श्रेणीके योद्धा थे उन्हें संग्राम करनेवालोंके प्रति समान अनुराग हो गया था। तथा जो स्वयं शूरवीर थे उनका उत्साह दुगुना हो गया था ।। ६३ । आतंक तथा भयसे जिनके चित्त सहज ही सन्न हो रहे थे, वे लोग एक घाव लगते ही अत्यन्त शिथिल हो गये थे, कष्टसे रोते थे, प्याससे उनके गले सूख गये थे, शीतल जल पीनेके लिए वे आतुर थे, किसी भी प्रकार जीवित रहना चाहते थे अथवा लोकलाजको छोड़कर वे भागे जा रहे थे ॥ ६४ ।। । १. [ यातांस्त्वरयानुबाध्य ] । २. [ चक्रुस्त्वघरोत्तरांस्तान् । ३. क बद्धवणाः । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराज चरितम् सप्तदशः सर्गः मत्तद्विपानां चरणाभिघातैः खुरावपातैर्वरवाजिनांच। पदातिपात रथनेमिन? रजस्ततानाम्बरदिग्मुखानि ॥६५॥ अभ्यर्णयोगात्प्रतिमिश्रिताश्च रजोऽवतानान्मतिविभ्रमाच्च । प्रहत कामाः प्रसमुद्यतार्था न जज्ञिरे ते स्वजनाजनांश्च ॥६६॥ एवं प्रवृत्ते समरेऽतिघोरे परस्पराघातरवातिभीता। रजःपटागुठितविग्रहा सा मही न रेजे सभयाङ्गनेव ॥ ६७ ॥ ते चापि योधाः पिहिताक्षिवक्त्राः करावमर्शप्रतिबद्धसंज्ञाः । चिरादिवात्मप्रियबन्धुवन्नाश्लिष्यते मोचयित समर्थाः ॥ ६८॥ नृणां हयानां करिणां बृहद्भिवणैर्महच्छोणितमुद्रिरभिः। रणाजिरोत्कीर्णरजः शशाम प्रावृट्पयोदैरिव रेणुरुाः ॥ ६९ ॥ समरस्थली मदोन्मत्त हाथियों के भारी पैरोंसे लगातार रोंदे जानेके कारण, हृष्टपुष्ट तथा फुदकते हुए बढ़िया घोड़ोंकी टापोंकी मारसे, पदाति सेनाको दौड़ धूपके कारण तथा विशाल रथोंके पहियोंके द्वारा कूचो गयी समरस्थलीसे उड़ी हुई धूलने समस्त दिशाओंको ढक लिया था ॥६५॥ इस समयतक दोनों सेनाएँ इतनी निकट आ गयी थीं कि दोनों पक्षोंके सिपाही आपसमें मिल गये थे, इस कारणसे, धूलके सर्वदिक फैलावके कारण अथवा बुद्धिभ्रष्ट हो जानेके कारण ही सैनिक प्रहार करनेकी अभिलाषासे जब शस्त्र उठाकर बढ़ते थे तो अपने सपक्षी और विपक्षीको भी नहीं पहिचान पाते थे ।। ६६ ।। इस प्रकारसे अत्यन्त भयंकर और घोर युद्ध चलते रहने पर, शूरोंके पारस्परिक आघातोंसे अत्यन्त भीत तथा धूलरूपी साड़ीसे अपने शरीरको ढंकनेवाली पृथ्वी उसी प्रकार शोभित हो रही थी जैसी कि कोई डरी हुई कुलांगना प्रतीत होती है ॥६७।। योद्धाओंके मुख तथा आँखें धूलसे भर गयी थीं फलतः न वे बोल सकते थे और न देख सकते थे । केवल एक दूसरेका हाथ के छूनेसे ही उन्हें किसीका ज्ञान होता था। फलतः वे दीर्घ प्रवासके पश्चात् मिले हुए घनिष्ठ बन्धु बान्धवोंके समान एक । दूसरेको गाढ़ रीतिसे बाहुपाशमें बाँध लेते थे और उससे छूटनेमें असमर्थ हो जाते थे॥ ६८॥ मनुष्य, घोड़े तथा हाथियोंको इस संग्राममें बड़े-बड़े घाव लगे थे जिनसे रक्त ही नहीं निकला था अपितु रक्तकी १. म नेमिनधेः। Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः प्रवृतधूमाक्रतिधूसराणि नभोभुवं च प्रति तानि याति । असुग्विमिश्राणि रजांसि तत्र तान्येव सिन्धरवपूंषि बभ्रुः॥ ७० ॥ प्रशान्तरणौ चरणप्रचारे परस्परालोकविवृद्धवैराः । आहूय तान्नामभिरुग्ररोषाः पदातयो जघ्नुरतीव शूराः ॥ ७१ ॥ हयांस्तु जातिप्रवरान्विनीतानारुह्य कार्योद्वहने समर्थान् । विकृत्य कुन्तेष्वसिपाशहस्ता बलं रिपूणाममृदुः प्रसह्य ॥७२॥ अथेतरेऽप्यस्त्र कलाप्रगल्भाः भृशं द्विषद्भिः परिभूयमानाः । प्रति प्रधाव्याश्च सहस्रवृन्दैः समन्ततस्तान् रुरुधुः क्षणेन ॥ ७३ ॥ विशाल धारा भभक-भभक कर बह रही थी। जिसके द्वारा समरांगणकी समस्त धूल वैसे ही बैठ गयो थी जैसे वर्षाकालीन मेघों की मूसलाधारसे पृथ्वी पर उड़ती धूल जम जाती है ।। ६९ ॥ संहारमें कवित्वको अठखेलियाँ पहिले जो धूल खूब बढ़ी हुई धूम्रराशिके समान मलिन रंगको धारण करती हुई आकाशमें उड़ती दिखायी देती थी। वही धूल बादमें रक्तसे मिल जानेके कारण आकाशको ओर उठती हुई ऐसी प्रतीत होती थी मानों अवीर या सैन्दुरकी आंधी उड़े रही हो।। ७० ॥ उक्त रीतिसे धूलके बैठ जानेपर फिर युद्ध प्रारम्भ हो गया था। इस समय दोनों सेनाओंके शूर एक दूसरेको एक पग की दुरिपर ही देख सकते थे, अतएव इस दर्शनने उनकी क्रोधज्वालामें आहुतिका काम किया था। इसी कारण वे उस समय पहिलेसे बहुत बढ़कर शूर हो गये थे । पदाति क्रोधमें उन्मत्त होकर एक दूसरेको नाम लेकर बुलाते थे और मारक प्रहार करते थे ।। ७१ ॥ पुनः संघर्ष __ योद्धा उत्तम जातिके सुशिक्षित ऐसे घोड़ोंपर आरूढ़ होते थे जो उनकी उस समयकी लड़ाईको सफल करने योग्य थे। फिर जो भालोंकी मार, तलवार की काट पाशोंके फन्दोंको काटते हुए आगे बढ़ते जाते थे और शत्रुओंकी सेनाको निर्दयतापूर्वक कुचल देते थे॥७२॥ किन्तु दूसरे कुछ योद्धा युद्धकला तथा शस्त्र संचालनमें इनसे भी अधिक दृढ़ तथा कुशल थे । फलतः जब शत्रुके। अश्वारोहियों द्वारा उनका अपमान होता था तो वे दूसरे ही क्षण हजारों घोड़ोंपर सवार होकर उन सब पर प्रत्याक्रमण करते थे । और क्षणभरमें ही उन्हें ऐसा घेर लेते थे कि उन्हें निकल भागना असंभव हो जाता था ।। ७३ ॥ १.[मान्ति ]। २.[रिपूणां ममृदुः]। जाPिAIRETRAILWARASHTRIALORERAL Jain Education international Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशः सर्गः रथाधिरूढाः प्रचलत्किरीटा' ज्वलत्तनुत्रावतसर्वगात्राः । धनुभिराश्विन्द्रधनुर्वभिर्वर्षासु धारा इव तेऽप्यदीव्यन् ॥ ७४ ॥ मदोद्धतानामथ कुजराणां चलन्महाशैलसमाकृतीनाम् । स्कन्धाधिरूढाः प्रतियोद्धकामाः परस्परं तेऽभ्यनयन्गजेन्द्रान् ॥ ७५ ॥ एवंप्रकारे तुमुले विमर्दे शौर्यस्य पुसामनुयोगभूतम् । समुद्ध तासिद्युतिसंनिरस्ता प्रभाविभूतिः स ब [---] ॥ ७६ ॥ ते योधमुख्याः कणपैर्गदाभिः सतोमरैः पट्टिसाभिण्डिमालैः। चक्रैश्च शूलैः पृथुलोहवृन्तः प्रजघ्नुरन्योन्यममोधमोक्षः ॥ ७७ ॥ केचिद्वि सृष्टानि वरायुधानि श्वकौशलाच्चिच्छिदुरन्तरिक्षे। केचिद्विगृहीत्वन्तर एव वीरस्तदैव [-] 'तान्यमुचन्परेभ्यः ॥ ७८ ॥ BAMAHARAHATEETHARMAPAHARIEWS रथयुद्ध रथोंपर आरूढ़ योद्धाओंके शिरोंपर बँधे मुकुट जगमगा रहे थे। उनकी पूरीकी पूरी तेजोमय देह अत्यन्त चमचमाते हुए कवचसे सुरक्षित थी। उनके धनुषोंकी दृढ़ता आदि गुण इन्द्रधनुषको ही कोटिके थे इन धनुषोंके द्वारा वे निरन्तर बाण फेंककर शस्त्र-कीड़ा कर रहे थे । बाण क्या छट रहे थे मानों वर्षामें मसलाधार पानी इन्द्रधनुष ही बरसा रहा था ।। ७४ ॥ मदजलके स्त्रावके कारण अत्यन्त उद्धत तथा चलते फिरते महापर्वतोंके समान विशाल ढीठ हाथियोंपर आरूढ़ यात्रा । परस्परसे एक दूसरे पर प्रहार करनेके लिए अपने अपने मस्त हाथियोंको शत्रुओंके निकट लिये जा रहे थे ।। ७५ ॥ उक्त प्रकारसे दारूण और घोर संघर्ष चल रहा था इसमें पुरुषोंके शौर्य तथा साहस दोनोंका उत्कृष्ट उपयोग हो रहा था । कोशसे बाहर खींचकर चलायी जानेवाली तलवारोंकी द्यतिके सामने सूर्यको किरणोंका उद्योत मन्द पड़ गया था, फलतः विचारा सूर्य उस समय प्रभाहीन ही दिखायी देता था ।। ७६ ॥ इस समय तक प्रधान-प्रधान योद्धा संग्राममें उतर चुके थे। वे कणप, गदा, तोमर, पट्टिस ( एक प्रकारका फरसा) भिण्डिपाल (हाथसे फेंका जानेवाला) चक्र, बरछी तथा बड़े-बड़े लोहेके भालों द्वारा परस्परमें ऐसे प्रहार करते थे जिनका लक्ष्य कभी चूकता ही न था ॥ ७७ ।। युद्धको चरम-सीमा शाके द्वारा फेंके गये बढ़ियासे बढ़िया शस्त्रोंको कुछ योद्धा अपनी रणकुशलताके कारण आकाशमें ही कांट-छाट । १. क तिरीटाः। २. क बभूव शूराः। ३. [ते]। [३ ] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् देते थे और वे उनतक पहुँच न पाते थे। दूसरे इनसे भी अधिक कुशल थे वे उन्हें बीचमें ही रोककर पकड़ लेते थे और दूसरे ही क्षण उन्हें उनके चलानेवालोंपर ही चला देते थे ॥ ७८ ॥ पर्वतके समान विशाल होते हुए भी वेगसे बढ़ते हुए गज, गजोंसे भिड़ रहे । अश्वारोही अश्वारोहियोंके साथ तुमुल युद्ध करते तथा पैदल सैनिक पैदल सैनिकोंपर टूट रहे थे ॥ ७९ ॥ गजैर्गजाः प्रस्फुरवद्रिकल्पा रथे रथाश्वेत्कृतताः समेता ( ? ) । तदातियुध्यन्त हयैर्हयास्ते पदातयस्तत्र पदातिभिश्च ।। ७९ ।। गजास्तुरङ्गाश्च विपन्नदेहाः क्षितौ पतन्तः करुणं 'चकूजुः । नरा वराका युधि भीरवोऽन्येऽप्यलब्धकामा मरणं प्रयाताः ॥ ८० ॥ Maraणानां रणकर्कशानां वक्षस्स्थलेभ्यः स्रुतरक्तधाराः । युतं विरेजुः कृतसाहसानां शैलेन्द्रभित्तिष्विव धातुधाराः ॥ ८१ ॥ महाजिभूमौ रुधिराक्तगात्रा प्रभग्नमातत रथाश्ववृन्दा | बहिर्गतान्त्राभविलम्बमाला सन्ध्याभ्ररागं सकलं बभार ॥ ८२ ॥ क्वचिद्गजानां शव संकटत्वात्क्वचिद्धयाङ्गावयवैकदेशात् । क्वचित् कबन्ध प्रतिनर्तनाच्च महारणो भीमतमो बभूव ॥ ८३ ॥ जब हाथियों और घोड़ोंके शरीर क्षत-विक्षत हो जाते थे तो वे पर्वतकी शिखरोंकी भाँति पृथ्वीपर गिरते थे और अत्यन्त करुण चीत्कार करते वे तथा कितने ही क्षुद्र प्राणी जो स्वभावसे भीरु थे वे अपनो लड़नेकी अभिलाषा तथा उसके उत्तरकालीन फलोंको बिना पाये ही अकारण ही मोतके घाट उतर गये थे ॥ ८० ॥ कितने ही वीर प्रकृति से ही भयंकर रूपके कठोर योद्धा थ, उनके ऊपर घात पर घात पड़ रहे थे। उसके सुदृढ़ विशाल वक्षस्थलोंसे रक्तकी नदी बही जा रही थी किन्तु वे तब भी साहसपूर्वक लड़ते हुये खड़े थे। उस समय उनकी वही शोभा थी जो कि किसी विशाल - उन्नत पर्वतकी होती है जब कि उससे गेरू घुले जलकी धार बहती है ॥ ८१ ॥ इस महासमरकी पूरी रणस्थली रुधिरको धारसे आर्द्रा हो गयी थी, उसपर टूटे फूटे रथ, खण्डित अश्व और कटे छटें हाथियों के शव पड़े थे, मृत शूरों तथा जन्तुओं के शरीरोंसे बाहर निकलो आतोंकी मालाएँ उस पर पड़ी थीं अतएव उसकी पूरी की पूरी छटा संध्याकालीन मेघोंके समान हो गयी थी ॥ ८२ ॥ १.[च] वीभत्सतामें कवि किसी स्थान पर मरे हुए हाथियोंकी इतनी देहें इकट्ठी हो गयी थीं कि वहाँ निकलना भी असंभव हो गया था, कहीं २. [ द्रुतं ] । सप्तदशः सर्गः [३२७] Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितः क्वचिच्च क्वचिदेव नग्नः क्वचित्पुनः शूरगति प्रपन्नः । क्वचिच्च नीचः क्वचिदेव तुमः क्वचिज्जयं प्राप्य भृशं जहर्ष ॥४॥ इति गजरथवाजिपादभारैविपुलबलैः समदैश्चतुविधैस्तैः । उभयनृपयशोवसन्तभूतनिचिततया बभूव मिश्रयुद्धम् ॥ ८५ ॥ ललितपुरपतेनराधिपस्य प्रथितधियो मधुराधिपस्य राज्ञः । यवभवदनयोविशेषयुद्धं तदहमशेषमतस्तु संप्रवक्ष्ये ॥८६॥ सप्तदवः सर्गः इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते मिश्रकयुद्धो नाम सप्तदशमः सर्गः । TRE पर घोड़ोंके अंगोंके ढेर हो गये थे, कहीं कहीं पर छिन्न मस्तक शरीर ( कबन्ध ) जोरोंसे नाच रहे थे । इन सब कारणोंसे समर॥ भूमिकी भीषणता चरमसीमा तक पहुँच गयी थी ।। ८३ ।। कहीं पर लोग मूच्छित होकर शान्त पड़े थे, कहींपर भग्न शरीर लोगोंके ढेर थे, किसी अन्य स्थान पर लोग लगातार वीरगतिको प्राप्त हो रहे थे। कहींपर समरभूमि गहरी मालूल देती थी तो दूसरी ओर शवों आदिके ढेरसे पर्वत समान उन्नत । हो गयी थी, कहीं पर लोग विजय होनेके कारण आनन्द विभोर हो रहे थे ।। ८४ ॥ I इस प्रकार दोनों ओरसे उद्धत तथा मत्त हस्ति, अश्व, रथ तथा पदाति चारों प्रकारकी विशाल सेनाएँ मथुराधिप और ललितेश्वरके यशरूपी शिरोभूषणके समान हो रही थीं। इनके अतिरिक्त घोर संघर्षके कारण वह युद्ध मिला हुआ-सा (अर्थात् । कौन जोत रहा है इस अनुमानके अयोग्य या समान ) प्रतीत होता था ॥ ८५ ॥ प्रजाओंको परमप्रिय नीतिपटु ललितपुरेश्वर तथा प्रसिद्ध तथा प्रख्यात कुबुद्धि मथुराधिप इन दोनोंके बीच जो विशेष वैयक्तिक संघर्ष हुआ था उसे मैं इसके आगे विस्तृत रूपसे कहता हूँ॥ ८६ ।। चारों वर्गसमन्वित सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक __ धर्मकथामें मिश्रकयुद्ध-नाम सप्तदश सर्ग समाप्त । [३२८] २. [सप्तदशः]। १. [ भग्नः]। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग अष्टावकः सर्गः चरितम् अष्टादशः सर्गः नरेश्वरा ये मधुराधिवस्य भृत्याः प्रकृत्यर्थपराः समेताः । तान्सामवानप्रमुखैरुपायैः स देवसेनः स्ववशे चकार ॥१॥ ततो महत्त्वं त्वविगण्य तस्य जिगीषया नीतिपराक्रमाभ्याम् । तवेन्द्रसेनेन स योद्ध कामः स्वयं प्रतस्थे खलु देवसेनः ॥२॥ संतेजनोपायविधानमार्गः प्रोत्साह्यमानामथ सान्त्वदानैः । विजेतुकामोऽथ वरूथिनीं तां व्यूह विधिज्ञः कृतवानभेद्यम् ॥ ३॥ कृतोपधानाः खलु योधमुख्याः पृष्टा यथाकामममृत्युभीताः । अन्वागता येऽप्यनुरागिणश्च सवाहनास्तान्प्रशशास योद्धम् ॥४॥ अष्टादश सर्ग नीतिसे रणसंचालन मथुराधिप इन्द्रसेनके साथ जो अनेक राजा आये थे वे तथा उसके अधिकांश सेवक स्वभावसे ही अर्थलोलुप थे। उन्हें अर्थसंचयकी अभिलाषा ही ने इन्द्रसेनके अनुगामी बननेके लिए बाध्य किया था। फलतः महाराज देवसेनने उनको साम, दान आदि उपायोंका प्रयोग करके उन सबको मथुराधिपसे फोड़ कर अपने वशमें कर लिया था ॥ १ ॥ विजयकी सदिच्छासे प्रेरित होकर कूटनीति तथा पराक्रमके द्वारा उक्त प्रकारसे शत्रुके महत्त्वको घटाकर महाराज देवसेनने स्वयं लड़नेका निश्चय किया था। वे अहंकारी इन्द्रसेनके साथ साक्षात् युद्ध करके उसे व्यक्तिगत युद्धमें ही हराना चाहते थे ॥२॥ महाराज देवसेन रणनीतिके पंडित थे और शत्रुको सर्वथा परास्त करनेकी दृढ़ प्रतिज्ञा कर चुके थे अतएव उन्होंने अपनी विशाल सेनाकी फिरसे इस प्रकार से ब्यूह रचना की थी, कि उस व्यह रचनाके कारण उसकी पंक्तिको किसी दिशासे तोड़ देना असंभव ही था। जिस ओर सैनिकोंका उत्साह शान्त होता दिखता था उस ओर पुरस्कार आदिकी घोषणाके द्वारा वे । उत्तेजित किये जाते थे। तथा जिधरके सैनिक उत्तेजित होकर व्यहको शिथिल करना चाहते थे उन्हें उचित उपायोंसे शान्त किया जाता था ॥३॥ विश्राम करके लौटे हुए प्रधान योद्धा उस समय खूब पुष्ट थे। मृत्युके भयको तो उन्होंने बिना किसी प्रलोभनके ही नष्ट कर दिया था। इनके अतिरिक्त राजभक्त तथा राष्ट्र और कर्तव्यके समर्थक लोग स्वेच्छासे ही अपने-अपने वाहनों PRESENTERRORIAGIRIDIURRIAGE [३२९) ४२ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्षः स्वभावतः शूरतमाः कृतास्त्रा लब्धाभ्यनुज्ञाश्च पुन पेण । इतस्ततः शत्रुचमू वरास्त्रैनन्तो विचेरुयुधि कालकल्पाः ॥५॥ एवं प्रवृत्तं समरं सुघोरं महार्णवक्षुब्धतरङ्गलोलम् । शस्त्रातिसंघट्टनजातवह्नि समीक्ष्य राजा च तदेन्द्रसेनः ॥६॥ बलाहकाख्यं वरवारणेन्द्रं द्रुतं समारुह्य गृहीतशस्त्रः । षड्भिर्गजानां तु वृतः सहस्रः किमास इत्येतदथाजगाम ॥ ७॥ आयान्तमालोक्य तदिन्द्रसेनं' महेन्द्रविक्रान्तमपारवीर्यः । करीन्द्रवृन्दैविजयोऽभ्युपेत्य पुरःसरी तस्य चम् रुरोध ॥८॥ सर्गः REASURGETrailssuspensEURDER पर आरूढ़ होकर सेनाके साथ चले आये थे । महाराज देवसेनने इन सबको भी उस अन्तिम युद्धमें भाग लेनेके लिए आज्ञा दी थी॥४॥ शस्त्रकलाके विशेषज्ञ महावीरोंको स्वभावसे ही युद्धमें आनन्द आता था, इसपर भी उस समय तो उन्हें महाराजको आज्ञा प्राप्त थी। परिणाम यह हुआ कि वे अपने तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रोंके द्वारा शत्रुसैन्यको मारते हुए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे। उस समय वे संग्राम भूमिमें घूमते हुए साक्षात् यमोंके समान मालूम देते थे ॥ ५॥ ललितपुरके देशभक्त वीर तूफान आने पर समुद्र क्षुब्ध हो जाता है तथा उसमें ऊँची भीषण लहरें उठनेपर जो दृश्य होता है, वही उस समय चलते हुए घोर तथा दारुण संग्रामका भी हाल था । शस्त्र इतने बल तथा वेगसे चल रहे थे कि उनके आपसमें टकराने पर आगके तिलंगे निकल पड़ते थे ।। ६ ।। मधुराधिपका आक्रमण इनको देखते ही मथुराधिप इन्द्रसेनने स्वयं शस्त्र उठाया था, एक क्षण भी नष्ट किये बिना वह बड़ी शीघ्रतासे बलाहक नामके अपने उत्तम हाथीपर चढ़ गया था। 'मैं अब भी क्यों बैठा हुआ हूँ।' यह कहकर उसने प्रयाण कर दिया था तथा उसे चारों ओरसे घेरे हुए छह हजार हाथियोंकी विशाल सेना चल रही थी ।।७।। इन्द्रसेनके शारीरिक वीर्यका पार न था, वह महेन्द्रके समान पराक्रमी था अतएव ज्यों ही अपनी सेनाके साथ उसे अपने ऊपर आक्रमण करते देखा ल्यों ही सुशिक्षित उत्तम हाथियोंकी विपुल सेना लेकर महामंत्री विजयने आगे बढ़ती हुई मथुराकी सेनाको रोक दिया था ॥ ८॥ E [३३० LESEASILLAI १. [तमिन्द्रसेनं ] Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः चरितम् आकर्णपूर्णानि शरासनानि कृत्वैव लक्ष्येषु निपात्य वृष्टीः । अन्योन्यमिष्वस्त्रविदः समेताः समन्ततः 'संविविधुः प्रसह्य ॥९॥ गजाधिरूढस्तु निपात्यमानास्ते शङ्कवो हस्तिषु बद्धपिच्छाः । शिखण्डिनः पर्वततुङ्गकूटान्निलीयमाना इव पर्वतेषु ॥ १० ॥ तेषां तु संनाहवतां गजानां मुखेषु संयन्त्रिवचोवितानाम् । आदन्तवेष्टादितरेतरस्य दन्ता ममणुढलोहबद्धाः ॥११॥ ते तोमराघातविभिन्नगात्राः प्रचक्षरल्लोहिततीव्रधाराः । गजा मदान्धाः समरे रिपूणामौत्पातिकाम्भोधरभीमरूपाः ॥ १२॥ सर्गः मन्यमयमयIचमचयरमा HIROIRALAGHEIRDIRE शस्त्र-संचालनमें अत्यन्त पटु दोनों ओरके सैनिक अपने-अपने लक्ष्यों पर एकटक आँख गड़ाकर शरासन (धनुष ) को कानके पासतक खींच ले जाते थे, तब बाण छोड़कर अकस्मात् ही एक-दूसरेको वेध देते थे। यह दृश्य सारे समरांगणमें उस समय लगातार दृष्टिगोचर होता था ॥९॥ विजयमंत्रीका प्रतिरोध हाथियों पर आरूढ़ योद्धाओंके द्वारा शत्रु हाथियों पर ही चलाये गये पूछ युक्त शंकु ( विशेष प्रकारके भाले ) उनकी विशाल देहोंमें फँस जाने पर ऐसे मालम देते थे मानों पर्वतोंके ऊँचे-ऊँचे शिखरोंमें मोर घुस गये हैं और उनके पंखे ही बाहर रह गये हैं ॥ १० ॥ युद्ध में लिप्त हाथियोंके शरीर भी संनाह ( कवच ) से ढके हुये थे तो भी जब वे कुशल महाबतोंके द्वारा आगेको हाँके जाते थे तो वे एक-दूसरेसे भिड़ जाते थे तथा संनाहके कारण शरीरमें कहीं भेद्य स्थान न मिलनेके कारण लोहेसे मढ़े हुए उनके विशाल दाँत एक दूसरेके मुखोंमें पूरेके पूरे धंस जाते थे ॥ ११ ॥ हस्तियुद्ध तोमर आदि तीक्ष्ण तथा विशाल आयुधोंके आघातसे हाथियोंकी देहें फट जाती थीं, घाँवोंमेंसे रक्तकी मोटी-मोटी धाराएँ वेगके साथ बह निकली थीं। किन्तु वे मादक द्रव्य पिलाकर उन्मत्त किये गये थे फलतः वे भीमकाय पशु उस युद्ध में शत्रओंके लिए प्रलयकालीन मेघोंके समान भयंकर और घातक हो रहे थे ॥१२॥ CEIGIT [३३१ न्याचाराम १. क संविदधुः। २. [ परिक्षरल्लोहित ]| ALS Jain Education international Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् गदाश्च गुर्व्यः परिघा बृहन्तो निशातधारा दृढशक्तयश्च । निपात्यमाना युधि योधमुख्यैश्चक्रुः परास्तत्करिणः स्वयन्तुन् ॥ १३ ॥ अन्योन्यदन्तस्तु बलाद्गजेन्द्रा उपाट्य रोषाद्विस' तत्क्षणेन । स्वलोहिताद्वैरभिजघ्नुरन्यान्नीराजनायामिव तैरलातैः ॥ १४ ॥ योधान्गजस्योध्वंगतांस्तु केचित्सपूर्वमध्यान्तनिषादिनोऽन्यान् । संबन्धविद्धैनिशितैः पृषत्कनिपातयामासुरपेत्य धीराः ॥ १५ ॥ विनिश्चितार्था विजयस्य योधा धनुर्विमुक्तैरिषुभिः किरन्तः । उपेन्द्रसेनस्य बलं विशालं पराङ्मुखीचक्ररतुल्यवीर्याः ॥ १६ ॥ पराङ्मुखानामथ सैनिकानां पृष्ठेषु कान्ताननवीक्षितेषु । बाणा निपेतुर्दवतां जवेन पश्चार्धकायेषु च कुज्जराणाम् ॥ १७ ॥ महा बलिष्ठ प्रधान योद्धाओंके द्वारा उस समय भारी और विशाल गदाएँ, बड़े-बड़े परिघ ( चक्र के आकारका शस्त्र ) तथा अत्यन्त तीक्ष्ण धारयुक्त और उससे भी बढ़कर दृढ़ शक्तियाँ हाथियोंके ऊपर बरसायी जा रही थीं। जिनकी मारसे विचलित होकर हाथी ही नहीं मारते थे अपितु अपने महाव्रतोंको भी परास्त कर देते थे ॥ १३ ॥ हाथी इतने उत्तेजित हो गये थे कि वे क्रोधसे पागल होकर मृणालकी भाँति एक-दूसरेके दाँतोंको सूडसे बलपूर्वक उखाड़ लेते थे और रक्त से लथपथ अतएव तेज लाल रंगयुक्त उन्हीं दाँतोंको तुरन्त ही दूसरोंपर दे मारते थे । उनके द्वारा दाँतोंका फेंका जाना आरतीके समय फेंको गयी फुलझरियोंका स्मरण कराता था ।। १४ ।। कितने ही धीरवीर योद्धा हाथियोंके ऊपर हौदे में बैठे हुए शत्रुओंको अथवा आगे, बीच में या पीछेकी ओर बैठे हुए शत्रुके भटोंको एक ही साथ, भलीभाँति कसे गये तीक्ष्णधारयुक्त वाणोंसे भेदकर पृथ्वीपर गिरा देते थे ॥ १५ ॥ महामंत्री विजयके सैनिक लक्ष्य भेद में सिद्ध थे अतएव वे अपने धनुषोंसे फेंके गये वाणोंको बिल्कुल सटीक रूपसे शत्रुओंपर बरसा रहे थे । फल यह हुआ कि मथुराके युवराज उपेन्द्रसेनकी सेना संख्यामें विशाल होते हुए भी अनुपम पराक्रमी विजयकी सेना द्वारा पराङ्मुख कर दी गयी थी ।। १६ ।। युद्ध यात्रापर आनेके पूर्वं विदाके समय १. म सन् 1 २. [ रोषाद्विसवत् ] । शत्रु पराभवका प्रारम्भ कान्ताओंके मनोहर नेत्रोंके द्वारा देखी गयी पोठोंपर ही उस समय विजयके ३. क पराङ्मुखं । अष्टादशः सर्गः [३३२] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् तेषां पुनः प्रद्रवतां ध्वजाश्च छत्राणि चामीकरदण्डवन्ति । विधूतवालव्यजनानि चैव पेतुः पताकाश्च सवैजयन्त्यः ॥ १८ ॥ उपेन्द्रसेनस्तु विलोक्य सेनां विभज्यमानां विजयप्रधानैः । विहाय लज्जामय विद्रवन्तीमपारसत्त्वः प्रसभं चुकोप ॥ १९ ॥ संनाहिनः स्वान्करिणां समूहांस्ततस्तिरस्कृत्य धनुर्विकृष्य । उपेन्द्रसेनस्त्वरितो ऽभ्यगच्छज्जिघांसया तं विजयस्य सैन्यम् ॥ २० ॥ आयातमारोपितचारुचापं शरैः किरन्तं रिपुवाहिनीं ताम् । स्वतेजसा प्रज्वलितार्कभासं मेने जनः कालमिवोग्ररूपम् ॥ २१ ॥ सैनिकों के वाण पड़ रहे थे क्योंकि शत्रु सैनिक पराङ्मुख होकर अत्यन्त अस्त-व्यस्त होकर भाग रहे थे। सैनिकोंके समान ही मत्त कुञ्जरों की देहके पिछले भाग पर शस्त्र पड़ रहे थे ।। १७ ।। जिस समय वे विमूढ़ होकर भाग रहे थे उसी समय उनकी ध्वजाएँ अपने आप गिर गयी थीं, उत्तम सोनेसे बने डंडों से युक्त छत्र लगातार गिर रहे थे, पहिले जो सुन्दर विजने हिलाये जा रहे थे अब उनको कोई सम्हालता ही न था तथा वैजयन्ती मालाओं से वेष्टित पताकाएँ भी भूमिको चूम रही थीं ।। १८ ।। उपेन्द्रसेन ने देखा कि विजयमंत्रीके सेनापति उसकी सेनाको खंड-खंड करके खदेड़े दे रहे हैं तो उसके क्रोधकी सीमा न रही थी । क्रोधके आवेशमें उसने लौकिक लाज तथा मर्यादाको भुलाकर अपने सैनिकोंपर बुरी तरह बिगड़ना प्रारम्भ कर दिया था ।। १९ ।। शत्रुकी विवेकहीनता सेनाओंके द्वारा सुरक्षित होनेके कारण साधारतया उसकी सेना कठिनाईसे जीती जा सकती थी । किन्तु क्रोधके आवेशमें उसने गजसेनाकी उपेक्षा करके अपने प्रबल धनुषको ही खींचा था। विजय मंत्रीकी विजयी सेनाका संहार करनेकी अभिलाषासे प्रेरित होकर उपेन्द्रसेन उक्तरूपमें ही शीघ्रतासे बढ़ रहा था ॥ २० ॥ अपने विशाल तथा दृढ़ धनुषपर बाण चढ़ाकर शत्रुकी सेनापर मूसलाधार इषुवर्षा करता हुआ वह बड़े वेगके साथ बढ़ा आ रहा था, उसका उस समयका उग्र तेज मध्याह्नके सूर्यके उद्योतके समान चमक रहा था फलतः विजयके सैनिकोंको वह यमके समान भयंकर लगता था ।। २१ ।। अष्टादशः सर्गः [ ३३३ ] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROPPERS अष्टादशः जयश्रिया संजनितानरागैः स्वसैनिकैः संपरिवारितस्तैः। तस्थौ परस्याभिमुखो मुहतं रणाजिरे युद्धमदोपनद्धः॥२२॥ उपेन्द्र सेन प्रतिचोद्ययातास्तद्योधवीरा विदितास्त्रयोगाः।। शरोरुधारास्त्वमुचन्नजस्र प्रावृट्पयोदा इव वारिधाराः ॥ २३ ॥ तच्छौर्यवीर्यप्रतिनष्टचेष्टस्तत्सैनिकाक्रान्तहृतप्रतापः तद्बाणनिभिन्नतनः स मन्त्री तिरोदधे स्म स्वनराधिपेन ॥ २४ ॥ उपेन्द्रसेनाभिहतप्रतापं प्रभग्नसेनं विजयं निरीक्ष्य । कश्चिद्धटस्तूर्णमुपेत्य तस्य स्थितः पुरस्तावनपेतसस्वः ॥ २५ ॥ परितम् सर्गः उपेन्द्रका प्रत्याधात उसके जिन सैनिकोंको विजयश्रीके प्रति दृढ़ अनुराग था वे सबके सब उसको घेरे हुए व्यूहरूपसे उसके साथ, साथ आगे बढ़ रहे थे फलतः युद्धके मदसे अभिभूत होकर वह एक मुहूर्त भरके ही लिए रणनीतिपटु शत्रु के सामने समरभूमिमें जम सका था ॥ २२ ॥ उस समय वह अपने साथ बढ़नेवाले प्रधान सैनिकोंको आगे बढ़नेके लिए प्रोत्साहित कर रहा था अतएव कुशल शस्त्रसंचालक वे योद्धा भी अपने धनुषोंसे वाणोंकी महाधारा ही बरसा रहे थे, मानो वर्षाकालीन मेघ बिना रुके ही मूसलाधार । जलवृष्टि कर रहे हैं ॥ २३ ॥ उपेन्द्रसेनके शौर्य तथा वीर्यके पूरमें महामंत्री विजयको कोई काम करना ही कठिन हो गया था, उसके उद्धत सैनिकोंने उसे चारों ओरसे घेरकर सर्वथा निस्तेज कर दिया था। इतना ही नहीं उपेन्द्रके वाणोंकी मारसे उसका शरीर भी क्षत-विक्षत हो गया था। इन सब कारणोंसे महाराज देवसेनने स्वयं बढ़कर उसे अपनी आड़में ले लिया था ॥ २४ ॥ कश्चिद्भटका आक्रमण उसी समय अद्वितीय योद्धा कश्चिद्भटने देखा कि महामंत्री विजयकी सेना शत्रु के आक्रमणसे छिन्न-भिन्न हो गयी है। तथा मंत्रीका निजी प्रताप ( सूर्य ) भी उपेन्द्रसेनके रणकौशल ( राहु ) के द्वारा ग्रस लिया गया है । तब वह बड़े वेगसे आगे बढ़ा था । और मंत्रीके आगे जाकर शत्र के सामने जम गया था क्योंकि उसका सामर्थ्य तो महायुद्ध करके भी न घटा था ॥ २५ ॥ ARSUREIRIDEUROPERATORS [३३४ १. [ उपेन्द्रसेनं ]। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक बराङ्ग चरितम् सर्गः घण्टारवोन्मिश्रिततूर्यघोषं रत्नप्रभाह पितभानुभासम् । गजेन्द्रकेतुं प्रतिलक्ष्यमाणं गजाधिपं स्वप्रतिमल्लसंज्ञम् ॥ २६॥ आरुह्य नीलाद्रिस'मासकल्पं कश्चिद्भट बालरविप्रकाशम् । घनन्तं स्वसैन्यं प्रसमीक्षमाणस्तमैन्द्रसेनिः प्रसहन्नुवाच ॥ २७॥ किं वा स्ववंशानुचितेन तेन तवार्घराज्येन मुखेन मृत्योः । सुनन्दया वा किमु कालरात्र्या जीवन्नरः पश्यति भद्र भद्रम् ॥ २८॥ नपैनुपाणां समरे प्रवृत्ते नैवासि योग्योऽत्र वणिक्सुतत्वात् । अपोह्य थास्मत्पुरतोऽल्पबुद्ध न्यूने वयं नो भजमुच्छ्यामः ॥ २९॥ लप्सयेऽहमुशिसुतामिति त्वं दुराशया क्लेशमुपैष्यकस्मात् । तादृग्विधं निस्त्रपमप्रवीणं न हन्मि निष्कारणमाशु याहि ॥ ३० ॥ वह अप्रतिमल्ल नामके गजरत्न पर आरूढ़ था जिसके घंटाका धीर गम्भीर आराव तूर्य आदि बाजोंकी ध्वनिमें भी ऊँचा था, उसके गण्डस्थलों आदि अंगोंपर पड़े रत्नोंकी कान्ति सूर्यको प्रभाको भी मन्द कर देती थी, वह अपने ऊपर फहराते हुए ऐरावतके चित्रयुक्त केतुके द्वारा दूरसे पहिचाना जा सकता था तथा उसकी काया नीलगिरि पर्वतके विस्तारके समान थी॥ २६ ॥ इसपर विराजमान महावीर कश्चिद्भट प्रातःकालके सूर्यके समान प्रकाशित हो रहे थे। वे निर्दयतापूर्वक शत्रुकी । सेनाका संहार कर रहे थे। उन्हें ऐसा करता देखकर मथुराधिप इन्द्रसेनके पुत्रने जोरसे हँसते हुए उनको ललकारा था ॥ २७ ॥ उपेन्द्रको वोक्ति हे भद्रपुरुष ! ललितेश्वरके आधे राज्यसे तुम्हें क्या लाभ होगा? राज करना तुम्हारे वंश ( वणिक् ) में अनुचित ही है ( वणिक स्वभावसे नम्र होता है अतएव शासन नहीं कर सकता है ) क्योंकि शासन तो सीधा मृत्युका मुख ही है । इसी प्रकार सुनन्दाको पाकर भी तुम्हें क्या रस मिलेगा ? वह भी तुम्हारे लिए कालरात्रिके समान है ॥ २८ ॥ प्राण बचाओ, मनुष्य जियेगा तो अनेक अभ्युदयोंको पायेगा। यहाँपर राजा लोग राजाओंके साथ लड़ रहे हैं फलतः तुम इस संग्राममें सम्मिलित होनेके अधिकारी नहीं हो, कारण तुम एक सार्थपतिके पुत्र हो । अतएव हे क्षुद्रबुद्धि ? मेरे सामनेसे शीघ्र ही हट जाओ, क्योंकि हम योद्धा लोग अपनेमें नीच पर हाथ नहीं उठाते हैं ॥ २९ ॥ _ 'मैं पृथ्वीपति देवसेनकी राजकुमारीसे व्याह करूँगा।' ऐसी दुराशासे प्रेरित होकर तुम अकारण ही महान कष्टोंको १. क °समान। २. क प्रसमन्, [ प्रहसन् ]। ३. [ अपेह्यथास्मत् ] । SARGANIROHITRitsAROPATELI AR R |३३५ IHIRDS Jain Education interational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशा यदि 'प्रयातं पुरतो न चेच्छेस्तावत्प्रतीक्षस्व मुहूर्तमात्रम् । निकृत्य तेऽङ्गानि नपात्मजाये संप्रेपयाम्यद्य हि मा त्वरिष्ठाः ॥३१॥ उपेन्द्रसेनस्य युवाधिपस्य यवत्वतेजोबलगवितस्य । गिरं निशम्यात्ममनोरुजन्तों कश्चिद्भटः प्रत्यवद्दषा तम् ॥ ३२॥ यो वा स वाहं तव कि मयात्र गजः स एवायमभीप्सितार्थः। मयाधिरूढस्तु सहैव पित्रा त्वां प्रापयत्यद्य यमातिथित्वम् ॥ ३३ ॥ गजं परेषां परराजयानी ग्रहीतुकामस्तु विनैव वैरात् ।। किमागतस्त्वं धनमानदप्तो लज्जान्वितश्चेद्वद जातिधीर ॥ ३४ ॥ सगः क्यों उठा रहे हो। तुम्हारे ऐसे अशक्य अनुष्ठान करनेवाले अकुशल तथा निर्लज्ज व्यक्तिको मैं बिना किसी विचारणीय कारणके। नहीं मारता हूँ; जल्दीसे भागो ॥ ३० ॥ मेरे बार-बार कहने पर भी यदि तुम संघर्ष होनेके पहिले नहीं भागना चाहते हो, तो लो एक मुहुर्त भरके लिए रुक जाओ ताकि मैं वाणोंकी मारसे तुम्हारे एक-एक अंगको काटकर आज ही महाराज देवसेनको पुत्रीके पास भेजता हूँ। ठहरो, अब शीघ्रता मत करो ॥ ३१ ॥ उपेन्द्रसेन अपने यौवनके बल और तेजके अहंकारसे उन्मत्त होकर जिन अकथनीय वचनोंको कह रहा था उन्हें सुनकर महावीर कश्चिद्भटका हृदय क्षत-विक्षत हो गया था अतएव क्रोधसे तमतमा कर ही उन्होंने उस अहंकारी मथुराके युवराजको उत्तर दिया था ॥ ३२॥ कश्चिद्भटकी धीरोक्ति ____ मैं जो कुछ भी हूँ, अथवा वही हूँ जो तुम कहते हो, पर इससे तुम्हें क्या ? मैं आज इस समरस्थलीमें उसी हाथीपर आरूढ़ हूँ जो तुम्हारे उत्कट मनोरथोंका विषय है । इतना ही नहीं आज मैं ही इसपर आरूढ़ रहकर इसे तुम तथा तुम्हारे पिताके ऊपर छोड़ गा और यह तुम दोनोंको निश्चयसे यमका अतिथि बना देगा ॥ ३३ ।। तुम अपनी जातिके ही कारण धीर वोर हो, तुम्हें अपनी प्रभुता तथा सम्पत्तिका अहंकार है तो भी पहिलेसे कोई वैर न रहते हुए भी तुम दूसरे राजाके हस्तिरत्न, राज्य तथा राजधानीको बलप्रयोग करके छीनने आये हो ? यदि इतनेपर भी लज्जा नहीं आती है, तो बको ॥ ३४ ।। १. [ प्रयातु]। SIAचार-230मनाममा " Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् विक्रीतवान्यो' नयवद्विनीतः शूरः कृतास्त्रो न च मृत्युभीरुः । संग्रामकाले स जयत्यरातीनाकृष्यमाणो त्रियते न कश्चित् ॥ ३५ ॥ स्वजीवितेनात्र ममाग्रतस्तु यदि प्रयातो निरुपद्रवेण । प्रेक्षस्व पश्चात्तव मृत्युकल्पं श्रीदेवसेनाख्यमदीनसत्त्वम् ॥ ३६ ॥ अवज्ञयान्यांस्तु विवक्षते' वा यत्किचिदात्मोन्नतिगर्वदग्धः । निरस्तविज्ञानगुणावबन्धः स लाघवं सत्सु परं प्रयाति ॥ ३७ ॥ न केवलं वाक्कलहेन कार्यं निरर्थकेनैवमथावयोस्तु | व्यक्तीभवत्यद्य हि पौरुषस्य सुवर्णसारो निकषाश्मनीव ॥ ३८ ॥ प्रशस्य तावद्वणिजां प्रहारान्प्राणक्षयं कर्तुं मनोहमानान् । इति ब्रुवाणो वरवारणेन्द्र कश्चिद्भटो योद्धमुपानिनाय ॥ ३९ ॥ जो व्यक्ति वास्तवमें विक्रम दिखाता है, तो भी नीति तथा विनम्रताका गला नही घोंटता है, शस्त्र परिचालनमें कुशल होनेके साथ, साथ हृदयसे भी शूर होता है तथा मृत्युसे नहीं डरता है वही घोर युद्ध उपस्थित होनेपर शत्रुओंका पराभव करता है, कोई भी व्यक्ति घसीटे ( चाहे ) जानेपर ही नहीं मरता है ॥ ३५ ॥ यदि किसी भी प्रकारसे तुम आज मेरे सामनेसे उपद्रवमें बिना पड़े ही अपने प्राणोंको बचाकर आगे बढ़ गये तो महाशय ! तुम्हें उस महा पराक्रमीका सामना करना पड़ेगा जो कि महातेजस्वी और पुरुषार्थी है। तथा तुम्हारे लिए साक्षात् मृत्यु है, वे हैं ललितेश्वर महाराज देवसेन || ३६ || क्षणिक उन्नति अहंकारसे अन्धा होकर जो व्यक्ति दूसरोंकी अवज्ञा करता है तथा जो कुछ भी मनमें आता है उसे खूब विकृत करके कहता है। पदार्थों के विशेष ज्ञान तथा शिष्टता आदि गुणोंकी सम्पत्तिसे हीन वह व्यक्ति जब सज्जनोंके सामने आता है तो उसका पतन अवश्य होता है ॥ ३७ ॥ इसके सिवा केवल वाचनिक युद्धसे क्या लाभ है, वह तो सर्वथा निरर्थक है । आजके घोर संघर्ष में ही हम दोनोंका पुरुषार्थं उसी प्रकार संसारके सामने आ जायेगा। जिस प्रकार कसौटीपर कसते ही सोनेका सार ( शुद्धि ) तुरन्त व्यक्त हो जाता है ॥ ३८ ॥ लो, सामने आओ और सार्थंपतिके पुत्र वणिकके प्रहारोंकी और प्रशंसा करो क्योंकि वे ( प्रहार ) तुम्हारे प्राणोंका १. [ विक्रान्तवान्यो ] । २. क विवक्षिते । For Private Personal Use Only अष्टावप सर्गः [ ३३७ ] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अभ्यर्णमायान्तमुपेन्द्रसेनः समीक्ष्य कोपायतता दृष्टिः । बलाहकं ताम्रगिरिप्रकाशं कश्चिद्भटस्याभिमुखं निनाय ॥ ४० ॥ मृगेन्द्रशावाविव संप्ररुष्टौ युद्धातिशौण्डाविव भर्त्सयन्तौ । परस्परं व्यद्धुमयः शरौघैः प्रारब्धवन्तौ प्रतिबद्धवैरौ ॥ ४१ ॥ बृहत्पृषत्कैस्त्वथ वत्सदन्तैः सूचीमुखैः' पूर्णतमार्धचन्द्रैः । कर्णेषु नाराचवरैश्च तीक्ष्णैरविध्यतां तौ च परस्परं हि ॥ ४२ ॥ ताभ्यां धनुर्वेदविशारदाभ्यां विमुक्तनाराचशरोरुवर्षाः । विभासमानाः खतलं वितत्य वर्षासु धारा इव संनिपेतुः ॥ ४३ ॥ नाश तो करना ही नहीं चाहते हैं।' इस प्रकारसे शिष्ट शैलीमें शत्रुको उत्तेजित करते हुये कश्चिद्भटने अपने सर्वोत्तम हाथीको टक्कर लेनेके लिए आगे बढ़ा दिया था ।। ३९ ।। क्रोधोन्मत्त उपेन्द्र कश्चिद्भकी सौम्य भर्त्सनाने उपेन्द्रसेनको इतना कुपित कर दिया था कि उसकी पूरी आँखें लाल हो गयी थीं। इसी अवस्थामें उसने कश्चिद्भटको अपने निकट आता देखकर ताम्बेके पर्वत के समान विशाल तथा दृढ़ अपने बलाहक नामके हाथीको उसके सामने की ओर ही बढ़ा दिया था ॥ ४० ॥ उस समय कश्चिद्भट तथा उपेन्द्रसेन यह दोनों ही सिंहके किशोरोंके समान कुपित थे, युद्धकलामें सर्वोपरि दक्ष वीरों• उपयुक्त एक दूसरेकी भर्त्सना कर रहे थे, परस्परमें एक दूसरेके प्रति उनके हृदयोंमें गाढ़ वैरभाव बँध चुका था। अतएव एक दूसरेको छेद-भेद देनेके लिए उन्होंने लोहेके तीक्ष्ण बाणोंकी बौछार प्रारम्भ कर दी थी ।। ४१ । युवराज- द्वन्द्व पहिले उन्होंने बड़े-बड़े बाणोंकी वृष्टि की थी उसके उपरान्त वत्सदन्त ( दांतीयुक्त वाण ) प्रहार किये थे । कभी वे सुकी नोक के समान तीक्ष्ण मुखवाले वाणोंको फेंकते थे तो दूसरे ही क्षण अर्धचन्द्र समान मुखके वाणों द्वारा आघात करते थे । अत्यन्त तीक्ष्ण तथा उत्तम विधिसे बने वाणोंके द्वारा कानोंपर मार करते थे। इस प्रकार वे एक दूसरेको छलनीके समान छेदते 'जा रहे थे ।। ४२ ।। वे दोनों ही युवराज धनुष विद्या के पंडित थे फलतः जब वे अपने दृढ़ धनुषोंके द्वारा वेगसे वाणवर्षा करते थे, तो वे सब १. क शचीमुखः । अष्टादशः सर्गः [ ३३८] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अन्योन्यमर्माणि निरीक्षमाणावन्योन्यशस्त्राणि च वञ्चयन्तौ । स्वसन्धिमर्माण्यभिपालयन्तौ शार्दूलपोताविव भसंयन्तौ ॥ ४४ ॥ सर्वायसैः प्रासवरैश्च शूलैश्चक्रैश्च गोलायसंशङ्कभिश्च । 'सभिण्डिमालैः कणपैश्च तीक्ष्णरनेरिवादि क्षिपतः स्म तूर्णम् ॥ ४५ ॥ उपेन्द्रमुक्तानि वरायुधानि विकुण्ठितान्यप्रतिमल्लमूनि । मुखे ममज्जुर्वणिजात्मजेन मुक्तानि तानीन्द्रसुतहिपस्य ॥ ४६ ॥ अथेन्द्रसेनस्य सुतेन मुक्ता ममज्जु मूर्ना प्रतिमल्लनाम्नः । बलाहकस्योन्नतकुम्भभेदं चकार कश्चिद्भटमुक्तशक्तिः ॥ ४७॥ अष्टादशः सर्गः वाण धारावाही रूपसे उनके बीचके आकाशमण्डलको वैसे हो ढक लेते थे जैसे कि वर्षाऋतुमें मूसलाधार बरसती हुई वृष्टि व्याप्त कर लेती है ॥ ४३ ॥ दोनों ही एक दूसरेके मर्मस्थलों तथा छिद्रों ( अरक्षित अंगों ) को लक्ष्य बना रहे थे। इससे भी अधिक तत्परतासे आपसी आघातों और शस्त्रोंकी मारको कुशलतासे बचा जाते थे। अपने-अपने शरीरोंकी संधियों तथा सुकुमार स्थान नेत्र आदिको पूर्ण रक्षा कर रहे थे, सिंहके किशोरोंके समान एक दूसरेपर गुर्रा रहे थे ।। ४४ ॥ नीचेसे ऊपर तक लोहे, तथा लोहेसे बनाये गये बढ़िया प्रास ( फरसेका भेद ) शूल (विशेष भाला ) चक्र तथा गोलाकार लोहेकी ही विशाल वरछियोंके द्वारा परस्परमें प्रहार करते थे, तथा भिन्दिपाल ( दण्डाकार अस्त्र ) कणप (बरछा-भाला) आदि अत्यन्त धाराल शस्त्रोंके द्वारा वैसे ही आघात कर रहे थे जैसे एक पर्वतपरसे दूसरे पर्वत पर आक्रमण हो रहा हो ॥ ४५ ॥ मथुराके युवराज उपेन्द्रके द्वारा चलाये गये सब शस्त्रास्त्र अप्रतिमल्ल हाथीके मस्तकसे टकराकर बिल्कुल कुण्ठित होना जाते थे। किन्तु तथोक्त वणिक् पुत्रके हाथोंसे मारे गये अस्त्र इन्द्रसेनके सुतके हाथीके मुखमें लगातार धंसते जाते थे॥ ४६॥ - इसके बाद ही उपेन्द्रसेनके द्वारा फेकी गयी महाशक्ति हस्तिरत्न अप्रतिमल्लके शिरमें आकर चुभ ही गयी थी। किन्तु जब वेगके साथ कश्चिद्भटने शक्तिको चलाया तो उसने मथुराके युवराजके हाथी बलाहकके उन्नत कुम्भोंको फोड़ ही डाला था ।। ४७ ॥ ३३९) १. [ सभिन्दिपालैः ] ! २. क ममज्जु, [ ममज्ज मूनि ] । Jain Education international . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ILearn वराङ्ग चरितम् AADHAARATOPATGARAMETA उपेन्द्रसेनाहतशस्वस्ते निपेतुराश प्रतिमल्लनि । कश्चिद्भटप्रेरिततोमराणि बलाहकानावयवानभिन्दन् ॥ ४५ ॥ तौ वारणेन्द्रौ भवतस्तदानीं व्रणाननेभ्यः स्तरक्तधारौ। अष्टादशः उल्काभिघातक्षतभिन्नरूपौ यथा नगौ स्यन्दितधातुधारौ ॥४९॥ सर्गः असक्परिक्लिन्नतमाङ्गरागो गलोज्ज्वलत्काञ्चनरज्जुबद्धौ । सविद्युतौ सान्ध्यवर्भूतौ तौ विरेजतर्वारिधराविवेभो ॥५०॥ अन्योन्यमुक्तानि च तोमराणि सर्वायसान्यप्रतिमद्युतीनि। नभस्तले रेजुरतीव तानि सविधुदुल्का इव संपतन्त्यः ॥५१॥ उपेन्द्रसेनेन विमुक्तशक्तिः करेण वामेन निपात्य भूमौ ।। कश्चिद्भटो दक्षिणबाहुनाशु जघान शक्त्या हृदि सर्वशक्त्या ॥५२॥ तब उपेन्द्रसेनने पूरे बलके साथ अप्रतिमल्लपर शंकुओंको मारा था जो कि उसके सुदृढ़ मस्तकपर लगकर नीचे गिर गयी थी, किन्तु जब इसका उत्तर देते हुए कश्चिद्भटने तोमरोंको फेंकना प्रारम्भ किया तो उनके द्वारा बलाहकके अंग और अवयव ही कटने लगे थे ।। ४८ ।। कविकी पिनक उस दारुण संग्रामके बीच उन दोनों श्रेष्ठ हाथियोंको अनेक घाव लगे थे जिनमेंसे रक्तकी मोटी धार बह रही थीं। अतएव वे ऐसे लगते थे मानो उल्कापातके आघातसे पहाड़ फट गये हैं और उनमेंसे गेरू धुले हुए जलके झरने फूट पड़े हैं ।। ४९ ॥ घावोंसे बहते हुए रक्तके लेपसे उनके पूरेके पूरे शरीर खूब लाल हो गये थे, उनकी ग्रीवाओंपर अत्यन्त चमचमाती । हुई सोनेकी शृंखलाएं बंधी हुई थीं। अतएव उन्हें देखनेपर ऐसा आभास होता था मानो सन्ध्याके रागसे लाल हुए वारिधरों (मेघों) में बिजली चमक रही हो ॥ ५० ॥ वे दोनों ही एक दूसरे पर तोमरोंका प्रहार कर रहे थे जो पूरेके पूरे लोहेसे बने थे तथा स्वच्छता और मांजनेके कारण उनकी चमक अनुपम हो गयी थी । फलतः छोड़नेके उपरान्त जब वे आकाशमेंसे उड़कर गिरते थे तो चमकती बिजली युक्त वज्रके गिरनेकी भ्रान्ति हो जाती थी। ५१ ।। [३४०) इसी समय उपेन्द्रसेनने पूरे बलके साथ कश्चिद्भटके ऊपर शक्तिको चलाया था, जिसे उन्होंने अपने बाँये हाथसे रोककर । पकड़ कर भूमि पर फेंक दिया था तथा अपने दांये हाथके द्वारा तुरन्त ही सर्वशक्ति आयुधको चला कर उपेन्द्रसेनके हृदयपर । प्रबल प्रहार किया था ॥५२॥ Jain Education international Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्तीषणशक्तिप्रहतोऽभिपद्य चक्रेण सन्ध्यार्कवपुर्धरेण । पाश्चात्यमप्याशु निपात्य भूमौ कश्चिद्भटस्य प्रचकर्त केतुम् ॥ ५३॥ किं वा त्वयाहं चिरमत्र योत्स्ये वणिक्सुतेनास्त्रगुणाश्रयेण'। इति प्रभाष्य प्रतिभय॑नीतिमुमोच चक्रं पुनरैन्द्रसेनिः ॥ ५४॥ आयान्तमालोक्य हि कालचक्र तद्वञ्चयित्वा स्थिरषोः सुचक्रम् । धृतं प्रगह्यान्यदमोधचक्र चिच्छेद हस्तं कटकावनद्धम् ॥ ५५॥ भूयोऽप्युपेन्द्रस्य हि पारिपार्वान्निहत्य तूर्ण कणपप्रहारैः। ध्वजातपत्रामलचामराणि निपातयां भूमितले बभूव ॥ ५६ ॥ अष्टादशः सर्गः कश्चिद्भटकी तीक्ष्ण शक्तिके आघातसे तिलमिला कर उपेन्द्रसेनने चक्रके द्वारा प्रहार किया था जो कि सन्ध्याकालीन सूर्यके समान विशाल और भयंकर था । उस चक्रने कश्चिद्भटके पोछे बैठे योद्धाको शीघ्र ही पृथ्वीपर गिराकर उसके उन्नत केतुको काट डाला था ।। ५३ ॥ घात-प्रत्याघात 'किसी प्रकारसे शस्त्र परिचालनकी शिक्षाको प्राप्त करनेवाले तुम्हारे ऐसे वणिकसुतके साथ मेरा ऐसा योद्धा अब और अधिक कालतक लड़ कर क्या करेगा?' इस प्रकार बकते हुये कश्चिद्भटकी भर्त्सना करनेके उपरान्त ही इन्द्रसेनके अहंकारी पुत्रने नीति ( शस्त्र विशेष ) नामके घातक चक्रको अपने शत्रुपर चला दिया था । ५४ ॥ कालचक्रके समान अपने ऊपर आते हुए उपेन्द्रसेनके नीतिचक्रको देखकर भी उसकी बुद्धि जरा भी नहीं घबड़ायी थी । अतएव वह उसे सहज ही व्यर्थ कर चुका था । इतना ही नहीं इसी अन्तरालमें उसने एक सर्वोत्तम चक्रको जिसका गोलाकार आघात कभी व्यर्थ न जाता था शीघ्रतासे उठा कर उपेन्द्रसेनपर मारा था और उसके कटक भूषित बाँहको काटकर फेंक दिया था ॥ ५५॥ इसके पश्चात् लगातार शस्त्रवर्षा करके उसने उपेन्द्रके आस-पासके योद्धाओंको मार डाला था। वह विद्युत् वेगसे कणपोंका प्रहार कर रहा था जिनके द्वारा उसने उपेन्द्रकी ध्वजा, आतपत्र, शुभ्र तथा निर्मल चमर आदि काट-काट कर पृथ्वीपर बिखेर दिये थे ॥५६॥ [३४१] । १. म गुणाश्रमेण । Jain Education international Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अष्टादशः सर्गः शिक्षाबलेनात्मपराक्रमेण छिन्नैकहस्तः पुनरैन्द्रसेनिः । मुहर्तमेवं युयुधेऽतिवीरो भग्नकदन्तो द्विरदो यथैव ॥ ५७॥ कश्चिद्भटोऽस्त्राण्यमुचद्विशङ्को द्वाभ्यां भुजाभ्यां द्रुतमायताभ्याम् । जवेन गत्वा विविशुः शरोरे यथोरगेन्द्रा विवरेऽच लस्य ॥५॥ उपेन्दसेनस्य वरायुधानि सव्येन हस्तेन विनिःसतानि । ययुः पुनस्तानि च मन्दमन्दं लूनकपक्षा विहगा यथैव ॥ ५९ ॥ निर्वीर्यतां राजसुतस्य बुद्धवा कश्चिद्भटश्चारुभटोऽतितूर्णम् । गजं गजेन्द्राप्रतिमल्लनाम्ना वलाहकं वायुरिवोन्म'मर्धी ॥ ६०॥ दिवा इषन्तं प्रतिभग्नदन्तं बलाहकं चाप्रतिमल्लनागः। प्रहत्य तूर्ण करपावदन्तहस्तेन हस्तं करिणो न्यका'सीत् ॥६१॥ इन्द्रसेनके पुत्रका यद्यपि एक हाथ कट चुका था तो भी उसकी आयुधशिक्षा तथा पराक्रम इतने परिपूर्ण थे कि उनके बलपर ही वह अतिवीर एक मुहूर्त पर्यन्त अपने शत्रुसे वैसे ही भिड़ता रहा था जैसे कि मत्त हाथी एक दाँत टूट जानेपर भी अपने प्रतिद्वन्द्वी हाथीसे टक्कर लेता रहता है ॥ ५७ ।। इस अवस्थामें अपाततः कश्चिद्भट निशंक हो गया था। तथा शीघ्रतासे चलती हुई अपनी दोनों विशाल बाहुओंके द्वारा शत्रुपर सतत शस्त्र बरसा रहा था। वे सब शस्त्र वेगसे शत्रुतक पहुँच कर उसके शरीरमें ऐसे फंस रहे थे जैसे कि पर्वतके छिद्रोंमें बड़े-बड़े सांप घुसते हैं ।। ५८ ॥ उपेन्द्रसेन भो अपने बाँये हाथके द्वारा उत्तमसे उत्तम शस्त्र चला रहा था किन्तु एक हाथके बलसे पर्याप्त प्रेरणा न मिलनेके कारण वे शस्त्र धीरे-धीरे जाते हुए ऐसे लगते थे मानो एक-एक पंखा बटे पक्षी ही उड़े जा रहे हैं ।। ५९ ॥ द्वन्द्वका चरमोत्कर्ष कुशल तथा सुन्दर योद्धा कश्चिद्भटको इन्द्रसेनके राजपुत्रकी वीर्यहीनताको समझनेमें देर न लगी, उसे अकर्मण्य जानकर उसने हस्तिराज अप्रतिमल्लको शत्रुके वलाहक नामके हाथीपर बढ़ा दिया था जो कि वायुके समान वेगसे उसपर जा टूटा था ।। ६०॥ ___विचारे बलाहकका एक दाँत पहिले ही टूट चुका था। वह तो किसी प्रकार वीरगतिकी कामना कर ही रहा था। १. [ °ममद ] | २. [ न्यकाक्षीत् ] । CIRCLAIMIRRIGARELURStorIRIRGI N Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः वराज चरितम् सर्गः शक्ति सुतीक्ष्णां त्वरया विगृह्य सूपेन्द्रसेनोरसि निमुमोच। विभिद्य वक्षस्स्थलमीश्वरस्य ममज्ज भूमावतिचण्डवेगा । ६२॥ शक्तिप्रहारेण विभिन्नदेहं भ्रान्तेक्षणं वीक्ष्य वणिक्सुतस्तु। उद्धृत्य खड्गं च तटित्प्रकाशं शिरश्च तस्य प्रचकर्त शूरः ॥ ६३ ॥ चलज्ज्वलत्कुण्डलमण्डितास्यं मणिप्रभारज्जितसत्किरीटम्। शिरः पपातेन्द्रसुतस्य तस्य सौरं यथा मण्डलमस्तमूनि ॥ ६४ ॥ मानोन्नतं नावनतं परेभ्यो दोलायमानं भ्रमरावलीकम् । शिरः सपाद विनिपात्य भूमौ प्रफुल्लपमाकृतिमादधार ॥६५॥ प्रभज्जनप्रेरितनीरदे खे दुःप्रेक्षतां याति यथा ग्रहेन्द्रः। तथारिपक्षक्षपणोदितथीः कश्चिद्भटश्चारुभटो बभूव ॥६६॥ TALASERASNARELATIमचममा ऐसी अवस्थामें हस्तिराज अप्रतिमल्लने सूड, पैर तथा दाँतोंकी प्रहारोंकी मार देकर उसकी सूडको अपनी सूड़के द्वारा उपार लिया था ।। ६१ ॥ - इसी समय कश्चिद्भटने अति तीक्ष्ण शक्तिको पलक मारते भरमें उठाकर उपेन्द्रसेनके वक्षस्थलमें भोंक दिया था। । उस शक्तिका वेग इतना दारुण था कि वह राजपूत्रके वक्षस्थलको पार करती हई जाकर पृथ्वोमें धंस गयी थी ।। ६२॥ शक्तिके मारक आघातसे शरीर भिद जाने पर विचारे उपेन्द्रसेनकी आँखें घमने लगी थीं। उसे इस अवस्थामें देखते हो तथोक्त वणिकपुत्रने बिजलीके समान चमकते हुए खड्डको निकालकर वीरोचित ढंगसे उसके शिरको काट लिया था ॥ ६३ ।। मथुराके युवराजका सुलक्षण मुख चंचल तथा प्रकाशमान कुण्डलोंसे भूषित था तथा विशाल शिपर बँधे हुए उत्तम मुकुटमें जड़े हुए मणियोंकी प्रभासे मुख, मस्तक आदि सब ही अंग रक्तवर्ण हो गये थे, ऐसी शुभ छटायुक्त शिर जब कटकर भूमिपर लुड़क गया तो ऐसा मालूम हुआ था कि मानो अस्त हुआ रक्तवर्ण सूर्यमण्डल ही अस्ताचलपर जा पड़ा था। ६४ ॥ उपेन्द्रको वीरगति वह शिर अहंकारके मदमें सदा ऊँचा ही रहा था, कभी किस विरोधीके सामने न झुका था किन्तु समयके फेरसे बाध्य I होकर उस समय जोरसे ध्वनि करता हुआ पृथ्वीपर जा गिरा था। उस समय भी हिलाते हुए घघराले वालोंरूपी भ्रमरोंकी पंक्तियाँ उसपर गूंज रही थी अतएव उसकी वह आकृति पूर्ण विकसित कमलकी आशंका उत्पन्न कर देती थी ॥ ६५ ॥ जब जोरोंसे हवा ( आँधी) बहतो है तो उसके झोंके मेघोंको देखते ही देखते कहींसे कहीं उड़ा ले जाते हैं तब ग्रहों १. [सोऽपीन्द्रसेनोरसि । २. क सत्तिरीटम् । ३. [ सपातं ] । [३४३] For Privale & Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग संप्राप्य युढे विजयावतंसं स्वसैनिकानां मुबमावधानः । महाबलः सिंहनिनावमुच्चैर्ननाद चेतो द्विषतां च भिन्दन ॥ ६७॥ अथोभयोभूपतयो नृसिंहाः स्वमानविश्रम्भरसोरुवीर्याः । स्वान्स्वान्करीन्द्रानधिरुह्य सर्वे संना युद्धाभिमुखा बभूवः ॥६॥ ततः करीन्द्राः प्रतिगर्जयन्तो वाग्वीरनादागतमेघतुल्याः । परस्परं पदकराग्रदन्तैर्जघ्नुः सयोधाः समुपेत्य चण्डाः ॥ ६९ ॥ मुख'ण्डिभिः शक्त्यसियष्टिभिश्च चक्रगदाभिः कणपश्च टङ्कः। समुदरैस्तोमरसर्वलोहैः परस्परं ते च भशं प्रजह्न ॥७०॥ अष्टावक्षः सर्गः चरितम् का राजा सूर्यभी आकाशमें कठिनाई से दिखता है तथा उसको कान्ति देखते ही बनती है। इसी प्रकार कुशल योद्धा कश्चिद्भट के शत्रुओंरूपो मेघोंको तितर-वितर कर दिया था फलतः उसकी पराक्रम-श्री अत्यन्त प्रखर चारुभट रूपमें उदित हो उठी थी॥६६॥ संहारमय युद्धका आरम्भ उस महासमरमें उसने विजयके मुकुटको अपने पराक्रमसे प्राप्त किया था। अपने नेताकी विजयके कारण उसके सैनिकोंके आनन्दको भी सीमा न थी। उसने स्वयं भी विजयोल्लासमें अति उन्नत स्वरसे नाद किया था जिसे सुनकर शत्रुओंके । हृदय काँप उठे थे ॥ ६७ ।। इस घटनाके होते ही दोनों राजाओंको सेनाओंके सिंहसमान पराक्रमी योद्धाओंने अपने-अपने हाथी पर आरूढ़ होकर संघर्षके प्रधान केन्द्र की आर चल दिये थे। क्योंकि वे सब महा पराक्रमो थे। उन्हें आत्मविश्वास था और अपने सम्मानको ही सबसे बढ़कर ऐश्वर्य मानते थे ।। ६८॥ इसके उपरान्त ही देखा गया था कि भयंकर रूपसे चिंघाड़ते हुए हाथी बढे जा रहे थे। वे गम्भीर गर्जनाके साथ, उमड़ते हुए भीषण मेघोंके समान प्रतीत होते थे। वे सब हाथी उस समय इतने क्रूर और कुपित हो गये थे कि आपसमें पैर, शुण्डा तथा अग्रदन्तोंके द्वारा दारुण आघात कर रहे थे। ऐसे कराल रूपमें टकराते थे कि योद्धा सहित शत्र हाथीको समाप्त कर देते थे ।। ६९ ॥ हाथियोंपर आरूढ़ योद्धा भी शिखण्डियों ( सपक्ष वाण ) शक्तियों, खड्गों, दण्डोंके द्वारा आघात करके, चक्र, गदा, कणप तथा टांकियोंकी चोंटोंसे तथा पूरेके पूरे लोहनिर्मित मुद्गर तथा तोमरोंकी वर्षाके द्वारा एक दूसरेको बड़ी त्वरा तथा [३४] । निर्दयतासे मारतको चोटोंसे तथा पूरेके पूरे लोहानसिपक्ष वाण ) शक्तियों, खड्गों, १. [ शिखण्डिभिः] । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अष्टादका सर्गः केषांचिदास्यामि सकुण्डलानि पादाश्च केषांचिदथाम्बुजाभाः। कराः स्फुरत्काञ्चनभूषणाढ्याः शस्त्रप्रहाराववनौ निपेतुः ॥७१॥ 'किरीटपट्टोज्ज्वलहारसूत्रैश्छत्रध्वजैश्चामरकेतुमाल्यैः । करीन्द्रघण्टाहयकिङ्किणीभिः कृतोपहारेव मही बभासे ॥ ७२॥ अथेन्द्रसेनश्च हि देवसेनः प्रबद्धवैरा दृढबद्धकक्षौ। कृतप्रतिज्ञावसुरेन्द्रकल्पौ परस्परं ताववलोक्य वीरौ ॥७३॥ स्वनामगोत्राण्यभिधाय रोषात्सद्मविभले वदने प्रकृत्य । आदाय तान्यस्त्रवराणि दोभिल्लासयन्तावभिमानया तौ ॥ ७४ ।। कानोंमें शोभायमान कुडलोंके साथ हो किन्हींके शिर कटकर पृथ्वीपर लोट जाते थे, दूसरोंके लाल कमलोंके तुल्य सुन्दर तथा सुकुमार पैर कटकर उचटते थे। तथा अन्य लोगोंके हाथ जिनमें स्वच्छ शुद्ध सोनेके आभूषण चमकते थे, वे ही तीक्ष्ण शस्त्रके लगते ही कटकर भूमिपर गिर जाते थे ॥ ७१ ।। पूरीकी पूरी समरस्थलीमें मुकुट, कटि तथा पदके पट्ट चमचमाते हुए मणि-मुक्तामय हारोंकी लड़ें, छत्र, ध्वजा, चामर, मालायुक्त केतु, हाथियोंके बड़े-बड़े घंटे तथा घोड़ोंकी छोटी-छोटो मधुर शब्द करनेवाली घंटियाँ (घुघरू ) फैली हुई थीं। ऐसा मालूम होता था कि योद्धाओंने यह सब वस्तुएँ समरस्थली पर चढ़ायी थीं ।। ७२ ।। ___ इस प्रकार घोर संगाम होते-होते मथुराधिप इन्द्रसेन तथा ललितेश्वर देवसेन भी एक दूसरेके सामने जा पहुंचे थे। वे दोनों ही अभेद्य युद्ध-वेशमें थे । दोनोंका पारस्परिक वैर-भाव भी चरम सीमापर पहुंच चुका था। वे असुरोंके सम्राटोंके समान एक-दूसरेका नाश करनेकी प्रतिज्ञा किये हुए थे ।। ७३ ।। नायकोंका द्वन्द्व जब इन दोनों वोरोंने अपने समक्ष शत्र को देखा, तो क्रोधके उत्कट उभारके कारण उनकी भृकुटियाँ टेढ़ी हो गयी थीं, मुखमण्डल अत्यन्त विकृत हो गये थे। उन्होंने अपने-अपने गोत्र तथा नाम कहकर अपना परिचय दिया था, प्रतिशोध लेनेकी अभिलाषासे उत्तमसे उत्तम शस्त्रोंको हाथोंसे उठाकर बाहुओं द्वारा तौल रहे थे तथा अभिमानके पूरमें बहते हुए कह रहे थे॥७४ ॥ RSमराममयमा [३४५) १.क तिरीट। Jain Education Interational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म अष्टादशः सर्गः देशाकरग्रामपुराणि यानि बलद्वयनैकविबन्धनं च। य आवयोरेक इहावशिष्टस्तस्मै भवत्वेतदिति ब्रुवाणौ ॥ ७५॥ कुरु त्वमेकं प्रथम प्रहारं त्वं पश्य पश्येति च भयिन्तौ । वने गजेन्द्राविव जातदर्पावभीयतुस्तौ समराभिलाषौ ॥ ७६॥ शस्त्राणि वज्राग्निविषोपमानि नानाकृतीनि स्वरया प्रगृह्म।। परस्परालावयवान्प्रतीत्य व्यमुञ्चतां वीतभयौ महीशौ ॥ ७७॥ प्रवृद्धकान्तिद्युतिसत्त्वरोषः श्रीदेवसेनः प्रगृहीतचक्रः। लघ्वीन्द्र सेनस्य महाबलस्य चिच्छेद भास्वन्मकुटं च केतुम् ॥ ७८ ॥ तथेन्द्रसेनोऽतिविवृद्धमन्युविद्युत्प्रभा शक्तिमरं प्रगृह्य । श्रीदेवसेनं प्रति निर्ममोच ननोद सा तस्य किरीटमिद्धम् ॥७९॥ fotoranikPURNIMALLERGAREERI 'हमारे ग्राम, आकर, नगर तथा जितने भी देश हैं तथा दोनों सेनाओंके पास जो नानाविधकी सम्पत्ति तथा वैभव है, यह सब उसीके होवेंगे । जो हम दोनों से घोर संघर्षके बाद भी बचा रहेगा' तुम्हीं पहले एक प्रहारकरो, अच्छा देखो, तुम देखो॥ ७५ ॥ भर्त्सना तुम देखो आदि अनेक कटु वाक्यों द्वारा परस्परमें भर्त्सना करते हुए; जंगलमें यौवनके उन्मादसे मत्त एवं निर्भय दो भीमकाय हाथियोंके समान समरमें भिड़ जानेकी अभिलाषासे वे दोनों एक-दूसरेके अति निकट चले आ रहे थे ॥ ७६ ॥ बजके समान अभेद्य, अग्निके तुल्य दाहक तथा विषके सदश मारक अनेक आकृतियों तथा मापके शस्त्रोंको अत्यन्त त्वराके साथ उठाकर उन्होंने एक-दूसरेके आँख, कान, आदि अंगोंपर कुशलतासे लक्ष्य साधे थे। तथा निर्भय और निर्दय होकर पलक मारते, मारते आघात भी प्रारम्भ कर दिये थे ॥ ७७ ॥ घात-प्रत्याघात रणरंगमें मस्त महाराज देवसेनका क्रोध, सत्त्व, कान्ति तथा तेज और अधिक बढ़ रहे थे। उन्होंने अतिशीघ्रतासे उत्तम चक्रको उठाकर बड़े वेगसे महा बलवान मधुराधिप पर चला दिया था और देखते-देखते ही उसके भासमान मुकुट और केतुको काटकर फेंक दिया था ॥ ७८ ॥ इस प्रहारने इन्द्रसेनके क्रोधको सीमाके बाहरतक बहा दिया था, फलतः उसने बड़ी त्वरासे शक्ति तथा अर ( लम्बा। १. क विगृह्य । २. [ शक्तिधरां ] । RELEADERSIRIDERERESERIEन्य Jain Education international Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितस् श्रीदेवसेनेन पुनविमुक्ता शक्तिः स्फुरद्रत्नगभस्तिमाला । श्वेतातपत्रं मधुराधिपस्य न्यपातयद्ध स्तिपकेन छत्रं प्रभग्नं मधुराधिपस्य दन्तप्रभङ्गादिव रोषा तितूर्णं कणपां मुमोच स तस्य चिच्छेद मृगेन्द्रकेतुम् ॥ ८१ ॥ भिन्नात्मकेतुर्बु' हदुग्ररोषः प्रलम्बबाहुः प्रतिलब्धसंज्ञः । प्रगृह्य चक्रं मधुरेश्वरस्य गदाग्रहस्तं प्रचकर्त वीरः ॥ ८२ ॥ अथोभयोच्छिन्न विपन्नकेत्वोर्निपातितोपान्तगजाधिनेत्रोः प्रमदितात्मद्विप पादगोत्रोर्मुहूर्तमेकं लम्बा शस्त्र ) को उठाकर बलपूर्वक देवसेनपर चला दिया था, किन्तु सटीक प्रहार न होने के कारण यह प्रहार देवसेनके मुकुटके एक ही भागको नोंच सका था ॥ ७९ ॥ सार्धम् ॥ ८० ॥ वारणेन्द्रः । 1 समयुद्धमासीत् ॥ ८३ ॥ इस प्रहारके उत्तर में महाराज देवसेन के द्वारा भी शक्ति चलायी गयी थी। यह प्रहार ऐसा सटीक लगा था कि इसकी मारसे मथुराधिपका महावत ही धराशायी न हुआ था अपितु उसे बेधती हुई वह शक्ति शत्रु के गले पर पहुँची थी, जहाँसे जाज्वल्यमान किरणों युक्त रत्नमाला के साथ-साथ उसके श्वेत क्षत्रको लेती देती हुई उस पार निकल गयी थी ॥ ८० ॥ राज-चिह्न छत्रके नष्ट हो जानेपर मथुराधिप इन्द्रसेन वैसे ही झुंझला उठा था जैसे कि एक अग्रदन्त टूट जाने पर उत्तम हाथी उद्भ्रान्त हो जाता है। अतएव क्रोधसे पागल होकर उसने शत्रु पर अत्यन्त वेगके साथ कणप दे मारा था। इस प्रहारने महाराज देवसेन के सिंह चिह्न युक्त केतुको काटकर गिरा दिया था ।। ८१ ।। अपनी ध्वजा कट जानेपर महाराज देवसेनके रोष तथा उग्रताका पार न रहा था, उन्हें अपने कटु कर्त्तव्यका स्मरण हो आया था अतएव उन्होंने अपने लम्बे तथा पुष्ट बाहुओंसे एक चक्रको उठाकर मथुराके राजा पर छोड़ दिया था। इस प्रहार से महावीर ललितेश्वरने शत्रु के उस हाथको ही काट डाला था जिससे वह उनपर गदा चला रहा था ॥ ८२ ॥ इस समय तक दोनों ही राजाओंके केतु कट छट कर गिर चुके थे, दोनोंके हाथी तथा उनके सुयोग्य संचालन एक दूसरेके अतिनिकट आ धमके थे। इतना ही नहीं दोनोंके हस्तिपक हाथियोंके पैरोंके तले कुचले जा चुके थे तथा दोनों हाथी भीषण रूपसे जूझ गये थे । एक क्षण भर तो ऐसा लगता था कि दोनों ही बराबरीके हैं ॥ ८३ ॥ १. । रुषातिपूर्णे ] । २. क द्विपसाद, [ गोत्रों° ] । अष्टादशः सर्गः [[३४७ ] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य वराज चरितम् शष्टावक्षः तस्मिन् रणे भीमतमे प्रवृद्ध बलाहकस्त्वप्रतिमल्लनुन्नः । युगान्तवाताहविन्ध्यकल्पः पपात भूमौ करुणस्वनेन ॥ ८४ ॥ बञाभिघातादिव शैलशृत शस्त्रप्रहारप्रतिभग्नगात्रम् । उपेन्द्रसेनं विगतासुमाशु समैक्षिषातामवनीश्वरौ तौ ॥५॥ गजावपातध्वनिमप्रगल्भं महाभ्रनादप्रतिमं निशम्य । तौ युध्यमानौ वसुधेन्द्रचन्द्रौ बभूवतुर्वैधमनःप्रचारौ ॥८६॥ श्रीदेवसेनो रिपुमर्दनश्रीरुपेन्द्रसेनव्यसनं समीक्ष्य ।। जयं परं प्राप्य विभासमानं कश्चिद्धटं चापि भशं जहर्ष ॥ ८॥ सर्गः MARRIAGRAयायम-RTA . युद्धको पराकाष्ठा किन्तु इसी समय जब यह भयंकर संघर्ष और अधिक दारूण होता जा रहा था उसी समय कश्चिद्भटके अप्रतिमल्ल गजेशने मथुराधिपके पुत्र उपेन्द्रसेनके बलाहक गजराजको दबा दिया था। अप्रतिमल्लके प्रबल प्रहारको न सम्हाल सकनेक कारण जोरसे चिंघाड़ता हुआ बलाहक उसी प्रकार लड़खड़ाकर गिरा था जिस प्रकार युगके अन्त प्रलयकालमें बहते प्रभजनके झकोरोंसे विन्ध्यगिरिके शिखर लड़क जाते हैं ॥ ८४ ॥ अपने संग्राममें लीन दोनों राजाओंने देखा था कि वज्रके महाप्रहारसे जैसे पर्वतका उन्नत शिखर ढह जाता है उसी प्रकार कश्चिद्भटके आघातोंसे छिन्न-भिन्न शरीर होकर मथुराका युवराज अपनी इहलीला समाप्त करके धराशायो हो गया है ।। ८५ ॥ गजराज बलाहकके गिरनेसे जो महानाद हआ था वह एक भीषण प्रणाद था, वह कल्पान्तके मेघोंकी भीमगर्जनाके समान था। यद्यपि दोनों पृथ्वीपति पारस्परिक संग्राममें अत्यन्त लीन थे तो भी उक्त नादको सुनकर उनकी मानसिक प्रवृत्ति दो धाराओंमें बँट गयी थी ( अपने संग्रामको चाल रखना चाहते थे तथा ध्वनिका कारण भी जानना चाहते थे ) ॥ ८६ ॥ शत्रु ओंके दमन करने योग्य प्रभुताका स्वामी ललितेश्वर मथुराके युवराजकी विपत्ति तथा मृत्युको देखकर और उसी के सामने महा विजयको प्राप्त करके शोभायनान कश्चिद्भटको देखकर इतना अधिक प्रसन्न हुआ था कि उसकी प्रसन्नताकी सीमा न रही थी ॥ ८७ ॥ m ate १. क कश्चिद्भटश्चापि । saww.jainelibrary.org Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् मयाद्य । सोऽपीन्द्रसेनस्तनयावभङ्गाद्विषां प्रवृद्ध द्विगुणातिरुष्टः । समित्समिद्धाग्निरिव प्रकामं जज्वाल जात्यादिमदावलिप्तः ॥ ८८ ॥ धिक्शूरसेनाधिपतित्वलक्ष्मीं fuगिन्द्रसेनश्वमिदं निर्देवसेनां यदि नैव कुर्या महीमिमां सागरवागुरान्ताम् ॥ ८९ ॥ इति ब्रुवन्नेव सुनिश्चितार्थो विपन्नहस्तादवतीर्य नागात् । द्विषदेककालं सुकम्पितं वारणमारुरोह ॥ ९० ॥ ततोsस्तु सम्यक्प्रभवान्गुणान्स्वान्प्रकाशयामास रणे प्रचण्डः । पुनर्दृष्टिपथोपनीतं द्विषवलं स्थातुमलं न तस्य ॥ ९१ ॥ मदान्धमन्यं उपेन्द्रको मृत्युका परिणाम दूसरी ओर मथुराधिप था जो स्वभावसे ही जाति, प्रभुता, आदिके अहंकारमें चूर था, फिर उस समय प्राणप्रिय पुत्र की मृत्यु तथा शत्रुके बलको बढ़ता देखकर उसका रोष दूना हो गया था। उसका वही हाल था जो नया ईंधन ( आहुति ) पड़ जाने पर धधकती हुई यज्ञकी ज्वालाका होता है ॥ ८८ ॥ शूरसेन (मथुराराज ) देश के एकच्छत्र अधिपतित्वको धिक्कार है, मेरा इन्द्रसेन होना भी व्यर्थं है तथा मेरे प्रताप और पुरुषार्थ को भी धिक्कार है, यदि मैंने आज ही इस विशाल पृथ्वीको जो विशाल महासागररूपी बन्धन या सीमा वेष्टित है, इसे यदि देवसेन रहित न कर दिया तो ॥। ८९ ।। क्रोध के आवेशमें पूर्वोक्त वचनोंको कहते-कहते उसने अपने अन्तिम कर्तव्यका निश्चय कर लिया था। अतएव वह सूड़ कटे हाथी पर से उतरकर एक दूसरे सुसज्जित गजराज पर आरूढ़ हुआ था। जो कि मदसे अन्धा हो रहा थ, तथा नाम और काम दोनों के ही द्वारा एक काल था ।। ९० ।। इसके उपरान्त रणमें अत्यन्त कर्कश मथुराधिपने अपनी उन सब रणकुशलताओंका प्रदर्शन किया था जिन्हें उसने भलीभाँति सीखा था तथा अभ्यास किया था। उस समय उसका यह हाल था कि जो कोई भी शत्रु उसके दृष्टिपथपर 'आता था वह एक क्षण भर भी जीवित न रह पाता था ॥ ९१ ॥ १. क प्रवृद्धिः । २. [ ततस्तु ] । For Private Personal Use Only अष्टादशः सर्गः [ १४९ ) Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् तहेवसेनस्य तु सैन्यमाजौ शतां परां संजनयन्नपस्य । भजावतंसा विजयैकलक्ष्मी निजां चकारेव भयात्तदानीम् ॥१२॥ उपेन्द्रसेनं युवराजमाजौ निहत्य भूयः प्रतिलब्धसंज्ञः । कश्चिद्भटः साधुयशोऽवतंसं विभ्रत्स बभ्राम मृगेन्द्रलीलः ॥ १३ ॥ परिभ्रमन्काल इवान्तरूपः कश्चिद्भटः शत्रुषु लब्धतेजाः। स देवसेनं सबलं मनस्वी ददर्श मृद्गन्तमथैन्द्रसेनम् ॥ ९४ ॥ दृष्ट्वा तमाराद्विजयं परीप्सन्सव्यापसव्यं प्रकिरच्छरौघान् । निसृष्टवानप्रतिमल्लमाजौ युयुत्समानो मधुराधिपेन ॥ ९५ ॥ अष्टादसा सर्गः HAIRATRAPARIKARATHIMLAsantonT. ITA अन्तिम संघर्ष इन्द्रसेनके इस भीषण रूपने महाराज देवसेनकी विजयो सेनामें कुछ समयके लिए एक गम्भीर आशंकाको उत्पन्न कर दिया था। उस समय तो कुछ क्षण तक ऐसा प्रतीत होने लगा था कि उस एकाकी वीरने ही भग्न मुकुटधारिणी विजयलक्ष्मीको अपनी बना लिया है ।। ९२ ।। UAESARIRAHARSHIRSAGADISEAR कश्चिद्भटका प्रवेश युवराज उपेन्द्रसेनका युद्ध में संहार करके हर्षोन्मादमें मस्त कश्चिद्भटको एक क्षणभर बाद ही अपने शेष कर्त्तव्यका ख्याल हो आया था। अतएव अब तककी विजयसे उत्पन्न कीतिरूपी शिरोभूषणको भलीभाँति धारण करता हुआ वह उदारचित्त योद्धा पुनः सिंहके समान युद्धभूमिमें विचरने लगा था ॥१३॥ ___ शत्रुसेनामें उसके पराक्रमका आतंक बैठ गया था अतएव मूर्तिमान यमराजके समान शत्रुसेनापर टूटते हुए मनस्वी है कश्चिद्भटने देखा था कि महा बलवान ललितेश्वरको मथुराधिप इन्द्रसेन अपने सफल प्रहारोंसे दबाता चला जा रहा है ।। ९४ ॥ वह विजय प्राप्त करनेके लिए व्याकुल था तथा उसने देखा था कि 'शत्रु ( इन्द्रसेन ) भी काफी निकट आ पहुंचा है' फलतः उसने शत्रुके दक्षिण तथा वाम दोनों पाश्वोपर अन्धाधुन्ध बाणोंकी वृष्टि प्रारम्भ कर दी थी। मथुराधिपके साथ लड़नेके 7 लिए उसके अंग खुजला रहे थे अतएव उसने ऐसा संघर्ष पैदा कर दिया था जिसकी तुलना ही नहीं हो सकती थी॥ ९५ ॥ [३५० LIES १. [ भग्नावतंसां] । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् तमाप्तवन्तं बलवन्तमन्तं सूनोः समीक्ष्याशु स इन्द्रसेनः । शरासनं स्वं बलवद्विकृष्य मुमोच नाराचवराज्जिघांसन् ॥ ९६ ॥ तानन्तरिक्षे स्वधनुविमुक्तैवच्छिद्य तीक्ष्णैः पुनरर्धचन्द्रः । विव्याध बाणैरपरैं हद्भिर्वक्षयारं सोऽन्तमुपानिनीषुम् ' ॥ ९७ ॥ सन्तानमुक्तैव शिखैरनेकेगंजस्य नेता 'रमधो निपात्य । चकर्त भल्लेन शितेन रोषात्कश्चिद्भटस्तद्धनुरेन्द्रसेनम् ॥ ९८ ॥ परं न गृह्णाति धनुः स यावद्विव्याध तावद्भुजमुन्नतांसम् । गजेन्द्र कुम्भोद्भिदुरान्पृषत्कान्ससर्ज शुष्काशनिभीमरूपान् ॥ ९९ ॥ कश्चिद्भट-इन्द्रसेन युद्ध मथुराधिप इन्द्रसेनने देखा कि प्राणप्रिय पुत्रका काल कश्चिद्भट उसके अति निकट जा पहुँचा था । अतएव पुत्रकी मृत्युका प्रतिशोध लेनेकी भावनासे उसने अपने धनुषको पूरे बलसे खींचकर तीक्ष्ण विषाक्त बाणोंको उसपर बरसाना प्रारम्भ कर दिया था ।। ९६ ।। रणकुशल कश्चिद्भट अपने धनुष द्वारा अर्धचन्द्राकार मुखयुक्त अत्यन्त धाराल बाणोंको छोड़कर शत्रुके बाणोंको आकाशमें ही काटछाँट डालता था। इतना ही नहीं बीच अन्तरालमें वह बड़े-बड़े तीक्ष्ण बाणोंको चलाकर शत्रुके वक्षस्थलको भी भेदता जाता था । क्योंकि वह शत्रुको मृत्युके मुखमें हँसनेके लिए प्रतिज्ञा कर चुका था ।। ९७ ।। कश्चिद्भट अपने धनुषके द्वारा धाराप्रवाह रूपसे शत्रुके ऊपर वाणवर्षा कर रहा था अतएव इन अनेक बाणोंकी मारसे उसने इन्द्रसेनके हस्तिपकको नीचे गिरा दिया था। इसके बाद अत्यन्त कुपित होकर शत्रुपर चमचमाता हुआ भाला चलाया था जिसके आघात से इन्द्रसेनका धनुष ही कटकर टूक-टूक हो गया था ।। ९८ ।। इन्द्रसेन आहत वह दूसरे धनुषको उठा भी न पाया था कि इस सूक्ष्म अन्तरालमें ही उसने मथुराधिपकी विशाल बाहुको ऊँचे कंधे से ही काट दिया था, तथा भीषण वाण चला रहा था जो हाथी के उन्नत कुम्भोंको भेदते जा रहे थे। वे बाण क्या थे साक्षात् वज्र ही थे जो बिना बादलोंके ही भोम आकारको धारण करके गिर रहे थे ॥ ९९ ॥ १. [ निनीषुः ] । २. म नेतारमथो । For Private Personal Use Only अष्टादपाः सर्गः [३५१] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DREAME अष्टावक्षः बराम चरितम् सर्गः इतोऽमुतो भग्नविशीर्णसेनामात्मानमत्यन्त सुरक्षताम् । समीक्ष्य चापस्य च भङ्गमाजी विपन्नबध्वस्त्रवपुर्बभूव ॥ १०॥ ततोऽवरुह्माशु स मेघनादात्क्षतस्रवच्छोणितवारणेन्द्रात् । हयं समारुह्य तदातिभीतः पराप्रतस्थे मधुरावनीशः ॥ १०१॥ गते नरेन्द्र मधुराधिपे तु विनायकं त्रस्तभयेतवीर्यम् । बलं तदा वातसमूहघातविशीर्णतुलप्रतिमं बभूव ॥ १०२॥ ततश्च कश्चिद्भट जितश्रीहतावशेष बलमाजिघांसन् । अनुप्रतस्थे सशरोघवर्षी रूपी प्रजाः संहरतीव कालः ॥ १०३ ॥ तबतक मथुराकी विशाल सेना अस्तव्यस्त होकर इधर-उधर भाग रही थी। राजा इन्द्रसेनका स्वयं अपना शरीर भी वाणोंकी बौछारसे छिद-भिद गया था, इसके अतिरिक्त वास्तविक संघर्षके समय उसका धनुष भी टूट गया था। यह सब देखकर । विचारे की बुद्धि ही कुण्ठित नहीं हुई थी अपितु उसके अस्त्रों तथा शरीरकी लगभग वैसी ही अवस्था थी ।। १०० ॥ उसका मेघनाद नामका गजराज भी इतना क्षतविक्षत हो गया था, कि उसके सब घावोंसे रक्तकी धाराएँ बह रहो थी। उसका ( इन्द्रसेन ) साहस गल चुका था, भयसे काँप रहा था। अतएव अपने हाथीसे उतरकर वह शीघ्रतासे एक घोड़ेपर A आरूढ़ हुआ और वेगके साथ पीछेको भाग गया था ॥ १०१ ॥ मथुराधिप इन्द्रसेनको भीरुओंके समान पलायन करनेसे शूरसेनकी सेना नायकहीन हो गयी थी। सारी सेना भयसे व्याकुल थी और भयके प्रवाहमें उसका पराक्रम न जाने कहाँ बह गया था। उस समय उस विशाल सेनाको देखनेपर वही दृश्य दृष्टिगोचर होता था जो कि वायुके प्रबल प्रवाह उड़ी हुई रूईका होता है ॥ १०२॥ ___ इन्द्रसेनके भागनेका फल विजय पर विजय प्राप्त करनेके कारण कश्चिद्भटका तेज और भी निखर आया था, वह शेष बचे हुए शत्रुबलको भी नष्ट कर देना चाहता था। इसी अभिलाषासे प्रेरित होकर वह बाणोंकी मूसलाधार वृष्टि कर रहा था। उसे देखकर लोगों को यही भ्रम हो जाता था कि 'क्या कोई शरीर यम प्रजाओंका संहार कर रहा है ?' ॥१०३॥ Reioमामामामा-III [३५२४ १. [°शरक्षताङ्गम् ]। २. क भयोत्यवीर्यम् । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशः वराज चरितम् सर्गः केषांचिदङ्गान्यसिना 'चकर्ष पिपेष वीरो गदया शिरांसि । विदार्य केषांचिदुरांसि चक्रनिपातयामास वसुघरायाम् ॥ १०४॥ केषांचिदुत्क्षिप्तसुचामराणि छत्राणि चन्द्रोदयपाण्डुराणि।। धषि पुष्पध्वजकेतुमालाः शरावपूर्णानि सुधीश्चकर्त ।। १०५ ॥ शङ्कभिवर्तक्रमसौष्ठवाभ्यां सतोमराभ्यां स्थिरधीः कराभ्याम् । वर्माणि वर्मप्रतियातनानि क्षणादबिभेदाप्रतिमान्यरीणाम् ॥१०६॥ छिन्नाग्रहस्ता विमुखाश्च केचित्केचिन्नताः साजलयो विभीताः । केचिच्च तत्रैव विमोहमायुर्ललम्बिरेऽन्ये गजमस्तकेभ्यः ॥१०७ ॥ अन्तर्दधुर्गुल्मलतासु केचित्केचिच्च वाल्मीकशिखाधिरुढाः । केचित्तणादाः प्रतिमुक्तकेशा गतासवः केचिदुपेयुरुर्वीम् ॥ १०८ ॥ IPHATRAPATHeastprereSHAHESHemamarpa-ARATISEX धाराल असिके द्वारा वह किन्हीं शत्र ओंके अंग-अंग काट डालता था, दूसरों पर गदा चलाता था जिससे उनके शिर चूर-चूर हो जाते थे, तथा अन्य कितनेके ही दृढ़ वक्षस्थलोंको चक्रसे चीरकर पृथ्वीपर गिरा देता था ।। १०४ ।। शत्र के कितने ही माडलिक राजाओंपर अब भी निर्मल चमर ढर रहे थे तथा चन्द्रमाकी कान्तिके समान धवल छत्र उनके मस्तकोंपर लगे हुए थे, किन्तु कश्चिद्भट इन सबको अपने बाणोंकी मारसे घासके समान काट रहा था, वैजयन्ती मालाओंसे भूषित दूसरोंकी केतुओं तथा बाण चढ़े हुए धनुषोंको भी अचूक लक्ष्य वेधक वह योद्धा नष्ट कर रहा था ॥ १०५ ।। । विजयपूर्णताको ओर अपने कर्त्तव्यके प्रति उसकी मति स्थिर थी अतएव शंखकी गोलाई समान अत्यंत गोल, पुष्ट तथा सुन्दर बाहुओं द्वारा वह विशाल तोमरको उठाता था और उसके सटीक आघातोंसे शत्रु ओंके उन कवचोंको भेद देता था जिनपर लगकर वज्र भी में वापस हो जाता था तथा दृढ़ता और अभेद्यतामें जिनकी तुलना ही नहीं हो सकती थी।। १०६ ॥ कितने ही योद्धाओंके हाथ कट जाते थे तो विचारे प्राण लेकर भागते थे। कुछ इतने अधिक डर गये थे कि प्रतिरोध किये बिना ही वे उसके आगे झुक गये थे और हाथ जोड़े खड़े थे। दूसरे कुछ उसे देखते ही मूच्छित होकर धराशायी हो गये थे, तथा अन्य कितने ही हाथियोंकी गर्दनोंपर लटक रहे थे । १०७॥ कश्चिद्भटका रणरंग कितने ही सैनिक झाड़ियों तथा लताओंमें जा छिपे थे। कुछ भागकर साँपोंकी वामियोंपर जा चढ़े थे । अन्य कितने १. [चकत ]। २. [विमोहमापु°]। ३. [ वल्मीक]। [३५३ ] Jain Education Interational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अष्टादशः सर्ग: HEADARPANMARATHARASHPAPEHAR यतो यतस्त्वप्रतिमल्लनागं स्थलोच्चयेनैव गतिक्रमेण । संचारयामास स जातहर्षस्ततस्ततः शत्रुबलं दधाव ॥ १०९।। अथावशिष्टां रिपुवाहिनीं तां निरुध्य सर्वाश्च कृतानुयात्रान् । स्वपक्षदप्त्यै परपक्षभीत्यै दधौ स शङ्ख बहदभ्रघोषम् ॥ ११०॥ ततोऽरिचक्रं प्रविजित्य धीमान्निदाघमध्याह्नरविप्रकाशम् । उपेत्य राजानमुदारकीति ननाम पादौ कमलावदातौ ॥ १११ ॥ विलोक्य पादावनतं नरेन्द्रः प्रोत्थाप्य नागात्स्वपुरो निवेश्य । प्रसारितेनात्मभुजद्वयेन स हृष्टचेता भृशमालिलिङ्गे ॥११२ ॥ दृष्टं मया पौरुषमेतदार्य तवाद्वितीयं युधि दुःप्रधर्षम् । त्वत्तः परोऽन्यो न च मेऽस्ति बन्धुरित्यब्रवीद्धर्षविबद्धवक्त्रः ॥ ११३ ॥ CARETIREMERELEचामारा । ही बाल खोलकर झुककर मुख में तृण दबाये खड़े थे तथा शेष कितने ही प्राणोंसे वियुक्त होकर पृथ्वी माताको गोदमें सो रहे थे ॥ १०८ ॥ कश्चिद्भट अपने हाथी अप्रतिमल्लको साधारण सी छलागें लिवाता हुआ जिधर जिधरको बढ़ा देता था, तो वह स्वयं तो उसकी गतिविधिसे प्रसन्न होता था किन्तु शत्रु की सेना उस उस दिशाको छोड़कर भागतो थी ॥ १०९ ।। बुद्धिमान् तथा रणनीतिमें चतुर कश्चिद्भटने थोड़े ही समय में पूरेके पूरे शत्र के सैन्यको घेरकर अपने वशमें कर लिया था, वह उसका अनुसरण कर रही थी। इस सबसे निवृत्त होकर उसने अपने पक्षको बलिष्ठ बनाने तथा शत्रुपक्षको अत्यन्त भीत कर देनेके लिए ही जोरसे महाशंखको बजवाया था ।। ११० ।। महा मतिमान कश्चिद्भट समस्त शत्रुओंको पूर्ण पराजित करनेके पश्चात् अपने तेजके कारण मध्यान्हके सूर्यके समान चमक रहा था । युद्धसे अवकाश पाते ही वह महान् यशके स्वामी महराज देवसेनके सामने पहुँचा था और उनके कमलोंके समान शुद्ध तथा मोहक चरणोंमें उसने मस्तक झुका दिया था ।। १११ ।। * महाराज देवसेनने ज्यों ही कश्चिद्भटको पैरोंपर झुकता देखा त्यों ही उसे उठा लिया था। अपने हाथीपर उसे अपने सामने बैठाकर अपने दोनों विशाल बाहुओंको फैला दिया था तथा उनके द्वारा उसे आवेष्टित करके बार बार अपनी छातीसे भ[३५४] लगाया था ॥ ११२ ॥ विजयी कश्चिद्भटका स्वागत हे आर्य ? मैंने अपनी आँखोंसे तुम्हारे उस महा पराक्रम को देखा है, जिसको कोटिका दूसरा इस पृथ्वीपर हो ही नहीं। AIIMONALIS Awar Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम अष्टादशः सर्गः मन्त्रीश्वरश्रेणिगणप्रधानाः समक्षभूताः परिहृष्टभावाः । त्वयाद्य कश्चिद्भट साधु साधु नामानुरूपं कृतमित्यवोचन् ॥ ११४ ॥ संपूज्य तं सागरवृद्धिमिभ्यं कश्चिद्भटं चाप्रतिमप्रभावम् । गजेन्द्रमारोप्य धृतातपत्रः पुरं विवेशावनिपः सलीलम् ॥ ११५॥ आनन्दभेर्यः पटहा मृदङ्गा वीणाः सवंशाः सह कंसतालैः । जयं नरेन्द्रस्य निवेदनार्थमाशीगिरश्चाप्यधिकं विनेदुः ॥ ११६॥ गृहे गृहे चन्दनधामचित्राः समुच्छिताः पञ्चविधाः पताकाः । प्रभजनस्पर्शविवर्तिताना रेजुस्तरङ्गा इव सागरस्य ॥ ११७ ॥ सकता है । हजारों प्रयत्न करके कोई तुम्हारे पराक्रमको कुण्ठित भी नहीं कर सकता है। इस संसारमें तुमसे बढ़कर मेरा बन्धु कोई भी नहीं है तुम्हीं सबसे बड़े हो।' महाराज देवसेन जब यह वचन कह रहे थे उस समय उनका मुख प्रसन्नताके कारण विकसित हो उठा था ।। ११३ ।। लतितेश्वरके मंत्री, कोषाध्यक्ष, श्रेणियों तथा गणोंके प्रधान, आदि जिन्होंने अपने समक्ष ही कश्चिद्भटका पराक्रम देखा था, और देखकर परम प्रमुदित हा उठे थे, उन सबने भी उसे घेरकर यही कहा था 'हे कश्चिद्भट आज आपने बहुत ही । सुन्दर काम किया है, आप धन्य हैं, आपके कार्य सर्वथा आपके नामके अनुकूल हैं ।। ११४ ।। महाराजने सेठ सागरवृद्धिका वहीं पर विपुल स्वागत किया था तथा अनुपम प्रभावशाली कश्चिद्भटकी तो पूजा हो की थी इसके उपरान्त उसे हस्तिरत्न पर विराजमान करके उसके शिरके ऊपर राजाओंके उपयुक्त छत्र लगवाया था तथा समस्त ठाट-बाटके साथ उसका राजधानीमें प्रवेश कराया था ।। ११५ ।। महराज देवसेनकी विजयको घोषित करनेके लिए उनके नगर प्रवेशके अवसरपर पूरे नगरमें आनन्दकी सूचक भेरियाँ, पटह, मृदंग, वीणा, विशेष प्रकारकी बाँसुरी, कांसताल आदि बाजे बज रथे तथा नगरके प्रत्येक कोने में आशिष वचनोंकी ध्वनि सुनायी पड़ती थी ॥ ३१६ ॥ विजयो का नगरप्रवेश नगरके प्रत्येक ग्रहके द्वारपर चन्दनके उत्तम चौक पूरे गये थे, उनकी छतोंपर पांच रंगकी अद्भुत तथा आकर्षक पताकाएं फहरायी गयी थीं। प्रभजनके झकोरे उन्नत पताकाओंके चीनांशुकको जब उड़ाते थे तो समुद्रकी लहरोंकी शोभाको भी परास्त कर देते थे ॥ ११७ ॥ [३५५] रामन Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् प्रासादगर्भादभिनिस्सृतानि मुखपङ्कजानि । वभुर्भ्रमत्षट् चरणावलीभिः सरोरुहाणि ॥ ११८ ॥ वातायनेभ्यः खलु पुष्पवर्षं वराङ्गनाबाहुलताः सलीलाः । प्रचक्षरुश्चूर्ण रजोविमिश्रं वातावधूता इव कामवल्लयः ।। ११९ ॥ पुराङ्गनास्ताः पुरमाविशन्तं कश्चिद्भटं भूपतिनैव सार्धम् । समीक्ष्य वाक्यानि मनोनुगानि जातप्रहर्षा कथयांबभूवुः ॥ १२० ॥ कश्चिद्भटं पश्यत पश्यतैनं श्रियोज्ज्वलन्तं विबुधेन्द्रलीलम् । esistantravatiदुप्ता 'जिगाय शत्रूनिति काश्चिदूचुः ॥ १२१ ॥ दूरतरादथेत्य । एकस्य हेतोः करिणो नरेन्द्रः स माधु[ थु]रो स्त्रियं सुतं कोशगजांञ्च सारानुत्सृज्य यातस्त्विति काश्चिदाहुः ।। १२२ ।। विजयी वीरों को देखने के लिए कुलीन ललनाओं के मुख उनके घरोंके वातायनोंसे बाहर निकल आये थे । वे कमलों के समान सुन्दर तथा सुगन्धित थे अतएव उनके ऊपर भोरे गूंज रहे थे। फलतः वे नारी-मुख ऐसे मालूम देते थे मानो बन्धन (डंठल ) युक्त कमल खिले हैं ।। ११८ ॥ वराङ्गनानां सबन्धनानीव ये श्रेष्ठ कुल ललनाएँ खिड़कियोंमेसे लताओंके समान सुकुमार बाहुओंको बाहर निकालकर लीलामय विधिसे विजयी वीरों पर पुष्प तथा सुगन्धित चूर्ण ( अबीर ) का बरसा रहीं थीं। इस कार्य में व्यस्त उनकी बाहुओंको देखकर हवा से हिलायी गयी लताकी कोमलताका स्मरण हो आता था ।। ११९ ।। महाराज देवसेन के साथ-साथ ही कश्चिद्भटको नगरीमें प्रवेश करता देखकर उन नागरिक ललनाओंके मनमें जो भाव उठे थे उन्हें उन सबने प्रसन्नता के आवेश में निम्न वाक्यों द्वारा अभिव्यक्त किया था ॥ १२० ॥ 'देखा, देखो इस कश्चिद्भटको तो देखो, अपनी शोभा से कैसा प्रकाशित हो रहा है, देखो तो इसकी चेष्टाएँ बिल्कुल देवोंके अधिपति इन्द्रका स्मरण करा देती हैं।' दूसरी कहती थी 'ज्ञात है इसने अकेले ही अनेक शत्रुओंको जीता है, शत्रु भी साधारण न थे, अपितु अपने बल और पराक्रम के दर्पमें चूर थे । १२१ ॥ उनका वाक्य पूरा न हो पाता था कि आया था, पर हुआ क्या? अपने कोश, सैन्य, धरके भाग गया है ।। १२२ ।। १. क दृष्टान् । कुतूहल प्रिय नारियाँ दूसरी कहती थी- 'मथुराका राजा केवल हाथीको लेनेके लिए उतनी दूरसे हाथियों, स्त्रियों, पुत्रों तथा सारभूत सब हो वस्तुओंको छोड़कर शिरपर पैर अष्टादशः सर्गः [ ३५६] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् जगज्जनानां पुरपुष्यतस्तु रिपु जिगायायमथाश्रमेण । अतोऽन्यथा केवलमानुषेण कुतो जयो लप्स्यत इत्यवोचन् ॥ १२३ ॥ काश्चिन्नरेन्द्राजित पूर्व पुण्यात्काश्चित्सुनन्दासुकृतप्रभावात् 1 काश्चित्स्वयं स्वेन पराक्रमेण रिपुं जिगायेत्यवदंस्तरुण्यः ।। १२४ ॥ कुतस्तु कश्चिद्भट एष घीमान्कुतो वणिक्केवलमानुषोऽयम् । कुतो वणिक्त्वं कुत एतदेश्यं नास्माकमस्मात्खलु विस्मयोऽस्ति ॥ १२५ ॥ राज्ञा सहायान्तमिभेन्तुमूर्ध्नि विलोक्य तं सागर वृद्धिमूचुः । इदं पुनः पश्यत दर्शनीयं कश्चिद्भटाय श्रियमेष भुङ्क्ते ॥ १२६ ॥ येनात्मनोपार्जितमत्र पुण्यं तेनैव भोक्तव्यमिति प्रदिष्टम् । इदं विपर्यस्तमिवोपलक्ष्यं परे कृतं यद्धि परस्तु भुङ्क्ते ॥ १२७ ॥ अन्य देवियों का तर्क था 'हमारे राज्यकी जनता तथा ललितपुर निवासियों के पुण्यके प्रतापसे हो इस कश्चिद्भटने अकेले बिना विशेष परिश्रम के शत्रुओंको जीत लिया है। नहीं तो, सोचो भी, विना देवी सहायताके अकेले मनुष्यके द्वारा क्या ऐसी जय प्राप्त की जाती है ॥ १२३ ॥ कुछ ललनाओं का निश्चित मत था कि महराज देवसेनके पुण्यकी प्रबलताने विजय दिलायी है ।' दूसरी इससे सहमत न थीं 'उनके मतसे सुनन्दा के सौभाग्य के बलपर ही कश्चिद्भट विजयी हुआ था, तीसरो अधिक अनुरक्त थी अतः उसकी दृष्टि में कश्चिद्भटका पराक्रम ही विजयका कारण था ।। १२५ ।। 'यह कश्चिद्भट कहाँ से आया था ? इतना बुद्धिमान् क्यों हैं! यह वैश्य क्यों हुआ ? यह केवल मनुष्य ही है ? इसमें वणिक्पना कैसे सिद्ध हो सकता ? और कहाँ यह प्रभुता जिसका पात्र यह क्यों है ? हमें तो सखि यही आश्चर्य है ?' कहकर अपने विचार व्यक्त करती थीं ।। १२५ ।। सार्थपति सागरवृद्धि महाराज देवसेनके साथ-साथ श्रेष्ठ गजराज पर आरूढ़ होकर चले आ रहे थे । इन्हें देखकर ही उन्होंने आपस में कहना प्रारम्भ किया था 'हे सखि इस दर्शनीय पदार्थको तो देखो, सार्थं पति भी खूब है, कश्चिद्भटके सौभाग्य आनन्द यह सीधा-सादा वणिक् लूट रहा है, इससे बड़ा आश्चर्यं क्या होगा ।। १२६ ।। पुत्रकी प्रेयता क्योंकि शास्त्र तथा लोकोक्ति यही बताती है कि जो इस संसारमें पुण्य पुरुषार्थं करता है वही उसके फलोंका उपभोग १. [ कश्चिद्भटस्य ] For Private Personal Use Only Tues अष्टादशः सर्गः [ ३५७ } Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरा अष्टादशः सर्गः अवश्यमन्यत्र महाकृतिभ्यामाभ्यां सहैवाचरितं तपः स्यात् । तदेतदुद्भुतफलप्रपञ्चं सुव्यक्तमासीदिति काश्चिदूचः ॥ १२८ ।। इत्येवं ललितपुराधिवासिनीभिः प्रीत्या तौ कथितौ विलासिनीभिः । तेनैव क्षितिपतिना वणिक्युतौ संप्राप्तौ नृपगृहमृद्धिवृद्धिशालम् ॥ १२९ ॥ राज्ञीभिर्मदनरसं प्रदायिनीभिः कान्ताभिः प्रचलितचारुभूषणाभिः । युद्धश्रीश्रुतिसंकथारताभिर्हृष्टः स [--] नृपतिरथाविशत्स्वगेहम् ॥ १३०॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वरांगचरिताश्रिते कश्चिद्भटविजयो नाम अष्टादशः सर्गः। GurunagricuERIम करता है । किन्तु आज इस ब्लोम (उल्टी रीति) को भी देख लो, करता कोई (कश्चिद्भट) है और भोगता दूसरा ( सागरवृद्धि) ही है १२७ ।। अवश्य ही इन दोनोंने किसी पूर्व पर्यायमें एक ही साथ तप आदि पुण्य कार्य किये होंगे। इसमें सन्देह नहीं हैं तो दोनों ही उदार पुण्य-कार्यकर्ता, उसीका यह परिणाम है जो ये दोनों इस विचित्र ढंगसे उदयमें आये पुण्य फलको इस प्रकार भोग रहे र हैं, यह बात सर्वथा स्पष्ट है।' इस प्रकार शेष देवियोंने अपनी सम्मतिको प्रकट किया था ॥ १२८ ।। गुणोंके अनुरागसे प्रेरित होकर ललितपुरकी कुल ललनाएं उक्त विधिसे सार्थपति तथा कश्चिद्भटके विषयमें चर्चा कर रही थीं। उसे सुनते हुए ही वे दोनों महाराजके साथ-साथ प्रधान राजमार्गसे चलते हुए राजभवन पर जा पहुँचे थे, जो कि अपनी सम्पत्ति तथा विशाल शोभाके कारण जगमगा रहा था ।। १२९ ।। कामदेवके रसको बढ़ानेवाली महारानियों तथा उन देवियोंके द्वारा जिनकी स्वाभाविक चंचलताके कारण उनके सुन्दर अलंकार हिल रहे थे, तथा जो सब युद्धके समाचारोंकी ही बात करने में लीन थीं ऐसी रानियों और अन्य देवियोंके द्वारा देखे गये [श्रेष्ठ] महाराज देवसेनके साथ ही कश्चिद्भटने राजमहलमें प्रवेश किया था ॥ १३० ।। चारों वर्गसमन्वित सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय बरांगचरित नामक धर्मकथा में कश्चिद्भट-विजय नाम अष्टादश सर्ग समाप्त । रामचBिALASAHERISPERIES [३५८] १. क ऋद्विवृद्विशालम् । [ ऋद्धिमद्विशालम् । २. [ रसप्रदायिनीभिः ।। Jain Education intemational For Privale & Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकोनविंशः सर्गः अथान्यदा वृद्धतमैर्नरेन्द्रेः' सुखं निषण्णः तनयां प्रदित्सुः । आकासयित्वा पप्रच्छ वंशानुगतां प्रवृत्तिम् ॥ १ ॥ विज्ञानकान्तिद्युतिसत्त्वयुक्तो यतो दिगन्ते प्रथितोरुकीर्तिः । धन्य ततस्ते पितरौ कुतस्तौ विज्ञातुमिच्छामि न चेद्विरोधः ॥ २ ॥ स्मित्वा ततः सोऽर्थपरेङ्गितज्ञः कश्चिद्भटो नात्मगुणप्रशंसी । प्रच्छाद्य सद्भूतम ेदार्थमन्यद्वचो वभाषे क्षितिपाय युक्त्या ॥ ३ ॥ कश्चिद्भटः शूर उदारकीर्तिः श्रेष्ठ्यङ्गसूनुस्त्विति लोकवादः । स एव मे बन्धुतमः पिता च पिता न चान्यो भुवि विद्धि राजन् ॥ ४ ॥ एकोनविंश सग संग्राम से लौटने के एक दिन बाद ज्ञानी वृद्ध पुरुषोंके साथ शान्तिपूर्वक बैठे हुए महाराज देवसेन अपनी राजदुलारीके विवाह के विषय में चर्चा कर रहे थे। निर्णय हो जानेपर उन्होंने कश्चिद्भटको बुला भेजा था। जब वह आ गया था तो सस्नेह free बैठाकर उससे अपने वंश तथा कुल-क्रमसे चली आयी प्रवृत्तियों के विषय में पूछा था ॥ १ ॥ कुल प्रश्न 'हे वत्स ! तुम कान्तिमान हो, तुम्हारे तेज तथा सामर्थ्यं तो असीम हैं तथा विज्ञानके साक्षात् भाण्डार हो । अपनी इन योग्यताओंके कारण ही तुम्हारो विशाल कीर्ति सब दिगन्तोंमें फैल गयी है । इन सद्गुणोंका ध्यान आते हो मुखसे निकल ही पड़ता है कि तुम्हारे माता-पिता धन्य हैं। यदि बतानेमें तुम्हें विशेष विराध न हो तो मैं उनके विषय में जानने के लिए उत्सुक हूँ, बताओ वे दोनों किस वंशकी शोभा बढ़ाते हैं ॥ २ ॥ कश्चिद्भट दूसरोंके मनके अभिप्रायोंको सरलता से समझ लेता था अतएव वह राजाके भावोंको जान गया था, किन्तु अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करनेमें उसे संकोच होता था। इस कारणसे उसने अपने विषयकी वास्तविक बातोंको किसी प्रकार छिपाते ( सीधे रूपसे न कहते हुए ) हुए युक्तिपूर्वक राजासे कुछ ऐसे वचन कहने प्रारम्भ किये थे, जो प्रकृत विषयमें सर्वथा अनुपयोगी थे || ३ || कश्चिद्भटकी कृतज्ञता 'महा यशस्वी अनुपम वीर कश्चिद्भट ललितपुरके सार्थपति सागरवृद्धिका ज्येष्ठ पुत्र है इस तथ्यको सारा संसार १. [ मरेन्द्रः ] । २. [ सद्भूतमपार्थं° ] । एकोनविंश: सर्गः [ ३५९ ] Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एकोनविंशः सर्गः जानामि तेऽहं क्रियमाणमर्थ वचोविकारह दि वर्तमानम् । कुतस्त्वयं कि कुलमस्य वेति कन्याप्रदानं प्रति ते विमर्शः ॥५॥ सा तिष्ठतु स्वा सुसुतानवद्या न तां महीपाल वृणे त्वदीयाम् । वणिक्सतश्चेति मनो निधाय प्रसीद मे वा परिणामरम्याम् ॥६॥ सभागतास्तद्वचनं निशम्य प्रसन्नतां वीक्ष्य विनीततां च । आकृतमीशस्य च संप्रबुध्द्य विज्ञापयां भूमिपति बभवः ॥७॥ त्वयेन्द्रसेनः समरे जितश्चेत्तुभ्यं प्रदास्ये सुतयाधराज्यम् । इत्येवमायोज्य सभासमक्षं भूयो विचारस्तव नानुरूपः ॥८॥ जानता ही है । मेरा भी यही कहना है कि वे (सार्थपति ) हो मेरे सर्वोत्तम सगे सम्बन्धी हैं तथा पूज्य पिता हैं। हे महाराज! उनके अतिरिक्त कोई दूसरा मेरा बन्धु या पिता इस धरातल पर नहीं है, आप ऐसा ही समझें ।। ४ ॥ आपके वार्तालापको शैलोके आधारपर मैं आपके हृदयके भावोंको कुछ-कुछ समझता हूँ, आप जिस कार्यको करना । चाहते हैं उसका भी मुझे आभास हो ही रहा है। आप यही सोचते हैं कि यह कहाँका निवासी होगा ? इसका कुल कौन-सा है ? क्योंकि कन्याका विवाह करते समय इन सब बातोंका विमर्ष करना ही पड़ता है ॥५॥ किन्तु आपकी रूप-गुणवती तथा सुशोल कन्या आपके ही घर रहे । हे महोपाल मैं वर्तमान परिस्थितियोंमें उसे नहीं ब्याह सकता हूँ। आप ऐसा निश्चित ही समझिये कि मैं वणिकपुत्र हो हूँ। इसी बातको मनमें रखकर आप मुझपर प्रसन्न हों, कारण आपके इस अनुग्रहका परिणाम बड़ा मधुर होगा ॥ ६ ॥ भरी सभामें कश्चिद्भटके उक्त वचनोंको सूनकर, उतना बड़ा शुभ अवसर त्यागकर भी उसकी आन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रसन्नताओंको लक्ष्य करके एवं अद्भुत विनम्रताको दृष्टिमें रखते हुए तथा इन सबको अपेक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अपने अभिप्रायको ध्यानमें रखकर महाराज देवसेनसे अत्यन्त समझदारीके साथ सभ्योंने निम्न वक्तव्य दिया था॥७॥ युद्धके पहिले आजके समान ही भरी हुई पूर्ण सभाके समक्ष आपने स्पष्ट घोषणा की थी 'यदि महासमरमें मथुराधिप इन्द्रसेन तुम्हारे द्वारा पराजित किया जायगा तो मैं अपनो प्राणोंसे भी प्यारी पुत्री सुनन्दाको तुमसे ब्याहूँगा और इसके साथ, साथ आधा राज्य दहेजमें समर्पित करूँमा !' इस प्रकारकी घोषणा करके अब उसपर आपका, कश्चिद्भटको इच्छाके अनुसार विचार करना किसी भो दृष्टिसे उचित नहीं है ।।८।। SamamayHEORMATRAPARASHARDHARIHSure [३६०] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग एकोनविंशः चरितम् wwsARMAmazAT.... यत्पूर्वमाख्याय सदस्सु राज्ञां तत्प्रत्यनीकं न च युक्तिमेति । महाजनानां परिहास एष धर्मस्य चात्यन्तविरुद्धमेतत् ॥९॥ ब्रवीति चक्षुर्मनसो विकारं ब्रवीति सौख्यं वपुषश्च शीभा। कुलं हि नृणां विनयो ब्रवीति इत्येवमुक्तं सदसि प्रधानैः ॥ १०॥ स्वमन्त्रिभिः स्वस्य हितं ब्रवदिभस्तथा त्वनज्ञातमिदं मयेति । कन्या'प्रदाने कृतनिश्चयोऽभून्मदा नरेन्द्रो मतिमान्विधिज्ञः ॥ ११॥ ततो नरेन्द्रो विजयप्रधानैः समेत्य बद्धैः पुरवासिभिश्च । प्रहृष्टचेताः कृतसत्यसन्धो विवाहकार्याय शशास सर्वान् ॥ १२॥ सर्ग: HORTRAILERDARSHERE AIRTHEAST-SurmepreARHWARE वजनके धनी देवसेन राजसभा पहिले जो घोषणा को थी बादमें उसके विपरीत ही नहीं उससे थोड़ा भी कम कार्य करना राजाओंको शोभा नहीं देता है, उसका किसो युक्तिसे समर्थन भी नहीं किया जा सकता है तथा वह धर्मके सर्वथा प्रतिकूल है । अतएव ऐसा कार्य होनेसे सज्जन पुरुष भी परिहास ही करते हैं ॥९॥ आँखका रंगरूप या चेष्टाएँ हो मनुष्यके मनमें उठनेवाले विचारों और भावोंको व्यक्त कर देते हैं, शरीरकी कान्ति ही। मनुष्यके सुखी कुलीन जीवनका विज्ञापन करती है, इसी प्रकार मनुष्यके कुलको महत्ताको उसकी आचार-विचार सम्बन्धी विनम्रता ही खोल कर दिखा देती है। राज्यके प्रधानोंने इस प्रकारसे कश्चिद्भटके विषयमें आग्रह किया था ॥ १० ॥ राजाके कल्याण तथा अभ्युदयकी सम्मति देनेवाले अपने मंत्रियोंको उक्त प्रकारको अनुमतिको देखकर महाराज देवसेनने कहा था 'मेरे द्वारा भी आप लोगोंका पूर्ण समर्थन किया जाता है।' इसके उपरान्त लोकाचारके विशेषज्ञ तथा विवेको महाराजाधिराजने प्रसन्तापूर्वक कन्या समदत्ति रूपसे देनेका निश्चय किया था।॥ ११ ॥ इस निर्णयपर पहुँचते ही ललितेश्वरने विजय आदि महामंत्रियों, श्रेणी, गणोंके प्रधान अनुभवी वृद्ध नागरिकोंके साथ महोत्सवके विषयमें विगतवार विमर्ष किया था। अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण कर सकनेके कारण अत्यन्त प्रमुदित महाराजने नगर तथा । राज्यके सब हो अधिकारियोंको विवाह-मंगलको तैयारी करनेका आदेश दिया था ॥ १२ ॥ G ERMIREOSADERS [३६१] १. म किंतु प्रदनि सुविचार्य कार्य कन्याप्रदाने कृतनिश्चयोऽभृत् । Jain Education interation XE Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् नित्यप्रवृद्धाः प्रचलत्पताका नित्योत्थितान्येव च तोरणानि । नित्योत्सवाढ्यां ललिताह्नपुर्या' तानेव संपादितमास पूर्वम्' (?) ॥ १३ ॥ त्रिriagoकानथ चत्वरांश्च वीथी प्रदेशान्सुमहान्पथांश्च । विशोध्य सच्चन्दनतोयगन्धैः पुष्पाणि तत्र' प्रकिरविधिज्ञाः ॥ १४ ॥ यावदगृहद्वार मिलाधिपस्य यावत्पुनः सागर वृद्धिगेहम् । तावच्च संस्कारितमृद्धिमद्भिः प्रेक्षागृहैश्चित्रितमण्डपैश्च ॥ १५ ॥ क्वचिच्च मुक्तास्तरलाः पराढ्याः क्वचित्क्वचिद्विद्रुमदामकानि । क्वचिच्च हैमाम्बुरुहाणि रेजुः प्रलम्बितान्यप्रतिमानि तानि ॥ १६ ॥ विवाह निश्चय महाराजके आज्ञा देते हो पूरे नगर में प्रतिदिन नूतन पताकाएँ खड़ी की जाती थीं जो वायुके झोंकोंके साथ लहलहाती थीं, प्रत्येक दिशा में प्रतिदिन नये-नये विचित्र तोरणद्वार बनाये जाते थे, ऐसा एक भी दिन न बीतता था जिस दिन कोई नया उत्सव धूम-धाम के साथ न मन या जाता हो। इस प्रकार प्रतिदिन ही इस प्रकारके मंगल कार्य ललितपुर में होते थे, जिनके कारण उसका महत्त्व दिन दूना और रात चौगुना हो रहा था ॥ १३ ॥ नगर सब गलियों तथा उनके दोनों ओरके प्रदेशों, बड़े-छोटे राजमार्गों तथा प्रधान मार्गों, तिमुहानियों, चौराहों तथा सब ही चरवरों (चौपालें ) को भलीभाँति पूर्ण स्वच्छ किया गया था। उनपर सुगन्धित स्वच्छ चन्दन जल छिड़का जाता था। इतना ही नहीं नगर सजाने की शैली के विशेषज्ञ पुरुष इन स्थानोंको शोभा बढ़ाने के लिए इनपर फूलों तथा रत्नोंको विधिपूर्वक बिखेर देते थे ।। १४ ।। नगरकी शोभा समुद्रान्त पृथ्वीके पालक महाराज देवसेन के राजप्रासादके द्वारसे आरम्भ करके सार्थपतियों के अधिपति सेठ सागरबृद्धि - के महलके द्वारतक जितना प्रदेश था उनका साधारण संस्कार ही न हुआ था। अपितु उस पूरे अन्तराल में महाऋद्धिसे परिपूर्ण प्रदर्शनालय ( प्रेक्षागृह ) तथा विविध चित्र आदिसे भूषित महाविभवपूर्ण मंडप बनाये गये थे ।। १५ ।। कहीं पर बहुमूल्य अनुपम कान्तियुक्त मोतियों की राशि चमक रही थी उसे देखकर लहराते जलकी आशंका हो जाती थी, कहीं पर उत्तमसे उत्तम मूंगोंकी मालाएँ लटक रहो थीं, किसी दूसरे स्थलपर सोनेसे बनाये गये सुन्दर कमल शोभा दे रहे थे, तीसरे स्थलपर अनुपम शोभाके भंडार इन्हीं कमलोंको मालाएँ लटक रही थीं ॥ १६ ॥ १. क दान्वेव सपादितमास । २. क रत्न [ पुष्पाणि रत्नान्यकिरन् ] । ३. म प्रष्या । एकोनविंशः सर्गः [ ३६२ } Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T वराङ्ग चरितम् एकोनविंशः सर्ग: क्वचिद्विचित्रं ननतुस्तरुण्यः क्वचिच्च गीतं मधुरं जगश्च । आस्फोटर भाण्डाः करतालशब्दान्विल म्बनां चारितोऽमुतश्च ॥ १७ ॥ श्रीमण्डपे लम्बितपुष्पदाम्नि विचित्रविन्यस्तबलिप्रदेशे। सिंहासने काञ्चनपादपीठे निवेश्य कश्चिद्भटमीशपुत्र्या ॥ १८ ॥ पनापिधानैर्वरहैमपुष्पैः सुशीतगन्धोत्कटवारिगर्भः। श्रेणिप्रधानेश्वरमन्त्रिमुख्यास्तौ स्नापयां प्रीतिमुखा बभूवः ॥ १९ ॥ ज्वल'किरीटं प्रणिधाय मूनि स्वयं नरेन्द्रस्तु बबन्ध पट्टम् । कृत्वाग्निधर्मोदकसाक्षिभूतं कश्चिद्दभटाय प्रददौ सुनन्दाम् ॥ २० ॥ मत्तद्रिपानां तु सहस्रसंख्या द्विषट्सहस्राणि तुरनमानाम् । ग्रामाः शतेन प्रहताः सहस्रा हिरण्यकोट्यश्च चतुर्दशैव ॥ २१ ॥ wee-wees mee WA MWA- WYGweweweweeg PAHIPATHegreememeenawesearneswe412 किसी स्थल पर युवती स्त्रियाँ अद्भुत-अद्भुत नृत्य कर रही थीं, दूसरी ओरसे मधुर मोहक गोतकी ध्वनि आ रही थी, अन्य स्थलोंपर भांड जोर-जोरसे तालियाँ पीटकर इधर-उधरकी नकलें तथा स्वांग भरने में मस्त थे ।। १७ ।। विवाह-मंडप श्रीमण्डपकी शोभा लोकोत्तर थी उसमें कोई ऐसा स्थल ही न था जहाँपर सुन्दर सुगन्धित पुष्पोंकी मालाएँ न सजायी गयी हो । स्थान, स्थानपर चौक पूर कर विपुल अर्कोको चढ़ाया गया था। वर-वधूके लिए जो सिंहासन रखा था उसके पाये आदि सब ही भाग विशुद्ध स्वर्णसे बने थे । इस सिंहासनपर महाराज देवसेनकी पुत्रीके साथ कश्चिद्भट बैठाये गये थे ॥१८॥ सिंहासनके पास सोनेके कलश रखे थे, उनमें सुशीतल तथा उत्कट सुगन्धयुक्त तीर्थजल भरा था, वे मनोहर कमलोंसे ढके हुए थे। इन्हीं कलशोंको उठाकर परमप्रसन्न ललितेश्वर, मंत्रि, राज्यके प्रधान तथा श्रेणी और गणोंके द्वारा मुखियोंने वरवधका अभिषेक कराया गया था ॥ १९॥ वर-वधू अभिषेक इसके उपरान्त महाराजने स्वयं ही कश्चिद्भटके शिरपर मुकुट पहिनाया था जिसका प्रकाश चारों ओर फैल गया था। और स्वयं ही उन्होंने जामाताको पट्टा बाँधा था। इस क्रमसे विवाहके संस्कारोंको करते हुए महाराज देवसेनने धर्म, अग्नि तथा जलको साक्षी करके कश्चिद्भटसे अपनी पुत्रीको व्याह दिया था॥ २० ॥ दहेजमें दिये गये मदोन्मत्त हाथियोंकी संख्या एक हजार थी, सुशिक्षित घोड़ोंका प्रमाण भी ( दो छह ) बारह १[ विडम्बना]। २.क ज्यलत्तिरीटं । [३६६ Jain Education international Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् ArIHARCHAIRAHARMAHARASHPAHARASTROMAMROHARMATIPATTERames द्वात्रिंशदायोजितनाटकानि वृद्धाः किराता विविधाश्च दास्यः । सुशिल्पिनः कर्मकरा विनीता दत्तानि पित्रा विधिवदहित्रे ॥ २२॥ अन्यच्च लोकेऽतिशयप्रवृत्तसुसंस्कृतं द्रव्यमनेकभेदम् । एकोनविंशः क्रीडानुरूपं विधिना विभूत्यै प्रोत्या ददौ भूमिपतिः सुतायै ॥ २३ ॥ सर्ग: सद्रत्नसंस्कारितचारुरूपां दिवाकरांशुप्रतिमां महाहीम् । आरुह्य तो तां शिविका महा प्राचक्षितां सागरवृद्धिगेहम् (?) ॥ २४ ॥ अष्टादशणिगणप्रधानैरष्टादशान्येव दिनानि तत्र । कश्चिद्भटस्यावनिपात्मजायाश्चक्रे विभूति महती महभिः ।। २५ ।। ताम्बूलवस्त्रोत्तमभूषणानि विलेपनं स्रग्वरभोजनानि । प्रस्पर्धयेवाहरहस्तदानीं संप्रेषयन्ति स्म नरेन्द्रपल्यः ॥ २६ ॥ हजार था, एक हजारसे गुणित सौ अर्थात् एक लाख प्रमाण ग्राम दिये थे तथा चौदह कोटि प्रमाण सुवर्ण मुद्राएँ समर्पित की थीं ॥ २१ ॥ ___ इसके अतिरिक्त बत्तीस नाटककी आयोजना करनेवाले (ललित-कला वेत्ता) दिये थे, अन्तःपुरमें रहने योग्य अनेक वृद्ध पुरुष, किरात, सब प्रकारकी दासियाँ, सब तरहके शिल्पकार तथा विनीत कर्मचारी पिताने आवश्यकताका विचार करके अपनी प्रिय पुत्रीको दिये थे ।। २२ ।।। इतना ही नहीं संसारमें महत्ता तथा सुसंस्कृत आदर्श जीवनके लिए आवश्यक सब ही प्रकारके पदार्थ, मनोविनोद, । क्रीड़ा, आदि प्रसंगोंके उपयुक्त सामग्री, तथा विभव-प्रभावके प्रदर्शक सब ही उपकरणोंको महाराज देवसेनने बड़ी प्रोतिके साथ पुत्रीको समर्पित किये थे ।। २३ ।। इस विधिसे विवाह संस्कार समाप्त हो जानेपर वर-वधूको विदाके लिए महा मूल्यवाली पालकीमें बैठाया गया था। उत्तम-उत्तम रत्नोंके जड़ावके कारण पालकीकी शोभा मनोहारी हो गयी। वह सूर्यके किरणोंके समान जगमगा रही थी। इसके उपरान्त विशाल वैभव और पूजाके साथ उन दोनोंने सागरवद्धिके घरमें प्रवेश किया था ॥ २४ ॥ वहाँपर पहुँच जाने पर महा ऋद्धिशाली श्रेणी तथा गणोंके अठारह प्रधानोंने लगातार अठारह दिनतक कश्चिद्भट , [३६४] तथा राजाकी बेटोका बड़े समारम्भपूर्वक स्वागत किया था तथा बड़ी-बड़ी विभूतियाँ भेंट की थीं ॥ २५ ॥ इन दिनों ही महाराज देवसेनकी सब रानियाँ भी प्रतिदिन वस्त्र, उत्तम-भूषण सुस्वादु भोजन, श्रेष्ठतम मालाएँ, । १. [ महाहं ]। Jain Education intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् स्वबाहुवीर्याजितभोगवत्या भूपश्रिया साधु विभासमानम् । कश्चिद्भटं राजसुतां च वीक्ष्य जगज्जनः स्वैरमभाषतेत्थम् ॥ २७ ॥ कि किन्नरीणां मिथुनं त्विदं स्यादाहोस्विदायातमयेन्द्रलोकात् । विद्याधराणां विषयादपेतं यदृच्छयेहागतमित्यमस्त ॥ २८॥ अज्ञातवंशः परदेशजातो बन्योऽयमस्याः पतितामुपेतः। पुण्यान्वितानां हि नृणां नृलोके पुण्यान्विता एव भवन्ति भार्याः ॥ २९ ॥ ईदक्सुरूपाणि महोगतानां कोदृक् शिवा तत्र नभश्चराणाम् । ईदग्यदि स्याल्ललितं नराणां कोक्सुराणामिति किं वचोऽस्ति ॥३०॥ एकोनविंशः सर्गः SaneHeameramawesawesterestmeSeemaeaire विलेपन, पान, आदि भोग-परिभोग सामग्री भेजती रहती थीं। एक रानीकी अपेक्षा दूसरीके उक्त पदार्थ बढ़कर होते थे, मानो पुत्रीपर स्नेह प्रकट करनेमें वे एक दूसरेको हराना चाहती थीं ।। २६ ।। नवदम्पतिका स्वागत कश्चिद्भटने अपने बाहुबलके द्वारा ही समस्त भोगोंको खान राजलक्ष्मीको प्राप्त किया था। उसकी प्राप्ति हो जाने से उसका तेज व कान्ति विकासकी चरमसीमाको प्राप्त हुए थे। उस समय उसे तथा गुणवती राजपुत्रीको देखकर लोग अपने आप प्रसन्नतासे कह उठते थे ॥ २७ ॥ राजपुत्री तथा कश्चिद्भटकी यह अनुपम जोड़ी क्या किन्नर देवोंका युगल है ? अथवा पर्यटन करती हुई कोई देव देवाङ्गनाकी जोड़ी स्वर्गसे पृथ्वीपर चली आयो है । वे सोचते थे, क्या विद्याधर लोकको छोड़कर ये दोनों यों ही मनुष्य-लोकके पर्यटनको तो नहीं चले आये हैं ।। २८ ॥ कोई कश्चिद्भटके जन्म तथा कुलको भी नहीं जानता है, किसी दूर देशमें उत्पन्न हुआ होगा। किन्तु यह धन्य है जो हमारो राजपुत्रीका पति हो गया है । सत्य हो है जो पुरुष पुण्यलक्ष्मीके भर्ता हैं इस संसारमें उनको पल्लियाँ वे ही हो सकती 4 हैं जिन्होंने पूर्व जन्ममें विपुल पुण्यराशिको कमाया है ।। २९ ।। लोकका नवदम्पति-अनुराग यदि मध्यलोकमें उत्पन्न स्त्री और पुरुष इतने अधिक रूपवान हो सकते हैं तो स्वर्गवासियोंकी रूपलक्ष्मी कैसी होती होगी। यदि मनुष्य गतिमें उत्पन्न युगल इतना अधिक ललित है तो देवताओंके स्वर्गीय लावण्य और दैवी कान्तिके विषयमें तो कहा ही क्या जा सकता है ? इन दोनोंने पूर्व जन्ममें कौन-सा दुर्द्धर तप किया होगा ।। ३० ॥ १. [ कीदृश्रियश्तत्र]। रामबालारामनासम्ममण्यमान्चारमन्नान्य [३६५]. Jain Education interational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशः wegwme wewewewewewewewewe किं वानयोः पूर्वकृतं तपः स्यात्काराधिताभ्यां खलु देवता वा। व्रतानि कान्याचरितान्युभाभ्यामित्ययब्रवीद्विस्मयफुल्लनेत्रः ॥ ३१ ॥ एवं जनानां स्थितवान्मनस्सु स्वपूर्वनिवर्तितपुण्यभागो। विस्मित्य' कश्चिदभट आत्मबन्धन्रेमे नवैर्बन्धजनैः समेतः ॥ ३२ ॥ नरेन्द्रपुत्रीमनवद्यरूपामवायंकान्तिद्युतिसौकुमायें: रहोविहारेष्वनुवतितैः स्वः स रज्जयामास गुणैर्गुणज्ञः ॥ ३३ ॥ गन्धर्वगोतश्रुतिगन्धयुक्त्या काव्यप्रयोगेन कथाप्रपञ्चैः । नाटयावलोकेन कथाविशेषैस्तस्या मनस्स्वैः स्वबबन्धः वध्वाः ॥३४॥ साप्यात्मनीयललितैरुदारैः कलागुणज्ञानकथाविशेषैः। दाक्षिण्यवेविनयोपचारैजंहार चेतः सततं स्वभः ॥ ३५॥ अथवा किस देवताके अनुपम आदर्शको इन दोनोंके द्वारा आराधन को गयी होगी। अथवा इन लोगोंने कौनसे व्रतों का निरतिचार आचरण किया हागा ? इस प्रकार जब लोग कहते थे तब उनके नेत्र आश्चर्यसे फैल जाते थे। उनके मनमें धामिक आस्था तथा नूतन युगलके प्रति आदरका भाव बढ़ता ही जाता था ।। ३१ ।। पूर्वभवमें उपाजित पुण्यके फलोंको भोगनेवाला कश्चिद्भट भी इन सब व्यासंगोंमें फंसकर अपने प्रथम बन्धु बान्धवों को भूल गया था तथा नूतन सगे सम्बन्धियोंसे घिरा हुआ प्रसन्नतासे समय काट रहा था ।। ३२ ।। युवराजकी नूतन पत्नी, ललितपुरकी राजकन्याका रूप सर्वथा खोटहीन था। उसकी अपनी कान्ति, तेज तथा सुकुमारताका आकर्षण भी ऐसा था कि उसके सामने स्थिर रहना असंभव था, फलतः वह गुणी राजपुत्र दिनके विहारमें अपने गुणोंका अनुकूल प्रवाह करके पत्नीको प्रसन्न रखता था ।। ३३ ।। वह युगल कभी गान्धर्वोके गीत सुनता था, तो दूसरे समय परस्परका वर प्रसंग ( फूलों, इत्र आदिसे सजाने) करते थे। किसी समय काव्य निर्माण तथा विवेचनका रस लेते थे और कथाएँ कहकर मन बहलाते थे, अन्य समय रसमय नाटकोंका अभिनय देखकर अथवा विशेष गल्प कहकर नवोढ़ा पत्नीके चित्तको वह अपनी ओर जोरोंसे खींचता रहता था ।। ३४ ॥ उस वधूका ज्ञान, गुण, ललित कलाओंका अभ्यास तथा वार्तालापकी शैली अति अधिक रसमय, उदार तथा आकर्षक थे, वेषभूषा शिष्ट किन्तु उद्दीपक थे, तथा समस्त आचार विनम्रतासे ओतप्रोत था फलतः पतिके मनको उसने पूर्णरूपसे अपने वशमें कर लिया था ॥ ३५ ॥ । ५. [ विस्मृत्य ।। २. म बतितस्तैः। ३. [ स बबन्ध ]। ४. म बन्ध्वाः । Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग एकोनविंशः सर्गः चरितम् उद्यानपानश्च नदीविहारैर्वनप्रदेशाद्रिनिरीक्षणैश्च । महाहहर्येषु रतिप्रमोदैः कश्चिद्भटस्तां रमयांबभूव ॥ ३६॥ अन्योन्यसंभाषणसक्तचित्तमन्योन्यसंदर्शनतत्पराक्षम् अन्योन्यमनेषु कृताङ्गरागमन्योन्यमेवं मिथुनं जहर्ष ॥ ३७॥ एवं तयोस्तु प्रथितोरुकीयोः परस्परोद्वतितभोगरत्योः । विश्रम्भभावानुगतप्रणीत्योः कालो व्यतीतः पुरपुण्यमयोः ॥ ३८ ॥ ततः कदाचिन्नुपसेवनाथं कश्चिद्भटाख्यं नृपति विशन्तम् । मनोरमा नाम नरेन्द्रकन्या यदच्छयापश्यदतुल्यशौर्यम् ॥ ३९॥ समीक्ष्य रूपं च युवत्वमस्मिन्नास्थां चकार क्षितिपालकन्या। लब्जावकाशो' मदनस्तदानों हृदि प्रविव्याध मनोरमायाः ॥ ४०॥ गाडानुराग पत्नी पर परम अनुरक्त कश्चिद्भट भी उद्यान विहार, नदियोंमें जलक्रीड़ा, बनके रम्य प्रदेशोंका पर्यटन, पर्वतोंकी प्राकृतिक शोभाका निरीक्षण, विशाल तथा वैभव सम्पन्न राजमहलों में रतिकेलि आदि कार्योंके द्वारा पत्नीका मनोविनोद करता था।। ३६ ॥ आपसमें वार्तालाप करते, करते उनके मन कभी अधाते हो न थे, एक दूसरेको निनिमेष देखते रहनेपर भी उनकी आँखें कभी थकती ही न थीं, उन दोनोंको हो एक सरेके अंग अंगसे गाढ़ प्रोति थी अतएव इस क्रमसे वे एक दूसरेमें लीन होते । जाते थे॥ ३७॥ उनके भोग और रति एक दूसरेका आश्रय पाकर द्वितीयाके चन्द्रमाके समान बढ़ रहे थे, चेष्टाएँ भी पारस्परिक विश्रम्भ और भावगाम्भीर्यको बढ़ा रही थीं। पुण्यकी ख्यातिके समान उनकी प्रोतिगाथाकी कोति भी खूब फैल रही थी। यह जोड़ी ललिलतपुरके पुण्यकी मूर्तिके समान थी। परस्परानुकूल आचरणसे उनका समय आनन्दपूर्वक बीत रहा था ॥ ३८ ॥ मनोरमाका मोह एक दिनकी घटना है कि नृपति कश्चिद्भट महाराज देवसेनके साथ बैठकर योग्य सेवा, आदि जाननेके लिए अन्तःपुरमें प्रवेश कर रहे थे । संयोगवश उसी समय अतुल्य पराक्रमी राजा कश्चिद्भटको सहजभावसे मनोरमा नामको किसी राजपुत्रीने देखा था ॥ ३९ ॥ कश्चिद्भटके शुद्ध रूप और परिपूर्ण यौवनको देखकर उस राजपूत्रीका मन उसपर उलझ गया था, फिर क्या था! १. म शब्दावकाक्षो। [३६७] Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चारतम् अनङ्गमुक्तः स च तीक्ष्णबाणः संप्राप्य वेगादथ चित्तलक्ष्यम् । दवाह तस्यास्तनुमन्तरन्तो वह्निर्यथान्तः सुषिरं द्रुमस्य ॥ ४१ ॥ नालङ्गकृता सान सखीभिरासे संभाष्यमाणा न ददौ च वाचम् । नैवार्स' किचिन्न पपौ न सास्मो र कन्दर्पदर्पाभिहता वराङ्गी ॥ ४२ ॥ कदाचिदुद्यानवनैकदेशे स्थिता पुनः सा स्मितनिश्चलाक्षी । कश्चिद्भटं चित्रकला विदग्धा लिलेख पुंस्त्र' नृपतेः शिलायाम् ॥ ४३ ॥ अवेक्ष्य चित्ररथमती विद्धं तद्दुर्लभत्वं च विचिन्तयन्त्याः । सदीर्घनि:श्वासमुखं रुदन्त्या हिमाहताम्भोजमिवास तस्याः ॥ ४४ ॥ कामदेवको शुभ अवसर मिला और उनने तुरन्त ही मनोरमाके अनुभवहीन हृदयको अपने पुष्प-वाणोंसे वेध दिया था ॥ ४० ॥ जगज्जेता कामदेवसे द्वारा छोड़ा गया अति तीक्ष्ण वाण अत्यन्त वेगसे मनोरमाके हृदयरूपी सुकुमार लक्ष्यमें जा धँसा था। और उसके शरीरको उसी प्रकार तपाने लगा था जिस प्रकार वृक्ष के अन्तरंग में प्रज्वलित आग स्वाभाविक अवस्था में भीतर अत्यन्त शीतल वृक्षको भस्म करने लगती है ॥ ४१ ॥ विरह व्यथा प्रेमपीड़ासे अनभिज्ञ वह भोली राजकुमारी न तो अपना शरीर संस्कार व शृंगार करती थी, न सब सखियोंके साथ बैठती, खेलती थी, बार-बार पूछे जानेपर भी उत्तर न देती थी, न तो कुछ पीती ही थी । कामदेवकी शक्ति से परपोड़ित सुकुमारी सुन्दरी राजपुत्रीको नहाने-धोने तकका भी ख्याल न था ।। ४२ ।। उद्यानमें जाकर वह किसी एकान्त कोनेमें जाकर बैठ जाती थी और अपने प्रेमीके ध्यानमें मग्न होनेपर उसके सुन्दर विशाल नेत्र सर्वथा निश्चल हो न होते थे अपितु मुखमण्डलपर एक अकारण स्मित भी खेलता रहता था। वह राजपुत्री चित्रकलामें दक्ष थी । अतएव शिलाके ऊपर कश्चिद्भटका रेखाचित्र बनाती थी ।। ४३ ।। अत्यन्त सफल चित्रमें कश्चिद्भटको देखकर तथा उसकी दुर्लभताको सोचकर विचारी हताश हो जाती थी। मुख निराशासूचक दीर्घं निःश्वास निकलता था। और आंखोंसे आँसूकी धार बह पड़ती थी उस समय उसका मुख देखनेपर उस विकसित कमलकी श्री का स्मरण हो आता था जिसपर पाला पड़ जाता है ।। ४४ ।। १. [ नैवाश ] । २. [ साञ्चीत् ] । ६. [ पुत्री ] । 2210 एकोनविंशः सर्गः | ३८६ ] Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सखी तिरोऽभ्येत्य ततस्तदानीं वैश्चिन्त्यमस्या ह्यधगम्य युक्त्या । सा पृष्ठतस्तां शनकैरुपेत्य नेत्रद्वयं कत्पिदधौ कराभ्याम् ॥ ४५ ॥ सख्या: कराग्रप्रतिमर्शनेन मृगीव तत्रास तदानभिज्ञा । तद्वाक्यतः सा विदितानयेति किचित्प्रहस्यात्मनि सा ललज्जे ॥ ४६ ॥ अन्यार्थसंव्रीडनवेपिताजी हस्तद्वयेन प्रममर्ज चित्रम् । सखी च तद्वीक्ष्य जयाद वाक्यं चित्रं किमेतद्वद मे निशङ्का' ॥ ४७ ॥ भूयश्च तस्या वदनं निरीक्ष्य ससाध्वसं मूढमनोभवार्ता । Perfect त्वं हि किमर्थमासे वने वदेत्येवमथाभ्यपृच्छत् ॥ ४८ ॥ सा चैवमुक्ता धरणीन्द्रपुत्रो सख्या तदाचारगुणं ह्यवत्या । नैवालि मे कार्यमवश्यभावि क्रीडाप्रसङ्गादहमागतास्मि ॥ ४९ ॥ छिपाये न छिपे उसी समय कोई सखी आड़मेंसे बढ़कर उसके निकट पहुँचकर बड़ी युक्तिपूर्वक उसको अन्य -मनस्कताको भाँप लेती थी । फिर-धीरे-धीरे पोछेसे उसके अति निकट पहुँचकर अपने कोमल हाथोंसे उसकी आँखोंको दबा लेती थी ।। ४५ ।। सखी की हथेलियों के स्पर्शं द्वारा चैतन्य होकर वह भोली राजकुमारी वन्य हिरिणोकी भाँति डर जाती थी । वह सखीकी बात से यह अनुमान करके कि इसने सब जान लिया है कुछ थोड़ा हँसने का प्रयत्न करती थी, किन्तु अन्तमें अत्यन्त लज्जित हो जाती थी ।। ४६ ।। इतने पर शेष रहस्यको छिपा लेनेके अभिप्रायसे वह त्वरापूर्वक दोनों हाथोंसे चित्रको पोंछ देती थी । सखी भी उधर देखकर कहती थी 'यह किसका चित्र है, मुझे निशंक होकर बताओ ॥ ४७ ॥ तुरन्त ही सखी ध्यानपूर्वक मनोरमा के मुखको देखती थी और उसपर भय तथा आशंकाकी छाया ही नहीं अपितु कामव्यथाकी स्पष्ट छापको देखकर उससे आग्रहपूर्वक पूछती थी - ' इस वनमें भी तुम किस विशेष प्रयोजनसे बिल्कुल अकेली बैठी हो ?' ॥ ४८ ॥ प्रेम छिपानेका प्रयत्न ललितेश्वरकी राजनन्दिनी सखीके द्वारा उक्त विधिसे पूछे जानेपर उसको ओर देखती थी तथा उसके आचार और १. [ विशङ्का ] । २. [ ह्यवेत्य ] । For Private Personal Use Only एकोनविंश: सर्गः [३९] Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशः इत्थं बुवाणा कुशला सखी सा विज्ञाय तस्या हृदि वर्तमानम् । अन्यापदेशेन सदर्थमन्यं मनःप्रसादार्थमिमां जगाद ॥ ५० ॥ मुखं परावर्तितकान्ति कान्ते ग्लानि गता ते तनुरजतन्वी। 'विगृहसे किं हृदि यव्यलोकमेकाकिनी वोढुममु समर्था ॥५१॥ मातुः पितुश्चैव विलासिनीनां विधम्भनीया तनु साध्वि सख्याः। नियन्त्रणां त्वं मयि संविधत्स्व शक्ता विनेतुं हृदयस्य तापम् ॥५२॥ जानामि विद्या विविधप्रकारां मायामदश्यां मदनप्रयोगम् । आवेशनं भतवशीकृति च यदीच्छसि त्वं प्रववेत्यवोचत् ॥ ५३॥ सर्गः ITIGADHUSHAIRPURIHAR गुणोंका अनुमान करके इतना ही कहती थी 'हे आलि ? यहाँ बैठनेमें मेरा कोई अवश्यम्भावी प्रयोजन नहीं है, सहज ही मनोविनोद करती हुई यहाँ आ बैठी हूँ ॥४९॥ मनोभाव लेनेका प्रयत्न अस्पष्ट उत्तर देकर मनोभावको छिपानेवाली राजपुत्रीके मनके वास्तविक भावोंको वह चतुर सखी अनुमानसे जान गयी थी, अतएव उसके हृदयको कुछ हल्का करनेकी इच्छासे किसो दूसरो उत्तम बातको उसके आगे छेड़ देती थो५० ॥ 'हे कान्ति ? तुम्हारे स्वाभावकि परम सुन्दर मुखको कान्ति बिल्कुल बदल गयो है। हे कृषाङ्गि! तुम्हारा दुबला पतला शरीर अत्यन्त थक गया है। हृदयमें जो ज्वारभाटा उठ रहा है उसे झूठ ही क्यों छिपाती हो, अकेले-अकेले कहाँ तक सहोगी? ॥ ५१॥ 'हे आलि ! प्रेम-प्रपञ्चमें पड़ी रतविलासको इच्छुक युवतियोंके लिये सखियाँ माता तथा पितासे भी अधिक विश्वासपात्र तथा सहायक होती हैं । इसलिए तुम अपनी मनोव्यथाको मेरे साथ बाँट लो, मुझे विश्वास है कि मैं तुम्हारे हार्दिक तापको सम्भवतः दूर कर सकती हूँ ।। ५२ ।।। मैं भांति-भाँतिकी आश्चर्यजनक विद्याओंको जानती हैं, मैं अदृश्य माया के प्रयोगके साथ कामदेव सम्बन्धी वशीकरण प्रयोग भी कर सकती हैं। दूसरेको उद्दीप्त करना और भतप्रेतको वशमें करना तो मेरे लिए अति सरल है । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो अपने मनोभाव कहो।' इतना कहकर वह चुप हो गयी थी ।। ५३ ।। समसामन्य [३७.] 1 १. क विगृहसि, [ निगृहसे ] । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHAH बराङ्ग एकोनविंशः परितम् सर्गः संश्रुत्य सा तवचनं यथार्थ लब्ध्वावकाशं नरदेवकन्या । मनोगतार्थप्रतिबोधनाय 'समानपूर्वा गिरमित्थमचे ॥ ५४॥ का मे प्रिया का च हितप्रवक्त्री मनःप्रसादस्य च का नियोक्त्री। का देवता कः सुजनोऽनुवर्ती ऋते भवत्या शरणं न मेऽस्ति ॥ ५५॥ नरेन्द्रसेवार्थमिहागतं तं यदा नु कश्चिद्भटमभ्यपश्यम् । तस्मिस्तदैवात्ममनः ससज्जे किं गृहितव्यं हितमित्युवाच ॥ ५६॥ यथा यथा तं मनसा स्मरामि मृगेन्द्रविक्रान्तमनङ्गरूपम् । तथा तथा मां प्रदहत्यनः कुरुष्व तच्छान्तिमरं वयस्ये ।। ५७॥ एवं प्रविष्टा मनसो विकारं विज्ञाय तस्याः कमलायतायाः । सर्वैरुपायैस्तव कार्यमायें संसाधयामीति ततो जगाद ॥५॥ AHARPATRAMMARRANTE-Paper-IN ममयमाघRITERSमयमयसमयमSHARELASS __ मुग्धाको आतुरता चतुर सखीके लगभग सत्य वाक्योंको सुनकर प्रेम-प्रपंचसे अनभिज्ञ राजपुत्रोंको मनोभावोंको चरितार्थ करनेका शुभ अवसर मिल गया था। अतएव अपने मनकी वास्तविक अवस्थाको स्पष्टरूपसे बतानेके अभिप्रायसे आदरपूर्वक राजपुत्रीने निम्न वाक्य कहे थे ।। ५४ ॥ _ 'मेरी तुमसे अधिक प्यारी सखी और कौन है । तुम्हीं तो मुझे हितकी बात कहती हो। तुम्हारे सिवा और कौन दूसरी मेरे मनको प्रफुल्लित कर सकती है ? मेरे लिए तुम साक्षात् देवता हो, कौन सगा-सम्बन्धी तुमसे बढ़कर अनुकूल हो सकता है ? और क्या कहूं तुम्हें छोड़कर कोई दूसरा मुझे शरण नहीं है ।। ५५ ॥ महाराजकी सेवा करनेके लिए एक दिन कश्चिद्भट अन्तःपुरमें आये थे, जिस समय मैंने उनको देखा, उसी समय मेरा हृदय उनपर लग गया। तुमसे क्या छिपाऊँ, तुमही हितका मार्ग दिखाओ ।। ५६ ।। हिरणोंके राजा सिंहके समान पराक्रमी और कामदेवके समान परम रूपवान उस कश्चिद्भटको जितना-जितना मनोमन सोचती हूँ, कामदेव निर्दय होकर मुझे उतना-उतना अधिक तपाता है। हे सखि ! शीघ्रसे शीघ्र इस दाहको शान्त करो ॥ ५७॥ सखीका आश्वासन इन वाक्योंके द्वारा प्रकट किये गये, कमलाक्षि राजदुलारीके मनोभावोंको भलीभाँति समझकर उस कुशल सखीने कहा १. [ संमानपूर्व ]। २. [ तच्छान्तिकरं ] । [३७१] Jain Education international Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशः वराङ्ग चरितम् सर्ग: muTHATRAPAHARMeare अथामितं तं शनकैरुपेत्य कश्चिटं सा तु विविक्तदेशे। मनोरमायाः सकलामवस्थां व्यजिज्ञपदागुपपत्तिदक्षा ॥ ५९॥ नयादपेतं बहुदोषमूलं निशम्य तस्या वचनं पृथश्रीः। कश्चिद्भटो मेरुरिवाप्रकम्प्यो न युक्तमेतद्विनयादवोचत् ॥ ६॥ एतचस्ते न च युक्तरूपं विभ्राजते कर्मणि नैव भासः । स्वदारसंतोषमणुव्रताख्यं साध्वीश्वरो' मह्यमुपादिदेश ॥६१ ।। इत्युक्तवत्युत्तमचारुरूपे कश्चिद्भटे सापि पुनर्जगाद । व्रतोपदेशात्समनुग्रहीतु मनोरमां नेच्छसि मे सखी ताम् ॥ ६२॥ प्रत्यक्षभूतं फलमुद्विहाय परोक्षपातं मगये झपार्थम् । न पण्डितस्त्वं बत बालिशोऽसि संदिग्धवस्तुन्यथ मुख्यमास्ते॥६३ ॥ समाचार-मचगामा enameARAMPARASIFALPIPARIA था-'हे आर्ये ! जितने भी सम्भव उपाय हैं उन सबके द्वारा मैं तुम्हारे मनोगत कार्यको पूर्ण रूपसे सिद्ध करूँगी ॥ ५८ ॥ नवप्रेमिकाकी शिष्ट दूती कुछ समय बाद ही वह कुशल सखी किसीको थोड़ा-सा भो आभास दिये बिना चुपचाप ही एकान्त स्थानपर अमित पराक्रमी कश्चिद्भटके पास जा पहुंची थो । वह वार्तालाप करनेकी कलामें दक्ष थी अतएव उसने मनोरमाकी पूरीकी पूरो प्रेमगाथा उसको सांगोपांग बता दो था ।। ५९ ॥ परम सुन्दर तथा लक्ष्मीवान् कश्चिद्भटने सखीके वचनोंको सुनकर ही समझ लिया था कि उसका प्रस्ताव नैतिकतासे हीन तथा अनेक दोषोंसे परिपूर्ण था। वह व्रती था अतएव इस प्रकारके विषयों में मेरुके समान अडिग था फलतः उसने अत्यन्त विनम्रताके साथ उससे कहा था कि 'आपका प्रस्ताव सर्वथा अयुक्त है ।। ६० ।। वरांगको स्थिरता देविजी! आपका प्रस्ताव किसी भी दृष्टिसे युक्त नहीं है, वह कार्यरूप दिये जाने पर बिल्कूल शोभा न पायेगा। इसके अतिरिक्त ऋषिराज वरदत्तकेवलीने अनुग्रह करके मुझे स्वदार (संतोष) व्रतकी दीक्षा भी दी थी।' ।। ६१ ।। अनवद्य सौन्दर्यके भण्डार कश्चिद्भटने जब उसे उक्त उत्तर दिया तो वह कुशल सखी चुप न रही, उसने पूछा था 'क्या आप अनुपम सुन्दरी मेरी उस सखी पर इसीलिए अनुग्रह नहीं कर सकते हैं, कि आपने केवलीसे स्वदार-अणुव्रतकी दीक्षा ली थी॥ ६२॥ [३७२ ____ यदि यही बात है तो मैं आपको बुद्धिमान नहीं मान सकती हूँ। हे वीरवर ! प्रत्यक्षरूपसे सामने उपस्थित फलको । १. क साध्वीति रामाञ्चमुपादिदेश। २. [ मुख्यता ते ] । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग व्रते दिवं यान्ति मनुष्यवर्या दिवश्च सारोऽप्सरसो बराजयः। व्रताभिगम्या यदि देवकन्या इयं हि ताभ्यो वद केन होना ॥ ६४ ॥ सा चापि तन्वी त्वयि सक्तभावा प्रसीद नाथानुग्रहाण भद्राम् । इति ब्रुवाणां परिशुद्धबुद्धिः सहेतुकं वाक्यमिदं जगाद ॥६५॥ ये शोलवन्तो मनुजा व्यतीता दृढवतास्ते जगतः प्रपूज्याः । परत्र देवासुरमानुषेषु परं सुखं शाश्वतमाप्नुवन्ति ॥६६॥ न 'मज्जयन्त्यम्बनिधौ सुशोलान्न दग्धमीशो ज्वलचिरश्मिः। न देवता लवयितु समर्था विघ्ना विनश्यन्ति दशामयत्नात् ॥ ६७ ॥ एकोनविंशः सर्गः छोड़कर तुम परोक्ष फलकी खोज करते हो, जो संभवतः कहीं है भी नहीं, अतएव मेरी दृष्टिमें तो आप मूर्ख ही हैं, कारण, आप संदिग्ध वस्तुको अत्यधिक महत्त्व देते हैं ।। ६३ । इसके सिवा व्रतोंका पालन करनेसे स्वर्ग ही तो प्राप्त होता है और स्वर्गका सार भी तो सुकुमार सुन्दरी अप्सराएं हो हैं । यदि कठोर व्रतोंका पालन करने पर देवकन्याओंका संगम ही प्राप्त होता है। तो सोचो, हमारी सखी मनोरमा देवियोंसे किस योग्यतामें कम है ।। ६४ ॥ सखोकी युक्तियाँ हे प्रभो! सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह तन्वी भी अपने हृदयको तुम्हारे चरणोंमें अर्पित कर चुकी है, अतएव अनुग्रह करिये, उस साध्वी पर कृपा करिये। इस प्रकार कहकर जब वह चुप हो गयी, तो कश्चिद्भटने मर्यादापूर्वक उससे निवेदन किया था क्योंकि उसकी मति पूर्णरूपसे शुद्ध थी।। ६५ ।। इस संसारमें जो शुद्ध आत्मा शीलव्रतको पालन करनेवाले हए हैं तथा जो किन्हीं परिस्थितियोंमें पड़कर भी धारण किये गये व्रतोंसे नहीं डिगे थे वे समस्त संसारके आज भी पूज्य हैं। ऐसे चरित्रनिष्ठ आत्मा ही अगले जन्मोंमें देव, असुर तथा मनुष्य योनियों में जन्म ग्रहण करके निरन्तर, सतत तथा सम्पूर्ण लौकिक सुखोंका प्राप्त करते हैं ।। ६६ ।। शीलव्रत-महिमा जो शीलव्रतसे नहीं डिगे हैं वे समुद्र में गिर जाने पर भी नहीं डूबते हैं, भयंकर रूपसे जलतो हुई ज्वालाकी लपटें भी उन्हें जलाने में समर्थ नहीं होती हैं, देवोंमें भी यह सामर्थ्य नहीं है कि वे उनका अपमान कर सके, तथा संसारके सब हो विघ्न उनके मार्गमें आकर अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं ।। ६७ ।। १. [ मम्जयत्यम् निधिः] । IRDLAGPURPURPURINTROमाचार [३७३] जन्य Jain Education international Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ एकोनविंशः सर्गः इहाप्यशीलाः परिभूयमाना दुःखान्यनेकानि समश्नुवन्ति । परत्र तीव्राण्यसुखानि भद्रे ध्रुवं लभन्ते नरकेषु मूढाः ॥ ६८।। ये शीलवेलामिह लवयेयुर्दमं महान्तं नृपतेर्लभन्ते । यथा तथा दर्शय वाग्मुखानां नृणां परत्रापि यशश्च साध्यः॥ ६९॥ सुशीलमाहात्म्यवशेन पूर्व विमुक्तशापोऽहमभूवमेषः । ततो मया लचयितुं न शक्या व्रतस्थितिः सा मुनिसाक्षिभूता ॥ ७० ॥ यद्यप्यनुज्ञां कुरुते नरेन्द्रो गृह्णामि कन्यां विधिपूर्वकेन । आप्तोऽन्यथा सर्वजनापवाद बोद न शक्तो न हितं परत्र ।। ७१ ॥ इत्येवमुक्ता प्रतिभग्नवाक्या सखी विनिर्गम्य नरेन्द्रपुत्रीम् । मनोरमां मन्मथशापबद्धामाश्वासनार्थ मधुरं जगाद ॥ ७२ ॥ दूसरी ओर देखिये, जिन्होंने अपने शीलको खो दिया है वे इसी भवमें स्थान-स्थान पर अपमानित होते हुए नाना प्रकारके अनेक दुखोंको भरते हैं। इस जन्मके उपरान्त अगले भवमें वे मुर्ख नरकोंमें उत्पन्न होते हैं तथा हे भद्रे ! वहाँपर भयंकरसे भयंकर दुखोंको पाते हैं, इस में जरा भी सन्देह नहीं है ।। ६८ ।। ____ व्यभिचारका कुपरिणाम हमारी व्यवस्थित समाजमें जो कोई भी शीलकी मर्यादाको तोड़ते हैं वे शासकोंके हाथों बड़ा भारो दण्ड पाते हैं। यह सब सहकर भी यदि किसी प्रकारसे यहाँपर वे अपने मुखको दिखानेमें समर्थ होते हैं तो उससे क्या? क्योंकि दूसरा भव तथा यश दोनों ही मनुष्य जन्मके चरम साध्य हैं ।। ६९ ।। मुझको ही लीजिये; स्वयं मैं ही इसके पहिले शीलव्रतके प्रतापसे ही एक भयंकर शापसे बचा हूँ। यही सब कारण हैं जो मुझे ग्रहण किये गये व्रतको भंग करने में सर्वथा असमर्थ कर देते हैं। फिर यह भी न भूलिये कि मैंने किसी असाधारण व्यक्तिसे A व्रत ग्रहण किये हैं। साक्षात् केवलीके समक्ष ग्रहण किये थे ।। ७० ।। अधिकसे अधिक इतना कर सकता हूँ कि यदि राजकुमारीके पिता महाराज देवसेन आज्ञा दें तो उनकी पुत्रीको धार्मिक विधि विधानके साथ ग्रहण कर सकता हूँ। ऐसा न होनेसे सर्वसाधारणमें होनेवाले सुविदित अपवादको मैं कदापि सहन नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि वह यहीं नहीं; परलोकमें भी हितकारी न होगा' ।। ७१ ॥ विवाह ही वासना-शान्तिका एकमात्र उपाय जब कश्चिद्भटने इन युक्तियों द्वारा मनोरमाको सखीको समझाया तो उससे इनमेंसे एकका भी उत्तर न बन पड़ा २. [ सांध्यम् ] । ३. म सुशीलसंपन्नवयेन । FAIRTHERaRLEXSanatra RISARDARSHEEPALI [३७४] Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशः चरितम् यत्प्रार्थितं राजसुते त्वया तु तत्सर्वमाचक्षितमन्वियाय । सोऽप्यादरेणानुमतः क्रियार्थः प्रकाशयामात्ममनो बभूव ।। ७३ ॥ तस्मात्सुखं साध्वि सखोभिरास्स्व स्नात्वा हि भुक्ष्व त्वमलंकुरुष्व । द्वित्रिष्वहस्तु प्रतिपादयिष्ये शोकं विनुद्य स्थिरधी व त्वम् ।। ७४ ।। मद्विप्रलम्भार्थमयं प्रयोगः श्रोत्रप्रियः केवलमर्थदूरः । ज्ञातुमया मन्दधिया हि शक्यं धन्या न जाताश्च मता युवत्यः ॥७५ ॥ एवं वदन्ती व्यपयातहर्षा सरोदनारोपितरक्तदृष्टिः। फलोदयं स्वस्य पुराकृतस्य पुनः पुनस्तं तरुणो 'जहार्ह ॥ ७६ ॥ सर्गः था। अतएव उसके पाससे लौटकर वह सीधी राजपुत्रीके पास पहुँचा थी। कामदेवको पाशमें फंसी आपाततः अत्यन्त विकल मनोरमा को ढाढस बंधानेकी इच्छासे उसने इस प्रकार से कहना प्रारम्भ किया था ।। ७२ ।। हे राजपुत्रि! तुमने जो कुछ भी प्रार्थना की थी उस सबको मैंने तुम्हारे प्रियसे भो कह दिया है तथा वह उसके अनुकूल है। उसने बड़े आदर के साथ इस कार्यको स्वीकृति हो नहीं दो है अपितु अपने मनके गूढ़तम भावोंको भी प्रकट कर दिया है । ७३ ॥ _ नैतिकता ही परम नीति अतएव हे साध्वि! अपनी सखियोंके साथ आनन्दपूर्वक समय व्यतीत करो, उठो स्नान आदिसे निवृत्त होकर भोजन करो और अपना पूरा शृंगार करो, दो तीन दिनके भीतर ही तुम अपने मनोरथ के प्रियतमके पास पहुँच जाओगी। अब शोकको । दूर करो तथा चंचलताको छोड़कर स्थिर बनो' ।। ७४ ॥ 'मुझे धोखा देनेके लिए ही तुम यह सब जाल रच रहो हो । यह केवल सुननेमें हो सुखद है, क्योंकि अभिलषित अर्थकी प्राप्ति तो बहुत दूर प्रतीत होती है । मैं मन्दबुद्धि अवश्य हूँ पर इतना ता समझ ही सकती हूँ। क्या ही अच्छा होता यदि इस पृथ्वी । पर युवतियाँ उत्पन्न हो न हाती अथवा उत्पन्न होते ही मर जाती ।। ७५ । नारीको भोहता इन तथा ऐसे ही अन्य वचनोंको पुनः-पुनः कहकर तरुणी राजनन्दिनी अपने पूर्व जन्ममें किये गये शुभ-अशुभ कर्मोंके । फलोंका स्मरण करके उनकी खूब निन्दा करती थी। आशासे जो थोड़ा बहुत हर्ष उसको हो रहा था वह भी जाने कहाँ लुप्त हो गया था, वह लगातार रो रही थी इसी कारण उसकी आंखें बिल्कूल लाल हो गयी थीं ।। ७६ ॥ MAHARASHTRANSHeresTrutraERATRAIHIMSHAHARASHTRA [३७५] १. [ जगह ]। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् पृथुश्रियं यौवनकर्कशा पद्मक्षणं मत्तगजेन्द्र लीलम् । कश्चिद्भटं वश्यमनं न लप्स्ये सलज्जवत्या न हि मेऽस्ति शान्तिः ॥ ७७ ॥ इति नरपतिपुत्री कामवह्निप्रतप्ता ज्वलदनलशिखार्ता प्रातपत्रा लतेव । अहरहरभिमानक्षीयमाणाङ्गयष्टिर्नभसि बहुलपक्षे चन्द्रलेखेव सासीत् ॥ ७८ ॥ यदि मम गृहधर्मे जीवितं जीवयोनौ भवति भवतु' सम्यक्त्वेन कश्चिद्भटेन । वदनकमलसङ्गं तेन साधं मम स्याद्वंरचरणसुबोधं लब्ध मे मुक्तिमार्गम् ॥ ७९ ॥ जिनवर मतमग्र्यं स्वर्गसोपानपङ्क्तिर्यदि मम न हि भाग्यात्संपनीपद्यते ' चेत् । स्फुरदनलकलापज्वालमालासु देहं मदनशरसुलक्ष्यं तद्रहोध्ये ( ? ) तमाशु ॥ ८० ॥ यौवन के उभार के कारण पीन, पुष्ट तथा पुरुषोचित कठोरता युक्त शरीरधारी कमलके समान मोहक नेत्रयुक्त तथा मदोन्मत्त हाथो के समान लोलापूर्वक विचरते हुए मनस्वी कश्चिद्भटकी जब तक प्राप्ति नहीं होती है तबतक लज्जाके वेष्टन में घुट-घुटकर मरनेवाली मुझे शान्ति कहाँ मिल सकती है ? ' ॥ ७७ ॥ प्रेमिकाका आत्म प्रत्यय महाराज देवसेनकी राजदुलारी उक्त प्रकारसे निराश होकर कामरूपी अग्निकी लपटोंसे झुलस रही थी। उस समय उस विचारीकी वही दशा थी जो उस लताकी होती है जिसके पास भभकती हुई अग्निको ज्वाला उसके आगेके पत्तोंको जलाती हुई भीतरी भागोंपर बढ़तो आती है। विरह के सर्वतोमुख तापके द्वारा उसकी स्वभावसे ही इकहरी देह दिनोंदिन कृषतर होती जा रही थी। उसकी ओर देखते हो कृष्णपक्षकी एकमात्र चन्द्रकलाका स्मरण हो आता था जो कि पूर्ण चन्द्रकान्तिसे घटते घटते आकाश में केवल एक कला रह जाती है, और वह भी अगले दिन नष्ट हो जानेके लिए || ७८ ॥ नारीका निर्वेद इस जन्म में अथवा इस जीवयोनिमें यदि मुझे कभी गृहस्थाश्रमें प्रवेश करना ही हो तो सम्यक्त्वके प्रतापसे उस सम्यक दृष्टी कश्चिद्भटके साथ ही हो। यदि मेरे मुखको किसी पुरुषके पास जाना है तो उस कश्चिद्भट के हाथों ही ऐसा हो । यदि ऐसा अशक्य है तो सम्यक्चारित्र और सम्यक्ज्ञानकी उपासना करके मुक्ति मार्गको प्राप्त करना ही मेरा लक्ष्य है ।। ७९ ॥ जिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट धर्मं हो सब धर्मोसे श्रेष्ठ है वह स्वर्गरूपी उन्नत स्थानपर पहुँचने के लिए सुखकर सीढ़ियोंके समान है, किन्तु दुर्भाग्यके कारण यदि वह भी मुझे इस जन्ममें प्राप्त नहीं होता है तो कामदेव के तीक्ष्ण वाणोंके द्वारा निर्दय रीतिसे भेदी गयी मैं इस देहको जलती हुई अग्निको ज्वाला में शीघ्र ही होम कर दूंगी ॥ ८० ॥ १. म सम्यकतेन । २. कल ते, [ लभ्यते ] । ३. [ संप्रती° ] । ४. क मदनशत एकोनविंश: सर्गः [ ३७६ ] Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरमतिरकृतार्था सम्यगीदृक्प्रतिज्ञा व्रतगुणनियमान्ता भावयन्ती क्रमेण । स्वसनबवथपक्ष्मास्वासभाषा" च साध्वी 'प्रियगतिरतितृष्णालापदा पाण्डुगण्डा ॥१॥ बराङ्ग इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते मनोरमामतिविभ्रमो नाम एकोनविंशतिः सर्गः । एकोनविंशः सर्गः राजकुमारीको बुद्धि स्थिर थी अतएव अपने प्रेम प्रपंचमें भग्न-मनोरथ होकर उसने ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा को थी। धारण किये गये समस्त व्रतों और गुणोंका ध्यान रखती हुई वह साध्वी एकनिष्ठ राजदुलारी सांस लेतो हुई पड़ी थी, न उसके शरीरमें । धड़कन थी, न पलक झपते थे, और न कुछ बोलती ही थी । उसका पूरा ध्यान अपने प्रिय पर लगा हुआ था तथा कपोल बिल्कुल सफेद हो गये थे अतएव आसपासके प्रिय परिचारक जनोंको बड़ी चिंता तथा बेचैनी हो रही थी। ८१ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें 'मनोरमा-मतिविभ्रम' नाम एकोनविंशः सर्ग समाप्त । [३७७] नियमांस्तान् ] । २. [ श्वसनदववेपधुपवक्ष्माश्वासभाषा]। ३. [ प्रियमति°]। ४. [ एकोनविंशः ] । ४८ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् विंशतितमः सर्गः अथ च धार्मिकसास्विक मानवैर्ब हुकलागुणशास्त्र विशारदैः । ललित पूर्वपुर प्रतिवासिभिश्चिरमरस्त सुखेन वणिग्नुपः ॥ १ ॥ नृपतिकान्तसुतां कुलनन्दिनीममरराजवधूप्रियदर्शनाम् । जनपदार्धहय विपनाटकैः समुपलभ्य न चैव मदं ययौ ॥ २ ॥ प्रवरहयंतलेषु च शर्वरीं नयत शीलगुणानथ पर्वसु । द्रविणर्मार्थषु साधुजनेषु च अनुभवन्विषयांच मनोहरान् सकृतकर्मफलोदयपाकतो । ललितनामपुरे पुरुषोत्तमः सुखमुवास नृपात्मजया तया ॥ ४ ॥ [ ] ॥३॥ विंशतितम सर्ग ललितपुरके नागरिक बड़े मन्दकषायी तथा धर्मरत थे, वे विविध कलाओं में दक्ष थे, समस्त गुणोंके भण्डार थे तथा नाना शास्त्रोंमें पारंगत थे । वास्तवमें ललित; उस ललितपुरके सब ही निवासियोंके ऐसे हो आचार-विचार थे । यही कारण था कि वणिक राजा कश्चिद्भट बहुत लम्बे अरसे तक उनके साथ भोगविलासमें लीन रह कर समय काट सका था ॥ १ ॥ सुखमग्न राजकुमार महाराज देवसेनकी अत्यन्त सुन्दरी कन्या सुनन्दा उनके पूरे वंशको आनन्द देती थी, वह इतनी सुन्दरी और गुणवती थी । उसे देखते ही मनको वैसा ही आल्हाद प्राप्त होता था जैसा कि अमरोंके राजा इन्द्रकी बधूको देखकर होता है। ऐसी सुयोग्य पत्नीको आधे राज्यके साथ ही नहीं अपितु हाथी, घोड़ा आदि सेनाओं तथा नाटक आदि ऐश्वयोंके आधे भागके साथ प्राप्त करके भी विवेकी कश्चिद्भटको किसी प्रकारका अहंकार नहीं हुआ था || २ || विशाल तथा सुन्दर राजमहलों की छतपर वह अपनी रातोंको सुखसे व्यतीत करता था तथा अष्टाह्निका, दशलक्षण आदि पर्वोके दिनोंको शील आदि गुणोंके पालनके साथ काटता था। तथा वास्तवमें अभावोंसे सताये गये माँगनेवालों तथा सज्जन पुरुषों को सदा ही भक्तिभावसे दान देता हुआ पुण्यार्जन करता था ॥ ३ ॥ पूर्व जन्म में प्रयत्नपूर्वक किये गये शुभकर्मोंका परिपाक हो जानेके कारण उदयमें आये एकसे एक बढ़कर मनमोहक भोगों और विषयका रस लेता हुआ वह महापुरुष कश्चिद्भट ललितपुरकी राजदुलारी सुनन्दाके साथ सुखपूर्वक निवास कर रहा था ॥ ४ ॥ १. म मुदं । २. [ नयति ] । For Private Personal Use Only विशतितमः सर्गः [ ३७८ ] Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमः वराङ्ग चरितम् पुनरितः क्रमतः पितृपुत्रतोः अमितसत्त्वपराक्रमधैर्ययोः । प्रवरधर्मसपूर्ववरामयोः यदभवत्कथयामि तदीक्ष्यतां ॥५॥ अपहृते सुसते वरवाजिना नरपतेर्मनसोऽसुखशान्तये। मतिवरप्रमुखा नपमन्त्रिणः समभिमन्त्र्य सुषेणमतिष्ठिपन् ॥ ६॥ युवनृपत्वमवाप्य नृपात्मजः प्रतिविबुद्धनवाम्बुरुहाननः । भृशतरं स कृतार्थतया बभौ गतघने च निशीव निशाकरः ॥७॥ उदितबालदिवाकरतेजसो विषयरागवशीकृतचेतसः। जगदनर्थगणात्परिरक्षतः कतिपयानि दिनान्यगमन्सुदा ॥८॥ सर्गः अयोग्य राजा सुषेण इसी अन्तरालमें वियोगको प्राप्त महाराज ( जिनके नाममें सेनके पहिले धर्म है ) धर्मसेन तथा युवराज वरांगको लेकर उत्तमपुरमें क्रमशः क्या-क्या घटनाएँ घटीं उन्हें ही मैं कहता है, आप लोग उन्हें सुनें। यह तो सब ही जानते हैं कि इन पिता तथा पुत्र दोनोंकी ही शक्तिकी कोई सीमा न थी, ये (शक्ति) के ही समान उनके पराक्रम तथा र्यका परिमाण बतलाना भी असम्भव ही था॥५॥ सुयोग्य राजपुत्र वरांगके कुशिक्षित हृष्ट पुष्ट तथा सुन्दर घोड़ेके द्वारा अकस्मात् गायब किये जाने पर महाराज धर्मसनका चित्त अत्यन्त व्याकुल हो गया था। अतएव उनके चित्तको शान्त करनेके लिए ही मतिवर आदि राज्यके मन्त्रियोने आपसमें विचार विमर्श किया था और राजाकी प्यारी रानीके पुत्र सुषेणको ही राजसिंहासन पर बैठा दिया था ॥६॥ राजपुत्र सुषेणको ज्योंही युवराजके पदकी प्राप्ति हुई त्योंही उसका मुख आनन्दके कारण पूर्ण विकसित नूतन कमलके समान सुन्दर और आकर्षक हो गया था। काफी समय बाद अपनी मानसिक कामनाके पूर्ण होनेके कारण उस समय उसकी शोभा असाधारण रूपसे बढ़ गयो थी। उस समय उसका आल्हाद देखकर उस चन्द्रश्रीका स्मरण हो आता था जिस परसे रात्रिम । तुरन्त ही धनी मेघ घटा हट गयी हो ॥ ७॥ WE सुषेणका तेज समय प्रातःकाल उदीयमान बालभानुके समान था। उसका चित्त राज्य सम्बन्धी दायित्वोंकी अपेक्षा विषय भोग और राग रंगकी ओर अधिक आकृष्ट था । अतएव बह कुछ दिन पर्यन्त ही अपने राज्यको उपद्रव आदि अन से बचा सका था और स्वयं आनन्दपूर्वक दिन बिता सका था ॥८॥ यनियमाचEIAS [३७९] १. [°धर्मजपुण्य ]] Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् परनरेन्द्रबलेन विमदितं स्वविषयं परिभूय' महाजनम् । अथ कदाचिदवेत्य युवाधिपः स्वयमियाय स े योद्धु मना बलैः ॥ ९ ॥ रथपदातितुरङ्गमवारणैः समुपगम्य भृशं युयुधे युधि रिपुनृपोऽतिरुषा भृकुटीपुटः प्रतिजघान सुषेबलं बलात् ॥ १० ॥ युवनपोऽभिहतो रिपुसेनया क्षणविभिन्नविचूर्णितशासनः । अथ जितः समरे सतुरङ्गमो द्रुततरं प्रययौ पुरमात्मनः ॥ ११ ॥ रिपुनरेन्द्रबलाहतपौरुषं प्रतिनिवृत्तमवेक्ष्य पुनः सुतम् । नरपतिश्चिरमात्मनि संस्मरन् वरतनोः स्मृतवान्बहुशो गुणान् ॥ १२ ॥ एक दिन युवराज सुषेणको समाचार मिला था कि उसके राष्ट्र पर किसो शत्रुको सेनाने आक्रमण कर दिया है, वह देशको रौंदता हुआ तथा शिष्ट सज्जन नागरिकोंका अपमान करता हुआ आगे बढ़ा आ रहा है। इसे सुनते ही युवराज मन ही मन संग्राम करने का निर्णय करके सेनाको लेकर स्वयं शत्रुके विरुद्ध चल दिया था ।। ९ ।। शत्रुका आक्रमण रथ, हस्ति, अश्व तथा पदातिमय अपनी चतुरंग सेनाके साथ समरस्थलीमें पहुँचकर सुषेणने बड़ी तत्परता तथा युक्ति के साथ शत्रुसे घोर युद्ध किया था। किन्तु शत्रु राजाने क्रोधके परिपूर्ण आवेशमें होनेके कारण अपनी भृकुटी टेढ़ी करके सुषेणकी सेनापर प्रत्याक्रमण किया था और सब ओरसे घेरकर उसका संहार करना प्रारम्भ कर दिया था ॥ १० ॥ मूढधीका पराभव जब युवराज सुषेणकी सेना पर शत्रुकी सेनाने घेरकर भयंकर प्रहार करना प्रारम्भ किया तो क्षण भर हो में उत्तमपुर की अजेय सेनाका अनुशासन टूट गया था और वह इधर-उधर छिन्न-भिन्न हो गयी थी। फल यह हुआ कि वह संग्राममें शत्रुसे हार गया था और निरुपाय होकर एक घोड़े पर आरूढ़ होकर बड़े वेग से भागकर अपनी राजधानीको चला आया था ॥ ११ ॥ शत्रु सेना के अभिघातोंकी मारसे अपने पौरुष और पराक्रमको धूलमें मिलाकर भीरुओंके सदृश राजधानीको भाग आनेवाले अपने पुत्रको देखकर महाराज धर्मसेनको ज्येष्ठ पुत्रका स्मरण हो आया था। वे मन ही मन दीर्घं समय तक उसके पराक्रम आदि गुणोंका विचार करते रहे । तथा उन्हें रह-रहकर वरांगकी स्मृति दुखी कर देती थी ॥ १२ ॥ १. [ परिभूत° ] । २. म रुषा स बलान्वितः । ३. [ भृकुटीधरः ] । विशतितमः सर्गः [ ३८० ] Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् विनयशीलविचित्रसमन्वितं बहुजनप्रियमप्रतिपौरुषम् । परमधार्मिकमाहववल्लभं समुपलभ्य न चाहमवञ्चितः ॥ १३ ॥ स्वतनदुर्बलतां जरयान्वितां परिभवं रिपुभिः कृतमात्मनः। वरतनोश्च गुणाननसंस्मरन्न च शशाक स 'घोरेयितु धृतिम् ॥ १४ ॥ युवन पस्य ततः प्रपलायनं विबलतामुपलभ्य च भूपतेः । हयरथद्विपवेशधनेच्छया रिपुन पस्त्वरया पुनराययौ ॥ १५ ॥ दलितभागतया वयमास्थिता विषयभाग इतो भवतामिति । जनपदार्धमथ प्रविरुध्य तत्प्रविससर्ज ततः स वचोहरम् ॥१६॥ विंशतितमः सर्गः टात योग्य पुत्रको स्मृति आह वराङ्ग ! तुम्हारा उदार स्वभाव तथा आन्तरिक विनम्रता कितनी विचित्र थी। कौन ऐसा व्यक्ति था; जिसे तुम परम प्रिय न थे । तुम्हारा पुरुषार्थ ! संसारमें कौन उसकी बराबरी कर सकता है ! तुम्हारी धर्म रीति भी अन्तिम सीमा तक पहुँच चुकी थी । तथा युद्ध ? वह तो तुम्हारा परमप्रिय खेल था। मैंने तुम्हें पाया था और खो दिया ॥ १३ ॥ क्या मैं दैवके द्वारा नहीं ठगा गया हूँ।' इसके साथ-साथ उन्हें अपनी बुढ़ौतीका ख्याल आता था तथा बुढ़ापेसे आक्रान्त होनेके ही कारण दुर्बल अपने शरीरको देखते थे, शत्रुओंके द्वारा किये गये अपने अपमानका विचार भी असह्य था तथा युवराज वरांगकी योग्यताएँ और विशेषताएँ भी न भूल सकते थे । इन सब कारणोंसे उन्हें उस समय धैर्य धारण करना ही असंभव हो रहा था । १४ ।। शत्रुको सुअवसर शत्रु राजाको जव यह समाचार मिला कि भयके कारण युवराज समरांगणसे भाग गया है और महाराज धर्मसेन वृद्धावस्थाके कारण अत्यन्त दुर्बल हैं तो वह उत्तमपुरकी विशाल अश्व, रथ तथा गजसेना, अत्यन्त विस्तृत देश तथा विपुल धनराशिसे परिपूर्ण कोशको लेनेके लोभको न रोक सका, फलतः उसने शीघ्रताके साथ राजधानीकी दिशामें बढ़ना प्रारम्भ कर। दिया था ॥ १५ ॥ इस गतिसे बढ़ती हुई उसकी सेनाने आधे उत्तमपुर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया था। इसके बाद उसने 'हमने जितने भागको सैनिक बलका प्रयोग करके जीत लिया है, वहीं तक आकर हम रुक गये हैं। यदि आप चाहें तो हमारे तथा R आपके राजका विभाजन इस नयी सीमाको मानकर हो सकता है।' इस संदेशको लेकर दूतको भेजा था ॥ १६ ॥ 1 १. [ धारयितु] [३८१] Jain Education interational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग परितम् परुषवाक्यसमन्वितमीश्वरः समभिवीक्ष्य च पत्रगताक्षरम् । अतिकषायविषाञ्चितलोचनः प्रतिजगर्ज मगेन्द्र इव द्विपम् ॥ १७ ॥ यदि मदात्स' कुलोचितया तया प्रथितया धरया न हि संस्थितः । ध्रुवमहं विनिहत्य मदोद्धतं परनृपाय ददाम्यतिवर्तिनम् ॥१८॥ इति वचः सदसि प्रविलोक्य सः समजगर्ज' मृगेन्द्रपराक्रमः । सपरुषं प्रतिलेखविसर्जनं प्रतिविहाय तदैव ययौ पुरात् ॥ १९ ॥ परिवृतो नुपतिश्चतुरङ्गया रिपुमदप्रशमप्रदसेनया । चलदुरुध्वजचित्रपताकया स निविवेश' गताध्वनियोजनम् ॥ २०॥ विंशतितमः सर्गः शत्रुका पत्र कठोर तथा अशिष्ट वाक्योंसे भरा था। अतएव जब महाराज धर्मसेनने उस पत्रको खोलकर पढ़ा, तो उसके अक्षरोंको देखते ही क्रोधके आवेगरूपी विषसे उनके नेत्र लाल हो गये थे। क्रोधके उन्मादमें वह उसी प्रकार गर्ज पड़ा था जिस प्रकार सिंह हाथीको देखकर हुँकारता है ।। १७ ।। अपमानित धर्मसेन उस (शत्र) वंशमें क्रमसे चली आयी राज्यभूमिकी सीमाएँ निश्चित हैं। और उतनी ही धरा उसे पर्याप्त भी है, इस समय अहंकारमें पागल होकर यदि वह उतने हो राज्यसे सन्तुष्ट नहीं रहता है तो मैं निश्चय ही उस अहंकारीको युद्ध में मारूंगा। और उसके कुलक्रमागत राज्यको भी किसी दूसरे ऐसे राजाको दे दूंगा जो मेरी आज्ञा मानता होगा ।। १८ ।। हिरणोंके राजा केशरीके समान पराक्रमी महाराजने उक्त अति कठोर वाक्योंको राजसभामें कहकर क्रोधके कारण कितने और अपमानजनक वाक्योंको ऊँचे स्वरसे कहा था। इतना ही नहीं अत्यन्त अपमानजनक कठोर वाक्योंसे भरा उत्तर । भेज करके उसी समय नगरको छोड़कर लड़नेके लिए चल दिये थे ॥ १९ ॥ महाराज धर्मसेनकी चतुरंग सेना उद्धत शत्रुओंके अहंकारजन्य मदको उतार देनेमें अत्यन्त समर्थ थी, उसके ऊपर विशाल ध्वजाएँ तथा अनेक रंगोंकी अद्भुत पताकाएँ लहरा रही थीं। ऐसी सेनासे घिरे हुए महाराज धर्मसेनने एक योजन मार्ग चल चुकनेके बाद विधामके लिए पहिला पड़ाव डाला था।। २० ।। चाचELSELINE2ELEIRDERSEURGETROPERHIRE ENSOUNSELLEGETARY [३८२] १. क. "स्वकुलोचितया । २. म ददाम्यनुवतिनः । ३. [ समजगजंदथेन्द्र 11 ४. म प्रतिविवाय, [ प्रतिविधाय] । ५.क निनिवेश ।। For Privale & Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् विंशतितमः सर्गः सुमतयोऽजितचित्रसुरावयो विनयतः समुपेत्य नरेश्वरम् । वचनमित्थमिदं हितमर्थवज्जगदुरेवमनिन्दितपौरुषम् ॥ २१॥ तव नरेश्वर सत्त्वपराक्रमौ सुविदितौ जगता' न विलचितौ । प्रतिविधानवियुक्ततया वयं परिचितेन च वक्तुमुपाश्रिताः ॥ २२ ॥ सखिजनाः स्वसुताः कृतपौरुषाः परबलस्य मदं प्रतिभज्जिनः । तव न सन्त्यरयोऽपि बलोत्कटाः कथमिदं स्वपरोक्ष्य कृतं त्वया ॥ २३ ॥ विगतगाधमयोदकमप्लवः समपलङययितुं विघटेत कः । रिपुबलार्णवमुत्क्रमित पुनर्न प न शक्यमपक्षवतस्तव ॥ २४ ॥ ललितसाह्वपुराधिपतिर्भृशं प्रियहितोऽहितदर्पविघाटनः । यदि वयं नरदेव वचोहरान प्रविसृजामहि चेद्धवमेष्यति ॥ २५ ॥ ARTISMETASTA R महाराज धर्मसेनके पराक्रमको कीति सर्वत्र फैली थी। उस समय उनके महा बद्धिशाली अजितसेन, चित्रसेन, देवसेन आदि महामंत्री भी साथ चल रहे थे। जब प्रयाण रुक गया तो ये सब अति विनयपूर्वक महाराजके पास गये थे, और उनके हितकी भावनासे ही प्रेरित होकर उन सबने निम्न निवेदन महाराजसे किया था ।। २१ ।। सुमंत्री सम्मति हे महाराज! जहाँ तक आपके पराक्रम तथा शक्तिकी बात है उन्हें सारा संसार जानता है तथा आज तक किसीने उनको नहीं लांघा है । अतएव हम आपसे जो निवेदन करने आये हैं उसे निसंकोच होकर सुनें कारण यह है कि इस बार हम प्रतिशोध लेनेकी पूरी तैयारीके साथ नहीं आये हैं ।। २२।। आपके औरस पुत्र तथा सपक्षी राजा लोग ही इतने सफल पुरुषार्थों हैं कि वे हो सुनें। शत्रु सेनाके अहंकारको मिट्टी में मिला देते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी आप जानते हैं कि आपके न तो अधिक शत्र ही हैं। और जो हैं; वे शक्तिशाली भी नहीं हैं। तब आपने इस समरयात्राको पहिले सोचे बिना ही क्यों आरम्भ कर दिया ।। २३ ।। यदि कोई जलाशय इतना गम्भीर हो कि उसकी थाह न ली जा सके तथा इतना चौड़ा हो कि तैर कर पार न किया जा सके, तो आप ही बताइये उसे कौन लाँघ सकता है ? ठीक इसी प्रकार हे महाराज शत्रुसेना रूपो विस्तृत समुद्रको आप भी तबतक न लाँघ सकेंगे जब तक कि आप पक्ष ( मित्र राजाओं) सहित न हो जायंगे ।। २४ ।। शत्रुओंके मानका मर्दन करनेवाला ललितपुर नामसे प्रसिद्ध नगरोका राजा देवसेन आपका प्रियमित्र हो नहीं है अपितु । १. क जगतां । २. [प्रविसृजेमहि । SELBARASAIRata [३८३] Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग विंशतितमः सर्गः चरितम् अथ च युक्तिमदर्थसमन्वितं हितमिताक्षरसारसमुच्चयम् । अननिशम्य हि मन्त्रिवचोऽवदन्नपतिराश तथा क्रियतामिति ॥ २६ ॥ क्षितिपशासनतीव्रतया [-]' जनपदस्य विनाशभयेन च । स्वपतिभक्तितया च वचोहरा ललितसाह्वपुरं प्रययुद्धतम् ॥ २७ ॥ समभिवीक्ष्य तथोचितवृत्तितः क्षितिपतेरथ लेखमदर्शयत् । तमवगृह्य निधाय स मस्तके प्रतिविमुच्य तदर्थमबुध्यत ।। २८॥ समवतीर्य मृगेन्द्रधृतासनात्समुपविश्य ततोऽन्यदुपह्वरे । अभिजिजल्पिषुराप्ततमैः सह नृपतिराह्वयदाशु वणिग्नुपम् ॥ २९ ॥ आपका सगा-सम्बन्धी भी है । इसमें सन्देह नहीं कि यदि हम दूतोंको अभी भेज दें । तो वह समाचार पाते ही वे दौड़े चले आयेंगे, इसे आप ध्रुव सत्य माने' ॥ २५ ॥ महाराज धर्मसेनने मंत्रियोंके वचनोंको सुनते-सुनते ही समझ लिया था कि उनके वाक्य युक्तिसंगत थे, परिणाममें लाभप्रद थे, सब दृष्टियोंसे हितकर होते हुए भी अति संक्षिप्त थे, तथापि उनमें राजनीतिका सार भरा हुआ था। अतएव उनका कथन समाप्त होते ही उन्होंने मंत्रियोंसे कहा था 'आप लोग शीघ्र ही यह सब कर डालें' ।। २६ ॥ एक तो उस समय भूमिपाल धर्मसेनको आज्ञा ही तीव्र थी, दूसरे विलम्ब होनेसे अपने देशका नाश हो जानेकी आशंका थो, तथा इन सबसे बढ़कर थी; राजभक्ति; जिससे प्रेरणा पाकर उत्तमपुरका दूत बड़े वेगके साथ ललितपुर नगरको दौड़ा चला जा रहा था ॥ २७ ॥ दूतको देश-निष्ठा नगरमें पहुंचते ही वह सीधा राजभवनमें पहुंचा था तथा आवश्यक शिष्टाचार पूर्वक महाराज देवसेनके सामने जाकर उनका अभिवादन करते हुए उत्तमपुराधीशके लिखित पत्रको महाराजके समक्ष उपस्थित किया था। ललितेश्वरने उसे लेकर पहिले तो मस्तकसे लगाया था फिर खोलकर पढ़ा था और समस्त परिस्थितिको समझ गये थे ॥ २८॥ महाराज देवसेन अपने अत्यन्त विश्वस्त तथा अनुभवी लोगोंके साथ मत विनिमय करनेके लिए उत्सुक थे अतएव वे सिंहों पर बने आसन (सिंहासन) परसे उठकर किसी दूसरे एकान्त गृहमें जा बैठे थे और तुरन्त ही उन्होंने वणिक राजाको बुलवा भेजा था ॥ २९ ॥ [३४] १. क ( जवः ), [तदा ]. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAIRPETHI विंशतितमः सर्गः चरितम् a वरतनोस्तुरगेण विनाशनं रिपुबलाच्च सुषेणपराभवम् । परनपस्य पुनः समराङ्गणं ह्यकथय सकल सकलार्थवित् ॥ ३०॥ प्रकटमास्स्व भवान्परिपालयन् जनपदं स्वपुरं निरुपद्रवम् । वराङ्ग मम धुरंधरता च भवत्वथो जिगमिषामि सुहृद्व्यसनार्थ्यहम् ॥ ३१॥ इदमिह प्रहितं जनकेन मे त्वमभिपश्य गुणार्णव पत्रकम् । करपुटेन नवाम्बुरुहत्विषा समुपगृह्य पुनस्तदवाचयत् ॥ ३२ ॥ परिभवं द्विषतः पितृदुःस्थितिं वरतनोर्गमनं पितृराष्ट्रतः।। प्रतिनिशम्य च पत्रगतं त्वभूत्सलिलबिन्दुपरिप्लुतलोचनः ॥ ३३ ॥ नयनवारिपरिप्लुतमाननं हृदयवेपथुना सह वीक्ष्य च । अथ नपो ललिताख्यपुराधिपः प्रतिविबुध्य सुधीरनुमानतः ॥ ३४ ॥ आप्त जनोंके एकत्रित हो जाने पर उन्होंने उत्तमपुरमें घटीं समस्त घटनाओंको कुमार वरांगका घोड़े द्वारा हरण और नाश, नूतन युवराज सुषेणका शत्रुओं द्वारा पराभव तथा उसके बाद भी शत्रुका बढ़ते रहना आदि सब ही बातोंको विशदताके साथ उनकी सम्मतिके लिए उपस्थित कर दिया था। यद्यपि वे स्वयं भी समस्त कार्योंको समझते थे ।। ३०॥ कश्चिद्भटसे निवेदन हे कश्चिद्भट ! आप पूर्ण रूपसे इस राजधानी तथा पूरेके पूरे राज्यकी उपद्रवोंसे मुक्त होकर रक्षा करते हुए यहीं रहें। केवल मैं ही इस कार्यके भारको वहन करूंगा। मेरे मित्र तथा सम्बन्धो पर विपत्ति आ पड़ी है अतएव मैं उसके निग्रह हाथ बँटानेके लिए जाना ही चाहता हूँ॥ ३१ ॥ ___ महाराज देवसेनके इस निर्णयको सुनते हो कश्चिद्भट बोल पड़े थे 'हे गुणसागर ? सामने रखा हुआ पत्र भी पिताजीने ही भेजा है आप उसे ध्यानसे देखिये।' नूतन विकसित कमलोंके समान कान्तिमान करपुटसे उठाकर महाराजने उस पत्रको फिरसे बाँचा था ।। ३२॥ पित-प्रेम पत्रमें लिखे हुए 'युवराज वरांगका पिताके देशसे लुप्त हो जाना, शत्रुके द्वारा पिताका अपमान, पिताकी अत्यन्त जटिल परिस्थिति इत्यादि बातोंको सुनते-सुनते वीरवर कश्चिद्भटकी आँखोंमें आँसुओंका पूर उमड़ आया था ।। ३३ ॥ स्वभावसे ही धीर-गम्भीर कश्चिद्भटकी आंखोंसे धाराप्रवाह रूपमें बहते हुए आँसुओंसे गीले मुख तथा तीव्र कम्पनसे चंचल वक्षस्थलको देखकर महामतिमान ललितपुरके अधिपतिने अनुमानसे उसे पहिचान लिया था ॥ ३४ ॥ ११म°दुस्थितं. Jain Education Interatio RARDASTMETARATranamastrat ARCHISEASEEMAGAR [८५] IRIRAO Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग विंशतितमः चरितम् सर्गः वरवराङ्ग पुरा विदितो मया कथमिहोषितवानसि संवृतः । इति वदन्नुपसृत्य नरेश्वरो 'हर्षफुल्लमुखः परिषस्वजे ॥ ३५ ॥ वनगतोऽहमथोदधिवृद्धिना करुणया परया तनयीकृतः। तदनु ते तनयामपधाव में नरपतित्वपदे स्वमधिष्ठिपन ॥३६॥ अथ ततो भवतो ह्यधिको न मे भुवि न कश्चन बन्धुतमः परः । इति वदन्तमवेक्ष्य पितुर्जनश्चरणयोरपतत्करुणं ब्रुवन् ॥ ३७॥ गतवति त्वयि नाथ समन्ततो गिरिगुहासु वनेषु नदीषु च । नपनियोगधराः परिबभ्रमर्न विविदश्च भवन्तमिहागतम ॥ ३८॥ इति निवृत्तगिरि स्वजने ततो नृपतिरित्यमुवाच मुदान्वितः । भवत एव मया परिवधितं परिगृहाण पुनस्तनयाशतम् ॥ ३९ ॥ हे पुत्र वरांग ! मैं तुम्हें पहिलेसे हो जानता था कि तुम्हीं मेरे श्रेष्ठ भानजे ही हो, तो भी तुम यहाँपर अपना कुल, नगर, आदि छिपाकर क्यों रहते थे? यह कहते समय महाराजका मुख हर्ष के कारण खिल उठा था, वे बड़ी त्वरासे आगे बड़े थे और उसको निकट-खींचकर छातोसे लंगा लिया था ।। ३५ ।। कृतज्ञ-वारांग जब में वन-वन मारा फिरता था तथा कोई ठिकाना न था उसी समय सार्थपति सागरवृद्धिने मेरे ऊपर परम करुणा करके मुझे अपना लड़का बना लिया था। इसके उपरान्त आपने अपनो प्राणप्रिय पुत्रीका मुझसे व्याह करके आधा राज्य देकर मुझे राजाके महा पदपर स्थापित कर दिया है ।। ३६ ।। इन कारणोंसे इस पृथ्वी पर कोई भी मेरा मित्र अथवा बन्धु-बान्धव आपसे बढ़कर नहीं है' जिस समय भावावेशमें युवराज वरांग यह सब कह रहे थे उसी समय उसकी ओर देख करुण वचन बोलते हुए वरांग महाराज देवसेन आदि गुरुजन आदि चरणोंपर गिर पड़े ।। ३ ।। आत्मप्राप्तिका मार्ग कृतज्ञता हे प्रभो ! तुम्हारे खो जानेपर महाराज धर्मसेनकी आज्ञानुसार आपको खोजनेवाले व्यक्ति चारों ओर पर्वतों पर, गुफाओंमें, गहन वनोंमें तथा नदियों में आपको खोजते हुए घूमते रहे, किन्तु बड़े आश्चर्यको बात है कि वे यहाँपर आये हुए आपका पिता न लगा सके ।। ३८॥ जब सब सगे सम्बन्धी लोग उक्त वचनोंको कहकर चुप हो गये तो आनन्द विभोर महाराज देवसेनने स्नेहपूर्वक कहा था । 'हे कुमार! तुम्हारे निमित्तसे ही मेरे द्वारा पालो-पोसी गयीं सौ राजपुत्रियाँ हैं। इस समय तुम उनको भी ग्रहण करो॥ ३९ ॥ १. [ हृषित° ]। २. [ मे ]। ३. [ मा ]। ४. [ त्वमतिष्ठिपः ] । रामारावासाचा-ICIPALITaurus [३८६ ) Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAMAR विंशतितमः अनुनिशम्य स मातुलभारती हृदयपङ्कजकुड्मलबाधिनीम् । नपगणः कुरुतात्तव शासनं समरुषं त्वनयेत्यवदत्पुनः ॥ ४०॥ स्वभगिनीसुतवाक्यरतो नृपो गुरुतयाभिदधौ' स निगृह्य तम् । परिगृहाण गुणोदयभूषणां प्रियसुतां मम वत्स मनोरमाम् ॥४१॥ नृपतिवाक्यमुदारमतिस्ततस्तदनुमत्य तथास्त्विति संजगी। युवनपाय मतङ्गजगामिने समददात्तनयां मुदितस्तदा ॥ ४२ ॥ प्रणयवानपि यन्नपतिः परा स्वजनताश्रतिबद्धमनोरथः । द्विगुणया स महोत्सवसंपदा प्रतियुयोज सुधीभगिनीसुतम् ॥ ४३ ॥ सर्गः I HARANAHARANPATHARTHATANAH स्वदार संतोषका श्राद्ध मातुलराज ललितेश्वरके हृदयरूपी कमलको विकसित करनेमें समर्थ उक्त प्रस्तावको सुनकर युवराज वरांगने निवेदन किया था 'हे महाराज समस्त राजा लोग आज्ञाका पालन करें यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है, तथा मैं तो आपको एकमात्र तनया सुनन्दासे ही परम सन्तुष्ट हूँ' ।। ४० ॥ ललितेश्वरको भानजेके वचन सुनने में आनन्द हो नहीं आ रहा था अपितु वे उसके वचनोंको मानते भी थे तो भी उसे बीचमें हो रोककर उन्होंने गम्भीरतापूर्वक कहा था 'हे बेटा ! समस्त गुणोंके पूर्ण विकासरूपो भूषणोंसे अलंकृत मेरी परमप्रिय पुत्री मनोरमाको तो अवश्य ग्रहण कर लो ॥ ४१ ॥ मनोरमासे विवाह राजकुमार वरांगकी दृष्टि स्वभावसे उदार थी अतएव मातुल राजाके उक्त प्रस्तावको उन्होंने मान लिया था और कह दिया था 'जैसी आपकी आज्ञा' । फिर क्या था महाराज देवसेनकी प्रसन्नताकी सीमा न थी उन्होंने उसी समय तैयारियाँ । करके मस्त हाथीके समान गम्भीर गमनशील युवराजको अपनी पुत्री व्याह दो थी॥ ४२ ॥ ___ महाराज देवसेन पहिलेसे ही युवराज वरांगको बड़ा प्यार करते थे, इसके साथ-साथ राज्यकी जनतामें कानों-कानों। [३८७1 भी इस मनोरथकी चर्चा फैल गयी थी अतएव दुगुनी सम्पत्ति तथा महोत्सबके साथ अपनी पुत्रीका भानजेके साथ गठबंधन कर दिया था ॥ ४३ ॥ AIRTELसाबमा १.क विदधौ। Jain Education international Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म विंशतितमा सर्गः इति समाप्य विवाहमनुत्तमं जिगमिषुः स्वपुरात्परमदितः । स्वसुतया सकलैः' सह बन्धुभिर्नरपतिः कृतवान्सह भोजनम् ॥४४॥ मदनतापनखेदितचेतना पतिमुपेत्य मनोगुणितं चिरम् । रविकराभिहता जलदागमे वसुमतीव जहर्ष मनोरमा ॥ ४५ ॥ अथ यियासुरतुल्यपराक्रमो वरतनुविषयं प्रति चात्मनः । उदधिवृद्धिमुपेत्य वचः स्फुटं समधुराक्षरमित्यमभाषत ॥४६॥ असहदो वनगोचरिणो भवान्मम पिता न पितापि पिताभवत् । किमिह खेदकरैर्बहभाषितरुभयलोकहितो न परो गरुः ॥ ४७॥ प्रीतिभोज जब समस्त विवाहके संस्कार परम श्रेष्ठ विधिपूर्वक समाप्त हो गये थे तो युवराज वरांग अपने विपुल वैभव तथा । सम्पत्तिके साथ अपने जन्म नगर उत्तमपुरको जाने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित था । अतएव विदाके पहिले ललितेश्वरने समस्त बन्धुबान्धव, अधिकारी आदि तथा पुत्रियों के साथ एक विशाल सहभोज किया था ।। ४४ ।। कश्चिद्भटको देखनेके दिनसे ही कामदेवने विचारी मनोरमाको विरहने इतना जलाया था कि उनके प्राणोंपर संकट आ पड़ा था। ऐसी व्यथाको चिरकाल तक सहकर विचारीको मनके अनुकूल पति मिला था । अतएव वह ग्रोष्मकालमें भयंकर अग्निके समान दाहक सूर्यको प्रखर किरणोंसे जलाये जानेके वाद वर्षाऋतुके प्रारम्भमें मेघोंके द्वारा शान्तकी गयी पृथ्वीके समान परम प्रमुदित हुई थी । ४५ ।। कृतज्ञता हो साधुता है अनुपम पराक्रमी युवराज वरांग अपने पिताकी राजधानीको लौट जानेके लिए आतुर हो रहे थे। इस उत्कट अभिलाषाको कार्यान्वित करनेके अभिप्रायसे वे अपने धर्मपिता सागरवृद्धिके पास गये थे, तथा उनकी अनुमति प्राप्त करनेके लिए मधुर शब्दोंसे निर्मित प्रार्थनाको निम्न प्रकारसे कहा था ।। ४६ ।। जब मैं गहन वनमें ठोकरें खाता फिरता था। कोई मित्र व सहायक नहीं था। इतना ही नहीं परम पराक्रमी, स्नेही तथा सर्वशक्ति सम्पन्न मेरे पूज्य पिता भी अपने कर्तव्यको मेरे प्रति पूरा न कर सके थे, उस समय आप ही मेरे पिता हुए थे। पुरानी स्मृतियोंको दुहरा करके दुख देनेवाली इन बहुत सी व्यर्थ बातोंकी पुनरावृत्ति करनेसे क्या लाभ है ? इस लोक तथा परलोक दोनोंमें कल्याण करनेवाले आप ही मेरे सच्चे गुरु हैं ।। ४७ ।। १. म सबलः । [३८८) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् विनय एव हि भूषणमुत्तमं विनयमूलमिदं जगतः पदम् । तत इतो विनयं वणिजां पते तव करोमि यशःपरिवद्धये ॥४८॥ अविदितं भवता न च विद्यते नरपतेरिदमस्य चिकीषितम् । विशतितमः रणनिमित्तमनेन हि गच्छता जिगमिषामि सहानुमतेन ते ॥४९॥ सर्गः इति वचः कथितं तनयेन तत्क्षमवबुध्य पिता पुनरभ्यधात् । इह भवन्तमपास्य हि जीवितु मम मतिः सुमते न च वाञ्छति ॥५०॥ तव गुणेन च पुत्र गुणप्रिय प्रथितकोतिरभूवमहं भुवि । नुपतिना समतां पुनराप्तवाननुपमा जगतो बहुमानताम् ॥५१॥ इह विहाय हि मां प्रगते त्वयि किमवलम्ब्य मया प्रतिषज्यते । व्रजसि मन्दरधीर यतो यतस्तनय मां च नयस्व ततस्ततः॥५२॥ विनम्रता मनुष्यका सबसे उत्तम भूषण है, संसारका सबसे उत्तम पद शुद्ध विनयके कारण ही प्राप्त होता है तथा मेरा जितना भी अभ्युदय हआ है वह विनयमलक हो है अतएव हे सार्थपते ! संसारमें यशको बढ़ानेकी अभिलाषासे आपके आगे प्रणत हूँ॥ ४८ ॥ महाराज देवसेन इस समय जिस कार्यको करना चाहते हैं यह सब किसी भी रूपमें आपसे छिपा नहीं है । ललितेश्वर इसी समय युद्धके लिये प्रस्थान कर रहे हैं, मैं भी उनके साथ-साथ जानेके लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ, किन्तु अपनी इच्छा ही से प्रेरित होकर नहीं अपितु आपकी अनुमति प्राप्त करके ही जाना चाहता हूँ ॥ ४९ ।। उपकारी ही सगा है जब धर्मपुत्रने विनयपूर्वक अपने मनके भावोंको इन वचनोंसे स्पष्ट कर दिया तो पिताको उसका निर्णय समझनेमें देर न लगी। कुछ देर सोचकर उसने कहा था। 'हे सुमते ! तुम्हारे विना मैं भी यहाँ जीवित नहीं रह सकूँगा।' मेरे मनमें ऐसा आता है। ५०॥ हे सद्गुणोंको प्रेम करनेवाले पुत्र! तुम्हारी असाधारण योग्ताओंके कारण ही सारी पृथ्वीपर मेरी कीर्ति विख्यात हो गयी है। तुम्हारे पराक्रम तथा गुणोंने हो मुझे महाराज देवसेनके समान बना दिया है, आज मैं सारे राज्यके लिए इतना अधिक मान्य हो गया हूँ कि उसकी तुलना करना ही असंभव है ।। ५१ ॥ ३८९) आवशं पिता जब तुम मुझे यहाँ छोड़कर दूसरे देशको चले जाओगे, तो तुम्ही बताओ, मैं किसके सहारे यहाँपर जीवित रहूँगा? ॥ ' अतएव हे सुमेरुके समान धीर गम्भीर पुत्र तुम जिस-जिस देशको जाओ, मुझे भी वहीं वहीं लेते चलो ॥ ५२॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमः चरितर सर्गः इति बमोविरते वणिगीश्वरे वरतनुस्त्वथ चास्त्विति चोक्तवान् । अथ परान्नपतेललिताहयादयितुं समयश्च तदाभवत् ॥ ५३॥ विविधबन्दिमहाविटमागधस्फुटमुखोष्ठपुटप्रविजृम्भितः । जय जयेति जयावह जितस्त्वविरतध्वनिरास समन्ततः ॥ ५४ ॥ अपि च पर्वणि वृद्धिमथर्छतः' पवनघट्टितचारुतरङ्गिणः । ललितपूर्वपुरं नृपतेर्गमे जलनिधेः सकलध्वनिमादधौ ॥ ५५ ॥ हयरथद्विपपादविघट्टनात्स्फुटसमुच्छ्रितधूलिविधूसरः छतलावधूसरः । न ददशे खल तत्क्षणमम्बरं दिनकरश्च परिस्फूरदंशमान ॥५६॥ अपनयाशु जड स्वतुरङ्गमं मदविभिन्नकटद्विरदान्तिकात । तुरगपूर्वगतां च किशोरिकामपनयेति रवः परिशश्रये ॥ ५७॥ ASSITAMARPALHEARTHATARNAMAHESeaman सार्थपति सेठ सागरवृद्धि जब अपनी अभिलाषा को व्यक्त करके चुप हो गये तब युवराज वरांगने प्रसन्नतापूर्वक कहा था 'जैसी आपकी आज्ञा'। इस वार्तालापके समाप्त होते-होते हो महाराज देवसेनके ललितपुरीसे प्रयाण करनेकी मुहूर्त आ पहुंची थीं ॥ ५३ ॥ महाराजकी युद्ध यात्राके समय चारों ओरसे 'जय, जय' की बहुत जोर की ध्वनि आ रही थी। महाराजके समय शकुन करनेके लिए ही विविध जातियोंके बन्दोजन, बड़े-बड़े विट तथा मागध लोग बड़े वेगके साथ अपने मुखको पूरा फैलाकर जोरसे ओठोंको बनाते हुए महाराजकी जय बोलते थे। वे एक क्षणके लिए भी न रुकते थे ॥ ५४ ॥ युद्ध यात्रा पूर्णमासीके दिन चन्द्रमाको देखकर समुद्र अपने आप ही ज्वाररूपसे बढ़ता है, उस पर भी यदि दैवयोगसे जोरकी हवा चलने लगे तो फिर उन्नत लहरोंके पारस्परिक आघातसे जो भयंकर शोर मचता है उसी प्रकार तीव्रतम शोरको करते हुए महाराज अपनी राजधानी ललितपुरसे निकले थे ।। ५५ ।। रथोंकी दौड़, घोड़ोंकी टापों तथा हाथियों के पैरोंके भारसे मसले जाने पर जो धूलिके बादल उड़े थे। उनके द्वारा समस्त नभ मण्डल धुंधला हो गया था। उस समय यह अवस्था ही गयी थी कि आकाशमें पूर्णरूपसे चमकता हुआ सहस्र रश्मियुक्त दिनकर भी लोगोंकी आँखोंसे ओझल हो गया था ।। ५३ ।। __'देखता नहीं है कि यौवनके उन्मादमें हाथीके गण्डस्थलोंसे मद जल बह रहा है, हे मूर्ख ! अपने चंचल घोड़ेको शीघ्र १.क वृद्धिमवार्चतः । १. [ नृपनिर्गमे । २. क जडः । [३९०] Jain Education international Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् STARCELATAAZAG JA मधुरवाक्यरसैरनुगच्छतः पुरजना नृपत स्ववशिष्यताम् । युवनृपेण दिवाकरतेजसा परबलोन्मथनाथंमतोत्युधैः (१) ॥ ५८ ॥ प्रबल के पतद्विगाकुला प्रथितमुत्तमनामपुरार्णवम् । ललितपूर्वपुराद्रिगुहामुखादभिसंसार च सैन्यनदी द्रुतम् ॥ ५९ ॥ तदनु सागरवृद्धिवणिक्पतिः शकटसार्थं सहस्र समन्वितः । नृपसुता शिबिकाग्र गतस्ततो बहुभटानुवृतः प्रययौ शनैः ॥ ६० ॥ गिरिगुहामुखकाननसंकटे पृतनां नरपतेर्व्रजतः परिपार्श्वतः । परिपालयन्नगमदिन्द्रसुतोपमविक्रमः ॥ ६१ ॥ युवनृपः ही उसके पाससे हटा ले । अरे! हे ! देखते नहीं हो वह किनारी बालिका घोड़े के नोचे दब जायगो, उसे एक तरफ कर लो।' इस प्रकारकी ध्वनियाँ ही उस समय सुन पड़ती थीं ॥ ५७ ॥ राजाके साथ मीठी-मीठी बातें करते हुए पोछे-पीछे चले आनेवाले नागरिकोंको महाराजने स्नेहपूर्वक लौटा कर मध्याह्न सूर्य के समान प्रतापी युवराज वरांगके साथ सगे सम्बन्धी (बहिनोई) पर आक्रमण करनेवाले शत्रुकी सेनाको छिन्न-भिन्न कर देने के लिये आगे बढ़े थे ॥ ५८ ॥ सैनिकोंकी उक्तियाँ उस समय सेना ऐसी लगती थी मानो-ललितपुर रूपी पार्वतोय गुफाके मुखसे निकल कर महाराज देवसेनकी सेना रूपी नदी, बड़ी तीव्र गतिके साथ जगद्विख्यात उत्तमपुर रूप समुद्रसे मिलने के लिए बहा जा रहो थो। उस सेना नदी के ऊपर फहराती हुई उन्नत पताकाएँ ऐसो प्रतीत होतो थों, मानो पक्षों हो उड़कर उनके ऊपर झपट रहे हैं ॥ ५९ ॥ सेना सौन्दर्य महाराज के पीछे-पीछे सेठ सागरवृद्धिका रथ चल रहा था, इनके साथ बहुमूल्य संपत्तिसे लदी हुई हजारों गाड़ियाँ चली जा रही थीं। इसके बाद राजपुत्रो सुनन्दा तथा मनोरमाको पालकियाँ चल रही थीं तथा उनको चारों ओरसे घेरे हुए असंख्य भट धीरे-धीरे चले जा रहे थे । ६० ॥ उन्नत पर्वत, भीषण गुफाओंके भीतर गहन काननों आदि संकटमय स्थानोंपर युवराज महाराज देवसेनके आगे पीछे तथा दाँयँ बाँयें चलते युवराज थे और वरांग पूरी सेनाका व्यवस्थितरूपसे संचालन भी करते थे। उस अवसर पर उनके सैन्य संचालनकी निपुणता और पराक्रमको देखकर इन्द्रके पुत्र ( अर्जुन ) का स्मरण हो आता था ।। ६१ ।। TH विंशतितमः सर्गः [ ३९१ } Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् विशतितमः सर्गः स्वविष याद्विषयान्तमुपेत्य च प्रतिनिवेश्य नृपस्तु वरूथिनीम् । अभिनिवेदयितु द्रुतमागतं जलधिवृद्धिमतो विससर्ज सः ॥ ६२॥ नृपवचोर्थविशेषपरावरं मनसि वाक्यपटुर्गणयंस्ततः । अभिसमीक्ष्य नृपस्स्थितपोरुष स्वनृपकार्यमशेषमदुद्रुवत् ॥ ६३ ॥ उपगतं ललिताबपुराधिपं जलधिवृद्धिमुखादवबुध्य तम् । अपजयं च परस्य जयं स्वकं मनसि निश्चितवान्स महीपतिः ॥ ६४ ॥ परमहर्षविबुद्धमुखाम्बजो हृषितरोमचिताञ्चितविग्रहः । कुशलतां नृपतेः परिपृच्छय तं पुनरपृच्छदसौ बलसंपदाम् ॥ ६५ ॥ अपने पूरे राष्ट्रको पार करके गन्तव्य राष्ट्र में पहुँच जाने पर महाराज देवसेनने विश्राम करनेके लिए एक स्थानपर अपनो सेनाको रोक दिया था । महाराज धर्मसेनको इस समाचारसे अभिज्ञ करनेके अभिप्रायसे कि 'ललितेश्वर आपकी आज्ञाके अनुसार बड़ी तीव्र गतिसे प्रयाण करते हुए आपके निकट आ पहुँचे हैं।' सार्थपति सागरवृद्धिको उत्तमपुरके सैनिक-आवास पर भेजा था ।। ५२॥ आगमन सन्देश महाराज देवसेनने सेठ सागरवृद्धिको जो सन्देश दिया था उसके प्रधान तथा अप्रधान प्रयोजनको किस प्रकार उत्तमपुराधिके समक्ष उपस्थित करना होगा, इस सबको कुशल वक्ता सेठने अपने मन ही मन निश्चित कर लिया था। तथा उसकी पुनरावृत्ति करता जाता था। उत्तमपुरके स्कन्धावारमें पहुँचकर वह विनयपूर्वक महाराज धर्मसेनके सामने उपस्थित हुए थे। उनके पुरुषार्थको बुढ़ापा भी न डिगा सका था तथा उनके सामने उपस्थित होकर अपने नृपतिका पूराका पूरा सन्देश सुना दिया था ।। ६३ ॥ A सार्थपति सागरवृद्धिके मुखसे ललितपुराधिपति महाराज देवसेनके आगमनके शुभ संवादको सुनते ही महाराज,धर्मसेन ने उन्हें आया ही समझ लिया था। उत्तमपुरेशको मन ही मन यह दृढ़ विश्वास भी हो गया था कि शत्रुको पराजय तथा मेरो विजय होना अवश्यंभावी है । ६४ ॥ लोभाचारज्ञता ___ उनके हर्षकी सीमा न थी, हर्षातिरेकसे उनका मुखारविन्द विकसित हो उठा था, आनन्दजन्य रोमाञ्चसे उनकी पूरी देह कंटकित हो गयी थी। सबसे पहिले उन्होंने ललितेश्वरकी कुशल क्षेम पूछी थी, फिर क्रमशः सुयात्राके विषयमें पूछ चुकनेके I बाद उनकी सेनाके विषयमें जिज्ञासा की थो ।। ६५ ।। ॥ १. म स विषयाद् । २. [ सुतमागतं ]। ३. [ नृपं स्थितपौरुषं ] । SARLADAKIRITUASHIELDRENEURSHITHERS [ ३९२] . Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् कति गजाः समवाः कति वाजिनः कति हि योषगणाः कति नायकाः । कति च मन्त्रविदः कति वल्लभाः कथय वेदितुमिच्छति मे मतिः॥६६॥ इति महीपतिना प्रतिचोदितः स्वपतिचक्रबलस्थितिपौरुषम् । युधि वराङ्गविनिर्मितसाहसं जलधिवृद्धिरजिज्ञपदाशु तत् ॥ ६७ ॥ हृदयहारिवचःश्रवणामृतं सपदि सम्यगिदं समुदाहृतम् । सकलमेतदवैमि वराङ्ग इत्यभिहितं भवता वद कीदृशम् ॥ ६८॥ स्थितिगतिद्युतिरूपपराक्रमैः प्रियसुतस्तव सोऽस्ति भवत्समः । व्यतिगतेषु विनेष्विभकारणो नवर येन कृतः प्रथितो रणः ॥ ६९ ॥ विंशतितमः सर्गः 'हे सार्थपते ! मेरा मन सैन्य सम्बन्धी विगतको जाननेके लिये उत्सुक है अतएव बताओ कि महाराजकी मदोन्मत्त गजसेनाका प्रमाण क्या है, अश्वारोही सेना कितनी है, तथा पैदल सेनाकी संख्या क्या है। इस सेनाका संचालन करनेवाले नायकों का प्रमाण कितना है । ललितेश्वरके साथ कितने कुशल मंत्री आये हैं। इन सबके अतिरिक्त साथ आनेवाले मित्रों तथा प्रियजनों। का क्या प्रमाण है ।। ६६ ॥ महाराज धर्मसेनके द्वारा पूछे गये समस्त प्रश्नोंका उत्तर देते हुये महामति सेठ सागरवृद्धिने अपने नृपतिके सपक्षी राजाओं, चतुरंग सेनाकी स्थिति तथा पुरुषार्थ आदिको विगतवार बता दिया था। इतना ही नहीं, महाराजका उत्साह बढ़ाने के अभिप्रायसे उन्होंने शीघ्रतापूर्वक युवराज वरांगके समस्त पराक्रमों को भी कह सुनाया था जो कि उन्होंने अनेक युद्धोंमें प्रदशित किये थे ॥ ६७॥ पुत्र-जिज्ञासा हे सार्थपति ! आपने जो यह सब भलीभाँति वर्णन किया है, आपके वचन हृदयको बलपूर्वक तुम्हारी ओर आकृष्ट कर रहे हैं। कानोंको तो वह शब्द अमृतके समान हैं। मैं यह सब तो पहिले ही से जानता हूँ, केवल इतना हो जानना चाहता हूँ कि जिस वरांगके विषयमें आपने यह सब कहा है वह रंगरूपमें कैसा है ।। ६८ ॥ उद्रिक्त पितृत्व इस प्रश्नके उत्तरमें सेठ सागरवृद्धिने इतना ही कहा था-'हे महाराज उठने, बैठने, बोलने, चालने, कान्ति, रंग तथा पराक्रममें सर्वथा आपके ही समान है। हे महाराज! वह आपका ही ज्येष्ठ पुत्र है। अप्रतिमल्ल हाथोके कारण मधुराधिपसे जो प्रसिद्ध रण कुछ दिन पहिले ही हुआ था, उस रणको जीतनेवाला भी वही है ॥ ६९ ॥ १.[ कीदृशः]। Jain Education Internatio [३९३] Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम् इति सरित्पतिवृद्धिवचः पुनहृदयतुष्टिकरं तु निशम्य सः । कटककुण्डलहारवरादिभिः सदसि पूजितवान्बहुभूषणैः ॥ ७० ॥ गतसुतस्य कथाश्रुतिविस्मितो विकसितोत्पललोलविलोचनः । विंशतितमः नृपतया' नृपतिश्चतुरंगया द्रुतमगात्तनयस्य दिदृक्षया ॥ ७१॥ सर्गः स्वतनयाभिनिरीक्षणकाङ्क्षया द्य दयति क्षितिपे मुदितात्मनि । पथि वराङ्गकथाभिरतो जनो न बुबुधेऽध्वपरिश्रममादतः ॥७२॥ प्रहतदुन्दुभिशङ्खमहारवैस्तमुपगम्य नृपं समुपाश्रितम् । परिगतो युवराट् ललितेश्वरश्चरणयोः समुदौ प्रणिपेततुः ॥ ७३ ॥ वरवधूस्तनकुमललम्पट प्रमुदितोत्तमचन्दनकुङ्कमम् । भुजयुगं प्रविसार्य महीपतिस्तत उभावधिकं परिषस्वजे ॥ ७४ ॥ नदियोंके नाथ; सागर सहित वृद्धि नामधारी ( सागरवृद्धि ) के द्वारा कहे गये इन वचनोंको सुनकर ही महाराज धर्मसेनका पुत्र वियोगवह्निमें तपता हुआ हृदय शान्त हो गया था। परिपूर्ण राजसभामें ही उन्होंने अपने शरीरसे कटक, कुण्डल, उत्तम मणिमयहार आदि अनेक आभूषण उतार कर सेठ सागरवृद्धिको भेंट करके उनका बड़ा सत्कार किया था ।। ७० ।। - बहुत समयसे खोये हुए पुत्रके समाचार ही नहीं अपितु उसके अभ्युदयको कथा सुनकर महाराज धर्मसेनके नेत्रकमल विकसित ही न उठे थे, अपितु रागकी अधिकतासे चंचल हो गये थे। पुत्रको देखनेकी उत्कट इच्छाके कारण वे अपनो विशाल । चतुरंग सेनाको साथ लेकर बड़े वेगके साथ उससे मिलनेको चल दिये थे ।। ७१ ।। 'मृतोत्पन्नस्तु किं पुनः' महाराज धर्मसेनका आत्मा पुत्रको चिरकाल बाद देखनेको आकांक्षाको आशासे बिल्कुल हरा-भरा हो गया था। वे , मार्ग चलते जाते थे और युवराज वरांगके विषयमें हो बात करते जाते थे, युवराजके प्रति उन्हें इतना आदर तथा स्नेह था कि मार्गकी कठिनाइयों तथा परिश्रमका उन्हें पता भी न लगा था ।। ७२ ।। जब महाराज धर्मसेन निकट पहुँचे तो महाराज देवसेन स्वागतके लिए दुन्दुभि, शंख आदि बाजोंको जोरोंसे बजवाते हुए उनकी अगवानीको आये थे तथा उनके समक्ष पहँचते ही युवराज वरांगके साथ ललितेश्वर अपने भगिनी पति राजाके चरणोंमें आदर और प्रसन्नतापूर्वक झुक गये थे ॥ ७३ ।। महाराज धर्मसेनके पीनपुष्ट भुजदण्ड कुलीन रानियोके स्तनरूपी उन कलियोंको मरोड़नेके आदी थे जिन पर भली । २. [ पृतनया ]। २. [ परिगतो..."ललितेश्वरौ चरणयोः ]। ३. [ प्रमृदितोत्तम° ] । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमः बराङ्ग चरितम् प्रियसुतं च समैथुनमात्मनश्चिरतरेण समीक्ष्य महीपतिः। वसुमति लवणार्णवमेखला प्रविजितेति मया स्फुटमभ्यधात् ।। ७५ ॥ अतुलहर्षसमन्वितमानसौ समनुरक्तजनैः सह भूभुजौ। वरतनोः कथया श्रवणीयया ह्यवसतां तदहविगतोत्सुकौ ॥ ७६ ॥ प्रतिगमय्य निशामदयागते दिनकरे स्वरया कृतमबलः । विश पुरं जननीमभिवादय त्वमिति भूमिपतिः सुतम न्वशात् ॥ ७७ ॥ इति नपाभिहितो रणकर्कशः पितरमिस्थमवोचविदं वचः । तमवतयं रणातिथिमायुधस्तदनु नाथ पूरं प्रविविक्ष्यते ॥ ७८ ॥ सर्गः भाँति पीसे गये श्रेष्ठ चन्दनका सुन्दर लेप लगा रहता था। इन्हीं भुजाओंको फैलाकर उन्होंने अपने साले तथा पुत्रका जोरोंसे आलिंगन किया था ।। ७४ ।। आत्मीय मिलन अत्यन्त दीर्घ अन्तराल के बाद अपने प्रिय साले तथा सदाके लिए खोये हुए ज्येष्ठ प्रिय पुत्रको देखकर ही महाराज धर्मसेनको ऐसा आभास हुआ था कि 'आज मैंने उस विशाल पृथ्वीको पूर्णरूपसे जीत लिया है जिसकी मेखला लवण महासमुद्र है।' फलतः इस उद्गारको भी उन्होंने स्पष्ट भाषामें व्यक्त कर दिया था। दोनों ही राजाओके मनोंमें अमर्याद हर्ष सागर उमड़ रहा था ।। ७५ ।। वे दोनों अपने समान शील, वय आदि स्नेही तथा अनुकूल लोगोसे घिरे हुए थे। उस समय उनके सुनने और कहने योग्य एक वरांगकी ही कथा रह गयी थी। वह पूराका पूरा दिन उसी कथाको कहते सुनते बीत गया था तथा दोनोंकी उत्कण्ठाएं और दुःख शान्त हो गये थे। महाराज धर्मसेनने संध्यासमय कुमार वरांगको आज्ञा दी थी ।। ७६ ॥ हे वत्स ! रात्रिके आरामसे बीतनेपर ज्योंही सूर्य उदयाचल पर आनेको हों तुम शीघ्रतासे प्रातःकालीन मंगल विधिको समाप्त कर लेना तथा तुरन्त ही राजधानीको प्रस्थान कर देना। नगरमें प्रवेश करके सबसे पहिले अपनी माताजोके दर्शन करना' ।। ७७।। युवराज वरांग स्वभावसे ही दारुण योद्धा थे अतएव महाराजकी उक्त आज्ञाको सुनकर उन्होंने यही निवेदन किया था। हे नाथ ! जो शत्रु अतिथि युद्ध करनेके लिए आया है, पहिले मैं उसका दारुण शस्त्रास्त्रोंकी मारसे तर्पण करूंगा। इस विधिसे जब उसका स्वागत हो लेगा तो उसके बाद ही मैं राजधानीमें प्रवेश करूंगा ।। ७८ ॥ 1 ३. क सुमैथुन । १.[ सुतमभ्यधात् ] । [३९५] Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तमवगम्य 'चरैर्बकुलेश्वरो वरतनोर्भटतां बलसंपदम् । अपजगाम मनाग्भयविक्लवं न्यगपगन्धहतो द्विरदो यथा ।। ७९ ।। बकुलराजबलाबलमीक्षितु नृपनियोगकराः पुरुषा गताः । अपगमस्य निवेदनसंभ्रमाः प्रतिनिवृत्य महीपतये जगुः ॥ ८० ॥ अपरपक्षपराभवसंश्रयात्प्रतिविबुद्धमुखाम्बुरुहा नृपाः । प्रजहषु जयदुन्दुभयो ध्वनं (?) जलधरा इव ते जलदागमे ॥ ८१ ॥ उदितबालरविप्रतिमद्युति प्रथमयौवनभूषितविग्रहम् । भुवनवल्लभमेकपति भुवः स्वजनमेव जनाः खलु मेनिरे ॥ ८२ ॥ शत्रुमर्दनका संकल्प सुषेणके विजेता वकुलेश्वरको जब अपने गुप्तचरोंके द्वारा महाराज देवसेनके आ पहुँचने, दोनों सेनाओंकी विशालता तथा इन सबसे भी बढ़कर युवराज वरांगके अनुपम रणकौशलका पता लगा तो वह केवल नीतिके कारण ही नहीं अपितु किसी हद तक भयसे व्याकुल होकर अपने देशको उसी प्रकार लौट भागा था जिस प्रकार न्यगपकी (सिंह) तीक्ष्ण गन्धके नाक में पहुँचते ही मदोन्मत्त हाथी भाग खड़ा होता है ।। ७९ ।। शत्रु पलायन _महाराज धर्मसेन सच्चे आज्ञाकारी तथा कुशल गुप्तचर बकुलराजके सैन्य आदि बल तथा उसके छिद्रोंको देखने गये थे । किन्तु जब उन्हें उक्त शत्रुके पलायनका पता लगा तो वे महाराजको शीघ्र समाचार देनेके लिए उतावले हो उठे थे । फलतः शीघ्र ही लौटकर उन्होंने महाराजको उक्त समाचार दिया था ॥ ८० ॥ शत्रुपक्षका इस सरलतासे पराभाव हो जानेके कारण महाराजाओंको इतनी अधिक प्रसन्नता हुई थी कि उनके मुखकमल अनायास ही विकसित हो उठे थे। उनकी आज्ञासे तुरन्त विशाल विजय दुन्दुभियां बजने लगी थीं। ऐसा मालूम होता था वर्षाऋतु प्रारम्भ होनेपर मेघ ही कठोरतासे गरज रहे थे ।। ८१ ।। युवराज वरांग अपनी शिक्षा तथा स्वभावसे समस्त गुणोंके आगार थे। उस समय उनका तेज उदीयमान बालरविके समान अनुरक्त (दो अर्थ है-थोड़ा लाल और अकर्षक ) तथा वर्द्धमान था, सारा शरीर अनवद्य यौवनके उभारसे आप्लावित था, अपने गुणों के कारण वे भुवन-वल्लभ थे, सारी पृथ्वीके एकमात्र पालक थे, तथा जनसाधारण उन्हें अपने सगे बन्धुकी तरह मानता था ।। ८२ ॥ १. क चश्च । For Private Personal Use Only विशतितमः सर्गः [ ३९६ ] Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् विंशतितमः सर्गः अवनिराज्यधुरं भजतामिमां प्रतिगृहाण न चान्यविहोच्यताम् । इति जगर्गरवः सदसि स्थितं वरतनु मुदिता' गुणभाजनम् ॥ ८३ ॥ स च गुरुप्रतिकूलभयादतः किमपि चात्मगतं हृदि चिन्तयन् । न च शशाक निवारयितु बलान्नपतिता क्षितिपैः समधीयत ॥ ८४ ॥ रजतरुक्मघटेरभिषेचितः प्रवरपट्टविभूषित मस्तकः। प्रचलदुज्ज्वलचामरवीजितः प्रविरराज शशीव गताम्बुदः ॥ ८५ ॥ समदवारणमूनि प्रतिष्ठितो नपतिभिर्बहुभिः परिवारितः। प्रचलदुच्छ्रितकेतुलसद्धवजः पुरवरं प्रविवेश महेन्द्रवत् ॥८६॥ जिस समय वह राजसभामें पिताके पास बैठे थे उस समय पिता, मामा, महामंत्री आदि गुरुजनोंने आग्रह पूर्वक कहा था 'हे वत्स ! इस विशाल राज्यके भरणपोषणके भारको जिसे अबतक वृद्ध महाराज ढोते आये हैं अब तुम धारण करो, चुपचाप स्वीकार कर लो और कुछ मत कहो ।। ८३ ॥ वह अपने मनमें कुछ और ही सोचता था किन्तु उसे इसीलिए नहीं कह सकता था कि कहीं पिता आदि पूज्य पुरुष । उसे विपरीत वचन न समझ लें। अतएव वह उन्हें अपने निश्चयको कार्यान्वित करनेसे भी नहीं रोक सकता था। फल यह हुआ कि सब राजाओंने मिलकर उसपर नृपत्वके भारको लाद दिया था । ८४ ॥ राज्याभिषेक मेघमालाके फट जाने पर पूर्णचन्द्रकी जो अनुपम कान्ति होती है, युवराज वरांगकी भी उस समय वही शोभा थी। सोने तथा चांदीके तीर्थ जलपूर्ण घटोंके द्वारा उसका राज्याभिषेक हुआ था, वक्षस्थल तथा कटिप्रदेश पर राजपट्ट शोभा दे रहा था, मस्तक पर मुकुट जगमगा रहा था तथा उसके ऊपर निर्मल, धवल तथा चंचल चमर दुर रहे थे ।। ८५ ॥ मदोन्मत्त हाथीके ऊपर आरूढ़ होकर जब वह राजधानोकी ओर चला तो उसके चारों ओर अनेक राजा लोग चल रहे थे, ऊँचे-ऊँचे केतु लहरा रहे थे तथा ध्वजाओंको शोभा भी अनुपम थी । अतएव उसने देवराज इन्द्रके समान उत्तमपुरमें प्रवेश किया था ।। ८६॥ [३९७ मुदितो। २. विभूषणभूषितः । Jain Education international Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज पारतम् प्रवरहीतलस्थितयोषितो विलसितामलसन्नयनावलीः । सललितं स हरं' मुदितः शनैरुपससार गृहं सर नरोत्तमः ॥७॥ उदितकाञ्चनतोरणगोपुरं रुचिमदुच्छ्रितकूटतटोत्कटम् । विंशतितमः नृपगृहं प्रविशन्विबभौ नृपो जलदगर्भमयेन्दुरिवामलः ॥८॥ सर्ग: प्रमुदिता च वराङ्गवराङ्गना सकलचन्द्रमुखी कुलनन्दिनी। प्रहतमङ्गलतूर्यरवैः सह प्रविशति स्म मनोरमया पुरम् ॥ ८९ ॥ अथ नरपतिरन्तर्गेहलक्ष्मीमिवैकां सविनयमुपसद्य प्रान्जलिर्जातहर्षः। विकचकमलभासः सन्ननाम स्वसारः प्रणतजनविभत्या पादयोः पादयोः सः॥९॥ नगरमें ऊँचे-ऊँचे विशाल-महलोंकी छतों पर कुलीन बधुएँ बैठी थीं उनके निर्विकार सुन्दर चंचल नेत्रोंके समूहको अपनी लीला व अन्य गुणोंके द्वारा धीरे-धीरे अपनी ओर आकृष्ट करता हुआ वह पुण्यात्मा पुरुष धीरे-धीरे अपने राजमहलकी ओर चला जा रहा था ।। ८७ ।। उत्तमपुरके राजमहलके गोपुर अत्यन्त उन्नत स्वर्णमय द्वार थे, उनके ऊपर बने हुए आकाशचुम्बी शिखरोंके कलशोंकी कान्ति तथा धुति अद्भुत थी। ऐसे विशाल राजप्रासादमें प्रवेश करते हुए कुमार वरांगकी शोभा मेघोंकी घटामें घुसते हुए निर्मल पूर्णचन्द्रकी कान्तिकी समानता करती थी ॥ ८८॥ राजभवन प्रवेश युवराज वरांगकी अनुपमा आदि पत्नियां, कुलीन कन्याएँ तथा बधुएं थीं। अतएव ज्योंहो उन चन्द्रमुखियोंने जोरोंसे । बजते हुए मांगलिक बाजोंके शोरके बीचमें मनोरमा के साथ अपने प्राणपतिको प्रवेश करते देखा, त्योंही वे सब कुलनन्दनियां स्वयं आनन्दविभोर हो उठी थीं ।। ८९ ।। HER. हर्षातिरेकके कारण उन्दत्त युवराज वरांग हाथ जोड़े हुए विनयपूर्वक माताके सामने जा पहुंचे थे । और उनके चरणोंमें 1 झुक गये थे । वह माता भी क्या थी ? उत्तमपुरके राजवंशकी साक्षात् गृहलक्ष्मी थी । बहिनोंने जब भाईको देखा तो उनके मुख विकसित कमलोंके समान विकसित हो उठे थे, युवराज वरांग अत्यन्त विनम्र पुरुषकी भांति प्रत्येक बहिनके पास गये थे और उनके चरण छूकर स्नेह प्रकट किया था ।। ९०॥ १. [ स हरन् ।। २. [ गृहं च । १. म लक्ष्मीमिवैतां । Jain Education international Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदयमनुपकाद्यासन्नतान्ताश्च दृष्ट्वा हृदयमपि वसन्तीोषित: संप्रपृच्छय । चरितपरिका तामात्मनः संनिवेद्य क्षपितरिपुबलौघः स्वस्थचित्तो बभूव ॥ ९१॥ मामा वराङ्ग इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते स्वजनसमागमो नाम विंशतितमः सर्गः । विशतितमः सर्गः चरितम् R- RHGETARIAGIRISEENSHAHR मातृभक्त वहीं पर लज्जा और प्रेमके भारसे झुकी हुई अनुपमा आदि प्राणाधिकाएं खड़ी थीं, उसने उनकी तरफ सहानुभूति तथा प्रेमपूर्वक देखा था, क्योंकि वे सब उसके हृदयमें विराजमान थों, किन्तु प्रकट रूपसे वह उनके विषयमें वहाँ न पूछ सका था। इसके उपरान्त कुछ समय तक वह अपने पराक्रमो को रुचिकर बातोंको करता हुआ वहीं बैठा रहा था, क्योंकि शत्रु सेनाका सदाके लिए तिरस्कार हो जानेके कारण उसका चित्त निश्चिन्त हो गया था ।। ९१ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय बरांगचरित नामक धर्मकथामें स्वजन-समागम नाम विंशतितम् सर्ग समाप्त । -मामRELATERESTHATIONASH ३९९]] IRSHERPATHI 7 १. म वसन्ती योषितः । Jain Education international Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सर्गः एकविंशः सर्गः पुरा वराङ्गास्तु कुमन्त्रिमन्त्रितस्तदात्मदुर्वृत्तविपाकतश्च सः। बनान्तरे व्यालमगादिसेविते निरन्तरं दुःखमनेकमाप्तवान् ॥१॥ एकविंशा स एव पूर्वाजितपुण्यपाकतः समुद्रवृध्यादिभिराप्तसंगतः। क्रमेण भूयः समवाप्य सच्छ्रियं स्वबन्धुमित्रष्टजनैः सहोषितः॥२॥ विपत्तयश्च व्यसनानि संपदः सुखासुखोन्मिश्रफलप्रवृत्तयः । वियोगसंयोगसमृद्धिहानयो भवन्ति सर्वत्र मनुष्यजातिषु ॥३॥ जिनेन्द्रसच्छासनमार्गयायिना त्रिलोकसद्भावविदा महात्मना । उदारवृत्तेन शुचं व्यपास्यता सुखं परत्रेह च लभ्यते ध्रुवम् ॥ ४ ॥ एकविंश सर्ग 'अहोकर्म विचित्रता' अधम कुमंत्रियोंके षड़यंत्रको न सोचकर तथा पूर्वजन्ममें किये गये अपने कुकर्मोके फलके उदयमें आनेपर पहिले जिस वरांगको व्याघ्र, सांप, मृग, आदि जंगलो पशुओंके रहने योग्य भीषण वनमें निवास हो नहीं करना पड़ा था, अपितु एक क्षणको भी विश्राम पाये बिना अनेक दुःखोंको निरन्तर सहना पड़ा था ॥१॥ उसी राजपुत्र वरांगके पूर्वोपाजित पुण्यमय कर्मों का जब परिपाक हो गया और शुभ उदय हुआ तो उसे सागरवृद्धि । आदि विश्वसनीय तथा हितैषी पुरुषोंका समागम प्राप्त हुआ था। उसको क्रमशः सब प्रकारको कल्याणकर लक्ष्मी प्राप्त हो गयी । थी। इतना ही नहीं वह अपने स्नेही बन्धुबान्धवों मित्रों तथा प्रियजनोंके साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था ॥२॥ इस मनुष्य योनिमें जोवपर बड़ी विपत्तियां पड़ती हैं, घोर संकट आ घेरते हैं, विपुल सम्पदाओंका भी समागम होता है, कभी-कभी ऐसी भी प्रवृत्तियां होती हैं जिनका फल मिले हुए सुख-दुःख होते हैं। कभी वियोग है तो कभी संयोग है, एक समय समृद्धि है तो दूसरे ही क्षण सर्वतोमुख हानि भी है ।। ३ ।। किन्तु जो सज्जन प्राणी श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट मार्गका अनुसरण करते हैं, तीनों लोकोंमें क्या सार है इसे भलीभांति जानते हैं, जिनका आचार-विचार उदार है, शुद्धियुक्त मार्ग की आराधना करते हैं तथा निर्दुष्ट आचरणका पालन करते हैं, वे ही महापुरुष इस भव तथा परभवमें, निश्चयसे सुख प्राप्त करते हैं ।। ४ ।। चाममा ४००1 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशः बराङ्ग चरितम् ततः कदाचित्सुरसेनभूपतिः समाप्तकार्यो नृपमायतश्रियम् । सुखोपविष्टं समुपेत्य सादरं व्यजिज्ञपद्यातुमथात्मनः पुरीम् ॥ ५॥ विचिन्त्य लोकानुगतिप्रवर्तनं मृगेन्द्रमत्तद्विपविक्रमक्रमः । प्रदानमानादिभिरर्चनार्हणैः समर्प्य राजा विससर्ज भूपतिम् ॥ ६ ॥ स देवसेनो भगिनी सुताद्वयं समर्प्य लोकस्य गतिस्थितिक्रियाः । विमोच्य जामातरमानतद्विषं स्वदेशमृध्द्या परया ययौ नृपः ॥७॥ गते वराङ्गः श्वशुरे महाद्युतौ दिगन्तरख्यातविशिष्टपौरुषः ।। समेत्य कान्तापितमातबन्धुभिर्गतश्रमः संमुमुदे पुरोत्तमे ॥८॥ सर्गः MAHARASTRARDaromiseriaemmasumpeaceae एक दिन ललितेश्वर देवसेन, महाराज धर्मसेनके पास पहुँचे, इनको सम्पत्ति तथा शोभा दिन-दूनी व रात-चौगुनी बढ़ रही थी। उस समय वे सुखके साथ निश्चिन्त बैठे थे। उनके सामने आदरपूर्वक उपस्थित होकर ललितेश्वरने अपनी राजधानी । को लौट जाने की अभिलाषाको प्रकट किया था, क्योंकि जिस कार्यके प्रसंगसे वे आये थे वह भी समाप्त हो चुका था ॥५॥ सम्बन्धो विदा सिंहके समान पराक्रमी तथा मदोन्मत्त गजके तुल्य धोर गम्भीर-गामी महाराज धर्मसेन कुछ समय तक लोकव्यवहार तथा शिष्टाचारके विषयमें सोचते रहे थे। इसके उपरान्त कुछ निर्णय करके उन्होंने साले तथा समधी ललितेश्वरको, सम्मान, भेंट तथा अन्य सत्कारके योग्य उपायोंके द्वारा वैभवपूर्वक पूजाकी थी और इस उत्सवके पूर्ण होते ही उन्हें विदा कर दिया था ॥ ६ ॥ महाराज देवसेनने भो पत्नोरूपसे संसारके प्रर्वतन, स्थिति तथा सदाचारको मूलभूत अपनी दोनों राजदुलारियोंको बहिन, महारानी गुणवतीको सेवामें अर्पण करके तथा समस्त शत्रु-मण्डलको निर्मूल करनेवाले सुयोग्य दामादसे विदा लेकर विशाल वैभव और प्रतापके साथ अपने देशको प्रयाण किया था ॥७॥ महाप्रतापो ससुर ललिततेश्वरके चले जाने पर राजा वरांग अपनी पत्नियोंसे मिलकर, माता-पिताको स्नेहधारामें आलोडन करके तथा बन्धु-मित्रोंसे घिरा रहकर उत्तमपुरमें आनन्द करता था। अब तक उसकी थकान दूर हो चुकी थी। उसके पराक्रमकी ख्याति समस्त दिशाओंमें व्याप्त हो चुकी थी॥ ८॥ [४०१] १. म महोद्यतौ। _Jain Education intemationa५१ २. क गतः श्रयः । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः अथैवमुर्वी तु वराङ्गनामनि प्रशासति न्यायपथेन भूभुजि । सुषेणमाता च सुषेणधीवरौ कृतापराधानिति' नैव शिस्यरे (?) ॥९॥ अहो क्षमा धैर्यमहो गभीरता वराङ्गनाम्नोऽमितसत्त्वतेजसः। सति प्रभुत्वेऽपि कृतापराधिनः कृपान्वितो नः सहते दुरात्मनः॥१०॥ विहाय मानं क्षममस्य दर्शनं पुरापि नास्मदचसि स्थितौ युवाम् । यदुक्तमेतद्व्यपद्यते यदि तदेव साध्वभ्युपगम्यतामिह ॥ ११ ॥ इति प्रधार्यात्मनि ते हिताहितं विनिश्चितार्थाः प्रणिपातनं प्रति । महाभयाकम्पितगात्रयष्टयो विविक्तवेशे प्राणिपेतुरीश्वरम् ॥१२॥ न्याय-निपुण राज यह वरांगनामधारी प्रतापी राजा नोति तथा धर्म-शास्त्रके मार्गके अनुसार पृथ्वीका शासन करता था। उसके न्यायमय राज्यमें सुषेणकी माता तथा उनका प्रधान सहायक कपटी मंत्री यह तीनों ही देशमें शान्त और सुखी न थे, क्योंकि इन लोगोंने अकारण ही राजा वरांगके प्रति घोर अपराध किया था ॥ ९ ॥ वे लोग कहते थे कि अनुपम पराक्रमी तथा असह्य तेजस्वी राजा वरांगके धैर्यको धन्य है, तथा उसकी क्षमाशक्ति और गम्भीरताका तो कहना ही क्या है। पूर्ण प्रभुत्वको प्राप्त करके भो हम सुनिश्चित अपराधियों पर करुणाभाव ही दिखाता है, और तो और हम सब दुरात्माओंको सुखपूर्वक रहने दे रहा है ।। १० ।। हृदय परिवर्तन इस समय वृथाभिमानको छोड़कर हम लोगोंको उससे क्षमा-याचना करनी चाहिये और दर्शन करने चलना ही चाहिये।' मंत्री रानी और सुषेण दोनोंको लहता था कोई कह रहा है 'देखो तुम दोनोंने उस समय भी मेरी सुविचारित प्रथम सम्मति को नहींमाना था-सो उसका फल सामने है, मैं इस समय भी जो कुछ कह रहा हूँ वही सर्वथा उपयुक्त है यदि तुम दोनोंको भी मान्य है तो विनम्रतापूर्वक इसे विचार कर लो ।। ११ ।। इस प्रकार आपसमें हित और अहितके विषयमें मतविनिमय करनेके बाद उन तीनोंने यही निर्णय किया था कि नूतन राजाके सामने नत हो जाना ही उनके लिए एकमात्र प्रशस्त उपाय था। तो भी उनका अपराध उन्हें भयाक्रान्त कर देता था । [४०२] जिससे उनके शरीर काँपने लगते थे, इसी अवस्थामें वे लोग एकान्त स्थानपर विराजमान राजा वरांगकी सेवामें उपस्थित हुए थे॥ १२ ॥ । १. क कृताषराधा निशि। २. म स्थितो । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् महानथास्माभिरकार्य पण्डितैः कृतोऽपराधोऽनपराधिनस्तव । जिजीविताशा: शरणागता वयं प्रसादमरमासु कुरुष्व सांप्रतम् ॥ १३ ॥ तामुत्थितो मातरमागतां विभुर्ननाम मैवं प्रकृथा' इति ब्रुवन् । करेण पस्पर्श सुषेणमञ्जसा जगाद मा भैरिति तं च धीवरम् ॥ १४ ॥ विगृह्य येऽत्र प्रतिलोमगाः स्थिता नयामि तांस्तान्यमसादनं प्रति । वशस्थित ये परिपालयामि तान् स्थिता प्रतिज्ञा महतो ममेदृशी ।। १५ ।। कृतापराधेषु हि ये क्षमान्विताः क्षमावतस्तान्पुरुषान्विदुर्बुधाः । गुणेषु विन्यस्तषियां कृतागसां विचेष्टते दैवकृतैव सा क्षमा ॥ १६ ॥ क्षमा-याचना हे प्रभो ! आपने मनसे भी हमारा कभी कुछ न बिगाड़ा था, तो भी नीच कार्य करनेमें कुशल हम दुरात्माओंने आपके प्रति महान् नीच अपराध किया है। किन्तु हम जीवित रहना चाहते हैं, इसी समय हम पतितोंपर दया करिये और क्षमा करके प्रसन्न होइये ॥ १३ ॥ आशासे हम आपकी शरण में आये हैं, हे नाथ ! इस क्षमा वीरस्य भूषणं राजा वरांगने जब अपनी सौतेली माताको आती देखा; तो 'आप इस प्रकार अनुचित विनय न करें इन शब्दोंकी आवृत्ति करते हुए आसन छोड़कर उसका स्वागत करते हुए मस्तक झुकाकर प्रणाम किया था। सुषेणपर अपना बन्धु स्नेह प्रकट करनेकी अभिलाषासे उसके शिर, पीठ आदि अंगोंको हाथसे थपथपाकर तथा कूटनीतिज्ञ मंत्री धीवर को 'आप किसी भी रूपसे भय न करें' कहकर धैर्य बँधाया था ॥ १४ ॥ नीति घोषणा जिन लोगोंने इस धरापर मेरे विरुद्ध आचरण किया है, अथवा मुझसे संग्राम करनेका दुस्साहस किया है मैं भी उन सबको चुन-चुनकर यमके नगरमें भेज देता हूँ । किन्तु जो मेरी आज्ञानुसार आचरण करते हैं मैं प्रत्येक दृष्टिकोणसे उनका पालनपोषण करता हूँ ।। १५ ।। बस यह मेरी बड़ी भारी दृढ़ प्रतिज्ञा है । जो साधु स्वभावी पुरुष उन व्यक्तियोंको भी क्षमा कर देते हैं जिन्होंने उनके प्रति अक्षम्य अपराध किये थे, उन सज्जन प्राणियोंको ही विवेकी महानुभाव क्षमाशील कहते हैं । किन्तु घातक अपराध करनेवालोंके साथ भी; जो विशेष व्यवहार इसलिए किया जाता है क्योंकि वे अपराधी भी अनेक गुणों और कलाओंके भण्डार हैं ॥ १६ ॥ १. म तमुत्थितो । २. म प्रकथा । ३. क देवरं । ४. म यशस्थिता । एकविंश: सर्गः [ ४०३ ] Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R एकविंशः वराङ्ग चरितम् Theseareric वरागवाक्चनन्दनतोयबिन्दुभिस्त्रयः समाप्यायितमानसास्तदा । प्रहर्षफुल्लाननपङ्कजाः पुनर्व्यपेतशोकाः स्वगृहं ततो ययुः ॥ १७ ॥ गतेषु तेषु त्रिषु मित्रभावतः प्रतापदाक्षिण्ययशोबलान्वितः। स्वयं जगामोदधिवद्धिना सह पितुः सकाशं खलु कार्यवत्तया ॥१८॥ यथोचितन्यायपथेन संश्रितः प्रणम्य पादौ पितुरायतश्रियः। मनोभिसंधारितकार्यगौरवः कृतावकाशं शनकैय॑जिज्ञपत् ॥ १९ ॥ प्रशास राजस्वकुलोचितां महीं सुषेण एषोऽपि तदर्धभाक्पुनः । अहं च राज्ये विनियोजितस्त्वया नृपाः पुरेऽस्मिन्कथमासते त्रयः ॥ २०॥ सर्गः ateSier ऐसी क्षमाको तो दैवकृत क्षमा ही समझना चाहिये।' युवराज वरांगके नीतिपूर्ण उदार वाक्योंरूपी चन्दन-जलकी बूंदोंसे सुषेण-माता, सुषेण तथा धोवरमंत्रो इन तीनों के मन अत्यन्त शोतल हो गये थे, उनके मुख कमल हर्षातिरेकके कारण विकसित हो उठे थे। इसके अतिरिक्त उनकी अनिष्टकी आशंका तथा शोक समूल नष्ट हो गये थे। वे सब निश्चित होकर अपनेअपने महलोंको लौट गये थे ।। १७ ।। पुरुषार्थ निश्चय युवराजके अनुपम क्षमाभावने सुषेण आदि तीनोंके हृदयोंको मैत्रीभावसे रंग दिया था। अब वे भी युवराज वरांगको अपना सच्चा हितैषी मानते हुए लौट गये थे। तो वह अपने अपने धर्म पता सेठ सागरवृद्धि के साथ आगे करणीय विशेष कार्योंके विषयमें मतविनिमय करनेके लिए अपने पिता महाराज धर्मसेनके पास गया था । कारण, वही उसके वीरोचित कार्य करनेका समय था क्योंकि उस समय उसके प्रताप, नीतिनिपुणता, कीति तथा सैन्य, मंत्र आदि शक्तियाँ अपने मध्याह्नको प्राप्त हो चुकी थीं ।। १८॥ विशाल तथा विस्तृत लक्ष्मोके अधिपति पिताके समक्ष युवराज वरांग शास्त्रोक्त मर्यादा तथा शिष्टाचारपूर्वक उपस्थित हुए थे। वहाँ पहुँचकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके उचित आसनपर बैठ गये थे और मन हो मन करणीय कार्योंके महत्त्वके विषयमें ऊहापोह करते रहे थे। जब महाराज अन्य कार्योंसे निवृत्त हो गये थे तब उन्होंने धीरे-धीरे अपने कार्यके विषयमें निवेदन किया था ।। १९ ॥ युक्तिसंगत प्रश्न हे महाराज ! अपने पूर्वजोंके समयसे चले आये इस उत्तमपुर राज्यपर आपके श्री चरणोंका शासन है हो । मेरे सौतेले भाई सुषेणका भी आधे राज्यपर जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके सिवा आप सब लोगोंके गुरुचरणोंने मुझे भी इस पदपर नियुक्त कर दिया है। इस प्रकार वर्तमानमें तीन राजा यहाँ वर्तमान हैं। अब आप हो बतादें कि एक हो नगरमें तोन राजा एक साथ कैसे रह सकते हैं ।। २० ।। ERAKHTAGRATSETTERTeaniPALI -SETTESHParmes ४०४ ] Jain Education international Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशः आदाय तन्मानुषवजितं वनं निवेशयिष्यामि तवाभ्यनुज्ञया । यदि प्रसादो मयि विद्यते प्रभो विमुञ्च मा भूदुपरोध एष ते ॥ २१ ॥ निशम्य पुत्रस्य वचो महीपतिर्जगाद वाक्यं हृदयङ्गमाक्षरम् । त्वमेव पुत्रः शरणं गतिश्च मे विहाय यातुन हि मामतोऽर्हसि ॥ २२॥ य एवमुक्तो जनकेन सोऽभ्यधादवैमि राजन्ननुरागमात्मनि । तथापि मे बुद्धिरियं विज़म्भते पूर्वदेशग्रहणाय शाधि माम् ॥ २३ ॥ इति ब्रुवन्तं गमने दृढव्रतं विबुध्य राजा प्रियमात्मनः सुतम् । मनोरथानां परिवृद्धिसंपदस्तवाचिरात्सन्त्विति मुक्तवान्सुतम् ॥ २४ ॥ सर्गः KARELASSEURSHEELAGIRISPEASARARIA हे जनक ! यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके धाचरणोंके प्रसादसे मैं अपने राज्य भागमें वर्तमानमें मनुष्योंकी बस्तियोंसे सर्वथा रहित वनको हो लेकर वहाँ पर नये नगरोंको बसाऊँगा। यदि आपका मुझपर सत्य स्नेह है तो मुझको जानेकी आज्ञा दीजिये, किसी भी कारणसे मझको रोकिये मत ।। २१ ।। पितृ-वात्सल्य पुरुषार्थी पुरुषसिंहके लिए सर्वथा उपयुक्त पुत्रके वचनोंको सुनकर महाराज धर्मसेनने उत्तर दिया था उसका एक-एक शब्द हृदयमें घर लेता था 'हे पुत्र ! वास्तवमें तुम ही मेरे पुत्र कहे जा सकते हो, वृद्धावस्थामें मुझे तुम्हारा सहारा है और तुम्ही मेरे जीवनके अन्तिम दिनोंका भलीभांति निर्वाह कर सकते हो। इन सब कारणोंसे मुझे छोड़कर कहीं और चला जाना तुम्हें शोभा नहीं देता है ॥ २२॥ पूज्य पिताके हृदयसे निकले शब्दोंको सुनकर युवराज वरांगने इतना ही कहा था 'महाराज' ! मुझे ज्ञात है कि आप मुझपर कितना अधिक स्नेह करते हैं। तो भी मेरी बुद्धि रह-रहकर इसी दिशामें जाती है। अतएव आपसे निवेदन है कि आप मुझे नूतन देशोंको जीतनेकी आज्ञा अवश्य दे दें ।। २३ ॥ दिविजय-अनुज्ञा युवराज वरांगके इन वचनोंसे राजाको स्पष्ट आभास मिल गया था कि उनके प्राणप्रिय पुत्रने विजय यात्रापर जानेका दृढ़ निश्चय कर लिया था। तब उन्होंने प्रकट रूपसे भी कह दिया था 'हे पुत्र! तुम्हारी राज्य, आदि सब ही लक्ष्मियां दिन ॥ दूनी और रात चौगुनी बढ़े तथा तुम्हारे समस्त मनोरथ शीघ्रसे शीघ्र पूर्ण होवें ॥ २४ ॥ याचाचELESEATUREDIESELasa [४०५) Jain Education intemational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् एकविंशः सर्गः ततो वराङ्गः पितरौ प्रणम्य तौ विमुच्य सर्वान्स्वजनान्यथाक्रमम् । कृतानुयात्रान्मुदितैर्महाजनैर्ययौ महा नगरादथोत्तमात् ॥ २५ ॥ पितुनियोगाद्वरयोधमन्त्रिणो विपश्चितोऽथागमसागरान्तगाः । अनुप्रयाताः सुतराज्यदुर्धराः प्रयातमत्ते' मदवितां द्विषाम् ॥ २६ ॥ मुहूर्तनक्षत्रविलग्नसंपदं विलोक्य सद्भिः सह चारुविग्रहः । मुदा प्रतीतः कमलायतेक्षणो नगेन्द्रमापन्मणिमन्तमीश्वरः ॥२७॥ सरस्वती नाम नदी च विश्रुता मणिप्रभावान्मणिमान्महागिरिः। तयोर्नदीपर्वतयोर्यदन्तरे बभूव चानर्तपुरं पुरातनम् ॥ २८ ॥ बावसायमचाचण्या MARCH आज्ञा मिलते ही युवराज वरांगने चरणोंमें प्रणाम करके अपने धर्मपिता तथा पिता दोनोंसे विदा ली थी। इसके उपरान्त क्रमशः सब ही सगे सम्बन्धियोंसे भेंट करके उनसे भी जानेको अनुमति प्राप्त की थी। सहयात्री चयन इस सबसे निवृत्त होकर उसने उन्हीं लोगोंको अपने साथ जानेको आज्ञा दी थी जो कि प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक उसका साथ देना चाहते थे। जब सब तैयारियां हो चुकी तो बड़े वैभवके साथ उसने उत्तमपुरसे प्रयाण किया था ॥ २५ ॥ महाराज धर्मसेनकी आज्ञासे अनुभवी तथा कुशल सेनानायक, योद्धा, मंत्री तथा आगमोंरूपी समुद्रोंके पारंगत असाधारण विद्वान, जो कि पुत्रके नतन राज्यके भारको सहज ही सम्हाल सकते थे, ऐसे यह सब कर्मचारी उसके पीछे-पीछे । । गये थे ॥ २६ ॥ श्रेष्ठ मुहूर्त, अनुकूल नक्षत्र और विशेष लग्न आदिको देखकर, प्रभुता और वैभवके अहंकारसे उन्मत्त शत्रुओंके साक्षात् कालने ही विजय प्रयाण किया था। श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ विजयको निकले हुए राजा वरांगका आन्तरिक हर्ष अपने आप बाहर प्रकट हो रहा था, उसके स्वभावसे सुन्दर शरीरकी कान्ति अनुपम थी तथा कमलोंके समान बड़ी-बड़ी आँखें देखते ही बनती थी। | वह प्रयाण करता हुआ मणिमन्त पर्वत पर जा पहुंचा था ।। २७ ॥ आनर्तपुरका पुनःस्थापन सरस्वती नामकी नदी अत्यन्त प्रसिद्ध थी तथा मणियोंकी छटासे प्रकाशमान मणिमन्त महापर्वत भी उस समय सर्वविश्रुत था। इस सरस्वती नदी और मणिमन्त गिरि इन दोनोंके बीच में जो विशाल अन्तराल है उसी भूमिपर प्राचीन समयमें आनर्तपुर बसा हुआ था ॥ २८ ॥ ..क प्रघातमात्रां, [°मस्तं . गर्वितद्विषाम् ]। २.म नरेन्द्रमापन्मणि मन्त्रमीश्वरः । [४०] Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराज परितम् एकविंशः सर्गः DTARAKHAIREPARENERALREATRE पुरा यदूनां विहगेन्द्रवाहनो जनार्दनः कालियनागमर्दनः । रणे जरासन्धमभीनिहत्य यन्ननर्तवान्नर्तपुरं ततोऽभवत् ॥ २९ ॥ वराङ्गराजो मगराजविक्रमो जितारिपक्षो विजितेन्द्रियः स्वयम् । अनन्तनामप्रमुखैः स्वमन्त्रिभिः सुमन्त्र्य सम्यग्बहुनीतिपारगैः ॥ ३०॥ पुरापि यत्कालपरंपरागमान्नरेन्द्रसंक्षोभविशेषजर्जरम् । समीक्ष्य तद्वस्तुविदा प्रदर्शितं निवेशयामास पुरं स पूर्ववत् ॥ ११ ॥ पुरस्य बाह्य गिरिकूटसंकटैस्तडागवापीपृथुदीर्घिका'ह्रदैः । विबुद्धपः कलहंसमालिभी रराज सोद्यानवनैः समाकुलम् ॥ ३२॥ बभूव यस्मिन्परिखा समुद्रवदिगरिप्रकाशः परिवेष्टितश्च यः। हिमाद्रिकूटोपममास गोपुरं शरत्सिताभ्रप्रतिमा गहावली ॥ ३३ ॥ पक्षियोंका राजा गरुड़ जिनका वाहन है तथा यमुना नदीमें कूदकर जिन्होंने भीमकाय कालिया नागका वध किया था उन्हीं यदुवंश शिरोमणि नारायण श्रीकृष्णजीने आक्रमण करके जिस स्थानपर पहिले युगमें जरासंघका वध किया था तथा विजयोल्लासमें मस्त होकर वहीं पर नृत्य किया था इसी कारण उस स्थान पर बसाये गये नगरका नाम आनर्तपुर पड़ गया था ॥ २९ ॥ मृगोंके राजा सिंहके समान पराक्रमी, इन्द्रिय जेता तथा समूल नाश करके शत्रुपक्षके विजेता राजा वरांगका ध्यान जब उक्त इतिहासके ज्ञाताओंने, उस पौराणिक स्थानकी ओर उसका आकृष्ट किया तो उसने उसे स्वयं देखकर जाना समझा था ।। ३० ॥ कि किसी समयकी वह सुसम्पन्न नगरी कालक्रमके अनुसार शत्र राजाओंके भीषग क्षोभसे उत्पन्न आघातोंके कारण जर्जर होकर मिट्टीमें मिल गयी थी। राजनीति शास्त्रोंके पारंगत तथा सूक्ष्म विचारक अनन्तसेन आदि अनुभवी मंत्री उसके । साथ ही थे, अतएव उनके साथ शान्तिपूर्वक परामर्श करके राजा वरांगने उस स्थानपर पहिलेके ढंगसे ही नगर निर्माण कराया था ॥ ३१ ॥ नगर वर्णन नूतन नगरके बाहरके भागको शोभा भी अद्भुत ही थी, क्योंकि उसके चारों ओर कृत्रिम तथा अकृत्रिम दोनों प्रकारके पर्वतोंकी शिखरोंकी बाढ़ सी खड़ी थी। तालाब, बावड़ी, बड़ी-बड़ी दीधिकाएँ तथा छोटे-छोटे जलाशयोंने उस सारे प्रदेशको घेर रखा था, इन जलाशय आदिमें सुन्दर कमल खिले थे, जिनपर सुन्दर तथा मधुरभाषी हंसोंके झुड खेल रहे थे ।। ३२॥ इस नगरको चारों ओरसे घेरकर खोदी गयी खाई समुद्रके समान गहरी और चौड़ी थी। उस नगरका विशाल प्राकार १. म दीर्घिता। SURESHERSITERamesapaayeesearSHREATERese ..] Jain Education international Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्रपादेवगृहाश्रमाभयं बराङ्ग चरितम् विभक्तनानात्रिचतुष्कचत्वरम् । पुरं विशालं 'वृतिलोचनप्रियं बभौ सदोद्घाटितविश्रुतापणम् ॥ ३४ ॥ पुरस्य मध्ये प्रविभक्तभूतले समुन्नते श्रीमति वीरवस्तुनि । सुखावलोके बहुशिल्पिनिर्मितं रराज तद्राजगहं महद्धिमत् ॥ ३५॥ सभागृहं वासगृहं रहोगृहं जलाग्निदोलागृहनन्दिवर्धनम् । महानसं सज्जनमण्डनाह्वयं त्रिपञ्चषट्सप्तनवाष्टभूमिकम् ॥ ३६॥ गजाश्वशालायुधगेहपङ्क्तयः सुवर्णधान्याम्बरभेषजालयाः । पृथक्पृथग्भाण्डविकल्पतस्तदा सुसंस्कृता राजगृहे समन्ततः ॥ ३७॥ एकविंशः सर्गः च्यasantra (परकोटा ) पर्वतके समान उन्नत और अभेद्य था। नगरका विशाल तथा उन्नत प्रवेशद्वार तो हिमाचलके उन्नत शिखरका स्मरण करा देता था। शरद ऋतु में अत्यन्त निर्मल हुए मेवोंके तुल्य हो उस नगरके गृहों की छटा थी ।। ३३ ।। वह नगर विशाल सभा, प्रपा, देवालयों तथा शिक्षा आदिक आश्रमोंसे परिपूर्ण था । पूरेका पूरा नगर एक दो मार्गोंसे नहीं अपितु त्रिकों (तिमुहानो ), चौराहों तथा चौपालोंमें बँटा हुआ था। उस नगरके जगद्विख्यात बाजार सदा ही खुले रहते थे। उस नगरको चर्चा सुननेपर कानोंका सन्तोष होता था तथा देखनेपर तो आँखें जुड़ा जाती थीं। ३४ ।। राजप्रासाद आनर्तपुरके बोचोंबीच एक उन्नत स्थान था, जो कि अपनी प्राकृतिक विशेताओंके कारण नगरकी समस्त बस्तियोंसे अलग ही दिखता था, उसकी शोभा ऐसो अद्भत थी कि उसके कारण हो वह वीरोंको प्रिय वस्तु हो गया था। तथा नगरके किसी भी भागसे वह आसानीसे देखा जा सकता था। इसो स्थानपर सकशल अनेक शिल्पियोंने अथक परिश्रम करके विशाल राजमहलको बनाया था जो कि अपनो असोम सम्पत्ति के कारण सुशोभित हो रहा था ।। ३५ ।। निवासगृह, रहोगृह ( गुप्त-मंत्रणाका स्थान ) दोलागृह, जलगृह, अग्निगृह, शिष्ट पुरुषोंके उपयुक्त मण्डनगृह, नन्दिनगृह, नन्दिवर्धन (धर्मोत्सव गृह ) महानस ( पाकालय ) तथा विशाल सभाभवन में बने हुए थे। यह सब भवन यथायोग्य रूपसे तोन, पाँच, छह, सात, नौ तथा आठ भूमि ( मंजिल ) युक्त थे ।। ३७ ।।। राजमहलके चारों ओर विशाल गजशाला, अश्वशाला तथा आयुधागारको पंक्तियाँ खड़ी थीं। कोशगुह, धान्यगृह, Avorl वस्त्रशाला, तथा औषधालय विस्तारपूर्वक बनाये गये थे, इन गहों में प्रत्येक वस्तुका तथा उसके भेदोपभेदोका ख्याल करके अलग अलग भाग बनाये गये थे । इन सबका आकार तथा माप पूर्णरूपसे वैज्ञानिक था ।। ३७।। १. [ श्रुति, स्मृति ]। २. म भैषजालयाः । जाकर Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N RAID वराङ चरितम् नरेन्द्रगेहोत्तरदिक्प्रतिष्ठितो जिनेन्द्रगेहो मणिरत्नभासुरः। चलल्पताको ध्वजवृन्दसंकुलः सहस्रकूटोत्कटसंकटोऽप्यभूत् ॥ ३८॥ नपस्य पुण्योदयतो महाजनः समन्ततः प्रश्रुतवान्समागमत् । महाटवीग्रामसहस्रसंकटो वनं स्वभद्गोवजसंनिवेशितम्॥३९॥ तपोधनानां निलया वनान्तरे शिलालयाः कृत्रिमरम्यभूतलाः । महापथोपान्तविरूढपादपाः क्वचिज्जलोपाधितफल्लवल्लिकाः ॥ ४०॥ क्वचित्सगोधूमयवातसीतिलाः क्वचिच्च केदारविपक्वशालयः । क्वचित्पुनाहिसमाकुला मही क्वचिच्च मद्वीभुवनं व्यराजत ॥४१॥ एकविंश सर्गः VEGai4ZIMAZIA राजमहलकी उत्तर दिशामें एक विशाल जिनालयकी रचना, मणियों और रत्नोंसे की गयी थी। इस जिनालयकी छटा बड़ी ही आकर्षक थी। उसके ऊपर विशाल पताका लहरा रही थी। चारों ओर लगी हुई छोटी-छोटी ध्वजाओंका दृश्य भी अदभूत तथा उसके ऊपर बने हुए हजारों शिखरोंने तो पूरेके आकाशको घेर लिया था । ३८ ॥ श्रीदेवालय राजा वरांगके पूर्व पूण्यके उदयके प्रतापसे जब आनर्तपुरके बसनेका समाचार चारों ओर फैला तो उसे सुनते ही सब दिशाओंसे महासम्पत्तिशाली सज्जन लोग उस नगरको चले आये थे। कुछ समय पहिले सघन हजारों जंगलोंके कारण जिस प्रदेश मेंसे निकलना भी कठिन था, थोड़े समय बाद उसी स्थलको शोभाको ग्राम, नगर तथा ग्वालोंकी अनेक बस्तियाँ बढा रही थी।। ३९ ॥ पुण्य-प्रताप गहन बनोंके मध्यमें कहीं-कहीं पर तपस्वियोंके आश्रम बने थे । इन आश्रमोंकी कुटियाँ शिलाओंसे बनी थीं तथा उनके धरातल बढ़िया और सुन्दर फर्श करके बनाये गये थे। पर्वतोंके ऊपर राजाकी आज्ञासे हरी भरो समतल भूमिका बनायी गयी थी जिनकी रमणीयता अलौकिक ही थी। जंगलोंको काटकर विशाल राजमार्ग बनाये गये थे जिनके दोनों ओर वृक्ष खड़े थे। अन्य स्थलों पर सुन्दर जलाशयोंके चारों ओर मनोहर लताएँ फूल रही थीं ॥ ४०॥ कहीं पर गोधूम ( गेहूँ ) अतसी, तिल तथा जौके खेत खड़े थे, इनके आस-पास ही खलिहान ( केदार ) थे जिनमें पक जाने पर कटा हुआ धान इकट्ठा किया गया था, दूसरी ओर धानके खेतोंको पंक्तियाँ लहलहा रहो थों तथा अन्य ओर मधुर इक्षके बनसम घने खेत खड़े हुए थे ।। ४१ ॥ १.क संनिवेशितुम् । . - AIRRITATE [४०९] 42 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एकविंश सर्गः सरांसि शाली जहसुः स्वपङ्कजः विबुद्धपौरिव चारुविनहैः । हियोत्तमालान्यवनम्य शालयः स्थिता इव स्थूलतया चकासिरे ॥ ४२ ॥ क्वचिच्च नार्यः कमलायतेक्षणाः पिधाय कुम्भान्कुमुदोत्पलाम्बुजः। सुमङ्गलायैव कृतप्रसादना'ज्ज्वलत्प्रबभ्रुविलसत्पयोधराः ॥ ४३ ॥ पथिश्रमाः काञ्चनविभ्रमाञ्चिताः प्रसज्य कण्ठे वनिताः स्वयं ययुः। परस्परं ग्रामसहस्रदर्शिनो निपेतुरभ्यर्णतया हि कुक्कुटाः ॥ ४४ ॥ उपद्रवासद्धयदोषवर्जनात्प्रदानमानोत्सवमङ्गलोद्यमात् । प्रभूतभोगार्थविशेषसंपदः कृतार्थतां तत्र जनाश्च मेनिरे ॥ ४५ ॥ नगर समृद्धि विशाल जलाशयोंमें कमल खिले थे उनके बड़े-बड़े सुन्दर पत्ते पूरेके पूरे तालाबोंको ढककर उनकी शोभाको अन्तिम उत्कर्ष तक ले गये थे । फलतः जलाशयोंको देखने पर ऐसा मालूम होता था कि वे अपनी उक्त सम्पत्तिके द्वारा धानके खेतोंकी । हँसी कर रहे हैं । फल सम्पत्तिके भारसे झुके हुए धानके पौधे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों लज्जासे उन्होंने अपने शिर को ही झुका लिया है ॥ ४२॥ कहींपर कुल ललनाएँ कुमुद तथा कमलोंके द्वारा कलशोंके मुखोंको ढककर इसीलिए जल भरकर ले जा रही थीं कि । देखनेवालोंको भी शकुन हो जाये। उनके सुन्दर नेत्र कमलोंके समान बड़े-बड़े थे, कुटिल भ्रकुटियों तथा उन्नत स्तनोंकी रूपलक्ष्मी तो देखते ही बनती थी। ऐसा असीम सौन्दर्य होनेपर भी वे शृंङ्गार भी किये थीं ।। ४३ ।। श्रमिक नागरिक सोने तथा मोती मगाके आभषणोंसे भषित वे सकमारियां मार्ग चलते-चलते थक जाती थीं फलतः आपसमें सहारा लेनेकी इच्छासे वे गले में हाथ डालकर चली जा रही थीं। हजारों ग्रामोंको देखते हुए घूमनेवाले कुर्कुट (पक्षी-पुरुष) एक दूसरेको देखने की अभिलाषासे ही आसपासके अपने स्थानोंको छोड़कर वहाँ जा पहुंचे थे । ४४ ।। ईतभोति नहि व्यापे आनर्तपुर सब प्रकारके उपद्रवोंसे परे था, किसी अनुचित भयको वहाँ स्थान न था, व्यसन आदि दोषोंमें फसनेकी आशंका न थी । वहाँ पर सदा ही दान-महोत्सव, मान-सत्कार तथा विविध उत्सव चलते रहते थे। भोग तथा परिभोगकी प्रचुर सामग्री प्राप्त थी, सम्पत्तिकी तो कोई सीमा ही न थी। इन सब सुविधाओंके कारण बहांके निवासी अपने जन्मको सफल समझते थे ।। ४५ ॥ १. [कृतप्रसाधना जलं]। २.[पथिश्रयाः ] । ३. म कुकुटाः । माराममाया ) या READERNMETRIOTSETTES ४१०] Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् सुखोपभोगात्सुजनः कुरूपमो धनागमैरप्रतिमैः सदाकरः। प्रदानमानप्रशमोपचारतो विदेहदेशेन समानतां ययौ ॥४६॥ वजास्तु ते ग्रामसमानतां गताः पुरोपमा ग्रामवरास्तदाभवन् । पुरं जहासेव च वज्रिणः पुरं रराज शक्रप्रतिमो महीपतिः ॥ ४७ ॥ पुराकरग्राममडंबपत्तनेष्ववाप वृद्धि क्रमशो जनार्णवः । मुदं महीन्द्रो महतीमवाप्नुवान् पुरात्मसंस्कारितपुण्यकर्मणा ॥ ४८ ॥ ततः स जित्वाम्बधिमेखलां घरां यशोवितानस्थ'गिताम्बरावधिः। सुरेन्द्रवच्चारुमहद्धिशोभितो रराज राजाप्रतिमोरुपौरुषः ॥४९॥ जयमचन्ताRAIL कएविंशः सर्गः MANTRAPARIRAATHAPATRAPATRPHATTPADMRAATRAPAPARAANESH आनर्तपुरके निवासियोंको किसी भी प्रकारके सुखों और भोगोंकी कमी न थी, अतएव वे सब कुरुक्षेत्र ( भोग-भूमि ) के पुरुषोंके समान हुष्ट-पुष्ट तथा सुन्दर थे । उनको सम्पत्ति खानोंसे निकालनेवाली वस्तुओंके समान दिन-दूनी और रात-चोगुनी बढ़ती थी। वे सबके सब दानशील, सत्कार परायण तथा शान्त स्वभावी थे। नगर-निवासियोंकी इन विशेषताओके कारण वह नगर पूर्णरूपसे विदेह देश के समान था ।। ४६ ॥ धामिक राजाका सम्पन्न राज्य ___कृषकों, ग्वालों आदिकी छोटी-छोटी वस्तियां राजा वरांगके उस नूतन राज्यमें ग्रामों को समानता करती थों। धनजनसे परिपूर्ण ग्राम भी नगरतुल्य हो गये थे । और नगरका तो कहना हो क्या, वह अपनी सम्पन्नताके कारण वज्रधारी इन्द्रकी अलकापुरीका भी उपहास करता था ॥ ४७ ।। इन सब सम्पत्तियोंसे घिरा हुआ राजा वरांग मूर्तिमान इन्द्रके सदृश था। नूतन राजाके राज्यके नगरों, आकर ( औद्योगिक नगरों) ग्रामों, मडंब तथा जलमार्गोपर बसे पत्तनोंमें जितने भी नागरिक रहते थे, उस समस्त जनताकी क्रमशः सर्वतोमुखी प्रगति हो रही थी। अथवा यों कह सकते हैं कि राजा वरांग पूर्वभावोंमें आचरित अपने शुभ कर्मोके फलोन्मुख होने 1 के कारण उक्त प्रकारकी समृद्धिका मूल हेतु होकर विशाल आनन्दका उपभोग कर रहा था ।। ४८॥ प्रबल पुरुषार्थी राजा वरांग केवल देश बसा कर ही संतुष्ट न हो गया था अपितु उसने समुद्ररूपी मेखलासे घिरी हुई विशाल भूमिको भी जीता था। उसके यशके विशाल विस्तारने सारे आकाशको व्याप्त कर लिया था। वह स्वयं इन्द्रके समान तेजस्वी तथा सुन्दर था तथा उसका विपुल वैभव भी उसे इन्द्रके समान बनाता था ॥ ४९ ।। ..म स्थनिता। ERSEURSELERS [४११] Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग एकविंशः चरितम् नपश्च निर्वतितकार्यनिश्चयः सहासितः प्राज्ञतमैश्च मन्त्रिभिः । विचिन्तया सागरवृद्धिना कृतं नृपाभिषेकाय तदाशि'संमुदा ॥५०॥ निशम्य राज्ञो वचनं वणिक्पतिः प्रसादमात्मन्यवगम्य धीमतः । वणिक्तया दुर्लभतां नृपश्रियो हृदि प्रकुर्वन्निदमभ्यधाद्वचः ॥५१॥ नपाभिषेको नप नः पुरातनैरनाप्तपूर्वः कुलसंततिस्त्वयम् । कूलोचितं मार्गमपोह्य मे पुनर्नवेन मार्गेण गतिर्न शोभते ॥५२॥ अथेवमुक्तश्च समुद्रवृद्धि ना तमनवीन्नान्यदिहोच्यतां त्वया । सुतो नपस्तस्य पिता वणिक्किल इति प्रहास्यं भुवि किं न बुध्यसे ॥ ५३ ॥ सर्गः राजा वरांगने जिन-जिन कार्योंके करनेका निश्चय किया था उन्हें पूरा कर चुके थे। अतएव एक दिन सुखपूर्वक प्रखर प्रतिभाशाली मंत्रियोंके साथ बैठे हुए मन ही मन उन सब उपकारोंको सोच रहे थे जो उनके ऊपर सेठ सागरवृद्धिने किये थे। उन सबका ध्यान आते ही कृतज्ञता ज्ञापन करनेके एक अवसरको सामने देखकर वे आनन्दसे खिल उठे थे और उन्होंने मंत्रियों की सम्पतिपूर्वक सार्थपतिके राज्याभिषेककी आज्ञा दी थी ।। ५० ॥ उपकारसे अनूर्णता राजाके उदारतापूर्णक प्रस्तावको सुनते हो सार्थपति सागरवृद्धि सरलतापूर्वक यह समझ सके थे कि बुद्धिके अवतार राजा वरांगका उसपर कितना अनुग्रह था। किन्तु वे यह भी जानते थे कि वणिक होनेके कारण वे राज्यलक्ष्मीके उपयुक्त नहीं हैं, इसी विचारको ठीक समझते हुए उन्होंने राजाको उत्तर दिया था ॥५१॥ 'हे राजन् ! मेरे वंशमें उत्पन्न हए मेरे किन्हीं भी पूर्वजोंने इसके पहिले कभी भी राज्याभिषेक करानेके सौभाग्यको प्राप्त नहीं किया है। अतएव मेरे कुलमें अनादिकालसे जो परम्परा चली आ रही है उसे त्याग कर मेरी पीढ़ी अर्थात् मैं किसी नूतन मार्ग ( राजा होकर ) से चलू यह मुझे किसो भो अवस्थामें शोभा नहीं देता है ।। ५२ ।।। सार्थपति सागरवृद्धिके इस बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तरको सुनकर राजा वरांगने आग्रह पूर्वक यही निवेदन किया था 'आप इस विषयमें और अधिक कुछ भी न कहें। थोड़ा सोचिये. जिसका लड़का सर्वमान्य राजा है उसका पिता वणिक है, इस बात A को जो भी इस पृथ्वीपर सुनेगा वहो जी भरके हँसेगा । क्या आप इस ओर ध्यान दे रहे हैं ? ।। ५३ ।। । १.[तदादिशन्मुदा]। [४१२॥ Jain Education interational Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् ततः प्रसह्याद्धि समन्वितं नृपः सचामरं विष्टरमुच्छितातपम् । ददो नृपत्वं स समुद्रवृद्धये भवान्विदर्भाधिपतिभवत्विति ॥ ५४॥ समुद्रवृध्यग्रसुताय धीमते ददौ धनाख्याय महीं सकोशलाम् । कलिङ्गाराष्ट्र करिवन्दसंकटं वसूख्तये संप्रददौ कनीयसे ॥ ५५॥ अनन्तनाम्ने स्थिरसत्त्वबुद्धये दिदेश देशं प्रथितं हि पल्लवम्।। सकाशिभूमि विबुधाय मन्त्रिणे सुचित्रसेनाय च वैदिशं तथा ॥ ५६ ॥ अमातिराष्ट्र त्वजिताय संददौ प्रतिप्रधानाय च मालवाह्वयम् । स्वबन्धुशिष्टेष्टजनोपसेवितां यथानुरूपं प्रविभक्तवान्महीम् ॥ ५७ ॥ एकविंशः सर्गः इस प्रकार निवेदन करनेके पश्चात् राजा वरांगने सेठ सागरवृद्धिके विरोधका विचार न करके बलपूर्वक, असीम ऋद्धिसे परिपूर्ण, निर्मल धवल छत्र, चंचल चमर तथा उन्नत महार्घ आसनयुक्त राज्यपदको उन्हें समर्पित कर ही दिया था। संसारके समक्ष ही यह घोषणा कर दी थी 'श्रीमान् राजा सागरवृद्धि आजसे विदर्भ ( वरार ) के राजा हुए' ॥ ५४ ॥ राजा सागरवृद्धिके नीतिनिपुण ज्येष्ठ पुत्र जिनका शुभनाम धनवृद्धि था, उनको आग्रह करके कोशल ( दक्षिण कोशल, वर्तमान महाकोशल-वरार रहित मध्यप्रान्त ) का राज्य दिया था तथा कनिष्ठ पुत्र श्री वसूक्तिको उस कलिंग देशका शासक व नियुक्त किया था जो सदा से अपने मत्त हाथियों के लिए प्रसिद्ध है ।। ५५ ॥ महामंत्री अनन्तसेनको राजा वरांगने सुप्रसिद्ध पल्लवदेवका राजा बनाया था, क्योंकि अपना दृढ़ पराक्रम तथा अटल निश्चय करनेमें सहायक स्थिरबुद्धिके कारण वे इसके लिए सर्वथा उपयुक्त थे। विशेष विद्वान् मंत्रिवर देवसेनको उन्होंने काशोके आसपासका राज्य दिया था तथा राज्यभार धारण करनेके लिए सुयोग्य श्री चित्रसेन मंत्रीको उन्होंने विदिशाके सिंहासन पर बैठाया था ॥ ५६ । TRENA [४१३] बन्धु वत्सलता श्री अजितसेन मंत्रीको अमातिराष्ट्र ( अवन्तिराष्ट्र ? उज्जैन ) का शासन सौंपा था, तथा मालव नामके सुसम्पन्न देशकी प्रधानता प्रतिप्रधानको दी थी। इस प्रकार से राजा वरांगने अपने बन्धु बान्धव, सुयोग्य शिष्ट पुरुष तथा हितेषी आदि इष्ट पुरुषोंके द्वारा सेवित विशाल धरित्रोको अपने बन्धु-मानव तथा प्रेमीजनोंमें उनकी योग्यताके अनुसार बाँट दिया था ।। ५७॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् == अपने लुप्त हो जाने पर युवराज पदपर बैठाये गये राजपुत्र सुषेणको भी वह विशाल राज्य देना चाहता था किन्तु उसके पास कोई ऐसा देश हो न रह गया था जिसे सुषेणके साथ बाँटता । एक दिन यों ही बैठा हुआ वह इसी समस्याका हल सोच रहा था कि उसे अकस्मात् वकुलेश्वरका स्मरण हो आया, जिसने उसके पीछे उत्तमपुर पर आक्रमण करके उस ( वरांग ) के पिता के साथ अक्षम्य अपराध किया था ।। ५८ ।। ततः सुषेणाय युवाधिपाय तां महीमपश्यन्नथ संविभाजितम् । विमृश्य सस्मार यदृच्छया पितुः कृतापराधं च कुलाधिपं तदा ॥ ५८ ॥ गुरुं मदीयं परिभूय दुर्दमो विनाश्य देशं प्रविलुप्य गोधनम् । विगृह्य योद्धु ं पुनरागतो बलैः प्रवृद्धभोगोच्छ्रितमान दर्पितः ॥ ५९ ॥ तथैव शौयं त्वभिमानसंभवं तदस्ति चेद्योद्धमिहेतु सांप्रतम् । उत प्रभावो न च तस्य विद्यते विमुच्य देशं वनमभ्युपेतु वा ॥ ६० ॥ इति प्रगत्मसखासमक्षतो व्यपेतसामं प्रतिलेख्य लेखकम् । वचोहरानाप्ततमान्मवस्थिनः शशास सद्यश्च कुलाधिपान्तिकम् ॥ ६१ ॥ 'जब मैं उत्तमपुरमें नहीं था उस समय अपनी बढ़ती हुई शक्ति और सम्पत्तिका वकुलेश्वरको इतना अहंकार हो गया था कि वह उसके उन्मादमें अपने आपको अजेय और दुर्दम समझने लगा था। परिणाम उह हुआ कि उसने मेरे पूज्स पिताकी अवहेलना ही नहीं की थी अपितु उत्तमपुर राज्यके काफी बड़े भागको नष्ट कर दिया था, जो धन आदिको लुटवा लिया था तथा चारों ओरसे अपनी सेना के द्वारा घेरकर लड़नेके लिये आ पहुँचा था ।। ५९ । शत्रुमर्दन यदि आज भी वैसा ही अभिमान है और उसके उन्मादसे उत्पन्न पराक्रमका भी वही हाल है तो दुर्दम वकुलेश्वर मुझसे लड़ने के लिए आनर्तपुरपर अब शीघ्र ही आक्रमण करें। अथवा यदि अब वह प्रभाव नहीं रह गया है तो उनके लिए अब एक ही मार्ग है कि वह शीघ्र से शीघ्र अपने देशको छोड़कर वनको चले जांय ॥ ६० ॥ इन शब्दोंको कहते हुए ये अपनी राजसभामें बड़े जोरोंसे गर्जे थे तथा उसी समय वकुलेश्वरको पत्र लिखवाया था जिसमें 'साम' की छाया भी न थी । लेख प्रस्तुत हो जानेपर अपने अत्यन्त विश्वस्त दूतोंको आत्मगौरवके प्रतिष्ठापक वगराज नन्त ही वकुलाधिपकी राजधानीको भेज दिया था ।। ६१ ।। १. म वकुलाधिपं । एकविंश सर्गः [ ४१४ ] Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग असामयुक्तं प्रसमीक्ष्य लेखकं उपप्रदानाद्रहितं च शासनम् । निशम्य वाक्यं च वचोहरोदितं सदश्चकम्पे सहसैव साकुलम् ॥ ६२॥ कृतापराधादकृतात्मवीर्यतो निराश्रयान्तिःप्रतिकारकारणात् । मगेन्द्र निर्भनितो मतङ्गजो यथाहवे विद्धि कुलाधिपस्तथा ॥ ६३ ॥ बलेन वित्तेन पराक्रमेण च महपतिभ्योऽतिमहान्महीपतिः। कृतार्थकृत्यस्त्वनवार्यवीर्यवान् किमत्र योग्यं वदतार्थचिन्तकाः ॥ ६४ ॥ स्वनाथवाक्यं हि निशम्य मन्त्रिणो हिताहितोपायविचारदक्षिणः । मनोहरं तच्च हितं मिताक्षरं स्वकार्यसिध्द्यर्थमुदाहरन्वचः ॥ ६५॥ एकविंशः सर्गः चरितम् वरांगराजके पत्रको वकुलेश्वरने भलीभाँति पढ़ा था किन्तु साम-मय उपायोंसे भी काम चल जायेगाः इसकी उसमें वे कहीं भी छाया तक न पा सके थे। पत्र द्वारा दिये गये शासन; पूर्ण राज्यको छोड़नेके सिवा कोई दूसरा विकल्प ही न था, इसके अतिरिक्त जब विद्वान दूतके मुखसे अन्य समाचार सुने तो वकुलेश्वरको पूरीको पूरो राजसभा हो अनागत भयसे कांप उठी थी ॥ ६२॥ त्रिभिमांसः इसमें सन्देह नहीं कि उत्तमपुरके अधिपतिके साथ वकुलेश्वरने घातक अपराध किया था, उसको अपनी शैन्य, कोश, आदि शक्तियाँ युद्धकर्कष वरांगराजसे लड़ने योग्य न थीं, उसके कोई प्रबल सहायक न होनेसे वह सर्वथा निराश्रय था तथा कोई ऐसी युक्ति न थी जिसके द्वारा उपस्थित संकट टल जाता, इन सब कारणोंमे युद्धके विकल्पको स्वीकार करनेमें वकुलाधिपकी वही अवस्था हो गयी थी जो कि हिरणोंके राजा सिंहको गर्जना सुननेपर मदोन्मत्त गजको हो जाती है ॥ ६३ ॥ जहाँतक चतुरंग सेना शक्ति, कोश तथा व्यक्तिगत पराक्रम और उत्साहशक्तिका सम्बन्ध था आनर्तपुराधीश वरांगराज पृथ्वीके सब हो राजाओंसे इतना बड़ा है कि कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है। इसके अतिरिक्त वह सब कार्योंमें दक्ष है, विक्रम तो उसका ऐसा है कि संसारकी सारी शक्ति तक उसे नहीं रोक सकती है। कार्य विचारमें दक्ष आप ( मंत्री ) लोग ही बतावें । इन परिस्थितियोंमें क्या करना सब दृष्टियोंसे उचित होगा ।।' ६४ ।। वकुलेश्वरके मंत्री अपने स्वामीके लाभ और हानिकों साधु रोतिसे विचार कर देखने में अत्यन्त कुशल थे, अतएव जब उन्होंने विपत्तिमें पड़े अपने राजाके वचनोंको सुना, तो उन्होंने अत्यन्त मनोहर ढंगसे राजाके कल्याणकी बातोंको व्यर्थं विस्तार से बचाकर गिने चुने शब्दोंमें प्रकट किया था। उनकी सम्मति ऐसो थी कि उसके आचरणसे स्वकार्यको सिद्धि हो सकती थी॥६५॥ uparASERATURमयसमयमाLADAKomantICESERIES T४१ Jain Education intemnational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ we- बराङ्ग एकविंश: सर्ग चरितम् सुखं हि साम्नैव तु कार्यसाधनं ह्या पप्रदानेन च मध्यमं भवेत् । प्रभेददण्डौ खलु मृत्युनाशगौ' चतुष्टयी वृत्तिरिहा वतां महीम् ॥ ६६ ।। अतो वरिष्ठा तनया मनोहरां प्रदाय सम्यग्विधिना महीपतेः। कृतककार्याः सुखमास्महे वयं न चान्यथास्तीश्वर सन्धिकारणम् ॥ ६७ ॥ स्वमन्त्रिसंदर्शितनीतिचक्षुषा विचिन्त्य दीर्घ प्रविचार्य चात्मनि । प्रदातुकामो वरविग्रहाय तां निनाय पुत्रीमनवद्यरूपिणीम् ॥ ६८ ॥ निवेद्य चात्मागमनं महीपतेरनुज्ञया तस्य विवेश मन्दिरम् । विलोक्य सिंहासनमध्यधिष्ठितं ननाम मूर्ना नमितात्मशत्रवे ॥ ६९ ॥ PHPATRAMATTHARASWE Semessarenese-me-me- se-mername-men-aspre-pos ATHAARAA साम हो नोति है 'सामनीतिका अनुसरण करके कार्यको सिद्ध कर लेना सब दृष्टियोंसे सुखकर होता है। यदि शम संभव न हो तो 'दान' उपायका आश्रय लेना चाहिये, यद्यपि इसके द्वारा प्राप्त की गयो सफलता मध्यम ही होती है। भेद तथा दण्ड ये दोनों उपाय अभीष्ट नहीं हैं। कारण, इनका अवश्यंभावी परिणाम मृत्यु और नाश होता है। यही चार अंग हैं जो कि इस संसारमें पृथ्वीकी रक्षा कर सकते हैं ।।६६ ॥ अतएव हे महाराज ! हमारी यही सम्मति है कि श्रेष्ठ गुणोंसे अलंकृत राजपुत्री मनोहराको शास्त्रानुकूल विधिसे आनर्तपुरेश्वर वरांगको व्याह देना चाहिये । इस उपायकी सहायतासे हमारा कार्य सिद्ध हो सकेगा और हम शान्तिसे जी सकेगे। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है जो सन्धिका आधार हो सकता हो ।। ६७ ॥ वकुलेश्वरके मंत्रियोंने समयोपयोगी सम्मति देकर उसकी नोतिरूपी आँखें खोल दी थी जिसके प्रकाशमें उन्होंने काफी लम्बे समय तक ऊहापोह करके मनमें वही निश्चय किया था। और वरांगराजके साथ धार्मिक विधिसे व्याह देनेके अभिप्रायसे ही वह अपनी सर्वांग सुन्दरी राजदुलारीको आनर्तपुर ले गये थे ।। ६८ ॥ वहाँ पहुँच जानेपर उन्होंने वरांगराजको अपने आनेका समाचार यथाविधि भेजा था। जब राजसभामें उपस्थित होने के लिए वरांगराजको स्वीकृति मिल गयी तब ही उसने राजमहल में प्रवेश किया था। तथा वहाँपर अपने शत्रुओंके मानमर्दक वरांगराजको विशाल सिंहासनपर विराजा देखते ही भमिपर मस्तक झुकाकर उसको प्रणाम किया था ॥ ६९ ।। १. क नाशनौ। २. क वृत्तिहिवाहतां । [४१] Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् कुलोचितं राज्यमपोह्य मामकं विभज्य तावत्स्वमनोऽनुवर्तने । कृ'तापराधस्तु मया सहस्व तं नृनाथ इत्येवमयाचत प्रभुम् ॥ ७० ॥ अनुप्रभाष्येवमतीव नीतिविन्नरेन्द्रचित्तं कुलेश्वरोऽहरत् । स्वभावभद्रः कृपया समन्वितो नृपः स तस्मै कृतवाननुग्रहम् ॥ ७१ ॥ प्रसादलाभात्परितुष्टमानसः कृतार्थतां तामवगम्य चात्मनः । मनोहरां मूर्तिमतीमिव श्रियं ददौ सुतां भूपतये मनोहराम् ।। ७२ ।। यया हि भूतिः कनकावदातया मनोहरश्रोणिकुचप्रदेशया । नरेन्द्रपुत्र्या नरदेवसत्तमो न सा विभूतिर्गदितुं हि शक्यते ॥ ७३ ॥ 'हे महाराज ! जो राज्य मेरे वंश में कई पीढ़ियोंसे चला आ रहा है उस मेरे राज्यको आप अपनी इच्छानुसार किसी भी अपने आज्ञाकारीको बाँट दीजिये । किन्तु हे नरनाथ ! मैंने आपके पूज्य पिताजी पर आक्रमण करके जो आपके प्रति अपराध किया है उसे क्षमा कर दीजिये ।' इन शब्दों में वकुलेश्रने वरांगराजसे क्षमा याचना की थी ।। ७० ।। इसमें सन्देह नहीं कि वकुलेश्वर राजनीतिमें बड़ा ही कुशल था इसीलिए ऐसी विनम्र प्रार्थना करके उसने वरांगराज चित्तको प्रसन्न कर लिया था । वरांगराज तो स्वभावसे हो साधु थे, कृपा उनके रोम रोममें समायी थी । अतएव उन्होंने अपने स्वभावानुसार ही उस शत्रुको क्षमा कर दिया था ।। ७१ ।। 'नम्ननावसानो हि '' **** वकुलेश्वरका आत्मा भी ऐसी सरलतासे वरांगराज सदृश महाशक्तिशालीका अनुग्रह प्राप्त करके अत्यन्त संतुष्ट हो गया था। उसे अनुभव हुआ था कि वह अपने आरम्भ किये गये जटिल कार्य में सफल हुआ है। इसके उपरान्त ही शरीरधारिणी लक्ष्मीके समान दर्शकोंके मनोंको बलपूर्वक अपनी ओर आकृष्ट करनेमें समर्थं रूप तथा गुणवती 'मनोहरा' राजपुत्रीको उसने वरांगराजसे व्याह दिया था ॥ ७२ ॥ राजपुत्री मनोहराकी समचतुरस्त्र संस्थानयुक्त देहका रंग तपाये गये विशुद्ध सोनेके समान था, उसका नितम्ब प्रदेश तथा उन्नत स्तन आपाततः मनको आकृष्ट करते थे। ऐसी राजपुत्रीसे संयुक्त होकर श्रेष्ठ वरांगराजकी जो शोभा और सम्पत्ति बढ़ी थी उसका अविकल वर्णन करना तो किसी भी विधिसे शक्य हो ही नहीं सकता है ॥ ७३ ॥ १. [ कृतोऽपराधस्तु ] । २. क यया हि सस्ता । ५३ एकविंश: सर्गः [ ४१७ ] Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः तुरङ्गमानां तु सहस्रमात्रया मतङ्कजानां शतसंख्यया तथा । हिरण्यकोटया वरलम्बिकाशतैर्वराङ्गराज मु कुलोऽभ्यमूवदत् ॥ ७४ ॥ ततः परेषामविलयशासनः स्ववीर्यसंपादितकार्यसाधनः' । रराज रक्षन्सकला वसुंधरां पुरन्दरो द्यामिव सुव्रतालयाम् ॥ ७५ ॥ नवान्नवान्हर्षविशेषहेतवः२ प्रियाङ्गनाभृत्यसुमित्रबान्धवान् । सुरत्नहस्त्यश्वरथान्महीपतिः समाप्तवान्निम्नतलं जलं यथा ॥ ७६ ॥ समस्तसामन्तसमाहृतदिनैर्न रेन्द्रनीत्यायतबाहुकर्षितैः । भशं पुपूरे नरदेवसंमत' सरित्प्रवेगैरिव वारिधेर्जलम् ॥ ७७॥ ___ वकुलेशने सुशिक्षित तथा सुलक्षण एक हजार घोड़े, मदोन्मत्त रगमें स्थायी सौ हाथी, करोड़ प्रमाण हिरण्य तथा । सैकड़ों वरलम्बिकाएँ ( हार-विशेष ) दहेजमें देकर आनर्तपुरेश वरांगराजको प्रसन्न कर दिया था ॥ ७४ ।। उस समय आनर्तपुराधिप श्री वरांगराजका शासन इतना अधिक प्रभावमय था कि शत्रु लोग भी उसकी अवज्ञा करनेकी कल्पना तक न करते थे। उसके सब ही अभीष्ट कार्य अपने पराक्रमके बलपर तुरन्त सफल हो जाते थे। अपने पूर्ण राज्यका भरणपोषण करता हुआ वह वैसा ही मालम देता था जैसा कि इन्द्र मरणोपरान्त प्राप्त होनेवाले व्रती जीवोंके निवासस्थान ( स्वर्गका ) शासन करता हुआ लगता होगा ॥ ७५ ।। सफल शासक __ जलधारा जिधर ही ढाल धरातल पाती है उसी दिशामें बहती चली जाती है उसी प्रकार विना किसी प्रेरणाके ही हर्ष तथा उल्लासके उत्पादक नूतन, नतन साधन वरांगराजके पास आते थे। प्राणोंसे भी अधिक प्यार करने योग्य पत्नियाँ, आज्ञाकारी सेवक, हितैषी मित्र, स्नेही बन्धु-बान्धव, उत्तमसे उत्तम रत्न, श्रेष्ठ हाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ़ रथ, आदिको भी वह अनायास ही प्राप्त करता था ।। ७६ ।। उमड़ती हुई नदियोंकी विशाल धारा जिस विधिसे समुद्रकी अमर्याद जलराशि को बढ़ाती है ठीक उसी क्रमसे श्री वरांगराजको सम्पत्तिके आगार बड़ी तीव्र गतिसे भरते आते थे, क्योंकि सब ही सामन्त राजा लोग विशाल सम्पत्ति लाकर उसमें मिलाते थे तथा स्वयं उसकी न्याय नीतिरूपी भुजाएँ भी राजस्वके रूपमें विपुल धन बटोरकर उसी में लाती थीं ।। ७७ ॥ १. क कार्यसाधिनः । २. [ °हेतून् ] । ३. क प्रशस्त । ४. [°धन ] । ५. [ °संपदं । [४१८] Jain Education international Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशः वराङ्ग चरितम् दिगन्तविख्यातवसुंधरेश्वराः कुर्लाद्धदेशार्थसमन्वितास्तदा । प्रसादमन्विष्य वराङ्गराजतः प्रचकरानर्तपुरस्य सेवनम् ॥ ७८ ॥ इति गुणवति शासत्यप्रतिख्यातकीतौँ सुजनजनपदं तं सर्वसंपत्तिमन्तम् । व्रतनियमसुदानैर्देवपूजाविशेषैर्मुनिभिरपि च शान्त रेमिरे तत्र माः ॥ ७९ ॥ जनयति रतिकार्यां श्रीमदानर्तपुर्या बहुगुणजनवत्यां धर्मकर्मार्थवत्याम् । नरपतिरभिवृद्धि कोशदेशार्थसारैरहरहमुपयातः शुक्लपक्षे यथेन्दुः ॥ ८० ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वरांगचरिताश्रिते ___ आनर्तपुरनिवेशो नाम एकविंशतितमः सर्गः । सर्गः अLEDIGITALLELIMITrenचाचासचाचामान्य विशाल वसुन्धराके न्यापी पालक बरांगराजकी ख्याति सब दिशाओं में व्याप्त हो गयी थी। बड़े-बड़े कुलोन पुरुष, असीम सम्पत्तिके स्वामी, सम्पन्न देशोंके अधिपति, आदि विशिष्ट पुरुष श्री वरांगराजका अनुरग्रह प्राप्त करनेके लिए उत्कण्ठित रहते थे। तथा स्वीकृति मिलते ही आनर्तपुरमें आकर रहते थे और महाराजकी सेवा करते थे ।। ७८ ।। उस समय कोई ऐसा स्थान न था जहाँपर श्री वरांगराजकी कीर्ति न गायी जाती हो ऐसे गुणवान राजाके शासनको पाकर आनर्तपुर राज्य विशेष रूपसे सज्जन तथा शिष्ट पुरुषोंका देश हो गया था। कोई भी ऐसी सम्पत्ति न थी जो वहाँपर पूर्णरूपमें न पायी जाती हो । ठीक इसी अनुपातमें वहाँके नागरिक व्रतोंका पालन, नियमोंका निर्वाह, दानकी परम्परा, देवपूजा की अविराम पद्धति, आदि प्रधान धार्मिक कार्योंको करते थे तथा इन कारणोंसे ही शान्त-कषाय तपोधन मुनियोंका सहवास प्राप्त करके अपने इहलोक तथा परलोक दोनों सुधारते थे ।। ७९ ।। वह आनर्तपुर सहज ही लोगोंके चित्तोंमें घर कर लेती थी। वहाँके निवासी अनेक गुणोंके आगार थे। उस नगरीमें धर्म, अर्थ तथा काम इन तीनों पुरुषार्थोंकी उपासना ऐसे अनुपातसे होती थी कि वे परस्परमें न टकराते थे। इस नगरीके बसाने के बाद से श्री वरांगराजके कोश, देश तथा अन्य सारभूत पदार्थ दिन दूने तथा रात चौगुने ऐसी गतिसे बढ़ रहे थे जिस प्रकार शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन चन्द्रविम्ब बढ़ता जाता है ।। ८०॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें ___ आनर्तपुर-निवेश नाम एकविंश सर्ग समाप्त । RELAnalLESTERRIERELESED (४१९] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् द्वाविंशः सर्गः ॥१॥ वसुंधरेन्द्रस्य ' तदा पृथिव्यामने कहस्त्यश्व पदातिदेशैः । वराङ्गनाभिर्बहुरत्न देश रवतात्यर्थमनर्थघाती सवारणं सर्वजगत्प्रधानं धर्मार्थकामत्रयरत्नपुण्यम् । तदात्मनीनस्य जनस्य सम्यक् स संविभेजे हि समाहितात्मा ॥ २ ॥ सोत्साहधैर्यतिपौरुषाणि संदर्शयां शत्रुगणे बभूव । सत्यार्जवक्षान्तिदयादमादीन् साधुषु संचचार ॥ ३ ॥ सर्ग वसुन्धराके द्वारा स्वयं वरण किये गये स्वामो वरांगराजको लक्ष्मी अपने आप ही इस संसारमें बड़े वेग से बढ़ रही थी । देश-देशान्तरोंसे प्राप्त मदोन्मत हाथियों, सुलक्षण घोड़ों तथा आयुध विद्यामें प्रवीण पदाति सैनिकोंके द्वारा उनकी चतुरंग सेनाका विस्तार हो रहा था, कुलीन, गुणवती तथा रूपवती ललनाएँ उनके अन्तःपुरकी शोभाको चरम सीमा तक ले गयी थीं। तथा उपायन रूपसे प्राप्त भाँति-भाँति के रत्नों, विपुल कोशों तथा नूतन देशों के समागमके द्वारा उनके राज्यकी सीमाएँ फैलती जा रही थीं ॥ १ ॥ सुराज प्रभाव उसके राज्य में कोई अत्याचार या अनाचार न हो सकता था। वह अपने कर्त्तव्य के प्रति सतत जागरूक रहता था अतएव वह आत्मस्थ होकर अपने राज्यको प्रजाके धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थों में साधक होकर राजस्वके रूपमें केवल इन्हींका छठा भाग ग्रहण नहीं करता था अपितु सम्यक्दर्शन आदि रत्नत्रयके उपासकों की साधनाको निर्विघ्न बनाकर इनके भी निश्चित भाग ( पुण्यरूपी राजस्व ) को प्राप्त करता था, जो कि तीनों लोकों में सबसे अधिक स्पृहणीय तथा वारण आदि विभवों का मूल कारण है ॥ २ ॥ जब कोई शत्रु या शत्रुसमूह उसके सामने शिर उठाता था तो वह उनको अपनी उत्साहशक्ति, प्रखर पराक्रम, अडिग तथा असह्य तेजका मजा चखाता था। किन्तु यहो प्रबल सम्राट् जब परमपूज्य सच्चे गुरुओं, मातृत्वके कारण आदरणीय स्त्रियों तथा लोकमर्यादाके प्रतीक सज्जन पुरुषोंके सामने पहुँचता था तो उनका आचरण सत्य, सरलता, शान्ति, दया, आत्मनिग्रह आदि भावोंसे ओतप्रोत हो जाता था ॥ ३ ॥ १. [ वसुंधरेन्द्रश्च ] । २. [ कौशः ] । ३. क समाहितार्था । द्वाविंश सर्गः [ ४२० ] Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशः वराङ्ग चरितम् नापत्सु मुढो व्यसनेष्वसक्तो न विस्मितस्त्वभ्युदये नतारिः। अकृत्यकृत्यप्रतिपक्षपक्षमित्रारिमित्रप्रकृतिक्रियाज्ञः ॥४॥ स्त्रीबालवृद्धाश्रमदुर्गतानामनाथदीनान्धरुजान्वितानाम् । बलाबलं सारमसारतां च विज्ञाय धीमानथ संबभार ॥५॥ धर्मेककार्यान्गरुवन्ननाम प्रशान्तवैरान्सुतवद्ररक्ष । दर्पोच्छ्रितात्मानमदावलेपान् दूरं स्वदेशादतिनिश्चकास ॥६॥ पराजितात्यन्ततपःप्रकर्षात्सदिन्द्रियप्राथितभोगभागी जगज्जनाक्षिक्षमचारुरूपो मष्टार्थशिष्टेष्टविशिष्टभाषी ॥७॥ मामयमम सर्गः CreateeISTHeawe-we-se-powerestreSLTASHRSameers शत्रुओंके मानमर्दक श्री वरांगराजका विवेक विपत्तियोंमें पड़ जानेपर भी कम न होता था, संकटके समयमें भी वह किसी तरहकी असमर्थताका अनुभव न करता था, अभ्युदयकी चरम सोमातक पहँच जानेपर भी उसे विस्मय न होता था। अपने । कार्योंका उसे इतना अधिक ध्यान था कि कर्त्तव्य तथा अकर्तव्य, शत्रुपक्ष और आत्मपक्ष तथा मित्र और शत्रुके स्वभावको भाँप लेनेमें उसे जरा-सी भी देर न लगती थी ॥ ४ ॥ उसकी कर्त्तव्यबुद्धि इतनो तोक्ष्ग थी कि वह राज्यमें पड़े हुए निराश्रित बच्चे, बुड्ढों तथा स्त्रियों, अत्यधिक काम लिए जानेके कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जानेपर किसी भी कार्यके अयोग्य श्रमिकों, अनाथों, दीनों, अन्धों तथा भयंकर रोगोंमें फंसे हुए लोगोंकी आर्थिक, कौटम्बिक, आदि सामर्थ्य अथवा सर्वथा निस्सहाय अवस्था तथा उनकी शारीरिक मानसिक दुर्बलता P आदिका स्वयं पता लगाकर उनके भरण-पोषणका प्रबन्ध करता था ।। ५ ।। दुखियोंका सगा जिन शान्त स्वभावो नागरिकोंके जोवनका एकमात्र कार्य धर्मसाधना थो, उनको वरांगराज गुरुके समान पूजते थे, तथा जिन स्वकार्यरत पुरुषोंने पहिले किये गये वैरको क्षमा याचना करके शान्त कर दिया था, उनका अपने पुत्रोंके सदृश भरणपोषण करता था। किन्तु जो अविवेकी घमंडमें चर होकर बहुत बढ़-बढ़कर चलते थे अथवा मानके उन्मादमें दूसरोंको कुछ समझते ही न थे, उन सब मर्यादाहीन असंयत लोगोंको उसने अपने राज्यसे बहुत दूर तक खदेड़ दिया था ।। ६॥ पुण्य प्रताप श्री बरांगराजने अपने पूर्वजन्मोंमें उग्र तथा परिपूर्ण तप किया था इसी कारण उसे महान् पुण्यबन्ध हुआ था। उसीके परिणामस्वरूप इन्द्रियोंके सब ही शिष्ट भोग उसे प्राप्त थे। शारीरिक सौन्दर्य भी ऐसा अनुपम था कि सारे संसारके लोगोंकी आँखें देखते-देखते न अघाती थीं। जो कुछ भी बोलता था वह सुननेमें ही अच्छा न लगता था अपितु उसका प्रयोजन मधुर एवं . हितकर, वाक्यरचना के साथ तथा शिष्ट परिणाम इष्ट होता था ॥ ७॥ यमRADIRELESED [४२१) Jain Education intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wewSTOP द्वाविंशः सर्गः STOMSRese-Reseawrecapesineseases खरो मदूनां क्रमनायिनां च स्वकालनिर्वतितसद्गुणानाम् । श्रियं नरेन्द्रोऽनुभवनराज शरद्विनिर्धात इवेन्दुराजः॥८॥ शरद्यथाकांशविजम्भितायां प्रसन्नदिक्तोयनभस्तलायाम् । विपक्वशालीनवलोकमानो महीपति मितलेऽतिरेमे ॥९॥ हेमन्तकाले रतिकर्कशाभिः क्रीडानषङ्गक्रमकोविदाभिः । प्रियाभिरापीनपयोधराभिश्चिक्रोड रम्येषु निशामुखेषु ॥१०॥ शीतादितासेवितबालभानौ तुषारसंसर्गविशीर्णपद्म। करीन्द्रवृन्दैः शिशिरे नरेन्द्रो बभ्राम देशान्स विहारयोग्यान् ॥ ११ ॥ जो अधिकारी अथवा प्रजाजन स्वभावसे ही कोमल थे, कुल, देश तथा धर्म, आदिके नियमोंका पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते थे, अपने कर्तव्यों, शिक्षाओं, आदिको दिये गये उपयुक्त समयके भीतर ही भलीभाँति कर देते थे। उन लोगोंकी योग्यताओंको समझने तथा उन्हें पुरस्कार देनेमें वह अत्यन्त तोव था। उक्त विधिसे अपनी राज्यलक्ष्मीका भोग करते ॥ हुए श्री वरांगराजकी उस समय वैसी हो कान्ति हो रही थी जैसी कि शरद् ऋतुमें तारोंके राजा चन्द्रमाकी मेघमाला हट जानेपर होती है ।। ८॥ शरद-ऋतु विहार शरद् ऋतुके आते ही मेघमाला अदृश्य हो जानेपर सूर्यको किरणोंका आतप और उद्योत बढ़ जाते हैं, सब दिशाएं स्वच्छ हो जाती हैं आकाशका निर्मल नीलवर्ण निखर उठता है तथा वर्षाके कारण घुलो हुई मिट्टीके बैठ जानेसे जल भी स्वच्छ और सुन्दर हो जाता है, ऐसे शरद् ऋतुमें पके हुए धानके खेतोंकी छटाका निरीक्षण करते हुए श्री वरांगराज हरी-भरी भूमिपर घूमते-फिरते थे ॥९॥ हेमन्त हेमन्त ऋतुके आ जानेपर वह रात्रिके समय अपनी पत्नियोंके साथ भाँति-भाँतिकी रतिकेलि करता था। उसकी प्राणप्रियाएँ कुछ-कुछ शीत बढ़ते रहनेके कारण रतिकेलि करते-करते थकती न थों, वे इतनी कुशल थीं कि अपनी ललित चेष्टाओं तथा हावभावके द्वारा रतिके क्रमको ट्टने न देती थीं। रतिमें साधक उनके स्तन, आदि अंग ही पूर्ण विकसित तथा पुष्ट न थे अपितु उनके हृदय भो प्रेमसे ओतप्रोत थे॥१०॥ शिशिर जिस समय शीत अपने यौवनको प्राप्त करके लोगोंको इतना विकल कर देता है कि उससे छुटकारा पानेके लिए उदित होते हए बालसूर्यको धूपमें ही जा बैठते हैं, हिम और पालेके पड़नेके कारण जलाशयोंके कमल तितर-बितर हो जाते हैं, ऐसे में शशिर ऋतुमें ही श्री वरांगराज उत्तम हाथियोंको सुसज्जित कराके उनपर आरूढ़ होते थे और उन रम्य स्थलोंमें विहार करते जो कि अपने कृत्रिम तथा अकृत्रिम दृश्योंके कारण विहारक्षेत्र बन गये थे ।। ११ ।। " १.म खलो। २. म बालभागौ। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशः बराङ्ग ततो वसन्ते वरुणातिकान्ते फुल्लनुमात्तंभ्रमरोपगीते । तमिन्दुवक्त्राः कुसुमावतंसाः कान्ता बनान्ते रमयांबभूवुः ॥ १२॥ मयूरमातङ्गमदावहायां विरूढबालाङ्करशाड्वलायाम् । प्रिदावृतः प्रावृषि नीरदाभान्वभ्राम राजा घरणीधरांस्तान् ॥ १३ ॥ वर्षासु भीमाशनिर्गाजतासु विद्युल्लतानद्धबलाहकासु। खद्योतनात्माकुलितपक्षपासु प्रासादमालासु दिनान्यनैषीत् ॥१४॥ अहीनपञ्चेन्द्रियकल्पगावो यदृच्छयाभ्यागतशक्रकल्पः । तत्कालयोग्यान्विविधप्रकारानिष्टः समेतोऽनुबभूव भोगान् ।। १५॥ सर्गः चरितम् नाAGRUKruarAIRGEANTABAIGALUREJA DIRELEASEARINEETARINEETHEIRATRAI वसन्त शिशिरकी समाप्ति होने पर वनके सब हो वृक्ष फूलों और मंजरियोंसे लद जाते हैं तथा इनके परागको पीकर उन्मत्त भ्रमर ऋतुराजके स्वागतके गीत गाते हैं। तरुण जनोंको परमप्रिय वसन्त ऋतुके पदार्पण करते ही वरांगराजकी चन्द्रमुखी सुकुमारो पलियाँ उसके साथ वनविहारको जाती थीं। वहाँपर वे अपनेको फलोंके ही आभूषणोंसे सजाती थीं तब वनके किसी # रमणीक एकान्त भागमें जाकर अनेक रति-क्रीड़ाएँ करके उसके साथ रमती थीं ।। १२॥ ग्रीष्म ग्रीष्म-ऋतुकी दारुण ज्वालाको शान्त करती हुई मेघोंकी घटाके बरस जाने पर पृथ्वीपर छोटे-छोटे अंकुर तथा सुकुमार घास निकल आती है, श्यामवर्ण मेघ-घटाको देखकर मयूर, हस्ती, हिरण आदि पक्षी पशु आनन्दसे उन्मत्त हो जाते हैं। ऐसी वर्षा ऋतु में अपनी प्रेयसो पत्नियोंसे घिरा हुआ वह सून्दर विशाल धरणीधरों पर विहार करता था, जो कि अपनी वनस्पति तथा जलश्रीके कारण विस्तृत, विशाल तथा उन्नत मेघोंके सदृश ही मनोहर लगते थे। १३ ।।। जब धनघोर वर्षा होती थी, परस्परमें टकराते हुए बादलोंसे भयंकर अशनिपात तथा भीमगर्जना होती थी, प्रत्येक मेघमाला विद्युतरूपी लतासे युक्त रहती थी तथा रात्रिके अभेद्य गाढ़ अन्धकारमें जुगुनुओंके प्रकाशको मालासे कहीं-कहीं। अन्धकारमें छेदसे हो जाते हैं ऐसी वर्षा-ऋतु में आनर्तपुरेशका समय उन्नत महलोंमें बीतता था ॥ १४ ॥ श्रीवरांगराज अपनी ही इच्छासे इस पथ्वीपर आये हए इन्द्र के समान थे। उनकी पांचों इन्द्रियों रूपी गाएँ अपने-अपने विषयोंका उत्तम प्रकारसे भोग करनेकी निर्दोष शक्तिसे सम्पन्न थीं, सेवापरायण इष्टजन उन्हें सदा ही घेरे रहते थे। अतएव वे वर्षाऋतुमें उपयुक्त अनेक प्रकारके भोगोंका यथेच्छ रूपसे सेवन करते थे ।। १५ ।। .१ क द्रुमार्तभ्रमतोप। २.मनीते। ३. [ °शालायाम ] | ४. म स्त्रिया वृतः । For Privale & Personal use only [४२३] Jain Education interational Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशः कदाचिदुद्यानवनेषु रेमे रेमे पुनः काननपर्वतेषु । क्वचिन्नदीनां पुलिनेषु रेमे रेमे सरस्स्वम्बुजसंकुलेषु ॥ १६ ॥ कदाचिदाप्तैः सुतबन्धुमित्रैः शिष्टश्च' तुष्टैर्बहुशास्त्रगोष्ठया। युद्धातिशौण्डैर्यमदण्डकल्पैः सुरैः सरूपैः सभगैश्च रेमे ॥ १७॥ गन्धर्वगीताभिरतिः कदाचित्कदाचिदर्हत्कथया प्रसक्तः। प्रासावदेशेषु वराङ्गनानां क्रीडासु रेमेऽतिमनोहरासु ॥१८॥ यद्यन्तृलोके पुरुषेश्वराणां प्राप्तव्यमासोदनवाप्यमन्यैः। महीपतिः सोऽप्रतिमप्रकाशस्तत्तत्समग्रं समवाप सम्यक् ॥ १९॥ सर्गः MERALDIERemem CRIMIRRITATA- DH व -TARA . सुखमग्न राजा किसी समय वे उद्यानों तथा वहाँपर बने कृत्रिम पर्वतोंपर विहार करते थे। दूसरे समय रम्य वनस्थली तथा प्राकृतिक पर्वतोंपर क्रीड़ा करने निकल जाते थे। तीसरे अवसर पर वे नदियोंके निर्मल तथा विस्तृत वालुकाय प्रदेशोंपर केलि करते देखे जाते थे तथा अन्य समय विकसित कमलोंसे व्याप्त विशाल जलाशयोंमें जलविहारका आनन्द लेते थे ॥ १६ ॥ अनुभवी तथा हितैषी गुरुजनों, स्नेही बन्धुओं, अभिन्न हृदय मित्रों, गुणग्राही अनुजों, स्वभावसे ही शिष्टों तथा सांसारिक विषयोंसे संतुष्ट सज्जनोंको समष्टिमें बैठकर यदि एक समय वह अनेक शास्त्रोंके गहन विषयोंपर विमर्श करता था तो दूसरे ही समय देखा जाता था कि श्री वरांगदेव स्वस्थ, सुन्दर, आकर्षक, युद्धकलामें अत्यन्त पटु तथा शत्रओंके संहारमें साक्षात् यमराजके दंडके ही समान घातक सच्चे वीरोंके साथ शस्त्रविद्याके अभ्यास में तल्लीन हो रहे हैं ॥१७॥ यदि एक समय उन्हें संगीत-शास्त्रके विशेषज्ञ गन्धर्वोके सुमधुर गीत आदिके सुननेमें मस्त पाते थे, तो दूसरे क्षण हो देखा जाता था कि श्री अर्हन्त भगवानके चरित्र तथा उपदेशोंकी चर्चा करते-करते वे अपने-आपको भूल गये हैं। इतना ही नहीं, वह दृश्य भी सुलभ ही था जब कि युवक राजा अपने प्रासादोंकी ऊँची-ऊँची छतोंपर प्राणप्यारी पत्नियोंकी मनमोहक मधुर रतिकेलियों में लीन होकर उन कुलोन सुन्दरियोंमय हो जाता था ।। १८॥ पुण्य प्रशंसा इस मनुष्य लोकमें जनवर्गके रक्षक राजवर्ग जिन-जिन भोग परिभोगकी सामग्रियोंको प्राप्त करना चाहते हैं, उनको ही नहीं अपितु जिन्हें दूसरे प्रबल पराक्रमो परिपूर्ण प्रयत्ल करके भी प्राप्त न कर सके थे उन सबको भी पृथ्वीपालक H४२४] श्री वरांग- राजने परिपूर्ण अवस्थामें यथाविधि प्राप्त किया था, क्योंकि उस समय उसके समान पुण्यात्मा और प्रतापी कोई दूसरा न था ॥ १९ ॥ १.म शिष्यैश्च । Rametal Jain Education international Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् इत्थं व्यतीते च सखेन काले महीपतिः प्राप्तमनोरथानाम् । रवा कदाचिद्वनकाननेषु कृतानुयात्रः परमाविवेश ॥ २० ॥ तस्यापत्नी पुरमाविशन्तं प्रजातिकान्तं सततोपशान्तम् । द्विषज्जनान्तं विविधद्धमन्तं प्रासादजालान्तगता ददर्श ।। २१ ।। तस्यास्तदानीमवलोकयन्त्या मनस्यभूवन्सकला विशेषाः । परप्रमोदो जनतानुरागः सन्माननीयत्वमथात्मनश्च ।। २२ ।। पुरा तु मत्स्वामिनि निर्गतेऽस्मिन्नन्याङ्गनासह्यभवापि दुःखम् । तदागमाम्भः परिषेकयोगान्मनः पनः सा कुरुतामपेतम् ( ? ) ॥ २३ ॥ राजाकी ही यह अवस्था न थो अपितु प्रजामें भो कोई ऐसा न था जिसके मनोरथ सफल न हुए हों। ऐसे सम्पन्न प्रजाजनोंका राजा उक्त विधिसे अपने जीवनको सुख और शान्तिके साथ व्यतीत कर रहा था। इसी क्रमसे एक दिन वन तथा उद्यानों में मनोविनोद करनेके बाद लौटकर वह नगर में प्रवेश कर रहा था तथा उसके पोछे-पीछे बन्धुबान्धव, अधिकारी, आदि चले आ रहे थे ॥ २० ॥ विवेकिनी महारानी उसी समय श्री वरांगराजकी ज्येष्ठ (पट्टरानो) पत्नी राजभवनको जालीदार खिड़की में बैठी थी । संयोगवश नगरमें प्रवेश करते ही उनपर पट्टरानीकी दृष्टि पड़ी, उन्हें देखते-देखते हो पतिव्रता रानीके मनमें आया कि 'मेरे पति जनताको प्राणोंसे भी प्यारे हैं, वे सब परिस्थितियोंमें शान्त और प्रसन्न ही रहते हैं, तो भी प्रजा की क्षेम कुशलके शत्रुओंका नाश करनेमें प्रमाद नहीं करते हैं, इनकी आध्यात्मिक तथा भौतिक ऋद्धियोंके विषयमें तो कहना ही क्या है ॥ २१ ॥ उसे एक-एक करके अपने पतिकी सब विशेषताएँ याद आ रही थीं। वह सोचती थी 'इनके राज्य में सारा नगर कैसा आनन्दविभोर रहता है, यह कैसे अद्भुत सुन्दर हैं, इन पर प्रजाको कैसी अकम्प भक्ति है, इनके ही कारण आज इस विशाल राज्यका एक-एक आदमी मुझे माताके समान पूजता है ॥ २२ ॥ कुछ समय पहिले जब मेरे यही प्राणनाथ धूर्तोंपर विश्वास करनेके कारण अपने राजसे निकल गये थे तो मैंने ऐसे-ऐसे दुःख भरे थे जिन्हें दूसरी कुलवधुएँ न कभी सहती हैं और न सह हो सकती हैं। किन्तु अब फिर इनके समागमरूपी शीतल जलके सिंचनसे मन शान्त ही नहीं हुआ है अपितु सम्भवतः मेरा क्या कर्त्तव्य है इस ज्ञानसे भी शून्य हो गया है ।। २३ ।। ५४ द्वाविंश: सर्गः [ ४२५ ] Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशः बराङ्ग चरितम् कृतं मदीयं कियदस्ति भद्रं कियच्चिरं तिष्ठति वा मयि श्रीः। इतः किमु स्याद्धवितव्यता वा मया पुनः किं करणीयमत्र ॥ २४ ॥ एतानि चान्यानपि चिन्तयन्त्याः सामीप्यमभ्यद्धरणीपतिश्च ।। ससंभ्रमा सा प्रविलोक्य देवं ननाम पादाम्बुरुहाय तस्य ॥ २५॥ अनुज्ञया तस्य नुपस्य देवी पार्वोपविष्टा हि तदा प्रहृष्टा । कृताञ्जलिं पङ्कजकुमलाभां विज्ञापयामात्मवती२ बभूव ॥ २६ ॥ कथं सुखं केन कुतश्च किं वा कथं भवेत्कर्म सुखानुबन्धि । अखण्डितं तन्निरुपद्रवं च श्रोतु मनो मां त्वरयत्यतीव ॥ २७॥ सर्गः TAGIRI TERROREGALPURPRISERIA क्या पता है ! मेरा पूर्वकृत पुण्य कबतक मेरा साथ देगा? अथवा कबतक मैं इस पट्टरानीके पदकी लक्ष्मी व सौभाग्यकी अधिकारिणी रहूँगी ? कौन जानता है पूर्वोपाजित कर्मस्वरूप भाग्य इसके आगे क्या करेगा? फलतः अपने सौभाग्यके मध्याह्न के रहते-रहते मुझे क्या करना चाहिये । २४ ।। इन विकल्पों तथा इसी प्रकारकी दूसरी बातोंको सोचनेमें पट्टरानी अनुपमा इतनी व्यस्त हो गयी थीं कि उन्हें दूसरी बातोंका ध्यान ही रह गया था, इसी समय धरणोपति उसके बिल्कुल निकट जा खड़े हुए थे। आहट पाते ही वे घबड़ाकर बड़े वेगसे उठ खड़ी हुई थीं तथा पतिके चरण कमलोंमें मस्तक झुका दिया था ।। २५ ।। पट्टरानीको आत्मगौरवके साथ आत्मजिज्ञासा भी थो, पतिको निकट पाकर उनके हर्षकी सीमा न थी तो भी वे लोकलाजवश दूर ही बैठ गयी थीं किन्तु वरांगराजके अति आग्रहके कारण उन्हें एक ही आसनपर साथ बैठना पड़ा था। इसके उप रान्त उन्होंने दोनों सुकुमार हाथ जोड़ लिये थे जो मिल जानेपर ऐसे प्रतीत होते थे मानो कमलको कलो हैं और रानी ने अपनी । मानसिक शंकाओंको उसके सामने रख दिया था ।। २६ ।। 'हे नाथ! सांसारिक सुख क्योंकर उत्पन्न होते हैं ? किन पदार्थों द्वारा इनकी सृष्टि होती है ? इनका आदि स्रोत क्या है ? स्वरूप क्या है, किस प्रकार आचरण करनेसे वे कर्म ऐसे सुखमय बन्धके कारण होते हैं, जिसका फल बीच में न तो खंडित ही होता है और न उपद्रवके रहते हुए भी व्यर्व होता है ? इन सब रहस्यमय बातोंको सुनने तथा समझनेके लिए मेरा मन उतावला हो रहा है ।। २७ ।। १. [ कृत्वाञ्जलि । २. क °मात्मपतो, [ °मात्मपति ] । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prime-RELATH बराङ्ग चरितम् निशम्य वाणीं सकलां प्रियायाः स्वभावसद्धर्मरतिर्नरेन्द्रः । विमक्तिधर्म प्रविहाय तस्य' प्रोवाच सम्यग्गहिधर्ममेव ॥ २८ ॥ स्थूलामहिंसामपि सत्यवाक्यम चोरतादाररतिव्रतं च । भोगोपभोगार्थपरिप्रमाणमन्वर्थदिग्देशनिवृत्तितां च ॥ २९ ॥ सामायिक प्रोषधपात्रदानं सल्लेखनां जीवितसंशये च। गृहस्थधर्मस्य हि सार एषः संक्षेपतस्तेऽभिनिगद्यते स्म ॥ ३०॥ अनन्यदृष्टित्वमनन्यकोतिनिःशङ्कता निविचिकित्सता च । जिनेन्द्रपादाचनतत्परत्वं नामाहतों सष्टम भष्ट्वन्ति ।। १ ।। RasELEASPARREST PARDASpeakeSwaipreemesteSTHAme-Re-wear ___सागार धर्मका रूप सम्राट:वरांगराजको स्वभावसे सत्यधर्मके प्रति असीम अनुराग था फलतःप्राणप्रियाके उक्त सब प्रश्नोंको सुनकर ही मोक्षकी दिशामें ले जानेवाले सकल अथवा अनगार धर्मकी उस समय चर्चा अनुपयुक्त समझकर उसको केवल वही धर्माचार बताया था जिसे पालना प्रत्येक गृहस्थाश्रममें रहनेवाले व्यक्तिका प्रथम कर्तव्य है ।। २८ ।। र अतएव सांकल्पी त्रस-हिंसाके त्यागमय स्थूल ( अणु ) अहिंसा, सत्य अणुव्रत, चोरीका त्याग ( अचौर्य ) परपतिसे रति का त्याग ( स्वपति व्रत ) भोग तथा परिभोगके पदार्थोंका सूक्ष्म-विचार पूर्वक प्रमाण निश्चित करना ( भोगोपभोग परिमाण), सार्थकरूपसे दिशाओं में गमन ( दिग्वत ), तथा देशोंके पर्यटन ( देशव्रत ) का नियम करना ।। २९ ।। महाव्रतोंको धारण करनेका अभ्यास करनेकी अभिलाषासे त्रिसन्ध्या सामायिक, पर्वके दिनोंमें प्रोषधोवास, सत्पात्रको आहारादि दान तथा जब जीवनका और आगे चलना संशय में पड़ जाये उस समय सल्लेखना व्रतको धारण करना। इन सब व्रतोंको जो कि गृहस्थ धर्मके सार हैं, संक्षेपमें श्री वरांगराजने अपनी पट्टरानीको समझाये थे ।। ३० ।। सम्यकदर्शन किन्हीं दूसरे तत्त्वों पर श्रद्धा न करना, वीतराग प्रभुके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वचर्चाको छोड़कर किसी अन्य सराग देवके । उपदेशोंकी बात भी न करना, जीवादि सातो तत्त्वोंके स्वरूपमें शंका न करना, शरीर आदिकी स्वाभाविक मलीनता आदिको ध्यान में रखते हुए किसीसे घृणा न करना तथा सदा ही श्री एक हजार आठ देवाधिदेव जिनेन्द्र प्रभुके चरणोंकी ही पूजा करनेके लिये तत्पर रहना, इन सब गुणोंको ही आर्हत् ( सम्यक् ) दृष्टि ( दर्शन ) कहते हैं तथा यही सब प्रकारसे आराधनीय है ।।३१।। १. म तस्मै । २. म निनिगद्यते। E RDISTRISTRALIARRHETRY [४२७ ] Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग द्वाविंशः चरितम् सर्गः शीलानि दानानि तपांसि पूजा: सम्यक्त्वपूर्वाणि हाफलानि । सत्पुण्यनिवर्तनकारणानि चतुर्विधानीह वदन्ति तज्ज्ञाः ॥ ३२॥ सर्वेषु तेष्वप्रतिमेषु भद्रे तत्साधनेषु प्रवरा जिनर्चा । । सास्मद्विधानामपि शक्यरूपा शेषं तु सर्व गृहिणामशक्यम् ॥ ३३ ॥ ख्यातार्ककोतिषभस्य सूनुः प्रजापतिश्चक्रभृतां वरिष्ठः । धर्मार्थकामनयरत्नमतिः स नः प्रमाणं भवतो नरेन्द्रः ।। ३४ ॥ गहाश्रमे संवसते नराणां धर्माथिनामवर सुखप्रियाणाम् । अस्माद्विधानां मनुरादिराजः सोऽष्टापदेतिष्ठिपदहदर्चाः ॥ ३५ ॥ शोलों, दानों, तप आदिके विशेषज्ञोंका निश्चित मत है कि सम्यकदर्शनपूर्वक धारण किये गये व्रत, दिये गये दान, तप तथा जिनेन्द्र चरणोंकी पूजा महान् फलको देते हैं।' संसार परावर्तनमें सम्यक्त्वपूर्वक आचरित उक्त कर्म चारों प्रकारको विशाल पुण्यराशिका निर्माण करते हैं ॥ ३२ ॥ जिनपूजा हे भद्रे ! पूर्वोक्त सब ही पुण्यके कारणोंके एकसे एक बढ़कर होनेपर भी उन सबमें श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी। चरणपूजा बढ़कर है। इतना ही नहीं हमारे ऐसे सांसारिक विषय भोगोंमें लीन व्यक्तियोंके लिए वह सबसे अधिक सुगम है। शेष सब ही सत्कर्म गृहस्थीके झंझटोंमें फंसे हम लोगोंके लिए बहुत कठिन हैं। इस दिशामें इस कालके सर्वप्रथम चक्रवर्ती भरत महाराज ही हमारे आदर्श हैं ॥ ३३ ॥ वे इस युगके प्रवर्तक महायशस्वी विश्वविख्यात श्री एक हजार आठ ऋपभदेवके ज्येष्ठ पुत्र थे। हमारे क्षेत्रके पुरुषोंकी समुचित राज तथा समान व्यवस्था करके वे वास्तविक प्रजापति बने थे तथा पराक्रमका प्रदर्शन करके चक्रवतियोंके अग्रगण्य हुए थे। इतना ही नहीं एक दूसरेके साधक होते हुए धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थके सेवनका आदर्श उन्होंने उपस्थित किया था और रत्नत्रयकी तो वे साक्षात् मूर्ति ही थे।॥ ३४ ॥ हे प्रिये ! हम लोग सदृश प्राणी जो कि गृहस्थाश्रममें रह ही नहीं रहे हैं अपितु सांसारिक सुखोंके पोछे-पीछे दौड़ते फिरते हैं, तो भी धर्मको भूले नहीं हैं और उक्त स्वार्थीको तिलाञ्जलि दिये बिना ही धर्मार्जन करना चाहते हैं, उनके लिये वही प्रथम चक्रवर्तो मनुके समान हैं जो अष्टापद पर केवल श्री आदिनाथ प्रभुके चरणोंको पूजा करके ही मोक्ष महापदको प्राप्त हो गये थे ।। ५ ।। १. [ संवसता]। २. क धर्मार्थिनामर्थ । careबाबामवासन्चाsamPALIHERaut ५ [४२८] Jain Education international Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग द्वाविंशः सर्गः चरितम् शचोपतिर्दक्षिणलोकपालो महाप्रभावोऽष्टगुणद्धियुक्तः । जिनेन्द्रसेवां परया मुदासौ करोति सम्यक्त्वविशुद्धिरित्थम् ॥ ३६ ॥ नन्दीश्वरेऽहत्प्रतिमार्चनाय समद्यमन्ते प्रतिवर्षमिन्द्राः । कथं न कुर्याम वयं जिनार्चा संसारपाशच्छिदुरप्रभावाम् ॥ ३७ ॥ एकापि शक्ता जिनदेवभक्तिर्या दुर्गतेर्वारयितुं हि जीवान । आसीद्वितत्सौख्यपरं' परार्थ पुण्यं नवं पूरयितुं समर्था ॥ ३८ ॥ ध्रुवो विनाशाऽजितपापराशेधुंवा हि दुःखस्य विपत्तिरिष्टा । सुखान्यवश्यं स्वयमाश्रयन्ते भक्तिर्दढा यस्य जिनेश्वरेषु ॥ ३९ ॥ भरत महाराजके अतिरिक्त शचीके प्राणनाथ देवोंके राजा इन्द्र जिन्हें दक्षिण दिशाका लोकपाल इस संसारमें कहा जाता हैं, जिसके विस्तृत प्रभावकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं तथा जो अष्टगुण और अणिमा आदि ऋद्धियोंका स्वामी हैं वह भी जब अर्हतकेवलीकी पूजाका अवसर पाता है तो उसे बड़े उल्लासपूर्वक प्रसन्नताके साथ करता है क्योंकि ऐसा करनेसे ही सम्यक्त्वकी विशुद्धि बढ़ती है ।। ३६ ॥ नन्दीश्वर विधान कौन नहीं जानता है कि स्वर्गके इन्द्र प्रतिवर्ष श्री नन्दीश्वर द्वीपमें विराजमान अकृत्रिम जिनबिम्बोंकी विशाल पूजा है करनेके लिए बड़े हर्ष के साथ अष्टाह्निका पर्व में विपुल आयोजन करते हैं। अतएव हे प्रिये ! क्या कारण है कि हम लोग यथा शक्ति जिनेन्द्र पूजा करनेका समारंभ न करें ? क्योंकि उसका निश्चित परिपाक संसाररूपी पाशको छिन्न-भिन्न कर देता है ॥ ३७॥ श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी भक्ति अकेले हो जीवोंको संसारकी समस्त दुर्गतियोंसे बचाकर सुगतिकी तरफ ले जानेमें ही समर्थ नहीं हुई, अपितु उसके प्रतापसे सब प्रकारके सुख प्राप्त हुए हैं, अलभ्य अर्थ भी सुलभ हुए हैं तथा नूतन पुण्यका विपुल भंडार स्वयं ही बढ़ा है ।। ३८ ॥ पूर्वजन्मोंमें अनेक अशुभ करनेके कारण जो पापराशि एकत्रित हो गयी है श्री जिनेन्द्र पूजासे उसका नाश अवश्यंभावी है, तथा उस जीवको वर्तमान विपत्तियोंके विनाशको कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती है, जिसकी जिनेन्द्र देवपर अटल भक्ति है उसे खोजते डा सुख आगे इसमें तनिक भो सन्देहको स्थान नहीं है ।। ३९ ॥ रामचEURGautamMRITHILIARIESwara [४२९) १. [ आसीद्धि]। Jain Education international Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् SWWW SMS अनेकजात्यन्तरसंचितं यत्पापं समर्था प्रविहर्तुमाशु | तमः समस्तं हि दिगन्तरस्थं भानोः प्रभाचक्रमिवोदयस्थम् ॥ ४० ॥ जन्मानुबन्धोनि सुदारुणानि संसारदीर्धीकरणव्रतानि । कर्माणि मर्त्या जिनपूजनेषु विरूढमूलान्यपि निर्धुनन्ति ॥ ४१ ॥ पूज्यानि तान्यप्रतिशासनानि रूपाणि लोकत्रयमङ्गलानि । संस्थाप्य नित्यं समुपासयन्तः प्रत्यक्ष सर्वज्ञफलं लभन्ते ।। ४२ ।। जन्मस्वतोतेषु जिनेन्द्रपूजामुपास्य ये तीर्थकरा बभूवुः । आस्थाप्य तेषां पु रचनानि भूयः स्वयं तोर्थकरा भवन्ति ॥ ४३ ॥ शुद्ध जिनभक्ति अनन्त भव भवान्तरोसे संचित किये गये असीम पाप पुजको थोड़ेसे ही समयमें उसी प्रकार समूल नष्ट कर देती है जिस प्रकार उदयाचल पर आये हुए बालरविको सुकुमार किरणें उस समस्त गाढ़ अन्धकारको नष्ट कर देती हैं। जो कुछ क्षण पहिले हो सब दिशाओं और आकाशको व्याप्त किये था ।। ४० ।। जो कर्म कितने ही भवोंसे जीवके पोछे पड़े हैं, उसे दारुणसे दारुण नारकोय आदि दुख देते हैं; उन कुकर्मोंका एक ही अविचल कार्य होता है; वह है जीवके संसारचक्रको बढ़ाना, तथा जिनकी जड़ें इतनी पुष्ट हो जाती हैं कि उन्हें हिलाना भी दुष्कर हो जाता है, उन सब कर्मोंका भी मनुष्य जिनेन्द्रपूजारूपा महायज्ञ से सर्वथा भस्म कर देते हैं ।। ४१ ।। श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवके आदर्श के प्रतीक श्री जिनबिम्ब परम पूज्य हैं, क्योंकि जिनेन्द्र प्रभुका शासन ऐसा है कि कोई भी दूसरा शासन उसकी थोड़ी थी सी भी समता नहीं कर सकता है, उनका मूर्तीक रूप तथा आदर्श तीनों लोकों के कल्याणका साधक है । अतएव जो भव्यजीव विधिपूर्वक स्थापना करके प्रतिदिन शुद्धभाव और द्रव्यके द्वारा उनका पूजन करते हैं वे कुछ समय बाद सर्वज्ञतारूपी फलको पाते हैं ।। ४२ ।। मूर्तिपूजा संसारचक्रमैं घूमते हुए जिन जीवोंने अपने पूर्वभवों में वीतराग प्रभुको शुद्धभाव और द्रव्यसे उपासना की थी वे हो आगे चलकर त्रिलोकपूज्य तीर्थंकर हुए थे । अतएव इसी पुरातन परम्परा के अनुसार जो प्राणो लोकोपकारक तीर्थंकरों की स्थापना करके पूर्ण विधिपूर्वक उनकी द्रव्य तथा भाव पूजा करते हैं, वे स्वयं भो उन्हीं पूज्य तीर्थंकरोंके समान तीर्थंकर पदको पाकर 15 संसारके सामने उत्तम मार्ग उपस्थित करते हैं ।। ४३ ।। S द्वाविंशः सर्गः [ ४३० ] Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् D नोsues यदि लोकभूत्यै लोकान्धकारे' न्यपतिष्यदेवम् । जिनेन्द्रबिम्बं यदि नाभविष्यदज्ञानगर्तेषु जनो न्यक्ष्यत् ॥ ४४ ॥ परीषहारींश्चतुरः कषायान्विधूय जाति च जरां च मृत्युम् । ये निर्वृतिस्थानमवापुरीशास्तदचनान्नाधिकमन्यदस्ति ॥ ४५ ॥ इहैव पूजाफलतो जिनानां स्वेष्टार्थसंसिद्धिफलं लभन्ते । जन्मन्यमुत्रापि च देवलोके प्राप्स्यन्ति दिव्यान्विषयोपभोगान् ॥ ४६ ॥ अल्पश्रमेणाल्पपरिव्ययेन जिनालयं यः कुरुतेऽतिभक्त्या । महाधनोऽत्यर्थसुखी च लोके गम्यश्च पूज्यो नृसुरासुराणाम् ॥ ४७ ॥ सूर्योदय होनेपर संसारके सब काम चलत हैं तथा उनके है । किन्तु यदि किसी कारणसे सूर्यका उदय होना रुक जाये तो इसी प्रकार यदि जिनेन्द्र बिरूपी सूर्यका उदय इस पृथ्वोपर महागर्त में पड़कर कभीके नष्ट हो गये होते ॥ ४४ ॥ न आतप और प्रकाशके कारण उसकी सर्वतोमुखी समृद्धि होती सारा संसार गाढ़ अन्धकार तथा दुखके गर्त में समा जायेगा । होता तो इस जगतके सब ही प्राणी अज्ञानरूपी अन्धकारके क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहों, क्रोध आदि चार कषायों, जन्म, पराधीनतामय जरा तथा अकथनीय यातनामय मरणको समूल नष्ट करके जो महान् आत्मा पुनरागमनहीन शाश्वत स्थान मोक्षको चले गये हैं, उनकी पूजा करनेकी अपेक्षा संसारका कोई भी दूसरा कार्य ऐसा नहीं है जिसे करके जीव अधिक पुण्य कमा सकता हो ।। ४५ ।। वीतरांग प्रभुकी पूजा करके जीव इस भवमें ही अपने मनचाहे फलोंको प्राप्त करते हैं तथा इष्टजनों या वस्तुओंसे उनका समागम होता है ! यहाँसे मरने के बाद दूसरे जन्माने अनेका वर्गलोक में पाते हैं जहाँपर उनको अलोकिक भोग तथा विषयोंकी मन माफिक प्राप्ति होतो है ।। ४६ ।। वीतराग प्रभुके चरणों में जिन प्राणियोंकी प्रगाढ़ भक्ति होती है वे श्री जिनमन्दिर बनवाते हैं। यद्यपि जिनालय बनवाने अन्य सांसारिक कार्यों की अपेक्षा बहुत थोड़ा-सा अवश्य होता है तथा उससे भी कम धन खर्च होता है, तो भी इस शुभ कार्यकर्ता लोग संसार में सबसे अधिक धनी तथा सुखी देखे जाते हैं। लोग उनके पास जाकर अपना सम्मान प्रकट करते हैं तथा नर, असुर और सुर भी उनकी पूजा करते हैं ।। ४७ ।। १. लोकोऽन्धकारे ] । For Private Personal Use Only द्वाविंश: सर्गः [ ४३१ ] Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अनार्य भावैरजितेन्द्रियैयें कुदृष्टिदृष्टान्तयथानुरक्तैः ' । उन्मोहितास्तान्सुगतौ दधाति ये ऽतिष्ठिपच्चैत्यगृहं जिनानाम् ॥ ४८ ॥ अनाप्तचर्यागम दुर्विदग्धमधः पतन्तं नरलोकमेनम् । उत्पातवातैरभिहन्यमानं पोतं प्रसन्नानिवद्धये ॥ ४९ ॥ योऽकारयद्वेश्म जिनेश्वराणां धर्मध्वजं पूततमं पृथिव्याम् । उन्मार्गयातानबुधान्वराकान्सन्मार्गसंस्थांस्तु क्षणात्करोति ॥ ५० ॥ येनोत्तर्माद्धं जिनदेवगेहं संस्थापितं भक्तिमता नरेण । तेनात्र सा निःश्रयणी धरण्यां स्वर्गाधिरोहाय कृता प्रजानाम् ॥ ५१ ॥ जिनमन्दिर जिनकी अपनी निजी विचारधारा रागद्वेषसे परे नहीं हैं तथा इन्द्रियोंके जीतनेको तो बात ही क्या है; जो कि इन्द्रियोंके पूर्ण वशमें हैं ऐसे ही लोग उल्टी श्रद्धा के अनुकूल यद्वा तद्वा दृष्टान्त देकर किसी मिथ्या मतकी स्थापना करते हैं तथा उसके द्वारा कितने ही प्राणियों को आत्मज्ञानसे विमुख कर देते हैं। किन्तु जो भव्य वीतराग प्रभुके बिम्बोंकी स्थापनाके लिए जिनालय बनवाता है वह ऐसे लोगोंको भी सुमार्गपर ले आता है ॥ ४८ ॥ हे प्रिये ? इस मनुष्य गतिको एक जहाज समझो, कल्पना करो कि झूठे धर्मप्रवर्तकोंके द्वारा कहे गये शास्त्र तथा - आचरणरूपी आग इसके भीतर भभक उठो है, जिसके कारण सछिद्र होकर यह नोचेको जाने लगा है। इतना ही नहीं, समुद्र में भीषण झंझावात बह रही है जो कि इसे उल्टी दिशा में ले जानेके लिए प्रबल थपेड़े मार रही है ।। ४९ ।। वे किन्तु जो व्यक्ति जिनालय बनवाते हैं अनुकूल पवन किसी डूबते जहाजको बचा लेती है। होना आवश्यक है ।। ५० ।। इस मनुष्यलोकरूपी जहाजको वैसे ही उभार लेते हैं जैसे शान्त और धर्म के अक्षुण्ण अस्तित्वको स्थिर रखनेके लिए परम पवित्र जिनालयों का जो विचारे ज्ञानहीन प्राणी कुमार्गपर चले जाते हैं उन्हें भी जितविम्बों के दर्शन क्षणभर में ही सन्मार्ग पर सहज ही ला देते हैं । भक्ति भावसे भरपूर हृदययुक्त जिस किसी मनुष्यके द्वारा शास्त्रमें कहे गये विभवयुक्त विशाल जिन मन्दिरकी स्थापना की जाती है, वह व्यक्ति इस पृथ्वी पर उन सीढ़ियोंको बनवा देता है, जिनपर चढ़कर संसार के भोगविषयों में लिप्त क्षुद्र प्राणी भी स्वर्ग में पहुँच सकते हैं ॥ ५१ ॥ [ ४३२] ५. [ पथानुरक्तः ।। २. [ योऽतिष्ठप° ] । द्वाविंश: सर्ग: ३. क वद्रियेव [ वद्रियेत ] । ४. क पृथुव्यां । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् त्रिलोकनाथप्रतिमाग्र्यसेवां ये कुर्वते शुद्ध मनोवचोऽङ्गैः । विभिद्य कर्मारिमहोग्रसेनां क्रमेण ते निर्वृतिमाप्नुवन्ति ॥ ५२ ॥ इत्येवमहंत्प्रतिमालयस्य फलं विशालं नृपतिर्जगाद | निशम्य तत्सर्वमतिप्रहृष्टा प्रोवाच वाचं मधुरार्थसाराम् ॥ ५३ ॥ यशोऽर्थकामाश्च मयानुभूतास्त्वत्पादपद्मद्युतिसंश्रयेण । जिनेन्द्र बिम्बार्चनमर्चयिष्ये चैत्यक्रियाया' प्रणवत्सबुद्धिम् ॥ ५४ ॥ सदा जिनेन्द्रोदितधर्मभक्तो विज्ञाप्यमानः क्रियया नरेन्द्रः । अमात्यमाहूय शशास सद्यो जिनालयं त्वं लघु कारयेति ।। ५५ ।। संदेशमीशस्य मुदावधार्य बुधः प्रगल्भो विबुधः स नाम्ना । अल्प रहोभिर्नगरस्य मध्ये प्राचीकरोच्चैत्यगृहोत्तमं तत् ।। ५६ ।। वीतराग प्रभु संसारभरके निस्स्वार्थ कल्याणकर्त्ता हैं फलतः उनकी उपासना तथा पूजा सबसे पहिले करनी चाहिये । यही कारण है जो जीव विशुद्ध मन, वचन तथा कायसे उनकी नियमित आराधना करते हैं वे कर्मोंरूपी दुर्दम शत्रुओं की विशाल सेनाको सहज ही छिन्न-भिन्न करके क्रमशः मोक्ष महापदमें पदार्पण करते हैं ।। ५२ ।। सम्राट वरांगने उक्त शैलीका अनुसरण करके कानों तथा हृदयको प्रिय तथा अर्थपूर्ण वाक्यों द्वारा यह भली-भाँति समझा दिया था कि जिनेन्द्र प्रभुकी प्रतिमाओं की स्थापनाके लिए जिनालय बनवानेसे कौन कौनसे विशाल फल प्राप्त होते हैं । इस विशद विवेचनको सुनकर महारानी अनुपमाके हृदयमें हर्षंपूर उमड़ आया था ।। ५३ ।। जिनालय निर्माण 'हे नाथ ! आपके चरण कमलोंकी कान्तिको छायामें बैठकर मैंने अतुल सम्पत्ति, यथेच्छ कामक्रीड़ा तथा दिगन्तव्यापी विमल यशको परिपूर्ण रूपसे पाया है। किन्तु अब तो मैं नियमसे ही श्री एक हजार आठ वीतराग प्रभुकी पूजा करूँगी अतएव कृपा करके आप जिन चैत्योंकी स्थापना के लिए एक आदर्श जिनालय बनवानेका निश्चय कीजिये ॥ ५४ ॥ सम्राट रांग जन्म से ही वीतराग प्रभुके द्वारा उपदिष्ट धर्ममार्ग के परम भक्त थे, इसके अतिरिक्त उस समय प्राणाधिका पट्टरानी भी जिनपूजा करनेके लिए नूतन जिनालयकी स्थापना करानेका आग्रह कर रही थी। फलतः उन्होंने तुरन्त ही प्रधान अमात्यकोंको बुलाकर आदेश दिया था कि 'तुम बहुत शीघ्र ही जिनालयका निर्माण कराओ ।। ५५ ।। प्रधान अमात्य बड़े विद्वान थे, सब ही कार्योंका उन्हें पूर्ण अनुभव था, वे 'यथानाम तथा गुणः' थे क्योंकि उनका नाम भविबुध था। वे की आज्ञाको पाकर बड़े ही प्रसन्न हुए थे । तथा कुछ ही दिनोंके भीतर राजधानी के बीचोंबीच उन्हीं ने १. [ क्रियायां प्रणय स्वबुद्धिम् ] । २. [ प्राचीकरच्चैत्य ] । ५५ द्वाविंश सर्गः [ ४३३] Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितस् SSSSSS 150 सगोपुराट्टालक चित्रकूट चामीकरानद्धसहस्रकूट व्यालोलमालाकुलितान्तरालं विचित्ररत्नस्फुरदंशुजालं रेजेऽतिमात्रं वरहर्म्यमालम् ॥ ५८ ॥ मृदङ्गगीतध्वनितुङ्गशालम् । सुशिल्पिनिर्मापितरम्यशालं महाभ्रसंघट्टिततुङ्गकूटम् । घण्टारवैस्त्रस्तकपोतकूटम् ॥ ५७ ॥ मुक्तास्त्रगालिङ्गितचारुलीलम् । वन्दारुदिव्य स्तुतिपूरिताशं बभूव तच्चैत्यगृहं विशालम् ॥ ५९ ॥ क्वचित्प्रवालोत्तमदामयष्टिः क्वचिच्च मुक्ता'न्तरलोलुयष्टिः । ललम्बिरे ताः सह पुष्पयष्ट्या द्वारे पुनः कामलता विचित्राः ॥ ६० ॥ एक विशाल सब शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न जिनालय बनवाकर खड़ा कर दिया था ।। ५६ ।। जिनालय वर्णन जिनालयका प्रवेशद्वार विशाल था, उसके ऊपर सुन्दर अट्टालिकाएं तथा अद्भुत अद्भुत आकारके शिखर थे । जिनालय के प्रधान शिखर तो इतने ऊँचे थे कि वे आकाशको भी भेदकर ऊपर निकल गये थे। विशाल शिखरके समीप से मढ़े हुए सुन्दर एक हजार शिखर बनाये गये थे ॥ ५७ ॥ शुद्ध सोने जिनालय में बजते हुए विशाल घंटोंके तीव्र शब्दसे शिखरों पर बैठे कबूतर डरकर भाग जाते थे । मन्दिरके भीतरी भागों में अनेक मालाएँ लटक रही थीं, हवा के झोंकोंसे जब वे हिलती थीं तो बड़ी ही मनोहर लगती थीं। इन मालाओंके अन्तरालोंकी मोतीकी मालाओं ने घेर रखा था। इन दोनों प्रकारकी मालाओंके मिलनेसे एक विचित्र ही छटा प्रकट हुई थी। इस उत्तम जिनालयकी अत्यन्त सुन्दर माला में नाना भाँतिके रत्न भी पिरोये हुए थे, इनसे निकलती हुई किरणें चारों ओर फैलकर मन्दिरकी शोभाको अत्यन्त आकर्षक बना देती थीं ॥ ५८ ॥ सुयोग्य शिल्पकारों ने जिनालयके उन्नत तथा दृढ़ परकोटाको बनाया था, उसके चारों ओर बनी उन्नतशाला (दालान) में मृदंग आदि बाजों तथा गीतोंकी मधुर ध्वनि हो रही थी । अनेक स्तुतिपाटक तथा कत्थक लोग दिव्य स्तुतियाँ पढ़ रहे थे जिनकी ध्वनि से सारा वातावरण व्याप्त था। इस विधि से बनवाया गया नूतन जिनालय अत्यन्त विशाल और उन्नत था ॥ ५९ ॥ यदि एक स्थानपर विचित्र रंग रूपके उत्तम मूंगों की मालाएँ लटक रही थीं तो दूसरे स्थान पर उन्हांके बीच में लहलहाती हुई मोतियोंकी लड़ियाँ चमक रही थीं। परम शोभायुक्त द्वार पर मूंगा और मोतियोंकी लड़ियोंके साथ-साथ फूलों की लड़ियाँ भी लटकती थीं, इनके सिवा सुन्दर तथा सुभग कोमलता भी द्वारकी शोभा बढ़ाती थी ।। ६० ।। १. क मुक्तान्तरलोयष्टि:, [ °लोल ] । For Private Personal Use Only द्वाविंश: सर्गः [ ४३४ ] Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारोपविष्टा कमलालया श्रीरुपान्तयोः किन्नरभूतयक्षाः । तीर्थकराणां हलिचक्रिणां च भित्त्यन्तरेष्वालिखितं पुराणम् ॥ ६१ ॥ हयद्विपस्यन्दनपुलवानां मृगेन्द्रशार्दूलविहसमानाम् । रूपाणि रूप्यैः कनकैश्च ताम्रः कवाटदेशे सुकृतानि रेजुः ॥ ६२ ॥ स्तम्भैज्वल भिस्तपनीयकुम्भैविचित्रपत्रांशुपरीतशोभैः । तैः स्फाटिकर्दम्पतिरूपयुक्त रेजे जिनेन्द्रप्रतिमागृहं तत् ॥ ६३ ॥ प्रवालकतनपुष्परागैः पद्मप्रभैः सस्यकलोहिताक्षः ।। महीतलं यस्य मणिप्रवेकैस्तारासहौरिव खं व्यराजत् ॥ ६४॥ वैड्यनालैस्तपनीयपी महेन्द्रनीलैर्भमरावलीकैः प्रवालमुक्तामणिभिविचित्रनित्योपहारैः कृतमङ्गलं तत् ॥ ६५ ॥ मामा द्वाविंशः सर्गः -मर NASIRELIGIRGETAHIKARI जिनालयका साज द्वारके ऊपर ही कमलनिवासिनी लक्ष्मीदेवीकी सुन्दर मूर्ति बनायी गयो थी, दोनों ओर किन्नरों, भूतों तथा यक्षोंकी मूर्तियाँ बनायी गयी थीं। पुराणोंमें वर्णन किये गये चरित्रोंके अनुसार मन्दिरको सब भित्तियों पर प्रातःस्मरणीय तीर्थंकरों, नारायणों, चक्रवतियों आदिके भावमय सजीवसे चित्र बनाये गये थे ॥ ६१।। मन्दिरके विशाल कपाटों पर घोड़ा, हाथी, रथ, इनके आरोही श्रेष्ठ पुरुष, मृगोंके राजा सिंह, व्याघ्र, हंस आदि पक्षियोंके आकारोंको ताम्बे, चाँदी और सोनेके ऊपर काटकर ललित कलामय विधिसे जड़ दिया था ॥ ६२ ।। गर्भगृह, जिसमें वोतराग जिनेन्द्र प्रभुकी प्रतिमाएँ विराजमान थीं, उसके सबही खम्भे स्फटिक मणिके बने थे अतएव उनकी प्रभासे ही पूरा जिनालय जगमगा रहा था। इन खम्भों पर काटकर स्त्री तथा पुरुषके युगलकी मनोहर मूर्तियाँ बन रही, थीं। खम्भोंके कलश शुद्ध स्वर्णके थे तथा चारों ओरसे वे विचित्र पत्तों आदिसे घिरे थे जिनसे निकलती हुई किरणोंके कारण सब। ओर शोभा ही शोभा विखर गयी थी ।। ६३ ।। जिनालयके सुन्दर धरातलमें उत्तम मंगे, मोती, मरकत मणि, पुष्पराग ( एक प्रकारके लाल), पद्मप्रभ ( श्वेतमणि), घासके समान हरे मणि, रक्तवर्ण नेत्रके सदृश मणि तथा अन्य नाना प्रकारके मणि जड़े हुए थे। इन सबकी द्युतिके कारण वह ऐसा प्रतीत होता था जैसा कि हजारों तारे उदित होनेपर स्वच्छ सुन्दर आकाश लगता है ।। ६४ ।। ___ उसमें जड़े गये कमल विशुद्ध सोनेके थे, उनके कोमल नाल वैडूर्य मणिसे काटकर बनाये गये थे, कमलोंपर गुंजार करते है। हुए भौरोंकी पंक्तियाँ महेन्द्रनील मणियोंको काटकर बनी थीं। उनके आसपास नीहार बिन्दु आदिको चित्रित करनेके लिए उत्तम । १.क रूपैः। २. म नित्योपहाराः। -4TASHURRESICHELOPI PARA Jain Education international Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशः परितम् सर्गः जिनेन्द्रगेहो वरधर्मदेहः' सुधामयस्तुजविचित्रशृङ्गः। दूरावगाढ्यो गगनेऽभ्यराजद्वितीयकैलास इवाद्वितीयः ॥ ६६ ॥ प्रेक्षासभावल्यभिषेकशालाः स्वाध्यायसंगीतकपटशालाः। सतोरणाट्टालकवैजयन्त्यश्चलत्पताका रुचिरा विरेजुः ॥ ६७ ॥ प्राकारमालाभिरथो परीतं चैत्यं बभासे जिनपुजवानाम् । मेघावलोभिः परिवेष्टयमानः समुल्लसन्तीभिरिवारराज ॥ ६८ ॥ प्रियङ्ग्वशोकदुमकर्णिकारः पुन्नागनागाशनचम्पकानाम् । वाप्यो' विरेजः सविहारयोग्या बहिःप्रदेशे भुश्वनोत्तमस्य ॥ ६९॥ मूगे, मोती तथा अद्भुत मणि जड़े हुए थे। इन रत्नोंको देखकर ऐसा आभास होता था कि वहाँपर दिनरात उपहार चढ़ते रहते हैं ।। ६५ ॥ इस जिनालयकी नींव बहुत नीचे तक दी गयीं थी, उसका पूरा निर्माण काफी ऊँचा था विशाल शिखरोंकी ऊँचाईके विषयमें तो कहना ही क्या है, क्योंकि वे आकाशको भेदती हुई चली गयी थी। उसके प्रत्येक भागको उज्ज्वल चनेसे पोता मया था । दूरसे देखनेपर वह ऐसा मालूम देता था मानो दूसरा कैलाश पर्वत हो खड़ा है। कहनेका तात्पर्य यह कि वह अद्वितीय मन्दिर मूर्तिमान धर्म ही था ॥ ६६ ॥ मन्दिरके विभाग उसमें प्रेक्षागृह ( दर्शन करनेका स्थान ), बलिगृह (पूजा करनेका स्थान ), अभिषेकशाला, स्वाध्यायशाला, सभागृह, संगीतशाला तथा पट्टगृह (पुराणोंमें कथा आती है दासियाँ आदि अपने सेव्य कुमारियों तथा कुमारोंके पट्टको ले जाकर मन्दिरोंमें बैठती थीं और पहिचाननेवालोंको उपयुक्त व्यक्ति समझा जाता है ) अलग-अलग बने हुए थे। इन सबमें कटे हुए तोरणों तथा । । ऊपर बनी अट्टालिकाओंकी शोभा तो सब प्रकारसे ही लोकोत्तर थी॥ ६७ ॥ ऊँची-ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं तथा चंचल ध्वजाओंकी शोभा भी अनुपम थी । संसारके परमपूज्य जिनेन्द्र बिम्बोंका वह चैत्यालय सब दिशाओंमें कई परकोटोंसे घिरा हुआ था। फलतः उसे देखकर पर्वतोंके राजा सुमेरुकी उस श्रीका स्मरण हो आता था जो कि अनेक सुन्दर मेघमालाओंसे घिर जानेपर पावसमें उसकी होती है ।। ६८ ॥ उत्तम जिनालयके बाहरके प्रदेशों पर प्रियंगु ( एक प्रकारका घास), अशोक, कर्णिकार (कनेर), पुन्नाग ( सुपारी), नाग ( नागकेशर), अशन ( पीत शालवृक्ष ) तथा चम्पक वृक्षोंकी सुन्दर वाटिकाएँ थीं। तथा उनमें घूमनेसे मनुष्यको शान्ति । १. क °धर्मगेहः। २.[ दूरावगाढो]। ३. म प्रष्या । ४. [ वाट्यो]। ५. [ भवनोत्तमस्य ] । [४३६ ॥ Jain Education international . Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् आन्नान्तका दाडिममातुलुङ्गेबिल्वाश्च चूताः क्रमुकाभयाश्च । तालीद्रुमास्तालतमालवृक्षा बभूवुरुद्यानवनान्तरेषु ॥ ७० ॥ सुवर्णवासन्तिक कुब्जकानां बन्धूकगन्धोत्कट मल्लिकानाम् । समालती जात्यतिमुक्तकानां वीर्याभिरम्याणि वनानि रेजुः ॥ ७१ ॥ खजूरमृद्वीक मरीचवल्ल्यो लवङ्गकङ्कोलकनालिकेराः । ताम्बूलवल्ल्यः कदलीवनानि नित्यप्रवृत्तानि मनोहराणि ॥ ७२ ॥ अन्तर्बहिश्चापि समाप्तकर्मा प्रमाणसंबंधित दिव्यमूर्तिः । जिनेन्द्र गेहो रमणीयरूपः पुरस्य भूतां गणितां जगाम ( ? ) ॥ ७३ ॥ प्राप्त होती थी । इनके कारण जिनालयको शोभा और भी अधिक हो गयी थी ॥ ६९ ॥ जिनालय के उद्यान इन वाटिकाओं और रम्य उद्यानोंमें आम्र, आमड़ा, अनार, मातुलिंग ( विजौरा, पपीता ), बेल, क्रमुक ( द्राक्षा ), अभया (ह), ताल, तालीदुम ( खजूर विशेष ), तमाल आदिके सुहावने वृक्ष लगे हुए थे ॥ ७० ॥ इन उद्यानोंमें अनेक प्रकारके फूलनेवाले पौधोंकी पंक्तियाँ खड़ी थीं, जिनके कारण वागोंकी शोभा एकदम चमक उठी थी। इन पुष्प वृक्षों में सुवर्ण ( हरिचन्दन ), वासन्ती, कुब्जक ( सेवती), बन्धूक ( मध्याह्नपुष्प ) अत्यन्त तीक्ष्ण गन्धयुक्त मल्लिका, मालती, जाती (चमेली) तथा अतिमुक्तक अग्रगण्य थे ॥ ७१ ॥ खजूर तथा नारिकेल वृक्षोंकी भी कमी न थी । द्राक्षा, गोल मिरच, लवंग, कंकोल ताम्बूल आदिकी सुकुमार सुन्दर लताएँ पुष्ट वृक्षोंके आसपास चढ़ी हुई अद्भुत सौन्दर्यका प्रदर्शन करती थीं। वाटिकाओं में सब ही जगह सुन्दर कदलीवन खड़े थे, ये सर्वदा ही हरे-भरे रहते थे ।। ७२ ।। उत्तम स्थापत्य ( (निर्माण) कलाका अनुसरण करते हुए उक्त विधिसे उस जिनालयके भीतर तथा बाहरके सभी काम समाप्त किये गये । उसका प्रत्येक भाग आनुपातिक ढंगसे बनाया गया था फलतः उसका आकार सर्वथा दिव्य तथा मनोहर था । वह इतना अधिक रमणीय था कि उसे लोग आनर्तपुरकी महाविभूतियों में गिनने लगे थे ॥ ७३ ॥ १. [ वीथ्याभि ] । २. म मृवीक । ३. [ भूतेणितं ] । द्वाविंशः सर्गः [ ४३७१ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यः सर्वसंपत्तिगुणोपपन्नः पुण्यावहः पापहरः प्रजानाम् । दिशः स्वभासा प्रतिभासयन्स लीलामुवाहेव महाचलस्य ॥ ७४ ॥ नाम्नेन्द्रकूटो नयनाभिरामो रत्नातिहेपितबालभानुः।। सर्वत्रसौख्यः सकलेन्दुसौम्यः सदैव स श्रीनिलयो बभूव ।। ७५ ॥ उद्भिद्य भूमि स्वयमुच्छ्रितः स्यावहो विमानं नभसश्च्युतं तत् । उत्पश्यतां कामगमागतं तदित्यासताका' भुवि मानवानाम् (१) ।। ७६ ॥ नृपाज्ञयाहत्प्रतिमालयस्य सुशिल्पिनिर्वतितकौशलस्य । विभूतिरित्थं विबुधोपमेन निर्मापिता सा विबुधेन तेन ॥ ७७॥ असाधारण मन्दिर उसके निर्माणमें कोई भी सम्पत्ति तथा वैभव अछता न छोड़ा गया था । आगममें बताये गये जिन चैत्यालयके सब ही शुभ लक्षण उसमें थे ।। अतएव वह प्रजाके पापोंको नष्ट करने तथा पूण्यको बढ़ानेमें समर्थ था । उसकी छटा और ज्योतिसे सब दिशाएं प्रकाशित होती थीं। ७४ ॥ उसे देखते ही किसी महापर्वतको छटा याद हो आती थी। नेत्रोंके लिए उसका दर्शन अमृत था। उसमें लगे हुए रत्नोंकी ज्योतिके समक्ष सूर्यका उद्योत भी मन्द पड़ जाता था, पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान ही शीतलता तथा आह्वादको देता था । उसमें किसी भी स्थानपर बैठनेसे समान सुख मिलता था। शोभा और लक्ष्मीको तो वह निवासभूमि ही था ॥ ७५ ॥ उसका नाम भी यथार्थ इन्द्रकूट था। इस पृथ्वीपर रहनेवाले मनुष्योंको जब पहिले पहिले उसे देखनेका अवसर मिलता था तो वे इस ढंगके तर्क करते थे-'क्या यह जिनालय पृथ्वीको फोड़ कर अपने आप हो ऊपर निकल आया है ( अर्थात् अकृत्रिम है) अथवा कहीं स्वर्गसे अपने आप किसी अज्ञात कारणवश गिर पड़ा कोई विमान तो यह नहीं है ।। ७६ ।। सार्थक इन्द्रकूट इस इन्द्रकूट जिनालयके बनाने में सुयोग्य शिल्पियोंने अपनी पूरीकी पूरी शक्ति, ज्ञान तथा हस्त-कौशलका उपयोग किया था। अतएव यह कहना पड़ता था कि देवोके समान बुद्धिमान तथा कार्यकुशल श्रीविबुध अमात्यने सम्राटकी आज्ञाके अनुसार ही इस मन्दिरको अनुपम वैभव तथा शोभा सम्पन्न बनवाया था ।। ७७ ।। १.क "सुताका। २. क पुशिल्पि। Jain Education international Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्येवं क्षितिपतिशासनेन धीमान् दिव्याख्यः प्रियहितमन्त्रिवर्गमुख्यः । निष्ठाप्य क्रमविदनुत्तमं न चैत्यं भपायाकथयवथार्थजातमार्यः॥ ७८॥ तत्प्रोक्ता हितमहितां निशम्य वाणी संपूज्य प्रियवचनार्थदानमानैः। भूयस्तं मुदितसनाः शशास राजा सद्यस्त्वं जिनमहवृत्तये यतस्व ॥७९॥ बराङ्ग चरितम् इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते सिद्धायनप्रतिष्ठापनो नाम द्वाविंशतितमः सर्गः। आर्य विबुध सदैव अपने स्वामीको हितकामना करते थे, फलतः वे सम्राटको भी परम प्रिय थे और मंत्रिमण्डलके प्रधान थे । उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वे प्रत्येक कार्यको समुचित क्रमके अनुसार ही करते थे। अतएव श्रीवरांगराजको आज्ञासे जब उन्होंने चैत्यालय बनवाकर जिन बिम्बोंकी प्रतिष्ठाका भी समारंभ कर चुके थे तब उन्होंने सम्राटको सब समाचार दिये थे ॥ ७८॥ जिनमह प्रधान अमात्य आयं विबुधकी, कल्याणकारक होनेके कारण महत्त्वपूर्ण विज्ञप्तिको सुनते ही सम्राटने प्रियवचन सन्मान तथा भेंट देकर उनका विपुल सत्कार किया था। धर्माचरणके अवसरको सामने देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न थे अतएव उन्होंने म मंत्रिवरको फिर आज्ञा दी थी "आप जिनमह ( विशेष विधान) नामक विशाल जिनपूजनके विपुल आयोजनको शीघ्र ही करा दें"॥ ७९ ॥ IRGIRIRTAIRPETAREERAGHEIRRIAGGETAR चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें सिद्धावन प्रतिष्ठापन नाम द्वाविंशतितम सर्ग समाप्त । A[४३९] Jain Education international Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् त्रयोविंशः सर्गः अथ प्रशस्ते तिथिलग्नयोगे मुहूर्तनक्षत्रगुणोपपत्तौ । क्षपाकरे च प्रतिपूर्यमाणे' ग्रहेषु सर्वेषु समस्थितेषु ॥ १ ॥ संहेपयन्ती स्वरुचा वितानदिवाकर रांशून्प्रतिमा जिनस्य । संस्थापिता चैत्यगृहे विशाले नृपाज्ञया स्थापनकर्मदक्षैः ॥ २ ॥ तदाप्रभृत्येव मुदा प्रतीतो धर्मप्रियो भूपतिशासनेन । क्रियाविधिज्ञः पृथुधीरमात्यः प्रवर्तयां सर्वत्र भेरीं परिघोष्य पुर्यां किमिच्छकं त्वर्थजनाय दत्वा । धर्मक्रियोद्योगनिविष्टबुद्धी राजा जिनेन्द्रालयमभ्यगच्छत् ॥ ४ ॥ तन्महिमानमास ॥ ३ ॥ त्रयोविंश सर्ग की आज्ञा पाते ही आर्य विबुधने शुभ तिथि तथा लग्नको ज्योतिषियोंसे पूछा था। उन्होंने भी उत्तम मुहूर्त, श्रेष्ठ नक्षत्र तथा समस्त ग्रहों के सर्वोत्तम योगका क्षण निकाला था। उस समय सब ग्रह ऐसे स्थान पर थे कि कोई किसीका प्रतिघात नहीं करता था, तथा ( रात्रिनाथ ) चन्द्र भी पूर्ण अवस्थाको प्राप्त थे ॥ १ ॥ मूर्ति प्रतिष्ठा ऐसे शुभ लग्न में ही स्थापन विधिके विशेषज्ञोंने विशाल जिनालय इन्द्रकूटमें राजाकी अनुमतिपूर्वक श्री एक हजार आठ कर्मजेता जिनेन्द्रप्रभुकी प्रतिमाको स्थापित किया था। यह जिनबिम्ब अपनी कान्ति तथा तेजके प्रसारसे ( दिननाथ ) रविकी प्रखर किरणों को भी अनायास ही लज्जित कर देती थी ॥ २ ॥ आर्य विबुध स्वभावसे ही धार्मिक प्रवृत्तिके मनुष्य थे, धार्मिक क्रियाओं, विधि-विधानोंके विशेषज्ञ थे तथा उनके सर्वतो - मुख ज्ञानका तो कहना ही क्या था। इन सब स्वाभाविक गुणोंके अतिरिक्त धर्ममहोत्सव करनेके लिए राजाकी आज्ञा होने के कारण उनके हर्षकी सीमा न थी। उससे प्रेरित होकर उन्होंने जिनबिम्ब स्थापनाके क्षणसे ही जिनमहको पूरे वैभवके साथ प्रारम्भ करा दिया था ॥ ३ ॥ किमिच्छक दान पूरे नगर में भेरी बजवा कर घोषणा की गयो थी कि जिसकी जो कुछ भी इच्छा हो वही वही वस्तु निःसंकोच भावसे १. क प्रतिसूर्यमाणे । द्वाविंश सर्गः [ ४४० ] Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् मन्त्रिप्रधानाः पृथुधीविशेषा' विद्यासमृद्धाः प्रथिताः सदस्याः २ । हयद्विपैश्चापि पदातिभिश्च महाविभूत्या तमनुप्रजग्मुः ॥ ५ ॥ नृदेवप्रियकारिणोभिर्यथोपचारैरनुवर्तनीभिः । देवी जिनेन्द्र पूजाभिदिदृक्षया सा नरेन्द्रपत्नीभिरमा जगाम ॥ ६ ॥ अनेकयुद्धप्रतिलब्धकीर्तिः सर्वज्ञवक्रोद्गतपुण्यमूर्तिः । जगत्प्रजानन्दकरः प्रदोषे नान्दीमुखं दीपावलीभिर्ज्वलितप्रभाभिर पूर्ववर्गेश्च गन्धैश्च पुष्पैर्बलिभिः सुधूपैनिवेदयां रात्रिबल प्रतिमुखश्चकारः ॥ ७ ॥ चरुप्रकारैः । बभूव ॥ ८ ॥ सम्राटसे माँग लेवें, इस क्रमसे 'किमिच्छक' दान देनेके पश्चात् श्रीवरांगराज नतन जिनालय में पहुंचे थे। उस समय उनकी मति पूर्णरूपसे धर्माचरण में लगी हुई थी ॥ ४ ॥ आ - विबुध आदि प्रखर प्रतिभाशाली सब ही प्रधानमंत्री, अपनी सुमति, सेवा तथा उत्साहके लिए विख्यात राजसभाके सदस्य, भी सम्राटके पीछे-पीछे असीम विभवयुक्त घोड़ा, हाथी, पदाति आदि सैनिकों के साथ राजाके पोछे चल दिये थे ||५|| साम्राज्ञी अनुपमा देवी भी श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी पुण्यमय पूजा देखनेकी अभिलाषासे अन्य समस्त रानियोंके साथ जिनालयको चल दी थीं। क्योंकि उनके साथ जानेवाली सबही रानियाँ सदैव सम्राटको प्रिय काम करनेमें आनन्दका अनुभव करती थीं, यथायोग्य विनय तथा व्यवहार करके वे सदा ही पति तथा सम्राज्ञीके अनुकूल आचरण करती थीं ॥ ६ ॥ प्रतिष्ठा संरम्भ सम्राट वरांगने एक, दो नहीं अनेक दारुण युद्धों में विजय प्राप्त करके विमल यश कमाया था, सर्वज्ञ प्रभुके द्वारा उपदिष्ट धर्मका पालन करके उनका अभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों ही परम परित्र हो गये थे तथा अपनी प्रजाको तो सब दृष्टियोंसे वह सुख देते ही थे, तो भी उन्होंने प्रगाढ़ भक्ति और प्रीतिपूर्वक रात्रि के अन्तिम प्रहरमें उठकर कर्मजेता प्रभुकी आराधना करने के लिए नन्दीमुख ( प्रतिष्ठा की मंगलाचरण विधि ) को विधिपूर्वक किया था ॥ ७ ॥ भाँति-भाँति स्वादु तथा सुन्दर नैवेद्य बनाये जा रहे थे। उनमें कितने ही ऐसे थे जो उसके पहिले कभी बने ही न थे । दीपों की पंक्तियाँ प्रज्वलित की गयीं थीं जिनके प्रकाशसे सारा वातावरण ही आलोकित हो उठा था, मधुर तथा प्रखर सुगन्धयुक्त पुष्प संचित किये गये उत्तम धूप तथा अन्य अर्घ्य सामग्री भी प्रस्तुत थी । इन दीपकादिको लेकर सम्राटने जिन चरण में रात्रिकी बलि (पूजा) समर्पित की थी ॥ ८ ॥ १. म पृधुवी । २. क समस्याः । ३. [ प्रतिमुखः ] । ५६ For Private Personal Use Only त्रयोविंशः सर्ग: [ ४४१ ] Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशा सर्गः जिनेन्द्रचक्रायुधकेशवानां महर्षिविद्याधरचारणानाम् । हलेशवागीशपुरन्दराणां बद्धानि नानाचरितानि यानि ॥९॥ गन्धर्वगीतश्रुतितालवंशमृदङ्गवीणापणवादिभित्रैः । लास्यप्रयोगेष्वथ ताण्डवेषु स्वायोज्य चित्रं ननृतुस्तरुण्यः ॥ १० ॥ कुर्वद्धिरन्यैश्च कथोपदेशान्स्तोत्रैश्च देवानपरैः स्तुवद्भिः। प्रदीपभासा बरधर्म'पुस्तान्सवाचयद्भिश्च सुकण्ठरागैः ॥ ११ ॥ कुदृष्टिपक्षं क्षपयझिरन्यैरुद्भासयभिः समयंस्त्वमन्यैः । तपस्विवयँर्वरधर्मकायौता त्रियामा निरपेतनिद्रैः ॥ १२॥ श्री एक हजार आठ तीर्थंकरों, सर्वज्ञके ज्ञानको धारण करनेवाले वागीशों ( गणधरों), चक्रवतियों, नारायणों, तपोधन मुनियों, अलौकिक विद्याओं के स्वामी विद्याधरों, चारण ऋद्धिधारी साधुओं, हलधरों ( बलभद्रों) तथा इन्द्रोंके जिन उदार चरित्रोंका पुराणोंमें वर्णन पाया जाता है ।। ९॥ उन सबको गन्धर्वोके गीतों, श्रुति, ताल, वाँसुरी, मृदंग, वीणा, पणव, आदि वाजोंके द्वारा गा बजा कर तथा अभिनयपूर्वक हाव-भावका प्रदर्शन करती हुई सुन्दरी तरुणियाँ भाँति-भांतिके ताण्डवों ( शारीरिक चेष्टाओं द्वारा कथानकका अभिनय कर देना ) में घटाकर ऐसा नृत्य करती थीं जिसे देख कर मन मुग्ध हो जाता था ।। १० ॥ बहुमुखी भक्ति कुछ लोगोंने दूसरे जिज्ञासुओंको धर्मोपदेश देकर, दूसरोंने भाव तथा भक्तिके पूरसे आप्लावित श्रुति सुखद स्तोत्रोंके A द्वारा सच्चे देवोंकी स्तुति करके, अन्य लोगोंने जगमगाते हुए, विमल दीपोंके प्रकाशमें बैठकर मधुर कण्ठसे शास्त्रोंका पाठ करते हुए ॥ ११ ॥ ___ ऐसे भी सज्जन थे जिन्होंने मिथ्यादृष्टिको उखाड़ फेकनेका प्रयत्न करते हुए, दूसरोंका यही प्रयत्न चलता रहा थ कि किसी प्रकार संयम में अमल तथा दृढ़ हों। तथा जिन लोगोंका तपयोग लगानेका अभ्यास था उन्होंने भी उत्तम समाधिको लगाते हुए ही सारी रात्रिको व्यतीत कर दिया था। उस दिन रातभर किसीने निद्रा क्या, पलक भी न झपने दिया था॥ १२ ॥ [४.२] ।। १. म धर्महस्तान् । २. [ समयं स्वमन्यः]। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग त्रयोविंशः चरितम् सर्गः प्रदीपचन्द्रग्रहतारकाणां प्रभासु पाण्डुत्वमुपागतासु । भेर्यः सशङ्खाश्च समर्दलाश्च प्रणेदुरम्भोनिधिमन्द्रघोषाः ॥ १३ ॥ एवं प्रकारेण कथान्तरेण तस्यां रजन्यामपविQतायाम् । अथोदयो भानुहिरण्यकुम्भान्भक्त्या जिने बिभ्रदिवाभ्यराजत् ॥ १४ ॥ चणश्च पुष्वैरपि तण्डुलैश्च दशार्धवर्णबलिकर्मयोग्यैः । नानाकृतींस्तत्र बलोन्विधिज्ञा भूमिप्रदेशे रचयांबभूवुः ॥ १५ ॥ उपर्युपर्युच्छ्रितचित्रकूट मणिप्रभालङ्कृतसत्कवाटम् । प्रयत्नसंधितवृक्षवाट रराज भूयो नरराजवेश्म ॥ १६ ॥ रात्रि में जिनकी निर्मल कान्ति तथा प्रकाश अन्धकारको नष्ट कर रहे थे उन्हीं चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारका तथा प्रज्वलित दीपकोंकी प्रभाके पीले पड़ जाने पर प्रातःकालीन मंगलकी सूचना देनेके लिए जलधरोंकी गर्जनाके सदृश मन्द ध्वनि करते हए भेरियों, शंखों तथा मर्दलोंके साथ अनेक बाजे बजने लगे थे ।। १३ ।। उक्त प्रकारके धार्मिक व्यासंग तथा अन्य इसी प्रकारकी कथाओं आदिको करते हुए ही उत्सवकी वह प्रथम रात्रि न जाने कब बीत गयी थी। प्रातःकालीन पूजा उषाकालमें लालवर्ण सूर्यबिम्ब उदयाचलपर उठ आया था तो ऐसा प्रतीत होता था कि जिनेन्द्र प्रभुको प्रगाढ़ भक्तिसे प्रेरित होकर सूर्य ही स्वर्णका कलश होकर सेवामें उपस्थित हुए हैं ॥ १४ ॥ जो लोग चौक पूरने तथा प्रातःकालीन पूजाकी विधिके विशेषज्ञ थे उन्होंने भाँति-भांतिके शुद्ध सुगन्धित चूर्णो, पुष्पों, अक्षतों तथा चौक पूरने आदिमें सर्वथा उपयुक्त ( दशके आधे ) पाँच प्रकार शुद्ध रंगोंको लेकर मन्दिरके आगेको भूमिपर भी नाना प्रकार तथा आकारके चौक पूर कर प्रातःकालीन अर्घ्य ( रंगोली ) चढ़ाये थे ॥ १५ ॥ जिनालय-वास . पूजाके दिनोंमें मन्दिरमें रहना आवश्यक था अतएव बड़े यत्न और परिश्रमके द्वारा लगाये गये सुन्दर वृक्षोंकी कतारोंके मध्यमें मनुष्योंके अधिपतिका एक विरामगृह था, जिसके समस्त शिखर ऊपर, ऊपर ही उठते गये थे। उसके सुन्दर दृढ़ कपाटों पर अनेक भाँतिके मणि लगे हुए थे, उनसे छिटकती हुई प्रभाके कारण कपाटोंकी शोभा अत्यन्त मोहक हो गयी थी ॥ १६ ।। SHURARIANDER TERRIBETASEERIALIRAMRITIRLINEERI [४४३] १. म अथोदये। Jain Education international Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग त्रयोविंश चरितम् सर्गः R RRRAHAMIRSIOराम तस्मिन्पृथुश्रीमति राजगेहे पुरोहितेनातिहितेन राज्ञः । द्रव्यं जिनानां स्नपनक्रियाथं संभारयां बुद्धिमता प्रचक्रे ॥ १७॥ आपः पयः पुष्पफलानि गन्धा यवाज्यसिद्धार्थकतण्डुलाश्च । लाजाक्षताः कृष्णतिलाः सदर्भा अाणि दध्ना रचितानि तत्र ॥ १८॥ आपो हि शान्त्यर्थमुदाहरन्ति आप्यायनायं हि पयो वदन्ति । कार्यस्य सिद्धि प्रवदन्ति दना दुग्धात्पवित्रं परमित्युशन्ति ॥ १९॥ दीर्घायुराप्नोति च तण्डुलेन सिद्धार्थका विघ्नविनाशकार्थाः। तिलविवृद्धि प्रवदन्ति नृणामारोग्यतां याति तथाक्षतैस्तु ॥ २०॥ यवैः शुभं वर्णवपुर्घतेन फलैस्तु लोकद्वयभोगसिद्धिः । गन्धास्तु सौभाग्यकरा नराणां लाजैश्च पुष्पैरपि सौमनस्यम् ॥ २१ ॥ सब प्रकारको सम्पत्तिसे परिपूर्ण तथा विशाल शोभाके भण्डार उस राजगृहमें सम्राटके पुरोहित पूजा कार्यों में ही लगे रहते थे अतएव उनके द्वारा ही जिनेन्द्रदेवकी पूजाके लिये आवश्यक अष्टद्रव्य तथा अभिषेकमें उपयोगी समस्त साज समारम्भ महाराजके लिए बड़ी बुद्धिमत्ताके साथ तैयार कराया गया था ।। १७ ।। जल, चन्दन, तण्डुल, पुष्प, फल, जौ, सरसों, अक्षत, कृष्णतिल, लावा, दूध, दही, घी, सुन्दर दूब, कुश, सुगन्धित द्रव्य, आदि अयं और अभिषेकमें आवश्यक सब सामग्री तथा उपकरण बहाँपर सजे रखे थे ।। १८ ।। द्रव्योंका विशेष फल जन्म-जरा-मृत्यु आदिको शान्तिके लिए जल चढ़ाते हैं, विषय वासनाओंको सर्वथा मिटानेके लिये पय ( दूध ) से पूजा करते हैं, दधिके द्वारा पूजा करनेसे कार्यसिद्धि होती है, दूधसे पूजा करनेसे परम पवित्र धाम ( मोक्ष ) में निवास प्राप्त होता है ।। १९ ।। शुद्ध तण्डुलोंसे जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी उपासना करनेका फल दीर्घ आयु होती है, सिद्धार्थक (पीले सरसों) की बलि ! प्रभुके समक्ष समर्पित करनेका अवश्यम्भावी परिणाम यही होता है कि इष्टशिष्ट कार्यों में किसी भी रूपमें विघ्नबाधा नहीं आती है। जो पुरुष तिलोंकी बलिका भक्तिभावसे उपहार करते हैं वे संसारमें सब हो दृष्टियोंसे वृद्धिको प्राप्त करते हैं ॥ २०॥ [४४४] शुद्ध तथा अखण्डित अक्षतोंको पूजाका परिपाक होनेसे मनुष्य निरोग होता है । यवके उपहारका अटल फल सब दृष्टियोंसे कल्याण है, घृतके उपहारका परिणाम सुरूप और स्वस्थ शरीर होता है, भक्तिभावपूर्वक फलोंके चढ़ानेसे इस लोकमें ॥ ही नहीं अपितु परलोकमें भी इच्छानुसार परिपूर्ण भोग प्राप्त होते हैं। सुनन्धमय पदार्थों की अंजलि करनेसे प्राणी अपने तथा For Privale & Personal Use Only EDITEDAAR Jain Education international Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग त्रयोविंशः सर्गः चरितम् सौवर्णरौप्यामलताम्रकांस्यादिन्द्रादिदिक्ष' प्रणिधानयोग्यान । विभागवित्तं तु यथानुसंख्यं पात्रप्रकारानचयांबभूवुः ॥ २२ ॥ 'सनादकाकाञ्चनका घटाश्च भृङ्गारिकापालिकवर्तकानि । शङ्खादिनानाकृतिभाजनानि प्रापूय यन्त्राणि हरिन्मयानि ॥ २३ ॥ नदीजलं प्रश्रयणोदकं च कौप्यं च वाप्युद्भवसारसं च । तडागतीर्थोद्भवपुण्यतोयं पुरोधसा संजगृहे यथावत् ॥ २४ ॥ पयोदधिक्षीरघृतादिपूर्णा फलानपुष्पस्तबकापिधाना। घटावली दामनिबद्धकण्ठा सुवर्णकारैलिखिता रराज ॥ २५ ॥ मायामामाच्यIAGREZARRETAI परायोंको स्नेहभाजन होता है। उसे देखकर ही लोग आह्लादित होते हैं ! लावा तथा फूलोंके उपहारका परिणाम जब उदयमें आता है तो प्राणोका हृदय तथा बुद्धि निर्मल और स्थिर होते हैं ।। २१ ।। दिक्पाल पूजा दूसरे प्रतिष्ठाचार्य जिन्हें दिशाओंके अधिपतियों ( दिक्पालों ) तथा उनके प्रिय अतएव योग्य पात्रोंकी धातु, आदिके विवरणका विशेष ज्ञान था उन लोगोंने ही इन्द्रकूट जिनालयके पूजा मंडपमें शुद्ध सोने, चाँदी, निर्मल ताम्बे, कांसे, आदिके पात्र बनवा कर इन्द्र आदिके पदका ध्यान रखते हुए; संख्या और क्रमके परे विचारके अनुकूल स्थापित करवाये थे ।। २२ ॥ अभिषेक मण्डपमें बड़ी-बड़ी नादें, सोनेके शंख, आदिके सदृश अनेक आकार और प्रकारोंमें बने हुए कलश, झारियाँ, पालिकाएँ (थालीसे गोल घड़े ) आवर्तक (घुमावदार पात्र ) आदि पात्र तथा सोनेसे ही बने अनेक यन्त्र रखे हुए थे ॥ २३ ॥ इनमें नदियोंके पवित्र जल, झरनोंके धातुओंके रसमय जल, कूपोंके नीर, बावड़ियोंसे भरा गया जल, जलाशयोंके नीर, तालाबोंका जल तथा तीर्थस्थानोंके परम पवित्र जलको पुरोहितने विधिपूर्वक ला कर भर दिया था ।। २४ ॥ अभिषेक सज्जा सोने-चाँदी आदिके कितने हो कलश दूध, दही, पय ( विशिष्ट पानी ), घी आदि अभिषेकमें उपयोगी द्रवोंसे भरे रखे हुए थे, यह सब कलश मुखपर रखे हुए श्रीफल आदि फलों, फूलोंके गुच्छों तथा पत्तोंसे ढके हुए थे। प्रत्येक कलशके गलेमें 4 मालाएँ लटक रही थीं। इस सब शोभाके अतिरिक्त सुवर्णकारोंके द्वारा इनपर खोदी गयी चित्रकारीकी शोभाका तो वर्णन [४५] करना ही कठिन था ॥ २५ ।। 1 १. म ताम्रकस्स्यादिन्द्रादि, [ ताम्रकास्यानिन्द्रादि° ]। २. क प्रणिदान। ३. सनादता। ४. म पुटाश्च । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् त्रयोविंशः सर्गः अष्टोत्तराः शीतजलैः प्रपूर्णाः सहस्रमात्राः कलशा विशालाः । पद्मोत्पलोत्फुल्लपिधानवक्रा जिनेन्द्रबिम्बस्नपनैककार्याः ॥ २६ ॥ चतुःप्रकारा ह्य पमानिकाख्या हारिद्रगन्धोदनसत्कृताश्च । निर्वतितास्राः परिधाप्य सूत्रं दूर्वाङ्करानै रचिताः शिरस्सु ॥ २७ ॥ सुदर्शनीयाः फलजातयश्च क्षीरद्रुमाणां च कषायवर्गाः । मनः शिलाहिबलकुङ्कमाद्या वर्णप्रकाराश्च सुसंगृहीताः ॥२८॥ गोशीर्षसंज्ञं वरचन्दनं च गन्धान्सुगन्धीन्विविधप्रकारान् । पथग्विधान् धूपवरानथान्यान्पूजाविधिज्ञी विदधौ पुरोधाः ॥ २९ ॥ विचित्रवर्णान्वरवासचन्दशार्धवर्णाश्च चरूननेकान्। माल्यं च संघातिमकादिरम्य विपञ्चया:२ पञ्चविधा बभूवः ॥ ३०॥ (आठ अधिक एक हजार अर्थात् ) एक हजार आठ बड़े-बड़े कलश शीतल जलसे भर कर रखे गये थे। उनके मुख विकसित कमलों, नीले कमलों आदिसे ढके हुए थे। श्री जिनेन्द्रदेवके महाभिषेकके समय ही यह कलश काममें लाये जाते थे ॥ २६ ॥ चार प्रकारकी उपमानिकाओं ( मिट्टीके घड़े जो कि पूजा आदि धार्मिक काममें आते हैं ) को हल्दी, सुगन्ध द्रव्य तथा ओदन आदिसे संस्कृत किया था। उनपर मालाएँ भी बाँधी गयी थीं। तथा दूवाको रखकर कच्चे तागेसे बांधकर उनको तैयार करके किनारोंपर रख दिया था। सब जातिके शिष्ट फल एकत्रित किये गये थे जिन्हें देखकर आँखें तृप्त हो। जाती थीं ।। २७॥ दूधयुक्त वृक्षोंके फल-पनस, आदि भी लाये गये थे तथा आँवला आदि कसैले फलोंकी भी कमी न थी। मनःसिला । (मैनसिल एक प्रकारकी गेरू ) ईगु ( हिंगुल ) कुंकुम, आदि रंगोंकी सब जातियाँ वहाँपर संचित की गयी थीं ॥ २८ ॥ सुगन्धित द्रव्य जिनमें उत्तम चन्दन, गोरोचन, आदि अग्रगण्य थे इन सब सुगन्धित पदार्थों तथा भाँति-भांतिके अन्य गन्ध द्रव्योंको, अनेक प्रकारकी; एक से एक बढ़कर धूपोंको तथा अन्य पूजाकी सामग्रीको पूजाकी विधिके विशेषज्ञ पुरोहितने प्रचुर मात्रामें संकलित किया था ।। २९ ।। भाँति-भाँतिके सुगन्धित चूर्णोका भी संचय किया गया था, इनके रंग भी बड़े विचित्र थे। विविध प्रकारके नैवेद्य अनेक रंगों और आकारोंसे युक्त करके बनाये गये थे । संघातिक (विशेष रंग-विरंगी माला ) आदि सुन्दर मालाओंके ढेर लगे हुए थे। १. म चरीननेकान् । २. [ विपञ्चिकाः] । Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशः सर्गः ततो नपेण प्रतिचोद्यमाना वृद्धाः करामापितवेत्रवण्डाः । इतोऽमुतस्ते त्वरया विचेरुस्त्वरध्वमित्येवमुवाहरन्तः ॥ ३१ ॥ स्नानानुलिप्तास्तनुशुक्लवस्त्राः कण्ठावसक्तामललोलमाला। ते ब्रह्मचर्यव्रतपूतगात्रा बभ्रुर्बलोंस्तान्बलिनो युवानः ॥ ३२ ॥ तेषां बलीनां ज्वलनान्पुरस्थान' कृतोपवासाः शुचिशक्लवस्त्राः । दृढव्रताः श्रावकपुण्डरीका मौलि यथा मौलवलिं दधार ॥३३॥ प्रदीपमालामणिमण्डितानां मालाकलापैः परिमण्डितानाम् । विभासतामष्टशतैबलीनां पेतुः पुरस्त्रीनयनोत्पलानि ॥ ३४ ॥ तथा पांचों प्रकारको विपञ्जिका ( हवन सामग्री ) भी प्रचुर मात्रामें तैयार थो ।। ३० ।। उक्त क्रमसे समस्त सामग्री प्रस्तुत हो जानेपर सम्राट वरांगराजने अपने वृद्ध प्रतीहारोंको चलनेका आदेश दिया था। स्वामीका आदेश पाते ही उन्होंने हाथमें बेतका डंडा उठा लिया था ओर तत्परताके साथ इधर-उधर दौड़ते फिरते हुए पूजाकर्ममें नियुक्त सब लोगोंको कहते जाते थे 'शीघ्रता करो, सम्राट तैयार हैं' ॥ ३१ ॥ सामग्रीको मन्दिर यात्रा प्रतीहारका संकेत पाते ही पूजा सामग्री ले जानेके लिए नियुक्त युवक लोगोंने समस्त सामग्रीको उठा लिया था। उन सब बलवान् युवकोंने पवित्र लेप करके खब स्नान किया था, इसके उपरान्त शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके गले में हिलती डुलती हुई चंचल मालाएँ पड़ी थी तथा उन दिनों परिपूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करनेके कारण उनके शरीर अत्यन्त पवित्र थे॥ ३२॥ इन युवकोंके द्वारा उठायी गयी पूजा सामग्रो इतनो शुद्ध और स्वच्छ थी कि उसकी प्रभासे सारा वातावरण आलोकित हो रहा था। इन युवकोंके आगे प्रधान श्रावक लोग सर्वोत्तम पूजन सामग्रीको मुकुटके ही समान अपने शिरोंपर रखकर लिये जा रहे थे। इन श्रावकोंने पहिलेसे उपवास कर रखा था, शुद्ध धवल वस्त्र धारण कर रखे थे तथा पूजाके समय पालन करने योग्य सब ही व्रतोंको दृढ़तासे निभा रहे थे॥ ३३ ॥ ___ समस्त पूजन सामग्रीके आस-पास मणि तथा दोपोंको आवलियां सजायो गयी थीं, वे सब ओरसे सुन्दर सुगन्धित मालाओंसे वेष्टित थीं तथा उनकी छटा अद्भत ही थी। इस विधिकी एक सौ आठ प्रमाण पूजन सामग्री जब राजसदनसे मन्दिर ले जायी रही थी, तब नगरकी कुलबधुएँ बड़ी उत्सुकतापूर्वक उसे देख रही थीं ।। ३४ ।। ४७ १. [ ज्वलतां पुरस्तात् । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् व्याधूयमानानि विलासिनीभिर्धन्दानि तान्युत्तमचामराणाम् । उत्पश्यतां तत्र समागतानां समुत्पतद्धंसनिभान्यभवन् ॥ ३५॥ प्रोतैश्च सूत्रैर्मणिभिर्महाघैः प्रान्ते निबद्धा विलसद्वितानाः । समुच्छ्रिताः काञ्चनदण्डतुजा गङ्गातरजा इव ते विरेजुः ॥ ३६॥ हंसांसकुन्दच्छदपाण्डुराणि वैडूर्यदण्डानि मनोहराणि ।। सकिङ्किणीकानि सदा महानि छत्राणि रेजुर्युवभिघृतानि ॥ ३७॥ भुङ्का रिकादर्शनपालका द्यान्समुल्लसच्चित्रपटान्सपुष्पान् । हस्तेषु धृत्वा विविधप्रकारांस्तेषां पुरस्ताल्ललना निरीयुः ॥ ३८॥ चाचा -म त्रयोविंशः सर्गः म चमर-धारिणी ललनाए पवित्र वेशभूषा युक्त शिष्ट सुन्दरियाँ पूजन-सामग्रोके आसपास चमर हिलाती जाती थीं। वे सबके सब चमर भी उत्तम प्रकारके धवल चमर थे। अतएव देखनेके लिए मार्गके दोनों ओर एकत्रित हुए विशाल जन समूहको ऐसा अनुभव होता था मानों सामग्रीके आसपास हंस ही उड़ रहे हैं ॥ ३५ ॥ महा मूल्यवान मणियोंको सूतमें पिरो कर झालर बनायी थी और उसे चमरोंके अन्तिम भागमें लगा दिया था। चमरोंको डंडिया स्वच्छ सोनेसे बनी थी। ऐसे लम्बो डंडीयुक्त चमरोंको जब यवक ढोरते थे तो वे गंगाकी लहरोंके समान शोभित होते थे। सामग्रीके ऊपर युवक लोग पवित्र छत्र लगाये थे ।। ३६ ।। इन छत्रोंके बड़े-बड़े मनोहर डंडे वैडूर्य मणियोंके बने थे, इनके ऊपर मड़ा हुआ वस्त्र हंसके पंखों अथवा कुन्द ( जुही या कनैर) पुष्पकी पंखुड़ियोंके समान अत्यन्त धवल था तथा चारों ओर मधुर शब्द करती हुई छोटी-छोटी घंटियों बंधी हुई थीं ॥ ३७॥ भंगारिक (झारी), दर्शन ( दर्पग), पालक (पंखा) आदि अष्टमंगल द्रव्य तथा अत्यन्त शोभाके भंडार माला आदिसे सुसज्जित चित्रों और चित्रपटोंको हाथोंमें लेकर सबके आगे-आगे कुलीन कुमारियां चल रही थीं। इन वस्तुओंके समस्त आकार और प्रकारोंका वर्णन करना अतीव कठिन था ॥ ३८ ॥ १. [ महान्ति ] | २. [ भृङ्गारिका]। ३. क पालिकाद्यान् । ४. म सपट्टान् । मRSALARSHIRIDIHEDIA [४४८] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग त्रयोविंशः सर्गः परितम् HAREiterarianRRRR R चक्रासिनाराचवराङ्कशानां युग्मानि च स्वस्तिकबन्धनानि । श्रीमङ्गलार्थानि विभूतिमन्ति कान्ताकराग्रावधृतानि रेजुः ॥ ३९॥ तासामथाने तडिदप्रभासां रूपश्रिया हप्सरसा समानाः । सुगन्धिरक्तोत्पलवर्णपूरांस्तान्वर्णपूरानबलाः प्रणिन्युः ॥ ४० ।। पुण्याम्बुपूर्णान्विहितान'योजैरष्टाधिकांस्तत्र सहस्रमात्रान् । प्रस्पर्धयेवातिविलासवन्त्यो जहस्तरुण्यो वररुक्मकुम्भान् ॥४१॥ हसन्ति ये स्वाकृतिमत्तया च विलासिनीनां स्तनकुटमलानि । समृन्मयांस्तान्कलशाननेकान् जग्राह तोयैवनितासहस्रम् ॥ ४२ ॥ कन्याः स्मरास्त्रागतलक्ष्यभूताः प्रोद्भिद्यमानाः स्तनकुटमलिन्यः। शरावसंवधितवल्लरीभिः पिघाय माङ्गल्यघटान्प्रणिन्युः ॥ ४३ ॥ RMIRETARIANDER- R चक्रों, खड्गों, धनुषों तथा श्रेष्ठ अंकुशोंकी जोड़ियाँ, तथा स्वस्तिकोंकी मालाओं आदिको व्रतधारिणी स्त्रियां ही अपने हाथोंसे उठाकर ले जा रही थीं। इनकी विभूति अपार थी। इनकी उपयोगिता भी केवल शोभा और शकुन ही थे। इन चक्र, आदि मंगल द्रव्योंको ले जानेवाली स्त्रियोंकी कान्ति बिजलोके समान चमक रही थी ।। ३९ ।। इनके भी आगे-आगे जो देवियां चल रही थीं वे तीव्र सुगंधयुक्त तथा लाल कमलके समान गाढ़े और मनोहर रंगयुक्त। रंगोंकी सामग्रीको ले जा रही थीं। ये देवियाँ इतनो अधिक लावण्यवती थीं कि उनके सौन्दर्यकी तुलना अप्सराओंसे ही हो सकती थी ।। ४० ।। सबसे उत्तम श्रेणीके सोनेसे निर्मित एक हजार आठ कलशोंको जो कि पवित्र निर्मल जलसे भरे हुए थे तथा विकसित कमलोंसे ढके हुए थे। ऐसा प्रतीत होता था कि उन्हें स्प से ही प्रेरित होकर ही कुलोन तरुणियोंने उठा लिया था और जिनालयको ले जा रही थीं। सोनेके कलशोंके अतिरिक्त अनेक मिट्टीके घड़े भी पवित्र जलसे भर कर रखे गये थे ॥ ४१ ।। कलश यात्रा इन सब सुन्दर सज्जित कलशोंको भो हजारों स्त्रियाँ उठाकर लिये जा रही थीं। ये कलश ऐसे प्रतीत होते थे कि अपने सुभग आकारसे विलासिनी कुलबधुओंके स्तनरूपी कलियोंकी हँसी ही उड़ाते थे ।। ४२॥ ऐसी किशोरियाँ जो कि कामदेवके बहुत दूर तक भेदनेवाले आयुधोंका लक्ष्य बन चुकी थीं तथा जिनके सुकुमार स्तनरूपी कलियां उठ ही रही थीं वे छोटे-छोटे शरावों ( गमलों ) में लगी हुई सुन्दर लताओंके द्वारा ढके हुए मांगलिक कलशोंको १. क विहितान्ययोजः।। 400 For Privale & Personal use only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः मृगेन्द्रपद्मोक्षरथाङ्गवस्त्राः सुपर्णनागेन्द्रमहेन्द्रकेतून् । ऊढ़वा' चलत्कुण्डलहारयष्टीन् भ्राजिष्णुदेहाः पुरुषाः प्रजग्मुः ॥ ४४ ॥ स स्नापकः स्नातविलिप्तगात्रो यक्षः सदक्षः स्नपने प्रवीणः । भनारकं हेममयं विचित्रं वहन्बभौ सूर्यमिवोदयाद्रिः॥४५॥ पुष्पाणि सत्केसरधूसराणि गन्धावबद्धभ्रमरावलीभिः । सिक्तानि सच्चन्दनतोयगन्धैर्ययुः किरन्तः पुरतस्तथान्ये ॥४६॥ नटाश्च भण्डाः खल मागधाश्च विदूषकाश्चापि विडम्बकाश्च । विचित्रवेषाः परिहासयन्तः पूजाजनं तं परितः प्रशंसुः ॥ ४७॥ लेकर इन्द्रकूट जिनालय पहुँचा रही थीं ।। ४३ ।। चंचल कुंडल तथा हारोंको पहिने हुए स्वस्थ, तेजस्वी तथा बलिष्ठ शरीरधारो पुरुष भवनवासी देवोंके सुपर्णकुमार, नागकुमार तथा कल्पवासियोंके इन्द्रोंके विशाल तथा ललित केतुओंको लिए हुए जिनालयको दिशामें जा रहे थे। इन ध्वजाओंके ऊपर ( मृगोंके इन्द्र ) सिंह, कमल, वृषभ, चक्र आदिको सुन्दर तथा सजीव आकृतियाँ बनी हुई थीं ।। ४४ ।।। जिस सज्जनको श्री जिनेन्द्रदेवके स्नान में प्रधानका कार्य करना था, उसने उबटन आदि लगाकर स्वयं विधिपूर्वक स्नान किया था, उसकी सब इन्द्रियाँ पूर्ण स्वस्थ थों तथा वह यक्षदेवोंके समान ही स्थापन तथा कलशाभिषेकमें अत्यन्त कुशल था। अतएव जिस समय वह सोनेको विशाल तथा विचित्र झारोको लेकर चला था तब ऐसा लगता था कि उदयाचल पर्वत ही सूर्यके बिम्बको लेकर चल रहा है ।। ४५ ।। इनके आगे कितने ही लोग फूलोंको बिखेरते चल रहे थे। श्रेष्ठ सुन्दर परागरूपी धूलसे वे फल धूसरित हो रहे थे। । उनकी सुगन्धसे आकृष्ट होकर भौंरोंके झुण्डके झुण्ड उनपर टूट रहे थे । तथा वे सब फूल मुरझानेसे बचानेके लिए उत्तम चन्दन मिश्रित जलसे सींचे गये थे ।। ४६ ॥ जलयात्राके विविध रूप नट लोग, भीड़ लोग, तथा अनेक जातियोंके भोजक, परिहासकुशल विदूषक तथा विडम्बकों (नकल उतारनेवाले ) ने 4 [४५०] अपना वेशभूषा ही ऐसा बना रखा था कि उसे देखकर तथा उनकी बातोंको सूनकर हो हंसी आती थी। इस विधि से अद्भुत शैली से लोगोंका मनोरंजन करते हुए सब दृष्टियोसे जिन पूजाको प्रशंसा करते चले जा रहे थे ।। ४७ ।। १. [ °वक्त्राः ]। २. म ऊर्वा । ३. म सस्नापकाः। ४. [ पूजार्चनं ] । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः मदभेरीरवमर्दलास्य' मन्द्रो ध्वनिस्तत्र नणां श्रवस्सु । विवर्धमानस्य हि सर्वसन्ध्यो महार्णवस्येव रवो बभूव ।। ४८ ॥ सिता बलाकाश्रयमादधानाः काश्चिच्च सन्ध्यारुणिताम्बराभाः। नीलाश्च पीता हरिताश्च काश्चिदशार्धवर्णा विबभुः पताकाः ॥ ४९ ॥ पराय॑नानामणिमिश्रितानि समुल्लसत्काञ्चनदामकानि । विलम्बिमुक्तातरलाञ्चितानि वीथोष रेजुर्वरतोरणानि ॥ ५० ॥ तीर्थाम्बपूर्णाः स्वविभाकरालाः कण्ठावसक्तोज्ज्वलचारुमालाः। पद्मापिधानास्तपनीयकुम्भा रेजुः प्रतिद्वारमुदग्धरूपाः ॥ ५१ ॥ स्वभावनिर्वतितभूतियुक्तं जिनेन्द्रपूजाद्विगुणीकृतार्थम् । ततस्तदानर्तपुरं क्षणेन वस्वोकसारश्रियमद्वभार ।। ५२॥ रामचUAGERRARAIGARH मदंग, भेरी आदि बाजोंकी जोरकी आवाज दर्शनाथियोंके कानोंसे टकरा रहो थी। इन सबमें मर्दल ( बड़े नगाड़े) का मोटी तथा दरतक सुनायो देनेवाली ध्वनि प्रधान थी। सब बाजोंको मिली हुई ध्वनिको सुनकर लोगोंके मनमें अमावस्या तथा पूर्णिमाके दिन आये ज्वार भाटेके कारण उमड़ते हुए कुपित समुद्रके रोरकी आशंका उत्पन्न हो जाती थी॥ ४८॥ कुछ पताकाओंके कपड़ेकी शोभा सारसोंकी पंक्तिके समान अत्यन्त धवल थी, कितनी ही पताकाओंके लहराते हुए वस्त्रको देखकर सन्ध्याके रंगसे रक्त मेघोंका धोखा हो जाता था। अन्य अनेक पताकाएँ नीले, पीले तथा हरे रंगोंकी थीं ॥ ४९॥ कुछ पंचरंगी भी थी जिनकी शोभा देखते ही बनती थी। गली, गली में तथा उनके मोड़ोंपर सुन्दर तोरण बनाये गये 1 थे। उनपर चमचमाते हुए निर्मल सोनेकी बन्दनवारें और मालाएँ लटक रही थीं, जिनके बीच, बीचमें बहुमूल्य मणिमुक्ता पिरोये गये थे। मोतियोंको लड़ियाँ भी तोरणोंमें लटक रही थीं जो कि हवाके झोकोंसे चंचल होनेपर अद्भुत छटा उपस्थित कर देती थीं ॥५०॥ नगरके प्रत्येक गृहके द्वारपर सोनेके बड़े-बड़े घड़े कलश, तीर्थोंका पानी भर कर रखे गये थे। उन कलशोंकी छटा बड़ी प्रखर और प्रकाशमय थी, उनके गले में सुन्दर सुगन्धित मालाएँ लपटी हुई थी तथा वे सबके सब विकसित कमलोसे ढके हुए थे। । इस सजावटके कारण उनकी शोभा अति अधिक बढ़ गयी थी। ५१ ।। सम्राट वरांगके द्वारा स्थापित आनतपूरका निवेश प्रारम्भमें ही ऐसी सुन्दर वास्तु शैलीके अनुसार हुआ था कि वह सहज ही सुसज्जित नगरोंसे अधिक सुन्दर दिखता था, उसपर भी जब जिनेन्द्रमहकी तैयारी हुई तो उसको शोभा दुगुनी हो गयी १.[मर्दलस्य ]। २. [ प्रतिद्वारमुदन]। ३. म स्वभार। ४. [वस्वेक ]। माया सामानामन्यमान [४५१] Jain Education international Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग त्रयोविंशः सर्गः चरितम् चलत्पताका निपतबलाका जनोदका चामलहंसमाला । वितानकोमिलिफेनराशिः पजामहापुण्यनदी ससार ॥ ५३॥ नरेन्द्रगेहाज्जिनदेवगेहं तदोत्तद्धिश्च शनैः प्रयान्ती। पूजोद्गतानां विरराज पङ्क्तिः तारागणानां नभसीव पङिक्तः ॥ ५४॥ द्विषत्स्वसूयां प्रमदास्वनङ्गं घनानि दीनेष मुदं निजेषु । 'ददन्कटान्तभ्रमरप्रतानं राजाधिरूढः करिणं जगाम ॥ ५५ ॥ पौराङ्गनाभिः कृतभूषणाभिर्वद्धनरैः पोष्यजनैः परीताः। नरेन्द्रपत्नीशिबिकाः प्रयाता गन्त प्रवृत्ता इव सौधमालाः ॥५६॥ थी। उसके विभव और शोभाको देखकर ऐसा लगता था कि उसने सम्पत्तिके एकमात्र अधिपति ( कुबेर ) की लक्ष्मीके सारको ही प्राप्त कर लिया था। ५२ ॥ जलयात्रा-सरिता रूपक पूजारूपी पवित्र नदी ही उस नगरके मार्गपर उमड़ती चली जा रही थी। मन्दिरको ओर जाते हुए लोगोंकी भीड़ उस नदीकी जलराशि थी, ऊपर उठाये गये धवल छत्र ही उसको लहरें थे, पूजन अभिषेक सामग्रो फेन थी, लहराती हुई ऊँचीऊँची पताकाओंने उड़ कर झपट्टा मारते हुए सारसोंके झंडका स्थान ग्रहण किया था तथा दुरते हुए चंचल चमर ऐसे प्रतीत होते थे मानो हंसोंकी पंक्तियाँ ही उड़ रही हैं ।। ५३ ।। पूजा करने और देखनेके लिए सम्राटके राजभवनसे निकल कर इन्द्रकूट जिनालय तक पहुंची हुई धार्मिक श्रावकोंकी विभव और कान्तिसे शोभायमान पंक्ति धीरे-धीरे चलती हुई ऐसी लगती थी, जैसी कि निर्मल आकाशमें चमकते हुए असंख्य तारोंकी पंक्ति शोभित होती है ।। ५४ ॥ सम्राटके चढ़नेके लिए लाये गये हाथोके गण्डस्थलसे मदजल बह रहा था अतएव उन्हें ( गण्डस्थलोंको) भौरोंके झुंडने घेर रखा था। ऐसे हाथोपर जब श्री वरांगराज जिनालयके लिए निकले थे तब उनके आन्तरिक हर्षकी सीमा न थी। उस समय उन्होंने दीनोंको धन लुटाया था, अपने सौन्दर्यके कारण यौवन मदसे उन्मत्त नायिकाओंमें उत्तेजना उत्पन्न की थी तथा युद्धवीर आदि रूपोंके साथ अपने धर्मवीर रूपोंको भी प्रकट करके शत्रुओंके मनमें असूयाका संचार किया था ।। ५५ ।। धर्म महोत्सवके अनुकूल वेशभूषासे सुसज्जित नगरको कुलीन देवियोंके साथ-साथ सम्राटकी पत्नियोंकी पालकियाँ निकलना प्रारम्भ हुई थीं। जिन्हें देख कर चलते-फिरते गहोंकी पंक्तिका भ्रम हो जाता था। इन पालकियोंके आगे पीछे तथा . [ जनोदकार्चा]। २. क दधन् । [४५२] Jain Education international Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् 1 एवं प्रभूत्या नरदेवपरन्यो नृपेण संप्राप्य जिनेन्द्र गेहम् । प्रदक्षिणीकृत्य बलि प्रविश्य परीत्य तस्थुह्यं भिषेकशालाम् ॥ ५७ ॥ सुगन्धिगन्धोदकधौतपाणिस्तुरुष्कसंधूपितधूपपाणि: पुष्पाक्षत क्षेपणदक्षपाणि: मृदङ्गगम्भीरनिनादनादं व्यालोलसच्चामरफेनमालं पूजासरस्तच्छन कैर्जगाहे ॥ ५९ ॥ आनीय लोकत्रयनाथबिम्बमास्थाय मौनव्रतमासमाप्तम् । आस्थाप्य रत्नाञ्चितपीठिकायां पूजाविधौ यत्नपरो बभूव ॥ ६० ॥ स स्नापको दर्भपवित्रपाणिः ॥ ५८ ॥ लसत्पताको रुतरङ्गरङ्गम् 1 दोनों पक्षोंमें वृद्ध पुरुष तथा अन्तःपुरमें पले-पुषे अन्य परिचारकोंके झुंड चले जा रहे थे ।। ५६ । पुजारी राजा पूर्वोक्त साज-सज्जा तथा वैभवके साथ राजपत्नियाँ सम्राटके पीछे-पोछे ही इन्द्रकूट जिनालयमें जा पहुँची थीं। वहाँ पहुँचते ही उतर कर उन सबने पहले तीन प्रदक्षिणाएं की थीं, फिर प्रवेश करके अर्घ्यं आदि सामग्री चढ़ा कर वे अभिषेकशाली की ओर चली गयी थीं । वहाँपर वेदीके चारों ओर वृत्ताकार बनाकर वे बैठ गयी थीं ॥ ५७ ॥ अभिषेक शाला में स्नपनाचार्य पहिलेसे ही सुगन्धित चन्दन मिश्रित जलसे हाथ धोये हुए, उचित मुहूर्तकी प्रतीक्षा कर रहे थे । तुखार (पुरुष्क) देशसे लायी गयी धूपको वैसान्दुर में जलाया जा रहा था उससे निकलते हुए धुएँ में डालकर उन्होंने अपने हाथों सुखा लिया था। उनके हाथ पुष्प आदि सामग्रीको विधिपूर्वक यथास्थान डालनेमें अत्यन्त अभ्यस्त थे तथा पवित्र कुशाको हाथ में लिये ही वे खड़े थे ।। ५८ ।। मुहूर्त प्रतीक्षा अभिषेकका समय निकट होनेके कारण मृदंग आदि बाजे लगातार बज रहे थे, जिनसे मन्द्र और गम्भीर नाद हो रहा था, लहराती हुई ऊँची पताकाएँ लहरोंके सदृश महोहर थीं तथा हर दिशामें दुरते हुए चमर स्वच्छ सुन्दर फेनपुंजके समान दिखते एव अभिषेक गृह पूजासर (तालाब) समान लगता था ।। ५९ ।। सम्राटके पहुँचते ही स्नापकाचार्य धीरेसे इस तालाब में उतर गये थे अर्थात् उन्होंने कार्य प्रारम्भ कर दिया था। वह तुरन्त ही जाकर तीनों लोकोंके साथ जिनेन्द्र प्रभुकी मूर्तिको ले आये थे । उसको रत्नोंसे जड़े गये महार्घं आसनपर विराजमान करके उन्होंने उपक्रमकको समाप्ति पर्यन्त मौनव्रत धारण कर लिया था । तथा मन, वचन तथा काय तीनोंको लगाकर प्रयत्नपूर्वक पूजा प्रारम्भ कर दो थी ॥ ६० ॥ त्रयोविंशः सर्गः [ ५३ ] Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् य प्रणम्य पूर्व सुसमाहितात्मा भृङ्गारवयं परिगृह्य दोर्भ्याम् । पादाभिषेकं प्रथमं विकृत्य तत्याज निर्माल्यकमुत्तरेण ॥ ६१ ॥ प्रमा हस्ताम्बुरुहद्वयेन अर्घ्यं च वामाग्रकरे निधाय । अङ्गुष्ठमार्गेण निपात्य तोयं स्वाहा जिनादिभ्य इति प्रमन्त्र्य ॥ ६२ ॥ सम्यग्विधायार्घ्यमथोत्तमा मन्त्राक्षराण्यप्युपजाप्य धीमान् । उच्चैः पठस्तोत्रवरं जिनस्य मूर्ध्नाभिषेकं मुदितः प्रचक्रे ॥ ६३ ॥ संधौत हस्तः कुसुमाक्षतानि निक्षिप्य पादाम्बुरुहे जिनस्य । तैर्वर्णपूरै रुपमा निकाभिनिपातयस्तोयघटैः सहैव ।। ६४ ।। स्वच्छाम्बु पूर्णवरहेमकुम्भैस्तैर्मृन्मयैः सत्कुसुमाकीर्णैः । घटैरनेकैरभिषिच्य नाथं तं गन्धपङ्केन विलिम्पति स्म ॥ ६५ ॥ अभिषेक प्रारम्भ अपने आत्मा तथा अन्य इन्द्रियोंको एकाग्र करके स्नापकाचार्यने सबसे पहिले साष्टांग प्रणाम किया था, तब दोनों भुजाओं से सावधानी के साथ बड़ी झारीको उठाया था। और सबसे पहिले श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवके चरणोंका अभिषेक प्रारम्भ करते हुए उत्तर दिशा की ओर पूजाकी सामग्रीका अर्ध समर्पित किया था ।। ६१ ।। दोनों हाथों रूपी कमलोंके द्वारा पहिले भगवानकी मूर्तिको भलीभाँति पोंछा था, फिर बायें हाथ की हथेलीपर अर्ध्य लेकर 'जिनादिभ्यः स्वाहा' स्पष्ट रूपसे मुख द्वारा उच्चारण करते हुए हाथके अंगूठेके सहारे वे थोड़ेसे पानीकी पतली धार गिराते जाते थे ।। ६२ ।। इतनी विधि पूर्ण कर लेनेके पश्चात् उन्होंने वीजाक्षर ( ओम् ह्रां ह्रीं, आदि ) परिपूर्ण मंत्रोंका विशुद्ध उच्चारण करते हुए श्री जिनेन्द्र बिम्बको उत्तमांग (मस्तक) पर यथाविधि रखकर अर्घ्यं चढ़ाया था। फिर ऊँचे स्वरसे स्तोत्रों का पाठ करते हुए परम प्रसन्न विवेकी स्नापकाचार्यने जिनबिम्बका मस्तकाभिषेक किया था ।। ६३ ।। इतना कार्य समाप्त करके उन्होंने फिर अपने हाथोंको धोया था। तब पुष्प और अक्षत उठाकर जिनेन्द्रदेवके चरणों में चढ़ाये थे। इसके बाद रंग-विरंगे जलोंसे परिपूर्ण उपमानिकाओंके जलकी धाराके साथ-साथ अन्य कलशोंके पवित्र जलकी धारा देना भी प्रारम्भ किया था ।। ६४ ।। निर्मल, पवित्र जल से भरे सोनेके एक हजार आठ कलशोंसे अभिषेक करनेके पश्चात् विकसित पुष्पोंसे ढके मिट्टी के घड़ों की धाराएँ जिनेन्द्रदेवके मस्तकपर छोड़ी थीं तथा और भी अनेक प्रकारके रसोंसे परिपूर्ण कलशोंसे अभिषेक कर चुकनेके बाद १. म मर्धाभिषेकं । त्रयोविंशः सर्गः [ ४५४ ] Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग त्रयोविंशः चरितम् सुगन्धिसच्चन्दनतोयसिक्ताः स्वकेशरव्याततचूर्णचाम्राः' । पर्यन्तमत्तप्रचलद्विरेफा आरोपयामास सुपुष्पमालाः ॥६६॥ सुवर्णपुष्पैविविधप्रकारे रत्नावलीभिस्तडिदुज्ज्वलाभिः । विभूषणानि प्रतिभूषयन्तों विभूषयामास तदा जिनार्चाम् ॥ ६७॥ प्रदाप्य दीपांश्च हविनिवेद्य निवेदयामास महाबलि च। स्थानं विदित्वा गहदेवताय दिशाबलीनाकरः प्रचक्रे ॥६॥ अद्भिः पवित्रीकृतहस्तपद्मः प्रदर्शयामास स दर्पणादीन् । विमुच्य मौनं ह्यभिषेचनान्ते स स्वस्तिका त्रिनिरुवाच वाचम् ॥ ६९ ॥ सर्गः आचार्यने चन्दनके उबटनसे भगवान्का लेप किया था ॥ ६५ ॥ इसके उपरान्त आचार्यने जिनबिम्बके गलेमें सुन्दर, सुगन्धित तथा अम्लान पुष्पमाला पहिना दी थी। वह माला सुगन्धित चन्दनके जलसे आई की गयी थी. अपने किंजल्कों ( जीरों) से झरे परागरूपी धूलके कारण उसका रंग धूमिल हो गया था। तथा उसकी सुगन्धसे उन्मत्त भौंरे चारों तरफ गुजार कर रहे थे ॥ ६६ ।। जिनविम्ब-शृंगार उस समय अनेक आकार और प्रकारके सोनेके पुष्पों; बिजलीके उद्योतके समान प्रखर प्रभामय रत्नोंकी मालाओं, तथा विविध आभूषणोंके समर्पणके द्वारा अर्ध्य चढ़ा कर पुजारियों और दर्शकोंने जिनपूजा (रूपी नायिका ) का ही शृंगार कर डाला था। ६७॥ चारों ओर दीपावलियाँ प्रज्वलित कर दी गयीं थीं, सब प्रकारको हवन सामग्रीका होम करनेके पश्चात् पूर्ण आहुति दी गयी थी। इसके उपरान्त आचार्यने हाथ विना सुखाये ही अर्थात् तुरन्त ही जिनालयके क्षेत्रपाल देवताओंके स्थानको निमित्त आदि ज्ञानसे जानकर उसो दिशाको लक्ष्य करके उन्हें तथा समस्त दिक्पालोंको शेषको अर्घ्य दिये थे ॥ ६८! अष्टमंगल द्रव्यार्पण इस क्रमसे अभिषेक विधानको पूर्ण करके स्नापकाचार्यने जलसे अपने हाथ धोये थे, और दर्पण, चम र आदि मंगल द्रव्यों ।। ४५५] को जिनविम्बके सामने रखकर प्रदर्शित किया था, तब उन्होंने अपने मौनको खोलकर तीन बार स्वस्तिमंत्रका वाचन किया। १. कचूम्रा, [ धूम्राः]। २.[ गृहदेवतानां ] । Jain Education international Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराङ्ग चरितम् था ।। ६९ ।। मङ्गल्यगीतस्तुतिमन्त्रयुक्तः कृताञ्जलिः साधुगणो हि तत्र । परीत्य सर्वोऽतिविशुद्धभावः सर्वज्ञबिम्बं प्रणनाम भक्त्या ॥ ७० ॥ धर्मोऽर्हतां सर्वजगद्धिताय प्रवर्धतामित्यभिघोषयन्सः । साशीर्वचस्तर्यमृदङ्गनादेः प्रवेशयां तां प्रतिमां बभूव ॥ ७१ ॥ ततो वचः काय मनोविशुद्धः प्रविश्य राजा जिनदेवगेहम् । प्रियासमेतः प्रणिपत्य भक्त्या जग्राह शेषां जिनदेवतायाः ॥ ७२ ॥ मनोरथं प्राप्य नरेन्द्रपत्नी महेन्द्रपत्नीव विराजमाना । उपोपविष्टा प्रभुनैव सार्धं मुदं परामात्मनि सा जगाम ॥ ७३ ॥ स्वस्तिवाचन के बाद ही वहाँ उपस्थित साधु एवं सज्जन हाथ जोड़े हुए मंगल, विनती, स्तोत्र तथा मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए श्री जिनेन्द्रदेवकी मूर्ति के सामने आये थे । उनके मन तथा भाव अत्यन्त शुभ और शुद्ध थे अतएव उन्होंने भक्तिसे गद्गद होकर प्रभुके चरणोंमें प्रणाम किया था ॥ ७० ॥ इसके तुरन्त बाद ही स्नापकाचार्यने धीर गम्भीर स्वरसे घोषणा की थी 'संसार भरके प्राणियोंका कल्याण करने के लिए अन्त केवली द्वारा उपदिष्ट जिनधर्मका जय हो ।' तदनन्तर आशीर्वाचन करते हुए मृदंग तूर्यं आदि बाजोंके नादके बीच ही उन्होंने जिनबिम्बको वेदिकापर विराजमान कर दिया था ॥ ७१ ॥ आशीर्वाद इस प्रकार अभिषेक समाप्त होते ही मन, वचन तथा कायसे पूर्ण शुद्ध सम्राटने अपनी रानियोंके साथ गर्भंगृहमें प्रवेश किया था। जिनबिम्बोंके सामने जाते ही उन्होंने भक्ति भावसे ओतप्रोत होकर साष्टांग प्रणाम किया था। तथा जिनेन्द्रदेव की शेषिका ( आरती होनेके बादका दीपक या वैसान्दुरके पात्र पर दोनों हाथ जोड़कर उसका धुंआ आदि लेकर आँखों और मस्तकपर लगाना) को ग्रहण किया था ।। ७२ ।। पट्टरानी अनुपमाका मनोरथ ( जिनपूजोत्सव ) उस समय पूर्ण हो रहा था अतएव मन ही मन उनको जो असीम आनन्द हो रहा था उसको वर्णन करना असम्भव है । पूजामण्डपमें सम्राट के साथ बैठी हुई पट्टरानीकी कान्ति और तेजको देख कर महेन्द्रकी पत्नी शचीका धोखा हो जाता था ॥ ७३ ॥ त्रयोविंशः सर्गः [ ४५६] Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् जिमेन्द्रसिद्धान्तविधौतबुद्धिर्वाक्कायचित्तत्रयजातशुद्धिः प्रशान्तभावाहितधर्मवृद्धिः कश्चिन्मुनिर्धर्ममवोचदित्थम् फलादमुत्र । इह प्रणिर्वतित सत्क्रियस्य जिनेन्द्र गेहस्य सर्वोद्धमत्सद्रति सौख्यवन्ति विमानवर्याणि नरा लभन्ते ॥ ७५ ॥ महामहं यः कुरुते जिनानां सौधं मुदा दृष्टि न भोगवृद्धी' ? | भुक्त्वा चिरं तं नृसुरासुराणां सुखं ततो यास्यति मोक्षसौख्यम् ॥ ७६ ॥ संस्थाप्य यत्नात्प्रतिमा जिनानां नरामराणां सुखमभ्युपैति । क्षीराभिषेकप्रमुखक्रियाभी राज्याभिषेकस्य भवेत्स भागी ॥ ७७ ॥ इसी शुभ अवसर पर किन्हीं मुनिराजने धर्मोपदेश देकर प्रभावना करनेके अभिप्रायसे निम्न व्याख्यान दिया था । जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तोंका अध्ययन करनेसे उन गुरुवरकी बुद्धि निर्मल हो गयी थी, त्रिगुप्तिका पालन करनेके कारण उनकी मानसिक, वाचनिक तथा कायिक प्रवृत्तियाँ परिशुद्ध ही हुयीं थीं तथा सदा शान्त भावोंके कारण दिन-रात उनका शुभ और शुद्ध उपयोग बढ़ रहा था ॥ ७४ ॥ I 1108 11 जिनपूजादि का फल जो प्राणी इस धरित्रोपर आदर्श जिनालय बनवाकर सत्य धर्मकी परम्पराको विच्छिन्न होनेसे बचाते हैं; बचाते ही नहीं हैं, अपितु उसका प्रसार करते हैं, वे परम धार्मिक इस संसारको छोड़नेके बाद उन उत्तम विमानोंको प्राप्त करते हैं जो कि समस्त ऋद्धियों, समोचीन प्रेम-प्रपंच तथा अनवरत सुखोंसे परिपूर्ण हैं ।। ७५ ।। तथा जो धर्म-प्रवण व्यक्ति जिनालयका निर्माण कराके आह्लाद-पूर्वक जिनेन्द्र प्रभुका महामह ( बड़ी पूजा ) कराता है तथा जिसको संसारके भोग विषयों अथवा सम्पत्ति पद आदिकी वृद्धिका मोह नहीं है वह आगामी भवों में दीर्घकाल पर्यन्त मनुष्य गति, देव तथा असुरोंके उत्तमोत्तम भोगोंका उपभोग करके अन्तमें मोक्षरूपी महासुखको ही प्राप्त करता है ॥ ७६ ॥ जिनालयों में जो केवल श्री जिनविम्बकी स्थापना ही कराते हैं वे भी मनुष्य तथा देवगतिके सुखों और अभ्युदयोंकों प्राप्त करते हैं । अभिषेक का फल तथा जो पुरुष दूध, दक्षुि रस, आदिके द्वारा जिनेन्द्रदेवका पंञ्चामृत अभिषेक कराते हैं वे स्वयं राज्य-अभिषेक आदिके अधिकारी होते हैं ॥ ७७ ॥ १. क. गुढी । २. म प्रतिषां । ५७ For Private Personal Use Only त्रयोविंश: सर्गः [ ४५७ ] Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PERSHAR त्रयोविंशः चरितम् गन्धार्चनेश्चम्पकनागगन्धान्मा ' स्वगन्धेरतिशेरते तान् । धूपप्रदानः कुलकेतवः स्युस्तेजस्विनः स्युवरदीपदानैः ॥७८॥ माल्यप्रदानविरतेश्चरेभ्यो भवन्ति हेमाङ्गदषिताङ्गाः। भवन्ति भास्वन्मकुटप्रदानात्स्फुररिकरीटोत्तमपट्टचिह्नाः ॥७९॥ शुद्धिं लभन्ते वरदर्पणेन भृङ्गारतः स्युः कमनीयरूपाः । शान्ति भजन्ते कलशप्रदानात् स्थालाद्धनेनाढयतमा भवन्ति ॥८॥ चक्रप्रदानाद्विनतारिपक्षास्तूय स्त्रिलोकप्रथितप्रणादाः विद्याधरत्वं हि वितानदानाच्छत्रप्रदानाद्विपुलं हि राज्यम् ॥ ८१॥ सर्गः A E PAIRSATGARHETAHARAPARDAR द्रव्यपूजा का फल जो मनुष्य सुगन्धित द्रव्योंके द्वारा वीतराग प्रभूकी पूजा करते हैं उनके शरीर, श्वास, पसीना आदि ऐसे सुगन्धित । होते हैं कि उसके आगे चम्पक, नागकेशर आदि प्रखर गंधमय पुष्पोंकी सुगन्ध भी मन्द पड़ जाती है धूपकी अंजलि समर्पित करने से मनुष्य अपने कुलोंमें प्रधान व्यक्ति होते हैं तथा दीपकसे अर्चना करनेका परिणाम होता है तेज युक्त भाव और देह ।। ७८ ।। मालाओंके उपहार जिन चरणोंमें देनेसे केवल विषयोंसे हो विरक्ति नहीं होती है, अपितु स्वर्णमय अंगद, आदि आभूषणोंसे देह अलंकृत रहती है। मुक्ताओं और रत्नोंसे जगमगाते मुकुट समर्पित करनेसे जीव स्वयं ही अगले भवमें प्रकाशमान मुकुट और राजचिन्ह पट्ट, आदिको प्राप्त करते हैं ।। ७९ ॥ मंगल-द्रव्य-पूजाका फल स्वच्छ सुन्दर दर्पण भेंट करनेसे पापमल शुद्ध होता है, मंगलचिन्ह चढ़ाकर जीव सुभग तथा कमनीय रूपके अधिकारी । बनते हैं, कलश चढ़ानेसे कषाय आदि दोषोंकी शान्ति होती है तथा स्थाली थाल चढ़ाकर जीव सबसे बड़े धनाढ्य होते हैं ।। ८०॥ ॥ अष्ट-मंगलों का फल धर्म-चक्र मंगल द्रव्यको चढ़ानेके प्रतापसे जीव समस्त शत्रुओंका विजेता होता है, तूर्य भेंट करनेके परिणामस्वरूप सम्यक्दृष्टी पुजारीकी कीति तीनों लोकोंमें गायो जाती है, चंदोवा चढ़ानेके ही कारण लोग अलौकिक विद्याके ज्ञानसे विभूषित १. [ माः ] । २. क तिरीटोत्तम । SIRECEIREEमराना R Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज घण्टाप्रदानान्मधुरः स्वरः स्यावदध्वजैविविचित्रैरभिवारिताज्ञः । सर्वैः प्रवन्धो जिनवन्दनेन सर्वसद्धिसूखैकभागी॥२॥ इत्येवमुक्त्वा तदनुग्रहार्थ पूजाफलं दानफलेन सार्धम् । ज्ञेयार्णवस्यान्तमितो महात्मा धर्मोपदेशाद्विरराम साधुः ॥८३ ।। ततस्तु राज्ञाधिकतः प्रगल्भोर विद्यासरित्तोयनिधिः प्रशान्तः। प्रमादहीनो गुणशीलमालः स्तुत्यर्थवादान्वितमित्थमाख्यत् ॥ ८४ ॥ त्वं नन्द वर्धस्व धनैश्च धर्मः संपन्नसस्या धरणी तवास्तु ।। वक्षस्थले ते रमतां च लक्ष्मीरहत्प्रसादान्नप जीव दीर्घम् ॥ ८५॥ त्रयोविंशः सर्गः चरितम् रियायपाnिामPERATORS विद्याधर होते हैं तथा छत्र समर्पित करनेसे उत्पन्न, पुण्यके उदय होनेपर पुजारीके राज्यका विपुल विस्तार होता है ।। ८१ ।। घंटा समर्पित करनेका परिपाक यही होता है कि श्रावकको सुस्वर प्राप्त होता है ! रंग-बिरंगी ध्वजाएं समर्पित करनेवाले श्रावकोंका शासन अलंध्य होता है तथा जो नियमसे जिनेन्द्रदेवकी वन्दना करते हैं वे सबके द्वारा पूजे ही नहीं जाते हैं; अपितु । A उन्हें सब ऋतुओं तथा ऋद्धियोंके फलोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती है ।। ८२ ।। उक्त क्रमसे उदार आशय ज्ञायक ऋषिराजने सम्राट तथा समस्त दर्शकोंका कल्याण करनेकी इच्छासे प्रेरित होकर दानके फलके साथ-साथ ही पूजाके परिणामको समझाया था। अन्त में यह कहकर कि श्रावकोंके द्वारा ज्ञेय तत्त्वोंका वर्णन एक ऐसा समुद्र है जिसका कभी अन्त ही नहीं हो सकता है अतएव उन्होंने अपना धर्मोपदेश समाप्त कर दिया था । ८३ ॥ गृहस्थाचार्य तथा याजक राजा मुनि महाराजका उपदेश समाप्त होते ही सम्राटके द्वारा नियुक्त किये गये अतएव साहसी तथा अनुभवी गृहस्थाचार्यने । सत्य बातोंसे परिपूर्ण वचनों द्वारा राजाकी प्रशंसा की थी। विविध विद्याओंरूपो नदियोंके लिए वे धर्माधिकारी उद्वेल समुद्रके समान थे, स्वभावसे बड़े शान्त थे, गुण और शील ही उनकी माला थे तथा अपने कर्तव्यको पूरा करनेमें वह कभी प्रमाद न 1 करते थे ॥ ८४ ॥ 'हे सम्राट ! आप सदा मुदित रहें, सदा आपकी वृद्धि हो, आपको धर्मवृद्धि विशेषरूपसे हो, आपके राज्यकी पृथ्वीके । कण-कणसे विपुल अन्न उत्पन्न हो, आपका विशाल वक्षस्थल लक्ष्मीका निवासस्थान हो, अर्हन्त प्रभुके चरणोंके अनुग्रहसे इतना ही नहीं अपितु आप चिरंजीवि हों ।। ८५॥ [४५९] १.[अभिधारिताज्ञाः]। २..म.प्रगल्भ्यो । .. ......... ... w Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविंशः सर्गः शास्ता भव प्रस्खलितात्मकानां पाता भव त्वं विनयान्वितानाम् । स्त्रीबालवद्धान्विभु'हित्प्रियत्वात्समातनः क्षत्रियधर्म एषः ॥८६॥ त्वं देवि राज्ञः प्रियकारिणी च स्वपुत्रपौत्रैरभिवृद्धिमेहि । शीलोपवासव्रतदानधर्मसर्वज्ञपूजाभिरता च भूयाः ॥ ८७ ॥ यदैहिकामुष्मिकसौख्यमूलं संपादितं चैत्यगृहं त्वयेदम् । यथा गमिष्यत्यतिवीर्घकालं तथा कुरुष्वेति जगाद राज्ञीम् ॥ ८८ ॥ श्रुत्वा मुनिश्रावकयोवंचांसि मनोगतं चाप्यवबुध्य देव्याः। शौर्यावधूतारिगणो नरेन्द्रः प्रीतान्तरात्मा प्रशशास सर्वान् ॥ ८९ ॥ यद्यच्च लोके रमणीयरूपमपस्करं द्रव्यमनेकभेदम् । नितितं चारु हिरण्यरूप्यैस्तत्तच्च निःशेषमदान्महीशः ॥९॥ HAMARPeawareSPIRATRATHIPATHAmAreat शुद्ध आचार-विचारसे जो व्यक्ति स्खलित हो गये हैं आप उनके कठोर नियन्त्रक हों, जो विनम्र तथा मर्यादापालक हैं आप ( कर्तव्यपालक परमप्रिय होनेके कारण ) उनकी रक्षा करें, स्त्रो, बालक तथा वृद्धोंका भरणपोषण करें। यही आदिकालसे चला आया क्षत्रियोंका धर्म है ।। ८६ ।। हे पट्टरानी ! आप सब प्रकारसे वही आचार करें जो कि सम्राटको प्रिय हैं। आपका वंश पुत्र, पौत्र, आदिके जन्मके द्वारा असीम वृद्धिको प्राप्त हो, आपको व्रतों तथा शोलके पालनको अडिग सामर्थ्य प्राप्त हा, आपकी परिणति उपवास, दान, धर्माचरण तथा श्री एकहजार आठ वीतराग प्रभुकी पूजाको दिशामें दिन-दुनी और रात चौगुनी बढ़े। आपने इस विशाल इन्द्रकूट चैत्यालयको स्थापना करायी है।। ८७ ॥ निस्सन्देह यह शुभकर्म इस लोक तथा परलोकमें प्राप्त होने योग्य समस्त सुखोंका मूल है। किन्तु हे देवि ? कुछ ऐसा आयोजन कीजिये जिसके बलपर यह जिनालय अत्यन्त दीर्घकालतक पूजा-सेवा की दृष्टि स्थायी रहे' ।। ८८ ॥ किमिच्छिक दानी सम्राटका अन्तरात्मा प्रबल प्रसन्नताके पूरसे प्लावित हो रहा था । श्रीमुनिराज तश्रा धर्माचार्य आदि गृहस्थोंके वचन सुनकर तथा पट्टरानी अनुपमा देवीपर दृष्टि डालते हो वे उनके भावोंको समझ गये थे। अपने पराक्रमसे समस्त शत्रुओंके मानमर्दक सम्राटने उसी समय वहाँ उपस्थित सब अधिकारियोंको पर्याप्त पूजा सेवा-व्यवस्था की आज्ञा दी थी ।। ८९ ।। इतना ही नहीं इस संसारमें जो जो पदार्थ सबसे अधिक आकर्षक तथा प्रिय समझे जाते हैं, वे संसारमें जितने भी प्रकार के चौकी, आदि उपकरण तथा साज सरंजामकी सामग्री है उत्तम सोने तथा चाँदीके पदार्थ बनाये गये थे उन सब पदार्थोंको देने १. [ वृद्धान्विभूहि प्रियत्वात् ]। २. म भूयात् । For Privale & Personal Use Only GUDAIसान्याचारामामामामराम) Jain Education Interational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D वराङ्ग चरितम् ६ त्रयोविंशः सर्गः अष्टोत्तरग्रामशतं वरिष्ठं दासांश्च दासीभूतकानगवादीन् । संगीतकं सान्ततिकं प्रमोदं समर्पयामास जिनालयाय ॥११॥ आहारदानं मुनिपुङ्गवेभ्यो वस्त्रान्नदानं श्रवणायिकाभ्यः । किमिच्छदानं खलु दुर्गतेभ्यो दत्वा कृतार्थो नपतिर्बभव ॥ ९२॥ अईन्मनीन्द्रागमचक्रपाणिविद्याधराणां चरितानि तानि । श्रुत्वा च दृष्ट्वा वरपट्टकेषु सनायकः संमुमदे जनौधः ।। ९३ ॥ अष्टाह्निकं शिष्टजनाभिजुष्टमन्यैर्नरेन्द्रैर्मनसाप्यचिन्त्यम् । एवंप्रकारेण नरेन्द्रवों जिनेन्द्र पूजां प्रयतो निनाय ॥ ९४ ॥ e siAHIPANTHerite-HARANPHECHHAPSH प्रारम्भ करके श्री वरांगराजने मन्दिरके लिए पूजादिमें आवश्यक चिमटीसे लेकर बड़ेसे बड़े समस्त उपकरण इस मन्दिरको दिये थे।॥९ ॥ उन्होंने इन्द्रकूट चैत्यालयका व्यय चलानेके लिए राज्यके सर्वोत्तम एक सौ आठ ग्राम, सेवा परायण दास-दासियाँ, गौ आदि पशु, संगीत मण्डली तथा कीर्तन आदिके आनन्दके कारण सान्ततिक (भोजक-भजनोपदेशक ) की मण्डलीको भी समर्पित किया था ।। ९१ ॥ इन्द्रकूट जिनालय में तपोधन महामुनियोंको विधिवत् आहारदान की व्यवस्था थी व्रती श्रावक-आर्यिकाओंको वस्त्रदान तथा आहारदान भी मिलता था। जो सब दृष्टियोंसे दीन तथा दुखी थे उन्हें किमिच्छक दान देकर आनर्तपुरेशको महान शान्ति तथा कृतकृत्यताका अनुभव हुआ था ।। ९२।। धर्ममेला उस समय विशेषरूपसे आयोजित शास्त्रसभा तथा पट्टक प्रदर्शिनियोंमें अर्हन्तकेवली, चक्रवर्ती, विद्याधर तपोधन मुनिराज तथा अन्य पौराणिक महापुरुषोंके पवित्र जीवनोंको सुनकर तथा पट्टकोंमें देखकर और विशेषरूपसे तत्वचर्चाको सुन समझकर अपनी जनताके साथ-साथ सम्राट भी परम प्रमुदित हुए थे ।। ९३ ।।। ॥ [४६१) श्री वरांगराजने बड़े प्रयत्नके साथ परम अभिनन्दनीय अष्टाह्निका पर्वको सतत जिन पूजामें मन, वचन तथा कायसे में लीन रहते हुए व्यतीत किया था। क्योंकि इन्द्रादि विशेष पुण्याधिकारी आत्मा भी इस पर्वमें उपासना करनेके लिए लालायित रहते हैं । तथा साधारणतया अन्य राजा लोग इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे ॥ ९४ ।। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् 15 समन्दरं विश्वजनाधिगम्यं समस्तलोकाभ्युदयैकहेतुम् । विशुद्धिशुद्धोऽधिकवृद्धितेजाः पूजार्णवं भूमिपतिस्ततार ॥ ९५ ॥ सुश्रावकः सर्वगुणाधिवासः सद्गन्धपुष्पाक्षत पूर्णपाणिः । स्वस्त्यादिभिर्मङ्गलभारतीभिः शशंस सच्चूतफलावसानैः ।। ९६ ॥ आचन्द्रतारं जयतुजिश्रीः सद्धर्ममार्गः परमार्थसारः सुखीभवत्वार्हत सर्वसंघः सिद्धालयाः स्फीततमा भवन्तु ॥ ९७ ॥ देशो भवत्वाधिकगोधनाढ्यः सुभिक्षनित्योत्सव भोगयुक्तः । राजा जितारिजिनधर्मभक्तो न्यायेन पायात्सकलां धरित्रीम् ॥ ९८ ॥ धर्मवीर वरांग वरांगराजकी आभ्यन्तर तथा बाह्य विशुद्धि परिपूर्णताको प्राप्त हो रही थी, उनके बाह्यतेजके साथ-साथ आध्यात्मिक तेजकी भी आशातीत वृद्धि हो रही थी अतएव उक्त पर्वके दिनोंमें उन्होंने एक प्रकारसे पूजारूपी समुद्रको ( विशाल आयोजन ) ही फैला दिया था । उनके उस आयोजनमें सर्वसाधारण सम्मिलित हो सकते थे तथा जिनमन्दिरका साक्षात् अवलम्बयुक्त होने के कारण उस समस्त उत्सव समुद्रको प्रजासहित पार कर सका था एवं प्राणियोंके कल्याणका मूल कारण भी हो सका था ।। ९५ ।। उस समय अपने राजत्वको भूलकर वरांगराजने आदर्श श्रावकताको ही अपना चरमलक्ष्य मानकर श्रावकोचित समस्त गुणों को अपने में लाने का प्रयत्न किया था। वे शुद्ध जल, चन्दन, अक्षत आदिको अंजलियाँ हाथोंमें लेकर स्वस्ति-विधान से प्रारम्भकर मंगल आदि स्तोत्रों पर्यन्त जिनेन्द्रदेवकी पूजा की थी जिसका अन्तिम फल मोक्ष महापदकी प्राप्ति ही थो ॥ ९६ ॥ वे कहते थे कि महाप्रतापी पुण्यमय सत्य धर्मोका सारभूत जिनधर्म तबतक इस पृथ्वीपर प्रचलित रहे, जबतक चन्द्रमा और सूर्य उदित होते हैं; क्योंकि जिनधर्म ही परमागमका सार है । अर्हन्त प्रभुके शासनके अनुकूल आचरण करनेमें लीन चारों प्रकारके संघोंको सब सुख शान्ति प्राप्त होवे, सिद्धिके साधक जिनालयोंका विस्तार हो ।। ९७ ।। राष्ट्र में हर दृष्टिसे गोधन, आदि सम्पत्तिकी असीम वृद्धि हो, सदा सुभिक्ष हो, जनताकी मानसिक तथा शारीरिक स्थिति ऐसी हो कि वे सदा ही उत्सव, भोग, आदिको मना सकें, राजा शत्रुओंको जीतनेमें समर्थ हो, जैनधर्मका सच्चा अनुयायी हो, तथा न्यायमार्गके अनुसार ही प्रजाओंका पालन करे ।। ९८ ।। त्रयोविशः सर्ग: [ ४६२ ] Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् त्रयोविंशः सर्गः पाषण्डिनः स्वाश्रमवासिनश्च कृतां स्वसंस्था न विलड्घयन्तु । यशांसि तिष्ठन्तु चिरं पृथिव्यां दोषाःप्रणाशं सकलाः प्रयान्तु ॥ ९९ ॥ इत्येवमादि स्फुटमर्थतत्त्वं वाक्यं जनश्रोत्रसुखं जगाद । महाजनस्तं सकलं निशम्य प्रतिप्रसादो दयवान् बभूव ॥ १००॥ ततः प्रहृष्टो वरचूर्णवासैः सद्गन्धिमित्रैः सलिलैः सलीलम् । लःक्षारसैरज्जनरेणुभिश्च चिक्षेप गात्रेषु परस्परस्य ॥ १०१॥ जिनेन्द्रपादाम्बुरुहार्पणेन प्रसिद्धनामग्रहणेन भूयः। पूतां च पुण्यां पुरुसिद्धशेषां वसुंधरेन्द्रो निदधौ स्वमूनि ॥ १०२॥ विभिन्न पाखण्डों ( मतों) के अनुयायी तथा विविध आश्रमोंका पालन करने में लीन पुरुष अपने आचार्यों और शास्त्रों द्वारा निश्चित की गयी मर्यादाका उल्लंघन न करें। गुणीजनोंकी कीर्ति इस पृथ्वीपर अनन्त कालतक लोग स्मरण करें, जितने में भी दोष हैं उनका समूल नाश ही न हो, अपितु जनता उनका नाम भी भूल जाये ।। ९९ ॥ बाबामामाचामान्यानामानामान्य लोक वात्सल्य ऐसी अनेक शुभ कामनाओंको व्यक्त करनेवाले कितने ही वाक्य धर्मप्रेमसे प्रमुदित सम्राटके मुखसे निकले थे जिन्हें सुनकर लोगोंको हृदयकली विकसित हो उठी थी। इन वाक्योंको सुनकर पूजामें उपस्थित विशाल जनसमूहको परस्परमें प्रेम तथा सहृदय व्यवहार करनेकी प्रबल प्रेरणा प्राप्त हुई थी। १०० ।। वे धर्म-प्रेमके आवेगसे उन्मत्तत्रत हो रहे थे अतएव आपसमें एक-दूसरेपर उन्होंने सुगन्धित चूर्ण, सुगन्धित पदार्थोंको घोलकर बनाये गये जल, लाखके रंग, अञ्जन आदिको प्रेमपूर्ण भावसे डालना प्रारम्भ कर दिया था ॥ १०१॥ सम्राट वरांगने भी श्री एकहजार आठ जिनेन्द्रदेवके पूज्य चरणोंमें समर्पित कर देनेके कारण, जगत पूज्य पंच परमेष्ठी आदिके नामोच्चारणके प्रतापसे स्वयं पवित्र तथा दूसरोंके पुण्यबंधका कारण, पुरूदेव आदि सिद्ध परमेष्ठियोंकी शेषिकाको लेकर फिरसे अपने मस्तकपर धारण किया था ।। १०२ ॥ ४६३] १. मप्रसादोदयवाक । Jain Education international Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजातपःशीलगुणप्रधानः समय॑ सवर्ममुवारबुद्धिः । महीपतिस्तूर्यरवैननद्भिः सान्तःपुरो राजगृहं विवेश ॥ १०३ ॥ प्रविश्यात्मगेहं सुरेन्द्रप्रतापो जिनेन्द्रौरुपूजाकथाकाव्यरागः । नृपो धर्मकामार्थकार्यप्रवीणः प्रतुष्टान्तरात्मा सुखं संनिषण्णः ॥ १०४ ॥ कुतीर्थप्रणीतान्विवादान्निहत्य प्रतिष्ठाप्य भयो जगत्संप्रवादान'। प्रकाश्योरुभक्ति सतीमाहर्ती च सदा संदधौ स्वं मनः सहयायाम् ॥ १०५ ॥ बवत्पात्रदानं विधिज्ञा यतिभ्यो धन बन्धुमित्राथिशिष्टप्रियेभ्यः । महापर्वसंधिवतः सोपवासैनयन्दोर्घकालं नरेन्द्रोऽभिरेमे ॥ १०६॥ त्रयोविंशः सर्गः SaamaRELAPELAGALASERIRECAR अहंत सिद्ध आदिको द्रव्य तथा भावपूजा, कायक्लेश आदि तप, मार्दव आदि गुणोंका आचरण करते हुए विशाल बुद्धि, धर्मप्रेमी वरांगराजने पर्वमें पूजा की थी। उसके समाप्त हो जानेपर जोरोंसे बजते हुए तूर्य आदि बाजोंको गर्जनाके साथ सम्राटने राजमहलमें सपरिकर रानियोंके साथ प्रवेश किया था ॥ १०३ ।। धर्मकरत संसारसुख ___ सम्राट वरांग धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थों के आनुपातिक आचरणको साधक व्यवस्था करनेमें अत्यन्त दक्ष थे, जिनमह । ऐसे धार्मिक कार्योको कर सकनेके कारण उनका अन्तरात्मा परम संतुष्ट था। अतएव लौटकर राजमहलमें आये हुए इन्द्रके समान पराक्रमी तथा प्रतापो वरांगराज शान्तिसे बैठकर जिनेन्द्रदेवको विशाल पूजा सम्बन्धो कथाओं और काव्योंका अनुशीलन करते थे ॥ १०४॥ इस सुन्दर ढंगका आश्रय लेकर वे मिथ्या तीर्थंकरोंके द्वारा प्रवर्तित मतोंकी निस्सारताको स्पष्ट करते थे। तथा संसारमें कल्याणके सहायक सत्य मार्गोंकी प्रस्तावना तथा विस्तार करते थे । संसार समुद्रसे पार करनेमें समर्थ उनकी सत्य जिनभक्ति छिपाये नहीं छिपतो थो। क्योंकि वह उनके रोम, रोममें समायी थी। इसके साथ ही अहिंसा धर्मको मूल वास्तविक दयामें तो उन्होंने अपने आपको लीन ही कर दिया था।। १०५ ।। दान विधिके विशेष ज्ञाता वरांगराज अवसर मिलते ही सत्पात्रोंको दान देनेमें लीन रहते थे। अपने बन्धु बान्धवों, A मित्रों, हितषियों, प्रियजनों तथा याचकोंको यथेच्छ दान देते थे, तथा अष्टाह्निका, पयूषण आदि पर्वोके दिनोंमें व्रत उपवास आदि करते थे। इन शुभ योगोंका आचरण करते हुए उन्होंने दोर्षकाल व्यतीत कर दिया था ।। १०६ ॥ 7 १. क संप्रदानान् । २, [विधिज्ञो]। ३. म वनं । 4 TA न्य- [४६४] मान्य Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्रप्रणीतं शुभं सिद्धिमार्ग प्रबुध्यात्मशक्त्या गृहीत्वा व्रतानि । नरेन्द्राग्रपल्यः सदा सिवपूजां नयन्त्यो वरालयः कृतार्था बभुवः ॥ १०७॥ इतिधर्मकथोदेशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते अर्हन्महामहवर्णनो नाम त्रयोविंशतितमः सर्गः । DREAMPIR त्रयोविंशः सर्गः सम्राटकी पटरानी अनुपमादेवी आदि रानियोंने भी अपनी शक्ति और ज्ञानके अनुसार जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्रणीत, शुभकारक तथा सकलसिद्धिके अमोघ उपाय स्वरूप जिनधर्मको समझा तथा धारण किया था। वे सुकुमार सुन्दरियाँ सदा ही सिद्धपूजा आदि धार्मिक कार्योंको करती हुई दिन बिताती थीं, और इस विधिसे अपने जीवनका लक्ष्य सिद्ध कर रही थीं।। १०७ ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें अर्हन्महामहवर्णन नाम त्रयोविंशतितम् सर्ग समाप्त । ITUArai n RGHORIGHLIGHTS [४६५] Jain Education Interational For privale & Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्विशः सर्गः अथ भूमिपतिरित्रकालयोग्यान न विरोधेन नयन्सुखार्थधर्मान् । जगति प्रवरां यशःपताकां सकलां कान्तिमिवेन्दुवबभार ॥१॥ शशिनः किरणाः स्वभावशीता दिनकृत्तीक्ष्णवपूर्जगत्प्रभः। हतभुग्दहनप्रकाशनात्मा जगदाप्यायनपण्डितो महेन्द्रः॥२॥ पृथिवी कठिनात्मिका प्रकृत्या द्रवता स्नेहगुणस्तथाप्सु वद्यः । सकला नपतौ गुणाः समेताः सति वैरुध्यतमेऽप्यबाधमानाः ॥३॥ है चतुर्विशः सर्गः चतुर्विंश सर्ग प्रकृतिगुणोपेत राजा सम्राट वरांग धर्म, अर्थ तथा काम तीनों पुरुषार्थोंका ऐसे ढंगमे सेवन करते थे कि उनमेंसे कोई एक भी, बाकी दोनोंकी प्रगतिमें बाधा नहीं डालते थे। फलतः ये तीनों उनके तोनों कालोंको सुधारते थे। इस व्यवस्थित क्रमसे जोवन व्यतीत करते हुए उन्होंने अपने सुयशकी उन्नत तथा विशाल पताकाको उसी मात्रामें फहरा दिया था जिस रूपमें नक्षत्रराज चन्द्रमा संसारकी समस्त कान्तिको धारण करता है। निशानाथ चन्द्रमाकी धवल परिपूर्ण किरणें स्वभावसे ही शीतल होती हैं ॥१॥ शुभ तथा अशुभ सबही सांसारिक कार्योंका प्रवर्तक होनेके कारण जगत्प्रभु दिनकरकी किरणे अत्यन्त तीक्ष्ण होनेके 1 कारण असह्य होती हैं । हवनको सामग्रीको भस्म करनेवाली अग्निके भो दो ही गुण हैं:-पदार्थोंको जलाना तथा प्रकाश करना। देवोंका अधिपति अलौकिक ऋद्धियों तथा सिद्धियोंका भंडार इन्द्र भी संसारकी दाहको वुझाकर उसे जलसे प्लावित ही करता है ॥ २॥ प्राणिमात्रको धारण करने में समर्थ धरित्रीकी प्रकृति हो कठिनतासे व्याप्त है। तथा जगतकी रसमय सृष्टिके मूल स्रोत जलमें भी दो ही गुण होते हैं-तरलता तथा स्नेह ( चिक्कणता ) शीलता। किन्तु ये सब हो गुण सम्राट वरांगमें एक साथ होकर रहते थे। यद्यपि यह निश्चित है कि इनमें-शोतलता तथा उष्णता, द्रवता तथा कठिनता आदि अधिकांश गुण ऐसे हैं । जो कि एक दूसरेके बिल्कुल विपरीत हैं, तो भी सम्राट वराङ्गकी सेवामें आनेपर उन्होंने अपना पारस्परिक विरोध छोड़ दिया था ।।३।। १. क योग्योग्यानविरोधेन यत् । २. क पृथुवी । ३. [ वन्द्यः ] । [४६ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तेषु । ऋतुषु' क्रमसंभवेषु तेषु प्रतिसंवत्सर मागतेषु परिपूर्णपयोधराभिरीशो वनिताभिवषयान्सुखं निषेवे ॥ ४ ॥ वरवंशमृदज्रगीत शब्दान्मुरजध्वान विमिश्रितान्स रागान् अशृणोच्छ्रवणेन्द्रियप्रियांस्तान्प्रमदानां 1 मधुराक्षरप्रयुक्तान् ॥ ५ ॥ शयने विमले मणिप्रदीपे कमलाख्यः ३ परिरभ्य कामिनं तम् । वदनैर्जघनै स्तन प्रदेशैर्मू दुहस्तैरपि मदिरामललोललोचनानां वनितानां गलितांशुकलोलमेखलानां न ततपं प्रपिबन्यसुखानि तासाम् ॥ ७ ॥ पस्पृशुर्महीन्द्रम् ॥ ६ ॥ सुरतोत्सव प्रियाणाम् । प्रत्येक पञ्चाङ्गमय वर्ष में क्रमशः शरद आदि छह ऋतुओंके आनेपर सम्राट उनके अनुकूल विषय सुखोंका यथेच्छ भोग करते थे। विशेषकर अपनी रानियोंके साथ कामजन्य विषयोंका उपभोग करते थे, क्योंकि अवस्था तथा स्वास्थ्य के अनुकूल उनके स्तन आदि उपभोगके अंग पूर्णरूपसे विकसित हो चुके थे ॥ ४ ॥ सुखसागर में मग्न यौवन तथा कामदेवके मदसे उन्मत्त अपनी पत्नियोंकी मनमोहक मधुर बातोंको सुनकर ही वह कामरससे मदमाता नहीं होता था अपितु कर्ण इन्द्रियको बलपूर्वक अपनी ओर आकृष्ट करनेमें पटु उनके गीतोंके शब्द, शब्दपर वह लोटपोट हो जाता था। जब वे गाती थीं तो उसके साथ-साथ उत्तम बांसुरियाँ बजती थीं मृदंग भी बजता था तथा इन बाजोंकी ध्वनिमें मुरजकी गम्भीर ध्वनि भी मिली रहती थी ॥ ५ ॥ शयनगृहमें दुग्धके समान धवलशय्या बिछाकर मणियोंके रंग, विरंगे प्रकाशमय निर्धूम दीपक जलाये जाते थे । वहाँपर पहुँचते ही कमलोंके समान ललित नेत्रवती रानियाँ कामातुर वरांगराजका घोर आलिंगन करती थीं। इतना ही नहीं अपने मुखकमल, जंघाओं, कठोर स्तनों तथा सुकुमार हाथों के द्वारा सम्राटके अंग प्रत्यंगोंका स्पर्श करती थीं ॥ ६ ॥ कमलाक्षि रानियोंकी निर्मल आँखोंसे मदिरापानके समान उत्पन्न उन्माद टपकता था। कामप्रसंगका सुरतरूपी महान उत्सव[उन्हें इतना प्रिय था कि वे उसे करते न अघाती थीं। रिरंसा के आवेगसे आतुर होनेपर उनका वस्त्र खिसक जाता था और केवल चंचल करधनी ही कटिप्रदेशपर रह जाती थी । उनको इस रूप में पाकर कामी वरांगराज उनकी ओर एकटक देखते रह जाते थे तथा इन मुखोंका निरन्तर पान करते रहनेपर भी उन्हें तृप्ति न होती थी ॥ ७ ॥ १. ऋतुषु । २. [ सिषेवे ] | ३. [ कमलाक्ष्यः ] । ४. म प्रविवेत् । चतुर्विंश: सर्गः [ ४६७ ] Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विका बकुलोत्पलजातिमालतीनां सुरभीणां सकदम्बचम्पकानाम् । ललनालककेशपाशबद्धा वरमालाश्च मुहुर्महः स जहौ ॥ ८॥ जिनदेवमहीन्द्रकेशवानां चरितान्यप्रतिमानि नाट्यसन्धौ । रसनाट्यसमन्वितानि शश्वत्समपश्यद्धरणीपतिः प्रियाभिः ॥९॥ वसुधोदधिशैलसंभवं यदररत्नं रजतं च हेम कुप्यम् । गजवाजिरथायुधप्रधानं क्षितिकार प्राभृतकं समानयंस्तत् ॥१०॥ विधिना परिपालकः प्रजानां परिशास्तार नुष्ठितक्रियाणाम् । अगतीनबुधाजनान् दरिद्रानशरण्यांश्चबभार सर्वकालम् ॥११॥ समः ATHMARATHIPARAMHITA रानियाँ अपना शृगार करनेके लिये कमल, बकुल जाति ( चमेलो) मालतो, कदम्ब, चम्पक आदि वृक्षोंके सुगन्धयुक्त पुष्पोंकी मालायें बनाकर अनेक विधियोंसे अपने केशोंमें गंथती थीं। किन्तु कामके आवेगसे उन्मत्त राजा बिल्कुल उच्छृखल होकर बड़ी शीघ्रताके साथ बार-बार शिरपर सजो हुईं मालाओंको खींचकर मसल देता था ।। ८॥ जिनेन्द्रप्रभुके जीवन चरित्र, चक्रवतियों, नारायणों, प्रतिनारायणों, आदि शलाका पुरुषोंको अनुपम तथा आदर्श जीवनीकी कथावस्तुको लेकर लिखे गये नाटकोंके अभिनय रसोंकी स्फूर्ति तथा अभिनय कलाके पूर्ण प्रदर्शनके साथ सदा ही किये जाते थे, और सम्राट वरांगराज अपनी सब हो रानियोंके साथ इन्हें देखकर रसका आस्वादन करते थे ॥ ९॥ वसुन्धरा, पृथ्वी, अगाध उदधि तथा पर्वतोंमें जो भी उत्तम रत्न ( श्रेष्ठ पदार्थ ) उत्पन्न होते थे अथवा जितना भी चाँदी तथा सोनेका भण्डार हो सकता था अथवा मदोन्मत्त हाथी, सुलक्षण अश्व, सुदृढ़ रथ तथा श्रेष्ठ शस्त्र आदि सभी वस्तुओंको सनस्त राजा लोग भेंट रूपसे सम्राट वरांगके सामने लाकर रखते थे ॥ १० ॥ पुण्य परिपाक राजनीतिमें बतायी गयी विधिके अनुसार ही वह अपनी प्रजाको हानिसे बचाकर लाभकी दिशामें ले जाता था। जो लोग सामाजिक धार्मिक अथवा अन्य किसी भी प्रकारका कुकर्म करते थे ऐसे लोगोंकी वह किसी भी दृष्टि अथवा कारणसे उपेक्षा नहीं करके कठोर दण्ड देता था। निरुपाय व्यक्तियों, ज्ञान अथवा किसी भी प्रकारकी शिक्षाको प्राप्त न करनेके कारण आजीविका उपार्जन करनेमें असमर्थ, दरिद्र तथा अशरण व्यक्तियोंका वह राज्यकी ओरसे पालन-पोषण करता था ॥ ११ ॥ १. म प्रदानं। २. [क्षितिपाः]। ३. [ °शास्ता दुरनुष्ठित°]। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चतुर्विशः चरितम् नियमश्च यमैवतोपवानिरवीरपि दानधर्मयोगैः। जिनदेवविशेषपूजनैश्च प्रययौ पर्वसु भूपतेः स कालः ॥ १२॥ स कदाचिदतुल्यधीसिंहः स्वभुजध्वंसितशत्रुसैन्यवीर्यः । प्रविवेश सभागृहं नरेन्द्रो मतिमद्धिर्वरमन्त्रिभिश्च शिष्टः ॥ १३ ॥ मणिहारकिरीट'पट्टचिह्नः प्रचलत्कुण्डलचारुधृष्टगण्डः । स मगेन्द्रवरासने निषण्णो विबभौ भानरिवोदयस्य मनि ॥१४॥ वितुद्धियशःश्रिया ज्वलन्तं शरदीवामलपूर्णचन्द्रसौम्यम् । नपति प्रसमीक्ष्य मन्त्रिवर्गः प्रजजल्प स्वमनोगतं वचस्तत् ॥ १५॥ सर्गः दिनानि यान्ति त्रयसेवयव किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वह काम तथा अर्थ पुरुषार्थके सेवनमें ही लीन था क्योंकि ज्यों ही अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व आते थे त्योंही वह नूतन नियम, यम, व्रत विशेषकर उपवास, सब तरहके दोषोंसे रहित निःस्वार्थ दान, धर्म योग आदिको धारण करता था। तथा श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी विशेष पूजाका आयोजन करके ही विशाल वसुन्धराके अधिपतिका समय बीतता था ॥ १२॥ सम्राट वरांगकी बुद्धिको कोई समानता न कर सकता था। वह मनुष्योंमें सिंह ( श्रेष्ठ) थे। अपने बाहुबलके द्वारा ही उन्होंने शत्रुओंकी विशाल सेनाओंको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। उनके सबके सब मंत्री परम विवेकी तथा राजनीतिके ऐसे पंडित थे कि उस समयके सब राज्योंके मंत्रियोंसे श्रेष्ठ माने जाते थे। इन्हीं शिष्ट मंत्रियोंके साथ सम्राट वरांग राजसभामें एक दिन पधारे थे ॥ १३ ।। राजसभामें आकर जब वे सिंहोंकी आकृतियोंके ऊपर बने हए सून्दर आसनपर आकर बैठे तो अपने मणिमय हारसे निकलती हुई किरणोंके द्वारा, जाज्वल्यमान मुकूटके आलोकसे, राज्यपदके प्रधान चिन्ह पट्टकी प्रभाके कारण तथा गालोसे रगड़ते हये चंचल तथा चारु कुण्डलोंकी कान्तिसे मख आलोकित हो उठने पर ऐसे शोभित हो रहे थे जैसा कि दिनपति सूर्य । उदयाचलके शिखर पर उदित होकर लगता है।॥ १४ ॥ निर्मल तथा सर्वव्यापी यश असीम सम्पत्ति तथा परिपूर्ण शोभाके कारण वे जगमगा रहे थे, तो भी शरद पूर्णिमाकी रात्रिको उदित हुए पूर्णचन्द्रके सदृश उनकी कान्ति परम सौम्य थी। इस ढंगकी अद्भुत शोभासे समन्वित सम्राटको देखकर मंत्रियोंके मनमें अनेक भाव उदित हुए थे, जिन्हें रोकना उनके लिए असंभव हो गया था फलतः उन्होंने कहना प्रारम्भ किया था ॥ १५॥ १. क तिरीट। बालबाREATRENDER [४६९) Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितस् aved अयमिन्द्रसमो महर्द्धिकी विभवेनाप्रतिमेन लोकपालः । वपुषा यशसा च कामदेवः कुत एतत्त्रयमस्य संशयो नः ॥ १६ ॥ 'पुरुषैचिरकालकर्म दैवाद्रग्रहतो वात्र नियोगतः स्वभावात् । प्रलयस्थितिसंभवाः प्रलानां नियताद्यैरिति लोकसत्प्रवादः ।। १७ ।। इति पक्षबहुत्वयोगतस्ते न समर्था गदितुं स्वपक्षमेकम् । अनपेक्षिततत्व' दृष्टि चेष्टाः परिपप्रच्छुरथावनीन्द्र मित्थम् ॥ १८ ॥ सदसन्नियतिस्वभावपक्षा विदिता लौकिक वैदिकास्त्वयेश । विविधांश्च नयानवैषि सूक्ष्मान्वद तस्वमसंशयं प्रभो नः ॥ १९ ॥ राजाकी स्तुति 'अपनी असीम ॠद्धि तथा विमल यशके कारण हमारे सम्राट साक्षात् इन्द्रके समान हैं। यह लोकपाल भी हैं, कारण कोई भी राजा महाराजा विभवमें इनकी समता नहीं कर सकता है। इनकी शारीरिक कान्ति, स्वास्थ्य तथा जनसाधारणको अनुरक्त बनानेकी क्षमता इतनी बढ़ी हुई है कि उनके आधार पर यह सशरीर कामदेव ही प्रतीत होते हैं । किन्तु विचारणीय विषय यही है कि यह अकेला उक्त तीनों देवतामय कैसे हैं ? हमारी यही शंका है ॥ १६ ॥ संसारमें यह सर्वमान्य कहावत है कि युगके प्रारम्भमें हुए विशेष पुरुषोंने अपने शुभ कर्मों के प्रतापसे अथवा दैवकी प्रेरणासे, अथवा जीवन पथके निर्माता ग्रहोंकी अनुकूलता के कारण, अथवा किसी विशेष आत्माके नियोगके वशमें होकर अथवा संसारके स्वभावकी अबाधगति के प्रवाह में पड़कर संसारकी प्रजाके जन्म, स्थिति तथा नाशकी चिरकाल पर्यंन्त व्यवस्था की थी ।। १७ ।। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाशको लेकर उक्तरूपके अनेक विकल्प तथा मान्यताएँ होनेके कारण, वे मंत्री किसी एक मतको निश्चित करके यह कहने में असमर्थ थे कि हमारा यही मत है। इस मूल प्रश्नकी वे उपेक्षा भी नहीं कर सकते थे क्योंकि तात्त्विक दृष्टि से विचार करने तथा उसे आचरणमें लाने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी । अतएव उन सबने पृथ्वीपति aire सामने निम्न प्रश्न उपस्थित किया था ।। १८ ।। धर्मप्रश्न 'हे प्रभो ? लोकाचार के अनुसार कौन-सा पन्थ सत्य है अथवा असत्य है, कौन-सी प्रवृत्ति स्वाभाविक है तथा कौन-सी वैभाविक है। इसी क्रमसे वैदिक ( ज्ञानमय ) आचारमें क्या सत् है, क्या असत् है ? निश्चित क्या स्वाभाविक क्या है इत्यादि १. [ पुरुषेश्वर° ] २. [ प्रजानां ] । ३. म 'सत्वदृष्टि । ४. म तत्त्वं न संशयं । चतुर्विंश: सर्गः [ ४७० ] Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज परितम् चतुवशिः सर्गः इति मन्त्रिवरैः प्रहृष्टमर्थ प्रविचार्यात्मनि दृष्टधर्मतत्त्वः। नृपतिर्मधुराभिधानयुक्तं वचनं प्रारभत प्रवक्तुमेवम् ॥ २०॥ बहुदृष्टिनिविष्टदुर्मतीनां कुकवीनामथवान्यभि'प्रपन्नाः। अतिमुग्धतया नरा विबोदधं परमार्थान्न हि शक्नुवन्ति बालाः ॥ २१ ॥ यदि देवनियोगतो महद्धिं लभते चन्मनुजस्त्वरोगतां वा। सुतभा ["] मवद्यलब्धियुक्तं स तु देवः कथमेति दैवभावम् ॥ २२ ॥ यदि तस्करको यजेत विद्वान वरमित्थं स्त्वथ............। उभयोर्यजनं प्रतिगृहीता ननु देवो विमतिः स किं करोति ॥ २३ ॥ विशेष तत्त्वोंको आप भलीभांति जानते हैं। इतना ही नहीं आप अति सूक्ष्म समस्त नयों ( पदार्थका एक दृष्टिसे विचार करना) 4 को भी जानते हैं अतएव उक्त विकल्पोंमें वास्तविक तत्त्व क्या है इसे आप स्पष्टरूपसे हमें समझानेका कष्ट करें ॥ १९ ॥ सम्राट वरांगने धर्मके सार तथा तत्त्वोंके रहस्यको समझा था फलतः मंत्रियोंके द्वारा उपस्थित किये गढ़ प्रश्नोंको सुनकर एक क्षणभर मन ही मन उनपर विचार करके नृपतिवरने मधुर तथा सरल भाषामें निम्नशैलीसे उत्तर देना प्रारम्भ किया था ।। २०॥ दैववाद विचार 'संसारके मनुष्य अत्यधिक भोले तथा श्रद्धालु हैं। उनको उपदेश देनेवाले तथाकथित कवि (ज्ञानी ) लोगोंकी दूषित है बुद्धि परस्पर विरोधी एक-एक प्रकारकी श्रद्धाको लेकर चलती है अतएव वे सब कुकवि हैं । वे कुछ शब्दों द्वारा ही समझा जाने । योग्य विषयको भी बहुत खींच तान कर अस्पष्ट वाक्यों द्वारा बताकर भोले जीवोंको और अधिक सन्देहमें डाल देते हैं। परिणाम यह होता है कि स्वभावसे ही अज्ञ संसारी मनुष्य शुद्ध तत्त्वको नहीं समझ पाते हैं ।। २१ ॥ यदि संसारी मनुष्य केवल देव अथवा भाग्यको अकारण कृपाके बलसे ही असीम सम्पत्तिको प्राप्त करते हैं ? स्वस्थ शरीर पाते हैं, अनुकूल पत्नी तथा गुणी पुत्रके संसर्गका सुख भोगते हैं, तो केवल एक ही प्रश्न उठता है कि यह दैव भी उस बिशाल देवपनेको कैसे प्राप्त होता है, जिसके कारण निश्चित वस्तुका समागम सर्वदा सत्य होता है ।। २२॥ यदि कोई चोर किसी देवको पूजा करे तथा दूसरा विद्वान भो विवेकपूर्वक उसी देवकी उपासना करे और यदि दोनोंको ही अपने-अपने मनचाहे ( भले-बुरे ) वरदानोंको प्राप्ति हो जाती है । तो यहो प्रश्न उठता है कि चोर तथा साहूकार दोनोंकी विशाल पूजाको स्वीकार करनेवाला वह बुद्धिहीन देवता करता ही क्या है ।। २३ ॥ १. कन्यभिप्रसंगा, [ वाक्यविप्रपन्नाः ] । २. म यचेत । [४७१] Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विक सर्गः गृहमप्युदितं भगवद्धनेन भवदीयं ननु यस्य दीपतलम् । चरकैवरगन्धमाल्यधूपाः स च कि दास्यति निर्धनः परेभ्यः? ॥ २४ ॥ वरमन्त्रपदैः सुसंस्कृतं यद्धविमादाय समक्षतोऽत्ति काकाः । बलिभुक सुशृगालविप्रलिप्ता: स हि कि रक्षति दुर्बलः परं स्वम् ॥२५॥ क्षुधितः परिदाप्य तं भृगालो विबलं छागमुपाहरेत्प्रसह्य । पुरुषानपि तान्प्रसह्य तद्वद्यदि गृह्णाति स एव देवदेवः ॥ २६ ॥ पललोदनलाजपिष्ठपिण्डं परदत्तं प्रतिभुज्यते च येन । स परानगति कथं बिभर्ति धनतृष्णां त्यज देवतस्तु तस्मात् ॥ २७ ॥ ग्रहोंको भी देखिए, उनका भी उदय तब ही होता है जब कि आप अपना धन खर्च करते हैं । उनकी अनुकूलताके लिए जलाये गये दीपकोंमें आपका हो तेल जलता है। आप ही प्रसन्न करनेके लिए उसे विकसित श्वेत कमलों आदिकी सुगन्धित मालाएँ तथा और ऐसे ही अनेक पदार्थ चढ़ाते हैं। तब जो स्वयं इतना निर्धन है दूसरोंको क्या देगा ॥ २४ ॥ ___ हवन सामग्री बड़े यत्नके साथ स्वच्छ तथा क्षुद्ध रूपमें बनायी जाती है, तब कहीं श्रेष्ठ मंत्रोंके उच्चारणके साथ-साथ । हवनकुण्डमें छोड़ी जाती है। किन्तु होताओंके सामने ही कौआ, आदि नीच पक्षी उसमेंसे चोंचें भरकर खाते हैं । अब प्रश्न यह है कि जो देवता सियार, आदि नीच पशुओंकी जूठो बलि खाता है, उस विचारेमें कितनी सामर्थ्य होगी और जो स्वयं इतना दुर्बल है वह दूसरोंकी क्या रक्षा करेगा ।। २५ ।। देवताको चढ़ाये गये दुर्बल बकरेपर भूखा सियार अवसर पाते ही झपटता है और आराध्य देवताकी अवज्ञा करके बल-4 प्रयोगसे उस ( बकरे ) को ले भागता है । इसी प्रकार अनुकूल अवसर आते ही वह शृगाल उन मनुष्योंको भी बलात्कारपूर्वक ले भागता है जिन्होंने रक्षा पानेके लिए बलि चढ़ायी थी ॥ २६ ॥ अतएव वह शृगाल ही परमदेव क्यों नहीं माना जाता है ? जो पूज्य देवता दूसरोंसे समर्पित पशु आदिका मांस, भात, 8 लावा, आटेके पिण्ड आदि पदार्थोंको खाकर ही जोवन बिताता है, वह पराश्रित देवता उन दूसरे व्यक्तियोंका भरण पोषण कैसे करेगा या जिनके जीवन निर्वाहका कोई उपाय ही नहीं रह गया है उन्हें क्या, कहाँसे देगा। इन सब युक्तियोंका भरण-पोषण सामने रखकर देवकी कृपासे धन पानेकी इच्छाको सर्वथा छोड़ दो ।। २७ ॥ १. म न दीप यस्य। २.म चरकेवर। ३. म स किं। ४. [ काकः]। ५. [प्रलिप्तः] । [४७२] Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् यदि कालबलात्प्रजायते चेद्विबल: कर्तृगुणः परीक्ष्यमाणः । बलवानथवा यदि कृती स्याद्विबलः काल इति प्रवेदितव्यः ॥ २८ ॥ अथ जीवगणेष्वकालमृत्युः फलपुष्पाणि वनस्पतिष्वकाले । भुजगा दशनैवंशन्त्यकाले मनुजास्तु प्रसवन्त्यकालतश्च ॥ २९ ॥ अथ वृष्टिरकालतस्तु दृष्टा न हि वृष्टिः परिदृश्यते स्वकाले । तत एव हि कालतः प्रजानां सुखदुःखात्मकमित्यभाषणीयम् ॥ ३० ॥ ग्रहतो जगतः शुभाशुभानि प्रलपन्तो विमतोन्प्रवञ्चयन्ति । न तु तस्वमिदं वचो यदि स्यात्स्वयमेवात्महितानि कि न कुर्युः ॥ ३१ ॥ कालवाद समीक्षा यदि काली ही यह सामर्थ्य है, कि उसके द्वारा संसारमें सब कुछ प्राप्त हो जाता है, तो कर्ताके गुण, जिनका सूक्ष्म तथा विशद विवेचन किया गया है वे सब निस्सार और निरर्थक ही हो जायंगे। इस अव्यवस्थासे मुक्ति पानेके लिए यदि आप यह कहें कि बलवान कर्ता ही इस कार्य में सफल होता है, तो फिर यही समझना पड़ेगा कि कालमें कोई भी कार्य करनेकी सामर्थ्य नहीं है ॥ २८ ॥ इसके अतिरिक्त देखा ही जाता है कि मनुष्य आदि जीवोंकी असमय में मृत्यु होती है। वनस्पतियों में भी असमयमें ही फूल फल लगने लगते हैं ( विशेषकर वैज्ञानिक युग में ) । आयु कर्म समाप्त नहीं होता है किन्तु साँप आदि विषमय प्राणी दाँत मार देते हैं और अकाल मौत हो जाती है ।। २९ ।। अधिकांश मनुष्य मुहूर्त आदि समयका विचार किये बिना ही बाहर जाते हैं और सफल होते हैं । वर्षाऋतु न होनेपर भी धारासार वृष्टि देखी ही जाती है, यह भी अनेक बार देखा गया है कि वर्षाके लिए निश्चित समय में भी एक बूंद जल नहीं बरसता है। इन सब कालके व्यतिक्रमोंका होना ही यह सिद्ध करता है कि 'काल के कारण संसारकी प्रजाको सुखी तथा दुखी होना पड़ता है' ऐसा कथन मुखपर भी नहीं लाना चाहिये ॥ ३० ॥ ज्योतिष्क ग्रहवाद 'ग्रहों की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता के कारण ही संसारका भला अथवा बुरा होता है' जो लोग इस प्रकार का उपदेश देते हैं वे संसारके भोले अविवेकी प्राणियोंको साक्षात् ठगते हैं। क्योंकि यह सिद्धान्त तत्त्वभावसे बहुत दूर है। यदि यह सत्य हो तो, जो लोग इसपर आस्था करते हैं, इससे पहिले वे अपनी उन्नति तथा अभ्युदयके साधक, क्यों कर्म पर आस्था नहीं करते हैं ॥ ३१ ॥ For Private Personal Use Only चतुर्विधाः सर्गः [ ४७३] Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् ग्रहयोगबलाच्छुभं भवेन्चेत्स च रामः प्रियया कथं विहीनः । मविनास्यु' शनः प्रयुक्तनीतिः सकलत्रः स च रावणो विनष्टः ॥ ३२ ॥ बलिनो बलवान्न चास्ति लोके स च बद्धो रिपुणा मुरारिणासौ । जगति प्रथितः स कामदेवः सशरीरस्तु पिनाकिना स दग्धः ॥ ३३ ॥ धनवीर्यपराक्रमातिसत्वो मघवान्देवगुरुप्रणीतचक्षुः 1 बहुमित्रसुमन्त्रभृत्यकोशः स च शप्तः किल गौतमेन तेन ॥ ३४ ॥ धरणीसुत उग्रवीर्यतेजा ग्रहराजः स च रावणेन बद्धः । बृहतां पितरप्रमेयवृद्धिः सकलत्रो भ्रियते स वासवेन ॥ ३५ ॥ यदि शुभग्रहों के मिलने से हो सुख सम्पत्ति होती है तो क्या कारण है कि श्रीरामचन्द्रका अपनी प्राणाधिकासे वियोग हुआ था, क्योंकि उनकी तथा सीताजीकी कुण्डली तो बहुत सुन्दर रूपसे मिली थी। ग्रहोंके गुरु शुक्र आचार्यके द्वारा उपदिष्ट नीति यदि ऐसी है कि उसका पालन करनेपर कभी किसीकी हानि हो ही नहीं सकती है तो वह रावण जो कि उसका विशेषज्ञ ना वही क्यों अपनी स्त्री तथा बच्चोंके साथ सदाके लिए नष्ट हो गया ।। ३२ ॥ इस संसार में राजा बलि से बढ़कर कोई शक्तिशाली व्यक्ति नहीं हुआ है किन्तु उसको भी मुराके शत्रु श्रीकृष्ण ने विशेष आयासके बिना ही बुरी तरप बाँध दिया था और मार डाला था । संसार भर में यह प्रसिद्ध है कि कामदेव के समक्ष कोई नहीं टिक सकता है वह सर्वविजयी है। किन्तु उसे भो त्रिशूलधारी रुद्र श्रीशिवने हराया ही नहीं था अपितु उसको सशरीर भस्म ही कर दिया था ।। ३३ ॥ देवराज इन्द्र धन, वीर्य, पराक्रम और असाधारण साहसिकता तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं । देवताओंके गुरु श्रीशुक्राचार्यके द्वारा उपदिष्ट नीतिकी कसौटीपर ही वे सब वस्तुओंकी परीक्षा करते हैं। उनका नाम मघवान ही उनकी पुण्यकार्य करने की प्रबल प्रवृत्तिको स्पष्ट कर देता है। उनके हितैषी मित्र अनेक हैं, सब हो मंत्रो उपयुक्त सम्मति देने में पटु हैं, आज्ञाकारी सेवकोंकी तो बात ही क्या कहना है तथा कोश उनका अनन्त है। किन्तु यह सब होनेपर भो उन्हें इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए गौतम ऋषिने अभिशाप दे दिया था जिसके कारण उनकी दुर्दशा हो गयी थी ॥ ३४ ॥ पृथ्वीके पुत्र मंगलग्रह के प्रचण्ड पराक्रम तथा दूसरोंको भस्म करनेमें समर्थ उग्रतेजकी पूरे संसारमें ख्याति है । किन्तु जिस समय लंकेश्वर रावण उसपर कुपित हो गया था, उसके वीर्य आदि गुण काम नहीं आये थे तथा रावणके कारावासमें पड़ा सड़ता रहा था। सरस्वती के द्वारा स्वयं वरण किये गये बुद्धिके अवतार वृहस्पति के पास इतनो अधिक समृद्धि है कि उसका अनुमान करना भी असंभव है, किन्तु यह सब होनेपर भी इनका तथा उनकी पत्नीका भरण पोषण इन्द्रके ही द्वारा किया जाता है ||३५|| १. [ अविनाश्युशन ] | चतुर्विंश: सर्गः | ४७४ ] Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रविचन्द्रमसोः ग्रहपीडां (?) परपोषत्वमथेन्द्रमन्त्रिणश्च । विदुषां च दरिद्रता समीक्ष्य मतिमान्कोऽभिलषेद्ग्रहप्रवादम् ॥ ३६॥ जगदीश्वरशासनाद्यदि स्यात्परपक्षप्रभवविलुप्तताहिनस्यात् । कुलजातिवपुर्वयोविशेषान्न' च युक्त्या घटते तदुप्सनीयम् ॥ ३७ ॥ अथ सर्वमिदं स्वभावतश्चेन्ननु वैयर्थ्यमुपैति कर्मकर्तुः। अकृतागमदोषदर्शनं च तदवश्यं विदुषामचिन्तनीयम् ॥ ३८ ॥ चतुर्विशः वराङ्ग सर्गः चरितम् उग्र तेजस्वो सूर्य तथा जगतको मोहमें डालनेके योग्य अनुपम कान्ति तथा सुधाके अनन्त स्रोत चन्द्रमाका दूसरे ग्रहों (राहु तथा केतु ) के द्वारा ग्रसना, इन्द्रके प्रधानमंत्री अनुपम मतिमान वृहस्पतिका दूसरोंके द्वारा भरण-पोषण तथा इस लोकके सुविख्यात मौलिक विद्वानोंकी दारुण दरिद्रताको देखकर कौन ऐसा बुद्धिमान व्यक्ति है जो कि इस लोकप्रवाद पर विश्वास करेगा कि संसारके सुख-दुखके कारण सूर्य, आदि ग्रह ही हैं ।। ३६ ॥ नाम-चामान्य जगदीश्वरवाद यदि संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश किसी जगदीश्वरकी इच्छा या शासनसे ही होते हैं तो प्रश्न यही उठता है कि जिस समम उत्पत्ति हो रही है उसी समय उसके विपरीत पक्ष अर्थात् विनाशका किसी भी अवस्थामें अभाव न हो सकेगा। इसके अतिरिक्त संसारमें पग, पगपर दिखायी देने वाले, कुल तथा जातिका नीचा-ऊँचापन, शरीरके स्वास्थ्य आदिमें भेद, अवस्थाकी न्यूनाधिकता आदि अनेक दृष्टियोंसे किये गये भेद किसी भी अवस्थामें सिद्ध न हो सकेंगे। यदि प्रतिवादी कहे; न । हों, क्या हानि ? तो यही कहना है कि वे साक्षात् देखे जाते हैं फलतः उनका अपलाप कैसे किया जा सकता है ।। ३७ ।। यदि संसारकी उत्पत्ति आदि अनेक भेद परिपूर्ण प्रपंचका मूल कारण केवल स्वभावको ही मानेंगे तो कर्ताके समस्त । शुभ तथा अशुभ कर्म कुछ भी करनेमें समर्थ न होनेके कारण सर्वथा व्यर्थ हो जायेंगे। जीव जिन कर्मोंको नहीं करेगा उनका फल भी उसे प्राप्त होगा, तथा इसी ढंगसे किये कर्मका फल न पाना आदि अनेक दोष संसारकी व्यवस्थामें आ जावेंगे। यह सब ऐसे T नाशक दोष होंगे कि नियमसे ऐसे दोषोंकी कोई विद्वान व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता हैं ।। ३८ ॥ rl ११. [विशेषो न ]1, २.[तदीप्सनीयम् । ३.[विदुषा हि चिन्त° ] Jain Education international Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशः स्वयमेव न भाति दर्पणः सन्न वह्निः स्वमुपैति' काष्ठभारः। न हि धातुरुपैति काञ्चनत्वं न हि दुग्धं घृतभावमभ्युपैत्यवीनाम् ॥ ३९ ॥ धनधान्यानि न यान्ति वृद्धिमत्र ननु यस्य भवेत्स्वभावपक्षः । [ ................... ] स तु दोषै बहुभिः परिप्लुतः स्यात् ॥ ४० ॥ नियतिनियता नरव्ययस्य प्रतिभग्नस्थितिकर्मणामभावः । प्रतिकर्मविनाशनात्सुखी स्यात्सुखहीनत्वमनिष्टमाप्तग्राह्यम् ॥४१॥ सर्गः दर्पणमें प्रतिच्छायाको प्रकट करनेको सामर्थ्य होनेपर वह अपने आप किसो प्रतिविम्बको झलक नहीं देता है । ईंधन आगको अजेय बना सकता है, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ईंधनका ढेर कर देनेसे ही ज्वाला भभक उठेगी । स्वर्णमिश्रित मिट्टी अथवा कच्ची धातु अपने आप ही सोना नहीं हो जाती है। तथा बकरियों का दुध बिना किसी प्रयत्नके अपने आप ही घी नहीं बन जाता है ।। ३९ ।। इस संसारमें धन तथा धान्य आदि जितनी भी सम्पत्तियाँ हैं वे बाह्य प्रयत्नके बिना स्वतः ही नहीं बढ़ती हैं । अब प्रश्न यह है कि जो व्यक्ति सब पदार्थोके जन्म वृद्धि आदिको स्वभावका ही काम मानता है-उसके यहाँ पदार्थों के अलग-अलग कारणों की क्या अपेक्षा होगी ? अर्थात् प्रयत्न व्यर्थ हो जायेगा और अकर्मण्यताको प्रश्रय मिलेगा। जिसमें एक दो नहीं अपितु अनगिनत । दोष भर जायेंगे ॥ ४० ॥ चामन्चमाचमामाचाच नियतिवाद जिस मनुष्यकी मान्यताके अनुसार नियति (पहिलेसे निश्चित जीवन, आदिका क्रम ) निश्चित ही है, वह घटायी । बढ़ायी नहीं जा सकती है, उसकी मान्यतामें कर्मोंकी स्थितिबन्ध (करनेके समयसे लेकर फलभोगके क्षण पर्यन्त रुकना) तथा प्रतिA भाग ( अनुभाग फल देनेकी सामर्थ्य ) का ही अभाव न होगा, अपितु कर्मोंका भी अभाव हो जायगा। कृतकर्मोका जब अभाव ही हो जायगा तो कर्मोके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले सूख-दुःखका भी अभाव हो जायगा तथा यह जीव सुखहीन हो जायगा। । सुख आदिसे हीन हो जाना, न तो किसी जीवको ही अभीष्ट है और न संसारके हितैषी सच्चे आप्तोंके ही ज्ञानमें में आया था ।। ४१ ॥ । १. क समुपैति, हि वन्हित्वपमुति° ] २. [ नरस्य यस्य ] । [४७६] Jain-Education intemational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् पुरुषो यदि कारकः प्रजानां सुखदुःखान्यनवरुप्त पौरुषाणाम् । व्रतदानतया विनिष्फलानि परघातानृतमैथुन क्रियाश्च ॥ ४२ ॥ प्रकृति महदादि भाव्यते चेत्कथमव्यक्ततमान्नु मूर्तिमत्स्यात् । इह कारणतो नु कार्यमिष्टं किमु दृष्टान्तविरुद्धतां न याति ॥ ४३ ॥ यदि शून्यमिदं जगत्समस्तं ननु विज्ञप्तिरभावतामुपैति । तदभावमुपागतोऽनभिज्ञो विमतिः केन स वेत्ति शून्यपक्षम् ॥ ४४ ॥ अथ सर्वपदार्थ संप्रयोगः सुपरीक्ष्य परिदृष्टं विगमे सतो महद्भिः ॥ ४५ ॥ सदसत्प्रमाणभावान् । न च संभवति ह्यसत्सुशून्यं सांख्यवाद निरसन यदि सांख्योंका पुरुष ही संसारकी पूर्ण सृष्टिके लिए उत्तरदायी है, तो ऐसी प्रजा जिसने अपने में पूर्ण पुरुषत्त्वका साक्षात्कार नहीं किया है, उसके सुख-दुःखकी व्यवस्थाका आधार क्या माना जायगा ? इनके द्वारा आचरित व्रतोंका पालन, दानका देना, घोर तपोंका तपना आदि उसी प्रकार व्यर्थ हो जायँगे जैसे कि दूसरे के प्राणोंका लेना, असत्य वचन, व्यभिचार आदि, निष्फल तथा पापबन्धके कारण न होंगे ॥ ४२ ॥ यदि ऐसा माना जाय कि स्थल प्रकृति ही महत, अहंकार आदिको उत्पन्न करती है, तो यह शंका उठती है कि अव्यक्त (जिसका आकार तथा स्वरूप स्वतः प्रकट नहीं है ) प्रकृति से संसारके समस्त व्यक्त तथा निश्चित मूर्तिमान पदार्थों की सृष्टि कैसे होती है ? संसारका यही नियम है कि जैसा कारण होता है उससे वैसा अर्थात् उन्हीं गुणोंयुक्त कार्यं उत्पन्न होता है । अतएव प्रकृति द्वारा सृष्टिका सिद्धान्त संसारमें मान्य दृष्टान्तसे विरुद्ध पड़ता है ॥ ४३ ॥ शून्यवाद • यदि चल तथा अन्चल द्रव्योंसे व्याप्त यह जगत वास्तवमें शून्य स्वरूप है, तो स्थूल पदार्थोंका ही अभाव न होगा, अपितु ज्ञानका भी शून्य ( अभाव स्वरूप ) हो जायगा । ज्ञानको भी शून्य अथवा असत् माननेका तात्पर्यं होगा संसारके प्राणियों को ज्ञानहीन मानना - अर्थात् वे कुछ भी जाननेमें असमर्थ हैं - तब प्रश्न होगा कि मतिहीन शून्यवादका समर्थक किस उपायकी सहायतासे अपने पक्षको जानेगा ॥ ४४ ॥ तब यही कहना होगा कि समस्त पदार्थोंके सद्भाव और अभाव स्वरूपकी सूक्ष्म परीक्षा कर लेनेके बाद ही संसारके पदार्थोंके स्वरूपका निर्णय, उपयोग आदिको व्यवस्था की गयी है। तथा पदार्थोंके किसी एक विशेषरूपमें न रहनेसे ही उनका सर्वथा शून्य होना नहीं माना जा सकता है क्योंकि महान् ज्ञानियोंका अनुभव है कि एकरूपमें पदार्थ के नष्ट हो जानेपर भी किसी न किसी रूपमें उसका सद्भाव रहता ही है ।। ४५ ।। चतुर्विस: सर्गः [ ४७७ ] Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम क्षणिका यदि यस्य सर्वभावा फलस्तस्यर भवेदयं प्रयासः । गुणिनां हि गुणेन च प्रयोगो न च शब्दार्थमवैति दुर्मतिः ॥ ४६ ॥ ध्रुवता जगतो यदीष्यते चेद्विपदा तुल्यमतो व्ययः स्वयं स्वभावात् । गमनागमनक्रियानिवृत्तिन च संसारफलोदयो न मोक्षः ॥ ४७ ॥ यदि सर्वमिदं प्रतीत्यसिद्धं ननु सर्वस्य विलोपना प्रसिद्धा। असतस्तु कुतः प्रतीत्यसिद्धेस्तदसिद्धौ वचनं मृषा परस्य ॥ ४५ ॥ चतुर्विध सर्गः RELमन्चमायामाHISHAL. बौद्धवाव विचार 'सब भाव तथा पदार्थ क्षणिक हैं' जिसकी ऐसी मान्यता है, उस प्राणीके शुभकर्म करना, अशुभ आरम्भोसे बचना आदि सब ही प्रयत्नोंके क्या फल होंगे? उसके हाथ भी विफलता हो लगेगी। संसारके प्राणी अपनेमें अनेक गुणोंको धारण करने। का प्रयत्न करते हैं, किन्तु क्षणिकवादमें गुण, गुणियोंके किस काम आयेंगे? विपरोत बुद्धि क्षणिकवादी एक शब्दके अर्थतकको तो जान न सकेगा, क्योंकि दोनों अलग-अलग क्षणोंमें उदित होते हैं ।। ४६ ।। इन अव्यवस्थाओंसे बचनेके लिए यदि संसारके पदार्थोंको सर्वथा नित्य माना जाय, तो इस सिद्धान्तको माननेपर भी वही सब दोष और विरोध पैदा होंगे जो कि जगतको क्षणिक माननेसे होते हैं, क्योंकि संसारका नाश होना भी स्वाभाविक है। नित्य माननेपर स्थिर पदार्थोंका गमन और चलती हुई द्रव्योंको ठहरना आदि कियाएँ असम्भव हो जायेंगी । संसारमें किसी भी प्रकारके परिणाम न हो सकेंगे, मोक्षका तो कहना ही क्या है ॥ ४७ ॥ संसारके समस्त सचराचर पदार्थ प्रतीत्यसिद्ध ( स्वतःन होते हुये भी परस्परकी अपेक्षासे उत्पन्न होते और लुप्त हो । जाने लगते हैं ? ) हैं। यदि इसी सिद्धान्तको सत्य माना जाय तब तो किसी भी पदार्थकी वास्तविक सत्ता सिद्ध न हो सकेगी। । इसके अतिरिक्त एक और शंका उत्पन्न होती है कि जिस पदार्थका वास्तविक आकार है ही नहीं वह ज्ञानको अपना प्रतिबिम्ब क्या देगा? फलतः प्रतिवादोके सिद्धान्तको मूल भित्तिके ही असिद्ध हो जानेके कारण उसका समस्त कथन ही असत्य हो । जायगा ।। ४८॥ [४७८] १. म सर्वभाषा। २. [विफलस्तस्य ] | Jain Education international Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशः चारतम् सर्गः यविहेप्सितमात्मनः प्रदातुं ननु कर्मेति तदाहुराप्तवर्गाः । असतीहेतरच कर्मनाशस्तव भावाफलता कुतोऽस्ति लोके ॥४९॥ असिवद्यदिकोशवच्च लोके पृथगेवात्र न लक्षित: स चात्मा। इति यो विवदेददृष्टतत्वः स च तेन प्रतिभासतोऽन्तरात्मा ॥५०॥ घटपिण्डवदेव जीवराशिः क्रियते चेत्परमेष्ठिनेति यस्य । अनपेक्षिततत्त्वमार्गदृष्टिर्ननु नित्येतरतामुपैति तस्य ॥५१॥ अथ सर्वगतं वदेन्नरो यो न हि गत्यागतिबन्धमोक्षभावः । प्रथमाङ्गलिपर्वरूपमात्रो परमात्मेति वदेच्च यः स मूढः ॥५२॥ कर्मवादका उपक्रम उक्त क्रमसे सब विकल्पोंके सदोष सिद्ध होनेके कारण यदि यही माना जाय कि आत्माको अपने अभिलषित प्रिय पदार्थोंकी प्राप्ति निजी कर्मोंके ही कारण होती है; जैसा कि संसारके पूज्य आप्तोंने भी कहा है, तब भी यही प्रश्न रह जाता है कि इस संसारमें रहते हुए कभी भी ऐसा क्षण नहीं आता है जब कि जीव कर्म न करता हो? तब कौनसे ऐसे कारण हैं जो कि सांसारिक कार्योको फलहीन बनाते हैं ? || ४९ ॥ आत्मा-विचार कोश (म्यान ) में जब तलवार रहती है तो दोनों एकसे मालम देते हैं किन्तु खड्गको बाहर निकालते ही दोनों दोनों अलग-अलग सामने आ जाते हैं। किन्तु आत्मा शरीर से अलग इस रूपमें तो कभी, कहीं देखा नहीं गया है ? इस ढंगसे यदि कोई तत्त्वज्ञान विमुख व्यक्ति शंका करे, तो उसको शंकाका समाधान उक्त शंकासे हो जाता है, क्योंकि इस शंकाके द्वारा अन्तरात्माकी स्पष्ट झलक मिल जाती है ।। ५०॥ यदि कोई तत्त्वोंको जाननेका इच्छुक यह मानता है कि परमात्मा ही संसारको अनन्त जीवराशिको उसी प्रकार बनाता है जिस प्रकार कुम्हार, आदि शिल्पी घड़ा, मृद्-गोला आदि सांसारिक पदार्थोंको बनाते हैं, तो यही कहना होगा कि इस सिद्धान्तको महत्त्व देनेवाला विचारक जान बूझकर तत्त्वदृष्टिको उपेक्षा कर रहा है। क्योंकि उसके मतसे समस्त जीवोंकी द्रव्यदृष्टिसे नित्यता न सिद्ध होकर दूसरी ( अनित्यता) ही परिस्थिति हो जायगी ।। ५१॥ आत्माको संसार भरमें व्यापक माना जायगा तो उसका कहीं से कहीं जाना अथवा रुकना तथा मोक्ष आदि व्यवस्थाएँ सर्वथा असंगत हो जायेंगी । सर्वगत पक्षमें आये दोषोंसे घबराकर यदि अंगुष्ठ बराबर आत्माको मानेंगे तो भी उक्त । दोषोंसे मुक्ति नहीं मिलेगी फलतः इस पक्षके समर्थककी मूर्खता ही सिद्ध होगी ।। ५२ ।। १. [प्रतिभासितो॰] । DOSSANIZAFERIESARITRIES स्थति हो जाया रहा है। माना जायगा जायगी। ER Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सुखदुःख फलात्प्रयत्नतश्च ननु गत्यादिविशेषलिङ्गभावात् । स न विद्यत इत्यनल्पबुद्धिः कथमात्मानमिहात्मना ब्रवीमि ॥ ५३ ॥ गतयोऽभिहिता न ताश्च शून्याः सुखदुःखानुभवोऽस्ति जीवराशेः " । स च कर्मपथेन नीयमानो मतिमांस्तासु गतीषु बंभ्रमीति ॥ ५४ ॥ अनुपायवती हघुपायपूर्वा व्यवसायस्य गतिद्विधा विभिन्ना । अनुपायवतां न कार्य सिद्धिर्भवतीत्येवमुदाहृतं महद्भिः ॥ ५५ ॥ परिगृह्य नरो धमन्नधातु न सुवर्णं लभते चिरादपीह । परिमन्थ्य महाश्रमेण वह्नि लभते नैव पुमानर्नातिकाष्ठम् ॥ ५६ ॥ उत्थान -मार्ग जीव जो कार्य करने की क्षमता है उसे ही व्यक्साय कहते हैं। इस व्यवसायको सफलताके दो मार्ग हैं - एक तो है किसी भी प्रकारका प्रयत्न न करना ( अनुपायवती ) तथा दूसरा है उसके साधक साधनोंको जुटा देना ( उपाय पूर्वक ) संसारमें जो महान आत्मा अपनी साधना में सफल हुए हैं उनका कहना है कि जो लोग स्वतः सामर्थ्यवान होते हुए किसी कार्यकी सफलता के लिए प्रयत्न नहीं करते हैं, वे कभी भी सफल नहीं होते हैं ।। ५५ ।। जिस मूलधातुमें सोना नहीं है उसीका लेकर यदि कोई मनुष्य अग्नि में डाल देता है और चिरकाल तक ज्वालाको प्रज्वलित रखने के लिए धोंकता रहता है, तो भी उसके हाथ थोड़ा-सा भी सोना नहीं लगता है । इसी प्रकार यदि कोई आग जलानेका इच्छुक ऐसी लकड़ियोंको लेता है जिनसे कभी आग लग ही नहीं सकती है, और उनको काफी देर तक रगड़ता है तो इसका यह मतलब नहीं है कि उसे अपने महाश्रमके फलस्वरूप उन लकड़ियोंसे आग मिल सकेगी ।। ५६ ।। १. म जीवराशिः । २. [ पुमाननय ] किन्हीं प्रतिवादियों की बुद्धि तो इतनी अधिक विकसित हो गयी है कि वे आत्माके अस्तित्त्वको ही नहीं मानते हैं। क्योंकि सुख दुःख आदि फलों और प्रयत्न, आदि क्रियाओंके सिवा कोई आत्मा अलग से उन्हें दिखता नहीं है । तथा आत्माका गति, आदिके समान कोई स्पष्ट लिंग भी नहीं मिलता है जिससे कि आत्माकी अभ्रान्तसिद्धि हो सके। इस विचारकसे एक ही बात पूछी है कि वह 'मैं अपने आप हो बोलता हूँ' आदि बातों का अनुभव कैसे करता है ॥ ५३ ॥ केवलज्ञानी आचार्यांने जो जीवकी चार गतियाँ बतलायी हैं वे शून्य नहीं हैं अपितु उनका निश्चित अस्तित्व है। कौन नहीं जानता है कि विविध भागों में विभक्त अनन्त जीवराशिको सुख-दुःख आदि समस्त भावोंका अति स्पष्ट अनुभव होता है । और यह ज्ञान लक्षण युक्त बुद्धिमान जीव ही अशुभकर्मरूपी मार्गके ऊपर चलकर ही उक्त चारों गतियोंमें चक्कर काटता फिरता है ।। ५४ ।। For Private AAA Personal Use Only चतुर्विंश: सर्गः [ ४८० ] Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चतुर्विशः चरितम् सर्गः प्रचलोत्थितया दवान्निशम्य परिवाचं प्रपतप्रचारग्नौ । न च क्षरते पयो विषाणादिति दुग्ध्यं मतिगानुपायवत्स्यात् ॥ ५७॥ अवगम्य बुधस्तु देशकालौ शनकैः क्षीरमथाददाति गोभ्यः। मतिमान्कनकं लभेत धातोरनलार्थी लभतेऽग्निमाशु काष्ठात् ॥ ५८॥ अनिलाहतवृद्धमिद्धमग्नि प्रसमीक्ष्येणवाशनरपैति । व्यवसायवतामुपायपूर्वाः सफलास्ते च यथा सुखक्रियार्थाः ॥ ५९॥ विधिवान्नकृतान्तकालदैवग्रहभाग्येश्वरपौरुषस्वभावाः । कथितास्तु नयैकमार्गयुक्त्या न हि निःश्रेयसकारणं भवन्ति ॥ ६॥ PRADELESELEASEARTeamRATORRENT अत्यन्त वेगसे बहती हुई प्रचण्ड पवनके कारण भभको हुई दावाग्निका समाचार पाते ही वह व्यक्ति जिसकी आँखें ।। फूट चुकी हैं उस दिशामें दौड़ता है जो कि बुलानेवालेके विपरीत होतो हैं, फल होता है कि वह बचता नहीं है और आगके मुखमें जा पड़ता है । कौन नहीं जानता है कि गायके सींगसे दूध नहीं निकलता है ? दुध वही व्यक्ति पाता है जो ठीक उपाय (थन को दुहना ) करता है ।। ५७ ॥ बुद्धिमान् व्यक्ति देश तथा काल दोनों को समुचित रूपसे समझ लेता है तब प्रयत्न करता है। गायको देखकर धके लिए उसके स्तनपर हाथ लगाकर धीरे-धीरे दूध दुह लेता है। सोनेको मूलधातुका पता लगाकर ही मतिमान व्यक्ति उससे सोना बनाता है, तथा जिसे अग्निकी आवश्यकता है वह उपयोगी लकड़ोका पता लगाकर उसे रगड़ता है और तुरन्त ही अग्नि पैदा कर लेता है ।। ५८॥ उपायज जिस व्यक्तिकी आँखें ठीक हैं और ज्योति घटी नहीं है वह दूरसे ही देखता है कि प्रभञ्जन (आँधी) के झोकोंसे धोकी गयी अरण्याग्नि बड़े विकराल रूपसे भभक उठी है, तब वह चुपचाप उसकी विपरीत दिशामें खिसक जाता है। तात्पर्य यह कि जो व्यक्ति समुचित साधनोंको जुटाकर प्रयत्न करते हैं वे सर्वत्र सफल ही नहीं होते हैं, अपितु उनकी समस्त प्रवृत्तियाँ इतनी । सरलतासे सफल होती हैं कि वे दुःखका नाम भी नहीं जानते हैं ।। ५९ ॥ नियति, निजाजित कर्म, यमराज, काल, दैव, रवि, चन्द्र, आदि ग्रह, कर्मनिरपेक्ष भाग्य, ईश्वर, पुरुषार्थ, स्वभाव आदि हो संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयके प्रधान प्रेरक हैं ! इस प्रकार जो एक-एकको प्रधानता दी है वह किसी एक नयकी अपेक्षासे कहा है । अतएव एक नयकी अपेक्षासे की गयी वह तत्त्वमीमांसा मोक्षका कारण नहीं होती है ।। ६० ॥ १. क°याददान्निशम्य । २. [प्रपतत्य°]। ३. [ दुह्य मतिमानु°]। ४. [विधिकर्मकृतान्त° ] । [४८१] THEORIA Jain Education intemational Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सकला नयभङ्गमार्गनीता यदनेकान्तविशेषितास्त एव । महतां वचनानुसारनीता विदुषां श्रेयसि हेतवो भवन्ति ॥ ६१ ॥ स्वपुराकृतकर्मपाशबद्धान्नरकादींश्च गतीरनन्तकालम् । प्रतिसंसरति स्वयं स जीवो न च मुक्ति लभते विनष्टचेताः ।। ६२ ।। बलवांस्तु यदा क्रियागुणैः स्यान्न च मुक्तिलभते स कल्मषात्मा । स यदा बलवान्गुणी गुणेभ्यः प्रविमुच्याशु नियाति मुक्तिमात्मा ॥ ६३ ॥ [... ********** शुभकर्मयुतः शुभानुबन्धं फलमश्नाति परत्र सोऽन्तरात्मा ॥ ६४ ॥ किन्तु नैगम आदि सातों नयों तथा स्याद्-अस्ति, आदि सातों भंगों की अपेक्षासे विचारे गये पदार्थोंका जो अनेक दृष्टियों युक्त ज्ञान होता है उसके साथ अनेकान्त ( अनेकधर्मंता ) द्योतक स्यात् शब्द लगा रहता है; वही ज्ञान पूर्णं होता है । पदार्थोंका व्यापक ज्ञान प्राप्त करनेके लिए निष्पक्ष विचारकोंने इसी सरणीका आश्रय लिया था। अतएव उस प्रक्रियासे प्राप्त किया गया ज्ञान ही विवेकी पुरुषोंको मोक्षलक्ष्मीके मिलनेमें सहायक होता है ॥ ६१ ॥ संसारबन्ध संसारी जीव अपने पूर्वजन्मोंमें किये गये कर्मोंके फन्दों में जकड़कर बँधे हुए हैं। इसीलिए अनादिकालसे प्रारम्भ करके अनन्तकाल पर्यन्त नरक आदि गतियोंमें घसीटे जाते हैं । संसारचक्रमें पड़ा हुआ जीव अपने आप ही अपने आगे आनेवाले सुखदुःख पूर्ण जन्मोंकी नींव डालता है। वह जितने अधिक चक्कर मारता है उतना अधिक हो उसका चित्त विमूढ़ होता जाता है और मुक्ति उससे दूर भागती है ।। ६२ ।। जिस समय यह आत्मा शुभ-अशुभ क्रियाओं तथा सम, दम आदि गुणोंकी वृद्धिका आधार होता है उस समय भी उसपर चढ़ा हुआ पापों का पर्तं न तो नष्ट ही होता है और न घटता ही है, फलतः वह संसारसे छुटकारा नहीं पाना है । किन्तु जिस समय वह आध्यात्मिक ज्ञान सुख आदि गुणोंके पूर्ण विकासके लिए ही उक्त गुणोंको अपने आपमें पुष्ट करता है, उस समय वह क्षणभर में हो समस्त सांसारिक बन्धनों को तोड़कर फेंक देता है और शीघ्र ही मोक्षमें जा पहुँचता है ।। ६३ ।। जब यह आत्मा शुभ कर्मोंको हो कमाता है तो उसका निश्चित फल यह होता है कि वह अपनी आगामी पर्यायोंमें १. मूल प्रतियोंमें यह श्लोक त्रुटित है । फलतः प्रकरण तथा अन्य सुविधाओंके आधारपर यद्यपि यह पूर्ण किया जा सकता है, पर वह भ्रामक होगा ( अनु० ) । Th चतुर्विंश: सर्गः [ ४८२ ] Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरान चरितम् चतुर्विशः नरकेष्वतितीव्रवेदनेषु ह्यमनोज्ञेष्वसुखावहेषु जीवाः । अकृतार्थतया तमोधृतेषु परिपत्यानुभवन्ति घोरदुःखम् ॥ ६५ ॥ वघवन्धपरिश्रमाद्यनर्थान्बहला भीमतमास्तिरश्चजीवाः । जनमार्णवमप्लवा भ्रमन्तः स्वकृताङ्गः फलतः समश्नुवन्ति ॥६६॥ दुरितान्मनुजा गुणैविहीनाः परभूत्यत्वमुपेत्य दीनभावाः । अवश्यामि भयादिता विषण्णा मरणं यान्त्यथवार्थिनो वराकाः॥ ६७॥ परिवारधनाप्रमेयलक्ष्मीमतिविज्ञानयशःप्रकाशवंशा द्युतिकोतिबलप्रतापभोगाः सुकृतादेव हि नणां भवन्ति सर्वे ।। ६८ ॥ सर्गः ऐसे ही फलोंको पाता है जिनका निश्चित फल सुखभोग ही नहीं होता है अपितु उससे आगेके लिए शुभ कर्माका बन्ध भी । होता है ॥ ६४ ॥ पहिले कह चुके हैं कि नरकोंमें अत्यन्त तीव्र वेदना होती है, इतना ही नहीं वे नरक अत्यन्त वीभत्स और अरुचिकर होते हैं । वहाँकी प्रत्येक परिस्थिति दुःख ही उत्पन्न करती है तथा वे सबके सब गाढ़ अन्धकारसे परिपूर्ण हैं । वहाँ पर उन्हीं जीवोंका जन्म होता है जिन्होंने अपने पूर्व जन्ममें करणीय कार्योंको उपेक्षा की है। वे वहाँपर विविध प्रकारके घोर दुःखोंको सतत सहते हैं ।। ६५ ॥ - जन्म मरणरूपी विशाल पारावारको पार करनेमें असमर्थ जीव संसारचक्रमें घूमते रहते हैं। तथा जब उनके पूर्वकृत कुकर्मोका फल उदयमें आता है तो वे तिर्यञ्च गतिमें उत्पन्न होते हैं जहाँ पर असमयमें ही अकारण वध, बिना अपराधके बन्धन, प्राण लेनेवाला परिश्रम, तथा इसी प्रकारके एक दो नहीं अनेक अनर्थोको वे झेलते हैं जो कि उनके पूर्वकृत कर्माके ही फल होते हैं ।। ६६ ॥ जो मनुष्य, मनुष्योचित गुणोंसे सर्वथा होन हैं तथा जिनमें नैसर्गिक तेज और गौरव नहीं है वे पुरुष पूर्वकृत पापोंके उदय अवस्थामें आनेपर ऐसी दुरवस्थाको प्राप्त होते हैं कि उन्हें अपनी रोटीके लिए भी दसरोंकी सेवा करनो या उनकी ओर देखना पड़ता है। उनपर सदा ही भयका भूत सवार रहता है, जब देखो तब ही खेद खिन्न दिखते हैं, उनका जीवन निन्दनीय हो जाता है। अथवा बिचारे भिक्षुक होकर असमयमें ही काल कवलित हो जाते हैं ॥ ६७ ॥ पुण्यका फल स्वस्थ, स्नेही तथा सम्पन्न परिवार, विविध वैभव, असंख्य लक्ष्मी, यथार्थग्राही मति, विशेष गम्भीर ज्ञान, निर्मल यश तथा जगत् विख्यात वंश पूर्वकृत पुण्योंके ही फल हैं। जिन कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तियोंने पर्याप्त पुण्यका संचय किया है उन्हींको मन१. [ स्वकृतानां ]। २. [ अपयान्ति ]। ३. म भवार्षिता। [४८३] Jain Education international Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराल चतुर्विशः चरितम् सर्गः नृपती हिरवेन्द्रमस्तकस्थानुदितादित्यसमानसरिकरीटान् । शरविन्दुनिभातपत्रचिह्नान् प्रचलच्चामरवीज्यमानलीलान् ॥ ६९॥ प्रविराजितरत्नबद्धहारान् बहुभृत्यैः परियाचितान्समीक्ष्य । स्वपुराजितसत्क्रियाफलेन प्रचलन्तीति बुधाश्च वर्णयन्ति ॥ ७० ॥ यदतुल्यपराक्रमातिसत्त्वान् कुलरूपद्युतिकान्तिभिः समानान् । बहुकोटिनरानथैक एव मनु पूर्वाजितपुण्यतः प्रत्रास्ति ॥ ७१ ॥ इह जन्मनि यः शुभक्रियार्थः स परत्राभ्युपगम्य नाकलोकम् । अणिमादिगुणैर्गुणप्रधानैः सुचिरं क्रीडति निर्गमप्रबन्धैः ॥ ७२ ॥ मोहक कान्ति, प्रभावक कीर्ति, अजेय बल, परजनोंका पराभवकारक प्रताप, दुःख संसर्गहीन चिरकाल स्थायी यथेच्छ भोग, आदि D सब ही सुख प्राप्त होते है ।। ६८ ॥ विवेकी पुरुष जिस समय राजा रूपमें मदोन्मत्त हाथियोंपर आरूढ़ होकर चलते हैं, पूर्वाचलपर उदित हुए सूर्यके उद्योतके सदृश प्रकाशमान उत्तम मुकुटोंकी ज्योतिसे शोभित होते हैं, शरद् पूर्णिमाकी रात्रिमें उदित पूर्णचन्द्रकी धवल शीतल कान्तिके तुल्य छत्रोंकी शोभासे प्रभावित होते हैं, लीलापूर्वक ढुरते हुए सुन्दर चंचल चमरोंके माहात्म्य अनुभव करते हैं ।। ६९ ।। इन राजाओंके गले में पड़े मणिमय विशाल हारोंको पहिनते हैं जिनकी छटा चारों ओर फैली रहती है, उनके साथ अनेक आज्ञाकारी सेवक रहते हैं जो पुनः पुनः उनसे करणीय काम पूंछते हैं। यह सब देखकर विद्वान् लोग यही कहते हैं कि यह सब विभव तथा भोग पूर्वभवमें संचित किये गये अपने पूर्वपुण्यके फलसे ही मिलते हैं, अन्यथा नहीं ॥ ७० ॥ प्रत्येक राज्यमें अनेक अनुपम पराक्रमो तथा लोकोत्तर बलशालो, पुरुष नहीं होते हैं, अपितु जहाँ तक उच्चवंश, शारीरिक सौन्दर्य, तेज, मनमोहक कान्ति, आदि गुणोंका सम्बन्ध है ये लोग राजाके ही समान होते हैं। तो भी इस प्रकारके सुयोग्य एक | दो ही पुरुषोंको नहीं अपितु करोड़ों पुरुषोंपर जो राजा नामधारी अकेला जन्तु ही शासन करता है, इसमें उसकी कोई असाधारणता साधक नहीं है, अपितु उसका पूर्वोपार्जित पुण्य ही परम प्रेरक है ।। ७१ ॥ जो पुरुष इस जन्ममें अपने तथा पराये कल्याणके साधक कार्योंमें लीन रहता है, वह यहाँको आयुके समाप्त होते ही दूसरे जन्ममें स्वर्गलोकको शोभा बढ़ाता है। वहाँ पहुँच कर वह गुणोंके राजा अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियोंको प्राप्त करता है। तथा इनके प्रतापसे प्राप्त अनेक निरन्तर क्रीड़ाओंको करता हुआ चिरकाल तक सुखभोग करता है ।। ७२ ॥ १. क नृपति [ नृपतीन् । २. क सत्तिरीटान् । ३. क सर्वान् । ४. क एवन्ननु, [ एवं ननु ] | For Private & Personal use only LEASELIERSPETHORIRALATHRISSIGIRASAIRS [४८४] Jan Education International Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अजराम्बरहेमभूषणानामपरिम्लानसुवामधारिणीनाम् । शुभरूपकलागुणान्वितानां प्रतिभावं व्रजति घुसुन्दरीणाम् ॥७३॥ स्मितपूर्वमनोज्ञभाषिणीभिः सरतप्रीत्यनकलकारिणीभिः । वरवेषविलासविभ्रमाभी रमते नित्यमतन्द्रितः श्रियाभिः ॥ ७४ ॥ रविकोटिसहस्रभासुरारेणां प्रचलत्कुण्डलहारविभूषितानाम् । कुरुते विभुतादिवश्यतीना भमरेन्द्रः सुकृतादपेतसाक: ।। ७५ ॥ इति मधुरवचोभिरर्थवद्भिः समपनयन्दुरनुष्ठितान्पदार्थान् । अधिगतनयहेतुवादमार्गः स्फुटमवदन्नपतिस्तदा सभायाम् ॥ ७६॥ चतुर्विशः सर्गः चरितम् वह ऐसी स्वर्गीय सुन्दरियोंका पति होता है जिनके निर्मल आकर्षक वस्त्रों तथा सोने आदि बहुमूल्य धातुओंसे बने भूषणोंपर कभी धूल या मैल बैठता ही नहीं है। वे सुन्दर सुगन्धित मालाओं और पुष्पोंसे सजी रहती हैं, वे सब कभी मुरझाते नहीं हैं। उनकी रूपलक्ष्मी शुभ तथा आकर्षक होती है, ललित कलाओंमें पारंगत होती है तथा कोई भी ऐसा गुण नहीं है जो । उनमें न पाया जाता हो । ७३ ॥ वे देवाङ्गनाएँ जब कभी बोलती हैं तो उसके पहिले मुस्कराती हैं उनके शब्द अत्यन्त प्रिय होते हैं, उनकी चेष्टाएँ प्रोतिको बढ़ाती हैं तथा सुरतिको उत्तेजित करती हैं । वेषभूषा कुलीन एवं उदात्त नायिकाओंके उपयुक्त होती है, हावभाव आदि विलास शिष्ट और इष्ट होते हैं तथा रूठना आदि विभ्रम परम हृदयहारी होते हैं। ऐसी प्रियाओंके साथ पुण्यात्मा स्वर्गमें सदा विलास करते हैं । ७४ ।। देवताओंके राजा इन्द्रके गलेमें पड़े हार तथा कानोंके कुण्डलोंकी कान्ति तथा उद्योत इतने विशाल होते हैं कि यदि एक साथ एक दो नहीं हजारों करोड़ सूर्य उदित हो जाय तो उनकी सम्मिलित प्रभा भी उसकी समता न कर सकेगी। ऐसा इन्द्र जो अपने जीवनमें कभी शोककी कल्पनाको भी नहीं जानता है। वह ही अपने पूर्वभवमें अजित पुण्यके प्रभावसे देवगतिमें चिरकाल पर्यन्त स्वर्गके स्वामियोंकी भी प्रधानता करता है ॥ ७५ ।। धर्मज्ञान प्रशंसा राजसभामें उन्नत सिंहासनपर विराजमान सम्राट वरांगराजने गम्भीर अर्थपूर्ण सरल तथा मधुर वचनोंके द्वारा १. [परजोऽम्बर 11, २. [पतिभावं ]। ३. म सहस्र प्रभा । ४. हारभूषितानाम् । ५[विभुतां दिवस्पतीनाममरेन्द्रः]। ६. ( °शोकः )। मामयमRAIADMRSAURURSADERSHARIRSTAGRATHI [४ ] . Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ URI अबुधहृदयवञ्चनानिमित्तं परिपठितं शठवादिभिद्विजैर्यत् । पुनरपि नपतिविशालबुद्धिः कथयितुमारभते स्म वेदगुह्यम् ॥ ७७ ॥ बराज इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिते परवादिविघातको नाम चतुर्विंशतितमः सर्गः । TOT चतुर्विशः सर्गः चरितम् R ORout मिथ्या-दृष्टि मतप्रवर्तकों द्वारा चलाये गये कुमार्गोंके कुतर्कोका खंडन किया था, और सप्त नय तथा सप्त भंगयुक्त परिपूर्ण ज्ञानके साधक मार्गको समझाया था। यह सब उपदेश उस समय उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट तथा आशुबोध शैलीमें किया था ।। ७६ ।। जो पुरुष भोले तथा अज्ञानी हैं उनके सरल हृदयको ठगनेकी अभिलाषासे स्वार्थी दुष्ट तथा हठी विद्यावृत्तिप्रधान द्विजोंने जो कुछ भी वेद-ज्ञानमार्गके नामपर अव्यवस्थित उपदेश दिये हैं, उस समस्त ज्ञानके रहस्यको स्पष्ट कर देनेके ही लिए उदार विचार, सन्मति तथा सम्यक्दृष्टि सम्राटने फिरसे व्याख्यान देना प्रारम्भ किया था ।। ७७ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें परवादिघातक नाम चतुर्विशतितम् सर्ग समाप्त । IRANAGARIMARSHAIRCELOR KE न्यायमायामासारामचा [४८६ Jain Education international Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविंशः सर्गः अथावनीन्द्रः स महासभायां प्रकाशयन्धर्मकथापुराणम् । मिथ्यामहामोहमलीमसानां चित्तप्रसादार्थमिदं जगाद ॥१॥ अष्टक' एवात्र यदि प्रजानां कथं पुनर्जातिचतुष्प्रभेवः। प्रमाणदृष्टान्तनयप्रवादैः परीक्ष्यमाणो विघटामुपैति ॥२॥ चत्वार एकस्य पितुः सुताश्चेत्तेषां सुतानां खलु जातिरेका । एवं प्रजानां च पितक एव पिकभावाच्च न जातिभेदः ॥३॥ पंचविंशः सर्यः पञ्चविंश सर्ग वर्ण व्यवस्था आनर्तपुरकी आदर्श राजसभामें विराजमान विशाल पृथ्वीके पालक सम्राट वरांग सत्यधर्म, उसके पालक, शलाका (आदर्श ) पुरुषों को जीवन गाथा तथा अन्य पुराणोंके रहस्य तथा आदर्श अपने मंत्री, आदि सब हो अधिकारियों तथा जनताके हृदयमें बैठा देना चाहते थे क्योंकि ऐसा किये बिना उन सबके चित्तको वह कालिमा नहीं धुल सकती थी जो कि विशेष रूपसे । मिथ्यात्वके कारण तथा साधारणतया कर्मोकी कृपासे उनके भीतर घर कर चुकी थी। इस उद्देश्यको सफल करनेके लिए ही उन्होंने फिर अपने व्याख्यानको प्रारम्भ किया था ॥१॥ 'समस्त संसारकी प्रजामें यदि अपनी अनेक साधारण योग्यताओंके कारण ऐक्य हो है, तो यही प्रश्न उठता है कि मनुष्य-वर्ग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार ( वर्गों) जातियोंमें किस आधारपर विभक्त किया गया है। मनुष्यके इन चार भेदोंको जब हम प्रमाण, नय तथा इनको विशद करके समझाने में समर्थ दृष्टान्तोंको विस्तृत तथा सूक्ष्म कसौटीपर ( युक्तिशास्त्र ) कसते हैं तो यह जाति व्यवस्था बिल्कुल उलझ जाती है ॥२॥ यों समझिये, एक पिताके चार पुत्र पैदा हुए, उन चारोंको अवस्था, रंगरूप आदि सब ही बातोंमें तारतम्य होने पर भो इतना निश्चित है कि उनकी जाति एक ही होगी । पूर्ण विश्वके मनुष्योंका उत्पादक वैदिकों ब्रह्मा ( 'मनुष्य जाति'-नामकर्म) एक ही है, और जब कि मूल उत्पादक एक ही है तो कोई कारण नहीं कि उनकी जातियां अलग-अलग हों ।। ३॥ १. [ अस्त्यैक ] । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् मानि फलान्यथोदुम्बरवृक्षजातेर्ययाप्रमध्यान्तभवानि यानि । रूपाक्षतिस्पर्शसमानि तानि तथैकतो जातिरपि प्रचिन्त्या ॥४॥ ये कौशिकाः काश्यपगौतमाश्च कौण्डिन्यमाण्डव्यवसिष्ठगोत्राः । आत्रेयकोत्साङ्गिरसाः सगार्या मौद्गल्यकात्यायनभार्गवाश्च ॥५॥ गोत्राणि नानाविधजातयश्च मातृस्नुषामैथुनपुत्रभार्याः । वैवाहिक कर्म च वर्णभेदः सर्वाणि चैक्यानि भवन्ति तेषाम् ॥ ६॥ न ब्राह्मणाश्चन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुष्पगौराः । न चेह वैश्या हरितालतल्याः शूद्रा न चाङ्गारसमानवः ॥७॥ पंचविंशः सर्गः इन सबके कुल कमसे हम देखते हैं कारणासे अनेक ज किसी भी वटके विशाल वृक्षमें बिल्कुल नीचेकी डालसे आरम्भ करके शिखापर्यन्त फल आते हैं। नीचे, ऊपर, बीच, दायी, बाई ओर आदि अनेक भागोंमें उत्पन्न होकर भी उन सबके मन्द लाल रंग, निश्चित गोल आकार, धन तथा मृदु स्पर्श A आदि सब ही गुण समान होते हैं, फलतः उनको एक हो जाति होती है। इसो दृष्टिसे विचार करनेपर मनुष्य जाति भी एक ही प्रतीत होती है ।। ४ ।। विविध वंश हमारे संसारमें कौशिक (विश्वामित्र ) काश्यप, गौतम, कौंडिन्य, माण्डव्य तथा बसिष्ठ गोत्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । अत्रि (आत्रेय) कुत्स ( कौत्स ) अंगिरस (आंगिरस ) गर्ग ( गार्य ) मुद्रल ( मौद्रल) कात्यायन तथा भृगु ( भार्गव ) ऋषिके बाद इन सबके कुल भी सुविख्यात रहे हैं ।। ५ ॥ इस क्रमसे हम देखते हैं कि माता, पुत्रवधु, साला अथवा मामा, पुत्र, पति-पत्नी आदिके विविध गोत्र ही नहीं हैं, अपितु । उनकी प्रधानताको प्रचलित रखनेको प्रेरणासे अनेक जातियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। प्रत्येक जाति और गोत्रकी विवाह व्यवस्था पृथक्-पृथक् है, अनेक वर्ण हैं। किन्तु निश्चय दृष्टिसे देखनेपर यही प्रतीत होता है कि उक्त असंख्य वर्गोमें विभक्त मनुष्य जातिकी सब हो प्रवृत्तियाँ एक समान हैं ॥ ६ ॥ सूक्ष्म पर्यवेक्षण करनेपर यही निष्कर्ष निकलता है कि ब्राह्मण पूर्णचन्द्रकी शीतल किरणोंके तुल्य धवल नहीं हैं, क्षत्रियोंका बाह्यरूप तथा आचरण भो किंशुक पुष्पके समान लालिमायुक्त गौर नहीं है, तृतीय वर्गमें विभक्त वैश्योंका आचार-विचार भी हरिताल पुष्पके समान हो नोल-हरे रंगका नहीं है तथा अन्तिमवर्ण शूद्रोंका शरोर तथा मन भी बुझे हुए अंगारके ( कोयले) समान कृष्णवर्ण नहीं ही होता है ।।७।। १. [ रूपाकृति ]। २. क चैत्यानि । चामा [४८८] Jain Education international Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज पंचविंशः परितम् पावप्रचारेस्तनुवर्णकेशैः सुखेन दुःखेन च शोणितेन । स्वग्मांसमेवोऽस्थिरसैः समामाश्चतुःप्रभेदाश्च कथं भवन्ति ॥८॥ कृते युगे नास्ति च वर्णभेवस्त्रेताप्रवृत्तावथवाथ भृत्यम् । आभ्यां युगाभ्यां च निकृष्टभावाद्यवापरं वर्णकुलाकुलं तत् ॥९॥ इति प्रवादैरतिलोभमोहैढेषैः पुनर्वर्णविपर्ययैश्च । विश्रम्भघातैः स्थितिसत्यभेदैर्यक्तः कलिस्तत्र भविष्यतीति ॥१०॥ क्रियाविशेषाव्यवहारमात्राद्वयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥ ११ ॥ सर्गः चारों वर्गों के मनुष्योंकी त्वचा, मांस, रक्त, मज्जा, हड्डो तथा शुक्र आदि समस्त रस एक ही प्रकारके होते हैं। उनके चलने, उठने, बैठने, शरीरके साधारण निर्माण, रंगरूप, केश आदि अंगों तथा चेष्टाओंमें भी कोई भेद नहीं होता है। सुख, शोक, चिन्ता, दुख, प्रसन्नता, शम, आदि भावोंका विचार करने पर तो मनुष्यमात्रमें कोई भी भेद दृष्टिगोचर होता ही नहीं है ।। ८॥ जहाँतक पौराणिक ख्यातोंका सम्बन्ध है वे स्पष्ट कहते हैं कि कृतयुगमें किसी भी प्रकारका वर्ण-विभाजन न हुआ था। सत्युगके समाप्त होनेपर त्रेताका आरम्भ हुआ तब हो कुछ स्वार्थान्ध पुरुषोंने सेवा करानेके लिए एक भृत्यवर्गकी नींव डाली थी। सत्युग और त्रेताको अपेक्षा द्वापरयुगमें मनुष्यको चिन्ता तथा आचरण अधिक दूषित हो गये थे अतएव इस युगमें वर्णों तथा उनके भी उपभेदोंका बाजार गर्म हो गया था ॥९॥ इनके बाद कलियुग ऐसा होगा जिसमें उक्त प्रकारके निराधार प्रवाद फैलाये जायेंगे। उस चतुर्थ युग में मनुष्योंका । सामान्यरूपसे मोह तथा विशेष कर द्वेष और लोभ बढ़ जायगे। चारों वर्णके लोग अपनी मर्यादाका लंघन करेंगे फलतः पूरी व्यवस्था उलट जायगी । आपसमें पुरुष एक दूसरेके साथ विश्वासघात करेंगे तथा किसी विषयपर दृढ़ आस्था न करेंगे। आचारविचारकी मर्यादा तथा सत्य आदिका लोप करेंगे ॥ १०॥ जो शान्त परिणाम उदाराश्य पूरुष हैं उनके मतसे, मनुष्यको परमप्रिय ( पठन, रक्षणादि ) कर्म अथवा व्यवसाय, उसका आचरण तथा व्यवहार नियत हैं दया, क्षमा एवं आदि गुणोंका पालन तथा, खेती, शिल्प, अभिरक्षा, आदि आजीविकाके में उपायोंमें भिन्नता होनेके कारण ही चारों वर्णोका विभाजन हुआ है। इन कारणोंके अतिरिक्त दूसरे और कोई कारण नहीं हैं। जिनके आधारपर वर्णव्यवस्थाका महल खड़ा किया जा सके ॥ ११ ॥ Jain Education Interational Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् वेदाः प्रमाणं यदि यस्य पुंसस्तेन ध्रुवो यज्ञविधिस्त्वभीष्टः । हिंसानुबन्धाः खलु सर्वयज्ञाः हिंसा परप्राणिविहिंसनेन ॥ १२ ॥ प्राणातिपातश्च महानधर्मः सर्वेषु वर्णाश्रमिणां मतेषु । पंचविंशः अधर्मतोऽन्धे तमसि प्रविश्य जीवः समाप्नोति विचित्रदुःखम् ॥१३॥ यज्ञे' वधे नैव वधोऽस्ति कश्चिद्वध्यो ध्रवं याति सरेन्द्रलोकम। इदं वचो धूर्तविटस्य वेद्यं दयोपशान्तिश्रतिवजितस्य ॥ १४ ॥ स्ववन्धुमित्रान्प्रियपुत्रपौत्रान् दारिद्यूदुःखातिवियोगखिन्नान् । सुखार्थिनस्तान्सुगतिप्रकाशान् जुहुर्न' चेत्तथ्यमिदं वचः स्यात् ॥ १५ ॥ यज्ञिको हिंसा जो व्यक्ति वेदोंमें कहे गये प्रत्येक उपदेशको प्रमाण मानते हैं, उन्हें वेदोंमें वणित विविध यज्ञोंको सत्य ही न मानना पड़ेगा, अपितु उन सबको करना भी उनका अनिवार्य तथा अभीष्ट कर्तव्य हो जायगा। कोई भी यज्ञ ऐसा नहीं है जिसमें हिंसा का उपक्रम न करना पड़ता हो और यह तो निश्चित ही है कि जब हिंसा की जायगी तो कुछ निरपराध प्राणियोंको अपने जीवनसे हाथ धोने ही पड़ेंगे ॥ १२ ॥ यह कौन नहीं जानता है कि प्राणोंको नष्ट करनेसे प्रत्येक अवस्थामें महान पाप ही होता है। कोई भी धर्म, आश्रम अथवा वर्ण हिंसाको पुण्यकार्य नहीं मानता है । निष्कर्ष यह हुआ कि वेदके अनुसार यज्ञ-यागादि करके जीव अधर्मको कमायेंगे और जब उसका फल उदयमें आयेगा तो वे घोर अन्धकारपूर्ण नरक आदि योनियोंमें जन्म लेकर विविध, विचित्र तथा भीषण दुःखोंको सहेंगे ।। १३ ॥ यज्ञमें जो प्राणी बलि किया जाता है उसके प्राण लेनेमें कोई हिंसा नहीं है, क्योंकि जो प्राणधारी मारा जाता है । उसका उद्धार हो जाता है, वह सीधा स्वर्ग चला जाता है । यह वचन किसी ऐसे धूर्त अथवा दुराचारी पुरुषके मुखसे निकले हैं " जो सत्य शास्त्रका अक्षर भी नहीं जानता था तथा जिसपर दया, शान्ति आदि सद्गुणोंकी छांह तक नहीं पड़ी थी ॥ १४ ॥ ९.) जो पुरुष यज्ञ करते हैं वे सांसारिक दुःखों तथा अन्य मानसिक व्यथाओंसे व्याकुल होते हैं तथा इनसे बचकर सुखभोगके लिए तरसते हैं । उनके सगे भाई-बन्धु, मित्र, प्राणाधिका पत्नो, पुत्र, पौत्र आदि भी दरिद्रता, रोग आदि अप्रिय संयोगोंके कारण जीवनसे खिन्न हो जाते हैं और चाहते हैं कि किसी भी प्रकार उक्त विपत्तियोंसे छुटकारा पाकर सुखीरूपसे जीवन निर्वाह करें। इन परिस्थितियोंके रहते हुए यदि ऊपरका वाक्य ( यज्ञमें मरे पशु आदि स्वर्ग जाते हैं ) सत्य होता तो यज्ञकर्ता सबसे पहिले अपने । १. [ याज्ञे ]। २. म पौत्रपुत्रान् । ३. क जहुन । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशूनथाज्ञानगतीननाथान्न वाञ्छतः स्वर्गसुखं कदाचित् । आहारमात्राभिरतानभवान् हत्वा जडान्कि लभते वराकान् ॥ १६ ॥ यद्यत्र सत्त्वान्विमतीन्निहत्य वेदापदेशाद्विगतानुकम्पैः । द्यौगम्यते वेदकृतात्मभिस्तैः कैर्गम्यते श्वभ्रसुखं बदन्तु ॥ १७ ॥ स्वायंभुवैर्यज्ञविधावहिंसा प्रोक्ता पुनर्जीवदयार्थमेव । वर्षत्रयप्रोषितपिण्डपिण्डैर्यदिष्यते सत्रिसमैः' पुराणैः ॥ १८ ॥ नभश्चरः सर्वनूपप्रधानो वसुमहात्मा वसुधातलेऽस्मिन् । एकेन मिथ्यावचनेन राजा रसातलं सप्तममाससाद ॥ १९॥ पंचविंशः - सर्गः GIRRIAGIRIRGIजयमालयमाच्यमान्य सगे सम्बन्धियोंका हो होम करते ।। १५ ।। संसारके भोले-भाले पशुओंको अपने हित-अहितका ज्ञान ही नहीं होता है । मनुष्यके बन्धनमें पड़कर उनके निर्वाहका १ कोई दूसरा सहारा ही नहीं रह जाता है । कूटबुद्धि मनुष्यके विरुद्ध कोई भी शक्ति उनकी रक्षक नहीं हो सकती है । वे इतने । साधारण प्राणी होते हैं कि दिन-रात अपने पेटको भरनेकी हो चिन्तामें लगे रहते हैं। वे कभी भी स्वर्ग जानेकी अभिलाषा नहीं करते हैं । तब समझमें नहीं आता कि इन मूक प्राणियोंको मारनेसे कौन-सा कार्य सध सकता है ।। १६ ॥ वेदोंकी पूर्वापर विरोधयुक्त शिक्षाओंपर विश्वास करके यदि कुछ ऐसे लोग जिनमें दया और क्षमाका नाम भी नहीं है, वे ही ज्ञानहीन भोले-भाले प्राणियोंकी बलि करते हैं, तो प्रश्न यही है कि यदि ऐसा भयंकर कुकर्म करके भी वे लोग स्वर्ग चले जाते हैं, तो बताइये विविध दुःखोंसे व्याप्त करक कुण्डमें कौन गिरेंगे? ॥ १७ ॥ प्रासुक-बलि अपने पुरुषार्थक प्रतापसे परमपदको प्राप्त स्वयंभू वीतराग (आदिनाथ ) प्रभुने पूजा तथा विधानके समय पूर्ण यत्नपूर्वक जो अहिंसा पालन करनेका उपदेश दिया है उसका प्रधान उद्देश्य जीवदया ही है। इसीलिए उन्होंने कहा था कि तीन वर्ष तक रखे रहे जौ, चावल आदि अन्नोंकी ही बलि होमके समय करनी चाहिये क्योंकि वे पुराने होकर सत्रि ( वनस्पतिकायिक समिधा ) के समान हो जाते हैं ।। १८ ॥ राजा, चक्रवर्ती, विद्याधरों आदिसे परिपूर्ण इस पृथ्वीपर महाराज वसु हुए थे। उन्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध थी, उनका वैयक्तिक आचार-विचार इतना उन्नत था कि लोग उन्हें महात्मा मानते थे, समस्त राज-मण्डलके प्रधान तो वे थे ही। किन्तु इन यज्ञोंके विषयमें ही उन्हें एक झठ वाक्य बोलना पड़ा था, जिसके फलस्वरूप वे सीधे सातवें नरक जा पहुंचे थे ।। १९ ॥ १.क सत्रितयः। -REARRIAGE Jain Education international Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अद्यापि तस्य क्षितिपोत्तमस्य द्विजातिभिर्मन्त्रपदप्रवीणैः । उत्थापनं यत्क्रियतेऽनभिज्ञैस्तदेव पर्याप्तमिहात्मवद्भूयः ॥ २० ॥ साकेतपुर्यां सुलभानिमित्तं कृतं निदानं मधुपिङ्गलेन । पुरावराभ्यागमनं च तस्य को नाशृणोद्धारतजातमर्त्यः ॥ २१ ॥ तस्माच्च मायामदलोभरागद्वेषेण रोषेण च संनिबद्धाः । वेदाश्च वेदाध्ययनप्रसक्ता हितार्थिभिस्त्याज्यतमा मनुष्यैः ॥ २२ ॥ दत्तं पुरा क्रूरनृपेण दानं किमिच्छकं सर्वजनाय शक्त्या इति प्रतीता किल तस्य कीर्तिर्यदुप्रवीरस्थ महीतलेऽस्मिन् ॥ २३ ॥ ज्ञानी पुरुष जानते ही हैं कि वर्तमान में भी यज्ञयागादिमें लोन बड़े-बड़े ब्राह्मण पण्डित जो कि मन्त्रोंके पाठ, सिद्धि, आदि प्रक्रिया विशेषज्ञ हैं, वे भी यद्यपि हिंसा सम्बन्धी रहस्यको नहीं समझते हैं, तथापि अनेक मंत्रपाठ करके राजा बलिका ( नरकसे) उत्थापन करते हैं। महात्मा राजा बलिकी यह सब दुर्दशा ही आत्मज्ञानियोंकी आँखें खोल देनेके लिए काफी है ॥ २० ॥ मधुपिंगल नामके राजर्षिने पुराने युगमें सुलसाको प्राप्त करनेके लिए ही साकेतपुरीमें (अयोध्या) निदान ( किसी वस्तु विशेषको चाहना तथा उसीके लिए सब कार्य करना ) यज्ञ किया था। उस समय वह उस श्रेष्ठ नगरपर आया था इस समस्त वृत्तान्तको कौन ऐसा मनुष्य है जो भारतवर्ष में जन्मा हो और न जानता हो ॥ २१ ॥ इस सब वर्णन तथा युक्तियोंको देखनेके पश्चात् यही परिणाम निकलता है कि माया, अहंकार, लोभ, राग, द्वेष, क्रोध आदि सब ही कुभावोंसे प्रेरित होकर वेदोंकी रचना की गयी है। अतएव जो पुरुष वास्तवमें आत्माका हित चाहते हैं उन्हें वेद तथा वेदोंके पठन-पाठन, प्रचार आदि कर्मोंमें लीन व्यक्तियोंकी संगतिकी अवश्य ही छोड़ देना चाहिये । हिंसाकी घातकता प्राचीन युगकी ही घटना है कि यदुवंश में उत्पन्न महाराज [ अ ] क्रूरने सब ही अभावग्रस्त व्यक्तियोंको उनकी इच्छा के अनुसार देना -[ किमिच्छ ] दान दिया था। यही कारण है कि इस पृथ्वीतलपर यदुवंशके उस वीर शिरोमणि महापुरुषकी यशगाथा आज भी जनताको याद है, तथा लोग उसे कहने सुनने में गौरवका अनुभव करते हैं ।। २३ ।। १. क निधानं । पंचविंश: सर्गः [ ४९२] Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् तेनान्नरक्षार्थमवुष्टबुध्धा स्वाकारितः काष्ठमयोऽतिरौद्रः । निर्भत्सतस्तेन पुनद्वजान्धः पञ्चत्वमापत्सहसातिभीतः ॥ २४ ॥ एकस्य विप्रस्य विराधनेन श्वभ्रं गतः क्रूर इति श्रुतिश्चेत् । समस्तसत्वातिनिपातनेन यज्ञेन विप्रा न कथं प्रयान्ति ॥ २५ ॥ धर्मक्रियाया हि दयैव मूलं दया विनष्टा परसस्त्वघातात् । तेनाश्नुते दुःखशतानि जीवस्ततो हि हिंसा परिवर्जनीया ॥ २६ ॥ फलं कल्यान हि [ - ] पायान्नेक्षुर्नतो कोद्रवतो न शालि: । ततः सुखेषी सुखमेव कुर्यात्सुखं च दद्यात्क्रियया परेभ्यः ॥ २७ ॥ इन्हीं क्रूर महाराजने लकड़ीका कुत्ता बनवाया था। वह आकार तथा ध्वनि आदिमें अत्यन्त डरावना था । महाराज करके मनमें किसी भी प्रकारका पाप न होनेपर भी, उन्होंने अन्नकी रक्षा करनेके लिए ही एक दिन उस कुत्ते को ललकार दिया था। वह एक अन्धे ब्राह्मणको अपनी ओर आता देख कर उसपर इतने जोरसे भोंका था कि उसके रौद्र स्वरको अकस्मात् सुनते ही वह ब्राह्मण अत्यन्त भीत होकर मर गया था ॥ २४ ॥ आज भी लोग कहते हैं कि वह उदार तथा सदाचारी राजा क्रूर एक ब्राह्मणके वधमें; परम्परासे कारण होकर भी घोर नरकमें गया है । तब यही सोचना है कि संकल्पकपूर्वक पशु पक्षीसे लेकर मनुष्य तकको यज्ञ में मारनेवाले मंत्रवेत्ता ब्राह्मण लोगोंको कौनसी शक्ति है, जो नरक जानेसे बचायेगी ? ॥ २५ ॥ या धर्मका मूल जिस आचार तथा विचारको धर्मं नामसे पुकारते हैं, उस समस्त प्रपंचकी मूल भित्ति दया ही है। यह दया ज्यों ही मनुष्य किसी भी जीवकी भाव अथवा द्रव्य हिंसा करता है, त्यों ही दया नष्ट हो जाती है । दयाके नष्ट हो जानेपर इस जीवसे एक दो ही अनर्थं नहीं होते हैं, अपितु सैकड़ों प्रकारके दुःख उसे सहने पड़ते हैं । अतएव प्रत्येक प्राणीका प्रधान कर्त्तव्य है कि दयाकी नींवको उखाड़नेवाली हिंसाको, थोड़ा भी प्रमाद बिना किये निकाल फेंके ॥ २६ ॥ शिशपा ( शीशम ) के पेड़को लगाकर उसमेंसे केलेके फल नहीं तोड़े जा सकते हैं, सेवार ( पानीकी घास) से गन्नेका रस नहीं निकाला जा सकता है तथा कोदों धान्यसे चावल नहीं बनाये जा सकते हैं। इसी प्रकार बध, बन्धन, आदि कुकर्मों से सुख प्राप्ति नहीं ही हो सकती है। जो कोई मनुष्य अपने लिए सुख चाहता है उसका कर्त्तव्य है कि अपनी प्रत्येक चेष्टा तथा भावके द्वारा वह दूसरोंको सुख ही देवे ॥ २७ ॥ १. [ श्वा कारितः ] । २. कनेक्षनंता, [ नेक्ष नंडात् ] । For Private Personal Use Only पंचविशे: सर्गः [ ४९३] Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंशा सर्गः द्विजातयो मुख्यतमा नलोके तद्वाक्यतो लोकगतिः स्थितिश्च । देवाश्च तेषां हवनक्रियाभिस्तृप्ति प्रयान्तीति च लोकवादः ॥ २८ ॥ पत्राणि पुष्पाणि फलानि गन्धानवस्त्राणि नानाविधभोजनानि । संगृह्य सम्यग्बहुभिः समेताः स्वयं द्विजा राजगृहं प्रयान्ति ॥ २९ ॥ प्रवेष्टुकामाः क्षितिपस्य वेश्म द्वास्थैनिरुद्धाः क्षणमीक्षमाणाः । तिष्ठन्त्यभद्राः करुणं ब्रुवाणा नालं किमेतत्परिभूतिमूलम् ॥ ३० ॥ यदीश्वरं प्रीतिमखं स्वपश्यंस्ते मन्यते भूतलराज्यलाभम् ।। पराइमखश्चेन्नपतिस्तथैव राज्याद्विनष्टा इव ते भवन्ति ॥३१॥ ब्राह्मत्व विचार संसारमें एक किंवदन्ती बहुत समयसे चली आ रही है कि मनुष्योंके सब वर्णों तथा वर्गोमें द्विज ( ब्राह्मण ) ही सबसे बढ़कर हैं । उनके उपदेश तथा व्यवस्थाके आधारपर ही सांसारिक व्यवहार चलते हैं तथा कर्त्तव्य आदिकी मर्यादाएँ निश्चित होती हैं । इतना ही नहीं जब ब्राह्मण लोग हवन आदि कार्य करते हैं तो देवता लोग उनपर संतुष्ट हो जाते हैं ॥ २८ ॥ इसी विश्वासके सहारे वे ब्राह्मण लोग अनेक धर्मभीरु पुरुषोंसे पत्र, पुष्प, फल सुगन्धि पदार्थ आदि ही नहीं लेते हैं अपितु बहुत प्रकारके वस्त्र तथा नाना विधिके व्यञ्जन ग्रहण करके दाताओंको पुण्यसंचय करनेका शुभ अवसर देते हैं ॥ २९ ॥ किन्तु जब ये पुण्यदाता राजमहल में प्रवेश करने जाते हैं, तो द्वारपाल इन्हें द्वारके बाहर ही रोक देते हैं। इन्हें भी पृथ्वीपतिके राजसदनमें जानेकी आवश्यकता रहती है, अतएव रोके जाने पर घंटों प्रतीक्षा करते खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं आत्मगौरवकी भावनासे हीन द्वारपाल ये द्विज, दीन होकर वचन कहते हैं। क्या यह सब पराभव उनकी शक्तिहीनताको स्पष्ट करनेके लिए काफी नहीं है ? ॥ ३० ॥ देवताओंके प्रिय ( मूर्ख ) ये ब्राह्मण लोग राजसदनमें प्रवेश पाकर यदि पृथ्वीपतिको प्रसन्न रूपमें देख पाते हैं, तोHERv] इनकी प्रसन्नता इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें ऐसा अनुभव होता है, मानों उन्होंने समस्त पृथ्वीका राज्य ही पा लिया है। राज महलमें यदि धुस ही न सके अथवा भीतर जाकर ही यदि राजाको अपने प्रति उदासीन पाते हैं तब तो उन्हें ऐसा ही लगता है है मानो वे किसी विशाल साम्राज्यके सिंहासनपरसे घसीटकर भूमि पर फेंक दिये गये हैं ॥ ३१ ॥ -मनमाडम्यानमारमा Jain Education international Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् भवन्ति रोषान्नृपतेद्विजानां दिशो दश प्रज्वलिता इवात्र । द्विजातिरोषान्नृपतेः पुनः स्याद्भल्लातकस्नेह इवाश्मपृष्ठे ॥ ३२ ॥ ये निग्रहानुग्रहयोरशक्ता द्विजा वराका परपोष्यजीवाः । मायाविनो दीनतमा नृपेभ्यः कथं भवन्त्युत्तमजातयस्ते ॥ ३३ ॥ तेषां द्विजानां मुखनिर्गतानि वचांस्यमोघान्यघनाशकानि । इहापि कामान्स्वमनः प्रक्लृप्तान्' लभन्त इत्येव मृषावचस्तत् ॥ ३४ ॥ रसस्तु गौडो विषमिश्रितश्च द्विजोक्तिमात्रात्प्रकृति स गच्छेत् । सर्वत्र तद्वाक्यमुपैति वृद्धिमतोऽन्यथा श्राद्धजनप्रवादः ॥ ३५ ॥ तथोक्त मनुष्यवर्ग के नेता ब्राह्मणोंपर जब राजा की वक्रदृष्टि हो जाती है तो उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि उनके चारों ओर दशों दिशाओं में भयंकर ज्वाला भभक उठी है । और यदि राज्यके सभी ब्राह्मण सम्मिलित रूपमें राजाके विरुद्ध हो जाय तो उसका वही प्रभाव राजापर होता है जो कि भिलमें ( भल्लातक) के तेलको पत्थरको चट्टानपर बहानेसे हो सकता है। मनुष्यके मस्तक के समान पत्थर न फूलसे भी सूजता है ॥ ३२ ॥ सोचिये तो, कि जो ब्राह्मण न तो किसीको अनुचित कार्य अथवा पराभव के लिए शिक्षा ( सजा) ही दे सकते हैं, न प्रसन्न होकर किसीका कोई भला ही कर सकते हैं। साधारणसे कार्यके समान सिद्धि के लिए संसारभरके छल कपट करते हैं । जो सबसे अधिक दीन हो चुके हैं। इतना ही नहीं जिन विचारोंका भरण-पोषण ही दूसरोंकी कृपापर आश्रित है, वे ही ब्राह्मण समझमें नहीं आता क्यों कर राजाओंसे भी बढ़कर जातिवाले हो सकते हैं ? ॥ ३३ ॥ 'ऐसे दीन हीन ब्राह्मणों के मुखसे निकले हुए आशिष तथा अभिशापमय वचन कभी झूठ हो ही नहीं सकते हैं । उनके द्वारा कहे गये शुभकामनामय मंत्र निश्चयसे पापोंको नष्ट कर देते हैं। दूरकी तो बात हो क्या है; इस जन्ममें ही वे अभिलाषाएँ पूर्ण हो जाती जिन्हें मनमें रखकर मनुष्य द्विजोंकी सेवा करता है।' ये सबको सब बातें सर्वथा असत्य हैं ॥ ३४ ॥ गुड़ समें यदि पहिले हालाहल विष मिला दिया जाय फिर किसी ब्राह्मणके सामने रखा जाय तो उस द्विजकी जिह्वा से मंत्र कह देनेपर ही बिना किसी रासायनिक प्रयोगके ही वह रस शुद्ध ईखका रस हो जाता है, ऐसा उन व्यक्तियोंका प्रचार है जो कि ब्राह्मणोंपर गाढ़ अंध आस्था रखते हैं ।। ३५ ।। १. म मनःप्रकर्षान् । For Private Personal Use Only पंचविशः सर्गः [ ४९५ ] Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामान्माke इह प्रकुर्वन्ति नरेश्वराणां दिने दिने स्वस्त्ययनक्रियाश्च । शान्ति प्रघोष्यन्ति धनाशयैव क्षान्तिक्षयं तेऽप्यनवाप्तकामाः ॥ ३६॥ कर्माणि यान्यत्र हि वैदिकानि रिपुप्रणाशाय सुखप्रदानि । . पंचविंशः आयुर्बलारोग्यवपुःकराणि दृष्टानि वैयर्थ्यमुपागतानि ॥ ३७॥ सर्गः समन्त्रपूताम्बहताग्निसाक्ष्यः' पल्यो नियन्ते च परैभ्रियन्ते। कन्याश्रितव्याधिविशीर्णदेहा वैधव्यमिच्छन्त्यथवा चिरेण ॥ ३८ ॥ विपत्तिमृच्छन्ति च गर्भ एव केचित्प्रसूतावपि बालभावे । दारिद्यमन्ये विकलेन्द्रियत्वं द्विजात्मजाश्चेदिह को विशेषः ॥ ३९ ॥ इतना ही नहीं वे तो यह भी कहते हैं कि ब्राह्मणका वाक्य कभी निष्फल होता ही नहीं है। ऐसे अमोघ वाक्य ब्राह्मण । लोग न जाने कितने समयसे प्रतिदिन राजाओंको क्षेम, कुशल तथा वृद्धि, आदिके लिए प्रतिदिन स्वस्ति-वाचन, अयन, क्रिया आदि अनुष्ठान करते आ रहे हैं, और इसी व्याजसे राजाओंसे धन कमाते हैं । धनको आशा हो उन्हें प्रतिदिन शान्तिके अनुष्ठान करनेको बाध्य करती है। किन्तु परिणाम तो सब हो जानते हैं। उन दोनोंकी ही अभिलाषाएँ पूर्ण नहीं होती हैं तथा उपद्रवोंमें पड़कर उनका क्षय हो जाता है ॥ ३६ ।। यज्ञविशेष वेदों में कितने ही यज्ञ-याग ऐसे हैं जिनके अनुष्ठानसे शत्रओंका नाश हो जाता है। कुछ दूसरे ऐसे बताये हैं जिनके करनेसे स्वर्ग आदि सुख प्राप्त होते हैं, ऐसे अनुष्ठानोंकी भी कमी नहीं है जिनके फलस्वरूप आयु बढ़ जाती है, रोग नष्ट हो A जाता है अथवा होता ही नहीं है, बलको असीम वृद्धि होती है, शरोर सुन्दर तथा आकर्षक हो जाता है ।। ३७ ।। किन्तु अधिकांश प्रयोगोंमें, ये सब हो निष्फल सिद्ध हुए हैं। संसारमें जतने भी व्याह होते हैं वे उस होमाग्निको साक्षी मानकर किये जाते हैं जिसमें उत्कृष्ट मंत्रोंके सांगोपांग उच्चारण तथा विस्तृत पाठके द्वारा पवित्र की गयी हवन सामग्री, जल, आदिका उपयोग होता है। किन्तु वे पल्लियाँ असमयमें ही मर जाती हैं अथवा दूसरे उनको ले भागते हैं। दूसरा पक्ष ( कन्याएँ) भी अनिष्टसे अछूता नहीं रहता है-कभी-कभी लड़कियोंको दारुण रोग हो जाते हैं जो उनके सुकुमार सुन्दर शरीरको जर्जर कर देते हैं अथवा विचारी असमयमें विधवा हो जाती हैं ।। ३८ ॥ और यौवन काल आदि लम्बे समयको दुःख भर कर बिताती हैं । दूसरोंकी तो बात ही क्या है ? तथाकथित सर्वशक्तिमान् ब्राह्मणोंको कितनी ही सन्ताने गर्भमें ही मर जाती हैं। दूसरे कितने ही जन्म लेते ही रोगग्रस्त होते हैं अथवा मर जाते।। १. साख्यः । . Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराङ्ग चरितम् Pat यथा नटो रङ्गमुपेत्य चित्रं नृत्तानुरूपानुपयाति वेषान् । जीवस्तथा संसृतिरङ्गमध्ये' कर्मानुरूपानुपयाति भावान् ॥ ४० ॥ ब्रह्मजातिस्त्विह काचिदस्ति न क्षत्रियो नापि च वैश्यशूद्रे । ततस्तु कर्मानुवशा हितात्मा संसारचक्रे परिबंभ्रमीति ॥ ४१ ॥ अपातकत्वाच्च शरीरदाहे देहं न हि ब्रह्म वदन्ति तज्ज्ञाः । ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्टः शूद्रोऽपि वेदाध्ययनं करोति ॥ ४२ ॥ विद्याक्रियाचारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः । ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥ ४३ ॥ हैं । अन्य कितने ही ऐसे होते हैं, जो किसी प्रकार बाल्य अवस्थाको पार करते-करते ही नष्ट हो जाते हैं। असंख्यात ब्राह्मण बालकोंकी सब इन्द्रियाँ तक पूरी नहीं होती हैं। और शेष लगभग सब ही निर्धनताको अपनी जीवनसंगिनी बनाते हैं । तब यह सोचिये कि उनमें और दूसरे लोगोंमें क्या भेद होता है ? ।। ३९ ।। ब्राह्मणत्व जातिको निस्सारता अभिनय करने में मस्त नट जब रंगस्थलीपर आता है तो वह उन उन विचित्र हाव-भावोंको करता है तथा वेशोंको धारण करता है जो कि नाटककी कथावस्तुके अनुकूल होते हैं। यह विस्तृत संसार भो विशाल रंगमंच है, इसपर संसारी जीवरूपी आता है तथा उन सब शरीरों धारण करता है तथा उन्हीं शुभ अशुभ कर्मोंको करता है जो कि पूर्व अर्जित कर्मोंके परिपाक होनेपर उसे प्राप्त होते हैं ॥ ४० ॥ इस संसार में ब्राह्मण जाति नामकी कोई निश्चित रंग-रूप युक्त वस्तु नहीं है, क्षत्रियों को भी कर्म ( विधि ) विशेष चिह्न युक्त करके नहीं भेजते हैं तथा वैश्यों और शूद्रोंका भी यही हाल है। सत्य तो यह है कि आत्म-ज्ञानहीन यह पामर आत्मा कर्मों की पाशमें पड़कर, उनके संकेत के ऊपर ही संसार चक्रमें नाचता फिरता है ।। ४१ ।। आत्मा तथा शरीर के विशेष रहस्यके पण्डितोंका कथन है कि मृत शरीरको भस्म कर देनेमें कोई पातक नहीं है, उसे वे शरीर न कहकर ब्रह्म ही कहते हैं। यह कौन नहीं समझता है कि तब ज्ञान साक्षात् ब्रह्म (शरीर) से किसी भी अवस्थामें बड़ा नहीं हो सकता है। किन्तु क्या कारण है कि जिस शूद्रको वर्णव्यवस्था के प्रतिष्ठापकोंने सबसे नीच कहा है वह भी वेदका अध्ययन करता है ।। ४२ ।। कर्मणा वर्ण कोई व्यक्ति ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होनेपर भी यदि ब्राह्मणत्व के लिए परम आवश्यक विद्या, सदाचार तथा अन्य आदर्श १. म संवृति । २. [ कर्मानुवशाद्धतात्मा ] । ६३ पंचविश: सर्गः [ ४९७ ] Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् व्यासो वसिष्ठः कमठश्च कण्ठः शक्युद्गमौ द्रोणपराशरौ स । आचारवन्तस्तपसाभियुक्ता ब्रह्मत्वमायः' प्रतिसंपदाभिः ॥४४॥ यः शङ्करस्योज्झितनिर्मलानि पादेन मोहाद्यदि संप्रवृद्धिः । स षष्टिवर्षाणि निकृष्टयोनौ कृमिर्भवेदित्यवनौ श्रुतिः स्यात् ॥ ४५ ॥ पुरा निविष्टा शिरसोश्वरस्य गङ्गापि नैर्मल्यमतो जगाम । यः स्नाति शौचं प्रकरोति तस्यां का वा गति यास्यति सोऽनुनेयः ॥ ४६ ॥ योऽश्नाति गोवकमादरेण पुनाति तस्यादशनाकुलं तत् । इति प्रवादो जगति प्रतीतो व्यर्थों भवेत्सोऽपि परीक्ष्यमाणः ॥ ४७॥ पंचविंशः सर्गः सानागारबारमारायला गुणोंसे अछूता ही रह जाता है तो केवल जन्म ही उसे ब्राह्मण नहीं बना सकेगा। क्योंकि ब्रह्मज्ञानी लोग उसे ही वास्तविक । ब्राह्मण कहते हैं जो द्विजके उपयुक्त ज्ञान, स्वभाव, संयम तथा अन्य गुणोंसे भूषित होता है ।। ४३ ॥ कृष्ण द्वीपायन व्यास ( पिता ब्राह्मण माता केवटी) राजर्षि वसिष्ठ (क्षत्रिय ) कमठ कण्ठ ( अनुलोम ) शस्त्र विद्या तथा शारीरिक शक्तिके उद्गम स्रोत द्रोणाचार्य (ब्राह्मण ) तथा पराशर ( अनुलोम ब्राह्मण) ऋषि ये सबके सब ब्रह्मत्वको प्राप्त कर सके थे। यद्यपि जन्मसे वे सब ही ब्राह्मण नहीं थे तो भी उनका वह आचार तथा तपस्या थी जिसने उन्हें ब्रह्म में लीन कर दिया था ॥४४॥ गंगा विचार श्री शंकर ( महादेव ) जीको चढ़ायी गयी निर्माल्य द्रव्यके अवशिष्ट भागको, जान बूझकर नहीं असावधानीसे ही जो पैरसे स्पर्श कर लेता है वह मनुष्य संसारकी सबसे निकृष्ट योनिमें छुद्र कीट होकर साठ वर्षपर्यन्त महा दुःख पाता है, ऐसी एक । ॥ धारणा समस्त पृथ्वीपर फैली हुई है ।। ४५ ॥ गंगा भी वैदिक कथाके अनुसार जब वह पृथ्वीपर आयी थी तो उसे शंकरजोने अपने मस्तकपर हो झेला था, इसी # कारणसे वह भी परम निर्मल हो सकी है। किन्तु लोग उसमें स्नान करते हैं, तैरते हैं, इतना ही नहीं अपितु मल त्याग करते हैं R(विशेषकर वर्तमानमें तो नगरोंका सब मल उसीमें बहाया जाता है ) ऐसे लोगोंको क्या दुर्गति होगी। उसका अनुमान करना भी कठिन है ।। ४६ ॥ जो व्यक्ति श्रद्धासे गद्गद् होकर पवित्र गंगाजलको पीता है उसके कूलकी दश पीढ़ी पीछे और आगामी पीढ़ियोंमें उत्पन्न हुए लोगोंको वह गंगाजल पवित्र कर देता है । इस प्रकारका प्रवाद इस संसारमें प्रचलित ही नहीं है अपितु लोग उसपर विश्वास भी करते हैं । किन्तु, यदि इसको भी युक्तिको कसौटीपर कसा जाय तो यह भी व्यर्थ ही सिद्ध होगा ॥४७॥ १. [ ब्रह्मत्वमापुः]। २. म संप्रदाभिः। ३. [ संप्रमर्षेत् । ४क गन्धोदक । ५. [ तस्यादश नून् कुले] । RELATERARIANTARTERTREAT Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविशः बराङ्ग चरितम् सर्गः भीष्मो हि गङ्गातनयो महात्मा महारथो युद्धमुखे च शूरः । शरावितः शान्तनजो' नपषिः क्षेत्रे कुरूणां निपपात धोमान् ॥ ४५ ॥ आगर्भतो घातसुखस्य [-] नोद्घाटितं धर्ममहाकवाटम् । गङ्गाकुरुक्षेत्रमथाजिशौर्य निरर्थकं तत्त्रयमित्युशन्ति ॥ ४९ ।। पाण्मासिकं तेन तपोऽतिघोरं शरासनेन क्रियते स्म यस्मात् । तस्मात्तपोमलमिदं समस्तं जगच्च सेन्द्रासुरमानुषाख्यम् ॥५०॥ तीर्थानि लोके विविधानि यानि तपोधनैरध्ययुषितानि तानि । स्तुत्यानि गम्यानि मनोहराणि जातानि पुंसां खल पावनानि ॥५१॥ महाराज शान्तनुके औरस पुत्र राजर्षि भोष्म गंगाजीके साक्षात् पुत्र थे, उनका आचार भी लोकोत्तर था, अकेले ही। कितने ही महारथियोंके साथ युद्ध करते थे। इतना ही नहीं उनकी वीरताका वास्तविक प्रदर्शन तो तब ही होता था जब वे घोर संग्राममें लीन हो जाते थे । किन्तु जब इन मतिमान, महात्माको भी अर्जुनका बाण लगा था, तो वे उसके आघातसे निश्चेष्ट। होकर कुरुक्षेत्रमें धराशायी हो गये थे ।। ४८॥ गंगाजीने गर्भ अवस्थासे लेकर ही जिस पुत्रके मुखको वात्सल्यसे विगलित होकर चमा था उसकी ही जब युद्धमै मृत्यु आयी तो उसके लिए भी गंगाजीने धर्मरूपी द्वारके किवाड़ न खोले थे। क्या इस दष्टान्तसे पतितपावनी गंगाकी निस्सारता सिद्ध नहीं होती है क्या अपितु वैदिक आम्नायमें पवित्र करनेकी अपनी सामर्थ्य के लिए प्रसिद्ध कुरुक्षेत्र तथा युद्धके पराक्रमकी भी निष्फलता प्रकट हो गयी थी ।। ४९ ।। महात्मा भीष्मने पूरे छः माह पर्यन्त शरासनमुद्रा को धारण करके अतिघोर तप किया था तब कहीं उनका उद्धार हो सका था (वैदिक मान्यशरों की अर्जुनकृत शय्या पर नहीं) इससे स्पष्ट हो जाता है कि जीवकी सद्गति या दुर्गतिका मूल कारण उसका तप ही है। मनुष्य जन्म या मनुष्य योनिके सुख दुख ही नहीं अपितु देव, इन्द्र, आदिके सुखोंका मूल कारण भी शुद्ध तप ही है ।। ५० ॥ तीर्थयात्रा विचार पूरे देशमें फैले हुए जिन, जिन स्थानों पर उन उग्र तपस्वियोंने निवास किया है जिनका लगातार धन निरतिचार तप हो था वे सबके सब आज हमारे विविध तीर्थक्षेत्र हो गये हैं। दर्शन करनेके लिए मनुष्य वहाँ जाते हैं, दूर रहते हुए भी उनकी स्तुति करते हैं तथा उनके मन उधर इतने आकृष्ट हो जाते हैं कि वे सर्वदा उन्हीं ( तीर्थों ) के विषय में सोचते हैं। वहाँ पहुँचनेपर । संसारी मनुष्य अपनी कुप्रवृत्तियोंको भूल जाते हैं फलतः वे उन्हें पवित्र करते हैं ।। ५१ ।। १.क शातनचो, [ शान्तनबो]। २.क पूतसुखस्य, [ प्रात° ]। ३. [ तस्य ] । aur LISTRIREEKEDARENDERA Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पंचविंशः सर्गः यथैव लोके गुडमिश्रितानि पिष्टानि माधुर्यमभिवजन्ति । तपःप्रकृष्टरुषितानि यानि स्थानानि तीर्थान्यभवंस्तथैव ॥ ५२.।। यः कार्तिकेयः स तपश्चकार कुमारकाले भगवान्कुमारः। सिद्धि च तस्मिन्नतुलामवाप तेनाभवत्स्वामिगृह' पवित्रम् ॥ ५३ ॥ यस्याः कुमार्यास्तपसः प्रभावात्प्रकाशिता सा खल दक्षिणाशा। ततः कुमारी वरधर्मनेत्री बहुप्रजानामभवत्स तीर्थम् ।। ५४ ।। भागीरथिश्चक्रधरस्य नप्ता वर्षाण्यनेकानि तपः प्रचक्रे। अधोगतानुद्धरणाय धीरो भागोरथो पुण्यतमा ततोऽभूत् ॥ ५५ ॥ - ELISATOचाचार साधारण गृहस्थ भी जानता है कि किसी भी अन्नका आटा अथवा पोठोको गुड़में मिला देनेपर, स्वयं मधुरताहीन होनेपर भी, वह बिल्कुल मीठा हो जाता है । ठीक यही क्रम स्थानोंकी पवित्रताका है, जिन स्थानों पर घोर तपस्वी, परम ज्ञानी शुद्धात्मा ऋषियोंने निवास किया है वह तीर्थस्थान तथा उसका वातावरण भी उसी प्रकार पावक हो जाता है जैसे पिसान ।।५२।। तीर्थोंका इतिहास शंकरजीके पुत्र कुमार कार्तिकेयने विशेष आध्यात्मिक योग्यता प्राप्त करनेके लिए अपनी कुमार अवस्थामें ही जो घोर। तप किया था, उसके कारण उन्होंने अपनी उस सुकुमार अवस्था में हो ऐसी सिद्धि प्राप्त कर ली थी कि उसकी तुलना करना हो असंभव है। इस कारणसे ही स्वामि कार्तिकेयका तपस्थान ( कुमारगिरि ) परम पवित्र माना गया है ।। ५३ ॥ जिस कुमारीकी घोर तथा लम्बी तपस्याके प्रभावसे ही विशाल दक्षिण दिशा प्रकाशमें आयी थी, उसकी तपसाधना का ध्यान आज भी कुमारी-तीर्थ नामसे प्रसिद्ध है। तथा आदर्श धर्ममार्गको पथ-प्रदर्शिकाके रूपमें आज भी वह कन्याकुमारी । बहुसंख्य जनताके द्वारा श्रद्धापूर्वक पूजी जाती है ।। ५४ ।। सगर चक्रवर्तीके नाती राजा भागीरथने जिस स्थानपर एक दो नहीं अनेक वर्ष पर्यन्त घोर तप किया था, वह भी किसी व्यक्तिगत स्वार्थसे प्रेरित होकर नहीं, बल्कि जो पूर्वज अपने मन्द आचरणके द्वारा अधोगतिमें चले गये थे उनका उद्धार करनेकी अभिलाषासे अभिभूत होकर किया था। वह स्थान भी धीर वीर भगीरथके नामसे आज भी परम पवित्र तीर्थ [५०० । १. म°सामिगृहं । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंशः बराङ्ग चरितम् सर्गः कुरुमहषिः कुरुवंशजातः कुमारभावे स तपस्त्वतप्तम् । प्रजाहिताय प्रथितप्रभावस्ततः कुरुक्षेत्रमभूत्प्रधानम् ॥ ५६ ॥ आतापयोग परिगृह्य धीराः पाण्डोः सुताः क्लेशविनाशनाय । प्रचक्रिरे तत्र तपोऽतिघोरं मातापनीतेन पवित्रमासीत् ॥ ५७ ॥ श्रीपर्वते श्रीः किल संचकार तपो महद्वर्षसहस्रमुग्रम् । श्रीपुष्करेऽतप्त हि पुष्कराख्यः कैलासशैले वृषभो महात्मा ॥ ५८॥ तमुज्जयन्तं धरणीधरेन्द्रं जनार्दनक्रीडवनप्रवेशम् । यो दिव्यमतिर्यदुवंशकेतुः सोऽरिष्टनेमिभगवान्बभूव ॥ ५९॥ DILIATELL याचनमानसम्मानरचानाLASTHANI I कुरुवंश प्रधान राजवंश रहा है, इसी वंशमें बहुत समय पहिले एक कुरु नामके महात्मा उत्पन्न हुए थे। उन्हें अपना प्रजासे इतना अधिक प्रेम था कि उसको सब दृष्टियोंसे सम्पन्न बनानेके लिए ही उन्होंने अपने सूखों तथा भोगोंकी उपेक्षा करके कुमार अवस्थामें ही कठोर तप किया था। इस तपस्यामें सफल होनेपर उनका प्रभाव इतने व्यापक क्षेत्रमें प्रसिद्ध हो गया था कि लोग अपनी उलझनोंसे छुटकारा पानेके लिए उनके पास जाते थे तब ही से कुरुक्षेत्र प्रधान तीर्थ हो गया है । ॥ ५६ ॥ सांसारिक सुख-दुखोंके अनेक उतार चढाव देखने के बाद महाराज पाण्डके पत्रोंको जगतसे वास्तविक वराग्य हो गया था। वे इन क्लेशोंको मूलसे हो नष्ट कर देना चाहते थे। इसी अभिलाषासे प्रेरित होकर उन स्वाभाविक धीर तथा गम्भार पाण्डवोंने प्रव्रज्या ग्रहण करके आतापनयोग लगाया था। उनके अतिघोर आतापनयोगका स्थान भी पूर्वोक्त कुरुक्षेत्र ही था। पाण्डवोंकी उग्रतपस्यासे उनको आत्मशुद्धि ही नहीं हुई थी अपितु कुरुक्षेत्र भी परम पवित्र हो गया था ॥ ५७ ।। श्रीपर्वत (कर्नूल जिलेका पहाड़ ) वर्तमानमें सुविख्यात तीर्थ है, वहाँपर श्री नामके महर्षिने लगातार एक हजार वर्ष पर्यन्त उग्र तथा विशाल तपको सांगोपांग विधिपूर्वक किया था। पुष्कर नामके किन्हीं महर्षिने जिस स्थान पर सावधानीसे तपस्या की थी वही स्थान आज श्री पुष्करजी नामसे विख्यात है। इस युगके प्रवर्तक श्री ऋषभदेव तीर्थकरने कैलाश पर्वतकी शिखरपर ही तपस्या करके आठों कर्मोको विनष्ट किया था ।। ५८ ॥ धारणीधरोंके अग्रगण्य गिरनार (ऊर्जयन्त ) पर्वतको कौन नहीं जानता है, जिसके वन किसी समय जनार्दन श्रीकृष्ण की रास क्रीड़ाओंके द्वारा झंकृत हो उठते थे। उसी गिरनार पर्वतपर यादव वंशके मुकुटमणि, अलौकिक सौन्दर्य और सुगुणोंके भण्डार श्री नेमिकुमारने उग्र तपस्या की थी तथा कर्मोंको नाश करके कैवल्य प्राप्त करके अरिष्ट नेमि हो गये थे ।। ५९ ॥ । 1.[तपस्त्वतण्त ]। GESTINDEINE [५०१) Jain Education international Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवामसक्क्षीरघृतैश्च देवास्तृप्ताः परास्तेऽपि च तर्पयन्ति । देवाश्रयान्मध्यतमास्तु गावः पूताश्च पुण्या इति धोषणैषा ॥६॥ गोदानतस्ते च सुरर्षिसंघा दत्ता द्विजेभ्यः सकला भवन्ति । पितृभ्य एवं बहुसारमौल्यं दत्तं भवत्यत्र हि गोप्रदानात् ॥ ६१ ॥ आरोहदाहस्य धनप्रतोदं प्रदोहवाहो दमनक्रियाभिः। प्रपीडिताः क्लेशगणान्भजन्ते देवर्षिसंघातसुखानि तेषाम् ॥ ६२ ।। कुदृष्टिदृष्टान्तवचोऽभिधानादेवाश्च दासा इव वणितास्ते। तेषां विरोधाचरितादवश्यं जगत्प्रणाशं स्वयमभ्युपैति ॥ ६३ ॥ चतुर्विशः सर्गः me-Pusages Sxemaramanaxemagree गायका देवत्व 'गायोंका दूध, घी, रक्त, मज्जा आदि का उपहार करनेसे स्वर्गवासी देवता अत्यन्त तृप्त होते हैं। जब वे स्वयं संतुष्ट रहते हैं तो अपने भक्तोंकी मनोकामनाओंको भी बिना विलम्ब पूर्ण करते हैं। गायोंके अंग अंगमें देवताओंका निवास है। यही कारण है कि संसारमें कोई भी वस्तु गायकी अपेक्षा अधिक पवित्र नहीं है। वे स्वयं पवित्र हैं और दूसरोंको भी पवित्र करती हैं। इत्यादि घोषणाएँ संसारमें प्रचलित हैं ।। ६० ।। ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक गायदान देनेसे समस्त देवता तथा ऋषि लोग सतुष्ट हो जाते हैं, तथा उन्हें विशेष फलकी प्राप्ति होती है। यदि इस लोकमें ही किसोके उत्तराधिकारी गोदान देते हैं तो उनके स्वर्गीय पितृ पुरुष केवल शान्ति और सफलताको ही नहीं पाते हैं । क्योंकि उनके निमित्तसे दिया गया गोदान साधारण गोदान न रहकर उनके लिए स्वर्गलोकके सुखोंके मुकुटका समर्पण ही हो जाता है ।। ६१ ।। किन्तु इन विशेषताओंकी खान गाय अथवा बैलपर सवारी की जाती है, भार लादा जाता है, वेगसे चलने, वशमें रखने आदिके लिए लगातार कोंचा छेदा जाता है, बलप्रयोग करके दुही जाती है, हल आदिमें जुतते हैं, थोड़ेसे अपराधके लिए भयंकर दमन किया जाता है । अनेक प्रकारके कष्ट उन्हें सहना पड़ते हैं, जोवनभर पोड़नसे पाला नहीं छूटता है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो.यह है कि उनकी इस विपत्तिकी देवता तथा ऋषि बिना किसी असुविधाके उपेक्षा ही करते हैं ।। ६२॥ मिथ्यादृष्टी उपदेशकोंने कुछ दृष्टान्तोंको देकर देवोंके स्वरूपको समझाया है, उन सबको सूक्ष्मदृष्टिसे देखनेपर ऐसा लगता है कि देवोको बहुत कुछ दासों ऐसी ही अवस्था है। तो भी किसी रूपमें उन देवताओंका विरोध करनेसे ही सचराचर जगत किसी बाहिरी कारण-कलापके बिना स्वयमेव विनष्ट हो जाता है ।। ६३ ।। For Privale & Personal Use Only [५०२] Jain Education international Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIRO वराङ्ग चरितम् विजेश्च कार्यदि भुक्तमन्नं मृतान्पितॄस्तर्पयते परत्र । पुराजितं तत्पितभिविनष्टं शुभाशुभं तेन हि कारणेन ॥ ६४ ॥ 'स्वस्नात्सुताद्यः स्वयमेव पुत्रो जातिश्च जातिस्मर एवं कश्चित् । विनाशभुङ्क्ते पितृपिण्डमन्नं ततो ह्यशक्यं पितृकार्यमेतत् ॥६५॥ पितुश्च पुत्रस्य च तामसः स्यात्पुत्रो विषान्नं प्रददौ द्विजेभ्यः । तवजितं तैरनृतार्थवद्भिरतश्चः मिथ्या पितृकार्यमत्र ॥६६॥ यादंशि दानानि पुरा द्विजेभ्यो दत्तानि नानारसवर्णबन्ति । फलन्ति तादंशि नृणामयत्नाउजन्मन्यमुत्रेति जनप्रवादः ॥ ६७ ॥ ॥ पंचविंशः सर्गः IRITURNSUPERTRE रामसारमाTERSTALLECTOR स्वर्गीय माता पिताकी सेवा सुश्रुषा करनेके लिए लोग उनका वार्षिक श्राद्ध करते हैं जिसमें पूजाका पिण्ड काक पक्षी खाते हैं तथा मिष्टान्न ब्राह्मण खाते हैं । इन प्राणियों के द्वारा खाया गया भोजन हो यदि परलोकवासी माता पिताकी भूख-प्यास ४ को शान्त कर देता है, तो इसका यहो निष्कर्ष निकलेगा कि तर्पण कर्ताओंके पितरों द्वारा कमाये गये शुभ-अशुभ पूर्वोपाजित सब ही कर्म नष्ट हो जाते हैं और उन्हें परान्नभोजी होना पड़ता है ।। ६४ ॥ पितृतर्पण कोई कोई ऐसा विचित्र पुरुष होता है कि वह अपने पूर्व जन्मको स्मरण रखता है और मोहसे आकृष्ट होकर अपनी ही लड़कीके उदरसे पुत्ररूप में जन्म ग्रहण करता है। दूसरी तरफ उसका तर्पण भी चलता हो रहता है और वह पिण्डदानको खाता भी रहता है। इस प्रत्यक्ष दृष्ट घटनाका तो यही परिणाम निकलता है कि यहाँसे पितरोंका तर्पण कठिन ही नहीं, असंभव है ।। ६५ ॥ यह भी सम्भव है कि कोई पुत्र तामसिक हो अथवा पिता ही तामसी प्रकृतिका व्यक्ति रहा हो। ऐसी अवस्थामें वह ॥ तर्पणकर्ता कुभावनासे प्रेरित होकर विष मिला भोजन हो ब्राह्मणोंको दे देता है, किन्तु असत्य मान्यताओंका प्रचार करनेवाले तथा पितरों तथा पुत्रोंके माध्यम उन ब्राह्मणोंके द्वारा अपने प्राणोंके भयके कारण वह विषैला भोजन छुआ भी नहीं जाता है। इससे स्पष्ट है कि तर्पणका भोजन ब्राह्मणोंके हो पेटमें रह जाता है तथा पितरों की तृप्ति की बात सर्वथा कपोलकल्पित मनुष्य अपने पूर्व जन्ममें मनुष्योंके अग्रगण्य ब्राह्मणोंको जिन विविध रसोंसे आप्लावित, जिस-जिस रंग तथा आकारके [५०३] जो-जो दान देते हैं, उन्हें अपने इस ( अगले ) जन्ममें बिना किसी विशेष प्रयत्नके हो जो फल मिलते हैं उनका आकार, रूप, रस ॥ १.[स्वस्मात् ] | २.[जातश्च ]| ३.[विनाशि] | Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग परितम् पंचविंशः श्वभिः शृगालैरपि गृध्रकाकैः सगर्दभैः सूकरचासकूमः । यान्यत्र लब्धान्यशुचीनि तैश्च दत्तानि तान्येव तु किं द्विजेभ्यः ॥ ६८॥ नापुत्रका लोकमिमं जयन्ति नापुत्रकाः स्वर्गगतिं लभन्ते । इतीह पक्षो यदि यस्य पुसः कुमारभूरि प्रति नो निविष्टाः ॥ ६९ ॥ यद्यच्च लोके बहुभिर्न दृष्टं तत्तत्प्रमाणं यदि यस्य न स्यात् । वेदश्रुतीहासपुराणधर्मास्ते ब्राह्मणैकेन न तु प्रदिष्टाः ।। ७० ॥ असत्प्रसूतिस्त्वसतो यदि स्याच्छशस्य शृङ्गान्मृगतृष्णिका स्यात् । सतः प्रसूतिस्त्वसतो यदि स्याटस्य बीजं शशशृङ्गतः स्यात् ॥ ७१ ॥ सर्गः तथा प्रकार सब ही गुण उनके दानको वस्तुके हो समान होते हैं, ऐसी एक किंवदन्तो हमारे संसारमें प्रचलित है ।। ६७ ।। ब्राह्मण दानका रहस्य अब देखिये कुत्ते और सियारके जन्मको भरनेवाले क्या पाते हैं ? गौध और काक किन वस्तुओंपर टूटते हैं ? गदहे । और सुअर किन वस्तुओंपर जोते हैं ? तथा चाष ( नीलकण्ठ ) और कछुओं की जीविका क्या है ? ये सबके सब इस जन्ममें अशुचि और वीभत्स पदार्थोंको छोड़कर और क्या पाते हैं ? तो क्या मान लिया जाय कि इन सबने पूर्वभवमें ब्राह्मणोंको अशोभन, अपवित्र पदार्थ ही दिये होंगे ॥ ६८ ॥ जिसके पुत्र नहीं पैदा होते हैं वह इस संसारका भी पार नहीं पाता है, जो पुत्रहीन हैं वे सब स्वर्गको गमन करनेका सुअवसर तो पा ही नहीं सकते हैं । इत्यादि सिद्धान्तको जो सज्जन मानता है तथा इसका प्रचार करता है, मालूम होता है कि उसका विचार अथवा दृष्टि उन बहुसंख्य महात्माओंकी ओर गयो हो नहीं है जो कि आजीवन ब्रह्मचारी रहे थे ।। ६९ ॥ जिन पदार्थोंको अथवा घटनाओंको इस लोकके बहुसंख्य पुरुषोंने सावधानीके साथ नहीं देखा है, वह वस्तुएँ तथा उनके स्वरूप प्रामाणिक नहीं हैं, जिस विचारकका मूल सिद्धान्त यही है, क्या उसे यह ज्ञात नहीं है कि चारों वेद, श्रुतियां समस्त स्मृतियां, इतिहास, पुराण तथा अन्य समस्त धर्मशास्त्रोंको केवल एक ब्रह्मा ही ने तो अपनो अशरीर वाणीके द्वारा प्रकट किया था, फिर भी वे प्रमाण क्यों हैं ।। ७० ॥ प्रमाण मीमांसा ____एक असत् ( वह पदार्थ जो किसी इन्द्रियसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है तथा जिसको सत्ताको किसी भी प्रमाणसे । सिद्ध नहीं किया जा सकता है ) पदार्थसे यदि किसी दूसरे असत् पदार्थकी उत्पत्ति संभव है तो सियारके सींगसे मृगतृष्णा क्यों न । १. क शूकरभास , [ सूकरचाष° ] । [५०४] Jain Education international Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् So प्रसूतिश्च सतो यदि स्याद्गोशृङ्गतः किं न भवेच्च पुष्पम् । सतः प्रसूतिस्तु सतो यदि स्यादग्नेर्जलं वानलकोऽम्बुतो वा ॥ ७२ ॥ द्रव्ये सति क्षेत्रयुते च काले भावे च भावान्तरसंनिबद्धाः । भवन्ति भावा भुवनत्रयस्य सहेतुकाः केचन निर्निमित्ताः ॥ ७३ ॥ नाप्तो हि रुद्रस्त्रिपुरप्रणाशादुमापतित्वाद्रतिसंभवाच्च । अनङ्गभङ्गादसुरोपघाताज्जटाक्षिसूत्रवृषवाहनाच्च ॥ ७४ ॥ अग्निर्मुखं वेदसुरेश्वराणां योऽपीश्वरस्यापि मुखं ध्रुवं सः । आत्मानमात्मैव च वर्षयेद्यः सोऽन्यान्कथं मुञ्चति वञ्चितात्मा ॥ ७५ ॥ उत्पन्न होगी ? सत् पदार्थ, यदि किसी असत् पदार्थसे उत्पन्न हो सकता है, तो इस अवस्थामें कोई कारण नहीं कि सियारके सींगों वटके बीज उत्पन्न न हों ।। ७१ ।। सद्भावमय किसी पदार्थसे यदि असत् पदार्थ उत्पन्न सकता है, तब तो स्पष्ट आकार, रूप, आदि युक्त गायके सींगपर आकाश कुसुम खिल हो जाना चाहिये। तथा यदि किसी सद्भूत पदार्थ से किसी भी सत्स्वरूप पदार्थकी उत्पत्ति शक्य मानी जायेगी तो अग्नि से जलकी उत्पत्ति होने लगेगो अथवा शीतलस्वभाव जलसे उष्ण प्रकृति आग ही भभक उठेगी ।। ७२ ।। कारणता विचार संसार के समस्त पदार्थों की सृष्टिका साधारण नियम यही है कि उपादानकारण भूत द्रव्य जब अपने उपयुक्त क्षेत्रपर पहुँच जाता है, समय और भाव उसको उत्पत्तिके अनुकूल हो जाते हैं तथा अन्य साधन सामग्री एकत्रित हो जाती है तब ही तीनों लोकों में पदार्थों का उत्पाद व्यय प्रारम्भ हो जाता है, कोई भी वस्तु अकारण ही उत्पन्न नहीं होती है ॥ ७३ ॥ निस्सन्देह महादेवजी ने त्रिपुर राक्षपका वध किया था, वे गिरिराज दुलारी उमा ऐसी रूप तथा शक्तिवती स्त्रो के पति थे, रतिके कारण ही उनका आविर्भाव हुआ था, विश्वविजयी कामदेवको उन्होंने भरन कर दिया था, अनेक आततायी असुरोंका संहार किया था, केश संस्कार छोड़कर लम्बी-लम्बी जटा रख ली थीं, हालाहलपूर्ण सांपोंको माला बनायी थी तथा नन्दी ऐसे जंगली बैल पर सवारी करते थे, किन्तु इन कारणोंसे ही वे सत्य आप्त नहीं हो सकते हैं ।। ७४ ॥ पुराणों में जो यह लिखा है कि अग्नि ही सुर-असुर तथा ईश्वरका मुख ( हवन सामग्री ग्रहण करनेका द्वार ) है । इसका तात्पर्य यही हुआ कि वह अग्नि ईश्वरका भी मुख अवश्य होगी। तब वह अग्निरूपी मुख यज्ञके देवताओंतक हवन सामग्री भेजकर अपने आप ही अपनेको ठगता (भूखा रखता ) होगा । निष्कर्ष यही निकला कि जो अपनेको ही ठगता है वह दूसरोंको १. क वानलतोऽम्बुतो वा । ६४ For Private Personal Use Only पंचविंश: सर्गः [५०५] Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराज पंचविंश सर्गः चरितम् ब्रह्मापि नाप्तो हरिसारथिः' स्यान्निशम्भशुम्भासुरमर्दनाच्च । तिलोत्तमानप्रतिदर्शनेन चक्र यतो वक्त्रचतुष्टयत्वम् ॥ ७६ ॥ नाप्तो हि विष्णुर्बलिबन्धनेन तुरङ्गमास्यप्रविदारणाच्च । अनोविनाशाद्गजदन्तकर्षाच्चाणूरकंसाहिसुराभिघातात् ॥७७॥ यो गर्दभाय प्रतिनर्दनाय नमश्चकारार्थितया स विष्णुः । अरातिभीतः सुचुकुन्दनान्तः पर्यदेशातिथितां प्रयातः ॥ ७८ ॥ वज्रायपो गौतमभार्ययासौ विभिन्नवृत्तः किल तेन शप्तः। उमासुतः सोऽपि कुमारनामा भग्नवतोऽभूद्धनगोचरिण्या ॥ ७९॥ वंचनासे कैसे बचायेगा ।। ७५ ।। ईश्वरत्व विचार विष्णु ( हरि ) के समान शील, व्यसन आदिका आधार ब्रह्मा भी शुम्भ तथा निशुम्भको आपसमें लड़ाकर परास्त करके अथवा अन्य राक्षसोंका वध करनेके कारण ही आप्त पदको नहीं पा सकता है। कौन नहीं जानता है कि जिस समय वह समाधिमें लीन था उसी समय तिलोत्तमा नामकी अप्सराने आकर उनपर अपने रूपकी पाश फेंकी थी, जिससे विह्वल होकर उन्होंने उसे देखनेके लिए अपने चार मुख बनाये थे ॥ ७६ ॥ यादव वंशमें उत्पन्न श्रीकृष्ण रूपधारी विष्णुने आततायी राजा बलिको बन्धनमें डाला था घोड़ेका मुख बनाकर उपस्थित हुए दैत्य (हयग्रीव ) का मुख हो चीर कर दो कर दिया था। अनु ( ययातिका पुत्र ) की जीवन लोलाको समाप्त कर दिया था, कसके द्वारा छोड़े गये मदोन्मत्त हाथीका दाँत पकड़कर उखाड़ लिया था. चाणूरमल योद्धा तथा प्रजापोड़क कंसका बध किया था तथा यमुनामें पड़े कालिया नागको भी समुचित शिक्षा (वशीकरण) दी थी। किन्तु यह सब होते हुए भी वे आप्तके वीतराग स्वरूप तक न पहुँच सके थे ।। ७७ ॥ स्वार्थभावनासे प्रेरित होकर जिस विष्णुने गदहे ऐसे साधारण पशुके सामने प्रणत होकर नमस्कार केवल इसलिए किया था कि वह शत्रुके नादका उत्तर देने के लिए एक बार और रेंक दे। मुचुकुन्द नामके प्रबल शत्रुसे तो वे इतने अधिक डर गये थे कि उससे बचनेके लिए वे अपने पलंगके एक कोनेमें ही सिमट छिप गये थे, तब वे कैसे आप्त हो सकते हैं ।। ७८ ।। पुराणोंके अनुसार आदर्श पालक तथा वज्ररूपी महान शस्त्रके धारक इन्द्र महाराजाने भी कामके आवेशमें आकर अपने सदाचारको छोड़ दिया था और गौतमकी पत्नोसे अनाचार किया था। फलस्वरूप गौतमजोका अभिशाप भी भोगना पड़ा था। पार्वतीके प्रतापो पुत्र कुमार कार्तिकेयका आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत भी धनगोचरोणो नामक सुन्दरीके कटाक्षोंसे टूट गया था ॥७९।। ३१. क हरिः। २. क निःशम्भ। ३. [ मुचुकुन्द° ] । रामराज्यरचन्मय (५०६] Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् th त्रिशूलवज्रायुधचक्र हस्ता धनुर्गदाशक्त्य सिपाणयश्च । सतोमरा देववरा यदि स्युश्चोरा: " सुखल्वत्र हि कीदृशाः स्युः ॥ ८० ॥ स्त्रीभूषण रागिण एव देवाः क्रोधोऽस्ति तेषां स हि सापशुध्यै । सुराणामपि परिग्रहैरायुधसंग्रहैश्च भयं लोक सिद्धम् ॥ ८१ ॥ नैरात्म्य शून्यक्षणिक प्रवादाब्दबुद्धस्य रत्नत्रयमेव नास्ति । रत्नत्रयाभावतया च भूयः सर्वं तु न स्यात्कुत आप्तभावः ॥ ८२ ॥ मषैव यत्नात्करुणाभिमानो न तस्य दृष्टा खलु सस्वसंज्ञा । तया विना का करुणोपपत्तिः कृपाकथा बालकवञ्चनैषा ॥ ८३ ॥ यदि जगत् के पूज्य न्यायाधीश तथा शुद्ध स्वाभावयुक्त देवता ही हाथों में त्रिशूल, वज्र, चक्र, आदि घातक शस्त्र लेकर घूमेंगे, विशाल धनुष, भारी गदा, शक्ति, खड्ग, आदि शस्त्रोंको छोड़ नहीं सकते हैं तथा तोमर परमप्रिय होगा, तो फिर यह सोचिये कि चोर, डकैत, आदि पापकर्मरत पुरुष कैसे एवं क्या होंगे और क्या लेकर घूमेंगे || ८० ॥ यदि देवताओंको स्त्रियों, भूषणों आदिकी उत्कट चाह होती है, उन्हें भीषण क्रोध आता है तथा उसका अन्त अक्सर अभिशापके रूपमें होता है। वाहन विमान आदि दुनिया भरक परिग्रह रखते हैं, भाँति-भाँति के शस्त्र जुटाते हैं, इत्यादि प्रवृत्तियाँ तो यही सिद्ध करती हैं कि हम संसारी लोगों के समान देवताओंको भी भय लगता है ॥ ८१ ॥ सुगत मीमांसा बौद्धधर्मके प्रवर्तक महात्मा बुद्ध न तो आत्माका अस्तित्व स्वीकार करते थे, सचराचर विश्वको वास्तविक न मानकर उसे शून्य मानना ही उन्हें अभीष्ट था और किसी भी पदार्थको चिरस्थायी न कहकर क्षणिक ही कहते थे, फलतः रत्नत्रय भी उनके दर्शनसे सिद्ध नहीं हो सकता है। जब रत्नत्रयका ही अभाव हो गया तो फिर किस आधारपर संसार के समस्त भाव सिद्ध हो सकेंगे, सब वस्तुएँ अभाव स्वरूप हो जायेंगी और उनकी आप्तताकी भी वही दुर्दशा होगी ॥ ८२ ॥ महात्मा बुद्ध अपनी परम करुणाके लिए विख्यात हैं, किन्तु उनका यह करुण भाव झूठ ही है, क्योंकि उनके उपदेशके अनुसार उनके यहाँ न तो आत्माका ही अस्तित्व है और न उसमें उठनेवाले भावोंका । आत्मा तथा चेतनाके बिना समझमें नहीं आता कि करुणा कहाँ उत्पन्न होगी ? फलतः करुणा के विषय में उन्होंने जो कुछ भी कहा है, वह सब भोले लोगों की शुद्ध वंचना ही प्रतीत होतो है ॥ ८३ ॥ १. [ चोरास्तु खल्वत्र ] | २. [ शापशुद्धचं ] । ३. [ यस्मात् ] । पंचविशः सर्गः [५०७] Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् प्राणान्तकृद्ब्रह्मवचो दुरन्तं रुद्रस्तु सर्वत्र हि रौद्र एव । विष्णुः शठात्मा रतिरोषयुक्तो बुद्धस्तु रौद्रो निरनुग्रहश्च ॥ ८४ ॥ ब्रह्मादयो यद्यनवाप्तकार्या आयुष्यमाप्तुं न हि शक्नुयुश्चेत् । hat भवन्त्यात्मगुणोपपन्नास्तेभ्योऽधिकांस्तान्वद पार्थिवाप्तान् ॥ ८५ ॥ ये दर्शनज्ञान विशुद्धलेश्या जितेन्द्रियाः शान्तमदा दमेशाः । तपोभिरुद्भासितचारुदेहा आप्ता गुणैराप्ततमा भवन्ति ॥ ८६ ॥ निद्राश्र मक्लेशविषादचिन्ताक्षुत्तृड्जराव्याधि भयैविहीनाः अविस्मयाः स्वेदमलैरपेता आप्ता भवन्त्यप्रतिमस्वभावाः ॥ ८७ ॥ 1 ईश्वर वाक्य ? ब्रह्मके मुख से निकले वचनोंके नामपर जो मंत्र आदि जनसाधारणको मान्य हैं, वे प्राणोंकी बलिकी प्रेरणा देते हैं आपाततः उनका फल भी अच्छा हो ही नहीं सकता। ( गजासुरबधक) रुद्रजी अपने प्रत्येक कार्य तथा भाव में निरपवादरूपसे सर्वत्र रौद्र (निर्दय ) ही हैं। विष्णु भी पूरे महात्मा (व्यंग्य) हैं-न वे प्रेम प्रपंचको हो छोड़ सके हैं और न उनके क्रोधसे ही जगतके प्राणियोंको अभयदान प्राप्त हो सका है। महात्मा बुद्धका भी क्या कहना है मांस भोजन आदिकी अनुमति देकर उन्होंने हिंसाको प्रश्रय दिया है तथा करुणा आदिके उपदेशके विरुद्ध आचरण करनेकी अनुमति देकर जगतके प्राणियोंपर कोई विशेष अनुग्रह नहीं किया है ।। ८४ ॥ ब्रह्मा आदि जगतके तथोक्त सृष्टा रक्षक तथा संहारक भी यदि अपने मनके माफिक काम या बढ़ा करके अपनी इच्छितको जीते जी पूर्ण नहीं कर सके तो भी वे असमय में किसी मनुष्य या प्राणोकी आयुको अपना बल प्रयोग करके समाप्त नहीं सकते हैं । किन्तु हम राजाओंरूपी लौकिक आप्त उन सबकी अपेक्षा अपनी शक्ति तथा पुरुषार्थको दूसरोंपर अधिक दिखा सकते हैं, तब हमारा वे लोग क्या भला-बुरा कर सकते हैं ।। ८५ ।। 'सांचो देव' जिनके आत्मा सम्यक्दर्शन तथा ज्ञानरूपी सूर्यके आलोकसे प्रकाशित हो उठे हैं, निर्दोष उग्र तपस्या के प्रभावसे जिनकी देहसे एक अलौकिक कान्ति विखर उठती है, इन्द्रियोंरूपी घोड़े जिनके संकेतपर चलते हैं, मन तथा इन्द्रियोंके परिपूर्ण दमनकर्ता, ज्ञानादिके आठों प्रकारके मदसे अति दूर, जिनकी अन्तरंग लेश्या ( भाव ) अत्यन्त निर्मल हो चुके हैं ऐसे अनेक गुणोंके भंडार महर्षि या मुनि ही सत्य आप्त हो सकते हैं ।। ८६ ।। ऐहिक परिश्रम, निद्रा तथा क्लेशको जिन्होंने जीत लिया है, विषाद, चिन्ता तथा आश्चर्य जिनसे हार कर शान्त १. क निरनुग्रहैश्च । २. म गुणैरात्मतमा । पंचविंश: सर्गः [५०८] Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग पंचविंशः चरितम् सर्गः द्वेषश्च रागश्च विमूढता च दोषाशयास्ते जगति प्ररूढाः । न सन्ति तेषां गतकल्मषाणां तानहतस्त्वाप्ततमा वदन्ति ॥ ८८॥ अहंन्त एवाभयदानवक्षा अर्हन्त एवाप्रतिवीर्यसत्वाः । अर्हन्त एवामलसत्त्वरूपा अर्हन्त एवातिशयद्धियुक्ताः ॥९॥ अर्हन्त एवाकृपया विहीना अर्हन्त एवारिभयेरपेताः। अर्हन्त एवाचलचारुसौख्या अहंन्त एवातुलमोक्षभासः ॥९॥ अर्हन्त एव त्रिजगत्प्रपूज्या अर्हन्त एव त्रिजगच्छरण्याः । अर्हन्त एव त्रिजगद्वरेण्या अर्हन्त एवाखिलदोषमुक्ताः॥ ९१॥ मामा -IROHIBITERAL गये हैं, भूख, प्यास, रोग तथा व्याधि जिनको छु भो नहीं सकती हैं, पसीना, मूत्र, आदि मल जिनकी दिव्य देहको दुषित नहीं करते हैं । वही महापुरुष सत्य आप्त हो सकते हैं। उनके स्वभाव तथा अन्य गुणोंके उपमान वहाँ स्वयं हो सकते हैं, कोई दूसरा नहीं ।। ८७।। व हमारे विश्वमें कोई भी आत्मा ऐसा नहीं है जो राग-द्वेषके रंगसे न रंगा हो, महामूर्खता तथा दोष करनेकी प्रवृत्ति । किस जीवमें नहीं है ? किन्तु संसार भरमें व्याप्त ये सब दोष उन अर्हन्त केवली में ही नहीं होते हैं क्योंकि उन्होंने अपने समस्त पापकर्मोको कालिमाको धो कर फेक दिया है और वे ही परमात्मा हैं ।। ८८ ॥ यही कारण है कि आचार्योंने उन्हें ही सत्य आप्त माना है। श्री एकहजार आठ अर्हन्त केवली प्रभु ही विशुद्ध अहिंसाके प्रचारक होनेके नाते सारे संसारको अभयदान दे सकते हैं। आठों कर्मों के समूल नष्ट हो जानेके कारण अर्हन्त प्रभुकी ही शक्ति तथा सामर्थ्य ऐसी हो गयी है कि उसकी कोई दूसरा समता नहीं कर सकता है। कर्मकालिमा नष्ट हो जानेके कारण अर्हन्तदेवके ही अन्तरंग और रूप निर्मल हो गये हैं। अर्हन्त केवली ही विविध अतिशयों तथा ऋद्धियोंके स्वामी होते हैं । अर्हन्तदेवमें अकृपाकी छाया भी नहीं पायी जा सकती है ।। ८९ ।। वीतराग अर्हन्तका इस संसारमें न तो कोई शत्रु ही है और न उन्हें किसीसे कोई भय ही है । अर्हन्तदेवका क्षायिक सुख ऐसा है जो कभी नष्ट नहीं होता है और अनन्तकालतक भी उसको चारुता नहीं कमती है। अर्हन्त प्रभुने ही उस मोक्ष महापदको प्राप्त किया है, जिसकी छटाकी तुलना किसी अन्य पदार्थ से हो हो नहीं सकती है ॥ ९ ॥ इन योग्यताओंके कारण वीतराग अर्हन्त ही तीनो लोकके प्राणियोंके परमपूज्य हैं, हितोपदेशी तथा आत्मपुरुषार्थी । अर्हन्त प्रभु ही संसारका सहारा हैं । अहंतदेव ही तीनों लोकोंमें सबसे श्रेष्ठ आत्मा हैं। तथा अहंतकेवली ही क्षुधा, तृषा आदि १.[ भाजः]। ५०९] Jain Education international Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराज परितम् तानहतस्त्वाप्ततमान्विवित्वा तद्वाक्यनीतार्थमतं प्रपन्नाः। संसारनिष्ठामुपगम्य धीरा निर्वाणसौख्यं परमाप्नुवन्ति ॥ ९२ ॥ तैस्तैः पुनलौकिकवैदिकाद्यैरनेकशास्त्रार्थमतिप्रवीणैः । पंचविंशः विवक्तुभिर्वीक्षितपक्षरागैः स्वपक्षसिद्धिं निजगाद राजा ॥ ९३ ॥ सर्गः कुहेतुदृष्टान्तविनष्टमार्गान्कुज्ञाननीत्यावृतलोचनांस्तान् । निरुत्तरर्वाक्यपदैर्नरेन्द्रो विबोधयामास तदा सदस्याम्॥९४ ॥ प्रधानमन्त्रीश्वरशिष्टवर्गाः पुरोहितामात्यसभाविदश्च । प्रबुद्धपद्मप्रतिमाननास्ते भृशं प्रहृष्टा गतपक्षरागाः ।। ९५ ॥ अठारहों दोषोंसे सर्वथा परे हैं ।। ९१ ।। उपसंहार जो पुरुष इन अर्हन्तकेवलियोंको युक्तिकी कसौटीपर कस लेनेके बाद परम आप्त मान लेते हैं । फिर उनके उपदेश वाक्योंके द्वारा बतायी गयी क्रियाओं तथा भावोंको जो प्रयोग रूपमें लाते हैं, वे धीर-वीर पुरुष अनादि तथा अनन्त संसारमें एक निश्चित लक्ष्य पर पहुंच जाते हैं, उनका निजी संसारचक्र रुक जाता है तथा वे सर्वश्रेष्ठ मोक्ष सुखको प्राप्त करते हैं ।। ९२॥ सम्राट वरांगने समस्त लौकिक तथा वैदिक सम्प्रदायोंका विवेचन उन्हीं वाक्योंके आधारपर किया था, जिन्हें कि अनेक शास्त्रोंके प्रकाण्ड पंडित महामतिमान धर्मों के उपदेष्टाओंने अपने-अपने पक्षका पूर्ण पक्षपात करके लिखा था । इस शैलीसे प्रतिवादियोंके पक्षपातको सिद्ध करके उन्होंने अपने मतकी पुष्टि की थी ।। ९३ ॥ सम्राट वरांगने विशेष कर उन लोगोंको समझानेके लिए जिनकी आँखें मिथ्याज्ञान और मिथ्या नैतिकतारूपी पसे । ढंक गयी थी। तथा मिथ्या हेतु और भ्रान्त निदर्शनों को सुनते-सुनते जो कि सत्यमार्गसे भ्रष्ट हो गये थे । इन लोगोंको सम्राटने प्रबल, अकाट्य युक्तिपूर्ण वाक्यों द्वारा समझाया था। जिनका उत्तर न दे सकनेके कारण वे सब चुप हो गये थे ॥ ९४ ॥ प्रधान मंत्री, श्रीमान्, पुरोहित, राज्यके शिष्ट पुरुष, अमात्य, तथा समस्त सदस्योंने सम्राटके उपदेशको सुन कर । अनादिकालसे बंधे हुए अपने मतके विवेब शून्य हठको तुरन्त हो छोड़ दिया था। उस दिनसे वे वास्तविक सत्यको पहिचान सके थे [५१०] फलतः उनकी प्रसन्नताकी सीमा न थी, उसीके आवेश में सुन्दर स्वस्थ तथा प्रसन्न मुख विकसित कमलोंको भाँति चमक उठे थे ।। ९५॥ SARASHIRSAREADLIRATHORITERSaiRSHERPAR १.[ सदस्यान् ] । n al Jain Education Inter 4 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् नरेन्द्रसद्वाक्य विवृद्धतस्वाः प्रसन्नबुद्धीन्द्रिय रागमोहाः । विपन्न मिथ्यात्वकषाय दोषाः शान्ता बभूवुर्बहवोऽपि तत्र ॥ ९६ ॥ इति विमतिमतिप्रबोधनार्थं स्वमभिमतं च 'धृतिप्रबृंहणाय । सुहृदयपरिनिर्मलत्वमिच्छन्सदसि जजल्प मनोहरैर्वचोभिः ॥ ९७ ॥ पुनरपि जिनशासनातिभक्तः परसमयानपविध्य भूमिपालः । स्वसमयममितार्थमुत्तमश्रीनिगदितुमप्रतिमं मनः प्रचक्रे ।। ९८ ।। सम्राट के उपदेशको सुनते ही उनको तत्त्वोंका रहस्य समझ में आ गया था, उनकी बुद्धि निर्मल हो गयी थी अतएव इन्द्रियाँ शुद्ध आचरणकी ओर उन्मुख हुई थीं तथा मोह, राग शान्त हो गये थे। मिथ्यात्व, क्रोध, लोभ, आदि कषायोंकी जड़ खुद गयी थी । परिणामस्वरूप कितने ही श्रोताओंने तुरन्त ही आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव किया था ॥ ९६ ॥ इतिधर्म कथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थं संदर्भे वराङ्गचरिताश्रि मिथ्या श्रुतिविघातको नाम पञ्चविंशतितमः सर्गः । भाषणका उददेश्य भरी पूरी राजसभामें पूर्वोक्त मधुर वचनों द्वारा भाषण देने में सम्राट वरांगके समक्ष तीन उद्देश्य थे - सबसे पहिले तो वे यह चाहते थे कि ज्ञानहीनता के कारण लोगोंको जो मिथ्या मार्गपर आस्था हो गयी है वह नष्ट हो जाय । दूसरे उनके विचारसे यह आवश्यक था कि लोग अपने मतको समझें, तथा जो समझते हैं उनकी भी आस्था दृढ़ हो । तीसरे उनमें ही सुदृष्टिसे इन प्रभावोंको स्थिर बनानेके लिए हृदयको परिपूर्ण स्वच्छ कर देना अनिवार्य था ॥ ९७ ॥ १. मद्रति । पृथ्वीपालक सम्राट वरांग जिन-शासनके दृढ़ भक्त थे, उनकी ज्ञानश्री लौकिकके ही समान विशाल थी। अपनी पूर्वोक्त वक्तृताके द्वारा यद्यपि वे दूसरे मतोंकी निस्सारताको स्पष्ट कर चुके थे तो भी वे अपने मतके विषय में कहना चाहते थे जो कि अनुपम तथा अनन्त ज्ञानका भण्डार है । अतएव उन्होंने और भी कुछ कहनेका निर्णय किया था ।। ९८ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल र ब्द- अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा में मिथ्या श्रुतिविघातक नाम पञ्चविंशतितम सर्गं समाप्त । For Private Personal Use Only M पंचविंश: सर्गः [ ५११] Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरान चरितम् षविंशः सर्गः अर्हन्मतमिदं पुण्यं स्याद्वादेन विभूषितम् । अन्यतीर्थैरनालीढं वक्ष्ये द्रव्यानुयोजनम् ॥ १॥ अननतपर्ययं द्रव्यं सामान्यादिकमिष्यते। तच्च दवेधा विनिर्दिष्टं जीवाजीवस्वभावतः॥२॥ तदेव त्रिविधं प्रोक्तं गुणैव्यैश्च पर्ययैः। चतुर्धा भिद्यते तच्च रूपारूपक्रियागुणैः ॥३॥ पञ्चास्तिकायभेदेन पञ्चधा भिद्यते पुनः। तदेव भिद्यते षोढा षड्द्रव्यप्रविभागतः ॥ ४ ॥ SRUSHIEL षडविंशः सर्गः षड्विंश सर्ग जीवादि तत्व श्री एक हजार आठ अर्हन्त केवलोके द्वारा उपदिष्ट आहेत जैनधर्मको यहो विशेषता है कि इसमें प्रत्येक वस्तुका विचार । एक ही दृष्टिसे नहीं किया गया है अपितु स्याद्वाद् (स्यात् = हो + , वाद-अर्थात् अनेक दृष्टियोसे विचार करनेकी शैली) दृष्टिसे ही पदार्थोंको देखा है। आईत् दर्शनकी इस विशेषताको दूसरे दार्शनिकोंने समझने तथा जानने का प्रयत्न भी नहीं किया है, अतएव वे पदार्थके एक अंगको हो उसका पूर्ण स्वरूप मानकर आपसमें विवाद करते हैं। अब मैं जैन-धर्मके अनुसार द्रव्योंके स्वरूप तथा विभागको कहता हूँ ॥१॥ ___ एक द्रव्यकी पर्याय तथा गुण अनन्त होते हैं। जब हम सामान्य दृष्टिसे देखते हैं तो द्रव्यको एक ही पाते हैं। द्रव्यत्व सामान्यसे नीचे उतरकर जब हम द्रव्योंके प्रधान तथा स्थूल स्वभावपर दृष्टि डालते हैं तो चेतनामय ( जीव ) तथा चेतनाहीन (अजीव ) स्वभावोंको अपेक्षासे द्रव्यके दो प्रधान भेद हो जाते हैं ।। २॥ गुणों और पर्यायोंके समूह को ही द्रव्य कहते हैं। इन तीनोंकी अलग-अलग सत्ताका अनुभव होता है अतएव द्रव्य, पर्याय तथा गुणकी अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं । रूप ( वर्ण तथा आकार ) अरूप ( विवर्णनिराकार) क्रिया ( परिस्पन्द आदि) तथा गुणोंकी अपेक्षासे देखनेपर यही द्रव्य चार प्रकारका हो जाता है ॥ ३ ॥ अस्तिकाय (बहुप्रदेशी द्रव्य ) स्वरूपको प्रधानता देकर विचार करनेसे द्रव्यके पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति यह पाँच भेद हो जाते हैं । जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश तथा कालको सामने रखते हुए द्रव्यत्व-सामान्यके ही विशिष्ट उसी 1 एकरूप द्रव्यत्वके छह भेद हो जाते हैं ।। ४ ।। I TECTARIURETIRG [५१२] Jain Education international Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशा बराङ्ग चरितम् जीवपुद्गलकालाश्च धर्माधमी नभोऽपि च'। षड्द्रव्याण्युदितान्येवं तेषां लक्षणमुच्यते ॥५॥ उपयोगलक्षणा जीवा उपयोगो द्विधा स्मतः। ज्ञानेन दर्शनेनापि यदर्थग्रहणं हि सः॥६॥ जीविष्यन्ति च जीवन्ति जीवा यच्चाप्यजीविषु। ते च जीवास्त्रिधा भिन्ना भव्याभव्याश्च निष्ठिताः ॥ ७॥ अश्रद्दधाना ये धर्म जिनप्रोक्तं कदाचन । अलब्धतत्त्वविज्ञाना मिथ्याज्ञानपरायणाः ॥८॥ अनाद्यनिधनाः सर्वे मग्नाः संसारसागरे। अभव्यास्ते विनिर्दिष्टा अन्धपाषाणसंनिभाः ॥९॥ अर्हद्धिः प्रोक्ततत्त्वेषु प्रत्ययं संप्रकुर्वते । श्रद्धावन्तश्च तेष्वेव रोचन्ते ते च नित्यशः॥१०॥ सर्गः अर्हन्तकेवलोके उपदेशके अनुसार ही आचार्योंने शास्त्रोंमें जीव, पुद्गल ( अजीव), काल, धर्म, अधर्म तथा आकाश इन छह प्रधान पदार्थोंका द्रव्यरूपसे वर्णन किया है । तद्नुसार ही अब इनको परिभाषा आदिको कहता हूँ ॥ ५ ॥ जीव तत्त्व जीवका असाधारण लक्षण है उपयोगमयता ( जीवो उवओ गमयो = दर्शन ज्ञान मयता) । जीवके अविच्छेद्य लक्षण उपयोगके भी दो प्रधान विभाग हैं-पहिला है दर्शनोपयोग तथा दूसरा ज्ञानोपयोग है। क्योंकि इन दो प्रधान ( उपयोगों) प्रवृत्तियोंके द्वारा हो वह समस्त पदार्थोका ग्रहण करता है ।। ६ ।।। जो अनादि भूतकालमें जोवित थे, वर्तमानमें अपने चेतन लक्षण युक्त होकर जीवित हैं तथा आगामी अनन्तकाल पर्यन्त जो अपने असाधारण स्वरूप ( चैतन्य ) को न छोड़ेंगे, ऐसे जोब अपनी अन्य प्रवृत्तियोंके कारण तीन विभागोंमें विभक्त किये गये हैं। उन विभागोंके नाम हैं एक-भव्य, दो-अभव्य तथा तीसरे-मुक्त ।। ७ ॥ अभव्य वीतराग तीर्थकरोंकी दिव्यध्वनिके कारण जिस सत्य धर्मका प्रकाश हआ था उसपर जो जोव कभी विश्वास नहीं करते हैं, मिथ्या तथा भ्रान्त ज्ञानको ग्रहण करने तथा पुष्ट करनेके लिए जो सदा तत्पर रहते हैं, फलतः जगतके मूल तत्त्वोंका में वास्तविक ज्ञान उनके हाथ नहीं हो आता है ॥ ८॥ अपनी इन प्रवृत्तियोंके कारण जो जीव जन्म, जरा, मरणमय अथाह संसार समुद्र में एक दो भव पहिलेसे नहीं अपितु अनादिकालसे बिल्कुल डूबे हुए हैं। इतना हो नहीं, आगे अनन्तकाल पर्यन्त डूबे भो रहेंगे, ऐसे जोवोंको हो केवलो भगवानने अभव्य कहा है। ये लोग उस अन्धे पत्थर के समान हैं जो मैकड़ों कल्प बीतनेपर भो थोड़ा सा निर्मल नहीं होता है ॥९॥ ज्ञानावरणी कर्मका समूल नाश हो जानेपर केवलज्ञान विभूषित तीर्थकर देवने, जिन जोव, आदि सात तत्त्वोंका १. म धर्माधर्मनभांसि च। २. [ ये चाप्यजीविषुः ] । Jain Education intemational ६५ [५१३] Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ अनादिनिधने काले निर्धास्यन्ति त्रिभिर्युताः । भव्यास्ते च समाख्याता हेमधातूपमाः स्मृताः ॥ सर्वकर्मविनिर्मुक्ताः सर्वभावार्थदर्शिनः । सर्वज्ञाः सर्वलोकार्याः सर्वलोकाग्रधिष्ठिताः ॥ निर्बंन्धा निःप्रतीकाराः समसौख्यपरायणाः । ये च सर्वोपमा' नीतास्ते सिद्धाः संप्रकीर्तिताः ॥ षट्प्रकारविभक्तं तत्पुद्गलद्रव्य मिष्यते । तस्य नाम विभक्तं तत्प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम् ॥ स्थूलस्थूलं तथा स्थूलं स्थूलसूक्ष्मं यथाक्रमम् । सूक्ष्मस्थूलं च सूक्ष्मं च सूक्ष्मसूक्ष्मेण षड्विदुः ।। १५ ।। विवेचन किया था उनपर हो जो श्रद्धा करते हैं, उन्हें मानकर उसके अनुकूल आचरण करते हैं वे श्रद्धालु पुरुष दिनों-दिन अपनी आन्तरिक शुद्धिको बढ़ाते हैं ।। १० ।। १४ ॥ भव्यजीव उनका संसार भ्रमण तो अनादि ही होता है किन्तु शुभ अवसर आते ही वे सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र मय रत्नत्रयको धारण करते हैं। तब उनका आगामी संसार सान्त ( कुछ भव बाद समाप्त ) हो जाता है । ऐसे जीवों को भव्य कहा है । ये साधु पुरुष उस मलीन मूल धातुके समान हैं, जो शुद्धिके उपाय जुटते हो शुद्ध स्वर्ण हो जाती है ।। ११ ।। मुक्तजीव ज्ञानावरणी, मोहनीय आदि आठों कर्मोंके बन्धनोंसे मुक्त, तीनों लोकों तथा कालोंके समस्त पदार्थं तथा सूक्ष्म भावोंके विशद रूपसे ज्ञाता, अतएव वास्तव में सर्वज्ञ, हितोपदेशक होनेके कारण समस्त लोकोंके परमपूज्य, षड़द्रव्यमय लोकके ऊपर ( उसके बाहर ) आत्मस्वरूप में विराजमान हैं ॥ १२ ॥ संसारके समस्त बन्धनोंसे परे, जिनको न तो किसीका प्रतीकार करना है तथा न कोई उनका प्रतीकार ही कर सकता है, सांसारिक सुखोंसे सर्वथा भिन्न क्षायिक आध्यात्मिक सुखसे परिपूर्ण तथा इस जगतके किसी भी पदार्थको उपमा देकर जिनके स्वरूपको नहीं समझाया जा सकता है, उन्हीं लोकोत्तर आत्माओंको, जो लोक के ऊपर निष्ठित हैं, उसे मुक्त जीव कहते हैं ॥ १३ ॥ अजीव द्वितीय द्रव्य पुद्गलको भी स्थूलरूप से छह भागों में विभक्त किया है। अब उसोका वर्णन करते हैं । पहिले उसके छहों भेदों को गिनाते हैं इसके उपरान्त क्रमशः छहों प्रकारके पुद्गलोंके स्वरूपका कथन करेंगे ।। १४ ।। प्रथम भेदका नाम स्थूलस्थूल ( अत्यन्त स्थूल ), स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, फिर इसी क्रमसे सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म तथा सूक्ष्म-सूक्ष्म ( अत्यन्त सूक्ष्म ) ये छह भेद पुद्गल द्रव्यके आकार-प्रकार आदिको सामने रखते हुए किये गये हैं ।। १५ ।। १. [ सर्वोपमातीताः ] । षड्विंश: सर्गः [ ५१४] Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् भूम्यब्रिवन जीमूतविमानभवनादयः । कृत्रिमा कृत्रिमद्रव्य स्थूलस्थूलमुदाहृतम् ॥ १६ ॥ तनुत्वद्रव्यभावाच्च छेद्यमानानुबन्धि यत् । तैलोदकरसक्षीरघृतादि स्थूलमुच्यते ॥ १७ ॥ चक्षुविषयमागम्य ग्रहीतुं यन्न शक्यते । च्छायातपतमोज्योत्स्नं स्थूलसूक्ष्मं च तद्भवेत् ॥ १८ ॥ Terreiraो गन्धः शीतोष्णे वायुरेव च । अचक्षुर्ग्राह्यभावेन सूक्ष्मस्थूलं तु तादृशम् ॥ पञ्चानां वैक्रियादीनां शरीराणां यथाक्रमम् । मनसश्चापि वाचश्च वर्गणा याः प्रकीर्तिताः ॥ २० ॥ तासामन्तरवर्तिन्यो वर्गणा या व्यवस्थिताः । ताः सूक्ष्मा इति विज्ञेया अनन्तानन्तसंहताः ॥ २१ ॥ १९ ॥ यहाँ पर कुछ ऐसे पदार्थों को गिनाते हैं जो स्थूलस्थूल कोटिमें आते हैं- पृथ्वी उनमें अग्रगण्य हैं उसके बाद पर्वत, वन, जलधर, स्वर्गी विमान, पृथ्वी पर निर्मित भवन, आदिके समान जितने भी पदार्थोंको मनुष्यने बनाया है अथवा प्रकृतिके द्वारा ही बनाये या बन गये हैं, ये सब स्थूलस्थूल हो कहे जायंगे ॥ १६ ॥ जिन द्रव्योंके आकार में तनुत्व ( छोटा या दुबलापन ) स्पष्ट है तथा जो छेदन करके बने हैं अथवा पीसनेके बाद या पेलने से उत्पन्न हैं ऐसे तेल, पानी, घी, दूध तथा अन्य समस्त रसोंको स्थूल ( घन तरल ) पदार्थ कहा है ॥ १७ ॥ संसारमें ऐसे भी पदार्थ हैं जो आखोंसे स्पष्ट दिखायी देते हैं किन्तु स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रहण ( छुये ) नहीं किये जा सकते हैं। उदाहरणके लिए प्रकाशमें पड़नेवाली पदार्थों की छाया, सूर्यकी धूप, अन्धकार, विद्युतका प्रकाश, चन्द्रिका, आदि पदार्थों को देखिये, वे सबके सब स्थूल सूक्ष्म पदार्थोंकी ही कोटिमें आते हैं ॥ १८ ॥ सूक्ष्मस्थूल इन पदार्थोंके ठीक विपरीत स्वभाव युक्त पदार्थोंके वर्ग में शब्द, कोमल-कठोर, आदि स्पर्श, मधुर, अम्ल, आदि रस ( स्वाद ), गन्ध, शीत, उष्ण तथा वायु ऐसे पदार्थं आते हैं। इनमेंसे एक भी ऐसा नहीं है जिसे आँख देख सकती हो किन्तु अन्य इन्द्रियों को इनका साक्षात् अनुभव होता है इस जाति के पदार्थोंको हो सूक्ष्म स्थूल कहते हैं ।। १९ ।। औदारिक [वैक्रियक आहारक, कार्मण तथा तेजस, ये पाँच प्रकार के शरीर होत हैं । इनकी उत्पत्ति में सहायक परमाणुओंको शास्त्रोंमें वर्णन नाम दिया है । इसी विधिसे मन तथा वचन जो कि दृश्य मूर्तिमान नहीं हैं इनकी भी अलग अलग वर्गणाएं (परमाणुसमूह ) होती हैं ॥ २० ॥ उक्त शरीरों तथा मन-वचनकी उत्पत्ति में साक्षात् सहायक वर्गणाओंके भीतर भी दूसरी वर्गणाएं रहती हैं। इनके क्रम तथा कार्यं समुचित रूपसे व्यवस्थित हैं । इन समस्त वर्गणाओंको ही सूक्ष्म पुदल कहते हैं । इनका प्रमाण अनन्तानन्त है । तथा ये भी स्कन्ध ( अनेक परमाणुओंका समूह ) ही होती हैं ॥ २१ ॥ For Private Personal Use Only षड्विंशः सर्गः [५१५ ] Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग असंयुक्तास्त्वसंबद्धा एकैकाः परमाणवः। तेषां नाम समुदिष्टं सूक्ष्मसूक्ष्मं तु तदबुधैः ॥ २२॥ धर्माधौं यथासंख्यं गतिस्थित्योस्तु कारणम् । तत्परिद्धामिनामेतौ' तयोः शेषः समो मतः ॥ २३ ॥ यथोदकं तु मत्स्यानां गतिकारणमिष्यते । स्गक्रयासमेतानां महीवाधर्म उच्यते ॥ २४ ॥ धर्मद्रव्यं त्रिधा भिन्नमस्तिदेशाप्रदेशतः। अधर्मश्च विधा प्रोक्तश्चास्तिदेशप्रदेशतः ॥ २५ ॥ अस्तिकस्तु, स्वपर्यायैर्लोकमापूर्य धिष्ठितः। देशः संक्षेपभागस्तु प्रदेशोऽसंख्यभागताम् ॥ २६ ॥ वर्तनालक्षणः कालस्त्रिधा सोऽपि प्रभिद्यते। अतोतोऽनागतश्चैव वर्तमान इति स्मृतः ॥ २७ ।। CTEJसासम्ब । षड्विंशः चरितम् सर्गः र- 041xbraz वर्गणाओंसे भी अधिक सूक्ष्म परमाणु होते हैं। वे एक-एक परमाणु किसी दूसरे परमाणुसे मिले नहीं रहते है। परमाणुओंमें आपसमें कोई सम्बन्ध भी नहीं रहता है। एक एक परमाणुको अलग अलग विखरा समझिये इस आकार प्रकारके परमाणुओंको हो द्रव्यके विशेषज्ञोंने सूक्ष्म-सूक्ष्म पुद्गल नामसे कहा है ।। २२ ।। धर्म-अधर्म पुद्गल द्रव्यके बाद धर्म और अधर्म द्रव्यको गिनाया है। इनमेंसे क्रमशः धर्मद्रव्य गमन करनेवालोंकी गतिमें अप्रेरक सहायक होता है और अधर्म द्रव्य ठहरनेमें तटस्थ सहायक होता है। इन दोनों द्रव्योंकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह उन्हीं प्राणियोंकी सहायता करते हैं जो गति तथा स्थिति क्रियामें स्वयं प्रवृत्त हो जाते हैं ये दोनों प्रेरणा नहीं करते हैं । २३ ।। उदाहरणके लिए जलको लोजिये-जो मछलियां चलना ( तैरना ) चाहती हैं, यानी उनके तैरनेमें सहायता देता है, यही अवस्था धर्म द्रव्यकी है। जो व्यक्ति चलते-चलते थक गये हैं और रुकना चाहते हैं तो किसी उपयुक्त स्थानपर रुक (बैठ) जाते हैं । इसी ढंगसे अधर्म द्रव्य भी समतल भूमि या छाया के समान रुकनेमें सहायक होता है ।। २४ ।। सामान्य दृष्टिसे एक धर्म द्रव्यके ही विशेषणोंकी अपेक्षासे तीन भेद हो जाते हैं प्रथम अस्ति-धर्मद्रव्य, द्वितीय देशधर्मद्रव्य तथा तृतीय प्रदेश-धर्मद्रव्य है । ठोक इसी रूपसे अधर्मद्रव्यके भी अस्ति-अधर्मद्रव्य, देश-अधर्मद्रव्य तथा प्रदेश-अधर्मद्रव्य । ये तीन स्थूल भेद हैं ।। २५ ।। जिसे अस्ति-धर्म अथवा अधर्म-द्रव्य कहा है वह उसके विशाल व्यापक रूपका द्योतक है जिसके द्वारा उन्होंने पूर्ण लोकाकाशको व्याप्त कर रखा है। निश्चित परिमाणमें व्याप्त दोनों द्रव्योंका (देश-धर्म अथवा देश-अधर्मद्रव्य ) विशेषण होता है । तथा देशके भी असंख्यातवें भागको प्रदेश धर्मद्रव्य अथवा प्रदेश अधर्मद्रव्य कहते हैं ।। २६ ।। काल काल द्रव्यकी परिभाषा या कार्य है वर्तना, परिणाम आदि कराना है। जगतके निखिल पदार्थोंको परिवर्तित करानेमें 1 १.[परिणामिनावेतौ ]। २.[तयोरेषः । ३. म आस्तिकस्तु । [५१६) NS Jain Education international Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराम चरितम् PARDESHe-Re वर्तमानमुपस्पश्य व्यतीतोऽतीत उच्यते । वर्तमानस्तु संप्रष्टुरुपस्थास्यत्यनागतः ॥ २८॥ उभयोरन्तरालः स्यादवर्तमानस्तु संप्रति । एष कालविभागस्तु कालविदिभरुदाहृतः॥ २९ ॥ समयावलिनाड्यश्च मुहूर्तदिनरात्रयः । पक्षमासर्तुवर्षाश्च युगाद्याः कालपर्ययाः ॥३०॥ आकाशं व्यापि सर्वस्मिन्नवगाहनलक्षणम् । तच्च प्रोक्तं विघा भूयो लोकालोकसमन्वितम् ॥ ३१॥ द्रव्यस्तु पञ्चभिर्व्याप्य' लोकाकाशं प्रतिष्ठितम् । अलोके खल पञ्चानां द्रव्याणां नास्ति संभवः॥ ३२॥ परिणामाज्जीवभावान्नित्यत्वात्कारणादपि । कर्तृत्वात्सरिक्रयत्वाच्च मूतिमत्त्वाद्विभुत्वतः ॥ ३३॥ षड्विशः सगैः w ariHRESTHearSSIRese समर्थ काल द्रव्यके भी प्रधान तीन हो भेद हैं । वह काल जो बीत गया है, काल जो कि वर्तमान है तथा वह समय जो अब तक आया नहीं किन्तु अवश्य आता है अर्थात् भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ।। २७ ॥ वर्तमान क्षणके पहिलेका जितना भी अनादि समय था वह सब अतीत ( भूत ) काल कहलाता है। तथा वर्तमान क्षणके तुरन्त बाद ही उपस्थित होने योग्य उस समयको जो कि अब तक उपस्थित नहीं हुआ है, किन्तु होगा अवश्य, उस अनन्तकालको भविष्य कहते हैं ।। २८ ।। तथा इन दोनों ( भूत तथा भविष्यत् ) कालोंके बीचमें जो पड़ता है, जिसे हम लोग संप्रति (अब), आदि शब्दोंसे प्रकट करते हैं उसे ही वर्तमानकाल कहते हैं । मोटे रूपसे कालके यही प्रधान भेद हैं, जिनके विषयमें कालद्रव्यके विशेषज्ञोंने व्याख्या को (लिखा ) है ।। २९ ॥ व्यवहारकी दृष्टिसे ही कालद्रव्यके समय ( एक परमाणु परिस्पन्दकाल ), आबलि ( असंख्यात-समय), नाड़ी ( २४ मिनट ), मूत, आदि सूक्ष्म भेद किये गये हैं। इन्हींके समूह रूपका दिन, रात, पक्ष, मास, शरद आदि ऋतु, वर्ष, तीर्थकरोंके युग, आदि भी कालकी ही पर्याएँ हैं ।। ३० ।। आकाश सब स्थानोंपर व्याप्त है । जगतको तथा उसके स्वरूपको निश्चित करनेवाली समस्त द्रव्योंको जो अवकाश देता है उसे ही आकाश कहते हैं । आधेय पदार्थोकी अपेक्षासे आकाशद्रव्यके भी दो प्रधान भेद कर दिये हैं लोकाकाश तथा अलोकाकाश ।। ३१॥ आकाशद्रव्य जिस आकाश खण्डमें धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल तथा जीव ये पांचों द्रव्य व्याप्त हैं उसे ही शास्त्रकारोंने लोकाकाश नाम दिया है। अलोकाकाश इसका ठीक उल्टा है क्योंकि वहाँपर इन पाँचों द्रव्योंका नाम तथा निशान भी नहीं है ।। ३२ ॥ विशेष विचारक विद्वानोंको विविध भेद-प्रभेद-युक्त इन सब द्रव्योंको इनके साधक हेतुओंके द्वारा जानना चाहिये। जैसे । १. [पञ्चभिर्व्याप्तं] । GRADEEPRATARREARSELLER " [५१७) Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एक क्षेत्रात्तयैकत्वात्स प्रदेशाद्यथाक्रमम् । सर्वं तद्द्विविधं द्रव्यं विज्ञातव्यं विचक्षणैः ॥ ३४ ॥ जीवाश्च पुद्गलाश्चैव परिणामगुणान्विताः । परिणामं न गच्छन्ति शेषाणीति विदुर्बुधाः ॥ ३५ ॥ जीवद्रव्यं हि जीवः स्याच्छेषं निर्जीव उच्यते । मूर्तिमत्पुद्गलद्रव्यममूर्त शेषमिष्यते ।। ३६ ।। धर्माधर्मवियज्जीवास्ते नैकक्षेत्रवर्तिनः । एकक्षेत्रस्तु कालः स्यादेको नैकश्च पुद्गलः ॥ ३७ ॥ परमाणुश्च कालश्च निःप्रदेशावुदाहृतौ । शेषाणि सप्रदेशानि वर्णितान्यृषिसत्तमैः ॥ ३८ ॥ धर्माधर्मैक जीवाश्च असंख्येयाः प्रदेशतः । प्रदेशा वियतोऽनन्ता इति सर्वविदां मतम् ।। ३९ ।। कि ये सब की सब परिवर्तनशील हैं, जीव मय अथवा जीव हैं, द्रव्यत्व की अपेक्षासे जगत् सृष्टिके कारण हैं अपने विकारों या परिवर्तनोंके कर्ता भी स्वयं ये ही हैं। इनके कार्य तथा क्रियाएँ सत् ( अस्तित्व ) रूपमें हमारे सामने उपस्थित हैं तथा ये स्वयं समर्थ हैं ।। ३३ ।। कितने ही इनमें मूर्तिमान (साकार) हैं तथा व्यापक भी हैं। इन सब ही द्रव्योंका निवास स्थान एक ही है, अपनेअपने द्रव्यत्वकी अपेक्षा ये सब हो एक हैं। तथा क्रमशः एक ही प्रदेशमें छहों द्रव्य पाये जाते हैं । यथोचित रूपसे उपयोग करनेविचारने पर ये विकल्प हेतु उनकी सत्ताको सिद्ध करते हैं ॥ ३४ ॥ द्रव्योंका विशेष जीव आदि छहों द्रव्यों में जीव तथा पुद्गल द्रव्योंका ही कालके कारण परिणमन ( परिवर्तन ) होता है। इनके अतिरिक्त शेष धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल द्रव्योंमें किसी भी प्रकारका कोई परिणमन होता ही नहीं है, ऐसा द्रव्योंके विशेषज्ञ केवली, आदि महापुरुषोंने कहा है ।। ३५ ।। छहों द्रव्योंमें केवल जीव द्रव्य ही ऐसा है जिसमें चेतना पायी जाती है, शेष धर्म, अधर्मं, आकाश, काल तथा पुद्गल पाँचों ही अजीव द्रव्य हैं। एक पुद्गल द्रव्य हो ऐसा है जिसकी मूर्ति (स्थूल आकार ) होती है शेष पाँचों द्रव्य सर्वथा मूर्ती ( आकारहीन ) हैं ॥ ३६ ॥ धर्म, अधर्मं, आकाश तथा जीव ये चारों द्रव्य ऐसे हैं कि इनका आधार केवल एक क्षेत्र (एक निरपेक्ष परमाणु ) हो ही नहीं सकता है । केवल काल द्रव्य ही ऐसा है जिसका एक-एक परमाणु रत्नोंको राशिमें रखे रत्नोंके समान अलग-अलग है । पुद्गल द्रव्यमें दोनों योग्यताएँ हैं, वह एक तथा अनेक क्षेत्र अवगाही है || ३७ ॥ पुद्गल द्रव्यका परमाणु ( जिससे छोटा भाग होना अशक्य है ) तथा काल द्रव्य ऐसे हैं कि इन दोनोंके और अधिक प्रदेश नहीं किये जा सकते हैं । केवलज्ञानरूपी नेत्रधारी ऋषियोंका कथन है कि बाकी सब द्रव्य ऐसे हैं कि उनके एक भागमें भी अनेक प्रदेश होते हैं ।। ३८ ।। धर्म, अधर्म तथा एक जीव द्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या असंख्यात है । केवलज्ञानरूपी नेत्रसे समस्त द्रव्य, पदार्थों के द्रष्टा १. म तद्द्द्विविधं । २. क निर्जीवमुच्यते । षविश: सर्ग: [५१८] Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् जीवाश्च पुद्गलाश्चैव कालश्च बहवः स्मृताः । धर्माधर्मावथाकाशमेकैकं वणितं जिनैः ॥ ४० ॥ पुद्गला जीवकायाश्च नित्यानित्या इति स्मृताः । कालद्रव्यमनित्यं तन्नित्यान्येवेतराणि च ॥ ४१ ॥ सत्क्रियाः पुद्गला जीवा निःक्रियाणीतराणि च । आकाशं च विभुद्रव्यं शेषमव्यापि तद्विदुः ॥ ४२ ॥ कार्यकारणसंयुक्तं पुद्गलद्रव्यमुच्यते । शेषाण्यकारणान्येव न कार्याणि कदाचन ॥ कर्तृ कर्तृत्वसंयुक्तं पुद्गलद्रव्यमुच्यते । द्रव्याण्यन्यान्यकर्तॄणि सर्वाणीत्यार्हतं मतम् ॥ तेषामधिगमोपायः प्रमाणनयवत्र्त्मना । प्रत्यक्षं च परोक्षं च प्रमाणं तद्विधा स्मृतम् ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ सर्वज्ञ प्रभुके वचनों के अनुसार ही आकाश द्रव्यके प्रदेशोंका परिमाण अनन्त है। जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य तथा काल द्रव्य अनेक हैं ।। ३९ ।। द्रव्य परिमाण श्री जिनेन्द्रप्रभुकी दिव्यध्वनिमें कहा गया है कि धर्म, अधर्मं तथा आकाश ये तीन द्रव्य ही ऐसे हैं जो एक-एक होकर भी समस्त लोकको व्याप्त किये हुए हैं ॥ ४० ॥ पुद्गल तथा शरीर बन्धनको प्राप्त जीव ये दोनों द्रव्य नित्य तथा अनित्य दोनों ही प्रकारके हैं। केवल काल द्रव्य ही ऐसा है जो अनित्य है, शेष धर्म, अधर्म, आकाश तथा शुद्ध स्वरूपी जोव, ये सब द्रव्य नित्य ही हैं ॥ ४१ ॥ पुद्गल तथा जीव इन दोनों द्रव्यों में हिलन-डुलन आदि सब हो क्रियाएँ होती हैं। शेष चारों द्रव्योंमें स्वतः कोई क्रिया नहीं होती है । समस्त द्रव्योंमें एक आकाश ही व्यापक तथा विभु द्रव्य है, शेष पाँचोंके पाँच द्रव्य अव्यापि हैं ।। ४२ ।। पुद्गल द्रव्यकी हो यह विशेषता है कि वह कार्य भी होता है और दूसरोंका कारण भी बनता है; किन्तु शेष जीव, धर्मं, अधर्म, आकाश तथा काल ये पांचों द्रव्य कारण ही होते हैं, किसी दूसरेके कार्य न कभी थे, न हैं, और न होंगे ।। ४३ ।। [ ५१९ ] अर्हन्त केवली के उपदेश के आधारपर प्रचलित जैनदर्शन कहता है कि केवल पुद्गल द्रव्य ही कर्ताकी अपेक्षा करता है। तथा स्वयं भी कर्तृत्ववान् या कर्ता होता है, किन्तु शेष पांचों द्रव्यों को यही विशेषता है कि कोई अन्य द्रव्य कभी भी उनका कर्ता नहीं होता है ॥ ४४ ॥ इन पांचों द्रव्योंका सत्य ज्ञान प्राप्त करनेके उपाय दो हो है प्रथम है प्रमाण ( वस्तुको सकल पर्यायोंका ज्ञान ) तथा नय ( एक अंशका ज्ञान ) दूसरा है। प्रमाणको साधारणतया प्रत्यक्ष ( साक्षात् ज्ञान ) तथा परोक्ष ( परम्परासे ज्ञान ) इन दो भागों में विभक्त किया है ।। ४५ ।। षड्विंशः सर्गः Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् प्रत्यक्षं भिद्यते त्रेधा सावधिश्चित्तपर्ययः । रूपिद्रव्यनिबद्धौ तौ केवलं विश्वगोचरम् ॥ ४६ ॥ परोक्षं तर्हि निर्दिष्टं विधा तत्त्वार्थदशभिः । सप्रभेदा मतिश्चैव विविकल्पमपि श्रुतम् ॥ ४७ ॥ संक्षेपतो नयौ द्वौ तु द्रव्यपर्यायसंसृतौ' । तन्मात्रस्याभिवित्सायामर्थशब्दविशेषितौ ॥ ४८ ॥ तयोर्भेदा नया जैनैराख्याता नैगमादयः । नीयते यैरशेषेण लोकयात्रा विशेषतः ।। ४९ ।। नैगम: संग्रहश्चैव व्यवहारस्तथैव च । द्रव्यार्थिकनयस्यैते भेदाः प्रोक्ताः मनीषिभिः ॥ ५० ॥ ऋजुसूत्रश्च शब्दश्च तथा समविरूढकः । इत्थंभूतश्च चत्वारो विकल्पाः पर्ययार्थिनः ॥ ५१ ॥ नाम च स्थापना चैव द्रव्यं द्रव्यार्थिकस्य च । निक्षेपादित्रयः प्रोक्ता भाव एवेतरस्य च ॥ ५२ ॥ ज्ञान कारण प्रत्यक्ष के भी तीन भेद किये हैं उनमेंसे पहिला है अवधिज्ञान ( निश्चित मर्यादाके भीतर स्थित इन्द्रियोंसे दूर पदार्थोंका ज्ञाता ) तथा मनःपर्यायज्ञान ( मानसिक भावोंको भी निश्चित सीमाओं में जाननेवाला ज्ञान ) ये दोनों रूपी अथवा मूर्तिमान द्रव्यको ही जानते हैं किन्तु तीसरा प्रत्यक्ष केवलज्ञान तो विश्वके समस्त पदार्थोंको सर्वथा हो जानता है ॥ ४६ ॥ तत्त्वमीमांसा में पारंगत आचार्योंने परम्परया पदार्थों के ज्ञाता परोक्षज्ञानके दो ही भेद किये हैं । उनमें अपने अनेक प्रभेदों युक्त मतिज्ञान पहिला है तथा दो भेदों में विभक्त श्रुतज्ञान दूसरा है ॥ ४७ ॥ नय प्रमाण पदार्थको किसी एक अपेक्षासे ही जाननेवाला नयज्ञान संक्षेपसे दो भागों में ही विभक्त है क्योंकि उसके आधार द्रव्य तथा पर्याय भी दो ही हैं। क्योंकि नय पदार्थ की एक निश्चित अवस्थाको ही जानना चाहता है। आपाततः उसके अनुकूल ही शब्द अर्थको विशेष रूपसे उपयोगमें लाता है ॥ ४८ ॥ जैनाचार्योंने इन दोनों नयोंके ही नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसुत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत ये प्रधान भेद किये हैं। इन नयोंके सहारे हो संसारके समस्त व्यवहार बिना अव्यवस्था के चलते हैं ॥ ४९ ॥ पूर्वोक्त द्रव्यार्थिक नयके तोन भेद हैं जिनके नाम नैगम, संग्रह तथा व्यवहार हैं। इन तीनों भेदों को लेकर ही प्रखर बुद्धि विचारकोंने इस संसारके अनेक विषयोंकी व्यवस्था की है ॥ ५० ॥ वस्तु तव विशेष परीक्षक आचार्योंने पयार्यार्थिक नयके ऋजुसूत्र, शब्दनय और उससे भी सूक्ष्म विषयग्राही समभिरूढ तथा इत्थंभूत ( एवंभूत) ये चार प्रधान विकल्प किये हैं ।। ५१ ।। निक्षेप जगत के सचराचर पदार्थोंको नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव आदिकी कल्पना करके भी जाना जाता है, इसीलिए इन्हें १. ( तद्धि ) । २. (संश्रिती ) । ३. ( समभिरूढक: ) । षर्विश: सर्गः [ ५२० ] Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् ५५ ॥ न हि द्रव्याथिको नाम नयः कश्चिववस्थितः । पर्यायार्थिको वापि किंतु भावाव्यवस्थितिः ॥ ५३ ॥ उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति नियमात्पर्यायवाचिनः । न जायन्ते न नश्यन्ति भावा द्रव्यार्थिकस्य च ॥ ५४ ॥ ऋते द्रव्यान्न पर्याया द्रव्यं वा पर्ययेविना । स्थित्युत्पत्तिनिरोधोऽयं द्रव्यलक्षणमुच्यते ॥ प्रोक्ता स्थित्यादयस्तेऽपि तयोः प्रत्येकलक्षणम् । न भवन्ति यतस्तस्मान्न तस्वं तौ नयौ स्मृतौ ॥ ५६ ॥ न संभवति संसारे द्रव्याथिकनयस्य यत् । न पयोऽथिकस्यापि यदुद्ध्रौव्यच्छेदवादिनौ ॥ ५७ ॥ सुखदुःखोपभोगस्तु नित्यस्यापरिणामिनः । घटते नाय नित्यस्य सर्वथोच्छेददर्शनात् ॥ ५८ ॥ निक्षेप कहते हैं । इन चारों निक्षेपोंमेंसे प्रारम्भके तोन अर्थात् नाम, स्थापना तथा द्रव्यका व्यवहार उस समय होता है जब हम द्रव्यार्थिक नसे पदार्थोंको जानते हैं। शेष चौथा भाव-निक्षेप पर्यायार्थिक नयसे ज्ञान करते समय ही उपयोगी होता है ॥ ५२ ॥ किन्तु इसका यह तात्पर्यं नहीं कि द्रव्यार्थिक नय नामके किसी नयकी पदार्थं जानने की प्रक्रिया, आदि साधन पूर्णरूपसे निश्चित हैं। पर्यायार्थिक नयकी भी यही अवस्था है जो कि द्रव्यार्थिक नयकी है। इस सबका इतना ही सार है कि प्रति क्षण परिवर्तित होते हुए भाव ही इन नयोंके विषय हैं ॥ ५३ ॥ किन्तु द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयके ज्ञेय-विषय क्षण-क्षण पर उत्पन्न होते हैं तथा उसी क्रमसे नष्ट भी होते रहते हैं । न विषयोंकी अवस्था इसके सर्वथा विपरीत है, क्योंकि वे न तो उत्पन्न ही होते हैं ओर न नष्ट नहीं होते हैं ॥ ५४ ॥ यह भी निश्चित है कि यदि द्रव्य न हो तो पर्यायों का आविर्भाव सर्वथा असंभव है । इसी क्रमसे देखिये यदि पर्यायें न हों तो द्रव्यका सद्भाव भी असंभव हो जायगा, क्योंकि द्रव्यकी परिभाषा हो स्थिति, उत्पत्ति तथा विनाशका समुदाय है ।। ५५ ।। उत्पादत्रय स्थिति ( धौव्य ) उत्पत्ति ( उत्पाद ) तथा निरोध ( व्यय ) इन तीनोंके विशद लक्षणों को भी शास्त्रों में अलग-अलग करके बताया है । किन्तु इतनेसे ही अभीष्ट पदार्थ की सिद्धि नहीं होती है, यही कारण है कि लोक व्यवहारमें साधक होते हुए भी ये दोनों नय प्रमाण नहीं हैं ॥ ५६ ॥ संसार के पदार्थों में न तो द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे व्यवहार चल सकता है, और न पदार्थोंको पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा ही कहा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों द्रव्य के ध्रौव्य भावके प्रतिकूल पड़ते हैं ।। ५७ ।। यदि द्रव्यार्थिक के अनुसार नित्य ही माना जाय तो उसमें किसी भी प्रकारके परिवर्तन के लिए स्थान नहीं रह जायेगा फलतः सुख, दुःख, उपभोग जो कि परिणाम ( बदलने) के ही प्रतिफल हैं वे कैसे बनेंगे। यदि सर्वथा अनित्य ही माना जाय तो भी ये सब भाव न बन सकेंगे क्योंकि आधार भूत पदार्थ सर्वथा हो नष्ट ( असत् ) हो जायगा ।। ५८ ।। १. पर्यायार्थिकस्यापि ] । ६६ षड्विंशः सर्गः [ ५२१ ] Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् योगतः कर्मबध्नाति स्थितिस्तस्य कवायतः । एकान्तनित्यानित्यत्वान्न बन्धस्थितिकारणम् ।। ५९ ॥ तस्मादुक्ता नयाः सर्वे स्वपक्षाभिनिवेशिनः । मिथ्यादृशस्त एवैते तत्वमन्योन्यमिश्रिताः ॥ ६० ॥ मणयः पद्मरागाद्याः पृथक्पृथगथ स्थिताः । रत्नावलीति संज्ञां ते न विदन्ति महर्षिणः ॥ ६१ ॥ यथैव कुशलैरेते यथास्थाने नियोजिताः । रत्नावल्यो हि कथ्यन्ते प्रत्येकाख्यां त्यजन्ति च ।। ६२ ॥ तथैव च नयाः सर्वे यथार्थं विनिवेशिताः । सम्यक्त्वाख्यां प्रपद्यन्ते प्राक्तनीं संत्यजन्ति च ॥ द्रव्याथिक यस्यात्मा कर्मकृत्फलभृत्क्षमः । पर्यायार्थिकयस्यान्यः कर्ता भोक्ता तथापरः ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ मन, वचन तथा कायके योगों (क्रियाओं) के द्वारा ही जीव नूतन कर्मोका बन्ध करता है तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, आदि कषायों की कृपासे नूतन बद्धकर्मोकी स्थिति पड़ती है। किन्तु जहाँ पर केवल योग अथवा कषाएँ नित्य होंगी, तथा केवल अनित्य होंगी वहाँ पर न किसीका बन्ध होगा और न स्थिति ।। ५९ ।। यही कारण है कि अपने अपने विषय ( एक ही पक्ष ) के सत्य घोषित करके दूसरी अपेक्षाओं ( अनित्यादि ) को मिथ्या घोषित करनेवाले परस्पर निरपेक्ष नयोंको मिथ्या नय कहा है। किन्तु जब ये हो नय परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा करने लगते हैं तो इनके द्वारा प्राप्त ज्ञान सत्य ज्ञान हो जाता है ॥ ६० ॥ सापेक्षत्रय पद्मराग, आदि प्रत्येक मणि ही बहुमूल्य होता है । किन्तु यदि ये सब महामणि अलग-अलग एक यहाँ, एक वहाँ पड़े रहें तो वे महामूल्य होकर भी रत्नावली (हार) इस नाम तक को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, यही अवस्था निरपेक्ष नयोंकी है ॥ ६१ ॥ जो पुरुष हार बनानेकी कला में निपुण हैं वे इन्हीं बिखरे हुए मणियोंको सक्रम एकत्र करके जब उचित स्थान पर पिरो देते हैं तो उनकी कान्ति अनेक गुनी हो जाती है और उसी समय वे रत्नहार इस नामको भी पा जाते है । उस समय उनके अपने-अपने पृथक् नाम लुप्त हो जाते हैं । यही अवस्था नयविज्ञान की है ।। ६२ ।। नैगम, आदि सब नय जब अपने आंशिक ज्ञानको पूर्ण पदार्थ के ज्ञानमें यथास्थान समर्पित कर देते हैं। दिया गया ज्ञान पूर्ण होता है फलत वे सब ही नय सत्य हो जाते हैं और अपने पहिले नाम नैगमादि नयको नामको प्राप्त करते हैं ॥ ६३ ॥ द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे जो आत्मा अपने एक जीवन में अनेक शुभ-अशुभ कार्य करता है, वही आत्मा अपने इसी जन्म अथवा दूसरे जन्ममें उनके फलोंको भोगता है। इस ही आत्माको जब हम पर्यायार्थिक नयकी कसौटी पर कसेंगे तो कर्म करनेवाला आत्मा कोई होगा और उसका फल भोगनेवाली दूसरा पर्याय हो जायगो ।। ६४ ।। १. क यस्यायम् [ पर्यायाथिनयस्यान्यः ] ! तब उनके द्वारा छोड़कर प्रमाण For Private Personal Use Only षड्विंशः सर्ग: [ ५२२] Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ब्रव्यार्थिकस्य यः कर्ता स एव फलमश्नुते । पर्यायार्थिकयस्यान्यः' कर्ता भोक्ता तथापरः] ॥ ६५ ॥ तस्मात्सर्वप्रपञ्चोऽयं लोकयात्रासमन्वितः । नययोरनयोर्भेदान्न संभवति यक्तिभिः ॥६६॥ गुणप्रधानभावेन यदा त्वेतौ परस्परम् । अपेक्षेते तदा तत्त्वं भजतो' भजनाधितौ ॥ ६७॥ अयमेव महापन्याः पुंसां निःश्रेयसाथिनाम् । अविरोधात्ततोऽन्यस्तु मिथ्यात्वप्रतिपादकः ॥ ६८॥ यावन्तो वचसा मार्गा नयास्तावन्त एव हि। तावन्ति परतीर्थानि यावन्तो नयगोचराः॥ ६९॥ षडविंश विशद विवेचन दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि द्रव्याथिक नयके अनुसार जो कर्ता है वही अपने कर्मोके परिणाम (फल ) को भरता भी है । किन्तु पर्यायाथिक नयको व्यवस्था इसके बिल्कुल प्रतिकूल है, उसकी दृष्टि में जिस पर्यायमें कार्य किया गया था वह बहुत शीघ्र ( प्रतिक्षण ) बदल जाती है । फलतः जो रूप कर्मोंका कर्ता है वही भोक्ता नहीं होता है ।। ६५ ॥ संसारके व्यवहारोंको चलानेमें अति उपयोगी उक्त प्रकारका सबका सब एकांगी ज्ञान द्रव्यार्थिक तथा पर्यायाथिक नयोंके भेदोंके द्वारा तब तक हो सुचारु रूपसे चलता है जब तक ये सब नय परस्पर सापेक्ष हैं। ज्योंहो ये परस्पर निरपेक्ष हो जायगे, त्यों ही उक्त समस्त प्रपंच तर्ककी कसौटी पर कसते हो मिथ्या सिद्ध होंगे ।। ६६ ।। किन्तु जिस समय इन दोनों नयोंमेंसे एक प्रधान हो जाता है तथा दूसरा अप्रधान (गौण ) हो जाता है उस समय ये परस्पर विरोधी न होकर एक दूसरेके पूरक हो जाते हैं। उस समय इनके द्वारा दिया गया आंशिक ज्ञान तत्त्व-ज्ञान होता है है क्योंकि पदार्थोंको जाननेका यही प्रकार है ।। ६७ ॥ जो पुरुष तत्त्वज्ञान प्राप्त करके परम निश्रेयस ( मोक्ष) को प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए स्याद्वादमय पदार्थपरीक्षा ही एकमात्र सीधा, सरल मार्ग है, क्योंकि इस पर चलनेसे पदार्थोंमें प्रतीत होनेवाला विरोध अपने आप ही लुप्त हो जाता है। इसके सिवा जितने भी एकान्तमय मार्ग हैं वे पदार्थकी अनेक धर्म-पूर्णताको उपेक्षा करनेके कारण सत्य मार्ग नहीं कहे जा सकते हैं ।। ६८॥ सत्य तो यह है कि नयोंकी संख्याका निश्चित प्रमाण ( संख्या ) कहा ही नहीं जा सकता है, क्योंकि प्राणी जितने प्रकारसे शब्दों द्वारा अपने भावोंको प्रकट कर सकता है उतने हो नय होते हैं । जब कोई विचारक किसी एक ही नयके विषयको लेकर उसे हो पदार्थका सत्य या पूर्ण, स्वरूप मानने लगता है तो वह मिथ्या-मार्ग हो जाता है। आपाततः जितने नय हैं, मिथ्या मार्गोंकी संख्या भी उतनी ही हो सकती है ॥ ६९ ॥ १. क पुस्तक एव। २. क भजते । ARRIALREADERSTARTERS (५२३] Jain Education interational Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज अस्त्यात्मा स हि कर्ता च ध्रुवो भोक्ता च मुक्तिमान् । अस्त्येव मुक्त्युपायश्च षोढा मिथ्यात्वमुच्यते ॥७॥ नास्त्यकर्ता न भोक्ता च भङ्गुरो न च मुक्तिमान् । नास्त्येव मुक्त्युपायश्च षोढा मिथ्यात्वमुच्यते ॥७१॥ प्रकृतेः पुरुषात्कालात्स्वभावान्नियतेरपि । दैवादीश्वरतश्चापि यदच्छातो विधानतः ॥७२॥ सर्वप्रपञ्चसंसिद्धिरेतेभ्यः संप्रचक्ष्यते । केचिदेकान्ततस्तेषां मिथ्यात्वं न निवर्तते ॥ ७३ ॥ तस्मादेवाहतं युक्तमनेकान्तावलम्बनात् । अविरोधस्तु सर्वत्र सद्भतार्थप्रदर्शनात् ॥ ७४॥ षड्विंशः चरितम् सर्गः AKAAHESHARELATREATMASHTAMA यालयमय नय तथा मिथ्यात्व आत्माके अस्तित्वको लेकर भी छह प्रकारका मिथ्यात्व हो सकता है, यथा आत्मा है ही, वहो कर्ता है, आत्मा सर्वथा ध्रुव ही है, आत्मा ही भोक्ता है, ज्ञान, आदि प्राप्त करके इस आत्मा ही को अष्ट कर्मोंसे मुक्ति मिलती है, तथा मोक्ष प्राप्तिके निश्चित उपायोंके विषयमें शंका नहीं ही की जा सकती है ।। ७० ।। उपयुक्त एकान्तमय वचनोंके विपरीत जब दूसरा नयवादो आत्माके अभावपर ही जोर देता है तो वह निम्नलिखित म छह मिथ्यात्वोंको उत्पन्न करता है। आत्माका अस्तित्व ही नहीं है, किसी भी कार्यका कर्ता हो ही नहीं सकता है, कर्मोंके फल " को भोग ही नहीं सकता है, क्योंकि वह एक क्षणमें ही नष्ट हो जाता है, तथा आत्माको मुक्ति प्राप्ति भी नहीं हो होती है, और न कोई मुक्तिके उपाय ही हैं ।। ७१ ॥ कितने ही ऐसे विचारक हैं जो पूर्वापर विरोधको चिन्ता न करके यही कहते हैं कि संसारका समस्त प्रपञ्च प्रकृतिकी । कृपा से हो जाता है, अथवा पुरुषका साक्षी होना ही जगत् प्रपंचका कारण है, तोसरोंका कथन है कि प्रकृति पुरुष आदि कुछ भी नहीं हैं समय हो सब कुछ करता है, कुछ लोगोंका मत है इससे भो आगे हैं, वे कहते हैं कि जगत्का स्वभाव ही इस प्रकार है ।। ७२॥ प्रकृति पुरुष पांचवें कहते हैं कि जगत् प्रपंचका होना तथा मिटना पूर्वनिश्चित (नियति ) है, दूसरोंका मत है कि पूर्वोक्त कोई बात नहीं है, केवल दैव ही संसारकी सृष्टिके लिये उत्तरदायी है, सातवें पक्षके समर्थक और भी अकर्मण्य हैं क्योंकि वे ईश्वरको जगत् सृष्टा कहते हैं, अन्य लोग इससे भी एक पग आगे गये हैं क्योंकि उनके मतसे ईश्वरकी अनियंत्रित इच्छा ही संसारको उत्पन्न कर देती है-तथा नौवें पथवादी कहते हैं कि कि ( यतः) ऐसा होना अनिवार्य (विधान ) था इसीलिये सृष्टि हो गयी है । इस ढंग के अनेक कारणोंको नयवादी लोग संसार सृष्टिका कारण मानते हैं। उनका मिथ्याज्ञान इतना दृढ़ हो गया कि युक्तिवाद उसे सरलतासे दूर नहीं कर पाता है ।। ७३ ॥ इन सब मतोंकी परीक्षा करनेके उपरान्त यहो निष्कर्ष निकलता है कि श्री अर्हन्त केवलीके द्वारा कहा गया, वस्तुके १ अनेक धर्मोका विचारक तथा स्याद्वादमय अनेकान्त ही सत्य है, क्योंकि उसका अवलम्बन करनेसे कहीं भी कोई विरोध नहीं 1 आता है। इतना ही नहीं, अपितु पदार्थ जैसा है उसके उसी स्वरूपका ज्ञान भी प्राप्त होता है ।। ७४ ।। SHAIRAPATIALAMINE -RLIARPURISORRERSE Jain Education international Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविरोधः कुतः स्याच्चेदेकपक्षपरिग्रहात् । स पुनः केन चेत्युक्ते नयद्वयपरिग्रहात् ॥ ७५ ॥ [स्याद्वादः खलु पूर्वस्मिन्परस्मिन्नुभयोरपि। उभयोः पादयोर्न स्यादिति केचित्प्रचक्षते |॥७६ ॥ स्याद्वावस्तु विशेषेण सर्वत्र यदि कल्प्यते। अथवा न प्रकल्प्येत दोषस्तस्य प्रसज्यते ॥ ७७॥ कस्तत्र दोष इति चेदेकान्तत्वं प्रसज्यते। एकान्तवादतः किं न लोकयात्रा विनश्यति ॥ ७८ ॥ लोकयात्राप्रसिद्धयर्थं युक्तिवादः प्रकल्प्यते। दृष्टान्तास्तस्य चत्वारस्तैव्यक्तिमभिगच्छति ॥ ७९ ॥ जीवः स स्यान्मनुष्यस्तु नाजीवो मृद्धटस्तथा। सद्व्यमिति सर्वत्र स्याद्वादस्य विकल्पना ॥२०॥ बराङ्ग चरितम् षड्विंशः यदि केवल एक ही नयसे ग्रहीत निरपेक्ष ज्ञानको पूर्ण-स्वरूप मानकर उसी पक्षको ग्रहण किया जाय तो पदार्थ-ज्ञानमें अविरोध कैसे होगा? वह कौन-सा प्रेरक कारण है जिसके द्वारा अविरोधका प्रादुर्भाव होगा? इस प्रकार शंका उत्पन्न होनेपर कहा जा सकता है कि सापेक्ष दो नयोंको माननेसे कार्य चल जायगा ।। ७५ ।। एकान्तापत्ति कुछ लोगोंका यह भी मत है कि स्याद्वाद दृष्टि पहिले नयसे उत्पन्न ज्ञानमें भी रहेगी और दूसरे नयके द्वारा जाने गयेमें भी होगी। फलतः दोनोंके द्वारा पाया गया ज्ञान भी स्याद्वाद ( समन्वय ) मय होगा तथा जो वस्तृज्ञान दोनों नयोंसे नहीं जाना गया है वह ही स्याद्वादसे बाहर जायगा ।। ७६ ।। तात्पर्य यह कि किसी भी दृष्टि अथवा अपेक्षासे प्राप्त ज्ञानके साथ स्याद्वादसूचक 'स्यात्' पद लगा ही रहना चाहिये। इस व्यवस्थामें कोई अपवाद करना सुकर नहीं है। क्योंकि ज्यों ही हमने अपने नय ज्ञानको स्यात् विशेषणसे अलग किया त्यों ही ( एकान्त या हठ-वाद ) भयंकर दोष उत्पन्न हो जाता है ।। ७७ ॥ परिहार प्रतिवादी पूछेगा कौन-सा दोष आता है तो सीधा उत्तर है कि मिथ्यात्वका मूल श्रोत्र एकान्त आ टपकता है । एकान्तवादी कह सकता है इससे क्या हानि है ? तो उससे यही पूछना चाहिये, कि क्या एकान्तवादका प्रश्रय लेनेसे संसार-यात्रा(लोकव्यवहार ) ही समाप्त हो जाती है क्योंकि बहिनके 'भाई' की पत्नी तो 'पति' हो मानती है। जब कि व्यक्ति एक ही है ।। ७८ ॥ संसारमें जितनी भी युक्तियोंका आविष्कार हुआ है तथा उन्हें प्रामाणिक माना जाता है, उन सबका एकमात्र उद्देश्य । यही है कि संसारका व्यवहार निर्दोष रूपसे चलता रहे। इस ही सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिए चार दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं, जिनके । द्वारा इसका रहस्य स्पष्ट हो जाता है ।। ७९ ॥ छहों द्रव्योंमें प्रधान द्रव्य जीव है। उसकी सबसे पहिली विशेषता यह है कि वह द्रव्य भी है, वह अजीव मिट्टीके घड़ेके १. म पुस्तक एव। २. म स द्रव्यमिति । मायामाची [५२५) Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादः खलु पूर्वस्मिन्परस्मिन्नुभयोरपि। उभयोः पादयोर्न स्यादिति केचित्प्रचक्षते ॥ ८१ ॥ अनेकान्तोऽपि चैकान्तः स्यादित्येवं वदेत्परः। अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति जैनो श्रुतिः स्मृता ॥ ८२॥ तस्यानेकान्तवादस्य लिङ्गं स्याच्छब्द उच्यते। तदुक्तार्थे विनाभावे लोकयात्रा न सिध्यति ॥ ८३ ॥ नयानामपि सामग्री प्रकृत्यादीनां च संहतिः। सम्यक्त्वमिति विज्ञेयं नान्यच्छेयोऽस्त्यतः परम् ॥ ८४ ॥ प्रमाणनयनिक्षेपक्रमोपहितं पुनः। एकान्तकात्मकं वस्तु भावाभावोपहितम् ॥५॥ द्रव्याथिकव्यवस्थायामेकं स्यात्पर्ययार्थिनः। अनेकमिति निर्दिष्टं तदेव जिनशासने ॥८६॥ बराज चरितम् षविंशः सर्गः समान भी नहीं है, और मनुष्य भी जीव है तब वह मिट्टी घड़े आदिके समान नहीं है। इन सब विकल्पोंके साथ स्यात् पद जोड़नेसत्य प्राप्त ज्ञान होता है ।। ८० ॥ इसपर कोई प्रतिवादी शंका करता है कि ऐसा होना असंभव ही है कि पहिला विकल्प भी स्याद्वाद हो दूसरा भी स्याद्वादमय हो, दोनों भी स्याद्वाद दृष्टिके अनुकूल हों तथा दोनों विकल्प रहनेपर भी स्याद्वाद दृष्टिकी प्रतिकूलता न होती हो ॥ ८१॥ ___ यदि इन बातोंको स्वीकार कर लिया जाय तो इसका मतलब यही होगा कि आपका अनेकान्त भी एक प्रकारका शुद्ध । एकान्त है ? उसकी इस शंकाका समाधान करनेके लिए ही ( परमपूज्य समन्तभद्र आदि आचार्यों) ने कहा है कि अनेकान्तमें भी अनेकान्त घटता है ।। ८२ ॥ इस अनेकान्तका प्रधान लिग ( द्योतक चिह्न ) स्यात् शब्द है क्योंकि वह, यह सूचित कर देता है कि यही ज्ञान सब कुछ नहीं है। यदि स्यात् शब्दके इस अर्थकी उपेक्षा करके पदार्थोंके स्वरूपको माना जायगा तो अनेक विरोध खड़े होकर, लोक व्यवहारका चलना ही असंभव कर देंगे ।। ८३ ।। नैगम, संग्रह, आदि सातों नयोंके द्वारा प्राप्त किये गये परस्पर सापेक्ष; (निरपेक्ष नहीं ) ज्ञान तथा प्रकृति, स्थिति, आदिके मिले हुये कार्य ( ज्ञान ) को ही शुद्ध सम्यक्त्व ( सत्य श्रद्धा ) कहा है। इस प्रकारके सत्य श्रद्धानके विना कोइ दुसरा मनुष्यका उपाय अधिक कल्याण ( यथार्थ ज्ञान ) नहीं कर सकता है ।। ८४ ॥ जब ज्ञाता संसारके किसी भी पदार्थको प्रत्यक्ष, आदि प्रमाण, नैगम, आदि नय तथा नाम, स्थापना, आदि निक्षेपोंकी अपेक्षासे क्रमपूर्वक देखना प्रारम्भ करता है, तो एक ही वस्तु एक विशेषतामय तथा अनेक विशेषताओंसे पूर्ण दिखती है। जो वस्तु स्वपर्याय-भाव रूपमें सामने ( सत् ) आती है वही दूसरेको अपेक्षासे अभावमय ( असत् ) प्रतीत होती है ।। ८५ ।। श्री अर्हन्त केवलीके द्वारा कथित जैन आगममें द्रव्याथिक नयकी प्रधानता होनेपर सब पदार्थ द्रव्यरूपमें एक ( द्रव्यत्वमय ही हैं किन्तु जब उन्हें पर्यायाथिक नयकी दृष्टिसे जाँचते हैं तो वे पदार्थ पर्याय (मिट्टोके घड़े ( थाली ) भेदसे अनेक हो जाते [५२६] Jain Education international Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज पितपुत्रादिसंबन्ध' एकस्मिन्पुरुष यथा। न हो कस्य पितृत्वेन सर्वेषामपिता भवेत् ॥ ८७॥ चतुर्विधस्वभावोऽयं पर्यायो वस्तुनः स च । प्रमेयत्वं हि हेतुः स्याद्धटो दृष्टान्त उच्यते ॥॥ तस्मात्तत्त्वपरीक्षायामिदमेव समन्जसम् । स्वायंभुवं प्रवचनं विद्वद्धिः समुपासितम् ॥ ८९ ॥ मिथ्यावादसमहस्य भद्रं जैनस्य धर्मतः । अमतः स्वादुतः पुंसां सुगमश्च सुमेधसाम् ॥ ९०॥ श्रद्धां कुर्वन्ति ये तस्मिन्नेधन्ते भावतश्च ये। ते सम्यदृष्टयः प्रोक्ताः प्रत्ययं ये च कुर्वते ॥ ९१॥ तन्मले ज्ञानचारित्रे मक्तेरेतानि साधनम् । रत्नत्रयमिदं प्रोक्तं सोपानं स्वर्गमोक्षयोः ॥ ९२॥ षड्विंशः सर्गः चरितम् एक ही मनुष्य किसीका पुत्र होता है तथा दूसरेका पिता होता है, इस विधिसे उसके अनेक व्यक्तियोंको अपेक्षा अनेक दि सम्बन्ध होते हैं । ऐसा तो कभी नहीं देखा गया है कि किसी एक आदमीका पिता होनेके कारण उसका सारे संसारके व्यक्तियों का पिता हो और उसका कोई दूसरा सम्बन्ध (पुत्र, भाई, आदि ) ही न हो ।। ८७ ।। सापेक्षता वाद प्रत्येक वस्तुके स्वभावको स्थूल रूपसे चार भागोंमें विभक्त कर सकते हैं, यही स्वभाव-भेद पर्याय भी कहा जाता है। । इन सबको सिद्ध करनेके लिये प्रमेयत्व (प्रमाणके द्वारा जानने योग्य होना) हेतु होता है तथा साक्षात् देखे गये घट, आदि उदाहरण होते हैं ।। ८८ ॥ यही कारण है कि तत्त्व मीमांसाके समय स्याद्वाद ही अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है, तथा सत्यज्ञानको कराता है। इस स्याद्वादका उपदेश उन तीर्थंकरोंने दिया था जो अपनी उग्र साधनाके द्वारा पूर्णताको प्राप्त कर सके थे 'स्वयंभू' इस संज्ञाके वास्तविक अधिकारी हो सके थे ।। ८९ ।। । यही कारण है कि सब ही दर्शनके उदार विचारकोंने इसे अपनाया है। आठों कर्मों के विजेता केवली जिनेन्द्रोंके धर्म का अनुसरण करनेसे ही एकान्त-ग्राही मिथ्यामतोंके समूहका भी उद्वार हो जाता है। इसका आश्रय लेकर मनुष्य मरणके परे हो जाते हैं, यह कोई क्लिष्ट मार्ग नहीं है अपितु स्वाभाविक होनेके कारण विवेको पुरुषोंके लिये अत्यन्त सरल है ।।९० ।। माहात्म्य जो विवेकी पुरुष स्याद्वादपर आस्था करते हैं तथा अन्तरात्मासे उसको ग्रहण करके दिनों-दिन ज्ञानको विकसित करते हैं, वेही सन्मार्ग-गामी जीव सम्यक्-दृष्टी संज्ञाको प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे पदार्थ साक्षात्कारके इस प्रधान उपाय पर आस्था करते हैं ।। ९१ ॥ स्याद्वाद रसायन सत्य श्रद्धा होते ही मिथ्याज्ञान सम्यक ज्ञान हो जाता है तथा कदाचार अथवा अनाचार हो सम्यक्-चारित्र हो जाता है १.क संबन्ध । २. [ धर्मकः ]। ३. [ स्यादतः । ४. म तस्मिन्नेदं ते ।। [५२७] सप Jain Education international For Privale & Personal use only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् HARASHTRACHERetenyeaweeyam एतन्मृत्युजराजातिसंततातभेषजम् । निर्वाणस्वास्थ्यसंधानं पवित्र परमं शिवम् ॥ ९३ ॥ त्रयाणां समवायेन मुक्तिमार्गः प्रशस्यते । त्रिविष्टपैकदृष्टान्तात्प्रत्येकं न प्रसिध्यति ।। ९४ ॥ तथापि तेषु सम्यक्त्वं श्रेष्ठमित्यभिधीयते। महीसलिलजीवानां सति योगे तु जीववत् ॥ ९५॥ षड्विंशा दर्शनाभ्रष्ट एवानुभ्रष्ट इत्यभिधीयते। न हि चारित्रविभ्रष्टो भ्रष्ट इत्युच्यते बुधैः॥९६॥ महता तपसा युक्तो मिथ्यादृष्टिरसंयतः । तस्य सर्वज्ञसंदृष्ट्या संसारोऽनन्त उच्यते ॥ ९७॥ सम्यग्दृष्टेस्तु संसारो यद्युत्कृष्टो भवेत्पुनः। सागराणां तु षट्षष्टिः नातः परतरो भवेत् ॥ ९८ ॥ ये तोनों ही मिले हुए मोक्षप्राप्तिके परम उपाय हैं। सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक्-चारित्र ये तीनों ही 'रत्नत्रय' कहलाते हैं। यह रत्नत्रय तो स्वर्ग तथा मोक्षकी सीढ़ियोंके समान हैं ।। ९२॥ यह रत्नत्रय जन्म, जरा, मरणके अनादि चक्रस्वरूप सांसारिक भयोंकी अचूक औषधि है तथा मोक्षरूपी परिपूर्ण स्वास्थ (स्व-आत्ममें स्थ-स्थिर अर्थात् आत्मास्वरूपमें लोन होना ) को देनेवाले हैं । ये तीनों परम पवित्र हैं तथा आत्माके कल्याणकारी या मोक्ष हैं । ९३॥ रत्नत्रय सम्यक्-दर्शन, आदि तीनों रत्न जब किसी एक आत्मामें इकट्ठे हो जाते हैं, उस समय ही ये मोक्षके सीधे तथा शुभ ॥ मार्ग बन जाते हैं। तीनों लोकोंके; एक दृष्टान्तके समान ही इनमें से एक, एकको प्राप्त करनेसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होतो है ।। ९४ ॥ तो भी इन तीनोंमें सम्यक्-दर्शनको बाकी दोनोंसे श्रेष्ठ बताया है क्योंकि किसी पदार्थ ( वृक्ष ) की उत्पत्तिके लिये जीव ( वीज ) पृथ्वी तथा, जल तीनों आवश्यक होते हैं, तो भो इन तीनोंमें दर्शन ( वीज ) हो प्रधान होता है क्योंकि उसके विना शेष दो भी व्यर्थ (पौधा नहीं) हो जाते हैं ।। ९५ ।। ___दर्शनकी प्रधानता जब कोई आत्मा सम्यकदर्शनमें दोष लाकर उससे पतित हो जाता है तो उसे वास्तवमें भृष्ट कहा जाता है। किन्तु यदि कोई आत्मा केवल चारित्र या ज्ञान से भृष्ट हो जाता है तो शास्त्र अथवा आचार्यगण उसे भ्रष्ट नहीं मानते हैं ।। ९६ ॥ कोई जीव अत्यन्त कठोर तथा विशाल तपस्याको साधनामें सफल हो चुका है किन्तु उसे सम्यकदर्शनकी सिद्धि नहीं हई है, तो त्रिकाल तथा त्रिलोक के ज्ञाता सर्वज्ञकी दृष्टि में वह असंयमी ही है तथा उसका संसार भ्रमण उतना तप करनेके बाद भी अनन्तकाल पर्यन्त चलनेवाला है ।। ९७॥ [५२८] किन्तु जिस चारित्रहीन असंयत पुरुषको सम्यक्दर्शनकी प्राप्ति हो चुको है उसको यदि अधिकसे अधिक ही इस संसारमें भ्रमण करना पड़ा तो भो उसे यहाँपर छ्यासठ सागर प्रमाण समय पर्यन्त ही रहना पड़ेगा, इससे अधिक वह किसी भी अवस्था में । में इस संसारमें नहीं रह सकता है ।। ९८ ॥ a Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Brusseutsa सर्गः क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं न तु सिद्धि प्रयच्छति । परिपश्यन्यथा पझामुग्धो दग्धो दवाग्निना ॥ ९९॥ ज्ञानहीना क्रिया चापि नात्र कार्य प्रसाधयेत् । नेत्रहीनो यथा धावन्पततिस्त्वनलाचिंषि ॥१०॥ तौ यथा संप्रयुक्तौ त दवाग्निमधिगच्छतः। तथा ज्ञानचरित्राभ्यां संसारान्मुच्यते पुमान ॥१०१॥ बराङ्ग षड्विंशः चरितम् पुमानर्थानथाप्रेप्सः संपन्नः साधनैरपि । दैवहीनः क्रियावांस्तु न कर्मफलमश्नते ॥१०२॥ संपन्नो दैवसंपत्त्या साधनैश्च समन्वितः। पुमान्पौरुषहोनस्तु सोऽपि नाथं स गच्छति ॥ १०३ ॥ युक्तौ विचार्यमाणायां य एवोभयवान्भवेत् । स एवेप्सितभागाग्नैर्दण्डोऽरण्य इवोद्भवेत् ॥ १०४॥ किसी आत्माको परिपूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हो चुकी हो तो भी यदि उसमें किसी भी प्रकार चारित्र नहीं है, तो उसे कभी भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। जैसा कि प्रसिद्ध हो है कि विचारा लंगड़ा पुरुष जो कि आती हुई दावाग्निको स्पष्ट देख कर भी पेरोंसे विकल होनेके कारण उसीमें जल कर भस्म हो गया था ।। ९९ ।।। इसी विधिसे यदि किसी आदमीका आचरण तो बहुत विस्तृत तथा निर्दोष है किन्तु ज्ञानसे दर्श-स्पर्श भी नहीं है, तो उसे भी सिद्धि न मिलेगी। उसकी वही अवस्था होगी जो कि उस अन्धेकी होती है जो आगके तापको अनुभव करके इधर-उधर भागता है और आगकी लपटमें जा पड़ता है ।। १०० ॥ अंध-पंग मिलन यदि किसी संयोगवश आँखों वाला लंगड़ा और पैरों वाला अन्धा ये दोनों एक दूसरेसे मिल जायें तो वे सम्मिलित प्रयत्न करके दावाग्निसे बच कर प्राण-रक्षा कर ही लेते हैं। इसी विधिसे जब आत्मा ज्ञान तथा चारित्र दोनोंको ही प्राप्त कर लेता है तो वह विशेष प्रयत्नके बिना ही संसार दावानलसे पार हो जाता है ।। १०१ ।। दैव-पुरुषार्थ संसारमें देखा जाता है कि कोई मनुष्य किन्हीं कार्योंको करना चाहता है, उन कार्योंकी सफलताके लिए उपयोगी सब साधनोंको भी बह जुटा लेता है । जब क्रमशः सब तैयारियां हो लेती हैं तो वह कार्यको सफल करनेके लिए पूर्ण प्रयत्न करता है। तो भी उसके हाथ असफलता ही लगती है क्योंकि दैव (पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्म ) उसके अनुकूल नहीं होते हैं ।। १०२।।। इसका दूसरा भी पक्ष होता है, कोई मनुष्य कार्यकी सिद्धिके लिए आवश्यक समस्त साधन सामग्रीसे सुसज्जित है, पूर्वकृत शुभकर्मोंका परिणाम भी सर्वथा उसके अनुकल है, तो भी उसको अपने अभीष्ट कार्यमें सफलता केवल इसलिए नहीं मिलती। है कि उसने पुरुषार्थको भलीभांति नहीं किया था ।। १०३ ॥ इन दोनों दृष्टान्तोंको जब युक्तिपूर्वक विचारते हैं तो इसो निष्कर्षपर आते हैं कि जिस पुरुषमें अनुकूल दैव तथा उपयुक्त पुरुषार्थ ये दोनों बातें होंगो वह आदर्श पुरुष निश्चयसे अपने सब ही अभीष्ट कार्योंमें सफलता प्राप्त करेगा। वैसा ही [५२९] समझिये जैसा कि उस व्यक्तिका हाल होता है जो ठीक (शमी) लकड़ीके डंडोंको रगण कर वनमें भी आग उत्पन्न करा लेता है ।। १०४॥ ११.[पङगुमुग्धो]। २. [पतितस्त्वनलाचिषि ]। ३. क देवहीनक्रिया । ४. [ भागग्नेदंण्डो ] । Jain Education international ६७ For Private & Personal use only PATREMETARAPALAMAUSEtaneswaranRIALA a suresIRLS Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् इसी प्रकार जिस पुरुषने मन, वचन तथा कायकी चेष्टाओंको वशमें कर लिया है, इन्द्रियोंको संयत कर दिया है तथा प्रति समय चारित्रके पालन में प्रयत्नशील है, वह पुरुषार्थी आत्मा समस्त संकल्प विकल्पोंको समूल नष्ट करके उस ध्रुव तथा for पदको पाता है जिसका मधुर नाम निर्वाण है ॥ १०५ ॥ एवं जने' क्रियायुक्तस्त्रिगुप्तः संयतेन्द्रियः । निर्धूय सर्वसंकल्पान् ध्रुवमेत्यचलं पदम् ॥ १०५ ॥ द्रव्याणि षट् च गतिभेदसमन्वितानि युक्त्या प्रमाणनयमार्गविकल्पितानि । तान्येव तस्वपदवीसमुपाश्रितानि स्वैलक्षणैरभिहितानि नरेश्वरेण ॥ १०६ ॥ कालस्य हानिमय वृद्धिमपि प्रसंख्यं संज्ञां च तस्य खलु भारतवर्षभूमौ । तस्यां तु कारणमहापुरुषांश्च तेषां नामादि विस्तर विहीनमतोऽभिधास्ये ।। १०७ ॥ इति धर्मंकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते द्रव्यादिकालो नाम षड्विंशतितमः सर्गः । उपसंहार सम्राट वरांगने जीव, आदि छहों द्रव्योंको उनके स्वरूप, परिणाम तथा भेदोंके सहित समझाया था । प्रमाण तथा नयके स्वरूप, उनके द्वारा पदार्थों को परीक्षा करनेकी शैलो आदि प्रमाणोंके स्वरूपको अकाट्य युक्तियों द्वारा श्रोताओंके हृदयमें बैठा दिया था। प्रमाणनय, आदि किस अवस्था में तत्त्वपदको पाकर मोक्षमार्गकी दिशामें ले जाते हैं तथा रत्ननकी अपनी अपनी परिभाषा तथा योग्यता क्या है इन सब विषयोंका विशद विवेचन किया था ।। १०६ ।। वाच्य विषय इसके आगे बतायेंगे कि भरतक्षेत्र भूमिपर किस प्रकार काल परिवर्तन होता है उसके परिवर्तनमें कौनसे महापुरुषों ( शलाका पुरुषों) का विशेष हाथ रहता है । कालोंके साम क्या हैं, उनमें किस प्रकार आयु, बल, ज्ञान, आदिकी हानि होती है। तथा इन्ही गुणोंकी वृद्धिको भी क्या प्रक्रिया है । शलाका पुरुषोंके नाम तथा चरित्र क्या थे । इतना अवश्य समझ लेना चाहिये कि ये सब वर्णन विस्तारसे नहीं हो सकेंगे ॥ १०७ ॥ १. [ जनी ] । चारों वर्ग सलन्वित, सरल शब्द - अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें द्रव्यादिकाल नाम षड़विशतितम सगँ समाप्त | षड्विंश: सर्गः [ ५३०] Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Newe बराङ्ग चरितम् सप्तविक -सर्गः सप्तविंशः सर्गः ततो नरेन्द्रः प्रथमानुयोगं प्रारब्धवान्संसदि वक्तुमुच्चैः । सभा पुनस्तस्य वचोऽनुरूपं शुश्रूषयामावहिता बभूव ॥१॥ कालायुषी क्षेत्रमतो जिनांश्च जिनान्तरं चक्रभृतस्तथैव । प्रख्यातवंशो बलवासुदेवी तयोश्च शत्रूश्च निशामयध्वम् ॥२॥ कालं पुनर्योगविभागमेति निगद्यतेऽसौ समयो विधिः। संख्याव्यतीताः समयाश्च दृष्टा एका बुधैः सावलिकेति तेऽपि ॥ ३ ॥ शब्दः स ऐके गणनाव्यतीतास्ताः सप्तभिस्तोकमुदाहरन्ति । स्तोकर्लवः सप्तभिरेव चैकस्तेनाधिकास्त्रिशदथाष्टयुक्ताः ॥४॥ H ETHERHITESHPSIRPHATOSRe - सप्तविंश सर्ग गत अध्यायमें छह द्रव्योंका वर्णन समाप्त करनेके पश्चात्, सम्राट वरांगने अपनी राजसभामें प्रथमानुयोग ( शलाका पुरुषोंका जीवन चरित्र तथा अन्य पुराण और धर्म कथाओं) का व्याख्यान प्रारम्भ किया था। उनका स्वर उच्च तथा स्पष्ट था। उनके वचन तथा उत्साहके अनुरूप ही राजसभाकी श्रद्धा तथा भाव थे, फलतः शास्त्र सुननेकी इच्छासे प्रेरित होकर वहाँ पर उपस्थित सब ही श्रोता सर्वथा सावधान और चैतन्य हो गये थे ॥१। सम्राटने सभाको सम्बोधन करते हुए कहा था कि आप लोग इस जगतके क्षेत्र-विभाग, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी आदि काल-परावर्तन; इनमें होने वाले युगप्रवर्तक तीर्थंकर, एक तीर्थंकरके निर्वाणसे लेकर दूसरे तीर्थंकर जन्म पर्यन्त पड़े सामयिक अन्तराल, चक्रवर्ती, बल ( बलभद्र ) तथा वसुदेव जिनके कुल इस धरणोपर प्रसिद्ध थे तथा इन सब लोगोंके प्रबल प्रतिद्वन्दियोंके वर्णनको ध्यानसे सुनें ।। २॥ उत्थानिक यद्यपि रत्नोंकी राशिमें पड़े प्रत्येक रत्नके समान कालका प्रत्येक क्षण अलग-अलग है तो भी व्यवहारिक दृष्टिसे इनके भी विभाग किये गये हैं। इस विभाजनके विशेषज्ञोंने इसके लिए समय संज्ञाका भी प्रयोग किया है। जब इतने अधिक समय बीत जाते हैं कि उनको गिनना कठिन हो जाता है, तो समयके प्रमाणकी व्यवस्था करने वाले विद्वान उस अन्तरालको 'आवलिका' ! ।। अथवा आवली संज्ञा देते हैं ॥३॥ किन्हीं आचार्योंका यह भी मत है कि गणनासे परे (असंख्यात ) आवलियोंके बीत जानेपर एक शब्द होता है । साधारणतया सात आवली प्रमाण समय बीतनेपर एक स्तोक होता है। सात 'स्तोक' समय बीतने पर एक 'लव' होता है और इस । [५३१] real Jain Education interational Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एको मुहूर्तः खलु नाडिके' द्वौ त्रिशन्मुहूर्ता दिनरात्रिरेका । त्रिपञ्चस्तैर्दिवसैश्च पक्षः पक्षद्वयं मासमुदाहरन्ति ॥ ५ ॥ ऋतुस्तु मासद्वय एक उक्त ऐषां त्रयं स्यादयनं तथैकम् । वर्ष तथा द्वे अयने वदन्ति संख्याविभागक्रमकौशलज्ञाः ॥ ६ ॥ दशाहतां वृद्धिमतः परं तु संख्यां प्रवक्ष्यामि यथाभिधानाम् । एकं दशैवाथ शतं सहस्रं दशाहतं तद्धघुतं वदन्ति ॥ ७ ॥ दशाहतं तं स्वयुतं हि लक्ष्या शताहतां तां च वदन्ति कोटीम् । लक्ष्या ह्यशीति त्वधिका चतुर्भिः पूर्वाङ्गमेकं मुनिभिः प्रदिष्टम् ॥ ८ ॥ कालवर्णन लवके प्रमाणसे आठ युक्त तीस अर्थात् अड़तीस ' [ अड़तालीस ] लवोंसे कुछ अधिक समय तक बीत जानेपर एक मुहूर्त होता हैं ॥ ४ ॥ एक मुहूर्त दो नाड़ीके बराबर होता है। एक दिन तथा रात्रिमें कुल मिलाकर तीस मुहूर्त होते हैं । पाँच दिन-रात के प्रमाण समय में तीनका गुणा करनेपर अर्थात् पन्द्रह दिन-रातका एक पक्ष होता है, तथा मास उसे कहते हैं, जिसमें दो पक्ष ( पखवारे) अथवा तीस दिन-रातका बीते हों। एक ऋतुमें दो मास होते हैं ॥ ५ ॥ समय विशेषज्ञोंका कथन है कि तीन ऋतुएँ वोत जानेपर अयन ( सूर्य की दक्षिण तथा उत्तर गति ) होता है। दो पूरे अयन समाप्त होनेपर एक वर्षं होता है। इस विधिसे समयका विभाग करके विशेषज्ञोंने समयके परिणामको निश्चित करने का प्रयत्न किया है ।। ६ ॥ इसके आगे आचार्योंने जो प्रमाण दिये हैं वे सब एक दूसरेसे ( अथवा पहिलेसे अगला ) दश गुने हैं क्योंकि ऐसा करने से संख्या देने में सरलता रहती है। एक प्रारम्भ करनेका मूल स्थान है, इससे दशगुना दश हैं, दशके दशगुने सौ हैं, दश सौ एक एक हजार होते हैं तथा हजारमें भी दशका गुणा करनेपर दश हजार होते हैं, इन्हें शास्त्रों में 'अयुत' संज्ञा दी है ॥ ७ ॥ एक अयुतको दशसे गुणा करनेपर जो प्रमाण आता है उसको लक्ष ( लाख ) कहते हैं । एक लाखको सौसे गुणा करने पर जो प्रमाण आता है उसे कोटि ( करोड़ ) कहते हैं । एक लाखमें अस्सीका गुणा करनेपर जो आये उसमें चार लाख और जोड़ देनेपर जो ( चौरासी लाख ) प्रमाण होता है उसको शास्त्रोंके विशेषज्ञ मुनियोंने 'पूर्वांग' संज्ञा दी है ॥ ८ ॥ १. म नाधिके । २. [ द्वे ] । ३. अड़तालीस । सप्तविंश: सर्गः [ ५३२ ] Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सप्तविंश सर्गः कृतिस्तु तस्यैव हि पूर्वमेकं पूर्वाङ्गमाहुः कृतिताडितं तत् । तेनाहतं तच्च हि सर्वमेकं' सर्वाहतं चापि [५] नामाहुः ॥९॥ ततः परं तस्य परस्परेण गुण्यं च विन्द्याद्गुणकारकं च । तेषां तु संज्ञाः क्रमतः प्रवक्ष्ये पृथक्पृथक्पूर्वमुनिप्रणीताः ॥ १० ॥ ततो नतं तन्नालनाङ्गमस्मात्ततश्च भूयो नलिनं निराहः। ते द्वे महाशब्दयते च पूर्वे पद्मं ततः स्यात्कमलं च तस्मात् ॥ ११ ॥ ततः परं तत्कुमुदं तुटीयं ततश्च भूयोऽथ टटं निराहः। ततश्च विद्यां डमन तथाहं मह ततस्त्यात्प्रयु तं प्रतय॑म् ॥ १२ ॥ ELEURREZZARTISIमाचारमा lpersweSTHHTHA e गणनाक्रम उसकी ( पूर्वांगकी ) हो एक कृति ( वर्ग-बीस गुना ) को पूर्व कहते हैं तथा पूर्व में कृतिका गुणा करते पूर्वांग हो जाता है। एक पूर्व में एक पूर्वांगका गुणा कर देनेसे एक सर्व आता है तथा एक सर्व में पूर्वांगका गुणा करनेसे एक धनांग होता है ।। ९॥ इसके आगे यही नियम समझना चाहिये कि अन्तिम संख्या ( गुण्य ) में उससे पहिलेकी संख्या (गुणक) का गुणा करने से आगे-आगेके प्रमाण निकल आते हैं। इस विधिसे जो समयकी संख्याएँ निकलती हैं उनके नामोंको इसके बाद उसी उसी ढंग तथा क्रमसे कहता हूँ कि जिस क्रमका अनुसरण करके तपोधन ऋषियोंने समस्त संख्याओंके अलग-अलग प्रमाण निकाले थे ॥१०॥ पर्वमें धनांगका गुणा करनेपर 'नत' होता है, नतके बाद 'नलिनांग' प्रमाण आता है, इसके आगे उक्त प्रक्रियाका अनुसरण करनेपर 'नलिन' होता है । इसके उपरान्त 'पद्म' प्रमाण निकलता है । पद्मके बाद 'महापद्म' निकलता है । पद्म तथा महापद्मका गुणा करनेपर 'कमल' प्रमाण निकलता है ।। ११ ॥ महापद्ममें कमलका गुणा करनेपर जो प्रमाण आता है उसकी संज्ञा 'कुमुद' है। कमल और कुमुदका गुणा करनेपर 'तुटीय' होता है । कुमुद तथा तुटीयका गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है उसे 'टट' कहा है। इसके आगे उक्त विधिसे ही विद्या, डमन, अहे, मह ( अथवा महत् ) आते हैं। इसके आगे जो संख्या आयी है उसे 'प्रयुत' नाम दिया गया है ।। १२ ।। मामाne मन्च १.क पर्वमेकं । २.क दमनं। ३.क तदाहं । ४. [ महत्ततः स्यात् ] । Jain Education international Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग परितम् सप्तविंशः सर्गः ततः शिरीषं त्वतिसंयुतं च प्रहेलिका चापि च चचिका च । संख्याव्यतीतं च ततः प्रमाणमौपम्यगम्यं मुनयो वदन्ति ॥ १३॥ संख्ययमादौ प्रवदन्ति तज्ज्ञास्ततस्त्वसंख्येयमनन्ततां च । एकैकमेषां त्रिविधप्रकारं नवप्रकारं द्वयमामनन्ति ॥ १४ ॥ व्यवहारपल्यं प्रथमं वदन्ति न तेन किचिद्व्यवहार्यमस्ति। उद्धारपल्यं च नतो द्वितीयमद्धारपल्यं ज पुनस्तृतीयम् ॥ १५॥ विष्कंभमानं खलु योजनं स्यात्परिक्षिपन्तं त्रिगणाधिकं च । उत्सेधतो योजनमेव यस्य तत्पल्यमाहर्गणितप्रधानाः ॥१६॥ एकाहिक सप्तदिनानि यावज्जातस्य रोम्णां खल बर्करश्च । अनेककल्पप्रतिखण्डितानां निरन्तरं तिन्दूसमं प्रपूर्णम् ॥ १७॥ २ग । AHESHISAMAJHAHIDARSujearPAPHimes इसके बाद शिरोष, अतिसंयुत, (अथवा अतिशिरोष ) प्रहेलिक तथा चचिक संख्याएँ निकलती हैं। चचिका अन्तिम संख्या-प्रमाण है । इसके आगे जो प्रमाण हैं उन्हें अंकों द्वारा नहीं कहा जा सकता है। ( असंख्य ) ज्ञानी मुनियोंका कथन है कि उन सबका प्रमाण सादृश्य (उपमा) देकर ही समझाया जा सकता है वे उपमा-प्रमाण हैं ।। १३ ।। संख्याशास्त्रके पंडितोंका मत है कि संख्यात (जिनके अन्तिम प्रमाणको बता चुके हैं ) उपमा-प्रमाणका मूल है। उससे आगे बढ़ते हो असंख्यात हो जाता है और बढ़ते-बढ़ते अनन्त तक जाता है। इन संख्यात, असंख्यात तथा अनन्तमें प्रत्येकके तीनतीन भेद हैं । इस प्रकार सब मिलकर नौ ( सात ) होते हैं। ये भी दो, दो प्रकारके हैं अतएव समूहित संख्या अठारह चौदह हो । जाती है ॥ १४ ॥ उपमा प्रमाण उपमा-प्रमाणके प्रथम भेदके सर्वप्रथम प्रभेदका नाम व्यवहार-पल्य है। यद्यपि इसका नाम व्यवहार-पल्य है तो भी इससे कोई व्यवहार नहीं मिलता है क्योंकि इसमें किसी काल या वस्तुका प्रसाण नहीं दिया है । व्यवहार पल्यके आगे उद्धार-पल्य गिनाया है तथा इस शृंखलामें अद्धापल्य तीसरा अथवा अन्तिम है ।। १५ ।। गणित शास्त्रके आचार्योंने पल्यके प्रमाणको इस क्रमसे बताया है-एक गोल गर्त खोदिये जिसके विष्कम्भ (व्यास) का प्रमाण एक योजन हो, आपाततः उसकी परिधि व्यासके तिगुनेसे भी अधिक होगी। इस गर्तकी गहराई भी पूरी एक योजन होती है। इस गर्तको ही पल्य कहते हैं ।। १६ ।। जिन बकरोंको जन्म के एक दिनसे लेकर अधिकसे अधिक सात दिन हुये हैं उनके कोमल रोमोंको लेकर अत्यन्त सूक्ष्म १. [बर्करस्य ] । २. संख्यात के सिवाय असंख्यात-अनन्त ही परीत, युक्त तथा द्वित है। For Privale & Personal use only ARTHAARAARRIERELIGHLIGITAURANAGPUR Jain Education international Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग सप्तविंशः - सर्गः पूर्णे तथा वर्षशते च तस्मादेकैकमुद्धत्य हि लोमखण्डम् । निष्ठा प्रयाते खलु रोमराशौ पल्योपमं तं प्रवदन्ति कालम् ॥१८॥ तेषां पुनः स्यादथ पल्यनाम्नां दशाहतां सा खलु कोटिकोटिः । प्रमाणमेतत्खलु सागरस्य निगद्यते वीतमलैजिनेन्द्रैः ॥ १९ ॥ ततश्च तस्माद्व्यवहारपल्याद्वालाग्रमेकं परिगृह्य सूक्ष्मम् । अनेककोटचब्दविखण्डितं तत्तस्यातिपूर्ण निचितं समन्तात् ॥ २० ॥ पूर्ण समासान्तशते' ततस्तु एकैकशो रोम समुद्धरेच्च । क्षयं च जाते खलु रोमपुञ्ज उद्धारपल्यस्य हि कालमाहुः ॥२१॥ टुकड़े किये जाय। जब वे और काटने योग्य न रहें तो उन रोमोंके टुकड़ोंसे उक्त गर्तको उसी तरह ठसाठस भर दें जैसा कि तिन्दु ( अलावा) भरा जाता है ॥ १७ ॥ इस विधिसे उक्त गर्त ( पल्य ) को भरा जानेपर जब एक सौ वर्ष व्यतीत हो जाट तो एक रोम खण्ड निकाला जाय । इस प्रक्रियासे एक एक रोम खण्डको निकालते-निकालते जितने समयमें पूरा पल्य खाली हो जाय और एक भी रोम शेष न रह १ जाय उस विशाल समयको राशिको 'पल्य' कहते हैं ॥ १८ ॥ व्यवहार-पल्य ___ करोडकोटिको कोटिसे गुणा करनेपर कोटि-कोटि संख्या निकलती है। पल्यके समयके प्रमाणमें दस कोटि-कोटिका गुणा करनेपर जो अपरिमित समय राशि आवेगी, उतने भारी समयको आठों कर्मों रूपी मलिनताको नष्ट करने वाले श्री एक-हजारआठ जिनेन्द्र देवने सागरका प्रमाण कहा है ॥ १९ ॥ व्यवहार पल्यके गर्तमें जो रोम भरे गये थे। उनमेंसे अलग-अलग एक-एक रोम-खण्डको अनेक करोड़ वर्षों पर्यन्त टुकड़ाटुकड़ा किया जाय। इन सूक्ष्ममातिसूक्ष्म रोमके खण्डोंसे दूसरे गर्तको भरा जाय। इस विधिसे गर्त परिपूर्ण हो जानेपर सौ-सौ । वर्षों बाद उसमें से एक-एक रोम खण्ड निकाल कर बाहर किया जाय ॥ २० ॥ [५.५] इस प्रक्रियाके अनुसार जितने समयमें रोम राशि समाप्त हो जाये, उन समस्त वर्षों के प्रमाणको शास्त्रकारोंने उद्धारपल्यका समय कहा है।॥ २१॥ NIRAHIRAIबामा १. म समाशान्त । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराङ्ग चरितम् पल्योपमानां खलु कोटिकोटी दशाहता सागरमेकमाहुः । अनेन मानेन मिता मुनीन्द्रद्वपा: समुद्रा द्वितियार्थसंख्याः ॥ २२ ॥ उद्धारपत्यात्प्रतिगृह्य चैकं तद्रोमखण्डं शतशः प्रकल्प्यम् । अनेक कोटयन्दमुहूर्तखण्डं पूर्णं च तेषां निचितं च पल्यम् ॥ २३ ॥ पाते तथैवाब्दशते क्रमेण रोमैकमेकं तत उद्धरेच्च । निष्ठां प्रयाते खलु रोमराशावद्वारपल्यं समुदाहरन्ति ॥ २४ ॥ तेषां दशना खलु कोटिकोटी तन्मानमाहुः किल सागरस्य । दिवौकसां नारकपु' स्तिरश्चामिति स्थितिः कर्मभवाभुवां' च ।। २५ ।। उद्धारपल्य जैसा कि पहले कह चुके है कि कोटि-कोटि प्रमाण पल्योंको दशका गुणा करनेपर जो समय आता है वह एक सागर कहा जाता है । मुनियोंके मुकुटमणि श्री केवली भगवान्ने सागरों में ही दो तथा आधे अर्थात् ढाई [ द्वीप ] के प्रमाण मध्यलोकके समस्त द्वीपों और समुद्रों की संख्या कही है ॥ २२ ॥ कल्पना कीजिये कि उद्धारपल्य के गर्त में भरे गये रोमके एक खण्डको निकाल कर उसके उतने टुकड़े करें जितने कि कोड़ा कोड़ि वर्षोंके मुहूर्तों में हो सकते हैं। फिर इन सब टुकड़ोंको लेकर पूर्वोक्त प्रमाणके गर्तको खूब ठोक ठोक कर भर देवे और जब पल्य (गर्त ) भार जाये ।। २३ ।। अद्धापल्य जैसा कि पहले कह चुके हैं उसी क्रमसे जब सौ वर्ष बीत जांय तो गर्त में से एक रोम खण्ड निकाले । इस गति से एक, एक रोम तब तक निकालता रहे जब तक कि समस्त रोम राशि समाप्त न हो जाय। इस विधिसे पल्यको खाली करमेमें जितना समय लगे उसको 'उद्घापल्य' कहते हैं ।। २४ ।। दश कोटि कोटिसे गुणित उद्घापल्य के समयकी राशिसे जो गुणिनफल आयेगा वही समयका सागर प्रमाण होगा। सौधर्म आदि स्वर्गों में उत्पन्न देव, सातों नरकोंके नारकी मनुष्य तथा तिर्यञ्चोंकी आयुको संख्या इन्हीं सागरों के द्वारा शास्त्रों में बतायी गयी है (पल्य तथा सागरके व्यवहार, उद्धार तथा अद्धाभेद हैं ।। २५ ।। १. क कर्मभवाभवां । सप्तविंश: सर्गः [ ५३६ ] Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः ततस्तु तेषां खलु सागराणां दशाहतास्ता अपि कोटिकोटीः । उत्सपिणी तां प्रवदन्ति तज्ज्ञा भूयस्ततस्तामवसर्पिणी च॥ २६ ॥ उत्सपिणी वाप्यवसर्पिणी च अनाद्यनन्ताविह यौतकाले । तो भारतैरावतयोः प्रदिष्टौ पक्षी यथैवात्र हि शुक्लकृष्णौ ॥ २७॥ सूशब्दपूर्वास्तु भवन्ति तिस्रो दुस्सपसर्ग प्रहिते समे द्वे । तथातिदुभ्यां सहिता समैका एकस्य कालस्य हि षट् प्रभेदाः ॥ २८ ॥ आद्यश्च' संख्याः कथिताश्चतस्रस्ततो द्वितीयस्य पुनश्चतस्रः। ततो द्वितीयस्य पुनश्च तिस्र उदाहृते द्वे च तृतीयकस्य ॥ २९ ॥ असंख्य वर्षों की राशि रूप सागरमें कोटि-कोटिका गुणा करके फिर उसमें दशका गुणा किया जाय और जो फल आवे उतने विशाल समयको संसार-परिवर्तनके पंडित उत्सपिणी (विकासशील) काल कहते हैं। तथा जिस क्रमसे विकास हुआ था उसी क्रमसे घटते-घटते जब सृष्टि वहीं पहुँच जाती है जहाँसे प्रारम्भ किया था उस समय (दश कोडाकोडि सागर प्रमाण ) को अवसर्पिणी ( ह्रासशील ) काल कहते हैं ।। २६ ॥ युगचक इस प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामसे जो दो विशाल कालके प्रमाण कहे हैं ये दोनों एक दृष्टिसे अनादि और अनन्त हैं। इन दोनों कालोंका पुरा चक्कर हमारे जम्बूद्वीपके भरत तथा ऐरावत क्षेत्रों दोनोंमें उसी विधिसे लगता है जिस गतिविधिके साथ हम लोगोंके प्रत्येक चांद्र-मासमें शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष लगते हैं ॥ २७ ॥ प्रत्येक उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी क्रमशः छह, छह उपकालोंमें विभाजित हैं। इन छह भेदोंमें पहिले तीन कालोंके पहिले विशेषण रूपमें 'सु' शब्द लगा हुआ है ( सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा) इनके आगेके दो भेदोंके साथ 'दु' तथा 'सु' दोनों उपसर्गोका प्रयोग हुआ है ( दुषमा-सुषमा, दुषमा ) तथा अन्तिम छठे भेदके पहिले अति तथा 'दुःदुः' उपसर्ग लगे हुए हैं । ( अति दुःषमा अथवा दुःषमा-दुषमा ) ॥ २८॥ युगोंके नाम प्रथम काल सुषमा-सुषमाका प्रमाण चार कोटि-कोटि सागर प्रमाण है, दूसरे परिवर्तन अर्थात् अवसर्पिणीके सुषमा [५३७] सुषमा आदि कालोंका भी यहो प्रमाण है। दूसरे विभाग सुषमाका प्रमाण तीन कोडाकोडि सागर प्रमाण है तथा तीसरे सुषमा दुषमाका समय दो कोड़ाकोडि सागर हा है।। २९ ॥ १.क सपिणीं तां । २.[यौ च कालौ। ३. [ माद्यस्य ] । ६८ HEIRLIERSenaTIGERATRI Jain Education international Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम् स्यात्सागराणां खलु कोटिकोटयश्चतुर्थकालस्य हि कोटिकोटी । सप्ताहता षट् च सहस्रहोना त्रिसप्तसप्ताष्टसमासहस्रम् ॥३०॥ स्यान्मानमेतत्किल पञ्चकस्य षष्ठस्य कालस्य तदेव मानम् । त्रैकाल्यविद्भिः कथितं यथावच्चतुर्थकालस्य हि मध्यकाले ॥३१॥ उत्पेदिरे कारणमानुषास्ते जिनाश्चतुर्विशति तत्र जाताः । ते चक्रिणो द्वादश राजवर्या नव प्रदिष्टा खल वासुदेवाः ॥ ३२॥ नवैव तेषां प्रतिशत्रवश्च प्रतिश्रुतिश्चैव हि संमतिश्च । क्षेमकरस्तत्र तृतीय आसीत्क्षेमंधरश्चापि चतुर्थकः स्यात् ॥ ३३ ॥ सप्तविंशः सर्वः तृतीय तृतीय काल तकका प्रमाण जैसा कि अभी कहा है कोडाकोडि सागर प्रमाण ही है, किन्तु चतुर्थ कालका प्रमाण छह में सातका गुणा करनेपर जो ( ब्यालीस ) आवे उतने ( ब्यालोस ) हजार वर्ष हीन एक कोड़ाकोड़ि सागर है। अर्थात् चौथा-पांचवा ॥ एवं षष्ठ कालका मिलकर एक सागर मात्र है ।। ३० ।। । पञ्चम काल दुःषमाका प्रमाण सातमें तीनका गुणा करनेपर जो आवे उतने हजार वर्ष ( इक्कीस हजार ) है तथा छठे काल दुषमा दुषमाका प्रमाण भी उतने ( इक्कोस ) हजार वर्ष शास्त्रों में मिलता है। तोनों लोकों तथा तीनों कालोंके द्रव्यों तथा पर्यायोंके ज्ञाता अर्हन्त केवलीने अपनो दिव्य ध्वनिमें कहा था कि चतुर्थ काल दुःषमा-सुषमाके आधे भागके वीत जानेके उपरान्त उसके ठीक मध्य समयमें ही ॥ ३१ ।। युग प्रमाण इस भारत क्षेत्रमें जो कि हम लोगोंकी पुण्य तथा पितृभूमि है वे चौबीस महापुरुष उत्पन्न हुये थे जो कि भोगभूमिके नष्ट । हो जानेके बाद मनुष्य वर्गको कर्मभूमिके लिये आवश्यक जीविका तथा जीव उद्धारके मार्गपर चलानेमें कारण हुये थे। अनादिकालसे बँधे हुये आठों कर्मोको नष्ट करके जिन्होंने सार्थक 'जिन' नामका प्राप्त करके मुक्तिको प्रस्थान किया था। शलाका पुरुष -चौबीस तीर्थंकरोंके तीर्थकालमें हो भरत आदि बारह चक्रवर्ती उत्पन्न हुये थे, नौ वासुदेव बलभद्र तथा नौ हो नारायणोंका भी आविर्भाव हुआ था ।। ३२ ।। नारायणोंके भयंकर शत्रु श्रेष्ठ राजाओंकी भी संख्या नौ ही है इन्हें शास्त्रोंमें प्रति-नारायण शब्दसे कहा है जिस समय भोगभूमिका ह्रास होने लगा था उस समय सबसे पहिले प्रतिभूति नामके गणनायक हुये थे, उनके बाद सन्मतिका आविर्भाव हुआ था। तीसरे पथप्रदर्शकका नाम क्षेमंकर था उनके उत्तराधिकारी जननेता श्री क्षेमंधर चौथे महापुरुष थे। ३३ ।। RIGIARRIDAIPURSERREE Jain Education international Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् सीमंकरः पञ्चमको बभूव सीमंधरः षष्ठ उदाहृतश्च । ततश्च राजामलवाहनः स्याच्चक्षुष्मता तेन तथाष्टमस्तु ॥ ३४ ॥ ततो यशस्वानभिचन्द्रसंज्ञश्चन्द्राभनामा मरुदेवसाह्नः ! प्रसेनजिन्नाभिरनन्तरश्च ततः प्रसूतो वृषभो महात्मा ॥ ३५ ॥ तस्याग्रपुत्रो भरतो बभूव एते स्मृता वंशकरा विशिष्टाः । यशस्विनः षोडशभूमिपालास्त एव लोके मनवः प्रदिष्टाः ।। ३६ ।। नाभेय आद्योऽजितशंभवे च ततोऽभिनन्दः सुमतिर्यतीशः । पद्माभनामा च तथा सुपार्श्व: चन्द्रप्रभश्चैव हि पुष्पदन्तः ॥ ३७ ॥ चौदह मनु पाँचवें मनुका नाम सीमंकर था । कर्मभूमिके छठे पथप्रदर्शक सीमंधर नामसे सुविख्यात थे। श्रीसीमंकर पंचम कुलकर थे । तथा छठे को सीमंधर कहा है इसके उपरान्त राजा अमल (विमल ) वाहनने अपने तेजके द्वारा मनुष्योंको व्यवस्था की थी । राजा अमल वाहनके स्वर्ग सिधार जाने के उपरान्त आठवें व्यवस्थापक श्रीचक्षुष्मान् हुये थे । चक्षुष्मान् के शरीर त्यागके उपरान्त आगे कहे गये चार महापुरुषों कुलकरोंने प्रजाकी यथाशक्ति प्रगति की थी ॥ ३४ ॥ नौवेका नाम यशस्वी, दशमें को जनता अभिचन्द्र संज्ञासे जानती थी, ग्यारहवें चन्द्राभ नामसे ख्यात थे तथा बारहवें का आकर्षक नाम मरुदेव था । तेरहवें जनगणनायकका शास्त्रोंने प्रसेनजित नामसे उल्लेख किया है तथा अन्तिम महापुरुष श्री कौन नहीं जानता है, क्योंकि इस युगके आदि पुरुष श्री ऋषभदेव उन्हींसे उत्पन्न हुये थे । ये चौदह कुलकर महापुरुष ऐसे थे कि इन्हींसे समस्त पूज्य वंश चले हैं ।। ३५ ।। प्रथम तीर्थंकर श्री पुरुदेवके ज्येष्ठ पुत्र महाराज भरत चक्रवर्ती थे । प्रजाकी हितसाधना करके इन्होंने निर्मल, विपुल यश कमाया था। भोगभूमिके क्रमिक ह्रासके कारण प्रजा दुखी हो गयो थी पृथ्वीपर अव्यवस्था छा गयी थी, उस अव्यवस्था के युगमें इन लोगोंने पृथ्वीका संरक्षण किया था। यही कारण है कि ये महापुरुष हमारे जगतमें मनु ( स्वयं जाता ) नामसे विख्यात हैं ।। ३६ ।। हमारे चतुर्थं कालमें नाभि महाराजके पुत्र श्रोऋषभदेव सबसे पहिले तीर्थंकर हुये थे। उनके बहुत समय बाद दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ तथा तीसरे श्री शंभवनाथका आविर्भाव हुआ था। श्री अभिनन्दननाथ चौथे तीर्थंकर थे । यतियोंके ईश श्री सुमतिनाथ पाँचवें तीर्थंकर थे। छठें तीर्थंकरका शुभनाम श्री पद्माभ था, सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ थे। भगवान सुपार्श्वनाथके उपरान्त अष्टम तीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभुका आविर्भाव हुआ था ।। ३७ ।। १. क तथोष्टमस्तु, [ ततोऽष्टमस्तु ] । सप्तविंशः सर्गः [ ५३९ ] Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EPAL बराङ्ग चरितम् यमा । सप्तविंशः सर्गः श्रीशोतलाख्यो मुनिराजकेतुः श्रेयो जिनेन्द्रो वरवासुपूज्यः । ततो जिताशो विमलो यतोशोऽप्यनन्तजिद्धर्मजिनौ च शान्तिः ॥ ३८ ॥ कुन्थुस्त्वरो मल्लिरतुल्यवीर्यः श्रीसुव्रतोऽयो नमिरिन्द्रवन्धः । अरिष्टनेमिस्त्वथ पार्श्वदेवः श्रीवर्धमानेन जिनाः प्रविष्टाः ।। ३९ ॥ आद्यश्च चक्री भरतेश्वरोऽभूत्ततो द्वितीयः सगरो महात्मा । तृतीय आसीन्मघवान्नरेन्द्रः सनत्कुमारश्च चतुर्थकोंऽभूत् ॥ ४०॥ शान्तिश्च कुन्थुस्त्वथ सप्तमोऽरः सुभौमनामा च महादिपद्मः । हरिश्च तस्माज्जयसेननामा श्रीब्रह्मदेवश्च ततोऽन्तिमोऽभूत् ॥ ४१॥ मयाराIRALASALARIमन्व चौबीस तीर्थकर भगवान् पुष्पदन्त नौवें तीर्थंकर थे । दशम तीर्थंकर श्री शीतलनाय प्रभु परम तपस्वी मुनिराजोंके द्वारा परमपूज्य थे। एकादशम तीर्थंकर श्री श्रेयान्सनाथ मूर्तिमान कल्याण हो थे। महाराज वासुपूज्य तीर्थंकरकी विशिष्टताके विषयमें तो कहना हो क्या है क्योंकि उन बालयतिके चरणोंमें इन्द्रादि देव भी लोटते थे। श्री विमल तीर्थंकरने आशाओंको विमल कर दिया था। भगवान् अनन्तनाथ साक्षात् यतोश थे। मूर्तिमान धर्मके समान श्री धर्मनाथ तथा विश्वशान्तिके प्रतिष्ठापक श्री शान्तिनाथ क्रमशः पन्द्रहवें और सोलहवं तीर्थंकर थे । श्री शान्तिनाथके बाद कुन्थुनाथ और अरनाथ तीर्थकर हुये थे ।। ३८॥ उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ 'यथा नाम तथा गुणा' थे क्योंकि उनके बलवीर्यकी कोई सीमा ही न थी। उनके उपरान्त श्रीसुव्रत ( मुनिसुव्रत ) नाथने धर्मका प्रचार किया था। श्रीनमिदेवके चरणोंको पूज कर इन्द्रने अपनी पर्याय सफल की थी। बाईसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथको कौन नहीं जानता है वे समस्त अरिष्टोंके लिए उपरोधक ही हैं। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान जिन तो आज भी हमारे सामने ऐतिहासिक हैं ।। ३९ ॥ श्री आदिनाथके पुत्र महाराज भरत इस चक्रवर्ती युगके सबसे पहिले चक्रवर्ती थे । उनके पीछे महाराज सगरने षट्खंड भरत क्षेत्रको विजय करके दूसरे चक्रवर्तीका पद पाया था। तीसरे चक्रवर्ती महाराज मधवान थे तथा चौथे चक्रवर्ती श्री सनत्कुमार थे जो कि वास्तवमें मनुष्योंके इन्द्र ही थे ।। ४० ॥ बारह चक्रवर्ती सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ पांचवें चक्रवर्ती थे भगवान् कुन्थुनाथ तीर्थकर छठे चक्रवर्ती थे। तीर्थंकर श्री अरनाथ भी सातवें चक्रवर्ती थे। इन तीनों तीर्थंकर चक्रवतियोंके पोछे सुभौम तथा महापद्म क्रमशः आठवें और नौवें चक्र वर्ती हुये थे। महाराज हरि [षेण ] दशम चक्रवर्ती थे। उनके स्वर्ग जानेके काफी समय बाद श्री जयसेन हुये थे तथा श्री । ब्रह्मदेव अन्तिम चक्रवर्ती हुये थे ॥ ४१ ।। For Private & Personal use only ESATARIANRAILEELATE [५४० ] Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यस्त्रिपिष्टश्च ततो द्विपिष्टस्तस्मात्स्वयंभूः पुरुषोत्तमश्च । नसिंहनामापि च पुण्डरीको दत्तश्च नारायणकृष्णसाहः॥ ४२ ॥ गुणैरुपेतो विजयोऽचलश्च धर्गस्ततोऽभूदय सुप्रभश्च । ततः सुदृष्टोऽपि च नन्दिनामा स्यान्नन्दिमित्रश्च हि रामपौ ॥ ४३ ॥ ग्रीवोऽश्वपूर्वस्त्वष तारकइच समेरको बै मधुकैटभश्च । ततो निशुम्भो बलिपार्थिवश्च प्रह्लादको रावणकृष्णशत्रू ॥ ४४ ॥ सप्तविंशः सर्गः नौ वासुदेव ( नारायण) इस युगके सर्वप्रथम वासुदेवकी ख्याति त्रिपिष्ट नामसे थी। उनके उपरान्त द्विपिष्ट दूसरे वासुदेव हुये थे, तीसरे वासुदेव को जनता स्वयंभू नामसे जानती थीं। चतुर्थ वासुदेवको पुराणकारोंने पुरुषोत्तम संज्ञाके द्वारा उल्लेख किया है। पांचवें वासुदेव श्रीपुरुष-सिंह 'यथा नाम तथा गुणा' थे। छठे वासुदेव श्री (पुरुष ) पुण्डरीक थे। इनके उपरान्त श्रीपति-(पुरुष ) दत्त तथा नारायण ( लक्ष्मण ) क्रमशः सातवें आठवें वासुदेव थे तथा श्रीकृष्णजी अन्तिम ( अर्द्ध चक्री) वासुदेव थे ॥ ४२ ॥ प्रथम नारायण श्री विजय गुणोंके भण्डार थे, उनके उपरान्त अचल दूसरे नारायण हुये थे । अचलके बाद काफी समय बीत जानेपर नारायण श्री (सु-) धर्मका आभिर्वाव हुआ था। इनके भी इस संसारसे सिधार जानेके बाद चौथे नारायण सुप्रभ की प्रभासे यह देश भासित हो उठा था। इसके बाद भरतक्षेत्र पांचवें नारायण श्री सु-दष्ट (-दर्शन ) की क्रीड़ास्थली बना था। छठे नारायणका नाम नन्दि था, सातवें नन्दिमित्र नामसे ख्थात थे, आठवें सुप्रसिद्ध राम थे तथा अन्तिम नारायणका नाम श्री पद्म (बलदेव ) था ॥ ४३ ॥ [५४१] प्रति नारायण प्रथम प्रतिनारायणके नाममें ग्रोवशब्दके पहिले अश्व आता था अर्थात् उनका नाम अश्वग्रीव था। दूसरे महापुरुष तारक थे । तोसरे प्रतिनारायण समेरक ( मेरक ) नामसे ज्ञात थे। चौथे मधुकैटभकी ख्याति भी कम नहीं है। इनके इस संसार M से सिधार जानेके बहुत समय बाद निशुम्भका आतंक फैला था। राजा बलिका तो कहना हो क्या है। प्रह्लाद (प्रहरण) सातवें प्रतिहारायण थे। रावण रामके शत्रु थे तथा श्रीकृष्णके प्राण वियोगके कारण श्री जरतसिंध अन्तिम प्रतिनारायण थे ॥४४॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् सप्तविंशः सर्गः नाभेयतीर्थे भरतो बभूव तथाजितोऽभूत्सगरो' नृपेन्द्रः । त्रिपिष्ट आसीत्खल शैतले च द्विपिष्टकः श्रेयसि तीर्थजातः॥४५॥ अभूत्स्वयंभवरवासुपूज्ये स वैमले वै पुरुषोत्तमश्च । दातुश्च' तीर्थे मघवान्नृपेन्द्रः सनत्कुमारो नरसिंहराजः ॥ ४६॥ शान्तिश्च कुन्थुस्त्वररात्रयोऽपि आर्हन्त्यचक्रत्वगुणोपपन्नाः । श्रीपुण्डरीकश्च सुभौमराजोऽप्यरस्य तीर्थे तु बभूवतुस्ते ॥ ४७ ॥ श्रीमल्लितीर्थे च महादिपद्म नारायणो दत्तहरों च जातः। नमेः सुतीर्थे जयधर्मकृष्णे स ब्रह्मदत्तश्च बभूव नेमेः (?) ॥ ४८ ॥ तीर्थकर काल तथा वासुदेवादि चक्रवर्ती इस युगके आदि पुरुष महाराज श्री ऋषभदेव तीर्थकरके कालमें प्रथम चक्रवर्ती श्री भरतजो हुये थे। दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथके तीर्थकालमें ही महाराज सगर चक्रवर्तीने षटखण्डकी विजय को थी । प्रथम वासुदेव श्री त्रिपिष्टका आविर्भाव दशम तीर्थंकर श्री शीतलनाथके तीर्थकालमें हुआ था। श्री श्रेयान्सनाथके तीर्थकालमें ही द्वितोय वासुदेव द्विपिष्टका राज्य हुआ था।॥ ४५ ॥ परमपूज्य बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्यके तोर्थकाल में तृतीय वासूदेव स्वयंभने राज्य किया था तथा तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथके तीर्थकालको शोभा पुरुषोत्तम नाम चतुर्थ वासुदेवने बढ़ायो थो। परमदानी श्री धर्मनाथ तीर्थकरके कालमें तृतीय चक्रवर्ती महाराज मधवानका सम्राज हुआ था। पन्द्रहवें तीर्थकरके तोर्थकालमें ही चौथे चक्रवर्ती श्री सनत्कुमार तथा पञ्चम वासुदेव श्री नृसिंह हुये थे ।। ४६ ।। सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ, सतरहवें श्री कुन्थुनाथ तथा अठारहवें श्री अरनाथ ये तीनों महात्मा तीर्थंकर तथा चक्रवर्तीके गुणों और शक्तियोंसे सम्पन्न थे। षष्ठ बासुदेव श्री पूण्डरीक तथा अष्टम चक्रवर्ती श्री सभौम इन दोनों शलाका पुरुषोंका प्रताप भगवान अरनाथके तीर्थकालमें (अर-मल्लिनाथ जिनके अन्तरालमें) ही चमका था ।। ५७॥ उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथके तीर्थकालमें नवम चक्रवर्ती श्री महापद्म, सातवें वासुदेव श्रीदत्त दशम चक्रवर्ती श्री हरिण तथा आठवें वासुदेव श्री नारायणका राज्य हुआ था । बीसवें तीर्थंकर श्रो नमिनाथके तीर्थकालमें ग्यारहवें चक्रवर्ती श्री जयसेन, तीसरे नारायण श्रीधर्म का लीला मधुर प्रताप चमकता था इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथके तीर्थकालमें अन्तिम चक्रवर्ती श्री ब्रह्मदत्तने षट्खण्ड भारतको विजय की थी तथा अन्तिम वासुदेव श्री कृष्णजीका आविर्भाव हुआ था ।।। ४८॥ १. [ तथाजितेऽभूत् ]। २. [ धर्शस्य ]। ३. [ बभूवतुस्तौ ]। ४. क महादिपद्मा, [ पद्मो]। ५. म नारायणोऽधत्त हरी । । ६. क्रम भेद है। त्रिलोकसार, आदि ग्रन्थोंमें निशुम्भ चौथे । मधुकैटभ इनके बाद हुए हैं। ७. परिशिष्ट देखें। PRESEATREESARमानामानिमा [५४ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशः - सर्गः स सप्तहस्तो जिनवर्धमानः पाश्वो जिनेन्द्रो नवहस्तवीर्घः। आद्यो जिनेशस्तु समुच्छयेण सवर्मणा' पञ्चधनः शतानि ॥४९॥ अथाष्टपञ्चाष्टकसंस्मितानामनानिर कुर्यात्क्रमशो जिनानाम् । दशाहताः पञ्चदशाथ पञ्च धनषि नाभेयसमुच्छ्रयात्तु ॥५०॥ शताहतं तच्च सहस्रमेकं द्विसप्तषड्व्याहतपूर्वनाम्नाम् । आयुस्स्मृतं नाभिसुतस्य सम्यग्द्विसप्ततिश्चाप्यजितस्य पूर्वाः ॥५१॥ स्यात्यष्टिरेका जिनशंभवस्य दशोदिता पञ्चसु तीर्थकृत्सु। क्रमेण च द्वे खलु पुष्पदन्तः श्रीशीतले त्वेकमुदाहरन्ति ॥ ५२॥ FIRTANTRIERHIRरम तीर्थकरोंका उत्षेध अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान जिनराजके शरीरका उत्षेध (ऊँचाई ) सात हाथ प्रमाण थी। तेईसवें तीर्थंकर श्री पाश्र्वप्रभुके दिव्य औदारिक शरीरका उत्षेध केवल नौ हाथ प्रमाण था। इस विधिसे बढ़ते-बढ़ते शास्त्र कहते हैं कि प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ प्रभुके अपने प्रशस्त शरीरका उत्षेध ( पांच गुणित सौ अर्थात् ) पाँच सौ धनुष प्रमाण था ॥ ४९ ।। महाराज नाभिनन्दनके पुत्र प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवके शरीरको ऊँचाईमेंसे क्रमशः ( पाँच गुणित दश ) पचासपचास धनुष कम करनेसे अजित आदि आठ तीर्थंकरों की ऊँचाई आती, तथा इसके आगे दश-दश धनुष कम करनेपर क्रमशः शीतल, आदि पाँच तीर्थंकरोंका उत्षेध आता है। इसके आगे पाँच-पांच घटानेसे धर्मादि तीर्थंकरोंके उत्षेधका प्रमाण निकल | आता है, इस क्रमसे नेमिनाथका उत्षेध दश धनुष है ॥ ५० ॥ महाराज नाभिनाथके पुत्र श्री ऋषभदेव तीर्थंकरकी आयुका गणित इस प्रकार है-एक हजारमें सौ का गुणा करिये (एक लाख ) उसमें दो गुणित सात गुणित छह अर्थात् चौरासी लाख पूर्व वर्ष प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवकी आयु थी । द्वितीय तीर्थकर श्री अजितप्रभुकी अवस्था भी परिपूर्ण बहत्तर लाख पूर्व वर्ष थी ।। ५१ ॥ तीर्थकरोंकी आयु तृतीय तीर्थंकर श्री शंभवनाथको आयु केवल साठ लाख पूर्व शास्त्र बतलाते हैं। इनके बादके पाँच तीर्थंकरों अर्थात् श्री अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ तथा चन्द्रप्रभदेवकी आयुका प्रमाण क्रमशः दश, दश लाख पूर्व कम (५०, ४०, ३०, २०, १० ) थी। शास्त्रोंमें वर्णित नौवें तीर्थंकर श्री पुष्पदन्त प्रभुकी आयु दो लाख पूर्व वर्ष थी। श्री शीतल१. म सवर्षणा। २. [ संस्थिताना] । CHARISHMAHESHPAwPSHe ५४ Jain Education international Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराङ्ग चरितम् H 'द्विसप्तषट्ता उयसमा सहस्रं शताहतं श्रेयस मायुरुक्तम् । द्विसप्ततिश्चापि हि वासुपूज्ये षष्टिस्तथायुविमले जिनेन्द्रे ॥ ५३ ॥ त्रिशद्दशैकं च तथा त्रयाणां शून्यत्रयं पञ्चनवैककुन्थोः । षड्वजिता स्यान्नवतिस्त्वरस्म मल्लिस्त्रिशून्योत्तरपञ्च पञ्च ॥ ५४ ॥ त्रिशत्सहस्रं मुनिसुव्रतस्य नमेः सहस्रं दशगुणं तत् । नेमेः सहस्रं शतमेवर पार्श्वे द्विसप्ततिः स्यात्खलु वर्धमाने ॥ ५५ ॥ समुद्रकोटीस्त्वजितेन ताड्या शताहता पञ्चगुणा च भूयः । तदन्तरं स्याद्वषमे जिनेशे चेति प्रदिष्टं हि पुराणविद्भिः ॥ ५६ ॥ देवकी आयु केवल एक लाख पूर्व वर्ष ही थी ।। ५२ ॥ ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयान्सनाथकी आयुका प्रमाण इस विधिसे निकलता है—एक हजारमें सौका गुणा करनेपर जो (लाख) आवे उसमें दो गुणित सातमें गुणित छह ( चौरासी) का गुणा करनेपर जो फल आवे उतने लाख ( चौरासी लाख ) वर्ष ही उनकी आयु थी। श्री वासुपूज्य प्रभुकी आयु बहत्तर लाख वर्ष थी तथा तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथकी आयु साठ लाख वर्ष थी ॥ ५३ ॥ विमल प्रभुके उपरान्त उत्पन्न हुए तीनों तीर्थंकरों श्री अनन्तनाथ, श्री धर्मनाथ तथा शान्तिनाथ प्रभुकी आयु क्रमसे तीस लाख, दश लाख तथा एक लाख वर्षं थी । सतरहवें तीर्थंकर श्री कुन्थुनाथ प्रभुकी आयु केवल तीन शून्य सहित पंचानवे अर्थात् पंचानवें हजार वर्षं थी। श्री अरनाथ प्रभुकी आयुका प्रमाण छह कम नब्बे हजार ( चौरासी हजार ) वर्ष थी तथा शास्त्रों में लिखा है कि उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथकी आयु तीन शून्य युक्त पाँच, पाँच ( पचपन हजार ) वर्ष थी ॥ ५४ ॥ बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत नाथको आयुको शास्त्र तीस हजार वर्ष बतलाते हैं । ( एक हजारमें दशका गुणा करनेपर जो आवे ) उतने ही दश हजार वर्ष इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथकी अवस्था थी। बाईसवें तीर्थंकर यदुपति श्री नेमनाथकी आयु केवल एक हजार वर्ष हो यो । पार्श्वप्रभुको आयु भी शुद्ध सौ वर्ष थी तथा ज्ञातिपुत्र श्री वर्द्धमान प्रभुकी अवस्था केवल बहत्तर वर्ष ही थी ।। ५५ ।। अन्तराल पुराणोंके पंडितों का मत है कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा अजितनाथके बोचके अन्तरालको निकालनेके लिए २. क शतमेव पार्श्वे । १. म षट्तो । A पंचविंश: सर्गः [ ५४४ ] Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तवियः बराङ्ग चरितम् त्रिंशद्दशातो नवतिः प्रविष्टा अतः सहनं नवतिस्तथातः । शतं सहस्रं नवसंगणे द्वे स्यात्सप्तमस्यान्तरमहंतस्तु ॥ ५७ ॥ ततोऽन्तरं तन्नवतिस्तु कोट्यो नवैव कोट्यो नवमान्तरं तत् । समद्रकोटीगणितप्रमाणात्स्यावहतामन्तरकं नवानाम् ॥५८॥ षट्षष्टिसंख्या नियुतप्रमाणं षड्विंशतिश्चापि सहस्रपिण्डः । शतेन युक्ता किल सागराणां कोटी तथोना दशमान्तरं स्यात् ॥ ५९॥ षट्टना नवत्रिंशदथो नवाथ चत्वार एवं त्रितये तथान्यत् । पादोनपल्योनसमुद्रसंख्या षण्णां जिनानामिदमन्तरं स्यात् ॥ ६॥ -सर्गः मायHEIRRIGITALIAnsETRIES निम्नलिखित गणित करना पड़ेगा-समुद्रसे दशगुणित पाँचका आदिनाथ स्वामीके निर्वाणके बाद गुणा करे जो फल आये उतने कोटि सागर (पचास कोटि सागर ) प्रमाण वर्ष बीत जानेपर अजितनाथ हुए थे। यही प्रथम तथा द्वितीय तीर्थंकरके बीचका अन्तराल होगा ।। ५६ ॥ भगवान् अजितनाथ और शंभवनाथके बीच में तोस कोटि सागरका अन्तराल था। श्री शंभवनाथ और अभिनन्दननाथके बीचका अन्तराल दश कोटि सागर वर्ष था तथा चौथे और पांचवें तीर्थंकरोंका अन्तराल नौ लाख करोड़ सागर वर्ष प्रमाण है। पाँचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ तथा पद्मप्रभुके बीचका अन्तराल नब्बे हजार करोड़ वर्ष है ।। ५७ ॥ तथा छठे तीर्थंकर और श्री सुपार्श्वनाथका अन्तराल हजार कोटिमें नौका गुणा करनेपर जो ( नौ हजार कोटि ) आवे उतने वर्ष होता है । सप्तम तीर्थंकर और श्री चन्द्रप्रभके बोचमें नौ सौ करोड़ वर्षका अन्तराल पड़ा था। आठवें तथा नौवें सोथंकरोंके अन्तरालका प्रमाण केवल नब्बे करोड़ वर्ष था। नौंवा अन्तराल केवल नौ करोड़ सागर वर्ष है इस प्रकार श्री आदिनाथ प्रभुसे लेकर भगवान शीतल पर्यन्त जो नो अन्तराल गिनाये हैं ये सबके सब कोटि सागर वर्षों में गिनाये हैं ।। ५८॥ छयासठ नियुत (= अयुत सौ सहस्र) तथा छब्बीस हजारके पिण्ड (युक्त) को सौ सागरने मिलाकर जो प्रमाण आवे उसको एक कोटि सागरमें से घटा दिया जाय अर्थात् सौ सागर छयासठ लाख छबीस हजार वर्षको एक कोटिसागरमें से घटाने पर जितना शेष रह जाय उतने वर्षका ही अन्तराल भगवान शीतलनाथके मोक्ष तथा श्रेयान्सनाथके आविर्भावके बीचमें पड़ा था ।। ५९॥ छह गुणित नौ अर्थात् चउअन, तीस, नौ, चार सागर तथा तीन चौथाई ( ३/४ ) पल्य कम तीन सागर क्रमशः श्री श्रेयान्सनाथ तथा वासुपूज्य प्रभु, वासुपूज्य और विमलनाथ प्रभु, विमलनाथ और अनन्तनाथ प्रभु, अनन्तनाथ और पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ तथा धर्मनाथ एवं शांतिनाथके बीच में अन्तराल थे। मह सब प्रमाण सागरोंको संख्यामें कहे हैं। ये छह । तीर्थंकरोंके बीचके पाँच अन्तराल हैं ।। ६० ॥ Jain Education Interational For Private &Personal use only.. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तर्विशः शान्तेऽन्तरं प्रोक्तमयापल्यं कोटीसहसोनकृतं समानम् । अवर्षपल्यं किल कौन्य तत्कोटोसहस्रकारान्तर' स्यात् ॥११॥ लक्षाहताः षण्णवकास्तु वर्षाः बरेव वर्षास्तु नमस्तु पंच । सहस्रताब्यास्तु पुनस्यशोतिरर्धाष्टमेश्चापि शतैः समेताम् ॥ २॥ पंचाशता द्वेचशते समेते पाश्र्वान्तरं तं कषितं यथावत्। त्रिसप्तसंख्यं च सहस्रमेकं वीरस्य तीर्यान्तरमुक्तमेतत् ॥ ६॥ चतुर्थभागोऽथ पुद्विभागः पावोनभागः परिपूर्णभागः। पादोनकश्चापि पुनविभागः पल्यस्य तस्यापि चतुर्थकश्च ॥ ६४॥ शेष अन्तराल शान्ति-कुन्थुनाथ प्रभुके बीच में जो अन्तराल पड़ा था उसका प्रमाण आधा पल्य है। एक सहस्र करोड़ वर्ष घटा देनेसे चौथाई पल्यमें जो शेष रह जाय वही सतरहवाँ अन्तराल था। श्री कुन्थुनाथ प्रभु तथा अरनाथके बीचमें यही एक पल्यके आधेके आधा (हजार कोटि वर्ष हीन चौथाई पल्य ) अन्तराल पड़ा था। इनके बाद जो अठारहवाँ अन्तराल पड़ा था वह केवल एक सहस्र करोड़ वर्ष ही था ।। ६१ ॥ एक लाख गणित चउअन वर्ष अर्थात् चउअन लाख वर्षका मल्लिनाथ तथा मुनिसुव्रतनाथके बीचमें अन्तराल पड़ा था। भगवान मुनिसुव्रतनाथके निर्वाणके छह लाख वर्ष बाद श्री नमिनाथका जन्म हुआ था। इनके तथा नेमिनाथके बीच में केवल पाँच लाख वर्षका ही अन्तराल पड़ा था। यादवपति श्रोनेमिनाथ भगवानके निर्वाण (गिरिनारसे मुक्ति पधार जानेपर ) एक हजार | गुणित तेरासी गुणित हजार वर्ष युक्त आधा कम आठ सौ ( ८३७५० वर्ष ) वर्ष बाद ।। ६२ ॥ काशोमें श्रीपाश्र्वनाथप्रभुका आविर्भाव हुआ था। भगवान महावीर पार्श्वनाथ प्रभुके निर्वाणके पचास अधिक अधिक दो सौ वर्ष बाद हुए थे । भगवान महावीरके तीर्थका काल सात गणित तोन अर्थात् इक्कीसमें एक सहस्रका गुणा करनेपर जो, ( इक्कीस सहस्र ) आवे उतने वर्ष परिमाण है ।। ६३ ।। धर्मोच्छेद काल एक पल्यका चौथाई भाग, पल्यके दो भाग ( आधा पल्य ), एक चौथाई कम अर्थात् तीन चौथाई पल्य, पूराका पूरा । पल्य, फिर एक चौथाई कम पल्य = तीन चौथाई पल्य, फिर उसके दो भाग अर्थात् आधा, इसके बाद पूर्ववत् फिर पल्यका चौथाई भाग ये सात समयके प्रमाण इसलिए बताये हैं कि ।। ६४ ।। १.म मतान्तरं स्यात् । २.म शनैः। ३. म पञ्चाशताटे । [ m] Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एतावता कालपरिच्छदेन तीर्थस्य विच्छेद उदाहृतश्च । सपुष्पदन्तादिषु सप्तसु स्यादाद्यन्तयोः संतत ऐव जातः ॥ ६५ ॥ नाभेयशान्ती ह्यथ कुन्थुधर्मावमोह सर्वार्थविमानमुख्यात्' । नन्दाजितो तो विजयाद्विमानात्तौ वैजयन्तात्सुमतीन्दुभास ॥ ६६ ॥ नेमिस्त्वथारस्य' हि तौ जयन्तान्मल्लिन मिश्चाप्यपराजिताख्यात् । तौ प्राणतात्पार्श्वमुनिव्रताख्यावभ्यागतावप्रतिमप्रतापौ ॥ ६७ ॥ पुष्पोत्तरादाय सुरप्रमेयाः । शुक्रान्महादेरथ वासुपूज्यः श्रीशीतलस्त्वारुणतश्च्युतत्वात् ॥ ६८ ॥ श्रेयांस्तथानन्तजिदन्तिमश्च इतना विशाल समय ऐसा था जिसमें क्रमशः भगवान पुष्पदन्त आदि शान्तिनाथ पर्यन्त तीर्थंकरोंके बाद अन्तरालमें केवली भगवान प्रणीत आर्हत् धर्मका एक दृष्टिसे सर्वथा लोप हो हो गया था। इन सात कुसमयों को छोड़कर भगवान आदिनाथसे लेकर वीरप्रभुके समय पर्यन्त जैनधर्मकी धारा सदा ही बहती रही है ।। ६५ ।। प्रथम तीर्थंकर श्री आदि जिनका, सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ, सतरहवें तीर्थंकर श्री कुन्थुनाथ तथा पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ ये चारों महात्मा सर्वार्थसिद्धि विमानकी आयु पूर्ण होने पर अपने उक्त भवोंमें आये थे । भगवान् अजितनाथ तथा चौथे तीर्थंकर श्री अभिनन्दननाथ विजय नामके विमानकी आयु पूर्ण होने पर तीर्थंकर पर्याय में आये थे तथा छठे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ तथा चन्द्रप्रभ भगवानने वैजयन्त नामके स्वर्गसे आकर तीर्थंकर रूपसे जन्म ग्रहण किया था ॥ ६६ ॥ यादवपति श्री नेमिनाथ तथा अठारहवें तीर्थंकर श्री अरनाथ जयन्त नामके स्वर्गसे आये थे। श्री मल्लिनाथ भगवान तथा इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ अपराजित स्वर्ग में अपनी आयुको समाप्त करके इस धरिणीपर पधारे थे। भगवान मुनिसुव्रतनाथ तथा तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्राणत स्वर्गसे आये थे ।। ६७ ।। इन दोनों सद्धर्मं प्रवर्तकोंका प्रताप ऐसा था कि उसका वर्णन करनेका तात्पर्य होगा उसको संकुचित कर देना । भगवान श्रेयान्सनाथ, अनन्तनाथ तथा अन्तिम तीर्थंकर श्री वीरप्रभु अमित गुणोंके भण्डार थे। ये तीनों महापुरुष पुष्पोत्तर नामके स्वर्गसे आकर पृथ्वीपर जन्मे थे। जिस शुक्रके आदिमें महाविशेषण लगा है ऐसे महाशुक्र नामके दशमें स्वर्गके जीवनको समाप्त करके भगवान वासुपूज्यने जन्म लिया था तथा दशम तीर्थंकर श्री शीतलनाथ प्रभु तेरहवें स्वर्गं आरुणसे च्युत होकर इस धरापर पधारे थे ॥ ६८ ॥ १. क विमानसंख्यात् । २. [विवारच] | सप्तविंश: सर्गः [ ५४७ ] Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TARATHee चरितम् सहस्र पूर्वाद्विमलस्त्वरान्तादथारुणाख्यात्खल पुष्पदन्तः। प्रैवेयकाधः प्रथमाद्विमानादभ्यागतः संभबसंयतेन्द्रः ॥ ६९॥ सुपाश्र्वनामा किल मध्यमाख्याध्वं च पद्मप्रभ आययौ सः। इत्यस्ता कारणभावितानामभ्यागतिर्वः कथिता मयेयम् ॥७०॥ आद्यस्तु नाभिजितशत्रुनामा तृतीय आसीज्जितराजसंज्ञः । स्वयंवरश्चैव हि मेघराजः स्यात्सुप्रतिष्ठश्च महाबलश्च ॥ ७१ ॥ सुग्रीवनामा सुदृढो रथान्तो विष्णुर्वसुः स्यात्कृतवर्मसंज्ञः । श्रीसिंहसेनस्त्वथ भानुराजः स विश्वसेनः किल शौर्यधर्मा ॥ ७२१॥ सप्तविंशः सर्गः MARATHIMITRAPATH भगवान पुष्पदन्त भी इसी आरुण स्वर्गसे आकर पृथ्वीपर जन्मे थे । तीर्थंकर रूपसे जन्म लेनेके पहिले विमलनाथ तीर्थकर शतार स्वर्गमें थे तथा अरनाथ इसके आगेके सहस्रार स्वर्गमें थे। नव वेयकोंके नीचेके प्रथम विमानसे भगवान शंभवनाथ पधारे थे जिन्होंने इन्द्रियों और नो इन्द्रियोंको सरलतापूर्वक ही संयत कर दिया था ।। ६९ ॥ सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ प्रभु मध्यम ग्रीवेयक विमानसे आ कर काशीमें जन्मे थे। छठे तीर्थकर श्री पद्मप्रभदेवने ऊर्ध्व ग्रेवेयककी आयु समाप्त करके इस धराधामको सुशोभित किया था। इस क्रपसे चौबीसों तीर्थकर कहाँसे आकर तीर्थकररूपमें उत्पन्न हुए थे, यह मैंने आपको बतलाया है। ये चौबोसों महापुरुष ऐसे थे जिन्होंने षोडश भावनाओंका ध्यान करके उक्त पदको प्राप्त किया था ।। ७० ॥ आदिपुरुष ऋषभनाथजीके पिता श्री नाभिराज थे। दूसरे तीर्थंकर श्री अजितप्रभुके पिता श्री जितशत्र थे। तीसरे तीर्थकरके पूज्य पिताका प्रातःस्मरणीय नाम जितराज था। चौथे तीर्थंकर अभिनन्दननाथके पूज्य पिता स्वयंवर महाराज थे। महाराज मेघराजसे पांचवें तीर्थकरका जन्म हुआ था ।। ७१ ॥ तीर्थकर जनक भगवान पद्मप्रभ तथा सुपार्श्वनाथके परमपूज्य पिता क्रमशः महाराज महाबल तथा सुप्रतिष्ठ थे। श्री पुष्पदन्त भगवानके पिता महाराज सुग्रीव थे। भगवान शीतलनाथ महाराज दृढ़रथके आत्मज थे । महाराज विष्णुके पुत्र ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयान्सनाथ थे । भगवान वासुपूज्यके पूज्य पिता महाराज वसु थे । महाराज कृतवर्मके पुण्य प्रतापसे उन्हें विमल प्रभु पुत्ररूपमें प्राप्त हुए थे । महापुरुष सिंहसेन, भानुराज, विश्वसेन तथा शौर्यधर्म क्रमशः भगवान अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ तथा कुन्थुनाथके पिता थे ।। ७२ ॥ १.मराजहंसः । [५४८] Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराज सप्तविंशः 'सर्गः परितम् सुदर्शनश्चैव हि कुम्भराजः सुमित्रनामा जयधर्मराजः । समद्रपूर्वो विजयोऽश्वसेनः सिद्धार्थराजः पितरोर्हतां च ॥ ७३ ॥ आद्याभवत्सा मरुदेव्यतश्च तथा द्वितीया विजयादिसेना। सिद्धार्थसंज्ञा किल मला च सौम्या च देवी पथिवी तथैव ॥ ७४ ॥ सा लक्ष्मणासीन्नवमी च नाम्ना नन्दा च देवी खल वैष्णवी च । जया तथा श्यामिनिका च देवी सर्वश्रिया सुव्रतयोरवाचा ॥ ७५ ॥ पद्मालया मित्रसमाह्वया च सरक्षिला विश्रुतसोमदेवी। सा वप्रिणी चैव शिवाग्रदेवी सब्रह्मदत्ता प्रियकारिणी च ॥ ७६ ॥ भगवान अरनाथ और मल्लिनाथके पूज्य पिता महापुरुष सुदर्शन तथा कुम्भराज थे। मुनिसुव्रतनाथके पिता महाराज सुमित्र थे, भगवान नमिनाथके पिता जयधर्म नामसे विश्वविख्यात थे। यादवपति समुद्रविजयको कौन नहीं जानता है, भगवान नेमिनाथने इन्हींके घरके अंधकारको दूर किया था। काशीपति महाराज अश्वसेनके पुत्र भगवान पार्श्वनाथ थे तथा ज्ञातृवंशके प्रधान लिच्छविराज महाराज सिद्धार्थ के पुत्र अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे ॥ ७३ ।। तीर्थकर माता भगवान पुरुदेव प्रातः स्मरणीयाजगन्माता मरुदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न हुए थे। भगवान अजितानाथकी, माताके पुण्य नाममें सेना शब्दके पहिले विजय शब्द आता है-विजयसेना थीं। भगवान शंभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ तथा सुपार्श्वनाथकी परमपूज्य माताओं के नाम क्रमशः सिद्धार्था, मंगला, सौम्या, देवी तथा पृथ्वी महारानी थीं ।। ७४ ॥ चन्द्रावदात चन्द्रप्रभकी माता महारानी लक्ष्मणा थी। नवम तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्तकी माताका शुभनाम नन्दा था। दशमें तथा ग्यारहवें तीर्थंकरोंको क्रमशः महारानी देवी तथा वैष्णवीने जन्म दिया था । भगवान वासुपूज्य, पूज्य माता श्री जयादेवीसे जन्मे थे। तेरहवें, चौदहवें तथा पन्द्रहवें तीर्थंकरोंकी माताओंके नाम क्रमशः श्यामनिकादेवी, देवी तथा सर्वश्री थीं। भगवान शान्तिनाथने परम पूज्य माता श्री सुव्रताकी कुक्षिसे जन्म लिया था। ।। ७५ ॥ भगवान कुन्थुनाथ, पूज्यमाता पद्मालयाके गर्भ में पधारे थे । भगवान अरनाथ महारानी मित्रसमाकी आँखोंको ज्योति थे। भगवान मल्लिनाथ तथा मुनिसुव्रतको जन्म देकर क्रमशः श्रीमती सरलाक्षि देवी तथा विश्वविख्यात सोमदेवीने अपने मातृत्वको सफल किया था। भगवान नमिनाथने प्रणवादेवीको कूक्षिमें नौ मास वास किया था तथा यादवपति नेमिनाथरूपी भानुका १.क पृथुवो। रामाRANIRUITMEIReयचय [५४१ । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशः चरितम् बभूवुरेता जिनमातरश्च अनन्यनारीसदशैर्गुणोधैः । नाम्नोपदिष्टाः प्रथिताः पथिव्यां ततः परं दानपतीन्प्रवक्ष्ये ॥ ७७ ॥ श्रेयांस्तु दानाधिपतिः स आद्यो ब्रह्मा सुरेन्द्रस्त्वथ चन्द्रदत्तः। स पद्मजिच्चैव हि सोमदेवो महेन्द्रसोमौ खलु पुष्पदेवः ॥ ७८ ॥ पुनर्वसुर्नन्दसुनन्दनौ च जयाभिधानो विजयस्तथैव । स धर्मसिंहश्च सुमित्रनामा स्याद्धर्ममित्रस्त्वपराजितश्च ॥ ७९ ॥ नन्दी तथैवर्षभदत्तनामा ततः सुदत्तो वरदत्तसंज्ञः।। धर्मो महात्मा बकुलाभिधानः प्रवतितस्तैरवदानधर्मः ॥८॥ सर्गः उदय शिवदेवीकी पुण्यकुक्षिरूपी उदयाचलकी गुफासे हुआ था। काशीको महारानी ब्रह्मदत्ताको ही पार्श्वप्रभुको माता होनेका । सौभाग्य प्राप्त था तथा अन्तिम तीर्थंकर वीरप्रभुको पूज्यमाता प्रियकारिणी ( त्रिशला ) देवी थी ।। ७६ ।। इन सब माताओंने जगद्धितैषी परम पूज्य तोथंकरोंके प्रसवकी पीड़ा सही थी। इनके गुणों की माला अद्भुत थी स्त्रीवेद सामान्य होने पर भी इनमें तथा साधारण स्त्रियों में कोई समता न थी। यही कारण है कि आज भी हम उनके नाम लेते हैं तथा वे समस्त संसारमें विख्यात हैं। इसके बाद उन महापुरुषोंके नामोंका उल्लेख करेंगे जिन्होंने दिगम्बर मुनिरूपधारी तोर्थकरोंको आहारदान देकर महादानी पदवीको प्राप्त किया था ।। ७७॥ आहारदाता राजा श्रेयान्सको कौन नहीं जानता है जिन्होंने आदीश्वर प्रभुको आहारदान देकर दानतीर्थका प्रवर्तन किया था। महापुरुष ब्रह्मा, सुरेन्द्र तवा चन्द्रदत्तने अजितप्रभु, शंभवजिन तथा अभिनन्दननाथको आहारदान देकर परम पुण्यको संचित किया था। भगवान सुमतिनाथ तथा पद्मप्रभके आहारदान दाता श्री पद्म तथा अजित थे। महापुण्यात्मा सोमदेव, महेन्द्रसोम तथा पुष्पदेव भगवान सुपाश्वनाथ, चन्द्रप्रभ तथा पुष्पदन्त प्रभुको आहार दान देकर इनकी तपस्यामें साधक हुए थे ।। ७८॥ श्री शीतलनाथ जब चर्याको निकले तब महात्मा पूनर्वसुने अपने द्वार पर उनके पदग्रहण-प्रतिग्रहण (पड़गाहना) करके नवधाभक्ति पूर्वक आहार दिया था। पुण्याधिकारी नन्द, सुनन्द, जयदेव तथा विजयदेवको श्रेयान्सनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ तथा अनन्तनाथके पदग्रहण करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। परम धार्मिक श्री धर्मसिंह, सुमित्र, धर्ममित्र तथा अपराजितने भगवान धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ तथा अरनाथकी तपस्यामें आहारदान सहायता की थी॥ ७९ ॥ महापुरुष नन्दीने मल्लिनाथ भगवानको आहारदान देकर पुण्यका बन्ध किया था। इसी मार्गपर चलकर परम धार्मिक १. क पृथुव्यां। २. म नन्दगौ। ३. [ तैरथ दानधर्मः ] । SAURGARHITCHAIRPERSONAEDIA Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग सप्तविंशः सर्गः चरितम् आद्यो जिनेन्द्रस्त्वजितो जिनश्च अनन्तजिच्चाप्यभिनन्दनश्च । सुरेन्द्रवन्धः सुमतिर्महात्मा साकेतपुर्या किल पञ्च जाताः ॥१॥ कोशावकश्चैव' हि पद्मभासः श्रावस्तिकः स्याज्जिनसंभवश्च । चन्द्रप्रभश्चन्द्रपुरे प्रसूतः श्रेयाज्जिनेन्द्रः खलु सिंहपुर्याम् ॥ २ ॥ वाराणशौ तौ च सुपार्श्वपाश्वौं कार्कदिकश्चापि हि पुष्पदन्तः । श्रीशीतलः खल्वथ भद्रपुर्यां चंपापुरे चैव हि वासुपूज्यः ॥ ८३ ॥ काम्पिल्यजातो विमलो मुनीन्द्रो धर्मस्तथा रत्नपुरे प्रसूतः । श्रीसुव्रतो राजगृहे बभूव नमिश्च मल्लिमिथिलाप्रसूतौ ॥ ४ ॥ श्री ऋषभदत्त, सुदत्त, वरदत्त तथा धर्मदेवने भगवान मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ तथा पार्श्वप्रभुके तपको बढ़ाया था। जब भगवान महावीर दानतीर्थको प्रवर्तन करानेको अभिलाषासे चर्याको निकले उस समय महात्मा बकुलने उनका प्रतिग्रहण करके जगतको दानधर्मको शिक्षा दी थी ।। ८० ।। जन्मनगरी भगवान महावीरके समयमें उत्तरकोशल नामसे विख्यात देशकी राजधानी साकेतपुरी ( अयोध्या ) प्रथम जिनेश्वर श्री ऋषभदेव, अजितजिन, चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ, चौथे तीर्थंकर अभिनन्दनाथ, देवों तथा देवेन्द्रोंके परमपूज्य महात्मा सुमतिनाथ, पांच-कल्याणोंके अधिपति इन पाँचों जिनराजोंने जन्मग्रहण करके उसकी शोभा तथा ख्यातिको बढ़ाया था ॥ ८१॥ षष्ठ तीर्थकर भगवान पद्मप्रभ कौशाम्बी (कोसम-जिला इलाहाबाद ) में जन्मे थे। अष्टकमजेता भगवान शंभव । श्रावस्ती नगरीमें उत्पन्न हुए थे। भगवान चन्द्रप्रभ गंगाके किनारे स्थित चन्द्रपुरोमें जन्मे थे, ग्यारहवें तीर्थङ्कर श्री श्रेयांसनाथके । जन्म महोत्सवका समारोह सिंहपुर ( सारनाथ ) में हुआ था । ८२॥ भगवान सुपार्श्वनाथ तथा पार्श्वनाथके गर्भ तथा जन्म कल्याणकोंको लीलाका क्षेत्र काशी ही बनी थी। श्री पुष्पदन्त । प्रभुको जन्मस्थली काकंदीपुरी थी। परम पवित्र भद्रपुरीमें भगवान शीतलनाथने जन्म लिया था ॥ ८३ ॥ तथा भगवान वासुपूज्यने चम्पापुरीके महत्त्वको बढ़ाया था। भगवान विमलनाथ कम्पिलापुरीमें उत्पन्न हुए थे। । केवलियोंके भी गुरु श्री धर्मनाथ प्रभुने रत्नपुरमें जन्म लिया था। बोसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथने राजगृहके माहात्म्यको बढ़ाया था। भगवान नमिनाथ तथा मल्लिजिनेन्द्रका जन्म-कल्याणक मिथिलापुरीमें हुआ था।। ८४ ॥ । १. [ कौशाम्बिक°]। २. म वाणारसौ। [५५१ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशः चरितम् अरिष्टनेमिः किल शौर्यपुर्या' वीरस्तथा कुण्डपुरे बभूव । अरश्च कुन्थुश्च तथैव शान्तिस्त्रयोऽपि ते नागपुरे प्रसूताः॥८५॥ इक्ष्वाकुवंश्याः खलु षोडशैव चत्वार एवात्र कुरुप्रवीराः। द्वौ चोपदिष्टौ हरिवंशजातावुग्रस्तथैकः किल नाथ एकः ॥ ८६ ॥ सुवर्णवर्णः खलु षोडशैव चन्द्रप्रभौ द्वौ च जिनौ जिताशौ । द्वौ द्वौ च संध्याउजनतुल्यवर्णों द्वावेव दूर्वाङ्करकाण्डभासौ ॥७॥ अरिष्टनेमिमुनिसुव्रतश्च द्वावप्यमू गौतमगोत्रजातौ । शेषा जिनेन्द्रा ऋषभादिवर्याः ख्याताः पुनः काश्यपगोत्रवंश्याः ॥८॥ सर्गः भगवान अरनाथ, कुन्थुनाथ तथा शान्तिनाथ प्रभुका जन्मस्थान अत्यन्त विख्यात नागपूर था । बाईसवें तीर्थङ्कर यादवपति श्री नेमिनाथने शौर्यपुरीमें ही सबसे पहिले अपने कमल नयनोंको खोल कर माता शिवदेवीके यौवन तथा कुक्षिको सफल किया था। भगवान महावीरने सबसे पहिले सूर्यका प्रकाश कुण्डलपुरमें ही देखा था ।। ८५ ।। तीर्थकर वंश परमपूज्य चौबीसों तीर्थंकरोंमेंसे सोलहको जन्म देनेका सौभाग्य जगद्विख्यात इक्ष्वाकु वंशको ही है, शेष आठमें से चार धर्म प्रवर्तकोंका पितृवंश वोरोंका वंश कुरुवंश ही था । शेष चारमें से दो ने हरिवंशको पवित्र करके उसका माहात्म्य बढ़ाया था। शेष दो में से एकने उग्रवंशके प्रतापको उग्र किया था तथा शेष अन्तिम तीर्थंकर महावीरने नाथवंशको सनाथ किया था ॥८६॥ शरीरवर्ण समस्त आशा पाशको छिन्न-भिन्न करनेवाले दो चन्द्रप्रभ तथा पुष्पदन्त तीर्थंकरोंके शरीरका रूप चन्द्रमाकी कान्तिके समान था। दो तीर्थंकरों ( पद्मप्रभ-वासुपूज्य ) के सुन्दर शरीरका वर्ण संध्याको लालिमाके समान ही ललाम था तथा दूसरे दो दो प्रभुओं ( मुनिसुव्रत-नेमिनाथ ) को कायाकी कान्ति मेघोंके समान श्याम थी। सुपार्श्व-पार्श्वनाथकी देहछवि नूतन जात दूबके अंकुरोंके समान हरी थी तथा शेष सोलह तीर्थंकरोंके वज्रबृभनाराचसंहनन युक्त शरीरका रूप सोनेके समान था॥ ८७ । तीर्थकर गोत्र बीसवें तीर्थङ्कर भगवान मुनिसुव्रतनाथ तथा अहिंसावतार यादवपति श्री नेमिनाथ, ये दोनों महापुरुष ही ऐसे थे । जिन्होंने गौतम गोत्रमें जन्म लिया था। इन दोनों प्रभुओंके अतिरिक्त शेष ऋषभदेव आदि सबही तीर्थङ्करोंने काश्यप गोत्रकी ही । ख्यातिको बढ़या था ।। ८८ ।। [५५२] Jain Education international Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HA वराङ्ग चरितम् मल्लिश्च पाश्वौँ वसुपूज्यपुत्रोऽप्यरिष्टनेमिश्च तथैव वीरः। कौमारकाले वयसि प्रयाता भुक्त्वा भुवं ते प्रययश्च शेषाः ॥९॥ अरिष्टनेमिर्वृषभो जिनेन्द्रः स वासुपूज्यश्च जिनो महात्मा । पल्यवृतः सिद्धिमुपागतास्ते स्थित्यैव शेषाः परिनिर्वताः स्युः ॥१०॥ कैलासशैले वृषभो महात्मा चम्पापुरे चैव हि वासुपूज्यः । दशाहनाथः पुनरूजयन्ते पावापुरे श्रीजिनवर्धमानः ॥ ९१॥ शेषा जिनेन्द्रास्तपसः प्रभावाद्विधूय कर्माणि पुरातनानि । धीराः परां निवृतिमभ्युपेताः संमेदशैलोपवनान्तरेषु ॥ ९२॥ सप्तविंशः सर्गः P RAwammeMITREATHASHASTRamesapSPARDAre बालब्रह्मचारी घोर तप करके अन्तमें मोक्ष महापदको प्राप्त हुए चौवोतों तोर्थङ्करोंमें महाराज वसुके जगत्पूज्य पुत्र बारहवें तीर्थङ्कर श्री वासुपूज्य उन्नीसवें तीर्थङ्कर श्री मल्लिनाथ, बाईसवें तीर्थङ्कर यादवनाथ श्री नेमि कुमार, तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वप्रभु तथा अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामो, इन पाँचों तीर्थंकरोंने मनुष्य जोवनके परम प्रलोभन गृहस्थाश्रमको ठुकरा कर कुमार अवस्थामें ही जिनदीक्षा ग्रहण की थी। शेष सब ही भोग विलास करके ही विरक्त हुए थे ॥ ८९ ।। निर्वाणमुद्रा जिनेन्द्रोंके आदर्श आदि पुरुष श्री ऋषभदेव, बारहवें तीर्थङ्कर वासुपूज्य तथा कामजेता भगवान नेमिनाथ इन तीनों महात्माओंको पद्मासन ( पालथी ) अवस्थामें ही मुक्ति प्राप्त हुई थी। इनके अतिरिक्त अजितप्रभु आदि शेष इक्कीस तीर्थङ्करोंको खड़े-खड़े ( खड्गासनसे ) हो निर्वाण प्राप्त हुआ था । ९० ।। निर्वाणक्षेत्र प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव कैलाशगिरिके शिखरसे मोक्ष गये हैं। बारहवें तीर्थकर भगवान वासुपूज्य चम्पा देश (मन्दारगिरी) से मुक्ति गये हैं। दशाह ( दशार्ण ) देशके राजकुमार यादवनाथ भगवान नेमिकुमारको उर्जयन्तगिरि (गिरनार ) से निर्वाण-प्राप्ति हुई थी तथा अन्तिम तीर्थङ्कर नाथपुत्र वर्द्धमानका पावापुरोके पद्मसरसे हो निर्वाण कल्याणक हुआ था ॥९१॥ शेष बीसों महाराजोंने उग्र तपस्या करके ऐसी आत्मशुद्धि प्राप्त की थी, कि उसके प्रभावसे उनके अनादिकालसे बँधे । कर्म भी नष्ट हो गये थे । फलतः उनके आध्यात्मिक बन्धन विगलित होते ही वे सबके सब धीर वीर आत्मा परमपूज्य सम्मेदाचलके अलग-अलग शिखरोंपरसे मोक्ष महालयको प्रयाण कर गये थे ।। ९२ ।। ७० ५५३ ॥ Jain Education Intemational Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशः बराज परितम् इति कुलकरदेवदातमुख्या हलधरकेशवचक्रपाणयश्च । इह च नरबराः श्रुता मया ये परिकथिता भवतां समासतस्ते ॥ ९३ ॥ युगवरपुरुषप्रपञ्चनं यत्तदनुनिशम्य महीपतेर्यथावत् । प्रथितपृथुधियः सुमन्त्रिणस्ते प्रतिविविदुः परमार्थमादधुश्च ॥ ९४ ॥ इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते प्रथमानुयोगो नाम सप्तविंशतितमः सर्गः । सर्गः उपसंहार अपने इस लघु जोवनमें मैंने सोलह कुलकरों, चौबीस सत्यदेवों, तीर्थ-बारह चक्रवतियों, नौ वासुदेवों, नौ नारायणों, नौ प्रतिनारायणों, चौबीस आहारदाताओं तथा तोर्थकङ्करोंके जन्मके प्रधाननिमित्त कारण उनको जननियों तथा पिताओं आदि जिन-जिन महापुरुषोंके विषयमें मैंने जो कुछ भी सुना था उन सबके विषयमें संक्षेपसे आपको बतलाया है ॥९३ ॥ सच्छोता सम्राट वरांगके राजसेवक मंत्री लोग अपनी कुशाग्रबुद्धिके लिए सुविख्यात थे। जब इन सबने सम्राटके मुखारविन्दसे ही इस युगके प्रवर्तक परमपूज्य शलाका पुरुषोंके चरित्रको ठीक क्रम तथा सम्बन्धके साथ सुना तो उसे समझनेमें उन्हें विलम्ब न लगा था। इतना ही नहीं थोड़े ही समयमें वे परम तत्त्वोंके स्वरूपको समझ कर उसपर अपनी अडिग श्रद्धाको भी लगा सके थे।। ९४॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें प्रथमानुयोग-नाम सप्तविं. तितम सर्ग समाप्त । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___अष्टाविंशः सर्गः अथान्यदानर्तपुराधिपस्य संप्राप्तकल्याणफलोदयस्य । नित्यप्रवृत्तोत्सवसत्क्रियस्य सबन्धुमित्रार्थिजनप्रवस्य ॥१॥ अष्टाविंशः धर्मार्थकामोन्नतिनायकस्य गुणाकरस्याप्रतिपौरुषस्य । सर्गः नपस्य तस्याग्रमहामहिष्या बभूव गर्भोऽनुपमाहदेव्याः॥२॥ जाते च गर्भ जगतस्तदानीमभूतभूतप्रमदोऽतिमात्रम्। विनाशमीयुः पुनरीतयश्च प्रशान्तवैरा रिपवो वभूवः ॥ ३ ॥ ततः प्रपूर्णे नवमे च मासे प्राचीव दिग्भानुमुदप्रभासम् । देवी पृथुश्री कनकावदातं कुलध्वजं सा सुषुवे कुमारम् ॥ ४ ॥ अष्टाविंश सर्ग पुत्रजन्म आनतंपुरके अधिपति सम्राट बरांगकी समस्त अभिलाषाएँ ही पूर्ण नहीं हुई थीं, अपितु संसारमें जितने भी अभ्युदय तथा श्रेय हो सकते थे वे सब अपने आप ही उसकी शरणमें आ पहुंचे थे। वे प्रतिदिन प्रातःकालसे संध्या समयतक सत्कार्य तथा । पुण्यमय उत्सवोंमें ही व्यस्त रहते थे । अपने स्नेही बन्धु-बान्धवों, अभिन्न हृदय मित्रों तथा अभावग्रस्त अर्थिजनों ( याचकों ) को उनके पद, मर्यावा और आवश्यकताके अनुकूल भेंट, आदि देनेमें वे कभी प्रमाद न करते थे ॥१॥ उनके संरक्षण में पूरा साम्राज्य परस्पर विरोधको बचा कर धर्म-अर्थ-तथा काम पुरुषार्थोंका विकास कर रहा था। समस्त गुणोंको खान सम्राट जनताके आदर्श थे तथा उनका पौरुष अनुपम था। ऐसे सर्व सम्पन्न कर्त्तव्यपरायण सम्राट वरांगकी | पट्टरानी साम्राज्ञी श्रीमती अनुपमादेवीके उक्त धर्म महोत्सवके कुछ ही दिन बाद गर्भ रह गया था ॥२॥ साम्राज्ञीको गर्भ रहते ही उस समय समस्त राष्ट्रोंमें कुछ ऐसा परम उत्कृष्ट प्रमोद छा गया था जैसा कि उसके पहिले कभी किसीको हुआ ही न था । अतिवृष्टि, चौर्य, मरी, आदि छहों ईतियोंका कहीं पर चिन्ह भी शेष न रह गया था। केवल शत्रुओं। में ही नई अपितु जिन पुरुषों अथवा प्राणियोंमें स्वाभाविक वैर था उनका वह वैरभाव भी उस समय लुप्त हो गया था ॥३॥ इस क्रमसे जब गर्भ अवस्थाके पूर्ण नौ मास समाप्त हो गये तब महारानीका स्वाभाविक सौन्दर्य मातृत्वके भारसे आनत मंडित होकर अवर्णनीय विशाल शोभाको प्राप्त हुआ था। शुद्ध स्वर्णके सदृश निर्दोष कान्तिमान कुलकी ख्याति और १.[ °मभूदभूत°]। २.[ पृथुश्री.] । SATARATSWASTHAHARASTRAPARIPATHIPASHRAM DURG Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् Pa सामुद्रहोराफलजातकवच' दृष्ट्वा कुमारं पृथुराज्यभारम् । प्रशस्य पुण्यापितभारतीभिः सुगात्र इत्येव हि नाम चक्रुः ॥ ५ ॥ निदाघमासे व्यजनं यथैव करात्करं सर्वजनस्य याति । तथैव गच्छन्प्रियतां कुमारो वृद्धि च बालेन्दुरिव प्रयातः ॥ ६ ॥ रूपेण वर्णेन गतिस्थितिभ्यां वाक्येन दृष्टा वपुषा श्रिया च । विज्ञानशील स्थिर मित्रभावैः पित्रा समो राजसुतो बभूव ॥ ७ ॥ प्रमत्तमातङ्गविलासगामी शरत्प्रपूर्णामलचन्द्रकान्तः । विचित्रसल्लक्षणमण्डिताङ्गो रेजेऽतिमात्रं नयनाभिरामः ॥ ८ ॥ यशके प्रसारक पुत्रको साम्राज्ञीने उसी भाँति उत्पन्न किया था जिस प्रकार पूर्वदिशा प्रबल प्रतापी तथा उदार उद्योतमय बालभानुको प्रकट करती है ॥ ४ ॥ भविष्यवक्ता विशेषज्ञोंने उसी समय सामुद्रिक शास्त्र, होरा ( होड़ा ) चक्र ( गृहचक ) फलित तथा अन्य निमित्तों से भलीभाँति विचार करके यही कहा था कि इस शुभ मुहूर्त में उत्पन्न राजपुत्र विशाल साम्राजका एकक्षत्र राजा होगा। | स्तुतिपाठकों, गुरुजनों, आदिने पुण्य वचनों द्वारा उसकी प्रशंसा करके उसका नामकरण 'सुगात्र' नामसे किया था ।। ५ ।। ग्रीष्मऋतुके दोनों महीनोंमें लोग भी भीषण आतपसे उद्विग्न रहते हैं उस समय विजना मनुष्यों के हाथों-हाथ हो घूमता रहता है कभी भूमिपर नहीं रखा जाता है राजपुत्र सुगात्र भो कुटुम्बियों बन्धुबान्धवों आदिको इतना अधिक प्यारा था कि सदा ही लोग उसे हाथों-हाथ लिये फिरते थे । वह द्वितीयाके कलाचन्द्र के सदृश दिन दूना और रात चौगुना बढ़ रहा था ॥ ६ ॥ राजशिशु राजपुत्र सुगातका शरोर, आकार, दृष्टि, शरीरका रंग, चलना, उठना-बैठना, शरीरकी कान्ति तो पिताके समान ही । इन बाह्य सादृश्यों के अतिरिक्त उसका उदार स्वभाव, प्रत्येक विषयका सूक्ष्म तथा सर्वांग ज्ञान, विचारशक्ति, विनम्रता आदि भाव तथा दृढमैत्री ये सब गुण भी उसमें उसी मात्रामें वर्तमान थे जिस मात्रा में उसके पितामें थे फलतः पिता पुत्रमें कोई विषमता थी हो नहीं ॥ ७ ॥ किशोर अवस्थामें ही जब वह चलता था तो ऐसा लगता था मानों मदोन्मत्त हाथी चला जा रहा है। उसकी वासना हीन निर्मल कान्तिको देखते ही शरद् ऋतुके पूर्ण चन्द्रमाका ध्यान हो आता था। उसके शरीर में अनेक विचित्र शुभ लक्षण थे । इन सब कारणोंसे उसकी शोभाकी कोई सीमा ही न थी ॥ ८ ॥ १. [ जातकानि ] | २. क निदाह । ३. क दृष्ट्वा, [ दृष्ट्या ] । ४. म क्रिया । अष्टाविंश: सर्गः [ ५५६ ] Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशः सर्ग: चरितम् स नीतिचक्षुर्मतिमान्विधिज्ञः कलाविदग्धो व्यसनावपेतः । शुचिश्च शूरः सुभगश्च नित्यं बालोऽप्यबालो गणशीलवत्तः ॥९॥ किं देवविद्याधरकिन्नराणां सुतः प्रवच्यावनिमाजगाम । आहोस्विदङ्गावयवैरनको विस्मापनाय स्वयमागतः स्यात् ॥१०॥ तथैव शेषाश्च महेन्द्रपन्यः सुरेन्द्रपत्नीसमचारुशीलाः। अतुल्यरूपांस्तनयानविन्दन् शुभोदये सत्कृतयो यथैव ॥ ११ ॥ अमात्यसेनापतिमन्त्रिपुत्राः सुताश्च सामन्तनरेश्वराणाम् । पुनः प्रधान द्धतमात्मजाश्च नरेन्द्रपुत्रः सहसंप्रदाना: ॥१२॥ वह उन सबहीके नेत्रोंके लिए रसायन था। नेत्र इन्द्रिय अविकल होनेपर भी कुमार सुगात्रकी वास्तविक आँखें नीतिशास्त्र था। उसकी मति सत्पथ पर ही चलती थी । प्रत्येक कार्यको सफल विधिको वह जानता था । पुरुषकी बहत्तर ही कलाओंका पंडित था, परस्त्रीगमन, मदिरापान, आदि व्यसनोंसे अछूता था। उसके आचार-विचार पवित्र थे । पिताके समान शूर था। प्रतिदिन देखनेपर भी वह सुभगतर ही लगता था। अवस्थाके कारण बालक होनेपर भी अपने गुणों, शील तथा कार्योंके द्वारा वह वृद्ध के समान अनुभवी ही था।॥९॥ उसकी क्षमताओंका ध्यान आते ही जनताको ऐसा लगता था कि कोई देवकुमार अथवा विद्याधरकुमार अथवा कोई किन्नरपुत्र ही अपने लोगोंको बिना बतलाये पृथ्वीपर चला आया है। दूसरे ही क्षण जब उसके शरीरको देखते थे तो उन्हें यही A आशंका होती थी कि मनुष्य लोकको आश्चर्यमें डालनेके ही लिए मनसिज कामदेव, जिसका शरीर ही नहीं है वही सांगोपांग शरीर । धारण करके पृथ्वीपर आ पहुँचा है ॥ १० ।। अन्य गुत्र साम्राज्ञी अनुपमादेवीके समान ही सम्राटकी दुसरी सब रानियोंको भी पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई थी। इन सब रानियोंको । चारुता, स्वभाव तथा अन्य प्रवृत्तियाँ देवराज इन्द्रकी पत्नीके समान थीं। फलतः उनसे जो पुत्र पैदा हुए थे उन सबका रूप तथा अन्य गुण अतुल थे। इन पुत्रोंका जन्म वैसा ही था जैसा कि शुभकर्मोके उदय होनेपर भले कार्योंका परिणाम होता है ॥ ११ ॥ इसी अवसरके आगे-पीछे उत्पन्न हुए आमात्यों, सेनापतियों तथा मन्त्रियोंके पुत्र, इन बालकोंके ही समवयस्क सामन्त राजपुत्र, नगरकी श्रेणियों तथा गणोंके प्रधानोंके पुत्र तथा नगरके जो कुलीन पुरुष थे उन सबके पुत्र भी राजपुत्र सुगात्र आदिके साथ ही रहते खेलते थे॥ १२ । १.क शुभोदया। २. म पुर प्रधान, [ पुरप्रधान° ]। ३. क संप्रधानाः । [५५७] Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशः बराज चरितम् समानशीलाः समरूपवेषा गुणैः समेताः सदृशाः क्रियाभिः । परस्परस्नेहनिबद्धभावाः शिशिक्षिरे राजसुतैः कलाश्च ॥ १३ ॥ यस्यात्मजा नागकुमारकल्पा बलं च यस्यारिजनप्रमाथि। . यस्यासमो वैश्रवणो धनेन विभूतिरिन्द्रप्रतिमा च यस्य ॥ १४ ॥ यस्योरुनीत्या रिपवो हि नाशा गता विनाशं सकलत्रपुत्राः । प्रजाश्च सर्वद्धिगुणैरुपेता वर्णाश्रमांस्तस्थुरथ स्वमार्गः ॥ १५ ॥ अन्यायवृत्तिर्न बभूव लोके राज्ये च यस्यद्धिमभिप्रयाते। नवैर्नवैरर्थसुमित्रपुत्रैः स राजवर्योऽनुबभूव भोगान् ॥ १६ ॥ सर्गः उन सब बालकोंका एक-सा शील था । उन सबका वेशभूषा एक ही शैलीकी थी। रूपमें भी वे सब एकसे ही थे। सबके सब बालक सद्गुणोंके भंडार थे । उठना बैठना, पढ़ना-खेलना आदि क्रियाओंमें इतनी समता थी कि उनमें भेद करना हो कठिन था । परस्पर का स्नेह तथा बन्धुत्व इतना बढ़ा हुआ था कि वे सब सहोदर ही मालूम देते थे। इस प्रकार वे सबही राजपुत्रोंके साथ-साथ मनुष्यके लिये परम उपयोगी बहत्तर कलाएँ सीख रहे थे ।। १३ ॥ आदर्श पिता सम्राट वरांगके सब पुत्र रूप, शील, पराक्रम, आदिमें नागकुमार देवोंके पुत्रोंके सगान थे। उनका निजी बल तथा कोश, सैन्य, आदि वल शत्रुओंका सहज ही मान मर्दन करनेमें समर्थ था। जहां तक सम्पत्तिका सम्बन्ध है साक्षात् वैश्रवण (कुवेर) भी उनकी समता नहीं कर सकते थे । आनर्तपुराधीशके वैभव तथा भोग सामग्रीका तो कहना ही क्या है ? वह इन्द्रकी विभूतिकी समता करती थी ॥ १४ ॥ उनकी राजनीति इतनी गम्भीर, सफल तथा दूरगामिनी थी कि उसके ही कारण उनके शत्रु केवल अपने राज्योंसे ही वंचित न हुए थे अपितु स्त्री बच्चोंके साथ समूल नष्ट हो गये थे । सम्राजकी समस्त प्रजा सब तरहकी सम्पत्ति तथा नागरिकोंके आदर्श गुणोंसे सुशोभित थी। सारे राज्यको प्रजा अपने-अपने धर्मों, वर्णों तथा आश्रमोंकी मर्यादाका विधिवत् पालन करती थी ।। १५ ।। अन्याय युक्त प्रवृत्तिका पूरे राज्यमें कहींपर भी नाम तक न सुनायी देता था क्योंकि उनका राज्य दिनों-दिन उनका राज्य दिना-दिन आध्यात्मिक और आधिभौतिक संपत्तियोंकी वृद्धि कर रहा था। सम्राट वरांगको सदा ही नूतन मित्रों तथा पुत्रादि प्रियजनोंका समागम तथा अद्भुत संपत्तियों की प्राप्ति हो रही थी। फलतः वे प्रचुर मात्रामें भोगोंका रसास्वादन कर रहे थे ।। १६ ।। १. [ हताशा]। २. क पुत्रम् । ३. म स्वमार्गे । MARRESPERITAMETHIRDEReatsARIRA RIES THEATRE [१५८] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् 2232-24 महामहत्प्रीतिपुरस्सराणि पुण्याहमङ्गल्यशुभक्रियाणि । महोत्सवानन्दसमन्वितानि वर्षाण्यनेकानि गतानि तस्य ॥ १७ ॥ जाज्वल्यमानोत्तममौलिलीलः । कदाचिदीशान समानतेजा मृगेन्द्रसत्कुण्डल घृष्टगण्डो रत्नोत्पलालिङ्गितहारवक्षा विमिश्ररक्तोत्पलमाल्यधारी ज्वलत्प्रलम्बोत्तमहेमसूत्रः ॥ १८ ॥ निबद्धरसुपीनबाहुः । दुकूलवस्त्रोज्ज्वलगाश्रयष्टिः ॥ १९ ॥ सुगन्धिसच्चन्दन कुङ्कुमाक्तस्तुरुष्ककालागरुधूपिताङ्गः 1 शान्तः पुनः कान्तवपुर्नरेन्द्रः सुखं निषण्णो वरहर्म्यपृष्ठे ॥ २० ॥ जिनेन्द्र देवकी महामह ( राजपूजा ) आदि पूजाओंको करनेका सम्राटको अद्भुत चाव था। कोई ऐसा दिन न जाता था जिस दिन पुण्याह (स्तुति-पूजा ) आदि कोई कल्याणकारी तथा शुभबन्धका कारण प्रशस्त कार्यं न किया जाता हो । धार्मिक कार्यों के साथ-साथ ही प्रतिदिन कोई महोत्सव अथवा आनन्द प्रसंग ऐसे मनोविनोद भी चलते थे। इस विधिसे सम्राटके अनेक वर्ष बीत चुके थे ॥ १७ ॥ भोगरत एक दिनकी घटना हैं कि सम्राट राज प्रासादको छतपर बैठे थे। उस समय उनके तेजस्वी रूपको देखते ही प्रतापी इन्द्रका स्मरण हो आता था। उनके विशाल मस्तकपर जो उत्तम मुकुट बँधा था उसकी प्रभासे आसपासका वातावरण प्रकाशित हो रहा था । उज्ज्वल तथा रमणीय कुण्डल उसके गालों को छू रहे थे, इनपर महा इन्द्रनीलमणिका काम किया गया था । कंधेपर उत्तम सोनेका सूत्र पड़ा था जो कि धातुकी निर्मलता के कारण अनुपम तेजसे चमक रहा था ।। १८ ।। विशाल वक्षस्थलको हार घेरे हुए था उसमें भाँति-भाँति के रत्न पिरोये गये थे । पुष्ट तथा पीन भुजदण्डोंपर सुन्दर तथा महा केयूर बँधे हुए थे । लाल मणियोंकी माला गलेमें सुशोभित हो रही थी, इसके बीच-बीचमें पिरोये गये अरुण रंगोंके मणियोंकी शोभा तो अलौकिक थी। स्वभावसे सुन्दर तथा स्वस्थ शरीरकी शोभा उस समय पहिरे गये धवल निर्मल वस्त्रों के कारण निखर उठी थी ॥ १९ ॥ सुगन्धि श्रेष्ठ चन्दनका लेप तथा कुंकुमसे सारा शरीर व्याप्त था। स्नान के उपरान्त तुरुष्क ( गुग्गुल ) तथा कालागरु चन्दनकी धूपका धुंआ दिया गया था जिसके कारण शरीरसे सुगन्ध के झोंके आ रहे थे। सम्राटके सुन्दर शरीरकी कान्ति देखते ही बनती। वे उस समय स्वभाव से भी अत्यन्त शान्त थे ॥ २० ॥ अष्टाविंश: सर्गः [५५९] Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् नृपो विरेजे मदशालिनीनां मध्ये स्थितः पार्थिवसुन्दरीणाम् । शशीव कान्त्या निजया समेतः सुतारकामध्यगतोऽम्वरे ह ॥ २१ ॥ यथालकायां सुरसुन्दरीभिः सहैव रेमे भगवान्महेन्द्रः। मदेत विभ्राजितलोचनाभी रेमे चिरं भूमिपतिस्तथैव ॥ २२ ॥ निजांशुभियाप्तदिगन्तराणि- ज्योतींषि पश्यन्प्रतिदर्शयंश्च । प्रियाङ्गनाभ्यः प्रियमावहंश्च निशामुखं भूपतिरघ्युवास ॥ २३ ॥ शरत्प्रदोषे विगताभ्रवृन्दानिवचित्रनक्षत्रगणाभिरामान् । विभासयन्ती भुवमन्तरिक्षमुल्का पपाताशु सविस्फुलिना ॥ २४ ॥ अष्टाविंशः सर्गः सम्राट के चारों ओर उनको रानियाँ बैठी हुयीं थीं यौवन मदके पूरमें सराबोर उन अनुपम सुन्दरो रानियोंके बीच में बैठे वरांगराज ऐसे मालम देते थे जैसा कि अपनी पूर्ण चन्द्रिकाके साथ आकाशमें उदित हुआ चन्द्रमा तब लगता है जब कि । उसके चारों ओर समस्त तारिकाएँ भी चमकती रहती हैं ॥ २१ ॥ देवराज इन्द्र अपनी राजधानी अलकापुरीमें स्वर्गीय सुन्दरियों अप्सराओंके साथ जिस निःशंक रूपसे विविध केलियाँ तथा विहार करता है । उसी प्रकार सम्राट वरांग आनर्तपुरोमें अपनी लोकोत्तर रूपवती पत्नियोंके साथ रमण करते थे। इन रानियों की बड़ी-बड़ी आँखें यौवन तथा मन्दिराके मदके कारण अत्यन्त मनोहर हो जाती थीं। २२ ।। रात्रिका प्रारम्भ प्रदोषमें गुरु, शुक्र, आदि ज्योतिषी देवोंके विमान आकाशमें चमक रहे थे, उनकी परिमित आभासे आकाशतल व्याप्त था। इन ग्रहों तथा तारोंको कान्ति से आकृष्ट होकर सम्राट स्वयं उन्हें देख रहे थे और अपनी रानियोंको दिखा रहे थे । इसी अन्तरालमें सम्राट प्राण-प्यारियोंको प्रसन्न करनेवाली अन्य चेष्टाएँ भी करते जाते थे। वे परिपूर्ण आनन्द मुद्रामें छतपर बैठे थे ॥ २३ ॥ वह शरद् ऋतुको रात्रिका प्रथम प्रहर था। आकाश मेघोंसे शून्य था फलतः अनेक भाँतिके अद्भुत तारोंकी आभासे से विभासित हो रहा था। ऐसे शान्त वातावरणसे युक्त आकाशसे अकस्मात् ही बिजली टूटी थी, उसके विस्फुलिंग ( तिलंगे) चारों ओर फैल गये थे और एक क्षणके लिए अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी भी आलोकित हो उठे थे ।। २४ ।। बामग्राममाया-ASEAGERRITAS [५६०] १. क °लीनः] २. म व्याप्य । www.jaipelibrary.org. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितमू तामापतन्तीं प्रभया परीतामतिप्रवद्धाग्निशिखामिवोल्काम । समीक्ष्य राजा सह सुन्दरीविरागतां तत्क्षणतो जगाम ॥ २५ ॥ ताराभिराभिः परिवेष्टिता सा यथैव चोल्का खतलात्पपात । प्रियाङ्गनाभिः परिवार्यमाणो राज्यात्प्रयास्यामि तथाहमस्तम् ॥ २६ ॥ चतुविधेनापि महाबलेनचस्वबन्धििमत्रजनैः परीतः। अहं पुरा दुर्दमितेन तेन नीतोऽस्मि दूरं हयसत्तमेन ॥ २७ ॥ एवं पुनर्धर्मपथादपेतो जन्माटवीष प्रविनष्टचेताः। स्वदृष्कृतोपात्तहयाधिरूढः परिभ्रमिष्यामि तथेत्यनैषीत् ॥ २८॥ अष्टाविंशः सर्गः THEIRTHEATREARRIAL बंराग्य आकाशसे गिरती हुई उस उल्काकी प्रखर प्रभापर दृष्टि न ठहरती थी। उसे देखकर ऐसा भान होता था कि बेहद । बढ़ी हुई अग्निकी ज्वाला ही आकाशसे गिर रहो है । सम्राट वरांगने अपनो सुकुमार सुन्दर पल्लियोंके साथ ही उसे आकाशसे । टूटते देखा था, तो भी उन्हींपर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा था कि उन्हें भी उसी क्षण गाढ़ वैराग्य हो गया था। अकस्मात् हो उनके मखसे निम्न वाक्य निकल पड़े थे ॥ २५ ।। वैराग्य-भावना . सुकुमार ज्योतियुक्त तारिकाओंसे घिरी हुई यह उल्का जिस प्रकार आकाशसे अकस्मात् गिरकर कहीं लीन हो गयी है, इसी प्रकार अनुपम रूपवती इन प्राण-प्यारो पत्नियोंसे घिरा हुआ मैं भी किसी दिन इस राज्य पदसे च्युत होकर न जाने कहाँ लुप्त हो जाऊंगा ॥ २६ ॥ जब मैं उत्तमपुरका युवराज था उस समय भी मेरी हस्ति, अश्व, रथ तथा पदाति इन चारों प्रकारको सेनामें कोई त्रुटि न थो, मेरे लिए प्राणों तकका मोह न करनेवाले बन्धुबान्धवों तथा मित्रोंको कमी न थी तो भी वह बलवान दुष्ट घोड़ा मुझे बहुत दूर किसी अज्ञात स्थानको ले भागा था और उसे कोई भी न रोक सका था ॥ २७ ॥ किन्तु अनादिकालसे लगे रोगकी वह क्षणिक व्यक्ति ही थी, क्या मैं पूर्व जन्ममें किये गये पाप कर्मोरूपी दुर्दम घोड़ेपर आरूढ़ होकर आज भी, इस क्षण भी जन्म-मरण रूपो महावनोंमें नहीं घूम रहा हूँ? क्या मेरा वास्तविक चित्त ( विवेक ) नष्ट नहीं हो चुका है ? क्या उस भ्रमणके समान आज भी मैं धर्ममार्ग रूपी राजपथसे पुनः भृष्ट नहीं हो गया हूँ॥ २८ ॥ १.क तथैवनेषीत् । माREADLIRITRA - [५६१] Jan Education international ७ १ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाः बराङ्ग चरितम् सर्गः निःश्वस्य दीर्घ स्वशिरः प्रकम्प्य निभिद्य संसारमपारदुःखम् । उत्थाय तस्यां नृपतिः सभायां स्ववासगेहं प्रविवेश धीमान् ॥ २९ ॥ प्रविश्य तं भोगविरक्तचित्तस्तत्त्वार्थमार्गाभिनिविष्टबुद्धिः। नैरसंग्यमास्थातुमना नरेन्द्रो लोकस्थिति चिन्तयितुं प्रवृत्तः ॥३०॥ अनित्यभावं दशरण्यतां च संसारमेकत्वमथान्यतां च। अशौचमप्यानवसंवरौ च सनिर्जरं बोषिसुदुर्लभत्वम्॥३१॥ इमं च लोकं परलोकभावं शुभाशुभं कृत्यमकृत्यतां च ।। गत्यागति बन्धविमुक्तिमार्ग विचिन्तयामास यथास्वभावम् ॥ ३२॥ उनके चित्तने ही उत्तर दिया था कि वास्तवमें सब बातें वैसी ही थीं। दुःख और पश्चातापके कारण उनके मुखसे अनायास ही लम्बी श्वास निकल पड़ी थी, भूल स्वीकारका द्योतन करनेके लिए उन्होंने शिर हिलाया था, संसारके अपार तथा भीषण दु:खोंका स्मरण करके वे कांप उठे थे। इन्हीं विचारों में लीन होकर वे उस विलास सभासे उठ गये थे । और अपने एकान्त गृहमें चले गये थे।। २९ ।। संसारके विषय भोगसे उन्हें स्थायी विरक्ति हो चुको थो। आत्माके पूर्ण विकास के साधक तत्त्व मार्गपर उन्हें पूर्ण आस्था हो चुकी थी। वे परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ मुनि होनेका निर्णय कर चुके थे। फलतः ज्यों हो वे एकान्तमें पहुंचे त्यों ही उन्होंने जगतके स्वभाव तथा अन्य बातोंका गम्भीर विचार प्रारम्भ कर दिया था ।। ३० ॥ बारह भावना संसारके स्वरूपकी भावना करते ही उनके सामने उसको अनित्यता नग्न रूपमें खड़ी हो गयी थीं। आत्माकी अशरणता । के ध्यान से ही वे काँप उठे थे । संसारको निस्सारता, सुखदुःखमें जोवका अकेलापन, बन्धु-बान्धवोंसे सर्वथा पृथक्ता, जगत तथा कायाकी अपवित्रता, कर्मोंका आस्रव तगा संवर, कर्मोका समूल नाश (निर्जरा), तत्त्वज्ञानकी दुर्लभता, इस लोकका आकार तथा अधो, मध्य तथा ऊर्ध्वलोक आदि विशेष विभाग ।। ३१ ॥ लोक भावना शुभ कर्मोकी उपादेयता तथा अशुभ कर्मोंका त्याग मय धर्म तथा क्या कर्तव्य या आत्माका स्वभाव है तथा कौनसे अकर्तव्य पर-स्वभाव हैं, इत्यादि रूपसे आत्मतत्त्व आदि भावनाएं उनके हृदयमें जाग्रत हुई थीं। जीवकी क्या गति हो सकती है, किन कारणोंसे दुर्गति होती है, बन्ध तथा मोक्षके प्रयोजक कौनसे कार्य हैं इन सब विचारणीय विषयोंकी सम्राटने निश्चयदृष्टिसे चिन्ता की थी ।। ३२ ।। । १.क °सुदुर्लभं च । [५६२ । Jain Education Interational Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयवीर्यद्युतिसत्त्वशौर्या दिवौकसस्त्वष्टगुणद्धियुक्ताः । दिवस्पति वज्रधरं महेन्द्रं दिवः पतन्तं न हि वारयन्ति ॥ ३३ ॥ दिवसप्तरत्नाधिपति निधीशं महौजसं मन्दरसारवीर्यम् । सुरक्षमाणं गणबद्धदेवै वान्तको मुञ्चति चक्रपाणिम् ॥ ३४ ॥ जगत्प्रधानाः पुरुषाः पुराणा ब्रह्मा हरो विष्णुरिति त्रयोऽपि । तानप्युदारान्विवशीचकार न मृत्युतो वोर्यतमोऽस्ति कश्चित् ॥ ३५॥ हलीशवागीशगणेश्वराश्च विद्येश्वराः सर्वभुवामधीशाः । योगीश्वरा ये च महर्षयश्च पतन्ति कालेन निपात्यमानाः ।। ३६ ॥ अष्टाविंशः सग: चरितम् इसी प्रसंगमें उन्हें स्मरण आया था कि स्वर्गके सम्राट इन्द्रके अनुयायी सब देव स्वयं ही अपरिमित शारीरिक बल, तेज, साहस तथा पराक्रमके स्वामी होते हैं, उनकी निवासभूमि मरणशील मनुष्यके वासस्थलसे सर्वथा विलक्षण है। इन सब म योग्यताओं के अतिरिक्त वे अणिमा, लघिमा, आदि आठ ऋद्धियोंके स्वाभी भी हैं। इनके स्वामी इन्द्रका तो कहना ही क्या है, उनके पास इन सब योग्यताओंके साथ-साथ वन ऐसा महान आयुध भी रहता है, किन्तु आयु समाप्त होने पर जब महेन्द्रका पतन होता है तो उन्हें कोई भी नहीं बचा पाता है ॥ ३३ ॥ मरते न बचावे कोई द्विगुणित सात अर्थात् चौदह रत्नोंके स्वामी नव-निधियोंके एकमात्र भण्डार, महान तेजस्वी, सुमेरु पर्वतके समान अडिग तथा शक्तिशाली, पूर्व पुण्यसे प्रेरित देवताओं और गणोंके द्वारा सुरक्षित तथा स्वयं भी चक्र ऐसे अमोघ शस्त्रके कुशल परिचालक चक्रवर्ती सम्राटको भी अन्तक ( मृत्यु ) नहीं ही छोड़ता है ॥ ३४ ।। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ये तीनों महात्मा वैदिक-जगतमें सबसे प्राचीन पुरुष थे, जन साधारणसे सर्वथा विलक्षण होनेके यह कारण ही उनके प्रधान थे। तथा इनके विचार व्यवहार अत्यन्त उदार थे, किन्तु अन्तकने इन्हें भी इहलीला समाप्त करनेके लिए सर्वथा विवश कर दिया था। भला कोई भी प्राणी; क्या मृत्युसे भी अधिक शक्तिशाली है ॥ ३५ ॥ हलधर, विद्याधर, गणधर, व्याख्यान कलाके अवतार तथा समस्त संसारके एकक्षत्र राजा लोग अपने-अपने क्षेत्रमें अजेय थे । संसार छोड़कर उग्र तपस्या करनेवाले योगीश्वर, तथा लोकोत्तर ऋद्धियोंको अलौकिक सिद्धियोंको कौन नहीं जानता है। किन्तु जब कालने इनपर ठोकर मारी थी तब ये सब भी पके पत्तेके सदृश चू गये थे ॥ ३६ ।। नानाभाचELES SHRATHI ५६३] Jain Education international Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः तादग्विधानां जगदीश्वराणां प्रकाशवंशामितपौरुषाणाम् । न चारित चेन्मृत्युपथा विमुकतो ह्यस्मविधानां च कथैव नास्ति ।। ३७ ॥ निदाघमासोत्थमहादवाग्निर्दहत्यरण्ये तृणपणकाष्ठम् । चराचरं लोकमिदं समस्तं कालाग्निरेवं खलु दंदहीति ॥ ३८ ॥ लोहाय नावं जलधौ भिनत्ति सूत्राय वैडूर्यमणि दृणोति । सुचन्दनं चौषधि भस्मनाऽसौ3 यो मानषत्वं नयतोन्द्रियार्थे ॥ ३९॥ हस्तागतं प्राणबलप्रदं च त्यक्त्वामृतं स्वादुरसोपपन्नम् ।। प्रदाय मौल्यं मतिमन्दभावात्पिबेद विषं हालहलं दुरन्तम् ॥ ४० ॥ इन महापुरुषोंके वशोंकी आज भी ख्याति है। इन लोगोंका पराक्रम तथा पुरुषार्थ असीम था। छोटे-मोटे राष्ट्र नहीं अपितु कितनी ही दृष्टियोंसे ये लोग सारे संसारके ही रक्षक थे। किन्तु जब ऐसे महापुरुषोंको भी मौतकी धारसे छुट्टी न मिली तो मेरे ऐसे क्षुद्र जन्तुकी तो बात ही नहीं उठती है ॥ ३७॥ ग्रीष्म ऋतुके दिनोंमें जो आग जंगल में लगती है वह संयोगवश भीषण दावाग्निका रूप धारण करके घास, पत्ते, लकड़ी आदिकी विपुल राशिको अनायास ही जलाती जातो है। क्या कालरूपो भयंकर अग्नि स्थावर तथा जंगम जीवों, तथा अजीवोंसे परिपूर्ण इस ससाररूपी महा वनको बिना रुके अनादिकालसे नहीं जलाती आ रही है ? ॥ ३८ ॥ जो मनुष्य इस अनुपम मनुष्य पर्यायको इन्द्रियोंकी तृप्ति करने में ही व्यतीत कर देता है वह व्यक्ति अगाध, अपार पारावारमें दो चार कीलोंके लिए अपनो लोहेको नौकाको तोड़ता है। अथवा एक तागा बनाने के लिए वैडूर्यमणिको पोसता है अथवा थोड़ी-सी भस्मके लिए श्रेष्ठ तथा सुगन्धित चन्दनको जलाता है ।। ३९ ।। दुर्लभ नर पर्याय अथवा यों कह सकते हैं कि किसी व्यक्तिको संयोगवश सुस्वाद रससे परिपूर्ण अमृत मिल गया है जिसे पोकर उसको प्राण शक्ति तथा अन्य क्षमताएं इतनी बढ़ सकती हैं कि मृत्यु उसे छु भो न सके। किन्तु वह व्यक्ति मन्दमति होनेके कारण हाथ में आये अमृतके पात्रको भूलसे छोड़कर और मूल देकर विषको पीता है जिसका परिणाम कभी अच्छा हो ही नहीं सकता । है ।। ४०॥ ॥ १. ( °पथाद्विमोक्षो)। २. ( दृणाति)। ३.क भस्मनासा, ( भस्मनेऽसौ)। [५६४] Jain Education international Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तथैव लोकद्वय सौख्य मूलं विहाय धर्म हततत्ववुद्धिः । पापाकुलं कर्म यदीह कुर्या सतां भविष्यामि विगर्हणीयः ॥ ४१ ॥ यथैव शालीक्षफल प्रदाने सुक्षेत्रज्ञो निवपेदलाबुम् । तथैव निर्वाणफलप्रदाने नृत्वावनौ' शोकफलं वपेयम् ।। ४२ ।। रत्नाकरं द्वीपवरं प्रविश्य महाघ्यरत्नानि च तानि दृष्ट्वा । नरो न संगृह्य हि रिक्तपाणिः पश्चादवाप्नोति निवृत्तयात्राम् ॥ ४३ ॥ एवं सुमानुष्यमवाप्य दुःखाद्रूपादिभिश्चापि गुणैर्युतोऽपि । नृरत्नसारं यदि नादधोयं मुग्धस्त्ववश्यं निहितो भवेयम् ॥ ४४ ॥ ठीक यही अवस्था मेरी भी होगो यदि मैं तत्वज्ञानसे विमुख होकर उस धर्मको छोड़ दूँगा, जो कि इसलोक और परलोक दोनों में सब सुखोंको देता है तथा उन कर्मोंमें लीन हो जाऊँगा जो प्रत्येक अवस्थामें पापबंधके कारण होते हैं। उस समय मुझसे बढ़कर निन्दनीय और कौन होगा ।। ४१ ।। आत्मचिंतन यदि कोई अज्ञानो किसी उर्वरा सुन्दर भूमिपर अलंबु ( तोमरी ) को बो दे जिसपर कि धान, ईख आदि सरस पदार्थोंकी उत्तम उपज हो सकती थी, तो उसे कौन न हँसेगा ? किन्तु यदि मैं धर्ममार्गसे विमुख रहता हूँ मनुष्य पर्यायरूपी उत्तम भूमिपर मैं भी तो शोकरूपी फल देनेवाले कुकर्मोंको बोऊँगा, जब कि सुकर्मका बीज लगा कर मैं निर्वाणरूपी फल पा सकता हूँ ॥ ४२ ॥ कोई पुरुष संयोगवश किसी ऐसे श्रेष्ठ द्वीपपर पहुँच जाय जो सब प्रकारके रत्नोंका भण्डार है। वह अपने पैरोंके तले पड़े एकसे एक मूल्यवान रत्नोंको देखे भो, किन्तु उनमेंसे एकको भी उठाकर अपने पास नहीं रखता है। इसी बीचमें समय समाप्त हो जाता है और उसे वहाँसे खाली हाथ ही लौटना पड़ता है ।। ४३ ।। इस अज्ञानी पुरुषके समान हो अनेक दुःखमय जन्मोंको व्यतीत करनेके बाद मनुष्य पर्याय प्राप्त है, सौभाग्यसे सुरूप, सुबुद्धि, आदि सबही प्रशस्त गुण भी मुझमें हैं, तो भी यदि मैं मनुष्य जन्मके साररूपी रत्न ( धर्मसाधना ) को नहीं ग्रहण करता हूँ, तो मुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा? उस अवस्थामें मेरा विनिपात भी निश्चित है ॥ ४४ ॥ १. म कृत्वा वनौ । २. कनिवृत्ति ३. क नावदीयं । ४. ( निहतो ) । अष्टाविंश: सर्गः [५६५] Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् मोहावृतो विस्मृतधर्मचेष्टो यद्याचरिष्याम्यहमत्र पापम् । विकासु कृतान्तनीतो दुःखान्यनेकान्यहितानि लियें ॥ ४५ ॥ नायूंषि तिष्ठन्ति चिरं नराणां न शाश्वतास्ते विभवाश्च तेषाम् । रूपादयस्तेऽपि गुणाः क्षणेन सविद्युदम्भोदसमानभङ्गाः ॥ ४६ ॥ समुत्थितोऽस्तं रविरभ्युपैति विनाशमभ्येति पुनः प्रदीपः । पयोदवृन्दं प्रलयं प्रयाति तथा मनुष्याः प्रलयं प्रयान्ति ॥ ४७ ॥ विज्ञाय चात्यन्तमनित्यभावमत्राणतामप्यशरण्यतां च । तपो जिनैरभ्युदितं यथावद्यद्यत्र कुर्यां न हि वञ्चितोऽस्मि ॥ ४८ ॥ यहाँपर मोहने मेरे विवेकपर पर्दा डाल रखा है। मैं धर्ममय आचार तथा विचारोंको भूल गया हूँ। इस अवस्थामें मैं जिस, जिस पापमय कुकर्मको यहाँ कर रहा हूँ, उस, उस कर्मका कुफल मुझे अनेक दुखों तथा अकल्याणोंके रूपमें उन अनेक जन्मों में भरना पड़ेगा जिसमें कृतान्त मुझे मृत्युके बाद घसीटता फिरेगा ।। ४५ ।। अनित्य भावना सांसारिक विषय भोगों में लीन मनुष्यों की आयु चिरकालतक नहीं ठहरती है। वे विभव तथा सम्पत्तियां भी सदा नहीं रहती हैं जिनपर फूले नहीं समाते हैं। सौन्दर्य, स्वास्थ्य आदिका उन्माद भी साधारण नहीं होता है किन्तु ये सब गुण भी तो एक क्षण में उसी प्रकार अदृश्य हो जाते हैं जिस प्रकार समस्त आकाशको आलोकित करनेवाली विद्युत् तथा विचित्र-विचित्र आकारधारी मेघ लुप्त हो जाते हैं ॥ ४६ ॥ संसारके समस्त शुभकर्मोंका प्रवर्तक रवि जब एक बार उदित होता है तो उसका अस्त भी अवश्यंभावी है । प्रज्वलित किये गये मनोहर प्रदीपका तुझना भी अटल है। तथा आकाश भित्तिपर भाँति-भाँतिकी चित्रकारी करनेवाले मेघ भी क्षणभरमें ही विलीन हो जाते हैं। मनुष्योंकी भी यही गति है, जो उत्पन्न हुए हैं एक दिन उनका मरण अवश्य होता है ॥ ४७ ॥ अशरणता मनुष्य जीवनको अनित्यताको जानकर अत्यन्त अशरणताके रहस्य में पैठ कर तथा सब दृष्टियोंसे इसी निष्कर्षपर आकर कि जीवको दुःखोंसे कोई भी शक्ति नहीं बचा सकती है, परमपूज्य, पूर्णज्ञानी जिनेन्द्र प्रभुने उचित विधि विधानयुक्त तपस्याका उपदेश दिया था यदि मैं उसे नहीं करता हूँ, तो मुझे सब दृष्टियोंसे ठगा गया समझना चाहिये ॥ ४८ ॥ ५. ( लप्स्ये ) । ६. सर्व । MY सप्तविंश: सर्गः [ ५६ ] Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग अष्टाविंशः चरितम् किमत्र पुत्रविणोपहारैः संसारपाकातूरशोकमूलैः । दारस्तु किं वा हृदयप्रहारैश्चोरारिसर्पप्रतिमेरशुद्धैः॥४९॥ कि बान्धवैर्बन्धमयैः' सशल्यैरनर्थसंसिद्धिसमर्थलिङ्गः। आशावपाशैः किमनर्थमूलरर्थैर्दुरपार्थरितानुबन्धैः ॥५०॥ राज्यस्तु किं वा बहुचिन्तनीयैः संसारसंवर्धनहेतुभूतैः । भोगैः किमायासिभिरप्रशान्तैश्चरतुर्गतिक्लेशफलप्रदेस्तैः॥५१॥ कः कस्य बन्धुस्स्वथ कस्य मित्रं कस्याङ्गना कस्य बलं धनं वा। के कस्य पुत्राः कुलजातिदेशा रूपादयः के क्षणदष्टनष्टाः ॥ ५२ ॥ सर्गः PetikoaantrARISHTERSTUD पुत्रोंकी प्राप्त करनेसे भी आत्माका क्या लाभ हो सकता है, वे सब संसाररूपी अंकुरके महापरिणाम हैं, सम्पत्ति भी क्या सुख देगी जो कि स्वतः ही समस्त दुखोंका मूल कारण है। जिनके विचारको मनसे निकालना असंभव है ऐसी प्राणाधिका पत्नियां भी किस काम आयेंगी, इन्हें तो साक्षात् हृदय चोर, धातक-शत्रु तथा दारुण सर्प ही समझना चाहिये, क्योंकि वे अनेक अपवित्रताओंकी भण्डार हैं ।। ४२ ॥ सगे बन्धु-बान्धव भी कौन-सी रक्षा करेंगे? वे सब मनुष्यके जीवित बन्धन हैं, अनेक प्रकारकी द्विविधाओंको जन्म देते हैं तथा ऐसे समर्थ साधन हैं जो सरलतासे अनेक अनर्थों को उत्पन्न कर देते हैं । ५० ॥ संसार अपने पुरुषार्थसे कमायी गयी सम्पत्ति भी किस कामकी है। वह व्यर्थ ही आशाके कठोर पाशमें बांध देती है, सब अनर्थोकी ओर प्रेरित करती है फलतः संसारके काटोंमें घसीटनेवाले अशुभ बन्धका कारण होती है ।। ५१ ।। विपुल पुरुषार्थ और पराक्रमकी नींवपर खड़े किये गये विपुल राज्यसे भी परमार्थकी सिद्धि थोडे होगी ? उसके कारण भदिन-रात चिन्ता करनी पड़ती है ! तथा अनेक पाप करनेके कारण संसार भ्रमण भी बढ़ता ही जाता है। विषय-भोगोंकी भी क्या उपयोगिता है ? उनका स्वाद लेनेके लिए पर्याप्त परिश्रम करना पड़ता है, तो भी कभी तृप्ति नहीं होती है। परिणाम होता है चारों गतियोंमें भ्रमण जो कि शोक-दुःखसे परिपूर्ण है ।। ५१ ॥ ऐकत्वभावना ___ इस अनित्य लोकमें कौन किसका बन्ध है। कौन किसका मित्र है ? कौन किसकी प्राणधिका प्रिया है ? कैसा शारीरिक, मित्र, सेना आदिका बल हो सकता है ? कहाँ किसका धन है ? कौन लोग किसके पुत्र हो सकते हैं ? कैसा कुलका विचार? १. म बन्धुमयः। २. म° प्रशान्त्य । E LEDIAमय [५६७] Jain Education international Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् । अष्टाविंशः सर्गः स्वं जीवितं न प्रविगण्य चोरः कस्मै समं वाञ्छति तं प्रयासम् । कस्येह चित्तं विमति न धत्ते विद्यद्वपश्चञ्चलजीवितात्मा ॥ ५३॥ तिर्यगमनुष्यासुरनारकाणां योनिष्बनेकास्वशुभावहासू।। अनन्तकालं बहजीवराशौ बंभ्रम्यते कर्मरथाधिरूढः ॥ ५४॥ संसारवासे वसतामसूनां शोकाय संक्लेशसहस्र भाजाम् । जरा च जातिमरणं च तेषामवश्यमेतत्क्षयमभ्युपैति ॥ ५५॥ अलाभलाभादिवियोगयोगं मानापमानप्रसवात्मकं यत् । सुखासुखं 'तद्भवने समस्ते जीवा लभन्ते स्वपुरात्मकेन ॥ ५६ ॥ resireeaure-sinesam-TerepeateRe-MATHSHAN कैसा जातिका अभिमान ? किसका सौन्दर्य ? कौन नहीं जानता है कि एक क्षणभरमें ही ये सब देखते-देखते ही नष्ट हो । जाते हैं ।। ५२॥ समझमें नहीं आता कि चोर किसको संतुष्ट करनेके लिए अपने जीवन तककी चिन्ता नहीं करता है और असमय जागरण, असह्य-सहन, आदि भगीरथ प्रयत्नको करता है। किस धीर गम्भीर पुरुषका चित्त इस लोकके कोलाहलमें भ्रान्त नहीं हो जाता है, जब कि सब कार्योंका मूल आधार मनुष्य जीवन ही जलके बुद्बुदके समान अस्थिर और अनित्य है ॥ ५३॥ आह! यह जीव कोरूपी रथपर आरूढ होकर तिर्यञ्च, मनुष्य, देव तथा नारक योनियोंके अनेक भेद-प्रभेदोंमें चक्कर काटता है वहाँपर अनन्तकाल पर्यन्त विविध अशुभ तथा दुखोंकी अलग-अलग जीव योनियोंमें उत्पन्न होकर वह । भरता है ।। ५४ ॥ संसारकी विविध अवस्थाओंमें आयु काटनेवाले कर्मोंसे पददलित जीवोंके शोक दुखको बढ़ानेके लिए ही उनके जन्म, 4 जरा तथा मरण होते हैं। वे हजारों तरहके मानसिक तथा कायिक संघर्षों में पड़कर चकनाचूर हो जाते हैं। उन्हें जो भी प्राप्त होता है वह निश्चयसे नष्ट हो जाता है, कुछ भी स्थायी नहीं होता है ।। ५५ ।। जगत्स्वभाव अपने पूर्वकृत कर्मोके फलस्वरूप जीवोंको इस विस्तुत भवनमें समस्त सूख-दुःख प्राप्त होते हैं जो इष्ट है उसकी प्राप्ति नहीं होती है। जो अप्रिय है वह साथ नहीं छोड़ता है। संयोगवश जिस इष्टका समागम हो जाता है उससे वियोग होता न है, यदि एक क्षणके लिए अप्रियसे छुटकारा मिलता है तो दुसरे क्षण उससे बड़ा अटल संयोग हो जाता है। मानका अभाव और ।। पद-पद पर अपमान मुख फाड़े खड़ा रहता है ॥ ५६ ॥ 2 . [ तद्भुवने । ANTERWITHLETISMETIMATERESTIONALISHERasala Jain Education international Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग । अष्टाविंशः सर्गः चरितम् इत्येवमादीन्नपतिविचिन्त्य निर्वेगसंवेग युतासदर्थम् । आहूय तं सागरवृद्धिमाप्तं स्वचित्तसंकल्पितमर्थमूचे ॥ ५७ ॥ पिता ममासीन्नपतिः क्रियातस्त्वं धर्मतो मे पितृतामुपेतः । वने भ्रमन्तं कृपया कृतार्थ प्राय॒युजो मामिह बन्धुवर्गः ।। ५८ ॥ महायतां युध्यगमस्तदा मे सदाभिभूतं सुखदुःखमात्रम् । स्वतन्त्रमुत्सृज्य च मां गुणज्ञः प्रातिष्ठिपच्छीमति राज्यभोगे ॥ ५९॥ ततो गुरुस्त्वं पितृमातृकल्प आपृच्छनीयश्च समर्चनीयः । निःशङ्या तेन वदामि कार्य तद्रोचतां ते यदि युक्तिमत्स्यात् ॥ ६०॥ ere e सम्राटके हृदयमें वैराग्यने घर कर लिया था अतएव उसने उक्त दृष्टियासे समस्त पदार्थोंके वास्तविक स्वरूपपर गम्भीर मनन किया था। इसके समाप्त होते ही उसने अपने परम आदरणीय तथा विश्वस्त सेठ सागरवृद्धिको बुलाकर उनसे अपने मनके पूरेके पूरे दुःखका कह डाला था ॥ ५७ ॥ हे मान्यवर ? मेरे पूज्य पिता महाराज धर्मसेन अपने कर्मसे ही मेरे पिता थे किन्तु आपने अपने स्वार्थत्याग तथा स्नेहके कारण मेरे धर्मपिताके स्थानको प्राप्त किया है। मैं जब जंगल-जंगल मारा फिरता था उस समय आपने ही कृपा करके मुझे शरण दी थी और समस्त बन्धु-बान्धवोंसे मिला दिया था ।। ५८ ।। विरक्ति उदय जब मैं युद्धक्षेत्रमें आहत होकर मरणासन्न हो गया था तब आपने ही सहायता की थी। आपने मेरे सुख-दुःखको उसी प्रकार अनुभव किया है जिस प्रकार लोग निजीको करते हैं। आपने ही राज्यप्राप्तिका अवसर आते ही मुझे उचित कार्य करनेके लिए स्वतन्त्र कर दिया था और विशाल विभव, लक्ष्मीयुक्त राज्यसिंहासनपर बैठा दिया था ॥ ५९॥ इन सब कारणोंसे आप मेरे माता-पिताके समान ही नहीं हैं; अपितु हितोपदेशो गुरु भी हैं। आप मेरे परम पूज्य हैं तथा मेरा कर्तव्य होता है कि कोई भी कार्य करनेके पहिले आपकी सम्मति अवश्य लं। यही कारण है कि मैं बिना किसी संकोचके ही आपके सामने अपने कर्त्तव्यको कहता हूँ। यदि आप उसे यक्तिसिद्ध समझें तो मेरो यही प्रार्थना है कि उसे पसन्द करके मुझे करनेको अनुमति अवश्य देवें ।। ६० ।। १. म निर्वेद। २. [ °संवेगयुतः । ३. [ सहायतां ] । or sweateSTHeresteeves+AHP-reazzeas ८९ . Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अष्टाविंशः सर्गः यथैव मां स्थापितवान्नपत्वे प्रजाहितायात्र गुणेरुदारैः। तथानपुत्रं मम तं सुगानं राज्यश्रिया योजय साधु साधुम् ॥ ६१ ॥ मास्मत्स्मर' त्वं सुतरां कुमारं राज्यप्रकृत्या सह वर्धय त्वम् । अहं पुनः कामविरिक्तभावस्तपश्चरिष्यामि विमञ्च तात ॥ २ ॥ निशम्य वाच वसुधाधिपस्य संसारनिर्वेदपरायणस्य । स्नेहेन तं सागरवृद्धिरित्थं प्रोवाच धर्माश्रयणीयमर्थम् ॥ ६३ ॥ स्वामिन्किमेवं त्वविचार्य कार्य विचिन्तितं केवलमर्थदरम् । अप्रार्थनीयं मनसापि तादक न संमतं स्यात्तदयुक्तिमत्त्वात् ॥ ६४ ॥ HDHIPIPARDARPAARPAANIPHPSETTERPRETARPAN उत्तराधिकार-प्रस्ताव हे साधु ? आनर्तपुर तथा इसके पहिले उत्तमपुरमें प्रजाके शुभ तथा सम्पत्तिके लिए जैसे आपने अपनी उदारता तथा दया, दाक्षिण्य , आदि गुणोंसे प्रेरणा पाकर मुझे राजपदपर अभिषिक्त किया था, वैसे ही अब आप मेरे ज्येष्ठपुत्र कुमार सुगात्रको । आनर्तपुरको राजलक्ष्मीका स्वामी बनानेका कष्ट करिये क्योंकि कुमार सुगात्र राज्यपदके लिए सुयोग्य हैं ।। ६१ ।। आपसे यह भी आग्रह है कि मेरे चले जानेपर आप स्वयं मुझे याद न करेंगे। तथा स्वाभाविक चावसे विस्तृत साम्राज्य तथा प्रजाके साथ-साथ कुमार सुगात्रका भो अभ्युदय करेंगे। यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे लोकके विषय-भोगोंसे विरक्ति हो गयी है । अब तो आप लोगोंका आशीर्वाद लेकर मैं तप करूंगा। हे पिताजी ! अब मुझे छुट्टी दीजिये ।। ६२ ।। सम्राट वरांगकी विरक्ति गम्भीर थी वे एक क्षणके लिए भी उधरसे चित्तको न हटा सकते थे, सेठ सागरवृद्धिका स्नेह भी उतना ही गम्भीर और तीव्र था । फलतः सम्राटके बचनोंको सुन चुकने पर उन्होंने निम्न वाक्यों द्वारा अपना अभिमत, जो कि सदा सुनने और समझने योग्य धर्मशास्त्रका सार था-को प्रकट किया था ।। ६३ ॥ "परिजन हैं रखवारे" हे सम्राट ? आप यह क्या करते हैं ? मेरा मत है कि आपने इसपर सब दृष्टियोंसे विचार नहीं किया है, केवल उस । दूर विषय ( मोक्ष ) पर ही आपने दृष्टि लगा रखी है जिसे किसीने साक्षात् देखा भी नहीं है। किन्तु इस प्रकारके लक्ष्यों अथवा आदर्शोको तो मनसे भी नहीं सोचना चाहिये। मैं आपके इस निर्णयसे कैसे सहमत हो सकता हूँ क्योंकि इसका किसी भी तकसे समर्थन नहीं होता है ।। ६४ ॥ १. [ मास्मान् ] चमचUAGARLSARILARGESARIA ५७०] Jain Education international Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अवेशकाले प्रतिसंनिबद्ध बलाबलक्षेम विचारहीनम् । यत्स्वल्पमप्यत्र हि कार्यजातं प्रारब्धमज्ञेनं हि सिद्धिमेति ॥ ६५ ॥ इदं हि राज्यं नृपतिविशालं जनोऽप्रगल्भस्तरुणः सुतोऽपि । स्नेहश्च पित्रोर्जनतानुरागो विचन्तनीयः खलु सर्वमंत्र ॥ ६६ ॥ अरातिभिर्दुष्टतमैरनिष्टः सामन्तराजैरटवीश्वरैश्च । पुरा त्वया साधु विराधितैस्तैः सद्यो विनश्यत्यय राज्यमेतत् ॥ ६७ ॥ प्रमाणभूतस्त्वमिह प्रजानां नोतिप्रगल्भो विदितत्रिवर्गः । अतो भवन्तं शिरसाभियाचे मा साहसं कर्म कृथा नरेन्द्र ॥ ६८ ॥ अनुभवहीन पुरुषोंके द्वारा यदि कोई बहुत ही छोटा कार्य अनुचित देश तथा प्रतिकूल समय में प्रारम्भ कर दिया जाता है, तो वह कार्य बहुत थोड़े परिश्रम तथा सामग्रीसे सिद्ध होने योग्य होनेपर भी केवल इसीलिए पूर्ण नहीं होता है कि उस कार्य कर्ताओंने अपनी शक्तिका ठीक लेखा-जोखा न किया था, विरोधी परिस्थितियों तथा शक्तियोंसे अनभिज्ञ रहे थे, तथा वह कार्य किस प्रकार सहज ही हो सकता था इस दिशामें उनका विचार गया ही नहीं था। फिर आनर्तपुरका यह राज्य तो अतिविशाल तथा भगीरथ प्रयत्न साध्य है ।। ६५ ।। राजसमाज महाअध कारन आपके उत्तराधिकारी कुमार सुगात्र अभी किशोर ही है, आपके समान अनुभव, साहस आदिसे होन हैं। और विचारे अभी बालक ही हैं। इसके अतिरिक्त आपको माता-पिताका स्नेह तथा, जनताकी प्रगाढ़ राज-भक्ति भी ऐसी वस्तुएं हैं जिनकी एकदम बिना सोचे विचारे उपेक्षा नहीं की जा सकती है। यही सब बातें हैं जिनपर आपको शांत तथा निष्पक्ष होकर विचार करना चाहिये ॥ ६६ ॥ जो शत्रु आपके अभ्युदयमें बाधक थे, आचरण और शासन करनेमें अत्यन्त दुष्ट थे उन्हें आपने कठोर दण्ड दिया था। कितने ही महत्त्वाकांक्षी सामन्त राजाओंको आपने वशमें किया था, प्रजाकी शान्ति तथा समृद्धि के विरोधी अरण्य- चरोंको आपने जंगलों से मार भगाया था, तो भी ये सब आपके असह्य प्रतापके कारण शान्त है । किन्तु आपके मुख मोड़ते ही इन लोगों के अत्याचारोंसे यह साम्राज्य क्षणभरमें ही छिन्न-भिन्न हो जायगा ॥ ६७ ॥ प्रजाकी दृष्टिमें आपकी प्रत्येक चेष्टा प्रामाणिक है फलतः उसे आप पर अडिग विश्वास हैं। इसके भी कारण हैं, आप राजनीतिमें पारंगत हैं तथा धर्मं, अर्थ तथा काम इन तीनों पुरुषार्थोंके समन्वय युक्त रहस्य तथा आचरणके आदर्श हैं । अतएव १. [ नृपते विशालं ] । २. [ विचिन्तनीय ] ३. क वृथा । अष्टाविंशः सर्गः [५७१] Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् Tiwari निशम्य तत्सागरवृद्धिनोक्तं वचः सदथं परिपाकतिक्तम् । महीपतिर्मन्दरतुल्यवीर्यः पुनर्बभाषेऽर्थमचिन्त्यमन्यैः ॥ ६९ ॥ नृणां च संपज्जलबुबुदाभा तथौवनं द्वित्रिचतुर्दिनानि । आयुः पुनश्छिद्रघटाम्बुतुल्यं शरीरमत्यन्तमपापिर्धाम' ॥७०॥ धनं शरन्मेघचलस्वभावं बलं क्षणेनाभ्युपयाति नाशम् । केशास्त्वशफ्ला जरसा भवन्ति मन्दत्वमायान्ति तथेन्द्रियाणि ॥ ७१॥ प्रीतिः पराभावमिति सद्यः सुखं च विद्युतपुषा समानम् । एकरूपैरुपयाति मत्युनं तस्य लोके विदितः क्षणोऽस्ति ॥७२॥ अष्टाविंशः सर्ग: -ETHAPATRAapne-THORASTRAMATIES मैं मस्तक झुकाकर आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि हे सम्राट! आप इस प्रकारका अतिसाहस न करें, क्योंकि मुझे उसमें कोई लाभ नहीं दिखाता है ।। ६८ ॥ वैराग्य-हेतु सेठ सागरवृद्धिका यह कथन संसारकी वास्विकताओंसे परिपूर्ण था तथा लौकिक दृष्टिसे अक्षरशः सत्य था किन्नु इसका परिणाम तो बुरा ही हो सकता था। सम्राट बरांगराज भी सुमेरु पर्वतके समान अपने निर्णयपर स्थिर थे, उन्हें अपनी शक्तिमें अटूट विश्वास था, फलतः धर्म-पिताके वचनोंको सुनकर उन्होंने कुछ ऐसे रहस्यमय भूतार्थीको उपस्थित किया था जिन्हें दूसरे सोच भी न सकते थे ।। ६९ ।। चंचला मनुष्योंकी लौकिक सम्पत्ति, कौन नहीं जानता है कि पानीके बुद्बुदके समान चंचला है। संसारकी प्रत्येक वस्तुको सुनहला करने में पटु यौवन भी दो, चार (बहत थोडे समयतक) दिन ही टिकता है। मनुष्य जीवन (आयु ) का तो कहना ही । क्या है वह तो सेंकड़ों छिद्रयुक्त घडेमें भरे गये पानीके समान है। शरीर तो हम देखते ही हैं कि बड़े वेगसे प्रतिक्षण नष्ट ही हो रहा है ॥ ७० ॥ जरा धनकी वही अवस्था है जो शरद ऋतमें उड़ते हए मेघोंकी है। सांसारिक कार्योका प्रधान निमित्त बल तो एक क्षणभर ही में न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। वृद्धावस्थाकी दृष्टि पड़ते ही मनुष्यके काले धुंघराले केश क्षणभरमें ही श्वेत हो जाते हैं। समस्त इन्द्रियाँ भी अपने आप ही निःशक्ति हो जाती हैं। मनुष्य जोवनके सुख शान्तिकी आधार-शिला प्रीति भी । देखते-देखते ही बदल जाती है ॥ ७१ ॥ [५७२] मृत्यु सुखोंकी क्षणभंगुरता तो आकाशमें कोंधनेवाली बिजलीको भी मात करती है। इस लोकमें मृत्यु अलग-अलग अनेक । १. [ अपायम ]। २. [ केशास्तु शुक्ला]। ३. [ विहितः ] । Jan Education International Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशा सर्गः यान्ति क्षयं ते निचयास्तु सर्वे समुच्छितास्तेऽपि च संपतन्ति । वियोगमूलाः खलु संप्रयोगा मृत्योर्मुखं याति च जीवलोकः ॥७३॥ पिता च माता बहुबन्धुवर्गाः सहोदरा मित्रकलत्रपूत्राः । नष्टस्मृति कण्ठगतात्मचेष्टं न मत्यतो मोचयितुं समर्थाः ॥ ७४ ॥ तादग्विधर्भोजनमात्रसंख्यैः किं बान्धवैर्मेऽस्ति हि कार्यमेभिः। तानप्यहं कर्मपथान्तरस्थान् त्रातुं न शक्तोऽप्यथ निश्चितुं त्वाम् ॥ ७५ ॥ निरन्तरं तस्य नृपस्य वाक्यं श्रुत्वाब्रवीत्सागरवद्धिरेवम् । यत्कर्तुमिच्छस्यनवद्यरूप तदात्मशक्त्या क्रियते मयापि ॥ ७६॥ माम रूपोंमें मनुष्यपर झपटती है। संसारमें कोई भी यह नहीं जानता है कि मृत्यु कब टूटेगी ? ।। ७२ ।। (पूर्णता ) आयु समाप्त होते ही वे पदार्थ भी नष्ट हो जाते हैं जो हर ओरसे अत्यन्त घने और अभेद्य थे। जो पदार्थ अपनी असीम ऊंचाई से आकाशका चुम्बन करते थे वे सब भी अन्त समय आते ही लुड़क कर ढेर हो जाते हैं संसारके समस्त मधुर मिलन विकट बियोगोंके बीज हैं। सारा जीवलोक बिना अपवादके मृत्युके मुख में समा जाता है । ७३ ॥ अशरणता माता-पिताका स्नेह अकारण और अनासक्त है, समस्त बन्धु-बान्धवोंकी प्रीति अनुपम है, सगे भाइयों, बहिनों और मित्रोंका भी यही हाल है, पत्नोके प्रेमकी सीमा नहीं है और पुत्रकी सेवापरायणता भी श्लाघ्य है। किन्तु जब मनुष्यके प्राण गलेमें अटक जाते हैं, उसको स्मृति नष्ट हो जाती है और चेष्टाए रुक जाती हैं उस समय उसे कोई भी मृत्युके मुखसे मुक्त नहीं कर सकता है ॥ ७४॥ आत्म-शरण इस कोटिके स्नेही, सगे तथा प्रेमी जन आदि मेरे भोजन आदि साधारण कार्योंमें ही साथ दे सकते हैं और मृत्युके समय व्यर्थ हैं तो आप ही कहिये इन लोगोंसे मेरा क्या भला हो सकता है ? तथा जब ये लोग भी अपने-अपने कर्मों रूपी मार्गपर जोरसे ढकेले जायेंगे मैं भी उनको उस समय बचानेमें निरर्थक रहूँगा । आप इसको निश्चित समझिये ॥ ७५ ॥ सेठ सागरवृद्धिने संसारके स्वरूपका नग्नचित्र उपस्थित कर देनेवाले सम्राटके वचन सुने थे तथा देखा था कि उनके उद्गार रुकते ही नहीं थे। तब उन्होंने इतना ही कहा था हे आर्य ? आपके आचार-विचार पवित्र हैं अतएव आप जो कुछ करना चाहते हैं मैं भी अपनी शक्तिके अनुसार उसी कल्याणकर मार्गपर चलना चाहता हूँ ॥ ७६ ॥ १. [ निश्चिनु त्वम् ] । [५७३] Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः सन्मानमायावनिपैरतीव स्नेहं चकार स्वजनः परश्च । वणिकप्रभुत्वे खलु वर्तमानस्तव प्रसादान्नृपतिस्त्वभूवम् ॥ ७७ ॥ मन्त्रे च युद्धे विषयार्थयोश्च सहायतां ते प्रतिपद्य पूर्वम् । अहं त्विदानों यदि धर्मकृत्ये परित्यजेयं त्वधमोऽस्मि राजन् ॥ ७८॥ एवं निगद्य स्थिरधैर्यवीर्यो विचार्य राजा विगतद्विषश्च । अन्तःपुरं तस्य हि शासनेन आह्वाययां सागरवृद्धिरास ॥ ७९ ॥ आहूयमानास्त्वरया विभूष्य समेखलानपुरमन्द्रनादाः । वराङ्गना भूपतिमभ्युपेत्य तस्थुः पुरस्ताहिकृतोपचाराः ॥ ८० ॥ GIRELIRuratURGreporI रामरामाचाजचमचारचाहनामा योगमें भी साथ तुम्हारी कृपा तथा स्नेहके कारण ही मुझसे मेरे अपने सम्बन्धी तथा परजन गाढ़ स्नेह और सन्मान करते हैं। तुमसे मिलनेके पहिले मैं सीधा सादा वणिकोंका ही प्रधान था किन्तु तुमसे मिलते ही बड़े-बड़े राजा महाराजा लोग मेरा हृदयसे आदर करने लगे थे। इतना ही नहीं मैं सार्थपतिके पदसे बढ़ता-बढ़ता महान पृथ्वीपति हो गया था ॥ ७७ ।। तथा यथाशक्ति आपको सम्मति देता था, युद्ध में सहायता करता था। तुम्हारे सुख दुःखमें हाथ बटाता था। कहनेका तात्पर्य यह कि अब तक मैं तुम्हारे प्रत्येक कार्य में साथी था। ऐसा होकर भी यदि इस समय मैं धर्मकार्यमें आपको छोड़कर अलग हो जाता हूँ, तो हे सम्राट ! मैं वास्तवमें सबसे बड़ा अधम हूँ ॥ ७८ ।। -RIMELIGH वनिता बेड़ी सम्राट वरांगका धैर्य अडिग था और वोर्य अकाट्य था । लौकिक शत्रुओंको बे पहिलेसे ही जीत चुके थे तथा आत्मिक शत्रुओंको जीतनेके लिए उद्यत थे । धर्मपिताके वचनोंको सुनकर उन्होंने उनपर कुछ समयतक विचार किया था। इसके उपरान्त प्रारम्भ किये गये कार्यको सफलताकी दिशामें ले जाने के लिए धर्मपिताको संकेत किया था जिसके अनुसार वे पूरेके पूरे अन्तःपुरको सम्राटके पास आनेके लिए कह आये थे ।। ७९ ।। सम्राटका आह्वान सुनते ही समस्त रानियोंने बड़ी त्वराके साथ अपना शृंगार किया था। कटिप्रदेशपर बंधी मेखलाकी छोटी-छोटी घंटियाँ तथा नूपुरोंसे धीमी-धोमी मधुर ध्वनि हो रही थी। वे सबकी सब कुलीन देवियां क्षणभरमें ही सम्राटके । भवनमें जा पहुंची थीं और विनय तथा उपचार करनेके बाद उनके सामने ही बैठ गयी थीं ।। ८० ।। For Privale & Personal Use Only [५७४1 TSPELLAGE Jain Education interational Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चामलमा अष्टाविंशः परितम् स्वभावभद्राः श्रुतिशीलशुद्धा भर्तृ प्रियाचारवचोविभूषाः । कृतापराधा इव ता विलोक्य क्षमध्वमित्येवमुवाच राजा ॥ ८१॥ तद्वाक्यवाताहतविह्वलाङ्गयः प्रम्लानमाला इव दीनवक्त्राः। आक्रम्य यन्तः स्रवदश्रुनेत्रा निपेतुरुर्वीपतिपादयोस्ताः ॥ ८२॥ हिमाहतानामिव पद्मिनीनां पद्मानि वातातपशोषितानि । वियोगभीतानि मुखानि तासां प्रम्लानदृष्टयाप्रियतां प्रजग्मुः ॥८३ ॥ प्रोत्थाप्यमाना वसुधेश्वरेण मुहूर्तमात्रादुपलब्धसंज्ञाः । सगद्गदाशक्तकलप्रलापा जजल्पुरित्थं विनयानतायः ॥ ८४॥ सर्गः R सबकी सब राजपत्नियाँ स्वभावसे ही सरल और साधु थों, उनकी शिक्षा तथा आचरण प्रत्येक दृष्टिसे शुद्ध थे। वे वही काम करती थीं, उसी प्रकार हसतो बोलती थीं तथा शृंगार करती थीं जिससे उनका पति प्रसन्न हो। तो भी सम्राटको देखकर उन्हें ऐसा भान हुआ कि उन्होंने कोई अनजाने ही अपराध कर डाला है। विशेष कर जब राजाने 'आप लोग मुझे क्षमा करें।' | इस वाक्यसे कहना प्रारम्भ किया था ।। ८१ ।। - वरांगराजके इस वचन रूपी प्रभजन ( आँधी ) के थपेड़ेसे उनको सुकुमार देहलता वेगसे कांप उठी थी। देखते-देखते ही उनके मुख कमल ऐसे दोन, निस्तेज ओर कान्ति-होन हो गये थे जैसी कि मुरझायी माला हो जाती है। वे जोर-जोरसे रोने लगी थीं और आँखोंसे आँसुओंकी नदियाँ बह निकली थों। तथा वे सबको सब ही सम्राटके चरणोंमें लोट-पोट हो गयी थीं।। ८२॥ कुसुमसदृशो प्रबल तुषारपात होनेसे कुमदिनियों को जो दुरवस्था हो जाती है अथवा जोरकी आंधी अथवा प्रखर आतप (धूप ) के कारण सूख जाने पर कमलोंको शोभाका जो हाल होता है, वियोगके डरसे उन सब रानियोंके अति सुन्दर मुखोंका भी यही हाल हो गया था। दृष्टि इतनी मुरझा गयो थी कि उधर देखने तकको रुचि न होती थी।। ८३ ॥ सम्राट वरांग उनको अज्ञानजनित मूर्छाको देखकर दयासे विह्वल हो गये थे, अतएव उन्होंने स्वयं ही उन्हें उठा-उठा । कर सम्हाला था तथा वे एक मुहूर्त भरमें हो चैतन्य हो गयी थीं। किन्तु उनके गले तब भी भरे हुए थे, वे विनय और लज्जाके कारण झुककर खड़ी थीं, तब भी उनके मुखसे वाणी बाहर न हो रही थी तो भी उन्होंने निम्न प्रकारसे निवेदन किया था।।८४॥ १. [ आक्रन्दयन्त्यः ]। ELATESCENERALASAHESAREE [५७५] Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् SAK भवरप्रसादोदित सर्वसौख्याः पादद्वयालम्बितजीविताशाः । त्यक्तास्त्वया किं करवामे हेऽद्य गच्छाम वा कां गतिमद्य नाथ ॥ ८५ ॥ आधानतः स्नेहनिबद्धरागा नाथेन चात्मप्रियबान्धवास्ताः । कृतापराधाश्च वनभर्त [-] कथं नु नस्त्यक्तुमियेष भक्ताः (१) ॥ ८६ ॥ अनन्यनाथा विमतीरपुण्या जहीहि नास्मान्नगतीर्वराकाः । त्वया विना नेत्रनिमेषमात्रं न शक्नुवं स्थातुमपि क्षितीश ॥ ८७ ॥ जलेन होना इव पद्मवत्यः करेणवो वोज्झितयूथनाथाः । जिजीविषात्मा' न वयं नरेन्द्र स्वया विमुक्ता ध्रुवमित्यवैहि ॥ ८८ ॥ प्राणनाथ ! आपके अनुग्रहका ही यह फल है कि हम इस अभ्युदय और समस्त सुखोंकी स्वामिनी हो सकी हैं। हमारा जीवन तो आपके दोनों चरण-कमलोंकी निकटतापर हो निर्भर है। इस परिस्थितिमें आपके द्वारा छोड़ दिये जानेपर आज हम क्या करेंगी ? अथवा अब आपके बिना हमारो कौन-सी गति है जिसका हम लोग अनुसरण करें ॥ ८५ ॥ जिस दिनसे हे प्रभो ! आपने पाणिग्रहण किया है उस क्षणसे हमारा स्नेह और प्यार आपपर ही केन्द्रित हो गया है। हमारे सहोदर बन्धुबान्धव भी उतने प्रिय नहीं हैं जितने कि श्रीचरण हैं। इसके सिवा हे नाथ! हमने आपके प्रति किसी भी प्रकारका अपराध भी तो नहीं किया है ॥ ८६ ॥ मोह-माया फिर क्या कारण है कि स्वामी हम सबको छोड़कर चले जाना चाहते हैं। हमारा आपके सिवा कोई दूसरा रक्षक नहीं हो सकता है। हम स्वयं बुद्धिहीन हैं। पुण्यात्मा तो हैं ही नहीं। अतएव आप हम लोगों को इस रीतिसे न त्यागें । देखिये, आपके सिवा हमारी तो कोई दूसरी गति है हो नहीं। हम सर्वथा दीन हैं। हे क्षितीश ? आपसे वियुक्त होकर हम एक निमेष मात्र समयके लिए भी जीवित नहीं रह सकती हैं ॥ ८७ ॥ पानी सूख जानेपर कमलिनियोंका जो दुखद अन्त होता है हाथियोंके झुण्डके अधिपति मदोन्मत्त हाथोसे वियुक्त हो जाने परमत्त हथिनियोंकी जो दयनीय अवस्था हो जाती है, उसी विधिसे हे नरेन्द्र ! तुमसे वियुक्त होकर हम सब भी जीवित न रहेंगी इतना आप अटल तथा ध्रुव सत्य समझिये ॥ ८८ ॥ १. क करवामदेा । २. [ भर्ता ] । ३. [ न शक्नुमः ] । ४. [ जिजीविषामो ] । सप्तविंश: सर्गः [५७६] Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशः सर्गः चरितम् इत्थं वाणा नृपतिप्रियास्ताः सुताम्रनेत्रान्तजलाविलास्याः । प्रत्यनवोन्निर्गतरागबन्धः ॥९॥ यमस्य नाथोऽपि महाप्रतापो वज्रायुधः प्रज्वलितप्रभावः । साक्षान्नवीं मृत्युमुखात्सुनालां स्थातुं परः कः पुरुषस्त्रिलोके ॥ ९०॥ अनेककोटयप्सरसां समूहाः सामानिकाद्यास्त्रिदशेश्वराश्च । शक्रालयाच्छक्रमधः पतन्तं न जातु संतारयितुं समर्थाः ॥११॥ ये चक्रविक्रान्तदशानभोगास्तदर्धभोगाच्च सितासिताङ्गाः । देवासुरेभ्योऽभ्यधिकप्रभावास्ते मत्युनोता मम का कथेयम् ॥ ९२॥ TRAILERRHEREIAS- रोते-रोते रानियोंके नेत्रकमल लाल हो गये थे, मुखकमल अश्रृजलसे परिप्लावित हो रहे थे। उक्त प्रकारके प्रेम तथा भक्ति सूचक वचन कहकर वे सबकी सब सम्राटको अपने स्नेहकी पाशमें फंसा लेना चाहती थीं। किन्तु वरांगराज उस समय रागके बन्धनोंकी पहँचसे परे थे फलतः रानियोंके वचन सुनकर राजाने इस युक्तिसे उन्हें समझाया था ।। ८९ ॥ विवेक-नोरोध संसार भरकी जन्म-मृत्युके तथोक्त नियन्त्रक यमका प्रताप अप्रमेय है। वज्ररूपो सर्व-मारकशस्त्रके धारक इन्द्रका । प्रताप तोनों भुवनोंमें व्याप्त है तथा उस सूर्यके विषयमें तो कहना हो क्या है जिसके आतप और उद्योत सृष्टिके जोवनके आधार हैं। किन्तु यह भी मृत्युका सामना नहीं कर पाते हैं। तब तोनों लोकोंमें दूसरा ऐसा कौन पुरुष है जो मृत्युको प्रतिद्वन्दिता कर सके ।। ९०॥ एक इन्द्र के कुटुम्बमें कई करोड़ अतिशय गुणवती अप्सराएं रहती हैं। प्रत्येक इन्द्रके सहायक तथा सेवक सामानिक, त्रायस्त्रिश, परिषत्, आत्मरक्ष आदि ही नहीं अपितु अनेक इन्द्र भी होते हैं। किन्तु जब आयुकर्म समाप्त होनेपर इन्द्र अपने विमानसे पतित होता है उस समय उन मेंसे कोई अथवा वे सबके सब भी उसे नहीं रोक पाते हैं ।। ९१ ॥ जिन्होंने अपने चक्रके पराक्रमसे षट्खण्ड क्षेत्रको पददलित किया था, जो लोग (भोगभूमिया जोव ) वस्त्रांग आदि दश प्रकारके कल्पवृक्षोसे मनवाञ्छित भोग सामग्री प्राप्त करते हैं अथवा जिन विद्याधरोंको पांचों प्रकारके ही भोग प्राप्त हैं। तथा जिनके शरीर कृष्ण तथा गौर होते हैं। तथा वे महापुरुष जिनका प्रभाव और सिद्धि देवों तथा असुरोंसे भी बहुत बढ़ो-चढ़ी थो। उन सबको भी 'मृत्यु घसीट ले गयी थी। तब मुझ कौन पूछेगा ( बचायेगा) तब मेरे ऐसे साधारण व्यक्तिको तो चर्वा हो व्यर्थ है ।। ९२॥ १. [ साक्षादविः"""स नालं ]। क सनाला । IssantshrINSPIRELESED [५७७ ॥ SHAHARA Jain Education internationes Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धर्वविद्याधरनागयक्षा योगीश्वराश्चाप्रतिसत्त्ववीर्याः । प्रियाः स्वका मुत्युमुखं 'प्रयान्ति त्रातुं न शेकुर्मम कास्ति शक्तिः॥ ९३ ॥ जन्माणवे मोहमहातरङ्गे जरारुजामृत्युभयप्रकीर्णे । निमज्जनोन्मज्जनसंप्रयुक्तं वृथा हि किं मां शरणं वृणीध्वम् ॥ ९४ ॥ इष्टवियोगोऽप्रियसंप्रयोगो जातिर्जराव्याधिरनित्यभावः। यदीह न स्युर्मरणानि लोके रति जन्मन्यय कस्य न स्यात् ॥ ९५॥ जवेन नृणां वपुरायुर धावन्त्युपस्थास्यति सा जरा च । जरापरिक्षीणबलेन्द्रियाणां मृत्युस्ततो नेष्यति कोऽत्र रागः ॥ ९६ ॥ अष्टाविंशः सर्गः इस पृथ्वीपर उत्पन्नहम मनुष्योंकी अपेक्षा गन्धर्वो, विद्याधरों, नागकुमारों तथा यक्षोंकी ही शक्तियां अनेक गुनी हैं। इनसे भी बढ़कर वे सब परमयोगो थे जिनके योगसिद्ध सत्त्व, पराक्रम तथा साहसके सामने कोई टिक भी न सकता था। किन्तु उनको आँखोंके सामने ही कालने उनको प्रियाओं को गलेसे नीचे उतार लिया था और वे रक्षा न कर सके थे, तब मुझमें कितनी । शक्ति है ॥ ९३ ॥ जन्म मरण मय यह संसार एक महासागर है, मोहरूपी ऊँचो, ऊँची भयंकर तरंगें इसमें उठ रही हैं। रोग, बुढ़ापा A आदि अनेक भयानक जन्तुओंसे यह व्याप्त है। और मैं स्वयं इसमें निरुद्देश्य होकर बार-बार डूबता उतराता हूँ, तब आप लोग व्यर्थ ही मुझे क्यों अपना सहारा बना रहे हैं । ९४ ।। रोग, बुढ़ापा-मृत्यु सौभाग्यसे मनुष्य जीवन में प्रियजनोंका वियोग न होता तथा अनिष्ट और अप्रिय पदार्थोंका समागम न होता, बार-बार जन्म-मरण न होते । जोवनमें रोग तथा बुढ़ापा न होता। यह जीवन चिरस्थायो होता तथा अपनी और अपने प्रियजनोंकी । मृत्यु न होती, तो कोई ऐसा विवेकी जीव न होता जो इसे पाकर फिर छोड़नेका नाम भी लेता? ।। ९५ ।। हम देखते हैं कि मनुष्योंको आयु, शरोर तथा विभव, वैभव प्रबल वेगसे किसी विपरीत दिशामें दौड़े जा रहे हैं । देखतेदेखते ही शैशव, किशोर तथा युवा अवस्थाओंको पार करके बुढ़ापा आ दबाता है। वृद्धावस्थाके पदार्पण करते ही शारीरिक ॥ [५७८] शक्ति विदा लेती है और समस्त इन्द्रियाँ अपने विषयोंके भोगमें शिथिल हो जाती हैं, इस प्रकार दुर्बल देखकर मृत्य भी ले में भागती है तब इससे राग क्यों ? तब इस जोवनसे कैसे प्रीति को जाय ? ।। ९६ ।। १.[प्रयान्तीस्त्रातुं ] । RERSARDARIRATRAILEELARATHI Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एका गतिनि तिरस्ति लोके निरस्तरोगान्तकजन्मभीतिः । यां प्राप्य नश्यन्ति जरादयस्ते महानदीं प्राप्य यथा तृषाद्याः' ।। ९७ ॥ तां प्राप्तुमिच्छा यदि विद्यते चेयुष्माकमस्माभिसमार समेताः । उपाय एकोऽस्ति मनुष्यलोके धर्मोऽहंतां प्रापयितुं समर्थः ॥ ९८ ॥ अर्हत्प्रणीतश्रुतिसत्सहायाः सद्दर्शनोन्मीलितशुभ्रनेत्राः ।। चारित्रसन्मार्गमभिप्रपद्य सुखाकरं मोक्षपुरं प्रयामः ॥ ९९ ॥ पुरापि जैनेन्द्रमतप्रपन्ना नरेन्द्रवाक्यप्रतिबद्धतत्त्वाः । नृदेवदेव्यः समयं प्रयाय भर्ना सह प्रव्रजनं प्रपद्युः ॥ १०० ।। अष्टाविंशः __ सर्गः resmearearrespresHIPHAAN मात्ति। क्योंकि इसद शान्त हो जाते है, तथा आपकी माRemeHEIRameHAIRAHIPASHURAHARMA वैराग्यमेवाभयम् इस भयाकुल संसारमें एक ही मार्ग ऐसा है जिसको पकड़ लेनेसे अपने आप ही रोग, यम, जन्म तथा मरण, आदिके भय समूल नष्ट हो जाते हैं, और वह है निवृत्ति । क्योंकि इस मार्गपर चलते हो वृद्धावस्था, आदिका भय उमो प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार महानदी पर पहुँचनेसे भीषण प्यास, आदि शान्त हो जाते हैं ।। ९७ ।। यदि आप लोग भी इस संकट तथा भय हीन मार्गको पकड़ना चाहती हैं, तथा आपकी अभिलाषा दृढ़ है तो आप लोग भी हमारे साथ चली आइये । इस संसारके उपद्रवोंसे पार पानेका यहाँ पर केवल एक ही अमोघ उपाय है, आर वह है वीतराग प्रभु अर्हन्तके द्वारा उपदिष्ट सत्य धर्म सर्वभय विनाशक 'वैराग्य मेवाभय' ।। ९८ ।। रत्नत्रयमेवशरणम् केवली भगवानकी दिव्यध्वनिके आधारपर निर्मित पूर्वापर विरोध रहित शास्त्रोंकी सहायतासे सत्य श्रद्धारूपी प्रकाश (सम्यकदर्शन ) के द्वारा हमारे अन्तरंगके निर्मल नेत्र खुल जाते हैं। तब हम क्षुद्ध आचरणरूपी आदर्श मार्गपर चलने लगे गे और संसार यात्रा समाप्त करके हम लोग समस्त सुखोंके भण्डार मोक्षपुरोमें पहुँच जावेंगे ।। ९९ ॥ मेरे साथ दीक्षा लेना कोई अभूतपूर्व घटना न होगी, क्योंकि पुराने युगमें भी जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट धर्मको स्वीकार करके तथा वैराग्य भावनासे पूर्ण राजा ( पति ) के उपदेशको सुनकर रानियोंने तत्त्वज्ञानको प्राप्त किया था। तथा अनेक राजाओंकी पत्नियोंने इस प्रकार काल-लब्धिको पाकर अपने पति हो के साथ ही दीक्षा ग्रहण की थी।। १०० ॥ 'भोग बुरे भवरोग बढ़ावें' राजाका उपदेश सुनकर रानियोंने मन ही मन विचार किया था, मधुर तथा रस परिपूर्ण भोजन, हमारे रंगरूपके उपयुक्त एक से बढ़कर एक भूषण, विविध प्रकारके विचित्र कौशेय, आदि वस्त्र, सब जातिको सुगन्धयुक्त माला, पुष्प तथा १. क तृषाढ्याः । २. [ °रमा ]। ३. [ प्रपन्नाः] । HeamSa [५७९] Jain Education international Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशः सर्गः मृष्टान्नपानं वरभूषणानि चित्राणि वस्त्राण्यथ गन्धमाल्यम् । प्रासादशय्यासनयानकानि दत्त्वा चिरं नो 'नपते बभार ॥ १०१॥ चन्द्रांशवः सूर्यगभस्तयश्च खराश्च मह्यः पुरुषाश्च वाताः। न पस्पृशुर्दु:खनिमित्तभूता भर्तृप्रदानान्न कदाचिदस्मान् ॥ १०२ ॥ लताः स्वपुष्पस्त बकोत्थिताग्रा यथा न शोभा ददति प्रकृष्टाः । धौश्चन्द्रहीना च यथा न भाति तथा भवामो नपतौ प्रयाते ॥ १०३ ॥ अभूषणानादनगन्धमाल्यास्ताम्बलधपाउजनगन्धहीनाः । अमित्रवगैः परिभूयमानाः किमास्महे प्रक्षरदक्षितोयाः ॥ १०४ ॥ एवं विचिन्त्योत्तमधैर्यवन्त्यः कृतप्रतिज्ञा विगतस्पृहाश्च । स्वा नेकभक्तिस्थितिमानसाम्भाः प्रोचनरेन्द्र गतभोगतृष्णाः ॥ १०५॥ मायामन्यमान्य सुगन्धित द्रव्य, कोमल शय्या, महार्घ आसन, सूखकर यान तथा सबसे बढ़कर अपना अनुग्रह तथा प्रेम देकर जिस पति-राजान इतने समयतक हमारा भरण-पोषण किया है ।। १०१ ।। उस प्राणपतिके प्रेम तथा प्रबन्धका हो यह प्रताप था कि प्रतिकल चन्द्रकिरणें, तीव्र तथा दाहक सूर्यको रश्मियाँ, कंकरीली पथरीली भूमि तथा सूखी उष्ण अथवा तरल शील वाय हमारे शरीरको कभी छ भो न सकती थी यद्यपि इनका संसर्ग ही तीव्र दुःखको उत्पन्न कर सकता था ॥ १०२॥ किन्तु अब जब प्राणपति दीक्षा लेकर चले जायेंगे तो हमारी वही दीन-हीन अवस्था हो जायेगी जो कि चन्द्रमाके अस्त हो जानेपर चन्द्रकान्तिसे व्याप्त आकाशकी होती है, उस समय ढढनेपर भी उसमें शोभा नहीं मिलती है । अथवा उन लताओंके समान हम सब हो जायेंगी जिनपर एक क्षण पहिले हो सुन्दर, सुगन्धित फूलोंके गुच्छे लहरा रहे हों किन्तु दूसरे ही क्षण खींचकर वे भूमिपर फेंक दो गयी हों।। १०३ ॥ सज्ज्ञान क्या हम सब आभूषणोंको फेंककर भोजन, सुगन्धित लेप, माला, ताम्बूल, धूप, अञ्जन 'सुगन्धित तैल' आदि समस्त श्रृंगारको तिलाञ्जलि देकर भी यहाँ रहेंगी। प्राणपतिके अभावमें शत्रलोग मिलकर हमारा तिरस्कार करेंगे और हम लोग आँखोंसे आठों धार आँसू बहाती हुई यहीं पड़ी रहें गी ।। १०४ ॥ जब रानियोंने उक्त सरणिका अनुसरण करके विचार किया तो उनकी सांसारिक भोग विलासकी तृष्णा न जाने कहाँ विलीन हो गयी थी। उन्हें अपने पति के प्रति एकनिष्ठ भक्ति थी, कुलीन पुत्री तथा वध होनेके कारण उनका धये भी असाधारण । १. [ नृपतिबंभार ]। २. [ परुषाश्च ]। ३. म स्तबकोथिताया। १.क विचित्रोत्तम । २. [ स्वाम्येक ] । For Private & Personal use only [५८० Jain Education international Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अष्टाविंशः सर्गः यद्यत्र नाथ प्रविहाय राज्यं तपःक्रियायां मतिमावधीथाः । समं त्वयैवात्र तपश्चरित्वा संसारनिष्ठामभिसंवजामः ॥१०६ ॥ इति नृपवनिता नृपेण साधं प्रविकसितोत्पलचारुपत्रनेत्राः । भुवि सुखमपहाय ताश्च सद्यस्तपसि मनांसि समादधुर्वराजयः ॥ १०७ ॥ अथ जिगमिषुतां नृपस्य बुद्ध्वा नरपतयः परितः समेत्य तूणं । दशरधिकसंभ्रमा नरेन्द्र त्रिदशपति त्रिदशा इव प्रशान्तम् ॥ १०८॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते । स्फूटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते तारादर्शननिमित्त राज्यभोगनिर्वेगो नामाष्टाविंशतितमः सर्गः। था, पतिपर उनकी आस्था थी तथा मन उसकी ही सब कुछ मानता था । फलतः पतिके निर्णयको जानते ही उनकी समस्त अभिलाषाएँ तथा महत्त्वाकाक्षाएँ कर्पूर हो गयी थीं। उन्होंने दीक्षा लेनेका निर्णय कर लिया था, अतएव पतिसे यही निवेदन किया था ।। १०५ ॥ पति-परायणता 'हे नाथ ! यदि आप विशाल राज्य, राज्यलक्ष्मी, विभव, आदिको ठुकरा कर उग्र तपस्या करनेका निश्चय कर चुके हैं, प्रयत्न करनेपर भी यदि आपकी विचारधारा उधरसे विरत नहीं होती है, तो हम सब भी आपके ही साथ तप करेंगी और संसार भ्रमणको पार करके आपके साथ ही परमपदको दिशामें अग्रसर होवेंगी ।। १०६ ।। उक्त निर्णयपर पहुंच सकने के कारण सुन्दर सुकुमार शरीरधारिणी राजपत्नियोंके उत्पल सदृश सुन्दर तथा मनोहर नेत्र आनन्दके कारण विकसित हो उठे थे । अपने जीवन साथी सम्राट वरांगके साथ उन्होंने भी संसारके समस्त सुखोंको छोड़ दिया था। उस समय उनके भोग विलासोंके प्रेमी चित्त पूर्णरूपसे तपस्यामय हो उठे थे ॥ १०७ ॥ त्यागकी उत्कृष्टता इसी अन्तरालमें सम्राटके समस्त राजाओंको वरांगराजके वैराग्यका समाचार मिल चुका था यह समझ कर कि सम्राट अब वन चले ही जायेंगे वे सब मित्र तथा सामन्त राजा बहुत शीघ्र हो आनर्तपुरमें आ पहुँचे थे। उनके आश्चर्य तथा आदरका उस समय अन्त न रहा था जब उन्होंने वरांगराजको स्वर्गके अधिपति इन्द्रके समान शान्त और समाहित देखा था ॥ १०८॥ [५८१] चारों वर्ग समन्वित सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें तारादर्शन निमित्त राज्यभोग-निर्वेगनाम अष्टाविंशतितम सर्ग समाप्त । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग परितम् [एकोनत्रिंशः सर्गः] श्रीधर्मसेनप्रमुखा नरेन्द्रा वयोऽनुरूपोज्ज्वलचारुभूषाः । सभागहे रम्यतमे विशाले बरामराजेन सुखं निषेदुः ॥ १॥ पिता बराङ्गस्य नरेन्द्रमध्ये स्नेहेन सद्भावपुरस्सरेण । परामर्शस्तस्य करं करेण प्रोवाच साम्नावचनीयमर्थम् ॥ २॥ राज्यं त्वदायत्तमिदं हि सर्वमाधारभूतस्त्वमिह प्रजानाम् । विशेषतो मे नयनं तृतीयं बहिश्चरप्राण इव द्वितीयः ॥ ३ ॥ चमचमान्च । एकोनत्रिंशः सर्गः एकोनत्रिंश सर्ग सयाना संसार आनर्तपुरके विशाल तथा रमणीय सभा भवनकी शोभा उस समय सर्वथा दर्शनीय हो गयी थी। उसमें महाराज धर्मसेन आदि वयोवृद्ध राजा लोग सम्राट वरांगराजके साथ शान्तिपूर्वक यथायोग्य स्थानोंपर विराजमान थे। इन सब महारथियोंका निर्मल सरल वेशभूषा उनकी अवस्थाके अनुकूल था। ये सब लोग वरांगराजके वैरागभावको लेकर हो चर्चा कर रहे ॥१॥ वयोवृद्ध तथा आदरणीय समस्त राजाओंमेंसे सबसे पहिले वरांगराजके पूज्य पिता महाराज धर्मसेनने ही, अपने पुत्रके सांसारिक कल्याणकी सद्भावना और इसके ममत्वसे प्रेरित होकर बड़े स्नेह और दुलारके साथ वरांगराजके हाथपर हाथ । फेरते हुए कहना प्रारम्भ किया था ॥२॥ पिताका प्रेम वे जो कुछ कहना चाहते थे वह सब, वे बड़ी शान्ति और प्रीतिसे कह रहे थे । 'यह आनर्तपुर तथा उत्तमपुरका । समस्त राज्य, हे पुत्र ! तुम्हारे ही आधीन है। इन दोनों विशाल राज्योंमें प्रजाओंके सुख समृद्धिके तुम ही एकमात्र आधार हो। यह तो हुई राष्ट्रकी बात, अब मेरो निजी अवस्था भी सुन लो तुम मेरी तीसरी आँख हो तथा मेरे बाहर घूमते फिरते मूर्तिमान प्राण हो ॥ ३॥ एक क्षण भर चिन्ता कर के देखो, जब तुम दीक्षा ले कर वनमें चले जाओगे, तो तुम्हारी स्नेहमूर्ति वृद्धामाता, प्रेमप्रतिमूर्ति पतिव्रता पत्नियां, पिताभक्त-पुत्र, आदि सब ही सम्बन्धी, हे बेटा ! तुम्हारे विना अपने प्राणोंको कैसे धारण करेंगे? EDIGIPALAMARHITS [५८२) Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकोनत्रिंशः सर्ग: माता च पल्यस्तव पुत्रकाश्च प्राणान्त्ययेऽरं कथमत्र वत्स । त्वयि प्रयातेऽहमतोऽभियाचे नास्मद्वचो लङ्गितुमर्हसि त्वम् ॥४॥ विना शशाङ्कन नभो न भाति विना मघोना न विभासते द्यौः। विना दयां धर्मपथे न भाति न भाति राज्यं च विना स्वयेदम् ॥ ५॥ भारो यथादौ सुकरः प्रवोद् पश्चादशक्यः स तु गौरवेण । एवं तपःश्रीः सुकरावध सुदुर्धरत्वं च शनैः प्रयाति ॥६॥ आरोहणाद्धारवतो नरस्य दोामपाराम्बुनिधिप्रतारात् । सरित्प्रवेगे प्रतियातनोऽपि तपोऽतिकष्टं सुखमास्स्व पुत्र ॥७॥ अपनी तथा सबकी चिन्ता कर के हो मैं तुमसे एक वर मागता हूँ। देखो, हमारे वचनोंकी उपेक्षा करना तुम्हें शोभा नहीं देता है॥४॥ चETAIRLINGa झठा संसार सुधसूति चन्द्रमाके अभावमें आकाशको कोई शोभा ही नहीं रह जाती है। यदि इन्द्र न हो तो सब कुछ होते हुए भी स्वर्गमें कोई आकर्षण और प्रभाव न रह जायगा पूरेके पूरे धर्माचरणमेंसे यदि केवल दयाके सिद्धान्तको निकाल दिया जाय तो समस्त धर्म खोखला हो जायेगा। ऐसे ही यदि तुम चले जाओगे तो इस राज्यमें हमारे लिए कोई आकर्षण और सार न रह जायगा ।। ५॥ तपकी दुष्करता देखा जाता है कि भारोसे भारी बोझा जब प्रारम्भमें उठाया जाता है तो उसे ले चलना सर्वथा सुकर होता है किन्तु ज्यों, ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं त्यों, त्यों उसे एक पग ले चलना असंभव हो जाता है। ऐसे ही तप है। इसको ग्रहण कर लेना अत्यन्त सरल है किन्तु जैसे-जैसे उसमें आगे बढ़ते हैं वैसे ही वह दुष्कर और कठोर होता जाता है ।। ६॥ यह लोक प्रसिद्ध है कि भारी बोझको लेकर उन्नत पर्वत आदि पर चढ़ना अत्यन्त कष्टकर है । अत्यन्त वेगवती पहाड़ी नदीमें प्रवाहके प्रतिकूल चलना उससे भी अधिक कष्टकर है तथा अपार पारावारको हाथोंसे तैरकर पार करना इन दोनोंसे भी दुखमय तथा दुःशक्य है। किन्तु स्वैराचार विरोधिनी जैनी तपस्या इन सबसे अनन्त गुणी कठिन तथा दुखमय है इसलिए हे बेटा इस विचारको छोड़कर सुखपूर्वक राज्यका सुख भोग करो ॥ ७॥ १. [ प्राणान्नयेरन्, 'न्वहेरन् ]। २. [ धर्मपयो]। ३. [ प्रतियानतोऽपि ] u [५८३] raEREIAS Jain Education international . Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एकोनत्रिंश: सर्गः स्मरानलाचिःप्रतिदग्धवीर्या भृशन्ति' तिर्यग्मनुजासुरेन्द्राः । तं कामवह्नि शमितुं कुतस्त्वं शक्नोतिर पञ्चेन्द्रियगोचरस्थः ॥ ८॥ वयं च सद्धर्ममथाहतां हि बुवापि तत्कर्तुमशक्नुवन्तः।। गृहेषु जीर्णा विषये प्रसक्ताः पुनस्तपस्ते विषमं प्रकर्तुम् ॥९॥ मास्मत्वरिष्टाः कुरु धीर राज्यं जयारिवर्गान्विषयान्भजस्व । सहैव गत्वा च तपोवनानि तपश्चरिष्याम इहेत्यवोचत् ॥ १४ ॥ यथोपनीतक्रममादरेण निशम्य वाक्यं पितुरायतश्रीः । वराजराजः स्थितधर्मचित्तः प्रत्यब्रवीदात्महिताय धीमान् ॥११॥ UPERHIMeanRPHATETAParampaHARESHAMIRese भोगोंको अजेयता विगतवार विचार करो, कामरूपो अग्निकी ज्वाला इतनी भीषण है कि उसमें पड़ते ही सुमेरुके समान महाशक्ति भी भस्म हो जाती है। यही कारण है कि विवेकी तीर्यञ्च, मनुष्य, असुर तथा इन्द्र आदि भी ब्रह्मचर्य व्रतसे भ्रष्ट हो गये हैं। ऐसी काम ज्वालाको तुम्हारा ऐसा तरुण पुरुष कैसे शान्त करे गा ? क्योंकि तुम्हारी पांचों इन्द्रियां अत्यन्त जागरूक हैं ।।८।। अपनी बुद्धिका अहंकार आठों कर्मों के विजेता, वीतराग अर्हन्तदेवसे उपदिष्ट जैन धर्मके तत्त्वों तथा उसके महत्त्वको हम लोगोंने भी खूब समझा है। किन्तु सब कुछ समझ कर भी उसके अनुसार त्याग करनेमें असमर्थ हैं। यही कारण है कि हमारा समस्त जीवन गृहस्थाश्रममें ही बीता जा रहा है। आज भी विषय भोगको चाह ज्योंकी त्यों बनी हुई है। जब हमारी यह हालत है तो तुम्हारा तप करना तो सर्वथा ही असंगत है ।।९।। हे धीर ! शीघ्रता मत करो, जब तक शक्य है तब तक शान्तिपूर्वक राज करो, दुर्दम शत्रुओंको पददलित करो, परम प्रिय विषयोंका यथेच्छ भोग करो। इसके उपरान्त हम लोग गृहस्थाश्रमसे विदा लेंगे और तुम्हारे ही साथ वनमें जा कर हम लोग भी तप करेंगे १० ॥ सिंह-वृत्ति राजा जैसा कि उचित और आवश्यक था उसी विनम्रता और सन्मानके साथ वरांगराजने अपने पूज्य पिताके उपदेशको सुना था। किन्तु वे विशेष विवेको थे उनका चित्त पूर्ण (अनगार) धर्मका पालन करनेका निर्णय कर चुका था। उस समय उनका प्रताप और प्रभाव अपने मध्याह्नपर थे, तो भी वे उन्हें आत्मकल्याणके मार्गसे विमुख न कर सके थे । आत्म-हितपर दृष्टि रखते हुए ही उन्होंने पितासे निवेदन किया था ॥ ११ ॥ १. [ अश्यन्ति ] २. [ शक्रोषि ]। ३. प्रशस्ता। ४. [ मा त्वं त्वरेथाः ] । SHESATIRGISTERRIERRIGIRRITAR [५८४] Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् धर्मार्थकामागमसाधनानि व्रजन्ति पूतां सुतरां प्रसिद्धिम् । तान्येव तत्साधनसत्क्रियाभिविपत्तिमायान्ति गते यवत्वे ॥१२॥ विशीर्णदन्तः शिथिलाङ्गसन्धिः कम्पच्छिरश्चञ्चलपाणिपादः । कराग्रदण्डो जरसा परोतः कथं तपस्तप्यति मन्दचक्षुः ॥ १३ ॥ नष्टश्रुतिलप्तशरीरचेष्टः स्खलत्पदव्याकुलमन्दवाक्यः । क्षीणेन्द्रियः क्षीणबल: क्षितोश श्रुतावान्तं कथमभ्युपैति ॥ १४ ॥ गहाद्वहिर्यातुमशक्तिमान्यो यात्वा पुन व निवतितु वा। ताग्विधः कायपरिग्रहस्य स्थानावियोगस्य च किं समर्थः ॥ १५ ॥ एकोनগিয়: सर्गः मायामाचIRURALIST स्वतन्त्रता धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों के परिपूर्ण भोगमें साधक सामग्री मनुष्योंको विना प्रयत्न किये ही प्राप्त होती है तथा मनुष्य अनायास ही उसमें लोकोत्तर रसका आस्वाद करता है। किन्तु जब यौवन ढल जाता है, तो वे सबके सब साधन तथा उनके उपयोगकी सफल प्रक्रियाएं भी ज्योंकी त्यों बनी रहनेपर भी उनका उपयोग सुखकर न होकर दारुण दुखदायी हो जाता है ।। १२ ।। जराकी छाया पड़ते ही दाँत टूट जाते हैं, शरीरका एक-एक जोड़ ढीला पड़ जाता है, आँखोंको ज्योति मन्द पड़ जाती है, शिर कांपने लगता है, हाथ पैर दुर्बल और चंचल हो जाते हैं। बुढ़ापा मनुष्यपर अपना पूर्ण प्रभाव स्थापित कर लेता है, और दृष्टि दुर्बल हो जाती है तथा वह डण्डेका सहारा लेकर चलता है। तब, हे पिताजी ! बिचारा वृद्ध, मनुष्य कैसे तप है करेगा ॥ १३ ॥ हे महाराज ! जिस पुरुष के कानाकी शक्ति नष्ट नहीं तो; मन्द हो गयो है, शरीरमें वेग और तत्परताके साथ कार्य करनेकी सामर्थ्य नहीं रह गयी है, पैर ठिकानेसे नहीं पड़ते हैं, धीरेसे बोलता है और जो कुछ बोलता है वह सब भी अस्पष्ट रहता हैइन्द्रियाँ काम नहीं करती तथा शरीर सर्वथा निःशक्त हो गया है ऐसा पुरुष किसके सहारे शास्त्र समुद्रोंका मन्थन करके ज्ञान-रूपी अमृत निकाल सकेगा ॥१४॥ 'जो लो देह तोरी' । मनुष्य बद्ध होकर घरसे बाहर आने-जानेमें भी हिचकता है। यदि साहस करके किसी तरह चला भी जाता है तो उसे लौटकर आना दुष्कर हो जाता है। ऐसा वृद्ध पुरुष क्यों करके अपने विभव तथा प्रभुतासे पृथक् होनेका साहस करेगा ? यदि में किसी प्रकार इतनी सद्बुद्धि आ भी जाये तो अपनी जीर्ण कायके द्वारा क्षुधा आदि परीषहोंको कैसे सहेगा ॥ १५ ॥ ७४ For Privale & Personal use only RautLISAIRPELLSमान्न [५८५] Jain Education Intemational Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् भिवागलं यान्ति चिरं बनान्तं यथा गजा वारयितुन शक्याः गहार्गलं तद्वदहं विभिद्य व्रजामि मान्धी 'वर एष याचे ॥१६॥ बहिर्य यासुर्भवनात्प्रदीप्ताक्षिपत्यरातिः पुनरेव तत्र।। दुःखानलादेवमभिप्रया'तुमापीपतः पार्थिव शत्रुवन्माम् ॥ १७ ॥ क्षुब्धार्णवाददुर्गतिवीचिजालात्कृच्छेण कुलान्तमुपागतं तम् । नदत्यरातिस्तु यथैव तत्र मा ननदः संसृतिसागरे माम् ॥ १८॥ सुवर्णपात्रे परमान्नमिष्टं बुभुज्यमानस्य विषं ददाति । यथा तथा राज्यविषं ददाति धर्मामतं भमिप मे पिपासोः ॥ १९ ॥ एकोनत्रिंशः सर्गः KAILASPARSHAIRPETApnaasRSELO R सुअवसर मिलते हो स्वतन्त्रता प्रेमी हाथी अपने बांधनेके खम्भेको तोड़कर जब भागते हैं तब उन्हें रोकनेका किसीको साहस नहीं होता है और वे सघन वनमें चले जाते हैं । इसी विधिको आदर्श मानकर मैं भी गृहस्थीके बन्धनरूपी अर्गलाको तोड़कर दीक्षा लेने जाता हूँ। आप मुझे निषेध न करें, मेरी यही याचना है। १६ ।। तथोक्त' स्वजन शत्र हैं जब भवन में आग लग जाती हैं तो समझदार पुरुष बाहर भाग जानेका प्रयत्न करता है किन्तु जो शत्रु होता है वह उसे पकड़कर फिर उसी आगमें जला देता है । मैं भी सांसारिक दुखों रूपी अग्निज्वालासे बाहर निकल रहा हूँ। हे महाराज! आप किसी शत्रुके समान मुझे फिर उसी ज्वालामें मत झोंकिये ।। १७ ।। प्रभञ्जन और ज्वारभाटाके कारण क्षुब्ध, ऊँची-ऊँची लहरोंसे आकुल भीषण समुद्रसे बड़े कष्ट और परिश्रमके बाद किनारेपर लगे व्यक्तिको धक्का मारकर शत्रु ही फिर समुद्र में ढकेल देता है। दुर्गतियों रूपी घातक लहरोंसे व्याप्त संसार-समुद्रमें हे पिताजी ! उसी प्रकार आप मुझे फिर मत गिरा दोजिये ।। १८॥ कोई पुरुष सोनेके सुन्दर, स्वच्छ पात्रोंमें जब स्वादु, शुद्ध मिष्ठान्न खा रहा हो उसी समय उसे प्राणान्तक विष देना जैसा हो सकता है, वैसा ही मेरे साथ होगा, यदि मुझे राज्यलक्ष्मी रूपी विष पीनेके लिए बाध्य किया गया तो, क्योंकि इस समय मेरे भीतर धर्मरूपी अमृतसे ही शान्त होने योग्य पिपासा भभक रही है ।। १९ ॥ १. [ त्वां धीबर । २. बहियियासु । २. बहियियासुं]। ३. [ °प्रयात° ] | ३.[ प्रयात ] । ४. [ बोभुज्य ]। ५. [ ददासि ] । GETURE [५८६] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोन वराङ्ग चरितम् शुक्रियाणां च विधातको यः पापक्रियाणां च सहायभूतः । स एव राजन्भव बद्धवैरो रिपोश्च कष्टं त्वतुलो न शत्रुः ॥ २० ॥ रिपुः कदाचि ["] दर्थमन बलं यशो वेह निहन्ति वा न । धर्मस्य ये विघ्नकरा नृघ्नन्ति ते जन्मसहस्रसौख्यम् ॥ २१ ।। आयुर्बलारोग्यवपुर्वयांसि प्रणश्वराणि क्षणिर्क शरीरम् । धनानि विद्युद्वपुषा समानि द्वितीय एषोऽपि महांस्तु दोषः ।। २२ ॥ राज्यं हि राजन्बहुदुःखबीजं चित्ताकुलं व्या कृतिशोकमूलम् ।। वैरास्पदं क्लेशसहस्रमलं किपाकपाकप्रतिमं तदन्ते ॥ २३ ॥ त्रिशः सग PAHARIHERAIHIPAHELVETHPHPTHRESTH संसारमें फंसानेवाले ही शत्रु हैं। स्वाभाविक रुचिपूर्वक किये गये किसी पुरुषके शुभ कर्मोंको जो व्यक्ति बिगाड़ देता है तथा केवल उन कार्योंके करनेमें ही सहायक होता है जो पापानुबन्धी होते हैं। हे महाराज! ऐसे पुरुषोंको ही जन्म-जन्मान्तरका शत्रु ससझना चाहिये, वह ऐसा शत्रु है जिससे छुटकारा पाना हो असंभव है, वह बड़े-बड़े कष्ट देता है तथा कोई भी शत्रु उससे बुरा नहीं हो सकता है ।। २० ॥ ___ कथमेते शत्रवः ? यदि शत्रु बलवान होता है तो वह आक्रमण करके सम्पत्ति छीन लेता है, युद्धमें सेनाका संहार करता है, कभी-कभी । अपने भी किसी अंगको काट देता है, पराजित करके कीति नष्ट कर देता है और यदि बहुत अधिक करता है तो यही कि जीवन । ले लेता है। किन्तु जो पुरुष धर्माचरणमें बाधक होते हैं वे महा निर्दय हैं। क्योंकि वे एक दो जन्म नहीं हजारों जन्मोक सुखको मिट्टी में मिला देते हैं ॥ २१ ॥ अध्रव-भावना ___ इस जीवनको आनन्दमय बनानेवाले सब हो साधन; जैसे लम्बी आयु, अत्यधिक बल, सदा स्थायी स्वास्थ्य, यौवन आदि वय ये सब ही बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। सब सुखोंका मूल शरीर ही क्षणिक है। धन सम्पत्तिका भी क्या भरोसा?, क्योंकि यह आकाश में चमकनेवाली बिजलीकी लता है। या संसारका यह दूसरा महा अवगुण है ।। २२ ।। हे महाराज ! क्या आप नहीं जानते हैं कि इस राज्यके कारण भाँति-भाँतिके दारुण दुःख प्राप्त होते हैं । चित्त सदा हो आकुल रहता है। इसके अधिकतम व्यापारोंका निश्चित फल शोक ही होता है। अपने तथा पराये या सब ही से शत्रुता हो जाती है। हजारों जातिके कष्ट झेलने पड़ते हैं तथा यह सब करके भी अन्तमें इसका फल तुमड़ी ( किंपाक ) के समान तिक्त हो होता है ॥ २६॥ १. म °बद्धबैरी। २. [रिपुश्च"नु शत्रुः]। ३. क कदाच्चियदर्थ । ४. म व्यावृति HAHARAHINESSTERNATAKARISHMyIHATHEstlemsteATMEMARATHIPAST AHPAHESH ५८७] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् दुरन्तता राज्यधुरंधराणां धर्मस्थितानां सुखभागिनां च । विजानत: साधु 'समुत्थितस्य कथं रतिः स्यान्मम राज्यभोगे ॥ २४ ॥ निरुत्तरैस्तैमधुरार्थगर्भैः सहेतुकैर्भूमिभुजो हि मध्ये । मनोहरैर्भूमिपतिवैचोभिः प्रवृद्धवैराग्यरसदस्य प्रबोधयां तं पितरं बभूव ॥ २५ ॥ विशुद्धदृष्टेरविकम्पितस्य । पिता स्वपुत्रस्य वचो निशम्य प्रसन्नबुध्द्या तमुवाच वाचम् ॥ २६ ॥ सर्वान्तराण्यानतिलङ्घय वत्स धर्मान्तरायो गुरुतामुपेति । स्नेहपरायणत्वाद्वलादवोचं परिणामतिक्तम् ॥ २७ ॥ जानन्नपि राज्य रहस्य बड़े विशाल राज्योंके अधिपति प्रबल प्रतापी राजाओंकी दुर्गतिको मैं जानता हूँ। यह भी मुझे ज्ञात है कि परम धार्मिक लोगों को भी केवल सुख भोग न छोड़ सकनेके कारण कैसी-कैसी विपत्तियाँ झेलनी पड़ो । सौभाग्यसे इस समय मेरे मन में शुद्ध उपयोगकी प्रेरणा हुई है, तब आप ही बताइये कि मुझे राज्य तथा भोगोंमें कैसे आसक्ति हो सकती है ।। २४ ।। गराजकी ये सब हो युक्तियाँ ऐसी थीं कि इनका उत्तर देना ही अशक्य था। ये शुभंकर एवं गम्भीर तात्पर्य से परिपूर्ण थीं। तर्कपूर्ण होनेपर भी मनोहर थीं। फलतः इन वचनोंके द्वारा वे किसो हदतक अपने उन पिताको भी समझा सके थे जो अपनी लोकज्ञता, समझ आदि अनेक दृष्टियोंके कारण विशाल राजसभाके अगुआ बने थे || २५ || दृढ़ता की विजय महाराज धर्मसेन उक्त विवेचनके आधारपर इस निश्चयपर पहुँच गये थे कि उनके पुत्रके हृदयमें वैराग्य रसकी धार ही नहीं बह रही थी अपितु परिपूर्ण बाढ़ आ रहा थी, तथा किसी भी प्रकारसे उसे सत्य श्रद्धापरसे थोड़ा भी डिगाना असंभव था । अतएव पुत्रके वक्तव्यको सुनकर उन्होंने प्रसन्तापूर्वक उससे निम्न प्रकारसे वचन कहे थे || २६ || महामोहो भी जागे 'हे वत्स ! संसार में मनुष्य के प्रारब्ध कार्योंमें अनेक प्रकारसे विघ्न बाधाएँ उपस्थित की जा सकती हैं, किन्तु इन सबसे बहुत बढ़कर तथा भव, भवान्तर बिगाड़नेवाली वह बाधा है जो कि धर्मके कार्यों में डालो जाती है । यह सब भली-भाँति समझ हुए भी पितृस्नेहसे प्रेरित होकर मैंने वे सब वाक्य कहे थे जिनका परिणाम निश्चयसे दुःखदायी हो होता है ॥। २७ ! | १. कसमस्थितस्य, [ समं स्थितस्य ] । ३. म धर्मान्तराये । २. म पुत्राः । एकोन त्रिशः सर्गः ५८८ } Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् हो सकता है कि स्वयं अत्यन्त निःशक्त हो जानेके कारण, मोहनीय कर्मकी प्रबलतासे, या अन्य पाप कर्मों के उदयसे प्रेरित होकर, अपनी गुरुता ( लोकज्ञता ) के अहंकार द्वारा, अथवा तुमपर अत्यन्त स्नेह होनेके ही कारण मैंने तुम्हें रोकनेके लिए ऐसे वाक्य कहे हों जो नीति और न्यायके सर्वथा विपरीत हो । किन्तु तुम उन सब बातों का ध्यान न रखना क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण विशाल है ।। २८ ।। यदि श्रमादात्मनि मोहतो वा स्वकर्मणां गौरवतोऽतिरागात् । न्यायादपेतं वचनं यदस्ति क्षमस्व तत्सर्वमुदारबुद्धे ॥ २८ ॥ आबाल्यतः शान्ततमस्य तस्य धर्मानुरागोद्यतसत्क्रियस्य । सुनिश्चितां तामवगम्य बुद्धि मुमोच कृच्छ्रात्तनयं महीन्द्रः ॥ २९ ॥ तथैव पौरान्स्वजनाज्जनांश्च सेनापतिश्रेष्ठिगणप्रधानान् । स्वमातरं कृच्छ्रतरान्नृसिंहो विमोचयामास यथाक्रमेण ॥ ३० ॥ आहूय तं पुत्रवरं विनीतं सुगात्रनामानमनङ्गरूपम् । निवेश्य पार्श्वे विनयाद्विना मध्ये नृपाणामिदमित्युवाच ॥ ३१ ॥ मिजाजितमेव वरांगराज अपने शैशवकालसे विषय विरक्त, शान्त तथा अन्तर्मुख थे, उनका धार्मिक कार्योंकी ओर रुझान तथा सत्कर्म करने का साहस सर्वविख्यात था। अतएव महाराज धर्मसेनको यह समझते देर न लगी कि वरांगराजकी वैराग्यबुद्धि अडोल और अकम्प है। तो भी वे बड़े कष्ट और अनुतापके साथ उन्हें ( वरांगको ) दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दे मके थे ।। २९ ।। इसी क्रम से उन्होंने अपने समस्त सगे सम्बन्धियोंकी अनुमति प्राप्त की थी। सेनापति, मंत्री, श्रेष्ठी तथा गणोंके प्रधानोंको भी अपने निश्चयसे सहमत कर लिया था, तथा पुरके समस्त नागरिकों को भी समझाकर अनुकूल करके विदा ले ली थी । पुरुषसिंह aiगको सबसे अधिक कठिनताका अनुभव तो तब हुआ था जब वे अपनी माताओंसे विदा लेने गये थे, तो भी किसी युक्ति तथा उपायसे उनसे भी आज्ञा ले सके थे ।। ३० । 'नियोगीसुतको' सबके अन्तमें उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र सुगात्रको राज्य सभा में बुलाया था। कुमार सुगात्र प्रकृति से ही विनोत थे, उसके भी ऊपर दी गयी सुशिक्षा के भारसे तो वह अत्यन्त विनम्र हो गये थे । शरीरका स्वास्थ्य तथा रूप भी क्या था देखते हो मूर्तिमान अङ्गका धोखा लगता था। जब वह राजसभामें आ पहुँचे तो वरांगराजने उन्हें अपने पास बैठा लिया था और राजाओं के सामने स्नेहपूर्वक समझाना प्रारम्भ किया था ॥ ३१ ॥ १. म महेन्द्रः । H एकोनत्रिशः सर्गः [ ५८९ ] Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् मातामहोऽयं तव संनिविष्टः पितामहस्त्वेष गुणैर्गरीयान् । गुरुद्वयस्यास्य नृपोत्तमस्य कुरुष्व शुश्रूषणमात्मशक्त्या ॥ ३२ ॥ वृद्धान्गुरून्प्राज्ञतमानुदारान् दयारानार्य कलांश्च नित्यम् । विश्रम्भपूर्वं मधुरैर्वचोभिर्मन्यस्व मान्यानथ मानदानैः ॥ ३३ ॥ अरातिवर्गान्विजयस्व नोत्या दुष्टानशिष्टांश्च सदा प्रशाधि । कृपापराधान् शरणागतांस्तान् रक्षस्वपुत्रानिव सर्वकालम् ॥ ३४ ॥ पद्मवन्धमूकान्बधिरान्स्त्रियश्च क्षोणान्दरिद्रानगतोननाथान् । श्रान्तान्स रोगांश्च विष्व सम्यक्पराभिभूतान्परिपालयस्व ।। ३५ । पूज्य पूजाकार्या हे सुगात्र ! इधर ये तुम्हारे मातामह (नाना ) विराजमान हैं, इनकी हो बराबरी से तुम्हारे पितामह ( दादा ) बैठे हैं जो अपने गुणोंके कारण परम पूज्य है। यद्यपि ये दोनों महापुरुष भरतक्षेत्रके श्रेष्ठ राजा हैं तो भी तुम्हारे तो पूज्य पूर्वपुरुष हैं अतएव इसी ( पूर्वजत्व ) नातेसे तुम इनकी सेवा करनेमें किसी बातकी कमी न रखना ।। ३२ ।। जो अपने पूर्वपुरुष हैं, गुरुजजन हैं, पूर्ण विद्वान हैं, उदार आचार-विचारशील हैं, दयामय कार्योंमें लीन हैं तथा आर्यश्रेष्ठ कलाओं के पोषक हैं, ऐसे समस्त पुरुषोंका विश्वास तथा आदर करना, प्रत्येक अवस्थामें इनके साथ मधुर ही वचन कहना । इनके सिवा जो पुरुष माननीय हैं उनको सदा समुचित सन्मान देकर ही ग्रहण करना ॥ ३३ ॥ षडङ्गनीति जो लोग तुमसे शत्रुता करें उन्हें यान, आसन आदि राजनीतिका आश्रय लेकर पददलित करना । जो स्वभावसे हो दुष्ट हैं तथा कुकार्यों में ही लोन हैं उनको निष्पक्ष भावसे दण्ड देना । पहिले अज्ञानसे विमूढ़ होकर अपराध करनेके पश्चात् भी जो पश्चाताप करते हुए तुम्हारी शरणमें आ जावें, उनकी उसी प्रकार सर्वदा रक्षा करना जिस प्रकार मनुष्य अपने सगे पुत्रों की करता है ।। ३४ ।। क्लिष्टेषुकृपा जो लंगड़े हैं, लूले हैं, जिनकी आँखें फूट गयी हैं, मूक हैं, बहिरे हैं, अनाथ हैं, स्त्रियाँ हैं, जिनके शरीर जीर्णशीर्ण हो गये हैं, संपत्ति जिनसे विमुख है, जो जीविका -हीन हैं, जिनके अभिभावक नहीं हैं, किसी कार्यको करते-करते जो लोग श्रान्त हों, और अधिक काम करने योग्य नहीं रहे गये हैं, तथा जो सदा ही रोगो रहते हैं, इनका बिना भेद-भाव के ही भरण-पोषण करना । जो पुरुष दूसरोंके द्वारा तिरस्कृत हुए हैं अथवा अचानक विपत्तिमें पड़ गये हैं उनका भली-भाँति पालन करना ॥ ३५ ॥ Jah Education International RC-M एकोन त्रिश: सर्गः [५९० ] Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् धर्माविरोधेन समर्जयार्थानर्थाविरोधेन भजस्व कामान् । कामाविरोधेन कुरुष्व धर्म सनातनो लौकिक एष धर्मः ॥ ३६ ॥ दातव्यमित्येव जनाय चित्तं' प्रदेहि सम्मान पुरस्सरेण । भृत्यापराधानविगण्य वत्स क्षमस्व सर्वानहमीशतेति ॥ ३७ ॥ निबद्धवैरानतिदोषशीलान्प्रमादिनो नीतिबहिष्कृतांश्च । चलस्वभावान्व्यसनान्तरांश्च जहाति लक्ष्मीरिति लोकबादः ।। ३८ ।। अदीनसत्वान् क्रियया समेतान् श्रुतान्वितान्क्षान्तिदयोपन्नान् । सत्येन शौचेन दमेन युक्तानुत्साहिनः श्रीरस्वयमभ्युपैति ।। ३९ ।। पारस्पराविरोधेन त्रिवर्ग सम्पत्ति अवश्य कमाना लेकिन धर्म मार्गका अनुसरण करते हुए काम सुखका सर्वांगीण भोग करना किन्तु यह ध्यान रखना कि उसके कारण अर्थकी विराधना न हो। इसो क्रमसे उतने ही धर्म ( अणुव्रत ) का पालन करना जो तुम्हारे काम सेवनमें अड़ंगा न लगाता हो तीनों पुरुषार्थों के अनुपातके साथ सेवन करनेको यहो प्राचीन प्रणाली है ॥ ३६ ॥ जब कभी दान दो तो इसी भावनासे देना कि त्याग करना तुम्हारा हो कर्त्तव्य है । ऐसा करनेसे ग्रहीताके प्रति तुम्हारे हृदय में सम्मानकी भावना जाग्रत रहेगी। जब-जब तुम्हारे सेवक कोई अपराध करें तो उनकी उपेक्षा ही नहीं अपितु क्षमा भी यही सोचकर करना कि मैं इन सबका स्वामी हूँ ।। ३७ ।। पाप मार्गपर पग न पड़े लोक एक सूक्ति बहुत प्रसिद्ध है कि जो अकारण हो वैर करते हैं, जिनके आचरण दोषोंसे ही परिपूर्ण हो जाते हैं, प्रत्येक कार्य करनेमें जो प्रमाद करते हैं, नैतिकताके पयसे जो भ्रष्ट हो जाते हैं, प्रकृति, जिन पुरुषोंको अत्यन्त चंचल होती है तथा जो वेश्या, मदिरापान, परस्त्री गमन, आदि व्यसनों में बुरी तरह उलझ जाते हैं, ऐसे पुरुषोंको लक्ष्मी निश्चयसे छोड़ देती है ॥ ३८ ॥ इसके विपरीत जो पुरुषार्थी हैं, दीनताको पासतक नहीं फटकने देते हैं, सदा हो किसी न किसी कार्यमें जुटे रहते हैं, शास्त्र ज्ञानमें जो पारंगत हैं, शान्ति और उदारता जिनका स्वभाव बन चुकी हैं, सत्य जिनका सहचर है, शौच जिनका कबच है और दम जिनका दण्ड है तथा उत्साह हो जिनकी श्वास है ऐसे कर्मया गियोंके पास सम्पत्तियाँ स्ययं ही दौड़ी आती हैं ॥ ३९ ॥ १. [ वित्तं ] । २. [ सर्वानह्मोशितेति ] । For Private Personal Use Only एकोन श: सर्गः [ ५९१] Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग एकोन चरितम् भृत्यांश्च मित्राण्यथ कोशदण्डानमात्यवर्गाज्जनतां च दुर्गान् । बुधैश्च पूजा यदि वाञ्छसि त्वं कुर्वात्मनात्मानमतीव पात्रम् ॥ ४० ॥ भूयोऽहतां शासनमागमस्थान्सज्ज्ञानचारित्रतपोविशुद्धान् । चविध संघमथात्मशक्त्या भजस्व सन्मानय सादरेण ॥४१॥ गुणैरुपेता गुरवो बहुजा ये शिष्य'यन्त्यात्मसुतान् हिताय । सतत्त्वसवं बहु शिष्ययित्वार समर्पयामास सुतं गुरुभ्यः ॥ ४२ ॥ ततो नृपैर्मन्त्रवरप्रधानः सामन्तमुख्यैरभिषिच्य सार्धम् । बबन्ध पढें स्वयमेव राजा प्रजाहितार्थ कुलवृद्धये च ॥४३॥ त्रिंशः सर्गः सफलताकी कुंजी यदि आज्ञाकारी सेवक चाहते हो, अभिन्न हृदय मित्र चाहते हो, असीम कोश, अनुल्लंघ्य दण्ड, राज्यभक्त आमात्य, एवं सदा अनुरक्त प्रजाकी अभिलाषा करते हो, अमेद्य किलोंके नियंत्रण करनेको उत्सुक हो, तथा इन सबसे भी बढ़कर विद्वानोंके द्वारा समर्पित सन्मानको प्राप्त करनेके लिए उत्कंठित हो तो अपनी निजी साधनाके द्वारा अपने आपको इस सबका पात्र बनाओ ।। ४० ॥ लौकिक योग्यताओंके अतिरिक्त, भगवान अर्हन्तके द्वारा उपदिष्ट धर्मको मत भूलो। जो शास्त्रज्ञ हैं उनकी सत्संगति करो। जो तपस्वी सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक-चारित्र रूपी आभूषणोंसे भूषित हैं उनका सहवास करो, तथा मुनिआयिका, व्रती श्रावक तथा श्राविकाओंसे युक्त चतुर्विध संघको जब-जब अवसर मिले अपनी सुविधा तथा शक्तिके अनुसार। सादर वन्दना करो ॥ ४ ॥ जो गुरुजन स्वयं गुणी तथा विद्वान होते हैं वे अपने पुत्रको उसके हो कल्याणके लिए अपनी बहुज्ञताके अनुकूल उपदेश देते हैं । इसी परम्पराके अनुकूल वरांगराजने जो-जो कुछ भी उपयोगी हो सकता था वह सब कुमार सुगात्रको भलीभाँति समझाकर उसे अपने पूर्वजोंको सौंप दिया था ।। ४२॥ 'राज्य दियो बड़भागी' अन्तिम उपदेश समाप्त होनेके उपरान्त हो वरांगराजने गुरु तथा मित्र राजाओं, प्रधान आमात्यों, मंत्रियों, प्रधान सामन्तों तथा श्रेष्ठी और गणोंके प्रधानों के साथ कुमार सुगात्रका राज्याभिषेक स्वयं किया था, क्योंकि ऐसात्रैकरनेसे ही उनका अपना वंश चलता रह सकता था और प्रजाका हित भो हो सकता था। अभिषेक-विधि पूर्ण होते ही वरांगराजने अपने हाथोंसे Aही कुमार सुगात्रको राजका पट्ट बाँधा था ॥ ४३ ।। १. [ शिक्षयन्त्यात्ष°] । २. [ शिक्षयित्वा] । १९२] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोन चरितम् मुक्तावली रलपरीतमध्यां कण्ठे च देवेन्द्रधनविचित्राम् । सूर्यप्रभाहूपितसत्किरोटं' निधाय पुत्रस्य हि मूनि तस्य ॥ ४४ ॥ श्वेतातपत्रं शरदभ्रशुभ्रं दधार भास्वद्वरहेमदण्डम् । अष्टार्धसच्चामरहेममूलं व्युत्क्षेपयामास स सुन्दरीभिः ॥ ४५ ॥ तेषां तु मध्ये वसुधाधिपानां स्वबाहुवीर्योजितसद्गुणानाम् । रेजे सुगात्रो नवराज्यलक्षम्या कान्त्या ग्रहाणामिव शीतरश्मिः ॥ ४६॥ नेदुः समन्ताबृहदभ्रनादा मृदङ्गभेरीपटहाः सशङ्खाः । उत्कृष्टनादां जनतां चकार लब्धेश्वरा भूवनिता तुतोष ॥ ४७॥ बाराममा त्रिशः सर्गः नूतन राजाका सम्मान उसे मोतियोंकी माला पहनायो थो जिसमें बीच-बीच में अद्भुत रत्न पिरोये हुए थे तथा उसके मध्यभागमें परम मनोहर विचित्र इन्द्रधनुष पड़ा हुआ था। राजा सुगात्रके शिरपर जो मुकुट रखा गया था उसको प्रभासे मध्याह्नके सूर्यका उद्योत भी। लजा जाता था ॥ ४४ ।। राजा सुगात्रके शिरपर जो धवल निर्मल छत्र लगाया गया था वह शरत्कालोन मेघोंके समान निर्मल तथा आकर्षक था, उसका दण्ड उत्तम निर्दोष सोनेका बना था तथा ( आठके आधे अर्थात् ) चार चमर भी सुन्दरियोंके हाथोंसे उसपर ढुरवाये । गये थे । इन चमरोंकी डंडियाँ भी सोनेसे बनी थीं ।। ४५ ॥ उस राजसभामें एक, दो नहीं अनेक ऐसे राजा विराजमान थे जिन्होंने अपने भुजबलके सहारे हो विशाल राज्य तथा महापुरुषोंके लिए आवश्यक गुणोंको अजित किया था, तो भी नूतन राजलक्ष्मीसे संयुक्त होकर सुगात्रको कान्ति इतनी अधिक बढ़ गयी थी कि वह उस समय वह ऐसा मालूम देता था जैसा कि ग्रहोंके बीचमें चन्द्रमा लगता है ।। ४६ ।। राज्याभिषेक महोत्सव राज्याभिषेकको घोषणा करनेके लिए उस समय पूरी आनर्तपुरोमें हर ओर मृदंग और दुंदुभियाँ बज रही थीं। इनसे विशाल मेघोंकी गर्जना सदृश गम्भीर नाद निकल रहा था। आनन्द विभोर जनता भी उच्च स्वरसे 'जय, जीव', आदि शब्दोंF को कर रही थी तथा ऐसा प्रतीत होता था कि नूतन सुयोग्य पतिको पाकर पृथ्वी रूपी तरुणी भी परम संतुष्ट थी हो गयी थी ॥४७॥ १.क सत्तिरीटं। २. क हेममालं। ३. [ नादाञ्जनता] । Jain Education intemational ७५ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् HEE-SHASRASHear ततो नृपो निर्वृतिसौल्परामः स्वपुत्रसंक्रामितराज्यभारः । विमुक्तसंगः स्वजनेन साधं जगाम तूर्ण जिनदेवगेहम् ॥ ४८ ॥ तत्रार्हतामप्रतिशासनानामष्टाह्निको शिष्टजनैश्च जुष्टाम् । यमोपवासा व्रत यन्त्रितात्मा चकार पूजां परयाविभूत्या ॥ ४९ ॥ पूजावसाने प्रतिमापुरस्तात् स्थित्वा महीन्द्रः सुविशुद्धलेश्यः । स्तुत्वा जिनानां तु गुणानुदाराजग्राह शेषां मुदितान्तरात्मा ॥५०॥ स्तोत्रावसाने प्रणिपत्य देवान्प्रदक्षिणीकृत्य जिनेन्द्रगहम् । आरुह्य राजा शिविकामना दिवाकरांशुद्युतिहारिणी ताम् ॥ ५१॥ एकोनत्रिंशः सर्गः -PAPAITESHPagesameepa 'छोड़ वसे वन' राज्यारोहण संस्कारके समाप्त होते ही सम्राट वरांग, अपने आत्मीयजनोंके साथ तुरन्त ही जिनालयको ओर चल दिये थे, क्योंकि वैराग्यमें जो अनुपम सुख है उसपर ही उनका आकर्षण था। अपने सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्रको उन्होंने समस्त राजपाट सौंपकर उसके दायित्वोंसे मुक्ति पा ली थी॥ ४८ ॥ इन उपायोंसे उन्होंने आभ्यन्तर और बाह्य दोनों परिग्रहोंसे छुट्टी पा ली थी। जैसा कि पहिले कह चुके हैं सम्राट वरांगको विश्वास था कि जैनधर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है फलतः उन्होंने उस धर्मके आदर्श अर्हन्त प्रभुको शिष्ट पुरुषोंके साथ अष्टाह्विक पूजाकी थी इस पूजाकी महार्घ सामग्री तथा अलौकिक सजधज अभूतपूर्व थो। पूजाके दिनोंमें वरांगराजने उपवास, व्रत तथा यम ( जीवन पर्यन्त त्याग ) ग्रहण करके अपने आत्माको सब दृष्टियोंसे नियंत्रित कर दिया था ॥ ४९ ।। अष्टाहिकपूजा । इस कठोर साधनाने वरांगराजकी दोनों लेश्याओं ( वर्ण-विचारों ) को अति विशुद्ध कर दिया था। जब पूजाविधि समाप्त हुई तब सम्राट आनन्दनिभोर होकर वीतराग प्रभुकी मूर्तिके सामने खड़े हो गये थे । भक्तिसे द्रुत होकर वे कर्मजेता जिनेन्द्र- के विशाल गुणोंकी स्तुति कर रहे थे और एक विचित्र अन्तरंग सुखका अनुभव करते हुए उन्होंने पूजाकी शेषा ( आशिष ) E को ग्रहण किया था ॥ ५० ॥ जब स्तोत्र पाठ समाप्त हो गया तब उन्होंने जिनविम्बको साष्टांग प्रणाम किया था। इसके उपरान्त पूरे जिनालयकी । मयमाRELATELLITERSanatanALARIA ५९४१ For Private &Per Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् अत्युच्छ्रितैः केतुभिरुज्ज्वलातः सितातपत्रैर्वरचामरैश्च । ध्वजैरनेकर्नयनाभिरामैगच्छन्बभौ शक्र इवावनीन्द्रः ॥ ५२ ।। मदनशब्दैः पटहस्वनैश्च शतप्रणादैगजवाजिघोषैः । पुण्यैर्वचोभिर्वरमागधानामभूद्धवनिः क्षुब्धसमुद्रतुल्पः ॥ ५३॥ पौरैजनवर्षच'रैरमात्यः सामन्तवगै पपुङ्गवैश्च । पदातिनागाश्वरथाधिरूढैवतो गृहेभ्यो निरगान्नरेन्द्रः ॥ ५४ ॥ रथैश्च काश्चिद्वरवाजियानैर्मनोहराभिः शिविकाभिरन्याः । धर्मक्रियायां विनिवेश्य बुद्धि नृपाङ्गना भूपतिनैव याताः ॥ ५५ ॥ तीन प्रदक्षिणाएं की थीं। इस प्रकार अन्तिम पूजाको समाप्त करके वे जिनालयके बाहर आये थे और उस पालकीपर आरूढ़ हुए थे जिसकी प्रभा सूर्यकी प्रखर किरणोंके उद्योतका भो तिरस्कार करती थी।। ५१ ।। महा-निष्क्रमण वरांगराजकी पालकीके आगे-आगे गगनचुम्बी केतु लहराते जा रहे थे। उस समय भी पालकीके ऊपर धवल निर्मल छत्र शोभा दे रहा था तथा चमर दर रहे थे। इनके अतिरिक्त आगे-पीछे अनेक ध्वजाएं फरफरा रही थीं, इनकी शोभा नेत्रोंमें घर कर लेती थी। इस दम्भहीन रूपसे वनको जाता हुआ राजा इन्द्र के समान लगता था ।। ५२ ।। 'तिन पद घोकहमारी' मृदंग जोरसे पिट रहे थे, पटहोंकी ध्वनि भो तीव्र ओर गम्भीर थी, शंखोंकी घोषणा आकाशको व्याप्त कर रही थी। हाथियोंकी गम्भीर चिंघाड़ थी, घोड़े हिनहिना रहे थे, तथा मागध जातिके देव वैराग्य भावनाको पुष्टिमें सहायक पुण्यमय कीर्तन करते जा रहे थे। इन सब ध्वनियोंने मिलकर उस रोर (तीव्र ध्वनि) को उत्पन्न कर दिया था जो कि समुद्रके क्षुब्ध होनेपर होता है ।। ५३ ।। बड़े-बड़े माण्डलिक राजा, प्रधान आमात्य, सामन्तोके झुण्ड, अनेक श्रेष्ठ नृपति, आनर्तपुरके नागरिक, अन्य सेवक तथा अनुरक्त जनोंके साथ ही सम्राट वरांग अपने राजघरसे बाहर हुए थे। उस समय भी उनको पदाति, गजारूढ़, अश्वारोही तथा रथिकोंकी सेना घेरे हुए थी ।। ५४ ।। यथार्थ धर्मपत्नी सम्राट वरांगकी सब ही रानियोंने धर्मसाधनामें ही अपने चित्तको लगा दिया था अतएव वे सब भी प्राणपतिके साथ१. [ °वर्षघरै ]। ( ५९५] Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकोनপি: नपं प्रयातं प्रसमीक्ष्य केचिद्धर्मप्रियाः पौरजनाः प्रहृष्टाः । केचित्पुनर्मोहमहातमोऽन्धा दुर्बुद्धयोऽत्यल्पतमा निनिन्दुः ॥ ५६ ।। मत्स्यामिषाभ्यां च यथा शृगालः प्रवञ्चितो लोभतया विमूढः । यथा च नारी युवरूपलब्धा' भ्रष्टोभयाभ्यां पतितस्कराभ्याम् ।। ५७ ॥ तथा नरेन्द्रो विपुलांश्व भोगान्प्रत्यक्षभूतं प्रविहाय बालः । परोक्षमिच्छन्सुरसौख्यमोक्षं प्रवच्यते जम्वुकपुश्चलीवत् ॥ ५८ ॥ स्वर्गोऽस्ति नास्तीति कथं हि शक्यं श्रद्धानुसज्ज्ञानवचां वयो यत् । इतो गतो वा तत आगतो वा पुमान्यदि स्यात्तदिह प्रमाणम् ॥ ५९॥ साथ गृह छोड़कर चल दी थीं । कोई-कोई रानियाँ उत्तम रथोंपर आरूढ़ थी। उन रथोंमें सुन्दर तथा सुलक्षण घोड़े जुते हुए थे। शेष रानियोंने पालकियोंपर बैठना ही पसन्द किया था। ये पालकियाँ बड़ी ही मनोहर थीं ॥ ५५ ॥ भोग विलासको ठुकराकर वनको प्रयाण करते हए वरांगराजको देखकर, सदाशय पुरुष जिन्हें धर्ममें श्रद्धा थी वे बड़े प्रसन्न हुए थे। कुछ ऐसे भी दुर्बुद्धि थे जो उनकी निन्दा करते थे क्योंकि मोहरूपी महा अन्धकारने उनका ज्ञाननेत्र ही फोड़ दिया था, इसो कारण उनके हृदय इतने पतित हो गये थे ।। ५६ ।। खलजन वे कहते थे कि 'राजा उस मूर्ख शृगालके समान है जिसने लोभमें आकर जलमें मछली पकड़नेके लिए मुख खोलकर दोनों ( मुखकी वस्तु तथा मछलो )से हाथ धोये थे। अथवा उस कामिनीके समान है जो एक युवकके रूपपर मोहित हो गयी थी किन्तु थोड़ी-सी असावधानीके कारण पति तथा चोर (प्रेमी ) दोनोंके द्वारा छोड़ दो गयी थी। ५७।। यही गतिविधि वरांगराजकी दिखती है-ये सामने पड़े हुए विपुल वैभव तथा असीम भोग सामग्रीको इसलिए छोड़ रहे हैं कि इन्हें देवगतिके शुद्ध सुख तथा अतीन्द्रिय मोक्षसुख प्राप्त हो। इनसे बड़ा मूर्ख कौन होगा ? इन सुखोंको किसीने देखा। भी है । ये भी शृगाल और पुश्चलीके समान उभयतः भ्रष्ट होंगे ।। ५८ ।। नास्तिकमत स्वर्ग है अथवा नहीं है इस सिद्धान्तपर कैसे आस्थाको जा सकती है ? क्योंकि यह सब कल्पनाएँ उन लोगोंकी हैं जिन्हें । पहिले किसी बातपर श्रद्धा हो गयो थी तथा बादमें उसीकी पुष्टिमें उन्होंने अपने ज्ञानका उपयोग किया था। सत्य तो १. म लब्धा। २. [ ° भतान्प्रविहाय ]। ३. क °वचा चचो, [ वतां वचो ] । [५९६) Jain Education international For Privale & Personal use only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एकोनत्रिंशः विमुच्य हस्तागत'मर्थकज्ञो वनेऽन्यमथं मगयेति कश्चित । इदं हि राज्यं प्रविसृज्य वाञ्छेददृश्यमिन्द्र त्वमवाप्तुमज्ञः ॥ ६॥ सुसिद्धमन्नं प्रविहाय कश्चित्पुनः प्रपक्तुं घटते विचेताः । सयादा न वा संशयित तदन्नं राज्यं तथा सिद्धमसिद्धमैन्द्रम् ॥ ६१ ॥ पञ्चेन्द्रियाणां विषयाश्च पञ्च ते सेवितव्या इति सत्प्रवादः । सत्स्विन्द्रियेष्वर्थतमेषु सत्सु किमन्यमर्थान्तरमार्गयेद्वा५ ॥ ६२॥ अहो नपोऽयं निरपेक्षितार्थो व्यामोहितात्मा बत किं करोति । न कञ्चिदस्यात्महितस्य वक्ता बन्धः सखा वा खलु विद्यतेऽत्र ।। ६३ ।। यह है कि यदि यहाँसे गया कोई व्यक्ति अथवा स्वर्गसे आया कोई प्रत्यक्ष दृष्टा इसका समर्थन करता तब तो इसे प्रमाण मान सकते है ।। ५९॥ __ जो मूढ है वही हाथमें आयी वस्तुको छोड़कर वनको दौड़ता है और वहाँपर किसी व्यर्थ पदार्थके पीछे टक्कर मारता फिरता है जो व्यक्ति इतने विशाल सम्राजको छोड़कर उस इन्द्रपदकी कामना करता है जिसे किसीने देखा भी नहीं है उसे मूर्ख न कहें तो और क्या कहें ॥ ६ ॥ उत्तम विधि पूर्वक रांधे गये सुस्वाद तथा पवित्र प्रस्तुत भोजनको थालीको पैरसे ठुकराकर जो अज्ञ व्यक्ति भोजनको फिर किसी प्रकारसे पकाना प्रारम्भ कर नीरस करता है जिसमें यह भी संभव है कि उससे पकाया गया भोजन पहिले पकेगा भी या नहीं तथा पक कर भी खाने योग्य होगा या नहीं ? यही परिस्थिति हमारे राजाकी है, आनतपुरका विशाल राज्य सामने हैं इन्द्र पदको कौन जानता है, और जाननेसे भी क्या प्रयोजन ? क्योंकि इन्हें वह प्राप्त हो ही जायगा ऐसा विश्वास कौन दिला सकता है ? ।। ६१ ॥ यावज्जीवं सुखं जीवेत् पाँचों इन्द्रियोंके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये पाँच विषय हैं । संसारमें यह सल्य मानता भी चली आ रही है कि इन विषयोंका यथेच्छ सेवन करना चाहिये । इन्द्रियोंको परम प्रिय पदार्थ अधिक मात्रामें उपलब्ध हों, तो फिर क्या आवश्यकता है कि कोई भी समझदार व्यक्ति दूसरे पदार्थोंको खोजता फिरे ।। ६२ ॥ हमें तो इस राजाको देखकर आश्चर्य होता है, प्रतीत होता है कि इसकी बुद्धि बिगड़ गयी है, इसीलिए उपादेय भोग १. [°गतमर्थमज्ञो, 'गतमर्थक यो]। २. [ मृगयेत ] । ३. म स्याद्वादवासंशयितुं । ४. [ संशयितं ]। ५.[°मापयेद्वा] ame-THE-HAAREETTEAHEATRESEARLITERATURE-STREAMERI [५९७1 Jain Education interational Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S एकोन बराज चरितम् इत्यवमादीनि वचास्यथोच्चैः प्रभाषमाणानफलानभार्यान्।। भद्राः प्रकृत्या श्रुतधर्मतरवा विलोक्य तेभ्यः पुनरिथमचुः ॥ ६४ ॥ धर्मात्सुखैश्वर्यधनानि लोके लभन्त इत्येव कथा ततान। कुतो भवन्तः समुपागता वा जडा वकज्ञा श्रुतिबाह्यभूताः ॥६५॥ शालोक्षुगोधूमयवादिधान्यं बोजाद्विना नाङ्करतामुपैति । तपोमयं बीजमथायनीय: स्वर्मोक्षसौख्यं लभते न कश्चित् ॥६६॥ पूजा तपः शीलमपि प्रदानं चत्वारि बीजानि सुखस्य लोके । उप्त्वा नरास्तानि महीतलेऽस्मिन् कमेण धीराः सुखभागिनः स्युः ॥६७॥ त्रिंशः सर्गः विषयोंको छोड़ रहा है, समझमें नहीं आता यह सब क्या कर रहा है? ज्ञात होता है कि इसका कोई भी सगा सम्बन्धी अथवा मित्र ऐसा नहीं है, जो साहस करके इसे समझाये कि वास्तवमें हित क्या है ।। ६३ ।। अज्ञानी ऐसे अनेक वचनोंको सम्राटकी समालोचनामें जोर-जोरसे कह रहे थे। उनके ये सब उद्गार निरर्थक ही थे, पर अनार्योंसे और आशा ही क्या की जा सकती थी ? किन्तु ऐसे भी साधु पुरुष थे जो स्वभावसे ही सज्जन थे, जिन्होंने धर्मशास्त्रके तत्त्वोंका गम्भीर मनन किया था। राजपाट छोड़कर दीक्षा लेनेके लिए जाते हुए सम्राट वरांगपर जब उन लोगोंकी दृष्टि पड़ी तो उन्होंने उन मूढ़ प्राणियोंको उद्देश्य करके कुछ वचन कहे थे ।। ६४ ॥ नीतिनिपणाः स्तुवन्तु _ 'जगतके जन्ममरण चक्रमें पड़े जीव धर्ममय आचरण करके ही स्वास्थ्य, यश, स्नेही कुटुम्ब आदि सुखों, प्रभुता तथा विविध सम्पत्तियोंको प्राप्त करते हैं, इस विश्व विख्यात सिद्धान्तको कौन नहीं जानता है ? पूर्व कर्मोंके बिना अपने आप ही लोग किस कारणसे अपनो वर्तमान पर्यायको पा सके हैं ? आप लोगोंकी मूर्खता वास्तवमें दयनीय है जो आप लोग ऐसी बातें कर रहे। हैं, जिनका आगमसे समर्थन नहीं होता है ।। ६५ ।।। बड़ी साधारण-सी बात है कि धान, ईख, गेहूँ, जौ, आदि जितने भी अनाज हैं, यदि इनके बीज न हों तो किसीकी क्या सामर्थ्य है कि अंकुर उगा दे। इसी प्रकार तपस्या रूपी बीजको त्याग कर यह कभी भी संभव नहीं है कि जीव स्वर्ग और मोक्षरूपी फलोंका स्वाद पा सके ।। ६६ ।। [५९८ जो सुखरूपी फलोंको खानेके लिए उत्सुक हैं उन्हें जानना चाहिये कि जिनपूजा, शुद्ध तप, आदर्श शील तथा विधि१. [ °फलानभद्रान् ] ! २. [ बीजमथापनीय ] । EARSHURARIHIRDERERatnaSERIES Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् कान्तिद्युतिज्ञानविभूतियुक्तं सुखान्वितं धान्यधनान्वितं च । समीक्ष्यमाणोऽपि नरो नरं तं सुपुण्यवानेष इति ब्रवीति ॥ ६८॥ पुराजितश्रीस्तपसां फलेन इहोपभुङ्क्ते मनुजः सुखानि । कृत्वेह पुण्यानि महाफलानि सुरासुराणां कुरुते तदैश्यम् ॥ ६९ ॥ एवं च पूर्वाजितपुण्यपाकादिमां विदित्वा नृपतां नरेन्द्रः। विहाय तां देवपतित्वमीप्सुर्वनं प्रयातीति च केचिद्रचः ॥ ७० ॥ त्यजन्ति येऽर्थान्महतश्च भोगांस्त एव धन्याः पुरुषाश्च लोके । वयं पुनस्तानसतोऽप्यपुण्यास्त्यक्तु न शक्ता इति केचिदूचुः ॥७१॥ एकोनবি: सर्गः पूर्वक दान ये चारों हो सुखरूपी वृक्षके बीज हैं । जो पुरुषार्थी पुरुष इन बोजोंको अपने वर्तमान जीवनरूपी भूमिपर बो देंगे, वे धीर वीर पुरुष ही इस जन्म तथा अगले जन्मोंमें यथेच्छ सुखोंका निरन्तराय भोग कर सकेंगे ।। ६७ ।। पुण्यात्मा पुरुषको देखकर ही गुणी पुरुष कह उठते हैं कि यह मनुष्य शुभकर्मोंका कर्ता है। क्योंकि उसके शरीरकी कान्ति, मुख मण्डलकी द्युति, प्रत्येक विषयका प्रामाणिक ज्ञान, साथ-साथ चलता हुआ वैभव, उसके आसपासका सुखमय वातावरण, धन तथा अतुल धान्य, आदि ही उसके पूर्व जन्मके शुभकर्मोंका पूर्ण परिचय देते हैं ।। ६८ ॥ पूर्व भवमें जो आन्तरिक श्री ( शान्ति, दया आदि ) तथा तपस्या संचित की जाती है, उसीका यह फल है कि मनुष्य अपने वर्तमान भवमें सब प्रकारके सुखों तथा भोगों का आनन्द लेता है । तथा जो व्यक्ति अपने वर्तमान जीवनमें ऐसे-ऐसे विशाल पुण्यकार्य करता है जिनका परिपाक होनेपर महा फल प्राप्त हो सकते हैं। वही मनुष्य अपने भावी जीवनमें देवों तथा असुरोंकी प्रभुताको प्राप्त करता है ॥ ६९ ।। सम्राट ज्ञानी हैं इसी क्रमको समझ सकनेके कारण सम्राट वरांग जानते हैं कि उनके समस्त वैभव पूर्वभवमें आचरित शुभकर्मों के परिपाक होनेके कारण ही उन्हें प्राप्त हुए हैं। किन्तु वे अगले जन्ममें देवोंके राजा इन्द्र होना चाहते हैं इसीलिए इस विशाल सम्राजP की लक्ष्मीको छोड़कर तपस्या करनेके लिए वनको प्रयाण कर रहे हैं ।। ७० ॥ धन्य यह सुबुद्धि इस लोकमें वे पुरुषसिंह ही धन्य हैं जा कुवेर सदृश विशाल सम्पत्ति तथा इन्द्रतुल्य प्रचुर भोगविषयोंकी सामग्रीको भी १. म तबैश्चम् । CRETARIETARIALLETTERPRIL Jain Education international Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् किमास्महे स्वामिनि संप्रयाते वयं हि तेनैव सहाभियामः । इति प्रतिज्ञामभिगा केचित्तारेभिरे गन्तुमदीनसत्त्वाः ॥ ७२॥ एवं हि पौरेरपरीक्षिताथैः स्वचित्तसंकल्पितवाक्प्रलापैः। निगद्यमानो नृपतिर्जगाम पुरादबहिनिर्गतरागबन्धः ॥ ७३ ॥ पुरं क्रमेणाप्रतिधीर्व्यतीत्य वनं च नानाद्रुमपुष्पकीर्णम् । रक्तोत्पलैर्वाकुलिताभ्रवृन्दैर्नपः प्रपेदे मणि'मन्त्रसिद्धम् ॥ ७४ ।। तं पर्वतं ज्ञानतपश्चरित्रैविस्तीर्णकीति, निरध्युवास । गणाग्रकेतुर्वरदत्तनामा सविग्रहो धर्म इव द्वितीया ॥ ७५ ।। एकोनत्रिंशः सर्गः बिना हिचकिचाहटके छोड़ देते हैं। हम लोगोंके आन्तरिक पतनकी भी कोई सीमा है ? जो हम लोग कुछ भी पास न होनेपर भी भोगविषयोंके संकल्प तथा आशाको भो नहीं छोड़ सकते हैं ।। ७१ ।। जब कि कितने ही लोग इन ज्ञानमय उद्गारोंको कहकर हो तुष्ट हो गये थे तब ही कितने ही पुरुष जिनका आत्मा मरा न था तथा जिनका आत्मबल दीन न हुआ था वे कह उठे थे-अरे! सम्राट जा रहे हैं और हम हाथपर-हाथ धरे बैठे हैं ? हम भी उन्हींके साथ जायेंगे और दीक्षा ग्रहण करेंगे। इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करके वे भी सम्राटके साथ चल दिये थे॥७२॥ समर्थ ज्ञानी उस समय नागरिकोंके मनमें जो-जो भाव आते थे उन सबको वे अपने वचनों तथा कल्पनाओंसे व्यक्त करते थे। यही कारण था कि उनके पूर्वोक्त उद्गारोंमें किसी भी विषयके विवेचनकी छायातक न थो । पौर-जन अपने मनोभावोंको व्यक्त करने में लीन थे और वरांगराज धीरे-धीरे चलते हुए नगरके बाहर जा पहुंचे थे, क्योंकि उनके राग तथा द्वेषके बन्धन टूट चुके थे ।। ७३ ।। सो सब नोरस लागे वरांगराज धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाते थे, आनर्तपुर उनके पोछे रह गया था, इसी क्रमसे वे नाना जातिके वृक्षों तथा पुष्पोंसे व्याप्त वनोंको भी पार करते जा रहे थे । इन बनोंमें विशाल निर्मल तालाब थे जो कि लाल कमलोंसे पटे हुए थे। पर सम्राटको इन सबका ध्यान नहीं था क्योंकि उनकी बुद्धि तपमय ही हो रही थी। इस गतिसे चलते-चलते वे मणिमन्त ( पर्वतका नाम ) सिद्धाचलपर जा पहुंचे थे ।। ७४ ।। [६००] गुरुदर्शन यह वही पर्वत था जिसके ऊपर श्री वरदत्त केवली महाराज विराजमान थे । वरदत्त केवली भगवान अरिष्टनेमिके। १. क मणिमत्व। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराज चरितम् केवलज्ञानविशुद्धचक्षुर्महर्षिविद्याधरदेवतार्यः । धर्मामृतं भव्यजनाय यच्छन्लभौ मुनिर्भरुरिवातितुङ्गः॥ ७६॥ अदूरतस्तं समवेक्ष्य भूपाः स्ववाहनेभ्यस्त्ववतीर्य तुर्णम् । प्रदक्षिणीकृत्य विशद्ध भावा नेमः शिरोभिम निसत्तमं तम् ॥ ७७ ॥ वराङ्गराजः शमितात्मरागः प्रणम्य पादौ वरदत्तनाभ्रः। स्थित्वा पुरस्तादभिजातहर्षः कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं जगाद ॥ ७८ ॥ सर्वज्ञ सर्वाचित सर्ववन्द्य सर्वाश्रमाणां परामाश्रमस्थ । शरण्यभूत त्रिजगत्प्रजानां संसारभीतः शरणागतोऽहम् ॥ ७९ ॥ एकोनत्रिंशः सर्गः SAIRSUTARISHAIRATRAILERatna गणधरोंके प्रधान थे, उनके परिपूर्ण ( केवल ) ज्ञान, तप तथा चारित्रकी विमल कीर्ति देश-देशान्तरोंमें छायी हुई थी ।। ७५ ॥ उनके दर्शन करते ही ऐसा लगता था कि वे शरीरधारी धर्म हो थे। उनको शुद्ध तथा सर्वदर्शी आँख 'केवलज्ञान' ही था, वे इतने बड़े महर्षि थे कि विद्याधर और देव भी सतत उनकी पूजा करते थे। वे भव्यजीवोंके कल्याणके लिए सदा ही धर्मोपदेश रूपी अमृतकी वृष्टि करते रहते थे। उनका ज्ञान तथा चारित्र इतना विशुद्ध था कि वे मनुष्योंमें सुमेरुके समान उन्नत प्रतीत होते थे ।। ७६ ॥ ज्यों ही राजा लोग पर्वतके निकट पहुँचे और उनकी दृष्टि महाराजके श्रीचरणोंपर पड़ी त्यों ही वे सबके सब एक क्षणमें ही अपने वाहनोंपर से उतरकर भूमिपर आ गये थे। तुरन्त ही उन सबने मुनिराजको तीन प्रदक्षिणाएं की थी और मुनिराजके चरणोंमें अपने मस्तकोंको झुक कर प्रणाम किया था ।। ७७ ।। वरांगराज भी बड़े भक्तिभावसे श्री केवलीमहाराजके चरणोंमें प्रणाम करके उनके सामने विनम्रता पूर्वक जा बैठे थे। उस समय उनके हर्षका पार न था, मुनिराजके शान्त प्रभावसे उनका मोह और भी शान्त हो गया था । यही कारण था कि वे हाथ जोड़ कर बैठे थे और अवसर मिलते ही उन्होंने अपने मनोभावोंको महाराजपर प्रकट कर दिया था ।। ७८ ।। गुरु प्रार्थना हे सर्वज्ञदेव ? आप मनुष्य, विद्याधर, देव सब हीके पूज्य हैं। संसारके प्राणी आपकी वन्दनाके लिए तरसते हैं। आप म स्वयं सर्वोत्तम आश्रम ( सयोगकेवली अवस्था ) को प्राप्त कर चुके हैं यही कारण है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास इन चारों आश्रमोंके मनुष्य आपकी पूजा करते हैं। तीनों लोकोंके जीवोंके लिए आप ही एकमात्र आधार हैं। मैं स्वयं संसारसे डरा हुआ हूँ इसीलिए त्राण पानेके लिए आपकी शरणमें आया हूँ॥ ७९ ॥ S Jain Education Interational Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् एकोन चतुर्गतीनामसुखान्वितानां योनिष्वनेकासु चिरं भ्रमित्वा । दुःखान्यनेकान्यनुभूय तत्र श्रान्तो भवन्तं शरणागतोऽस्मि ॥ ८०॥ नालिङ्गितो यो रजसा कदाचिन्नोपप्लुतो जन्मवियोगशोकः । मृत्योरनालोढपदप्रचारो नयस्व मां देशमुषे तमाशु ॥१॥ मुनीन्द्रस्तदनुग्रहायावदन्महामेघगभीरनादः । यथा सुखं त्वं विषयेषु राजन्नास्स्व प्रसाक्षीरिति संदिदेश ? ॥२॥ विशुद्धजात्यादिसुदुर्लभत्वं सद्धर्ममार्गे प्रतिबोधनं च । विमुक्तिधर्माभिसुदुष्करत्वं सर्वं तदाचष्ट गणप्रधानः॥८३॥ त्रिंशः ततो सर्गः AwareneHAHERAPIRPAHPAHeaeaterative दारुणसे दारुण दुखोंके भण्डार नरक आदि चारों गतियोंकी असंख्य योनियोंमें अनादिकालसे टक्कर मार रहा हूँ। वहाँपर अनगिनते दुखोंकी ठोकरें खाते खाते मैं सर्वथा श्रान्त हो गया हूँ, अब, और एक पद भी चलनेकी सामर्थ्य शेष नहीं रह ॥ गयी है, इसीलिए आपकी शरणमें आया हूँ ।। ८०॥ हे ऋषिराज ! मुझे कृपा करके उसी देशमें ले चलिये जिसमें कुकर्मोकी धूलि उड़ती ही न हो, जिसकी शान्तिको भंग करके जन्म तथा मरणके तूफान न उठते हों तथा जिस पवित्र स्थानपर मृत्युकी गति ही नहीं, अपितु उसके चरणोंने छुआ भो न हो । हे प्रभो, देर मत करिये ।। ८१ ॥ चारित्रमेव वरांगराजकी उक्त प्रार्थनाको सुनकर केवली महाराजने उसके कल्याणको भावनासे प्रेरणा पाकर उसे समझाना प्रारम्भ किया था। महाराजकी कण्ठध्वनि विषयको गम्भीरताके अनुकूल मेघ गर्जनाके समान गम्भीर शान्त थी। उन्होंने कहा था-हे राजन् ! अब आप इन्द्रियोंके विषयों में लीन मत रहिये, अपनी शक्तिके अनुसार जितनी जल्दी हो सके उन्हें छोड़िये ।। ८२॥ गणधरोंके प्रधान श्रीवरदत्त केवलीने राजाको सब ही बातें समझायी थीं, विशेषकर यह दिखानेका प्रयत्न किया था कि विशुद्ध कुल, शरीर, मति आदि पाना कितना कठिन है, ये सब पाकर भी सत्य धर्मको पाना और उसे हृदयंगम करना और भी दुष्कर है, इतना यदि किसी उपायसे हो भी जाय तो सद्धर्मके पालन करनेकी प्रवृत्ति तथा अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेना तो अत्यन्त ही दुष्कर है ॥ ८३ ।। [६०२] Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तत्याज चेष्टाप्रधाना जगतः क्रियाश्च चेष्टावतां कर्म न चास्त्यसाध्यम् । चेष्टस्व तस्माल्लभते' यदिष्टं स्वर्गाविकं मोक्षसुखावसानम् ॥ ८४ ॥ विशालबुद्धिः श्रुतधर्मतत्वः प्रशान्तरागः स्थिरधीः प्रकृत्या । निर्माल्यमिवात्म राज्यमन्तःपुरं नाटकमर्थसारम् ॥ ८५ ॥ विभूषणाच्छादनवाहनानि पुराकरग्राममडम्बखेडेः । आजीवितान्तात्प्रजहौस बाह्यमभ्यन्तरांस्तांश्च परिग्रहाद्यान् ॥ ८६ ॥ अपास्य मिथ्यात्वकषायदोषान्प्रकृत्य लोभं स्वयमेव तत्र । जग्राह धीमानथ जातरूपमन्यैरशक्यं विषयेषु लोलैः ॥ ८७ ॥ लौकिक कार्य भी ऐसे हैं कि उनको पूर्ण करनेके लिए चेष्टा करनी पड़ती है तथा जो पुरुष सतत चेष्टा करते हैं उन उद्योग पुरुषों को ही सफलताका सुख मिलता है, अतएव हे राजन् ! आप भी उद्योग करें, उसकी कृपासे ही आपको स्वर्गं आदि सुखोंसे लेकर मोक्ष महासुख पर्यन्तके सब ही अभ्युदय प्राप्त होंगे ॥ ८४ ॥ सज्ज्ञानमेव वरांगराज सन्मति के अक्षय भंडार थे, धर्मके रहस्यको उन्होंने सुना तथा समझा था, सांसारिक राग उनका शान्त हो चुका था, किसी निर्णयको करके उससे न डिगना ही उनका स्वभाव था । अतएव उन्होंने विशाल साम्राज्यको वैसे ही छोड़ दिया था जैसे कोई निर्माल्य द्रव्यकी ममता करता ही नहीं है तथा अपने गुण तथा रूप युक्त अन्तःपुरको ऐसी सरलतासे भूल गया था जैसे ज्ञानी नाटक के दृश्योंको भूल जाते हैं ।। ८५ ।। नगर, खनिकोंके नगर, अडम्ब, खेड़ (ग्राम) आदिसे आरम्भ करके सम्राट वरांगने रथ आदि वाहन, बिछाने ओढ़नेकपड़े, भूषण आदि सब ही बाह्य परिग्रहों को ही नहीं उतार फेंका था अपितु इनकी अभिलाषा, राग, द्वेष, अपने जीवनका मोह आदि जितने भी आभ्यन्तर ( मानसिक) परिग्रह हो सकते थे उन सबको भी त्याग दिया था ॥ ८६ ॥ मिथ्या तत्त्वोंके श्रद्धान तथा कषाय जनित सब ही दोषोंको धो डाला था तथा लोभरूपी महा शत्रुको ( विवेक खड्गसे) काट डाला था । परम विवेकी वरांगराजने उस शुद्ध बुद्ध रूप ( दिगम्बरत्व) को धारण किया था जो कि जन्मके समय प्रत्येक जीवका होता है तथा जिसे वे पुरुष ग्रहण कर ही नहीं सकते हैं जिनकी विषयलोलुपता शान्त नहीं हुई है ॥ ८७ ॥ १ [ लभसे ] । एकोन त्रिशः सर्गः [ ६०३ ] Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज चरितम् अन्येऽपि सामन्तनुपा महान्तः कौटम्बिकाचा द्विजसार्थवाहाः । नरेन्द्रभक्त्यापितमानसास्ते प्रवव्रजुस्तत्र सहेव राज्ञा ॥८॥ नरेन्द्रदत्तो वसुमान्बनेशोऽप्यनन्तचित्रौ च मतिप्रगल्भाः। प्रवव्रजुः स्वाम्यनुरागबद्धा वणिग्वराः सागरवृद्धिमुख्याः॥९॥ ये भूमिपालाः सुकुमारगात्रा विचित्रभोगप्रतिबद्धसौख्याः । राज्यानि संत्यज्य महद्धिवन्ति कुर्वन्ति चैतेऽपि तपांसि धीराः॥१०॥ वयं प्रकृत्या विभवैविहीना नित्यं परप्रेषणतत्पराश्च । विशेषतः साधु तपश्चराम इत्येवमुक्त्वा हि परे प्रजग्मुः ।। ९१ ॥ एकोनत्रिंशः सर्गः च्यारियरामा eHARAPERealeHeSeareweresamese- am-e-Hear धर्ममें साथी सम्राटको दिगम्बर दीक्षा लेते देखकर दूसरे कितने ही राजाओं, सामन्तों, कूटुम्बियों, ब्राह्मणों, सेठों तथा अन्य उदाराशय व्यक्तियोंने भी उनके साथ ही प्रवृज्या ग्रहण कर ली थी, क्योंकि उनके चित्त उस समय भी राजाकी भक्तिसे ओतप्रोत थे ।। ८८॥ विपुल धनराशिका एक मात्र स्वामी, समस्त वनोंके उपजका एकमात्र अधिकारी नरेन्द्रदत्त, अनन्तसेन, चित्रसेन आदि राजाओंने दीक्षा ग्रहण की थी क्योंकि उनकी सूमति हित तथा अहितको परखने में पद थी। सागरवृद्धि आदि राष्ट्र के सब ही सेठोको सम्राट वरांगके प्रति इतना अधिक अनुराग था कि वही उन्हें उनके ( वरांगके) पथपर चलानेके लिए पर्याप्त था । ८९॥ . फलतः इन सब लोगोंने भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी। जिन पृथिवीपतियोंके शरीर अत्यन्त सुकुमार और कोमल थे। जिन्हें नित-नित नये-नये विचित्र भोगों तथा सूखोंका आस्वाद करानेका अभ्यास था। उन्हीं धीर-बीर पुरुषोंने उस दिन अपरिमित सम्पत्ति, सिद्धि तथा विलासके आधार विशाल राज्योंको ठकरा दिया था तथा मानसिक कल्पनाओंके शत्रु उग्र तप तथा भांति-भांतिके शारीरिक क्लेशको कर रहे थे । ९० ॥ "किन्तु हम तो जन्मसे ही विभव और प्रभतासे दर हैं, जीविकाको उपार्जन करनेके लिए प्रतिदिन दूसरोंके द्वारा इधर- उधर दौड़ाये जाते हैं, तब हम तो सरलतासे त्याग कर सकते हैं, फिर हम क्यों न तप करें" ऐसा कहकर कितने ही लोगोंने तुरन्त ही दीक्षा धारण कर ली थी ।। ९१ ॥ १. [ कौटुम्बिकाश्च ]. ६०४ Jain Education international Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् क्षितीन्द्रपल्यः कमलायताक्ष्यो विचित्ररत्नप्रविभूषिताङ्गघः । परीत्य भक्त्यार्पितचेतसस्ता नमः प्रकुर्वन्मुनयो प्रहृष्टाः ॥ ९२ ॥ ततो हि गत्वा श्रमाणाजिकानां समीपमभ्येत्य कृतोपचाराः । विविक्तदेशे विगतानुरागा जहुर्वराचो वरभूषणानि ।। ९३ ।। गुणांश्च शीलानि तपांसि चैव प्रबुद्धत्तत्त्वाः सितशुभ्रवस्त्राः । संगृह्य सम्यग्वरभूषणानि जिनेन्द्रमार्गाभिरता बभूवुः ॥ ९४ ॥ मन्त्रीश्वरामात्यपुरोहितानां पुरप्रधानद्धमतां गृहिण्यः । नृपाङ्गनाभिः सुगतिप्रियाभिदिदीक्षिरे ताभिरमा तरुण्यः ॥ ९५ ॥ पतिपरायणा पत्नियां सम्राट वरांगके साथ-साथ उनकी रानियाँ भी गयी थीं, यद्यपि वे विचित्र आभूषणों तथा रंग बिरंगे वस्त्रोंसे सुसज्जित तो भी उनकी कमलों समान सुन्दर, सुकुमार तथा बड़ी-बड़ी आँखोंसे वैराग्य टपक रहा था। उनका चित्त भक्ति रससे ओत-प्रोत था । धर्मं साधनका शुभ अवसर पा सकनेके कारण वे अत्यन्त प्रसन्न थीं । फलतः इन्होंने भी परिक्रमा करके ऋषिराजके चरणों में प्रणाम किया था ।। ९२ ।। इसके उपरान्त वे क्रमशः अन्य मुनियों और आर्यिकाओंके समीप गयी थीं, तथा आगमके अनुकूल विधिसे उस सबकी विनय तथा वन्दना की थी। वन्दना समाप्त होते ही वे सब सुन्दरियाँ किसी एकान्त स्थानमें चली गयी थीं और वहाँपर उन्होंने उन महा मूल्यवान आभूषणों आदिको उतारकर भूमिपर डाल दिया था ।। ९३ ॥ क्योंकि वे संसारकी ममता मोहको छोड़ चुकी थी । लज्जा ढकनेके लिए उन्होंने तब केवल एक श्वेत सारी धारण कर ली थी । सोने मणियोंके शारीरिक भूषणोंके स्थानपर उस समय उन्होंने महाव्रतीके गुणों तथा शीलों रूपी आत्माके भूषणोंको धारण किया था। धर्मके तत्त्वोंको भलीभाँति समझकर उन सबने जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट सत्य मार्गके विधिवत् पालनमें मन लगा दिया था ॥ ९४ ॥ अन्य विरक्त महामंत्रियों की पत्नियों, राजाके गुरुजनोंकी जीवन सहचरियों, आमात्य, पुरोहित, नगरके श्रेष्ठी तथा गणोंके प्रधानों तथा सम्पन्न नागरिकों की प्राणाधिकाओंने देखा कि अनन्त सुख भोगकी अधिकारिणी राज बधुएँ भी अपने अगले भवोंको सुधारने के लिए दीक्षा ग्रहण कर रही थीं फलतः उन सब तरुणियोंको विषयरत रहना अशक्य हो गया था और उन्होंने भी तुरन्त ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी ।। ९५ ।। १. [ प्रचक्रमु नये ] | For Private Personal Use Only एकोन त्रिंशः सर्गः [ ६०५] Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् NG THE G तपसूर इस घटनाक्रम जगत ने देखा था कि विशाल साम्राज्य दायित्वसे मुक्ति लेकर सम्राट वरांगने महाव्रत, साधुके गुणों ( कर्त्तव्यों ) तथा जैनी तपस्या के मार्गको अपना लिया था। यह सब देखकर ज्ञानमती तरुणी राजबधुएँ हृदयसे प्रसन्न ही हुईं थी तथा अपना कल्याण करनेके लिए उन सबने भी उम्र तपस्याका व्रत लिया था ।। ९६ । इति नृपतिरपास्य राज्यभारं व्रतगुणशीलतपांसि संबभार । प्रमुदितमनसश्च राजपत्न्यः परमतपांस्यभिदधिरे हिताय ॥ ९६ ॥ नृपनृपवनिताभिरुज्झितानि वरमकुटाङ्गदहारकुण्डलानि । अवनितलमुपागतानि रेजुः कुरुषु यथा तरुजानि भूषणानि ॥ ९७ ॥ नवशरदि भृशं सुपूर्णचन्द्रो व्यपगतमेघमलीमसाइच तारा । ग्रहणमिह 'तामलेवछर्धाः प्रतिविरराज मही विभूषणैस्तैः ॥ ९८ ॥ यतिपतिमभिवन्द्य सादरास्ते तदनु मुनीन्नवसंयतांश्च भक्त्या । नरवरवनिता विमुच्य साध्वीशमुपययुः स्वपुराणि भूमिपालाः ९९ । इति धर्म कथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थ संदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते वराङ्गदीक्षाधिकारो नामैकोनत्रिशतितमः सर्गः । सुकुमारी कन्तु विरक्त राजतरुणियों के द्वारा शरीर से उतारकर भूमि पर फेंक दिये गये उत्तम मुकुट, श्रेष्ठतम अंगद, महार्घ्यंहार, अद्भुत कुण्डल आदि भूषणोंसे पटी हुई भूमिको देखकर ( उत्तर तथा देव ) कुरु भोगभूमिकी याद आ जाती जहाँ पर कल्पवृक्षोंसे गिरे भूषन वसन भूमिपर पड़े रहते हैं ॥ ९७ ॥ हुई भूमिकी शोभा निर्मल शरद ऋतु में पूर्णिमाके चन्द्रमाकी शीतल ध्वल कान्तिका अपहरण करती थी । अथवा उसे देखते ही उस आकाशकी, उस श्रीका स्मरण हो आता था जो कि मेघ उड़ जानेपर समस्त ताराओंके निर्मल प्रकाश होती है । अथवा समस्त ग्रहों, नक्षत्रों तथा अन्य ज्योतिषी देवोंके विमानोंसे भासिंत आकाशकी जो अनुपम शोभा हो सकती है ॥ ९८ ॥ इस विधि से दीक्षा समारोह समाप्त हो जाने पर साथ आये हुए राजाओं तथा नागरिकोंने अपनी पत्नियों के साथ यतिपति वरदत्त मुनिकी बन्दना की थी। इसके उपरान्त सब मुनियों, नूतन दीक्षित साधुओं, संयमियों, त्यागी पुरुषों तथा स्त्रियोंकी यथायोग्य विनंती करके अपने-अपने नगरको लौट गये थे । ९९ ॥ १. [ ताम्रलेप । चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द - अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा में वरांगदीक्षाधिकार नाम एकोनत्रिशतितम सर्ग समाप्त । २. [ त्रिशत्तमः ] | एकोन त्रिंशः सर्गः [ ६०६ ] Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशः वराज चरितम् REETIREPS-TRALIANETSAIRTEETHARURLADAGIR त्रिंश सर्गः गतेषु तेषु प्रियबान्धवेषु स्वेभ्यः पुरेभ्यो मुनिसंकथाभिः । दीक्षां प्रपन्ना' जहष सिंहा वारीविमुक्ता इव मत्तनागाः ॥ १॥ निरस्तभूषाः कृतकेशलोचाः प्रसन्नबुद्धीन्द्रियशुद्धभावाः। धर्मानुरक्ता मुनिराजपाश्वं प्रपेदिरे साञ्जलयो यथार्हम् ॥२॥ उपाश्रितांस्तान्कृतमूनिहस्तान्विलोक्य साधून्विगतेन्द्रियाशान् । स्वभावतो भव्यजनानुकम्पी व्रतोपदेशं कथयांबभूव ॥३॥ स्थानानि जीवस्य चतुर्दशानि तथैव हि स्थातुचरिष्णुतां च । सम्यक्त्वमिथ्यात्वविमिश्रितत्वं शशंस सम्यक्सफलं यतिभ्यः ॥४॥ त्रिंश सर्ग वियोगीजन वरांगराज तथा अन्य सबही मुमुक्षु जीवोंके दीक्षा संस्कारकी समाप्ति हो जानेपर सम्राटके स्नेही तथा प्रिय बन्धुबान्धव तथा अन्य सब दीक्षित सज्जनोंके स्वजन ( घरके लोग) किसी प्रकार ढाढस बाँध कर अपने-अपने नगरोंके लिए लौट पड़े थे। वे रास्ते में मुनियोंकी चर्चा करते हुए चले गये थे। इधर जिन पुरुषसिंहों तथा ज्ञानमती देवियोंने दीक्षा ग्रहण की थी। उनकी प्रसन्नता उसी सीमा तक जा पहुंची थी जिसको कीचड़से उभरे हाथीका आह्लाद स्पर्श करता है ।।१।। तपरत योगिनिएँ नव दीक्षित आयिकाओं तथा मुनियोंने समस्त आभूषण उतार डाले थे, सबने ही विधिपूर्वक केशलोंच किया था। मोह ममताको पाशसे छूट कर बुद्धि निर्मल तथा इन्द्रियाँ सत्पथ-गामिनी हो गयी थीं। मानसिक विचार शुभ तथा शुद्ध हो गये। ॥ थे। आपाततः धार्मिक रुचि पूर्ण विकासको प्राप्त हुई थी। संयम, साधना आदिके रहस्यको जाननेके लिए वे सब महाराज वरदत्तकी सेवामें हाथ जोड़े हुए गये थे, अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठ गये थे ।। २॥ दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक लगाये हुए इन सब साधुओंको जब केवली महाराजने अपने पास बैठा देखा तो पलक मारते ही वे समझ गये थे कि इन सबने पाँचों इन्द्रियोंके विषयों तथा आशाको जीत लिया है। केवली महाराज बाह्य प्रेरणाके A बिना ही अन्य जीवों पर दया करते थे अतएव उन्होंने इन सबको महाव्रतोंकी चर्याके विषयमें विशेष उपदेश दिया था ॥३॥ [६०७] चौदह गुणस्थान पूर्ण लोकमें व्याप्त स्थावर तथा जंगम जीवोंको उनके भावोंकी अपेक्षासे चौदह श्रेणियोंमें बांटा है, शास्त्रोंमें इन १.कम श्रीनेमिनाथाय नमोऽस्तु तुम्यम् । नमोऽस्तु नारायणदर्पहारिणे ॥ २. क प्रसन्ना। ३. [ सम्यक्त्वफल'] । AMIRPURIAGEERUAGER G Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डास्त्रिगुप्तीश्च चतुष्कषायान्द्रव्याणि षड्जीवनिकायभेदाः। दशप्रकारं श्रमणेन्द्रधर्म तेभ्यः समाचष्ट समाहितेभ्यः ॥५॥ सज्ज्ञानचारित्रगतिव्रतानि दशार्धभेदान्यवदत्स तेभ्यः । । तपोविधि द्वादशलक्षणं च संसारविच्छित्तिकरं सामाख्यत् ॥ ६॥ संज्ञाश्चतस्रः करणानि पञ्च चेर्यापथादीन्समितीश्च पञ्च । आवश्यकाः षट्च षडेव लेश्या योगत्रयं चाप्यवदद्यथावत् ॥७॥ चरितम् श्रेणियोंको 'गुणस्थान' संज्ञा दी है। केवली महाराजने समस्त यतियों विशद रूपसे यह समझाया था कि मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व ये तीनों क्या हैं और किस प्रकारसे इन तीनों परिणामोंके ही कारण चौदह (मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, । अविरत, देशविरत, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण , उपशान्त मोह, क्षोण मोह, सयोगकेवली तथा अयोगकेवली ) गुणस्थान होते हैं ॥ ४ ॥ मुनिधर्म दण्डों ( त्रियोग ) के सब भेदों, मन, वचन तथा काय इन तीनोंकी गुप्ति ( संयम ) क्रोध, मान, माया, तथा लोभ चारों कषायोंका षड् जीव आदि छहों द्रव्योंका स्वरूप, पृथ्वी आदि षनिकायोंका विस्तार तथा क्षमा, मार्दव आदि दशों प्रकार के मुनियोंके धर्मोको गुरुवरने भलीभाँति समझाया क्योंकि सब श्रोता भी अपने नूतन आचरणके प्रति पूर्णरूपसे जागरूक थे ॥५॥ सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक्-चारित्रकी एक-एक विगतका सांगोपांग उपदेश दिया था। चारों गतियोंकी निस्सारताको । प्रदर्शित किया था । दशके आधे अर्थात् पाँचों महावतोंको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार तथा अनाचारको दृष्टियोंसे स्पष्ट किया था। छह प्रकारके बाह्य तथा छह हो प्रकारके अभ्यन्तर तपके विषयमें विशेष कर पूरा-पूरा परिचय दिया था क्योंकि उसको ही निर्दोष साधना करके उन्हें संसार चक्रसे छूटकर शुद्ध आत्मा स्वरूपको प्राप्त करना था ।। ६॥ चारों ( आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह ) संज्ञाओं, पाँचों करण (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत) ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदाननिक्षेप तथा उत्सर्ग इन पाँचों समितियों, आवश्यक--जिनकी संख्या छह (सामयिक, चतुर्विशति स्तव, । वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग ) है, कृष्ण, नील, कापोत, पोत, पद्म तथा शुक्ल इन छहों लेश्याओं, शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों योगोंके स्वरूपको यथाविधि बतलाया था ।। ७ ।। १. [°गुप्तीश्च ] २. [ °भेदान् ] । यामाहारामारामाराम [६०८) Jain Education international Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् चतविधन्यासपदप्रपञ्चं नयप्रमाणानि च मार्गणानि । अष्टप्रकाराननुयोगभावास्त्रिपञ्चकांश्चैव गुणप्रभेदान् ॥८॥ त्रिलोकसंस्थोगतिमागतिं च स पुण्यपापानवसंवरांश्च । बन्धं च मोक्षं च शिवप्रमेयं मुनिर्मुनिभ्यः कथयांबभूव ॥९॥ श्रुत्वा मुनीन्द्रोदितमप्रमेयमहीनसत्त्वाः शिवसिद्धिमार्गम् । शीलान्यथादाय महाव्रतानि सद्यस्तमाचारमधीयते स्म ॥१०॥ ततः सशान्तं शिवदत्तसंज्ञं दयापरं क्षान्तिमुदारवृत्तम् । आधारभूतं नवसंयतास्ते प्रपेदिरे संयमसाधनाय ॥ ११ ॥ ANDEEPARADEMANTRatoमाया ज्ञायकविचार नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भावके भेदोंसे चार प्रकारके निक्षेप, शब्दनयका प्रपञ्च तथा अंग आदिके पदोंकी गणना, । नेगम आदि सातों नय, प्रत्यक्ष आदि प्रमाण ( सांव्यहारिक-परमार्थिक प्रत्यक्ष, परोक्ष-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान तथा आगम) चौदहों मार्गगाओं, आठों प्रकारके अनुयोग तीन प्रकारके भाव तथा पाँचों गुणोंका भी विशद विवेचन किया था।॥८॥ त्रिलोकसार तीनों लोकोंकी रचनाका विशेष वर्णन उनमें एक स्थानसे दूसरे स्थानको आने-जानेका क्रम, पुण्य तथा पाप कर्मोका आस्रव, इनका बंध, संवर तथा निर्जरा तथा मोक्ष जो कि मूर्तिमान कल्याण हो है तथा जिसके स्वरूपका अनुमान नहीं किया जा सकता है। इन सबका पूर्ण उपदेश केवली महाराजने दिया था ।। ९ ।। महाराज वरदत्त केवलीने जो उपदेश दिया था उसके महत्त्वका अन्दाज लगाना भी अशक्य था। वह मोक्ष प्राप्तिका । साक्षात् उपाय था अतएव उसे सुनकर हो सब नूतन दीक्षित मुनि और आर्यिकाएं सप्तशोलों को ग्रहण करके तुरन्त ही पञ्च महाव्रतोंकी साधनामें लीन हो गये थे, क्योंकि इन सबको आत्मिक शक्ति और साहस साधारण न थे ॥ १० ॥ आचार्यशरण केवली महाराजसे पूर्ण उपदेश प्राप्त करके समस्त नतन संयमी लोग संयमको साधना करनेकी अभिलाषासे आचार्य वरदत्तजीके चरणोंमें गये थे। आचार्यश्री मूर्तिमान शान्ति थे, दया उनका स्वभाव थो उनका महा चारित्र निर्दोष तथा पूर्ण विकसित था । इन्हों योग्यताओं के कारण वे समस्त साधुओंको तप साधनाके मूल आधार थे ॥ ११ ॥ १. [ संस्थां ]। २. [ मोक्षं शिवमप्रमेयं ]। ३. [ ततश्च शान्तं ]। ४. [ क्षान्त ] । ७७ mareesmarpanMRPipaymsapnHearPMSHIPMARPregnanmmsmmam Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् ते भव्यस्वा विदितार्थतत्वा जन्मान्तरे भावितमुक्तिमार्गाः । अनन्तवीर्याः श्रमणत्वमाप्ताः शिशिक्षिरे तच्च सुशिक्षितव्यम् ॥ १२ ॥ वराङ्गराजेन सह प्रयाताः समाहिताः क्षत्रियसंयतेन्द्राः । वैराग्यनिर्वेदपरायणास्ते प्रारेभिरे कर्मरिपुं विजेतुम् ॥ १३ ॥ ममत्वदेहप्रतिकारहीना न हि क्वचित्ते प्रतिबद्धरागाः । त्यक्तप्रमादा निरवद्यभावा समा बभूवुः प्रजने जने वा ॥ १४ ॥ त्रैलोक्यमध्येकमुहूर्त मात्रादुदीरितो नाशयितुं समर्थः । कोधकषायमल्लः क्षमाबलेनाप्रतिमैनिरस्तः ॥ १५ ॥ महाबलः वरांगराज, आदि मुनि तथा आर्यिकाएं यद्यपि नूतन दीक्षित थे तो भी इन सबने तत्वों तथा उनके रहस्यको भलीभांति समझ लिया था। वे सबके सब भव्यजीव थे। उन्होंने अपने पूर्व जन्मों में मुक्ति मार्गके साधन ज्ञान, चारित्र आदिका अभ्यास किया था। उनकी मानसिक तथा कायिक शक्तियाँ भी विशाल थीं, इसीलिए वे थोड़े ही समय में सकल श्रमण हो सके थे । तथा आचार्यश्री के चरणों में बैठकर वह सब शिक्षाएं ग्रहण कर सके थे जो कि मनुष्य जीवनका चरम लक्ष्य है ॥ १२ ॥ वर्द्धमान तप क्षत्रिय मुनि लोग साधना में सफल होनेके लिए पूर्ण प्रयत्न करते थे । उनके आचरण तथा भावोंकी धारा वैराग्य और निर्वेद रूपसे ही बह रही तथा पहिले सांसारिक प्रतिद्वन्दियोंको जीतनेवाले वे सब अब कर्मरूपी मुनि वरांगके साथ तपस्यामें लीन वे सब ही आलस्यको छोड़कर साधना में सदा ही तत्पर रहते थे। थी। इन योग्यताओंने उन्हें श्रेष्ठ साधु बना दिया था शत्रुओं पर टूट पड़े थे || १३ ॥ ममत्व उनको छोड़ चुका था, शरीरके स्नान आदि संस्कार करनेकी उन्हें सुधि ही न थी । ऐसा कोई पदार्थ इस धरणीपर न था जिसपर उनको थोड़ा-सा भी राग होता। प्रमाद उनसे दूर भाग गया था। भावोंपर मलिनताकी छांह तक न पड़ती थी । उस समय उन्हें एकान्त वन तथा जनाकुल सभामें कोई अन्तर हो न मालूम देता था ॥ १४ ॥ कषाय पराभव केवल क्रोध कषाय ही इतनी अधिक शक्तिशाली तथा भयंकर है कि यदि वह अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर किसी संयोगवश पूर्णता की शिखर पर पहुँच जाय, तो केवल एक मुहूर्त में हो वह तीनों लोकोंको मटियामेट कर सकता है। इस अनुपम मल्लको मुनियोंने क्षमाकी शक्तिसे अनायास ही पछाड़ दिया था ।। १५ ।। त्रिंश: सर्गः [ ६१० ] Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशः सगं: मानो महाशैल इवातितुङ्गः स मावेनाप्रतिमेन जिग्ये । तथैव माया कुटिलस्वभावा जितेन्द्रियश्चिव जितार्जवेन ॥१६॥ लब्धास्पदः सर्ज इव प्रवृद्धः शाखोपशाखाप्रतिमानमूर्तिः । उन्मोलितो लोभकषायवृक्षः संतोषधत्या क्रियविद्धिराद्यैः॥ १७॥ व्रणाःप्रशल्या इव दुश्चिकित्स्या मिथ्यात्वमायासनिदानशल्याः । विमक्तिमार्गाभिरतैरुदाविजितास्तै ऋषिभिविशेषात ॥ १८॥ जिनेश्वराचार्यबहुश्रुतेषु संघ च धर्मे च जिनालये च । सम्यक्त्वचारित्रतपस्सु नित्यं भक्ति प्रचक्रूस्तनुरागमोहाः ॥ १९॥ मान कषायका अन्त पाना भी दुष्कर है क्योंकि वह सुमेरुके समान उन्नत है, तो भी साधुओंने परिपूर्ण मार्दव (भाव तथा क्रियाकी कोमलता) के द्वारा इसके भी छक्के छुड़ा दिये थे । माया कषायको तो समझना हो कठिन है क्योंकि वह अत्यन्त कुटिल है किन्तु पाँचों इन्द्रियोंके जेता तपस्वियोंने अपनो तीव्र ऋजुता ( आर्जव ) के द्वारा इसे भी सीधा कर दिया था ।। १६ ॥ लोभ कषायका तो कहना ही क्या है मनुष्य के हृदयरूपी स्थानको पाकर लोभतरु सर्ज ( शालवृक्ष ) के समान हर दिशार में फैल जाता है, उसकी शाखाएँ तथा उपशाखाएं इतनी अधिक बढ़ती हैं कि उसके बृहत् आकारकी कल्पना भी दुष्कर हो जाती है। किन्तु वरांग आदि सब हो मुनिलोग अपने आचरणमें प्रवीण आर्यपुरुष थे फलतः उन्होंने संतोष और धृतिरूपी कुठारोंकी मारसे उसको (लोभतरुको) धराशायी ही नहीं किया था अपितु जड़ तकको उखाड़ कर फेंक दिया था ॥ १७ ॥ शल्यत्रयोन्मलन जो घाव शल्य-क्रिया ( हथियारसे चीड़फाड़ ) से भी नहीं सम्हलते हैं उनकी चिकित्सा करना अत्यन्त कठिन होता है । आत्माके मिथ्यात्व, माया तथा निदान इन तीनों शल्यों रूपी घावोंको भी इसो जातिका समझिये। किन्तु मुनिवर वरांग तथा उनके समस्त साथियोंको मुक्ति में आस्था और प्रेम था तथा उसके मार्ग पर चलनेका उत्साह था । यही कारण था कि उन विशाल तपस्वियोंने इन शल्योंको देखते-देखते निकाल फेंका था ।। १८ ॥ इस साधनाके द्वारा नूतन मुनियोंका सामान्य मोह तथा विशेषकर राग क्षीण हो गया था। वे एक हजार आठ जिनेन्द्र । देव, आचार्यों, श्रुतके विशेषज्ञ उपाध्याय, चतुर्विध संघ, धर्म, धर्मायतन, जिनालयकी यथायोग्य भक्ति करते थे। सम्यक्दर्शन, चारित्र तथा तपकी सिद्धिके लिए सदा प्रयत्नशील रहते थे ॥ १९ ॥ । १. [ उन्मलितो]। २. [ श्रुतविद्भिरायः ] । ३. [ सशल्या ] । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेसर्यमास्थाय: शुभप्रयोगा महर्षयो मन्दरसारधैर्याः । चकम्पिरे नैव परोषहेभ्यः प्रभज्जनस्तरचला इवात्र ॥२०॥ यथाजिभूमावरिसैन्यमुग्रं पुरा ममर्द स्वपराक्रमेण । परोषहारीविषयांस्त्रिदण्डांस्तथा ममर्दुर्यतयो जिताशाः ॥ २१॥ अर्हद्वचःस्तम्भमुपागमय्य बधद्वा तपोयोगमयैश्च पाशैः । मनोगजान्मानमदागण्डान् ज्ञानाङ्कशैस्ते शमयांबभूवुः ॥ २२ ॥ दुष्टानिवाश्वानपथप्रपन्नान्पञ्चेन्द्रियाश्वान्विषयानुदारान् । संयम्य सम्यग्वररज्जुबन्धेर्महाधियस्ते स्ववशं प्रचक्रुः ॥ २३ ॥ मानामनियाबासा इन सब ही महर्षियोंकी साधना शक्ति सुमेरुगिरिके समान अडिग और अक्षय थी। शुभ बन्धके कारण ध्यान, आसन स्वाध्याय आदिमें ही इनका पूरा समय बीतता था। जिस समय वे आतप आदि योग (निसर्ग) लगाकर ध्यानारूढ़ हो जाते थे उस समय क्षुधा, तृषा आदि परीषह उन्हें थोड़ा-सा भी न डिगा सकते थे। ध्यानस्थ मुनिबरोंको देखकर उन पर्वत शिखरोका स्मरण हो आता था जिनपर प्रभञ्जनके थपेड़े कोई भी प्रभाव नहीं डाल पाते हैं ।। २० ।। तपसर जब ये सब राजर्षि गृहस्थ थे तब इन्होंने युद्ध स्थल में जाकर अपने प्रचण्ड पराक्रमके द्वारा शत्रुओंकी असंख्य और वीर सेनाको देखते-देखते मसल दिया था। जब मुनिदीक्षा ग्रहण की तब भी आशापाशको छिन्न-भिन्न करके इन्होंने उसी उत्साह तथा लगनके साथ बाईस परोपह, इन्द्रियोंके विषय, तीनों दण्ड आदि शत्रुओंको भी शीघ्रतासे पददलित कर दिया था ।। २१ ॥ मन मतंगज उनके उच्छृखल मन मदोन्मत्त हाथो थे । अहंकार तथा प्रभुताका उन्माद मनरूपी हाथोके मदजलसे गीले उन्नत गण्डस्थल थे किन्तु इन मुनियोंने वीतराग प्रभुके उपदेशरूपी पुष्ट तथा प्रबल खम्भेको पाकर ऐसे उदण्ड हाथियोंको बारह प्रकारके तप तथा तीनों योगों रूपी प्रबल रस्सीको पाशसे फंसा कर उससे बांध दिया था। तथा ज्ञानके प्रखर अंकुशको मारसे उसका समस्त उन्माद दूर कर दिया था ॥ २२ ।। इन्द्रियाश्व पाँचों इन्द्रियाँ कुशिक्षित, कुलक्षण तथा दुष्ट घोड़ोंके समान है, हजार रोकनेपर भी ये कुपथपर ही चलते हैं, तथा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द ये पाँचों विषय तो इतने अधिक आकर्षक हैं कि इन्हें देखते ही इन्द्रिय-अश्व बिल्कुल बेकाबू हो १. [ वैराग्यमास्थाय]। २. क ममद्दुः । ३. क ज्ञानांशुक्र । [६१२] Jain.Education international Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशः यथा मदान्धाः करिणः प्रयोगैरुपायवन्तो वशमानयन्ति । तथेन्द्रियेभान् कुलजातिदृप्तान्' ज्ञानाङ्कशेनात्मवशं प्रणिन्युः ॥ २४ ॥ यथा पुरात्यन्तरदुष्टवर्गानपास्य राज्यं स्वमुखं प्रणिन्युः। तथैव रागादिरिपून्विजित्य सुखं निषण्णो मुनितामुपेत्य ॥ २५ ॥ शून्यालये देवगृहे श्मशाने महाटवीनां गिरिगह्वरेषु । उद्यानदेशे दुमकोटरे वा निवास आसीदृषिसत्तमानाम् ॥ २६ ॥ रात्रिचरा भीमरवाः शकुन्ताः शार्दूलसिंहद्विपजम्बुकाः। यत्राकुला भीमभुजंगमाश्च तत्रास वासो यतिपुजवानाम् ॥ २७॥ जाते हैं। राजर्षि विशेष ज्ञानी थे इनके स्वभावसे परिचित थे। फलतः सम्यक्चारित्ररूपी पुष्ट रस्सीसे बाँधकर उन्होंने इन्द्रियोंरूपी घोड़ोंकी सारी मस्ती उतार दी थी ॥ २३ ।। . जो पुरुष हाथियोंके पालतू बनानेकी कलामें कुशल हैं तथा एकके बाद एक युक्ति लगाते जाते हैं वे मदोन्मत्तवन्य (जंगली) गजोंको भी बड़ी सरलतासे वशमें कर लेते हैं। इन्द्रियों रूपी जंगली हाथी अपनो उदण्ड परम्परा (कूल ) जन्मसे ही अत्यन्त अहंकारी और विद्रोही होते हैं किन्तु सदा प्रयत्नशील राजर्षियोंने इन्हें भी ज्ञानरूपी अंकुशके संकेतपर नचा कर अपने वशमें कर लिया था ॥ २४ ।। सफल साधक वरांग मुनि जब राजा थे उस समय उन्होंने अपने शत्रुओंका एकदम सफाया कर दिया था तथा राज्यमें मर्यादाका लोप करने वाले दुष्टोंका नाम तक न सुनायी देता था। परिणाम यह हआ था कि प्रजा अत्यन्त सुखी और सम्पन्न थी। जब मुनिपदको धारण किया था तब भी उनकी वही अवस्था थी, क्योंकि राग, द्वेष, आदि शत्रुओंका समूल नाश करके वे सुखसे समाधि लगाते थे ।। २५ ॥ विविध योग ये ऋषिवर कभी शून्य भवनमें ठहर जाते थे तो दूसरे समय किसी देवालयमें ध्यान करते थे एक दिन श्मशानमें सामायिक लीन होते थे तो दूसरे ही दिन अत्यन्त सघन दुर्गम वनोंके पर्वतोंकी भीषण गुफाओंमें ध्यानारूढ़ हो जाते थे। यदि । कभी सुन्दर उद्यानमें समाधिस्थ होनेका अवसर आता था तो वे प्रसन्न न होते थे इसी प्रकार वृक्षके खोखलेमें बैठे रहनेमें भी उन्हें असुविधा न होती थी ।। २६ ॥ जिस दुर्गम स्थानपर सिंह, केशरी, हाथी, रीछ, जम्बुक, घातक गीध आदि पक्षी, भीषण विषैले सर्प तथा निशाचर। रहते थे, जो स्थान इनके कर्णकटु डरावने रोरसे व्याप्त रहता था उसी भयंकर स्थान पर हमारे श्रेष्ठ तपस्वी वरांग आदि मुनिराज वास करते थे।। २७ ।। १.क येभाः""दृप्ताः । २. [पुरात्यन्तिकदुष्ट° ] । Jain Education interational [६१३) For Privale & Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Resear वर्षासु शीतानिलदुदिनासु घोराशनिस्फूर्जथुनादितासु' । दिवानिशं प्रक्षरदम्बुदासु ते वृक्षमूलेषु निषेदुरायः ॥ २८॥ स्थलेषु निर्जन्तुषु वीतरागा निषद्य ते स्त्रीपशुवजितेषु । संसारनिस्सारदुरन्ततां च विचिन्तयामासुरनेकशस्ते ॥ २९॥ बने पुनर्भीमतमेऽन्धकारे शिवादिवान्धध्वनिरौद्ररूपे । जरारुजामुत्युभयातिभीता निद्रावशं रात्रिषु नैव जग्मुः ॥३०॥ धाराभिधौताङ्गमला: सुलेश्याः खद्योतमालारचितात्ममात्नाः । विद्युल्लतावेष्टनभूषिताङ्गाः प्रज्ञाङ्गरागात्युपभोगशक्ताः ॥ ३१॥ REASUREURSouTIAS -O-SHAHATHemamleeyesires वर्षाऋतु-तप वर्षाऋतुमें जबकि सतत स्थायी मेघोंके कारण दुर्दिन ही रहते थे, शीत प्रभञ्जन बहता था, भयानक बिजली चमकती थी, भीषण गर्जना होती रहती थी, एक क्षणको भी बिना रुके दिन-रात पानी ही बरसता रहता था, उस कष्टकर समयमें भी ये मुनिवर किसी वृक्षके नीचे बैठकर ऐसे ध्यानस्थ हो जाते थे मानो प्रकृतिमें कोई विपर्यास ही नहीं हुआ है ।। २८ ।। इन वीतराग मुनियोंके लिए कोई भी स्थान जो कि सूक्ष्मकीट जीव-जन्तुओं तथा स्त्रियोंसे शून्य होता था तथा जहाँ पर पशओंका उपद्रव न होता था वहीं पर वे बैठ जाते थे । और शान्त चित्तसे एक दो बार ही नहीं अनेक बार संसारकी सारहीनतासे प्रारम्भ करके उसके दुखदायी परिणामों पर्यन्त गम्भीरतापूर्वक सोचते थे ।। २९ ॥ वे भीषणसे भीषण वनके भीतर घुस जाते थे, जहाँ पर दिनको भी रात्रिसे अधिक अन्धकार रहता था। रात्रिके समय वहाँपर सियार तथा दिनको न देखनेवाले उल्लू कर्णकटु अशुभ ध्वनि करते थे । किन्तु मुनिवरोंका उधर ध्यान भी न जाता था। संसारमें अवश्यम्भावी जन्म, जरा और मृत्युके भयसे आकुल होकर वे रात भर शुभ ध्यान करते थे और एक क्षणके लिए भी न सोते थे ।। ३० ॥ दिनरात बरसने वाली मूसलाधार वृष्टिके द्वारा ही उनके शरीरका मैल धुल जाता था और आत्माके समान शरीर भी निर्मल हो जाता था। रात भर चमकनेवाली जगनुओंके प्रकाशसे ही उनकी प्रकाशमालाका काम चल जाता था। बिजलीके HEN प्रकाशरूपी वस्त्रसे ही उनका शरीर वर्षाकी रातोंमें लपट जाता था तथा ज्ञानाभ्यासरूपो अंगराग (उबटन ) के उपयोगमें ही में वे अत्यन्त आसक्त थे ।। ३१ ।। १. म 'नादिकासु। Jain Education international Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् हेमन्तकाले धृतिबद्धकक्षा दिगम्बरा ह्यभ्रवकाशयोगाः । हिमोत्करोन्मिश्रितशीतवायुं अस्पर्शयोगा मलदिग्धगात्राः उच्छ्वासनिःश्वास निमेषलक्ष्याः ' संत स्थिरे स्थाणुरिवाप्रकम्प्याः ॥ ३३ ॥ भूतैः प्रभूतैः सपिपाससंधैः सडाकिनीभिः पिशिताशनीभिः । घोरैः पुनर्भीमरवानुकारैस्ते निश्चला तस्थुरमा इमशाने ॥ ३४ ॥ अस्नानभूरिव्रतयोगभाराः स्वेदाङ्गमासक्तरजःप्रलिप्ताः । निदाघसूर्याभिमुखा नृसिंहा व्युत्सृष्टगात्रा मुनयोऽभितस्थुः ॥ ३५ ॥ वे जब हेमन्त ऋतु प्रारम्भ हो जाती थी तब ही दिगम्बर थे, इसपर भी वे खुले आकाशके नीचे ही झकोरे लेती थी तथा हिम (बर्फ) को फेंकती थी, प्रसेहिरेऽत्यर्थमपारधैर्याः ॥ ३२ ॥ प्रसारणाकुञ्चनकम्पहीनाः । शीतकाल तप अपनी धारण शक्तिरूपो धोतीकी कांछ बांध लेते थे । एक तो वे यों अवकाश योग लगाकर बैठ जाते थे। उस समय अत्यन्त शीतल पवन किन्तु इस सबको वे परम शान्तिके साथ सहते थे, क्योंकि उनका धैर्यं अपार था ॥ ३२ ॥ जब वे अस्पर्श ( शरीर निरपेक्ष अखण्ड समाधि ) योग लगाते थे तब उनका सारा शरीर धूल मिट्टी पसीने आदिसे ढक जाता था । उस समय न तो हाथ पैर आदि किसी भो अंगको फैलाते थे और न सिकोड़ते ही थे । कँपने आदिके लिए तो काश ही नहीं था । उस समय वे जीवित हैं इसका पता केवल इसी बात से लगता था कि उनकी श्वासोच्छ्वास देखी जाती थी, अन्यथा वे वृक्षके ठुटकी भांति अचल होकर ध्यान मग्न रहते थे ।। ३३ ।। भूतों के लिए भी महाभूतों के समान भीषण भूतों पिशाचोंके समूह द्वारा वे डराये जाते थे । मांस मज्जाको खानेके लिए अभ्यस्त डरावनी डंकिनियाँ उन्हें धमकाती थीं। ये सब बड़े दारुण थे, आकार देखते ही भयसे रोमाञ्च हो आता था तथा इनकी कर्कश ध्वनि सुनकर रक्तकी गति रुकने लगती थी, किन्तु वरांग आदि सब ही मुनिराज ऐसे उपसर्गं उपस्थित होनेपर भी श्मशान में अचल समाधि लगाये बैठे रहते थे ।। ३४ ॥ ग्रीष्मतप जब ग्रीष्म ऋतु आती थी तब वे मुनिवर अनेक कठोर व्रतोंके साथ-साथ अस्नान महायोगको धारण करते थे ग्रीष्मके तापके कारण पूरे शरीर से पसीना बहता था जिसपर उड़ती हुई धूल बैठ जाती थी और पूरी देह धूलसे लिप जाती थी । किन्तु वे मनुष्य-सिंह शरीरकी ममता को छोड़कर जेठके मध्याह्नके सूर्य की तरफ मुख करके ध्यान करते थे ।। ३५ ।। १. क लक्ष्म्या । २. [ निश्चलं ] । For Private Personal Use Only त्रिंश: सर्गः [ ६१५] Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् अन्य 'ऊर्ध्वा दिवार्थी प्रदहत्यभीक्ष्णं पार्श्वे च वायौ परुषेऽतिवाति । अधः पुनस्तप्तमहाशिलासु स्थित्वा प्रढेकुर्धनकर्मकक्षम् ॥ ३६ ॥ निदाघतीक्ष्णार्क कर प्रहारानुरस्स्वथादाय निरस्तपापाः । अस्तं प्रयाते च रवौ यतीशाः पराङ्मुखेरा विवनेवतेरुः ॥ ३७ ॥ विशिष्ट वातातपवर्ष तृप्ताः क्षुद्याधिरोगारतिरोषणानि । प्रसेहिरे कर्म रजःक्षपाय महर्षयो मन्दरजः प्रकम्प्याः ।। ३८ ।। वीरासनस्वस्तिकदण्डशय्याः पत्यवजोत्कुटिकासना महाद्विकुक्षिष्त्रभिरेमिरेते ॥ ३९ ॥ ये । स्थानव्रता मौनपराश्व धीरा शिरपर मध्याह्नका सूर्य चमकता था जिसकी प्रखर किरणोंसे सारा वातावरण ही अग्नि ज्वालामय हो रहा था। उनके चारों ओर अत्यन्त उष्ण तथा रूक्ष तीव्र पवन बहता था। जिस शिलापर बैठते थे वह भी जलने लगती है फलतः नीचेसे उसकी दाह रहती है। इस प्रकार सब तरफसे धधकती हुई ज्वालामें वे अपने कर्मों रूपी सघन वनको भस्म करते थे ।। ३६ ।। इस दुर्द्धर तपको करने से उनके पाप नष्ट हो गये थे, इसीलिए ग्रीष्मऋतुके प्रचण्ड सूर्यकी प्रखर किरणोंसे भीषण प्रहारोंको वे कि सीधे अपने वक्षस्थलपर रोकते थे, और वहीं पर ध्यानमग्न रहते थे किन्तु जब सूर्य अस्त हो जाता था तब वे ऋषिराज आतापन योगको समाप्त कर देते थे और पर्वतोंकी गुफाओंकी भीषण दाह में रात्रि व्यतीत करते थे ॥ ३७ ॥ उपसर्ग - परीषह जय वर्षा, शीत तथा ग्रीष्म ऋतुकी पीड़ाओंको उक्त विधि से विशेष आकार और प्रकारमें सहकर ही विरत नहीं हो जाते थे अपितु कर्म शत्रुओं का क्षय करनेके लिये भूख, प्यास, रोग, अरति, अकारण क्रोध, आदि उपसर्गों को प्रसन्नतासे सहते थे 1 इतना सब सहकर भी वे सुमेरु पर्वत के समान अपनी साधना में सर्वथा अकम्प थे ।। ३८ ।। यदि एक समय वीरासन, स्वस्तिकासन, खड्गासन तथा शय्यासन लगाकर ध्यान करते थे, तो दूसरी वेलामें वे पल्यंकासन, वज्रासन तथा उत्कुटकासन लगाये दृष्टिगोचर होते थे। वे महा पर्वतों की गुफाओंमें वास करते थे वहाँपर कभी स्थानका नियम करते थे तो दूसरे समय मौनव्रत धारण कर लेते थे ।। ३९ ।। १. [ ऊर्ध्वं ] २. क पुरुषे । ३. म प्रसेदेकुर्धन; [ प्रदेहुर्धन° ]। ४. [ विवरेऽवतेरुः ] | त्रिंशः सर्गः [६१६] Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एवं तपः शीलगुणोपपन्ना व्रतैरनेकैः कृशतामुपेताः । area: स्थितसत्त्वसारास्तेपुः सुतोव्राणि तपांसि शूराः ॥ ४० ॥ निवृत्त लोकव्यवहारिणस्ते जिनेन्द्रवाक्यानुनयप्रवीणाः । धर्मानुरागोद्यतधीरचर्या ध्यानैकतानाः सततं बभूवुः ॥ ४१ ॥ तपोभिरापीडित सर्वगात्रा महर्षयो निश्चलमानसास्ते । पुरात्मसंक्रीडितकामभोगान्न चैव कांश्चिन्मनसा विदध्युः ॥ ४२ ॥ एकान्तशीला विगतान्तरौद्राः प्रशान्तरागाः श्रुतवीर्यसाराः । ध्याने पुनस्ते खलु धर्मशुक्ले दध्युः शुभे पापविनाशनाय ॥ ४३ ॥ 'तपरमा तनो तनमें प्रकाश' इस कठोर मार्गका अनुसरण करके उन्होंने तपस्या, शील तथा साधुपरमेष्ठीके गुणोंको प्राप्त किया था। सदा ही भाँति, भाँति अनेक व्रत धारण करनेके कारण उनकी काय अत्यन्त कृश हो गयी थी। तो भी उनका आत्मिक बल और सहनशक्ति ज्योंकी त्यों बनी हुई थी । चर्या में कहीं से भी कोई शिथिलता नहीं आ रही थी। तथा प्रतिदिन वे तपोंकी साधना करनेमें लीन थे ॥ ४० ॥ नूतन - नूतन इन तपस्वियोंने संसारके समस्त व्यवहारोंको दूर भगा दिया था। श्रीवीतराग केवलीकी दिव्य-ध्वनिसे निकले आगम वचनों के मनन तथा आचरगमें लोन थे । धर्मके प्रति उनका अथाह अनुराग था, कठिनसे कठिन चर्या में उन्हें अक्षय उत्साह था । और सदा ध्यान लगाकर वे सब कुछ ही भूल जाते थे ॥ ४१ ॥ तपः क्लिष्ट काय वर्षो से लगातार किये गये कठिन तपके कारण यद्यपि उनके शरीरका अंग-अंग कृश हो गया था तो भी उन महर्षियों के मन तथा हृदय सदा ही अडोल अकम्प थे । यद्यपि गृहस्थाश्रम में उन सबने मनचाहे भोग और विषयोंका आनन्द लिया था तो भी प्रव्रज्या ग्रहण करनेके बादमे उन्हें कभी उनका थोड़ा-सा विचार भी न आया था ॥ ४२ ॥ एकान्त में रहकर साधना करना उनका स्वभाव हो गया था। उनके अन्तरंग में आतं तथा रौद्र भावोंकी छाया भी न रह गयी थी । राग द्वेष सर्वथा शान्त हो गये थे। शास्त्रीय ज्ञान ही उनका पराक्रम और सामर्थ्यं थी, किन्तु इतना करने पर भी पाप कर्मोंका पूर्ण नाश न हुआ था, फलतः उनका समूल नाश करनेके लिए उन्होंने धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानकी प्रक्रियाको अपनाया था ॥ ४३ ॥ ७८ त्रिंश: सर्गः [ ६१७ ] Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिम जितेन्द्रियाश्च व्रतभूषिताङ्गाः क्षमाबलास्ते धृतिबद्धकक्षाः । दयार्थमेव प्रगृहीतसत्या महीं विजल: समसौख्यदुःखाः ॥ ४४ ॥ ग्रामैकरात्रं नगरे च पञ्च समूषुरव्यग्रमनःप्रचाराः। ते किंचिदप्यप्रतिबाधमाना विहारकाले समिता विजहुः ॥ ४५ ॥ नेकप्रकाराकृतिजन्तुमालां चंचूर्यमाणां वसुधा मुनीन्द्राः । पीडां परप्राणिषु नैव चक्रुः पुत्रेषु मातेव दयालवस्ते ॥ ४६ ॥ यस्मिस्तु देशेऽस्तमुपैति सूर्यस्तत्रैव संवासमुखा बभूवः । यत्रोदयं प्राप सहस्ररश्मिर्यातास्ततोऽथा पुरि 'वाप्रसंगाः ॥ ४७ ॥ SHASRHAIRSHASHAMATA चरमसाधना तथा विहार पांचों इन्द्रियाँ उनको आज्ञाकारिणी हो गयी थी, पंच महाव्रतोंकी सकल सिद्धि ही उनके शरीरका भूषण बन गयी थी। क्षमा उनका बल हो चुकी थी तथा धुतिकी हो उन्होंने कांछ लगा लो थी। यद्यपि उनके लिए सुख तथा दुःख दोनों ही समान थे 17 तो भी वे लौकिक प्राणियों की अवस्थाको समझते थे अतएव उनपर ही दया करके वे देशोंमें बिहार कर रहे थे। तथा इस अवस्थामें सत्य ही उनका साथी था ॥ ४४ ॥ किसी भी ग्राममें वे एक रात (आठ पहर ) ठहरते थे तथा नगरमें अधिकसे अधिक पाँच दिन ही रहते थे। समस्त यात्रामें न उन्हें जानेकी आकुलता थी और न कोई मानसिक चिन्ता ही थी। विहारके समय वे सब ही मुनि एक साथ विहार कर रहे । उन्हें कोई वस्तु या परिस्थिति बाधा न दे सकती थी तथा वे स्वयं किसी भी प्रकारकी असुविधाका अनुभव न करते थे।। ४५ ॥ पृथ्वी अनेक प्रकार तथा आकारके जीव जन्तुओंसे ठसाठस भरी हुई है अतएव वे उसी मार्गपर चलते थे जिसपर लोग चल चुकते थे। वे किसी भी रूपमें संसारके प्राणियोंको थोड़ी-सी भी पीड़ा नहीं देना चाहते थे, क्योंकि उनका हृदय वैसे ही वात्सल्य और दयासे व्याप्त था जैसा कि माताका अपने पुत्रोंपर होता है ।। ४६ ॥ कभी चलते-चलते जिस स्थानपर सूर्य अस्ताचलपर पहुंच जाते थे वहींपर वे आवश्यक विधि समाप्त करके रात्रिको व्यतीत करनेके लिए रुक जाते थे। और ज्योंहो सूर्य उदयाचल पर आ जाते थे त्योंही वे उस स्थानसे दूसरे स्थानको प्रस्थान कर जाते थे। जैसे वायुके साथ कोई भार, धन, आदि नहीं होते हैं उसी प्रकार मुनियोंके साथ भी कोई परिग्रह न रहता था । ४७॥ १. [ ततो वायुरिवाल्पसंगाः ] । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशः बराज चरितम् यत्राहतां जन्मपुराण्यभूवन्प्रवव्रजर्यत्र च लोकनाथाः । यत्रककैवल्यमभवतुल्यं यत्रास निर्वाणमृषीश्वराणाम् ॥४८॥ तांस्तांश्च देशानथ संविहृत्य विशुद्धवाक्कायमनःप्रयोगाः । समीक्षमाणाश्च तपोवनानि ववन्दिरे दुष्कृतपावनानि ॥ ४९ ॥ शय्यासनस्थानगतिक्रियासु निष्ठीवनोत्सर्गविधिष्वमूढाः । आदाननिक्षेपणभोजनेषु जन्तून रक्षः क्रियया समेताः ॥ ५० ॥ नैष्ठ्यपारुष्यनिरर्थकानि कार्कश्यपैशन्यविकारवन्ति । मर्मप्रहाराणि बचांसि वाचा न भाषमाणा यतयो विजहः ॥ ५१ ।। मन्चमायामाचरR तीर्थाटन जिस प्रदेश पर तीर्थंकर भगवानोंके जन्म स्थान होते थे उन नगरोंमें, अथवा संसारके हितैषी तीर्थंकरोंने जिन स्थानोंपर दीक्षा ग्रहण की थी, अथवा परम तपस्वी अर्हन्त भगवानको जिन पुण्य स्थानोंपर केवलज्ञानको प्राप्ति हुई थी अथवा जिस प्रातःस्मरणीय पवित्र धामसे ऋषियोंके भी आदर्श केवली तीर्थंकर मोक्षको पधारे थे, उन सब धन्य देशोंमें उन तपस्वियोंने विहार । किया था । ४८॥ उनके मन, वचन तथा कायकी चेष्टाएँ दिनों-दिन विशुद्धतर होती जाती थीं। जहाँ कहीं पर भी वे चतुर्विध संघकी निवासभूमि किसी तपोवन में पहुँचते थे, वहीं रुककर वन्दना करते थे क्योंकि वे स्थान ही आत्माओंके पापमलको धो कर दूर । करते हैं ।। ४९ ॥ किसी जगह बैठते हुए, लेटते हुए, आवश्यक कार्यके लिए स्थान करते समय, चलते समय, किसी भी चेष्टाको करते हुए, थूकने में, मलत्यागमें तथा अन्य आचरण विधियोंका अनुष्ठान करते समय, किसी वस्तुको उठाते हुए अथवा रखते समय तथा आहार ग्रहण करनेके अवसरपर वे जागरूक रहते थे और पूर्ण सावधानीसे जीवों की रक्षा करते थे, साथ ही साथ किसी भी आचारमें खोट न आने देते थे ॥५०॥ रागद्वेष विजयी वे सब मुनिराज न तो किसीको निष्ठुर तथा कठोर शब्द कहते थे, कभी निरर्थक एक शब्द भी उनके मुखसे नहीं निकलता था, कर्णकटु तथा चाटुकारिता मय वचन भूलकर भी उनकी जिह्वापर नहीं आ सकते थे। ऐसे शब्द जिन्हें सुनकर श्रोताके हृदयपर किसी भी प्रकारका आघात हो सकता था उनकी तो कल्पना ही उनके लिए अशक्य थी। इस प्रयत्नसे वचन गुप्तिका पूर्ण पालन करते हुए वे देशोंमें विहार कर रहे थे । ५१ ॥ HITIATRAIL ६१९) Jain Education Interational Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशः वराङ्ग चरितम् ससिंहविक्रान्तितवजमध्यान्भवोत्तरांश्चाम्लविजितानि । चान्द्रायणाख्यप्रमुखानि सम्यगुपोषुरन्यानि च सत्तपांसि ॥ ५२ ॥ ते पारणां कर्तुमथ प्रविश्य बाह्यात्पुरस्य प्रतिसंनिवृत्ता। कदाचिदन्तनगराच्चरु'काद्रथ्याप्रदेशास्त्रिकतश्च याताः ॥ ५३॥ एकान्तभिक्षां प्रविलभ्य याता भिक्षात्रयेण प्रतिमानिवृत्ताः। गृहेषु सप्तस्ववगुह्य केचिद्ग्रासार्धतोऽ|दरिणः प्रयाताः ॥ ५४ ॥ ग्रामान्तरोद्यानवनान्तरे च प्रथान्तरे घोषवति प्रदेशे। शिलान्तरे सैन्यनिवेशने च कान्तारदेशे जगहश्च भिक्षाम् ॥ ५५॥ सर्गः eHESHAHARASHParenese-we-e- ASTRISTIANE चUTUHAPURमनामन्यमान्य यदि एक समय वे नृसिंह शार्दूलविक्रीडित व्रत (सिंह-निष्क्रीडित व्रत ) करते थे तो दूसरी ही बार वजमध्य (विशेष प्रकारका उपवास ) नियम धारण कर लेते थे। कुछ समय तक यदि भद्रोत्तर ( यह भी आहार चर्या व्रत है ) नियम चलता था तो उसीके तुरन्त बाद ही अम्लविवजित (नमकका त्याग) प्रारम्भ हो जाता था। चन्द्रायण ( उपवास विशेष ) आदि जितने भी उत्तम बाह्य तप हैं उनका नियम करके सब तपस्वी उपवास करते थे ।। ५२ ॥ क्षुधापररिषह ऐसे लम्बे व्रतोंके बाद वे पारणा करने के निमित्त चर्या करते थे, किन्तु लाभान्तराय कर्मके उदयसे कोई विघ्न हो जाता था और वे नगरके बाहरसे ही लौट आते थे। दुसरे समय नगरमें प्रवेश करनेके बाद लौटना पड़ता था। अन्य समय निर्विघ्न चर्या करते हुए किसी चौमुहानी अथवा तिमुहानी तक तो पहुँच जाते थे, किन्तु किसी अन्तरायके कारण उससे आगे नहीं बढ़ पाते थे ।। ५३ ॥ कितने ही मुनिवर केवल एक ही अन्नका आहार लेकर तृप्त हो जाते थे। दूसरे अनेक साधु तीन वस्तुओंसे बनी हुई भिक्षाको पाकर ही लौट आते थे । अन्न साधु सात गहों में भिक्षा लेनेका नियम कर लेते थे तथा मिलने अथवा न मिलने पर भी उससे आगे न जाते थे । कितने ही साधु मुलाचार कथित भिक्षाके परिमाणके ग्रासोंको संख्या आधी कर देते थे, और आधे खाली । पेट ही लौट आते थे ।। ५४ ॥ कभी किसी ग्राममें जाकर भिक्षा ले लेते थे। दूसरे समय किसी वनमें अथवा उद्यानमें ही भिक्षा ग्रहण करते थे। विधि पूर्ण होनेसे किसी मार्ग के किनारे अथवा ग्वालों आदिकी झोपड़ियोंमें भी वे आहार ले लेते थे । यदि पर्वतोंपर अथवा घाटियोंमें, सेनाके विश्राम स्थान (स्कन्धावार ) अथवा किसी गहन वनमें ही शुद्ध तथा प्रासुक भोजन मिल सकता था तो उसे ग्रहण करनेमें उन्हें कोई विरोध न होता था ॥ ५५ ॥ १. [°चतुष्का ] । २. [ पथान्तरे ] । [२०] Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् संत्यज्य मष्टाशनपानखाद्यं स्वाद्यानि वर्णेन्द्रियवर्धनानि । तपोऽभिवद्धचै रसहीनमन्नं प्राभुज्जताहं न च रात्रिभागे ॥५६॥ उत्पादनं चोद्गमनं सदोषं संयोजनं क्रोडकृतं पुराणम् । अज्ञातमन्नं हरितं त्वदृष्टं विजितं तन्मुनिभिस्त्वयोग्यम् ॥ ५७ ॥ अस्वादुकं निर्लवणं विशुद्धं स्निग्धं च रूक्षं विरसं विवर्णम् । अशीतलं वाथ सुशीतलं वा ववल्भिरे तच्च तपोऽभिवृद्धयै ॥ ५८ ॥ प्रतप्तलोहे पतितोऽम्बुबिन्दुर्यथा क्षयं तत्क्षणतोऽभ्युपैति । तथा विलिल्ये यतिभिः प्रभुक्तं कदन्नमध्यल्पतया शरीरे ॥ ५९॥ त्रिंशः सर्गः चमचाseaweTAGEचामान्यायमचारी नीरसभोजन रत चिक्कणता बहुल गरिष्ठ भोजन, पान, आदि आहारोंको उन्होंने सर्वथा छोड़ दिया था। स्वादु भोजनकी भी उन्हें अभिरुचि न थी। ऐसा भोजन तो भूल कर भी न ग्रहण करते थे जो इन्द्रियोंको उदीप्त करे अथवा सौन्दर्य आदिको बढ़ाये। शरीरको तपस्याके योग्य बनाये रखने के लिए ही वे नीरस भोजनको केवल एक बार ग्रहण करते थे और वह भी दिनमें हो, रात्रिको तो किसी भी अवस्थामें कुछ भी ग्रहण न करते थे ।। ५६ ।। वह अन्न जिसमें अकुर आदि पड़ सकते हों, एक स्थानपर पकाकर दूसरे स्थानपर लाया गया भोजन, दोषयुक्त विधिसे तैयार किया गया, इधर-उधरसे लाकर इकट्ठा किया गया, विकार उत्पन्न करनेवाला सदोष भोजन, प्राचीन अथवा वासी भोजन, ऐसी वस्तु जिसे वे जानते न हों, हरा पदार्थ, विधिपूर्वक न शोधा गया तथा वह सब पदार्थ जिनका खाना वजित है, इन सब पदार्थोको त्यागकर वे सोधा सादा मुनिके योग्य आहार ग्रहण करते थे ।। ५७ ॥ बहुत उष्ण अथवा बिल्कुल शीतल, घृतादि युक्त अथवा सर्वथा सूखा, किसी भी स्वादसे हीन अथवा बिना नमकका, सब रसोंसे हीन तथा आकर्षक रंगरूपसे भो दूर पवित्र भोजनको वे किसी भी प्रकारसे गलेके नीचे उतार देते थे क्योंकि तप बढ़ाने। के लिए शरीर यन्त्रको चालू रचना ही उनका चरम लक्ष्य था ॥ ५८ ॥ खूब तपाये गये लोहे के तवेपर यदि पानीकी कुछ बूंदें छोड़ी जाय तो वे सब बूंदें एक क्षणमें ही न जाने कहाँ लुप्त हो । जाती हैं, इसी प्रकार मुनिवर किसी भी रस रूपके शुद्ध भोजनको अपने उदरमें डाल देते थे और वह नीरस भोजन भी मात्रामें । थोड़ा होनेके कारण थोड़े ही समयमें उनकी उदराग्निमें भस्म हो जाता था ॥ ५९॥ For Privale & Personal use only RURALEnainचामारामार [६२१ 1 ___Jain Education. international Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A वराज चरितम् अक्षस्य संरक्षणमात्रमन्नं ते भञ्जते प्राणविधारणाय । प्राणाश्च ते धर्मनिमित्तमेव धर्मश्च निश्रेयसलब्धये सः ॥६०॥ सामान्यसत्काउचनशत्रमित्रा मानावमानेषु समानभावाः । लाभे त्वलाभे सदृशा प्रयोगास्ते वीरचर्या यतयो बभूवुः ॥ ६१ ॥ अखण्डचारित्रमहावतानाम गूढवीर्योरुपराक्रमाणाम् स्वकार्यसंपादनतत्पराणां कुतोऽपि नासीत्तपसि प्रसंगः ॥ ६२ ।। तेषामषोणां निरपेक्षकाणामनेकयोगवतभूरिभासाम् । क्लेशक्षयायैव समुत्थितानां तपोऽभिवृद्धिमहती बभूव ॥ ६३ ॥ त्रिंशः सर्गः RTERESTERTENDER वे उतना ही अन्न खाते थे जितना इन्द्रियोंको शक्तिको बनाये रखने के लिए आवश्यक था तथा दूसरा प्रधान उद्देश्य शरीर और प्राणोंका सम्बन्ध बनाये रखना था। प्राण रक्षाका भो उद्देश्य था अधिकसे अधिक धर्म कमाना तथा धर्मार्जनका । एकमात्र लक्ष्य मोक्ष महापदकी प्राप्ति ही थी ॥ ६० ॥ कांच-कञ्चन समान उन ऋषियोंकी दृष्टिमें सोना तथा मिट्टी दोनों ही समान थे, शत्रु तथा मित्र दोनोंपर उनकी एक ही दृष्टि थी, मान करनेसे प्रसन्न न होते थे तथा अपमानके कारण जरा भी कुपित न होते थे । लाभ तथा अलाभ दोनों ही उनके लिए निःसार थे। उनका आचरण वीरोंके उपयुक्त था तथा प्रत्येक विरोधी परिस्थिति में उनका एक-सा ही व्यवहार होता था ॥ ६१ ।। हा उनके अहिंसा आदि समस्त महाव्रत तथा अन्य चारित्रमें कहींपर भी कोई त्रुटि न थी। उनकी असाधारण सहन शक्ति तथा विशाल आत्मशक्तिकी थाह ही नहीं थी। वे अपने प्रधान लक्ष्य आत्मशुद्धिको प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्न करते थे। इन सब योग्यताओंके कारण उनके तपमें किसी भी तरफसे कोई रुकावट न आती थी॥ ६२ ॥ A E वे संसारकी समस्त वस्तुओंकी उपेक्षा करते थे। सदा ही अनेक विधिके व्रतोंका पालन तथा योगोंको धारण करते थे, इनसे प्राप्त तेजके कारण उनकी आभा बहुत बढ़ गयी थी। ऐसा प्रतीत होता था कि वे अपने समस्त क्लेशोंको क्षय करनेके लिए ही घर द्वार छोड़कर निकले थे। इन सब निरस्तराय प्रयत्नोंके द्वारा उन सब ही ऋषियोंकी तपस्यामें अप्रत्याशित वृद्धि हुई थी॥ ६३ ॥ १. [ सदृशप्रयोगा]। २. म मनूढ । [६२२) Jain Education interational Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरान चरितम् चतुर्थषष्ठाष्टमपक्षमासाचन्द्रायणाद्यैरुपवासयोगः आतापनैरभ्यवकाशवासः सवृक्षमलैः प्रतिमाप्रयोगैः ॥ ६४॥ तपोभिरत्युग्रतमैरुदारैः सत्त्वानुकम्पावतभावनाभिः। संकल्प्य संबंधितधर्मरागैः कर्माणि तेषां तनुतामुपेदु:॥६५॥ कर्म स्तनुत्वं गतवत्सु तेषु महात्मनां सद्यशसां तपोभिः । गते पुनर्वर्षशते यतोनामृद्धिप्रवेका विविधा बभूवुः ॥ ६६ ॥ महद्धिभिर्नेकविधा निरीशा दुरासदाभिन सुरासुरैश्च । प्रत्यक्षविज्ञानविभूतिभिश्च प्रभावयां जैनमतं बभूव ॥ ६७॥ ____कायक्लेशको चरमसीमा चार दिन, छह दिन, आठ दिन, एक पक्ष तथा एक मास पर्यन्त लगातार उपवास करके, चन्द्रायण आदि उपवास बहुत व्रतोंको पाल कर आतापन (ग्रीष्म ऋतुमें) शीतकालमें अभ्यवकाश तथा वर्षा ऋतुमें वृक्षमूल आदि योगोंको धारण करके प्रतिमा ( कायोत्सर्ग) प्रयोगोंके द्वारा ॥ ६४ ॥ अत्यन्त कठोर तपोको दीर्घकाल तक संगोपांग तप कर, प्राणिमात्रपर दया करके तथा सदा हो दयामय भावोंको रखकर, दिन रात ऐसी ही कल्पनाएँ करते थे जिनके द्वारा धर्मप्रेम दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता था। इन सब साधनाओंके द्वारा उन ऋषियोंके समस्त कर्म अत्यन्त क्षीण हो गये थे ।। ६५ ।। रिद्धि-सिद्धि इन ऋषियोंकी तपस्याकी विमलकोति सब दिशाओंमें फैल गयी थी। उक्त क्रमसे इनके अनादिकालसे बँधे कर्म अत्यन्त क्षीण होते जा रहे थे तथा तपस्या भी चल ही रही थी। इस प्रकार लगभग सौ वर्ष बीत जानेपर इन ऋषियोंमें चारण [ आदि ऋद्धियोंका बहु मुख उद्रेक हुआ था ॥ ६६ ॥ इस प्रकार वे सब ही ऋषि अनेक जातिकी ऋद्धियोंके स्वामी हो गये थे। वे सब ही ऋद्धियाँ ऐसी थीं जिन्हें चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ पुरुष, सुर तथा असुर भी अनेक प्रयत्न करके सिद्ध न कर सकते थे। इनके साथ-साथ वे मति तथा श्रुत ज्ञानोंकी [६२३] सीमाको पार करके आंशिक प्रत्यक्ष अवधि तथा मनःपर्ययज्ञानोंके स्वामो हो गये थे। इन समस्त योग्यताओंके द्वारा उन्होंने जैनमतको पूर्ण प्रभावना की थी।। ६७ ॥ १. [ संकल्प°] २. [ तनुतामुपेयुः]। ३. [ कर्म स्वणुत्वं ] । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशः बराङ्ग चरितम् म RATRA अर्हत्प्रणीतागमदृष्टिसत्त्वाः सहेतुदृष्टान्तवचःप्रगल्भाः। नयप्रमाणप्रणिधिप्रवीणा विवादिनां वादमदं विनिन्युः ॥६॥ केषांचिदक्षीणमहानसत्वं क्षीराश्रवत्वं वरकोष्ठबुद्धिः । संभिन्नता बीजपदानुसारा देवद्धिरिष्टैः सगणैरुपेताः॥ ६९ ॥ केषांचिदामर्शनमात्रमेव तथा परेषामथ विप्लुषस्तु । श्वेला'मलाश्चैव तपोधनानां सर्वच भैषज्यमभूत्परेषाम् ॥ ७०॥ केचिज्जले पुष्पदले च केचित्फलेषु पत्रेषु मरुस्थलेषु ।। श्रेण्यां च तन्तावथ जङ्घया च प्रयान्ति सम्यक्तपसः प्रभावात् ॥ ७१ ॥ सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञानके स्वामी अर्हन्त केवलोके द्वारा कहा गया आगम ही उनकी निष्पक्ष दृष्टि थी। उनका प्रत्येक कथन तर्क तथा उदाहरणसे पुष्ट हानेके कारण अकाट्य होता था। वे नैगम आदि समस्त नयों ( अपेक्षाओं ) तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंका यथास्थान प्रयोग करने में अति कुशल थे । यही कारण था कि उन्होंने मिथ्या सिद्धान्तोंके समर्थकोंका अभिमान चकनाचूर कर दिया था ।। ६८॥ तपरमा तनो तनमें प्रभाव किन्हीं ऋषियोंकी शक्ति कभी भी क्षीण न हो सकती थी। दूसरोंके बलका अनुमान करना हो असंभव था। किन्हींकी मुद्राको देखकर अथवा उपदेशको सुनकर ऐसा लगता था मानो दूधको धारमें नहा गये हैं। दूसरोंको बुद्धि उत्तम कोशके समान थी जिससे प्रत्येक वस्तुका उत्तर सरलतासे प्राप्त किया जा सकता था। दूसरे मुनियोंका ज्ञान फूलकी पंखुरियोंके समान (एकमेंसे दुसरा) खिलता जाता था । अन्य ऋषियोंका बुद्धि बीजपदके ऊपर ही प्रस्फुटित होती जाती थी। इन मुनियोंमें देवोंकी ऋद्धियाँ तथा समस्त सद्गुण व्याप्त थे।। ६९ ।। तपके अतिशय किन्हीं मुनियोंसे छुई हुई हवा अथवा उनके तपःपूत शरीरके स्पर्शसे ही रोग नष्ट हो जाते थे। दूसरे तपोधनोंका विप्लुष (थूल आदि ) ही अनेक रोगोंकी अचूक औषधि होता था। उन ऋषियोंकी नाक तथा मल आदि भी प्राणान्तक रोगोंको शान्त कर देते थे ।। ७ ।। शुद्ध तपस्याके प्रभावसे उनको ऐसी-ऐसी सिद्धियाँ हो गयी थों कि उनमेंसे कितने ही गुरुवर पानीपर चलते थे, दूसरे फूलोंपर चलते थे तो भी उनके डंठल अथवा पौधे न सूखते थे। कुछ ऐसे भी साधु थे जो वृक्षोंमें लगे फलोंपर भी खड़े हो सकते मिथे, अन्य लोग वृक्षोंके पत्तोंपर खड़े हो जाते थे । ग्रीष्ममें जलते हुए मरुस्थल में भी वे चल सकते थे । सांकल अथवा तागेपर चलना तो उनके लिए बड़ी साधारण-सी बात थी। वे तलुओंसे न चलकर जांधके ही बल दौड़ सकते थे ।। ७१ ।। १. क क्षेला। ukrassmeterantsचमच थे। कुछ ऐसा भी वे चल सकते थे । k Jain Education international Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्गा त्रिंशः चरितम् सर्गः EPARATHASRestreamPURPrepresHPRAHAMANIP केचिद्बभवद्विमहातपस्का उप्रैश्च दीप्तश्च महातपोभिः । घोरैस्तथा घोरपराक्रमाश्च तपोऽधिकध्यानपराः कृतार्थाः ॥ ७२ ॥ विशिष्टनानद्धि गणोपपन्ना महर्षयः क्षान्तिदयासमेताः। निदर्शनं तध्द्यभवत्परेषां धर्माथिनां भव्यजनोत्तमानाम् ॥ ७३ ॥ इत्येवं श्रुतविभवा महर्षयस्ते सच्छोलवतगुणभावनाभिरिक्ताः'। त्यक्ताशाः स्थितमतयः प्रशान्तदोषा स्तीर्थानि प्रवरधियो बभूवाम् ॥ ७४ ॥ संक्षेपात्पृथुयशसां तपांसि तेषां प्रोक्तानि प्रथितमहागुणोदयानाम्। भूयोऽपि क्षितिपतियोषितां तपांसि राजर्षेरमितगुणस्य चाभिधास्ये ॥७५ । इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते महर्षीणां तपोविधानवर्णनो नाम त्रिंशतितमः सर्गः। वर्द्धमान तप अत्यन्त उग्र तथा कराल तपस्याको निर्दोष रूपसे करके कितने ही साधु तपस्याके अन्तको पा गये थे और वास्तवमें महातपस्वी हो गये थे। उनकी साधना घोर तथा कर्मशत्रुओंसे लड़नेका उत्साह तो बड़ा ही भीषण था। प्रत्येक दिन उससे पहिले दिनकी अपेक्षा वे अधिक ध्यान और तप करते थे। इसीलिए वे अपने कार्यमें कृतकृत्य हो सके थे । वे अद्भुत ऋद्धियों तथा उत्तम गुणोंके अक्षय भंडार थे ।। ७२ ॥ शान्ति तथा दया उन सब ही महषियोंका स्वभाव हो गयी थी। जो कि निकट भव्य थे तथा धर्म कमानेके लिए आतुर थे उन सबके लिए वरांग आदि सब हो मुनियोंकी साधना तथा शीघ्र प्राप्त सिद्धि साक्षात् निदर्शन हो गयी थी। द्वादशांग शास्त्रका ज्ञान ही इन सब सकल साधकोंकी संपत्ति थी ।। ७३ ।।। वे सत्य शील, महाव्रत, साधपरमेष्ठीके गुण, अनित्य आदि भावनाओंकी सिद्धिमें ही दिन रात लीन रहते थे। उन्होंने लौकिक तथा पारलौकिक सब ही आशाओंको समाप्त कर दिया था। उनकी मति अपने आदर्शपर स्थिर थी, क्षुधा, तृषा आदि दोष शान्त हो गये थे तथा उनके ज्ञानका तो कहना ही क्या था ।। ७४ ।। ऐसे परम तपस्वी वे सब मनिलोग पथ्वीपर विहार करते थे। इस सतत उग्र तपस्याके उपरान्त उनके आत्मामें अनेक महागणोंका उदय हुआ था। इनके कारण वरींग आदि ऋषियोंके तपकी कीर्ति सारे संसारमें फैल गयी थी। इसीलिए अत्यन्त। संक्षेपसे उसका यहाँ वर्णन किया है। इसके आगे भी पूर्व वरांगराजकी दीक्षित पत्नियोंकी तपसिद्धि तथा यथावसर अमित गुण राजर्षिके विषयमें भी कुछ कहेंगे ।। ७५ ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द अर्थ रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें तपोविधानवर्णननाम त्रिंशतितम सर्ग समाप्त । [२५] ASHAMATA १. [ °भिरक्ताः । २. [त्रिंशत्तमः । ७९ Jain Education interational Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग एकत्रिंशः चरितम् [एकत्रिंशः सर्गः] नरेन्द्रपत्न्यः श्रुतिशीलभूषा निर्वेदसंवर्धितधर्मरागाः । विशुद्धिमत्यः प्रतिपन्नदीक्षास्तदा बभूवुः परिपूर्णकामाः ॥१॥ दीक्षाधिराज्यश्रियमभ्युपेता अनय॑सत्संयमरत्नभाजः । प्रीति परां प्रापुरदीनभावा दारिद्रययोषा इव रत्नलाभात् ॥ २॥ अर्थाननप्रतिमान्विधिज्ञाः विषोपमांस्ताविषयान्विदध्यः । ता मेनिरेऽरीनिव सांपरायांस्तत्त्वार्थदृष्टयाहतधर्मरागाः ॥३॥ सर्गः KoradaicoreTRauseurrenARATE-न्यारा एकत्रिंश सर्ग जैसा कि पहिले कह चुके हैं दीक्षाको धारण करके ही भूतपूर्व सम्राट वरांगकी रानियोंका अन्तिम महा मनोरथ पूर्ण हो गया था । शास्त्रोंका ज्ञान तथा शीलोंका निरतिचार आचरण ही उनके सच्चे आभूषण हो गये थे। उनका वैराग्य मौलिक तथा स्थायी था इसीलिए उसके द्वारा उनके धार्मिक अनुरागको पूर्ण प्रेरणा प्राप्त हुई थी तथा उनकी निर्मल मति सर्वथा सत्यपथपर ही चल रही थी ॥१॥ तपश्चरणमें भी पतिसे पीछे नहीं प्रव्रज्या ग्रहण करते ही उन्हें दिगम्बर दीक्षा रूपी विशाल साम्राज्यकी अनुपम लक्ष्मी प्राप्त हो गयी थी। इस राज्यके साथ-साथ उन्हें संयम रूपी महारत्न भी मिले थे जिनका मूल्य आंकना ही असंभव था। इस लाभसे वे परम प्रसन्न थीं तथा उनके विचार तथा आचारमें उस समय अबला सुलभ दीनता न थी। उनकी वही अवस्था थी जो कि दरिद्र स्त्रीको अनायास रन मिल जानेपर होती है ॥२॥ लौकिक संपत्ति तथा पदार्थोंको वे मूर्तिमान अनर्थ ही समझती थीं। तपस्याकी विधिमें प्रवीण रानियां इन्द्रियोंके प्रिय । विषयोंको हालाहलके समान ही प्राणान्तक मानती थीं। सांसारिक मधुर संबन्धोंको वे अमित्र सोचकर छोड़ चुकी थीं। यह सब । इसीलिए था कि तत्त्वोंके सत्य स्वरूपके ज्ञानने ही उनमें अडिग धार्मिक प्रेम उत्पन्न कर दिया था ॥३॥ न्यायमाSUPERTAIRSITE [६२६] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ecipe बराज एकत्रिंशः भारतमा सर्गः व्रतानि शीलान्यमतोपमानि दयादमौ मातृपितृत्वतुल्यौ । गुणा विशिष्टा बरभूषणेभ्यो ज्ञानं च दध्युनयनं तृतीयम् ॥ ४॥ ऐश्वर्यवीर्यातिजातिवित्तविज्ञानशिल्पिर्मदिरामदैश्च । पुरापि ता मुक्तिपथं प्रपद्य शान्ता बभूवर्नरदेवपत्न्यः ॥५॥ तपोधनानाममितप्रभावा गणाग्रणी संयमनायका सा। मुनीन्द्रवाक्याच्छमणाजिकाभ्यो दिदेश धर्म च तपोविधानम् ॥ ६॥ ताश्च प्रकृत्यैव कलाविदग्धा जात्यैव धोरा विनयविनीताः । आचारसूत्राशनयप्रभङ्गानाधीयते स्माल्पतमैरहोभिः ॥७॥ बाबाRANSAR - Sapearesmewaapee-SweeHeaHSEXHARASHIRe-res चारित्र ही संपत्ति पांचों महाव्रतों तथा शीलोंको वे अमृतके समान जीवन दाता समझती थीं। सब प्राणियोंपर दया और इन्द्रियोंका दमन उस समय उनके निस्वार्थ कल्याण चाहनेवाले माता पिताके स्थानको ग्रहण कर चुके थे। अनगारके विशिष्ट गुणोंने ही । सुन्दर भूषणोंकी कमी पूरी कर दी थी, तथा शुद्ध ज्ञान ही उनका तृतीय नेत्र हो गया था ।। ४ ।। ____ जब वे एक सम्राटकी पत्नी थीं, उनका ऐश्वर्य अपार था, वीर्यकी सीमा न थी, कान्तिकी सर्वत्र ख्याति थी; जातिमें 1 गौरव था, धनकी गिनती असंभव थो, सांसारिक विषयोंका विशेष ज्ञान था, ललित कलाओंमें कुशलता थी तथा मदिराका वह उन्माद जिसमें भूत, भविष्यत और वर्तमान एक हो जाते हैं। किन्तु यह सब होनेपर भी रानियोंको वह शान्ति न मिली थी जो कि मोक्षमार्गको पाकर उन्हें प्राप्त हुई थी ॥ ५ ॥ श्री वरदत्त केवलीके संघमें एक प्रधान आयिका थी जिनका तपजन्य प्रभाव समस्त मुनियों तथा श्रमणोंकी अपेक्षा बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वे आयिकाओंके गणको प्रधान थीं। संयम साधनाकी भी वे स्वामिनी थी। जब महाराज वरदत्तने उन्हें नव दीक्षित आयिकाओंको उपदेश देनेका संकेत किया तो उन्होंने उन सबको धर्मका रहस्य तथा तपकी सकल विधिको क्रमसे । समझा दिया था ।। ६॥ सद्गुरुसंयोग आर्यिका दीक्षाको प्राप्त रानियां जन्मसे ही कला, कौशलमें अनुरक्त थीं। अपनी जाति तथा कुलके अनुरूप ही वे धीर तथा गम्भीर थीं। उनकी समस्त शिक्षा तथा अभ्यास विनयके साथ तो हई ही थी। फलतः बहुत थोड़े ही दिनोंमें उन्होंने पूर्ण आचारको हृदयंगम कर लिया था। बारह अंगोंयुक्त आगमका अध्ययन कर लिया था, सातों नषोंका रहस्य जान लिया था A और सप्तभंगीके मूल तत्त्वोंको भली भांति समझ लिया था ॥७॥ १. [ गुणान्विशिष्टान् ]। २. [ °शिल्पैर्मदिरा ] । ३. मनासका, [ °नायिका ] । ZATERRITATE [६२७] Jain Education international Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज एकत्रिंशः - सर्गः चरितम् महाबलानिन्द्रियकुञ्जरांस्तान् दर्पोच्छितागर्वमशावलिप्तान् । वशं प्रपन्नान्विवशं प्रणिन्युर्ववयशैः क्षान्तिशिलानिशातैः ॥८॥ अनर्थसंपादनशक्तिमान्या मनोमहादण्डधरो महात्मा । दूरंगमः प्रेरयितेन्द्रियाणां ताभिजितो मोहन पाग्रयायो ॥९॥ वाक्कायचित्ते प्रणिधेः प्रयोगं क्षणेऽपि पापासवहेतुभूतम् । अनर्थकं तत्त्रिविधं गुणिन्यो नोचुन चुकुर्न हि संस्मरंश्च ॥१०॥ गणाग्रभूषाः पृथुशीलभारा विच्छिन्नकामाकुरपुष्पबीजाः । स्वशक्तितः संपरिगृह्य योगं तनूनि ताः कर्मरजांसि चक्रुः ॥ ११ ॥ HARPATAARAMPATRITTENa । नायकके सम, अपितु पांचों OHAHESHARMATHEMARATHI पाँचों इन्द्रियां तथा नोइन्द्री (मन ) उन मदोन्मत्त हाथियोंके सदृश हैं जिनकी शक्तिकी सीमा नहीं हैं । ये विषयोंकी अभिलाषारूपी दर्पमें चूर होकर विद्रोही हो जाते हैं यौवनके मदसे उन्मत्त होकर अनर्थ करनेपर तुल जाते हैं। इन्हें भी रानियोंने । अपने संयत गृहस्थ जीवनमें भी उच्छृखल नहीं होने दिया था और अब दीक्षित अवस्थामें तो शान्तिरूपी शिलापर तीक्ष्ण किये गये सुमतिरूपी प्रखर अंकुशकी मारसे इनकी सारी मस्ती ही उतार दी थी॥ ८ ॥ मनस्विनी अब ही हुई मनुष्यका अनियंत्रित मन ही संसारके समस्त अनर्थोंको जन्म देता है। वह महान् सेना नायकके समान है जिसके नायकत्वमें विषय भोगोंकी निश्चित विजय होती है। वह महात्मा स्वयं ही दुर-दूर तक छापे नहीं मारता है, अपितु पांचों इन्द्रियोंको भी कुमार्गपर दौड़ता है। विश्वविजयी महाराज मोहके इस प्रधान सेनापतिको भी उन रानियोंने पराजित कर दिया था ।। ९॥ अपने मन, वचन तथा कायका अनुचित प्रयोग वे एक क्षण भी न करतो थों, क्योंकि इनके प्रयोगका अवश्यंभावी फल पापकर्मोका आस्रव होता है। वे गुणवती देवियां भलोभांति जानती थीं कि वैसा प्रयोग त्याज्य है, अतएव भूलसे भी वे न तो। व्यर्थ विषयोंपर विचार करती थीं, न अनावश्यक शब्द ही बोलती थीं और न निष्फल कार्य ही करती थीं ।। १० ।। उन्होंने सांगोपांग शीलको धारण किया था, कामरूपी विषवृक्षके अंकूर तकको तपकी अग्निमें झोंक दिया था। अतएव अपनी सफल साधनाके कारण वे अपने गण ( आर्यिका संघ ) की भूषण हो गयी थीं। वे अपनी शक्तिके अनुसार आतप आदि योग लगाकर पूर्व जन्मोंमें बाँधे गये कौके मैलको कम करती थीं ॥ ११ ॥ १.क°निशान्त्यः। २.[°शक्तिमान्यो]। ३. क संस्मरश्च, [ संस्मरुश्च ] । [६२८) Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशः उपोष्य पचत्रिषडष्टरात्रं पक्षश्च मासानपि षट्चतुष्कान । तपःकृशीभूतशरीसंस्था आहारमाजहुरथाल्पमल्पम् ॥ १२ ॥ तपोऽग्निनिर्दग्धविवर्णदेहा व्रतोपवासैरकृशाः कृशाङ्गायः। विशीर्णवस्त्रादतगात्रयष्टयस्ताः काष्ठमात्रप्रतिमा बभूवुः ॥ १३ ॥ पूरे बनेऽरातिजने जने वा मानापमानादिषु तुल्यभावाः । त्यक्तात्मसंगा निरवद्यचेष्टा धर्मानुरागा वसुधा विजहुः ॥ १४ ॥ यथा प्रसूता महतां कुलेषु यथैव वासन् भवि राजपल्यः । यथैव विज्ञानपथं प्रपन्नास्तथैव रशेप्तुः सुतपांसि साध्व्यः ॥ १५॥ randuDASIRTHEIRSTRORIALAचारचाया उपवासावि व्रत वे तीन दिन, पांच दिन, छह दिन, आठ दिन तथा पक्षों पर्यन्त लगातार उपवास करती थीं। कभी कभी महीनों, चार और छह माह भी उपवास करते बीत जाते थे, इस कठोर तपस्यासे उनके सुकुमार शरीर अत्यन्त कृश हो जाते थे, अतएव व्रतके अन्तमें वे बहुत थोड़ा आहार लेकर पारणा करती थीं ।। १२ ।। चिरकाल पर्यन्त तपरूपी अग्निकी लपटोंसे झुलसते रहनेके कारण उनके सुन्दर शरीर विवर्ण हो गये थे। स्वभावसे । ही उनकी देह कृश थी, उसपर भी लम्बे-लम्बे व्रत तथा उपवास, फलतः अत्यन्त कृश हो गयी थीं। उनकी सुकुमार देह चिथड़े-4 चिथड़े साड़ियोंसे लिपटी हुई थीं। इन सब कारणोंसे वे काठसे बनायी गयी पुतलियां सी मालूम देती थीं ॥ १३ ॥ समताभाव जनाकीर्ण नगर तथा जनशन्य बनमें उनके लिए कोई भेद न था, शत्रु और मित्रमें कोई पक्षपात न था, मान और अपमान दोनोंमें ही उनके एकसे भाव रहते थे। उन्हें अपने देह और आत्माका थोड़ा सा भी मोह न था। उनका प्रत्येक कार्य दोषरहित तथा शुभ होता था ॥ १४ ॥ वे धर्मके अनुरागसे प्रेरित होकर देशोंमें विहार करती थीं। जिस पूर्वपुण्यकी योग्यताके बलपर वे लोकपूज्य उत्तम कुलोंमें [६२९] उत्पन्न हुई थी और उसीके अनुरूप वे युवती होनेपर पृथ्वीपालक सम्राटकी प्राणाधिका हुई थीं। १५ ॥ १. [ पक्षांश्च ]। २. [ तेपुः]। ३. म साध्यः । STERIORDERAGELAGIRIRPURSUIRGika Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अथैव मुक्तानि तपांसि तासां तपस्विनीनां वरशीलभासाम् । वराङ्गराजषितपोविधानं संक्षेपतस्तत्पृथगेव वक्ष्ये ॥ १६ ॥ विहाय राज्यश्रियमद्भुतश्रीस्तपः श्रियं संश्रयितुं कृताशः । निस्संगिनों तां प्रतिपद्य दीक्षां जग्राह धीरः स महाव्रतानि ॥ १७ ॥ आचारमादौ समधीत्य धीमान्प्रकीर्णकाध्याय मनेकभेदम् । अङ्गानि पूर्वांश्च यथानुपूर्व्यामल्पैर होभिः सममध्यगीष्ट ॥ १८ ॥ विधूय संकल्परतिप्रसंग जिनेन्द्रवाक्याषिगतार्थतत्त्वः । नानाविधानं प्रतिगृह्य योगं तपश्चकारोग्रतपा महात्मा ॥ १९ ॥ इस विधि से उन तपस्विनियोंके दुर्द्धर तपोंका वर्णन किया है जिनके तपसे क्लिष्ट शरीरपर परिपूर्ण शीलकी अद्भुत ज्योति थी । इसके उपरान्त राजर्षि वरांगकी तप विधि के विषय में संक्षिप्त रूपसे कुछ कहते हैं ।। १६ ।। हम देख चुके हैं कि तपश्रीको वरण करनेकी अदम्य आशाके कारण ही वरांगराजने विशाल राज्य लक्ष्मीसे सम्बन्ध तोड़ दिया था, क्योंकि उनके आन्तरिक और बाह्य गुणोंकी श्री ( शोभा ) हो उस राज्यश्रीसे अधिक चारु थी । स्वभावसे ही धीर वीर वरांगराजने जब निर्ग्रन्थ दीक्षाको धारण किया था उसी क्षणसे उन्होंने पाँचों महाव्रतोंका पालन प्रारम्भ कर दिया था ।। १७ ।। वरांग ऋषिका तप महा मतिमान् मुनि वरांगने सबसे पहिले पूर्ण विस्तारपूर्वक आचारांगका अध्ययन किया था। इसके उपरान्त अपने अनेक भेद तथा प्रभेदयुक्त प्रकीर्णक ग्रन्थोंका अध्ययन पूर्वक मनन किया था । इसे भी समाप्त करके शेष अंगों तथा दृष्टिवादके चौदह पूर्वी आदिका क्रमशः अध्ययन किया था। आश्चर्यकी बात तो यही थी कि तुलनात्मक दृष्टिसे उन्हें इन सबके अध्ययनमें बहुत ही थोड़ा समय लगा था ॥ १८ ॥ समस्त संकल्प विकल्पों तथा पूर्वमुक्त रतिके प्रसंगोंकी पापमय स्मृतियोंको उन्होंने हृदय पट परसे सदा के लिए पोंछ दिया था । भगवान् अर्हन्त केवलीके उपदेशके अनुसार ही तत्त्वोंके साक्षात्कार में वे सदा लीन रहते थे । नाना प्रकार के बिविध आतापन आदि योगोंको लगाकर महात्मा वरांग उग्रसे उग्र तपस्या कर रहे थे ।। १९ ।। १. म वर्मा For Private Personal Use Only RAJA एकत्रिंशः सर्गः [ ६३० ] Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकत्रिंशः सज्ज्ञानमत्तद्विरदाधिरूढो दयातपत्रोत्तमपट्टचिह्नः। सद्धचानचापेरितशीलबाणैविव्याध मोहारिमवार्यधैर्यः॥२०॥ चारित्रजात्यश्वमथाधिरूढः स धर्मवर्मावृतगात्रभूषः । विज्ञानकुन्तेन हि कर्मशत्रु निपातयामास यतिविभिद्य ॥ २१ ॥ पञ्चेन्द्रियैरप्रतिलब्धवीर्य रागानिलप्रेरितधूमजालम् । 'संकल्प्यसंवर्षितकामवह्नि ज्ञानाम्बुकुम्भैः शमयांबभूव ॥ २२ ॥ सम्यक्त्वतुङ्गवतनेमिबद्धं शीलोपलोत्तेजि ततीक्ष्णधारम् । "तपोरनग्रं वरधर्मचक्रं जथान संगृह्य हि कामशत्रुम् ॥ २३॥ सर्गः HAPPAWAAIPADMAATREATIPATPATRAPALPAPARDASTANIAw तपराज्य राजर्षि वरांग सम्यकज्ञान रूपी हाथीपर आरूढ़ थे। दया, दम धर्मरूपी निर्मल तथा धवल छत्र और राजपट्ट उनके तपमय राज्यको घोषित करते थे। तथा शुद्ध धर्म तथा शुक्लध्यानरूपी प्रबल धनुषको उठाकर उसके द्वारा वे शीलरूपी प्रखर वाणोंकी वर्षा करके अपने महाशत्रु मोहके अंग-अंगको भेद रहे थे ॥ २० ॥ इस आध्यात्मिक युद्ध में भी उनका धैर्य अलौकिक और असह्य था। हाथियोंकी श्रेष्ठ जातिमें उत्पन्न सम्यक्चारित्ररूपी रणकुशल हाथीपर आरूढ़ होकर उन्होंने आठों कर्मोरूपी भव-भवके शत्रुओंसे युद्ध छेड़ दिया था। इस युद्ध में सत्य जैनधर्मका पालन ही उनका कवच था, सम्यकज्ञान ही तीक्ष्ण कुन्त ( भाला ) था, जिसके सटीक आघातोंसे उन्होंने देखते-देखते ही कर्मशत्रुको धराशायी कर दिया था ।। २१ ।। पाँचों इन्द्रियोंरूपी द्वारोंसे वीर्यको ग्रहण करनेवाली, प्रेमरूपी प्रबल पवनके झकोरोंकी मारसे कर्तव्य विमुखता आदि धुएंके बादलोंसे युक्त तथा काम भोग सम्बन्धी कल्पनाओंरूपी उद्दीपकोंके पड़ते ही भभकनेवाली कामदेवरूपी ज्वालाको राजर्षि वरांगने सम्यक्ज्ञानरूपी बड़े-बड़े जलपूर्ण कुम्भोंसे क्षण भरमें ही बुझा दिया था ॥ २२॥ धर्मचक्र निर्ग्रन्थ तपरूपी रणमें सद्धर्म चक्रके समान था । निर्दोष तथा अष्टांगयुक्त सम्यक्दर्शन तथा अन्य महाव्रत आदि नेमिके समान थे जिसपर धर्मरूपी चक्र कसा गया था। शील उस पाषाण शिलाके समान थे जिसपर घिस कर उक्त चक्रकी धारको तीक्ष्ण किया गया था। इसी भीषण चक्रको उठाकर राजर्षिने कामवासनारूपी शत्रुके मस्तकको छेद दिया था ॥ २३ ॥ १. [ संकल्प। २. क पापर्वाह्न। ३. म शीलोपलात्तेजित। ४. [ तपोरणोग्रं] । RELATIOCantIREचामान्यमान्म [६३१] Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् कषायचोरान्विषयारिवर्गान्परीषहान्तपरिमन्थि तश्च निवेदखनेन बलान्निगृह्य स खण्डशः कल्पितवाञ्जिताशः ॥ २४ ॥ उद्दामकामातिबलावलिप्तानपञ्चेन्द्रियारण्यमतङ्गजांस्तान् । तपोऽर्गलैरप्रतिभिद्य रूपैः क्षमोरुवीर्यान्निरुरोध धीरः ॥ २५ ॥ स मानसानिन्द्रियदुष्टचोरान्सद्धर्मरत्न प्रतिसंजिघृक्षुः । प्रज्ञातपःसंयमशृङ्खलाभिर्बबन्ध दृष्टानिव चोरवर्गान् ॥ २६॥ लोभोरुवैरान्सह रागभोगान्कामाशयान् क्रोधविषाप्रदंष्ट्रान् । इच्छास्फुटानिन्द्रियदुष्टसन्दियाम्बुसेकैः शमयांबभूव ॥ २७ ॥ एकत्रिंशः सर्गः क्रोध आदि कषायें आध्यात्मिक संपत्तिके लिए चोर हैं, इन्द्रियोंके विषय ही प्रबल शत्रु हैं, परीषह आदि तो आत्माके अन्तरंग तथा घातक शत्रु हैं। इन सबको राजर्षिने आत्मबलसे बलपूर्वक घेर लिया था और वैराग्यरूपी तलवारके द्वारा इनके टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे ॥ २४ ।। बाशा विजय आशारूपी दानवीके विजेता राजर्षिने पाँचों इन्द्रियोंरूपी जंगली तथा उद्दण्ड हाथियोंको भी धीरज पूर्वक क्षमारूपी । विशाल शक्तिका प्रयोग करके रोका था और तपरूपी स्तम्भसे-जिसे तोड़ना उनके लिए असंभव हो गया था-कसके बाँध ! दिया था। यद्यपि किसीके भी वशमें न आनेवाला प्रदीप्त कामरूपो महाशक्तिके बलका उन्हें ( इन्द्रियों ) अहंकार था तो भी है राजर्षिकी क्षमा युक्तिने उन्हें एक पग चलना तक असंभव कर दिया था ॥ २५ ॥ इन्द्रिय चोर मानसिक विकार तथा पाँचों इन्द्रियाँ निर्दय चोरोंके समान हैं, जब तक इनका वश चलता है ये सत्य धर्मरूपी रत्नको ले भागनेका ही प्रयत्न करते हैं । किन्तु मुनि वरांगने यथार्थ प्रकाशक प्रज्ञा, घोर तप और संयमरूपी सांकलोंके द्वारा लौकिक चोरों तथा दुष्टोंके समान ही इन इन्द्रिय चोरोंको भी कठोर बन्धनमें डाल दिया था। मनुष्यको विषय लोलुप इन्द्रियाँ प्राणान्तक विषपूर्ण साँपके ही समान हैं, स्पर्श आदि विषयोंकी चाह ही इन साँपोंको गुंडी हैं ।। २६ ॥ सब अभिलाषाएँ ही इनका दुष्ट अन्तरंग है तथा क्रोध कषाय ही वह डाढ है जिसमें आशीविष रहते हैं । जीवका लोभ ही वह वैर है जिसको प्रतिशोध करनेके लिए इन्द्रिय सर्प बार-बार डंक मारते हैं। इन साँपोंको भी वरांगराजने दयारूपी मंत्रपूत । जलके छींटे देकर शान्त कर दिया था ।। २७ ।। १. [° परिपन्थिनश्च ]। २. क बलान्विगृह्य । Jain Education international Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग PRECAREET कूर्मो यथाङ्गानि निजे शरीरे स्पष्टः पुनः संहरतेऽन्तरन्तः । तथैव संसारभयावकृष्टः स्वानीन्द्रियाण्यात्मनि संजहार ॥ २८ ।। मोहातिरोगोद्धववातरोगं द्वेषाभिधानोदभवपत्तिकं च । तथैव हास्यानि च पञ्च धीमान्यमौषश्रेस्तान् शमयांबभूव ।। २९ ॥ कामोत्तरनं रतिवेगतोयं कषायफेनं विषयोरुमत्स्यम् । अगाधसंसारमहार्णवं तं विशोषयामास तपोबलेन ॥३०॥ त्रिगुप्तिधारेण दया'प्रभासा चारित्रवेगातिसमीरितेन । सम्यक्त्ववज्रेण निहत्य धीमान्विचूर्णयामास स कर्मशैलम् ।। ३१ ॥ एकत्रिश: सर्गः चरितम् N T. अन्तर्मुख साधक कछएको जब कहींपर थोड़ा-सा भी छुआ जाता है तो वह हाथ पैर आदि सब हो अंगोंको अपने शरीरमें समेटने लगता है और ज्यों-ज्यों भय बढ़ता है त्यों-त्यों अपने अंगोंको और अधिक समेटता जाता है। इसो विधिसे सांसारिक भयोंसे त्रस्त होकर वरांगराजने अपनी पाँवों इन्द्रियों और नोइन्द्रिय मनकी प्रवृत्तियोंको अपने आत्मामें हो केन्द्रित कर लिया था॥ २८ ।। आत्म स्वास्थ्य शारीरिक वातरोगके समान अत्यधिक बढ़ा हुआ मोह आत्माको भी वात रागके समान विवश तथा अचेतन कर देता है। द्वेष, आदि पाप-प्रवृत्तियाँ आत्मापर वही कुप्रभाव करती हैं जो विकृत पित्तका शरीरपर होता है तथा हास्य, रति, आदि पाँचों नोकषायें आध्यामित्क कफ दोषके समान हैं। मतिमान मुनि वरांगने इन आत्माके वात, पित्त और कफको यम ( आजीवन त्याग ) रूपो औषधि देकर पूर्ण शान्त कर दिया था ॥ २९ ॥ आशा सागर शोषण अनादि तथा अनन्त संसार अगाध समुद्रके तुल्य है । इस समुद्र में अभिलाषाओं तथा कामवासनाओंरूपी ऊंची-ऊंची लहरें उठती हैं। प्रेमके अवाध प्रवाह रूपो, चंचल जल लहराता है, क्रोध आदि कषायों रूपो विषाक्त फेन बहता है तथा इन्द्रियोंके भोग्य पदार्थों रूपी बड़ी तथा भयंकर मछलियां गोते मारती हैं। इस विशाल समुद्रको भो उन्होंने तपको दाहसे सुखा दिया था । ३० ।। कर्मपहाड़ दलन आठों कर्मोरूपी अभेद्य तथा उन्नत पर्वतोंको राजर्षि वरांगने सम्यक्त्वरूपी वज्रके प्रहारोंसे तोड़ ही नहीं दिया था अपितु चूर्ण-चर्ण कर दिया था, क्योंकि सम्यक्त्वरूपी वनपर तीनों गुप्तियों रूपी धार रखी गयी थी, दया धर्म ही उस शस्त्रकी १. म प्रभासी। anter-TRGETRIKामन्याचURREROLTAHATEEnt TERTAINME [६३३) ८० Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् एकत्रिंशः सर्गः अज्ञानतुम्बं विषयोरजानि मोहाभिरागप्रतिबद्धनेमिम् । कषाय कृष्णायमतीक्षणधारं संसारचक्रं समनुजिगाय (2) ॥ ३२॥ कषायवृक्षं विषयोरुकक्षं रागाम्बुसंवर्धितवल्लिगुल्मम् । ददाह संसारमहाटवीं तां तपोऽग्निना निष्कलषान्तरात्मा ॥ ३३ ॥ यथा पुराभ्यन्तरदुष्टराशि समूलका [-] विधिना चकार । तथा कषायप्रमुखान् दुरन्तान् धीरः समूलोद्धरणं चकार ।। ३४ ॥ सम्यक्त्वचारित्रतपस्त्रिशुलैानावलीनो निशितैः सुतीक्ष्णै:। मनोवचःकायघनीकृतानि बिभेद मिथ्यापटलानि तानि ।। ३५॥ DarkaranaprauteIRRAZIASIAGE प्रखर चमक थी, तथा सम्यक्-चारित्र रूपी प्रभञ्जनके प्रबल वेगसे वह शस्त्र फेंका गया था। यह संसार एक विशाल चक्राव्यूहके समान है ॥ ३१ ॥ संसारचक्र अज्ञान इसकी तुम्बी ( नार जिसमें अर ठोके जाते हैं ) है, इन्द्रियोंके भोग्य पदार्थ हो इस चक्रके अर ( डंडे ) हैं मोहनीय कमसे उत्पन्न सर्वतोमुख सांसारिक राग ही उसकी नेमि (धुरा ) है जिसपर वह घूमता है, तथा अत्यन्त कलुषित क्रोध, आदि • कषायें ही उसकी लोह निर्मित तोक्ष्ण धार है। ऐसे घातक चक्रको भी राजर्षिकी साधनाने निरर्थक कर दिया था ॥ ३२ ॥ संसाराटवी यह अपार संसार अत्यन्त घने तथा दुर्गम बनके समान है, क्रोध आदि कषायोंरूपी पुष्ट तथा विशाल वृक्ष इसमें भरे पड़े हैं, विषय भोग रूपी दुर्गम प्रदेश हैं, राग, विशेषकर प्रेम रूपी जलसे सींचा जानेके कारण सांसारिक उचित तथा अनुचित । सम्बन्धों रूपी वेलें तथा झाड़ियाँ भरी पड़ी हैं। ऐसी भयानक अटवीको भी बरांगयतिने तपस्यारूपी आगसे भस्म कर दिया था। यह अग्नि भी मुनि वरांगके कलुष कालिमा हीन पवित्र आत्मासे भभकी थी ।। ३३ ।। दुष्टभाव दमन मुनि वरांग जब वरांगराज थे उस समय उन्होंने नगर तथा राष्ट्र में छिपे हुए छद्मवेशधारी सब ही दुष्टोंको दण्डित ही नहीं किया था, अपितु उनकी सन्ततिको मूलसे नष्ट कर दिया था। तपवीर-धीर वरांगराजने दीक्षा ग्रहण करने पर उसी विधिसे सब ही दुष्ट भावों और कर्मोंका, जिनके अगुआ क्रोधादि कषायें थीं जड़से ही उखाड़ कर फेक दिया था ।। ३४ ।। मिथ्यात्व भेदन राजर्षि वरांग ध्यान में लवलीन रहते थे। इसी अवस्थामें सम्यकदर्शन, सम्यकचारित्र तथा घोर तप रूपी अत्यन्त तीक्ष्ण त्रिशूलसे मिथ्यात्व रूपी अन्धकारके मोटे तथा अभेद्य पटलको उन्होंने अनायास हो भेद दिया था । मिथ्यात्वके ये पतं, जो १.क 'कृष्टा । ___२. [ ° महावनं तत् । मान्या-चामाना--मा-मायामामान्य [३४] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिशः बराङ्ग चरितम् क्रोधं ज्वलन्तं कृपया जिगाय मानं जिगायाप्रति मादवेन । मायामजुत्वेन जिगाय धीमान् लोभं विमुक्त्या मतिमान्विजिग्ये ॥ ३६ ॥ शैलाग्रदुर्गान्तरकन्दरेषु नवरगम्येषु च काननेषु । नदीतटस्थद्रुमकोटरेषु वने पितृणामवसत्कदाचित् ॥ ३७ ।। उद्यानमुत्कृष्टगृहान्तराणि तपोधनानां च पुननिवासान् । महाटवीं व्यालमृगाभिजुष्टां कदाचिदेको न्यवसन्नसिंहः ॥ ३८ ॥ सद्धचानचारित्रतप्रापकर्षेः प्रशान्तरागः प्रविधूतपाप्मा। विधिज्ञदेशे निरुपद्रवे च ज्ञानोपयोगं स मुनिश्चकार ॥ ३९ ॥ सर्गः PIPARATHAawe areAIRANAMAHARASTHAN मन, वचन तथा कायकी कुचेष्टाओंसे दिनों-दिन गृहस्थाश्रममें मोटे होते जाते थे ।। ३५ ।। दहकती हुई क्रोधकी ज्वालाको कृपाके द्वारा बुझाया था, मानरूपी शिलाको अभूतपूर्व मार्दव (विचारोंकी कोमलता) से गला दिया था, परम ज्ञानी राजर्षिने मायाकी कुटिलताओंको आर्जव ( सरलता) से सीधा कर दिया था तथा लोभ रूपी कीचड़को विरक्तिकी दाहसे सुखा दिया था ।। ३६ ।।। नाना भांति तप तप साधनामें लीन मुनि वरांग एक समय शैलके शिखरपर ध्यान लगाते थे तो दूसरे समय उसकी गुफाओंमें चले । जाते थे तथा तीसरे समय गहन वनमें जाकर अदृश्य हो जाते थे। उनके निवासस्थान जंगल ऐसे घने होते थे कि मनुष्य उनमें प्रवेश करनेका भी साहस न करते थे। नदीके किनारे खड़े हुए विशाल वृक्षोंके खोखलोंको भी उनका निवासस्थान होनेका सौभाग्य प्राप्त होता था तथा श्मशान भी इसका अपवाद न था ।। ३७ ।। कभी वे किसी बगीचेकी शोभा बढ़ाते थे अथवा लोगोंके द्वारा छोड़े गये खण्डहर महल में जा बैठते थे। तपोधन ऋषियोंकी वासभूमि आश्रम तो उन्हें परम प्रिय थे। किन्तु दूसरे समय वे अकेले ही किसी ऐसे दुर्गम वनमें चले जाते थे जो कि भीषण सापों तथा हिरणोंके राजा सिंहोंसे व्याप्त होते थे ।। ३८ ।। ध्यानकी चरम सीमा उनके धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान ये दोनों शुभ ध्यानोंका, चारित्र तथा तपका इतना अधिक बहुमुख प्रकर्ष हुआ था कि उसके द्वारा समस्त पापोंकी कालिमा धुल गयी थी। और राग आदि भाव शान्त हो गये थे। इसके उपरान्त राजर्षि वरांगने ज्ञानोपयोगकी साधनामें; वहाँ चित्त लगाया था जिस स्थानपर ज्ञानोपयोगकी विधिके विशेषज्ञ रहते थे तथा उपसर्गों या उपद्रवों की आशंका न थी।। ३९ ॥ १.म मार्दनेन। २. [ नरैरगम्येषु ] । UNDELKATARRHEARGAZINEETAILSHIELKायमस्य Jain Education international Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAH एकत्रिंशः वराङ्ग चरितम् कदाचिदन्यैर्मुनिभिः प्रशान्तः श्रुतार्णवान्तर्गतवद्भिरायः । तपोऽधिर्धर्मधुरंधरैश्च सहोपविष्टः सुविशुद्धचेताः ॥ ४० ॥ कदाचिदुन्मार्गनिरञ्जितानां दुर्वृत्तदुर्भाषणतत्पराणाम् । मथ्यामहामोहतमोक्तानां चित्तप्रसादाय दिदेश धर्मम् ॥ ४१ ॥ कल्याणभाजां स कदाचिदीशो भव्यात्मनां भावितसत्कृतीनाम् । सद्धर्ममार्गश्रवणप्रियाणां हितोपदेशं प्रचकार धीमान् ॥ ४२ ॥ कदाचिदन्तर्गतशद्धभावो विचित्रपञ्चेन्द्रियराग'बन्धः । आस्थाय मौनव्रतमप्रकम्प्यस्तस्थौ स रात्रिप्रतिमामभीक्षणम् ॥ ४३ ।। सर्गः ARIHARATPATRADHEPHen:SHAHARSHA राजर्षिका चित्त सब दृष्टियोंसे शुद्ध हो गया था अतएव शुभ तथा शुद्ध संस्कारोंको ग्रहण करनेकी अभिलाषासे वे कभीकभी ऐसे मुनियोंका सत्संग करते थे जो कि मूर्तिमान शान्ति ही थे. शास्त्र रूपी अपार पारावार जिनके द्वारा पार किया गया था, पूज्यताने जिनको स्वयं वरण किया था, धर्ममार्गका चलाना जिनके लिए परम प्रिय था तथा जिनकी तपसिद्धि राजर्षि वरांगसे बहुत अधिक थी ।। ४० ।। अधमोद्धार ___ कभी-कभी वे उन अज्ञानियोंके हृदयको पवित्र करने के लिए धर्मोपदेश भी देते थे जो कि विपरीत मार्गको मानने, फैलाने तथा पालन करने में लवलीन थे, जिनको कुत्सित आचरण तथा पापमय आचरण करने में ही आनन्द आता था तथा जिनके विवेक तथा आचरण मिथ्यात्व और महामोहके द्वारा बुरी तरहसे ढक लिये गये थे। ४१ ।। भव्य विकास दूसरे किसी अवसरपर महाज्ञानी वरांग यति भव्य जीवोंका आत्माके अभ्युदय तथा निश्रेयसका उपदेश देते थे, क्योंकि वे जानते थे कि उन लोगोंका शीघ्र अथवा विलम्बसे कल्याण होनेवाला ही था, वे लोग सदा हो शुभ भाव रखते थे और तदनुसार शुभ कर्म ही करते थे। उन भव्य प्राणियोंको जिन धर्मकी कथा सुनते, सुनते कभी भो सन्तोष और शान्ति (तृप्ति) न होती थी।। ४२॥ अन्तर्मुख इन्द्रियाँ राजर्षिकी पाँचों इन्द्रियोंकी प्रवृत्तियोंने एक विचित्र ( संसारसे विपरीत) ही पथ पकड़ लिया था अतएव वे कभी-कभी अकस्मात् ही मौन व्रत धारण कर लेते थे और पूरोको पूरी रात पाषाण निर्मित मूर्तिके समान ध्यानवस्थ बैठे रहते थे। ये सब साधनाएँ धीरे-धीरे उनके अत्यन्त अन्तरंग भावोंको परम पवित्र करती जा रही थीं ।। ४३ ।। १. [बद्धः ] ! मायामायामाचबरसILTRANSLATION Jain Education international Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA बराज एकत्रिंशः चरितम् कदाचिदुत्कृष्टतपःप्रभावो विविक्तदेशे स चतुर्दिनानि । चतुर्मुखस्थानगृहीतयोगं निनाय निष्कम्पतिर्महात्मा ॥ ४४ ॥ कदाचिदुच्छलमहागिरीणां सूयांशुभिस्तप्तमहाशिलासु। प्रलम्बहस्तः समपाददृष्टिस्तस्थौ महर्षिः स्वरजःक्षयाय ॥ ४५ ॥ कदाचिदाधुणितमण्डलानां सविद्युतां प्रक्षरतां घनानाम् । धारा भिघौताचलगात्रयष्टिस्तस्थौ महर्षिः स्वरजःक्षयाय ॥ ४६ ।। कदाचिदाणितमण्डलानां सविद्युतां प्रक्षरतां धनानाम् । धाराभिधौताचलगायष्टिस्तस्थौ रजन्यां स धनागमेषु ॥४७॥ सर्गः Uranusauthoriसन्चाRIALI समस्त अतिचारों आदिसे रहित उत्कृष्ट तपके कारण राजर्षिका प्रभाव बड़े वेगसे बढ़ रहा था। वे किसी अत्यन्त एकान्त स्थानपर चले जाते थे और वहाँपर चतुर्मखस्थान ( चारों दिशाओंमें क्रमशः मुख करके समाधि लगाना) योगको धारण करके चार दिन पर्यन्त थोडासा भी हिले डुले बिना एकासनसे बैठे रहते थे। उनका धैर्य अपार था ॥ ४४ ।। ऋतुतप ग्रीष्म ऋतु में कभी, कभी वे महापर्वतोंके बहुत ऊँचे-ऊँचे शिखरोंपर चले जाते थे। इन पर प्रातःकालसे संध्यापर्यन्त सूर्यकी प्रखर किरणें सीधी पड़ती थीं, जिससे शिलाएँ अत्यन्त उष्ण हो जाती थीं। राजर्षि अपने कर्मोरूपी मैलको गलानेके लिए । इन्हीं शिलाओंपर हाथ नीचे लटकाकर खड़े हो जाते थे उस समय उनकी दृष्टि पैरोंपर रहती थी॥ ४५ ॥ वर्षा योग जिस समय जोरोंसे उठी घनघटाके कारण एक ओर दूसरे छोर तक पूराका पूरा आकाश तथा भूमण्डल चंचल हो उठता था, बिजलीकी लगातार चमकसे सृष्टि भीत हो उठती थी, और मूसलाधार वृष्टि होती थी, ऐसे ही दारुण वर्षाकालमें वे N अपने पापों रूपी धूलिको धोनेके लिए खुले आकाशमें ध्यान लगाते थे ।। ४६ ।। घुमड़-घुमड़कर घिर आये बादलोंके कारण उस समय ऐसा लगता था कि पृथ्वी और आकाश एकमेक हो जायेंगे। इस भीषण घनघटामें निरन्तर बिजली चमकती थी और वृष्टि एक क्षणके लिए भी नहीं रुकती थी। एकके बाद दूसरी घटा उठती ही आती थी। ऐसे घनघोर वर्षाकालमें रात्रिके समय वे आकाशके नीचे योग धारण करते थे। उनके ध्यानस्थित शरीरपर रात्रिभर पानीकी प्रबल बौछारें पड़ती थीं तो भी शरीर निष्कम्प ही रहता था ॥ ४७ ।। १. क वाराभि । WARDHPareeramMAHATAIMIMPATHANE [६३७] PAHESHA Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् गृहो [-]' ग्योभ्यवकाशयोगो प्रवाति वाता यति शीतले च । सुषारपातातिविरूक्षिताङ्गः कदाचिदासैकमनः प्रविष्टः ॥ ४८ ॥ कदाचिदत्यर्थमहोपवासैश्चान्द्रायणाद्यैः प्रथितैरनेकैः। कृशीकृताङ्गो नियमैर्यमैश्च मुनिः प्रचक्ने सुतपोऽतिघोरम् ॥ ४९ ॥ जिनेन्द्रसूत्रोक्तपथानुचारी संयम्य वाक्कायमनांसि धीरः। सुदुर्धरं कापुरुषैरचिन्त्यं द्विषट्प्रकारं तप आचचार ॥ ५० ॥ प्रसन्नभावात्सपसः प्रकर्षात्क्षमान्वितः स्वादशुभप्रणाशात् । अखण्डचारित्रवतो महर्षेरुत्पेदिरे तस्य हि लवधयस्ताः ॥ ५१ ॥ एकत्रिशः सर्गः धा शीतकाल प्रारम्भ होनेपर जब अत्यन्त शीतल पवन बड़े वेग और बलके साथ झकोरे मारता था। निरन्तर तुषारपात होता था, उस समय ही वे विधिपूर्वक अभ्यवकाश योग ( वृक्षादिकी छायाको छोड़कर बिना आड़के बिल्कुल खुले प्रदेशमें ध्यान लगाना) लगाते थे। शीतल अनिलके झकोरे अंग-अंगको रुक्ष करके फाड़ देते थे तो भी उनका मन चरम लक्ष्यपर ही एकाग्र रहता था ।। ४८॥ घोर शीत सहन यदि एक समय दीर्घतम उपवास करते थे, तो दूसरे अवसरपर ही चान्द्रायण आदि परम प्रसिद्ध अनेकों व्रतोंका पालन करते थे। यद्यपि इन सब नियमों और यमोंके निरन्तर पालनने राषिके शरीरको अत्यन्त कृश कर दिया था तो भी वे पूर्ण उत्साहके साथ धोरसे घोर सुतप करनेमें दत्तचित्त थे ।। ४९ ॥ जैनागम जैसा उपदेश करता है उसके अनुकूल साधना मार्गका अक्षरशः अनुसरण करते हुए मुनि वरांगने अपने मन, वचन तथा कायको पूर्णरूपसे वशमें कर लिया था। उनका धैर्य अपार था अतएव अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन तथा कायक्लेश, ये छह बाह्य तप तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप, कुल मिलाकर इन बारहों तपोंकी ऐसी साधना की थी जिसे करना अति कठिन था तथा विषयलोलुप भीरु पुरुष जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे ।। ५० ॥ घोरतपके ऐहिक फल राजर्षि वरांगका अन्तःकरण स्फटिककी भांति निर्मल हो गया था। तप इतना बढ़ गया था कि क्षमा उनकी जीवन सहचरी हो गयी थी। स्वादु पदार्थ तथा शुभ फलोंको अभिलाषा समूल नष्ट हो गयी थी। महाव्रतीके पूर्ण आचरणको साव१. क ( ° तयो.), [ गृहीतयोग्या' ] । २. [ वायावति° ] । ३. म प्रमाणात्, [क्षमान्वितत्वादशुभ.] । न्याचा RESPELATERIES [६३८] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशः वराङ्ग परितम् सर्गः सौषधित्वं च महातपस्त्वं क्षीरास्त्रवत्वं च सचारणत्वम् । सुलभ्य लोकातिशयान्गुणौघान्सुखं विजहे भुवि वीतशोकः ॥ ५२ ॥ समाप्तयोगैः परिपक्षविद्यैविहर्तुकामैरविषण्णुभावः। दयात्माभिः साधुगणैरनेकैः क्षिति विजह्रस्वतपोऽभिवृद्धये ॥ ५३ ।। क्षान्त्या च दान्त्या तपसा श्रुतेन ऋद्धचा च वृत्त्या वतभावनाभिः । प्रकाशयामास जिनेश्वराणां स शासनं शासनवत्सलत्वात् ॥ ५४॥ पुराणि राष्ट्राणि मटम्बखेटान् द्रोणीमुखान्खर्वउपत्तनानि । विहृत्य धीमानवसानकाले शनैः प्रपेदे मणिमत्तदेव ।। ५५ ॥ धानीसे पालते थे, उसमें कहीसे भी कोई कमी न आती थो। इन सब योग्यताओं के कारण ही महर्षिको वे लब्धियाँ प्राप्त हुई थी जो कि सबके द्वारा अभिलषणीय हैं ॥ ५१ ।। उन्हें सर्वोषधि ( जिससे सब रोग शान्त हो जाते थे, ) महातपस्त्व (घोरसे घोर तप करनेपर भी श्रान्ति न होना) क्षीरस्रवत्व ( वाणीका दूधको धारकी तरह स्वपर पौष्टिक होना ) चारण (आकाशमें गमन करना) आदि अद्भुत गुणोंको सरलतासे प्राप्त करके वे सारी पृथ्वीपर विहार करते थे। ये लब्धियाँ ऐसो थीं कि संसारमें इनके सदृश सिद्धियां देखी ही नहीं जाती हैं ।। ५२॥ जिन ऋषियोंके आतापन, आदि योग सफल हो चुके थे, समस्त विद्यायें परिपक्व हो गयी थों, दया जिनकी प्रकृति हो चुकी थी, तथा तीर्थस्थानोंके दर्शन और जैनमार्गको प्रभावनाके लिए जो लोग विहार करना चाहते थे, ऐसे अनेक साधुओंके साथ वे देश-देशान्तरोंमें विहार करते थे क्योंकि विहारसे भी तपकी उन्नति ही होती है ॥ ५३ ।। धर्म विहार अपने आचार तथा विचारको सम्पूर्ण शान्ति, कष्टों तथा वाधाओंको उपेक्षा करनेसे प्रकट हुई परम उदारता, अखण्ड तप, सांगोपांग शास्त्रज्ञान, चारण आदि ऋद्धियां, सरल वृत्ति, व्रतोंकी भावनाओं तथा श्री केवली भगवान द्वारा उपदिष्ट जैनशासनकी अगाध प्रीतिके कारण राजर्षिने जैनधर्मको खूब प्रभावना को थी ।। ५४ ।। राजर्षिके संघने अनेक खेड़ों ( ग्राम ) विशाल तथा साधारण नगरोंमें, सामुद्रिक व्यापारके स्थानोंमें धर्म विहार किया था। और जब आयुकर्मका अन्त निकट आ गया था तब वे धोरे-धीरे विहारको समाप्त करते हुए फिर उसी मणिमन्त पर्वतपर 1 जा पहुंचे थे ॥ ५५ ॥ HAIRMAHIPATHAKHeareAMARPAHITHAIP [६३९] Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् तैः संयतः सागरवृद्धिमुख्यैर्यथोक्तचारित्रतपः प्रभावैः । संन्यासतस्त्यक्तुमनाः शरीरं वराङ्गासाधुगिरिमारुरोहः ॥ ५६ ॥ आरुह्य तं पर्वतराजमित्थं तपस्विभिः सार्धमुपात्तयोगैः । निर्वाणभूमौ वरदत्तनाम्नः प्रदक्षिणोकृत्य नमश्कार || ५७ ॥ पवित्रचित्तो गतरागबन्धः पत्यङ्कतस्तत्र निषद्य धीमान् । कृताञ्जलिः साधुगणान्समग्रान्क्षमध्वमित्येवमुवाच वाचम् ॥ ५८ ॥ अस्नानकण्व्रतमण्डिताः प्रपण्डितैः पण्डितसाधुवर्ग: । प्रायोपयानं कृतवान्सहैव स पण्डितः पण्डितमृत्युमिच्छन् ॥ ५९ ॥ महर्षि वरांग भूतपूर्वं सेठ मुनि सागरवृद्धि, आदि प्रधान साधुओंके साथ मणिमन्त शैलकी शिखरोंपर इसलिए चले गये थे कि वहाँ शान्त वातावरण में संन्यास पूर्वक प्राणोंको छोड़ें। राजर्षि वरांग जैसे ऊंची कोटिके तपस्वी थे वैसे ही उनके साथी सब ही साधु परम संत थे ।। ५६ ।। निर्वाण भूमिको ओर इन सब ही ऋषियोंने योगसाधनामें पूर्ण सिद्धि प्राप्त की थी और उग्र तपस्वी तो वे स्वयं थे ही। पूर्वोक्त क्रमसे इन सबके साथ जब राजर्षि वरांग पर्वतके ऊपर पहुँच गये थे तब वे सब महाराज वरदत्त केवलोकी निर्वाण भूमिकी ओर गये थे । उसके निकट पहुँचकर तीन प्रदक्षिणाएं करनेके उपरान्त उन्होंने श्रीगुरुके चरणों में प्रणाम किया था ।। ५७ ।। समाधिमरण राजर्षि सल्लेखना ( संन्यास ) के लिए प्रस्तुत थे, क्योंकि उनका चित्त सर्वथा शुद्ध था, राग आदिके बन्धन तो कभी के नष्ट हो चुके थे । अतएव उन्होंने पद्मासन लगाया था। इसके बाद अत्यन्त विनम्रताके साथ दोनों हाथ जोड़कर परम ज्ञानी राजर्षिने अपने संयम के साथी सब हो तपोधनोंसे प्रार्थना को थी 'आपलोग मुझे क्षमा करें ॥ ५८ ॥ वहाँ उपस्थित सबही साधुआने स्नान, खुजाना, आदि सब प्रकारके अंग संस्कारोंको न करनेका व्रत ले लिया था तो भी सबके शरीरोंसे तपःश्री फूटी पड़ती थी। वे सब ही शास्त्रों के पण्डित तथा आचारके विशेषज्ञ थे । जीवन रहस्यके पण्डित राज को भी पण्डित-मरण ( समाधिमरण ) पूर्वक शरीर त्यागनेकी अभिलाषा थी अतएव अन्य समस्त साधुओंके साथ उन्होंने भी प्रायोपगमन ( जिसमें अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करते हैं और न दूसरोंसे कराते हैं) संन्यास धारण किया था ॥ ५९ ॥ TAG एकत्रिंशः सर्गः [ ६४० ] Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशः बराङ्ग चरितम् आजीवितान्तावशनादिभेदान्संसारसंवर्धनहेतुभूतान् विहाय धीरः स तु मोक्षकाङ्क्षी कृतप्रतिशः सुखमास सत्र ॥६०॥ अभ्यन्तरं बाह्यमपि प्रसंगं विपुच्य संक्लेशपदं सुधीमान् । द्वन्द्वविमुक्तोऽप्रतिकारदेह आसीन्मुनिः संयमधाम्नि तस्मिन् ॥ ६१ ॥ स्वजीविताशां मरणानुरांग विहाय मित्रेषु ममत्वसंज्ञाम् । स चानुबद्धं वनिताकदम्बमभन्मनिमक्तिपथैकचेताः ॥ ६२॥ प्रणम्य पूर्व तमरिष्टनेमिमरिष्टकर्माष्टकपाशमुक्तम् । शेषान् जिनेन्द्रानपि च प्रणम्य यथावदालोच्य मुनिः स तेभ्यः ॥ ६३ ॥ सर्गः भोजन पान आदि सब ही क्रियाएँ आरम्भ तथा परिग्रह साध्य होनेके कारण नूतन बंधके कारण होती हैं, इसी विचारसे उन्होंने जीवन की समाप्ति पर्यन्त इन सबको छोड़ दिया था। इसके अतिरिक्त अन्य सब ही आवश्यक प्रतिज्ञाबोंको भी धारण करके सथा धीर वीरताके साथ मोक्षपर ही ध्यान लगा कर सूख और शान्ति पूर्वक ध्यान मग्न हो गये थे ॥ ६ ॥ समाधिस्थ मुनि उनके ज्ञानकी सीमा न थी। संक्लेश, विक्लेशके मूल स्थान बाह्य तथा आभ्यन्तर परिग्रहोंका उनके पास लवलेश भी न था। लाभ-हानि, सुख-दुख, शुभ-अशुभ आदि द्वन्दोंसे वे परे थे। शारीरिक कष्टका प्रतिकार न करते थे। केवल संयम और ध्यानमय परमधाममें ही विराजमान थे ।। ६१ ।। इस जीवन अथबा अगले जोक्नमें उन्हें किसी प्रकारको अभिलाषा न ओ, मरनेको कोई अभिरुचि न थी, मित्रोंमें ॥ अथवा किसी भी अन्य प्राणी और पदार्थमें उन्हें ममत्व न था तथा जन्म-जन्मान्तरोने चले आये स्त्री पुरुष सम्बन्धके प्रति भो । पूर्ण उदासीन थे। समस्त बन्धनोंको छोड़कर महामुनि वरांगने अपनी समस्त वृत्तियोंको एकमात्र मुक्ति मार्गपर लगा दिया है था ।। ६२॥ तीर्थकर नुति सबसे पहिले उन्होंने यादवपति श्री नेमिनाथ भगवानके चरणों में नतिकी थी जो कि आठों कर्मोके प्रबल पाशको तोड़कर मुक्त हो चुके थे। इसके उपरान्त बाईसवें तीर्थकरसे पहिलेके समस्त जिनेन्द्रोंको प्रणाम किया था। तथा उन्हें ही साक्षी मानकर अपनी निष्पक्ष तथा सख्य आलोचना की थी॥ ६३ ॥ ८२ [६४१] Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A GEIR वराङ्ग चरितम् ...... उदन्मुखस्त्यक्तशरीरचेष्टः प्रसन्नबुद्धिः शमितान्तरात्मा । आराधां तां च चतुष्प्रकारामाराधितुं प्रारभतानुसूत्रम् ॥ ६४॥ । ज्ञानाश्रितां दर्शनकारिणों च बहप्रकारोग्रतपःश्रितां च । चारित्रभेदोपनिबन्धिती च प्रचक्रमे कर्तमनुक्रमेण ॥६५॥ काले प्रधानविनयप्रधानस्सन्माननाचिह्नवशप्रयोगैः। ग्रन्थार्थयोरप्युभयप्रयोगः साराधना ज्ञानविधिप्रणीता ॥६६॥ संध्यामहीकम्पतटित्प्रचारपर्वादिनिन्येषु च दुविनीताः । अध्यापनं चाध्ययनं च भूयो व्यानंडिताद्याः प्रतिपत्प्रदोषाः ॥ ६७ ॥ र एकत्रिंशः सर्गः SAIRLIAMETROLAGIRI-READERI इतना करनेके तुरन्त बाद ही उनका अन्तरात्मा पूर्ण शान्त हो गया था, मति पूर्ण प्रबुद्ध हो गयी थी। शारीरिक चेष्टाएं पूर्ण रूपसे बन्द हो गई थीं, और वे ऊपरको मुख करके समाधिस्थ हो गये थे। शास्त्रीय मार्गके अनुसारही उन्होंने अन्तिम समय परम आवश्यक चारों प्रकारकी आराधनाको प्रारम्भ कर दिया था । ६४ ।। चतुर्विध आराधना सबसे पहिले उन्होंने ज्ञानाराधनाको किया था। इसके आगे क्रमानुसार सम्यकदर्शनको पुष्ट करनेवाली दूसरी आराधना की थी। तीसरी आराधना तपके आश्रित थी क्योंकि उसमें भांति-भांतिके उग्रतपोंका विधान था और अन्तिमें चारित्र आराधनाको लगाया था जिसमें कि चारित्रके सकल भेदों तथा उपभेदोंका विस्तार है ।। ६५ ।। ज्ञानाराधना जो समयकी अपेक्षा प्रधान हैं अथवा विनयके आचरणमें बढ़े चढ़े हैं, ऐसे लोगोंके साथ सन्मान पूर्वक चिह्नोंसे आत्मवश उपायोंसे केवल ग्रन्थ-पाठ अथवा अर्थका मनन अथना दोनोंका अभ्यास ऐसे दोनों प्रकारके उपायों द्वारा; जो कि ज्ञान अर्जनके साधन हैं, करना ही ज्ञानाराधना है ।। ६६ ।। संध्याओंकी वेलाओंमें भूकम्प बिजलीकी चमक तथा वज्रपात युक्त कुसमय में तथा अशुभ पर्वोके दिनोंमें अध्ययन नहीं करना चाहिये जो दुविनीत हैं वे ही लोग प्रतिपदा आदि वजित दिनोंमें अध्ययन तथा अध्यापन करते हैं किन्तु विनय विधिके विशेषज्ञ कदापि नहीं करते हैं ॥ ६७ ।। HIROIROIRALARIAमान्स [६४२] Jain Education international Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | एकत्रिंशः बराङ्ग चरितम् जीवादयो मोक्षपदावसाना भूतार्थतो येऽधिगताः पदार्थाः ।। नयप्रमाणानुगतक्रमेण सम्यक्त्वसंज्ञामिह ते लभन्ते ॥ ६८॥ अपोह्य शङ्कां विचिकित्सतां च काङ्क्षां निराकृत्य च वत्सलत्वम् । अमूढतास्थापनाभावने च सदृष्टि लिङ्गान्युपगृहनं च ॥ ६९ ॥ शङ्का च काङ्क्षा मतिविप्लुता च परस्य दृष्टिरपि च प्रशंसा । भूयः सदानापतनस्य सेवा पञ्चातिचाराः खल दर्शनस्य ॥ ७०॥ नित्याविरोध्युत्तमसंयमस्य खेदो महावाक्तनुमानसानाम् । पूर्वाजितक्लेशविनाशहेतुस्तपः समुद्दिष्टमनाविलं च ॥७१ ।। सर्गः पत्रकारोने स सातों नयों का सात तत्त्ववाराधना ___सम्ाक्त्वाराधना जीवसे प्रारम्भ करके मोक्ष पर्यन्त जो सात तत्त्व हैं, जीव आदि पदार्थ छह हैं तथा सात तत्त्वोंमें पुण्य पाप मिलनेसे जो पदार्थ होते हैं । इन सबको सातों नयों तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी कसौटीपर कसे जानेके बाद इनका जो साक्षात्कार होता है उसे ही शास्त्रकारोंने सम्यक्त्व आराधना नामसे कहा है ।। ६८ ॥ सम्यकदर्शन ( सम्यक्त्व ) को प्रशस्त बनानेके लिए आवश्यक है कि साधक समस्त शंकाओंका समाधान कर ले (निशंकित ), किसी भी प्रकारकी घृणाको अपने अन्तरमें न रखे (निविचिकित्सता), समस्त आकांक्षाओंको छोड़ दे ( निकांक्षितः), धर्म और धर्मियोंपर निःस्वार्थ स्नेह करे ( वात्सलत्व ) विवेक विरुद्ध सिद्धान्त अथवा अस्थाको न माने ( अमूढदृष्टि ), सहमियोंकी क्षम्य भूलोंको गुप्त ही रहने दे ( उपगू हन ) ये सब सम्यक्त्वकी पूर्तिके द्योतक हैं ।। ६९ ।। वर्शनके अतिचार ___ तत्त्वोंमें शंका करना साधनाके फलस्वरूप किसी अभ्युदयकी आंकाक्षा करना, विवेकको नष्ट होने देना, दूसरोंके सदोष, सिद्धान्तोंकी अनावश्यक प्रशंसा करना तथा जो छह पापके साधक ( अनायतन ) है उनका सेवन करना ये पांचों सम्यक् दर्शनके अतिचारहि ।। ७० ॥ तपाराधना अनादि पूर्व जन्मों में बांधे गये पापकर्मोके नष्ट करने लिए मन, बचन तथा कायको जो अतिशय संयत किया जाता है उसीको तप कहते हैं। इसके करनेसे ऊंचीसे ऊंची कोटिके संयमकी थोड़ीसी विराधना नहीं होती है। आत्माकी क्लेश आदि जन्य मलीनताको यह स्वच्छ करती है तथा उसका आदर्श सदा हो संसारसे ऊपर होता है। परम तपस्वी मुनियोंने ही इस तपके दो भेद किये हैं ।। ७१ ॥ [६४३] . Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् तद्विप्रकारं मुनिभिः प्रदिष्टं सान्तर्बहिर्भेदविशेषयुक्त्या । आध्यात्मिकं भेदमुपैति षोढा बाह्य पुनः षड्विधमामनन्ति ॥ ७२ ॥ बहुप्रकारं हि तपोविधानं तद्विद्यमानाशयशुद्धिहेतोः । न्याय्यं हि दोषान्यतमप्रकोषे विशेष भैषज्य विधानदृष्टम् ॥ ७३ ॥ रागात्मकानामुपवासयोगाद्वेषान्वितानां च विविक्तवासः । ढवितानां मुनिभिः प्रणीतो ज्ञानोपयोगः सततं तपस्त्वम् ॥ ७४ ॥ महाव्रतान्यप्रतिमानि पञ्च पञ्चैव सम्यक्समितिप्रयोगाः । त्रिगुप्तयो या अवशं विधाय चारित्रमेतत्सकलं मुनीनाम् ।। ७५ ।। साधन तथा योग युक्तिके भेदसे वह अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकारका है । आध्यात्मिक तपके छह भेद हैं तथा बाद्य तपके इस विधि से छह विभाग हैं। उक्त बारह भेद स्थूल दृष्टिसे किये हैं वास्तव में तो अनशन, अवमौदर्य आदि प्रत्येक बाह्य तप तथा प्रायश्चित आदि प्रत्येक अभ्यन्तर तपके भी अनेक भेद होते हैं ॥ ७२ ॥ आत्मचिकित्सा विधि इस बहुमुख तपका चरम लक्ष्य एक हो है और वह है विद्यमान पापोंका विनाश। वात, पित्त तथा कफमें से किसी भी दोष प्रकुप्त हो जाने पर जिस तत्पराके साथ औषध उपचार आवश्यक होता है, उसी भाँति आत्मामें कोई दोष आनेपर तपरूपी उपचार ही सफल हो सकता है ।। ७३ ।। जिन मनुष्यों में अनुराग भाव बहुत प्रबल तथा जाग्रत है उन्हें उपवास करना साधक है। जिन्हें बात बात में कलह तथा द्वेष करनेका स्वभाव पड़ गया है उन्हें एकान्त स्थानपर निवास करना अनिवार्य है। तथा जो प्राणी सब दिशाओंसे मोहाक्लान्त हैं। उनके उद्धारका मार्ग ज्ञानोपयोग तथा सदा तपस्या करना ही है ।। ७४ ।। चारित्राराधना निर्ग्रन्थ मुनियोंके सकलचारित्रको निम्न विधियाँ है। सबसे प्रधान तो पाँचों अहिंसा आदि महाव्रत हैं जिनकी उपमा खोजना ही असम्भव है अप्रमत्त तथा सावधान होकर ईर्या आदिमें प्रवृत्त होने की अपेक्षासे ही समितियाँ भी पाँच हैं, मन, वचन तथा कायकी यथेच्छ प्रवृत्तियोंको नष्ट करके सर्वथा आत्माको वशमें कर देनेवाली गुप्तियाँ भी तीन हैं ॥ ७५ ॥ १. म न्यायं । २. मी ३. [ क्सयोगो ] । ४. म विभक्तवित्तः । ५. [ मोहान्वितानां ] । एकत्रि सर्गः [ ६४४ ] Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् ईसिमादाननिसर्गयत्नो वाणीमनोगुप्तिरपि प्रकाशे । अनिन्धभुक्तिः प्रथमव्रतस्य ता भावनाः पञ्च मुनिप्रणीताः ॥ ७६ ॥ क्रोधस्य लोभस्य भयस्य चापि हास्यस्य चात्यन्तमपोहनं च ।। बाचः प्रयोगोऽप्यनुवीचियुक्त्या पञ्चैव सत्यव्रतभावनास्ताः ॥ ७७ ॥ आदाय वक्रानुमतिस्तथैव' तस्मिन्नसंगोऽपि च भुक्तिसेवा' । सधर्मणश्चानुग्रहीतिरेवमाहुस्तृतीयवतभावनास्ताः ॥७८॥ स्त्रीरूपसंदर्शनसंकथानां तदाकुलावासरतिस्मृतीनाम् । त्यागः प्रणीतः सरसस्य चापि ता भावना ब्रह्ममहाव्रतस्य ॥ ७९ ॥ एकत्रिंशः सर्गः अहिंसा व्रतको भावनाएँ प्रथम महावत अहिंसाकी ईर्या समिति, आदान-निक्षेपणमें सावधानो, वचन और मनकी गुप्ति तथा सूर्यका स्पष्ट प्रकाश रहते हुए ही ऐसे पदार्थोंका भोजन करना जो कि अभक्ष्य होनेके कारण निन्दनीय न हों, ये पांचों भाक्ना (पालनमें साधक क्रियाएँ ) हैं। परम तपस्वी मुनियोंके कथनानुसार इनको पालनेसे अहिंसा महावत सुकर हो जाला है ।। ७६ ।। सत्याही भावनाएं क्रोधको सर्वथा बुझा देना, लोभपंकको सुखाना, भयसमुद्रको पार करना, हास्य क्रियाको समूल छोड़ देना तथा ऐसी कथा करना छोड़ देना जिसे कहनेमें चाटुकारिता अथवा दीनताको प्रकट करना पड़ता हो । ये पाँचों वे भावनाएँ हैं जिनके पालनसे सत्य महाव्रत अपने आप ही सिद्ध हो जाता है ।। ७७ ॥ अचौर्य महाव्रतकी भावनाएं आहार आदि ग्रहण करनेमें शुद्धि, कुटिल कार्यों ( परोपरोध आदि ) के अनुमोदनका त्याग, जहाँ कोई आरम्भ परिग्रह न हो ऐसे शून्य स्थानपर निवास करना उस स्थान पर रहना जिसे कि लोग छोड़ गये हों तथा प्रत्येक अवस्थामें सत्य धर्मके प्रति अक्षुण्ण अनुराग बनाये रखना-इन पाँचोंको तीसरे महाव्रत अचौर्यकी भावनाएँ कहा है ।। ७८ ।। ब्रह्मचर्य महाव्रतको भावनाएं स्त्रियोंके सुन्दर रूपको घूर घूरकर देखनेका त्याग, उनके रूप, रति आदि कामोत्तेजक वार्तालापको कभी न करना, स्त्रियोंसे परिपूर्ण स्थानपर न रहना, पूर्व समयमें भोगे गये विषय प्रसंगोंको स्मरण भी न करना तथा सरस उद्दीपक भोजनका सर्वथा त्याग, ये पाँचों चौथे महाव्रत ब्रह्मचर्यकी भावनाएँ हैं ।। ७९ ।। । १. [ °मति तथैव ] । २. म मुक्तिसेवा । [ ६४५] Jain Education international Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरान परितम् मनोहरेष्वप्यमनोहरेषु मनोहरे मुनेरसंकल्प्यसमा मतेषु । शदनादिषु स्यात्समवृत्तिचेतस्ता भावनाः पञ्चमसव्रतस्य ।। ८०॥ विसर्जनीयान्यथ वर्जयित्वा गुणानुपादाय यथाक्रमेण । ज्ञानोपयोगात्प्रशमेन तेन ज्ञानं समाराधितमात्मशक्त्या ॥ ८१॥ तथाभिचारातपनीय' सर्व तद्भावनाश्चापि सुसाधयित्वा । नित्योपयोगोऽस्खलितैकदष्टिः सम्यक्त्वमाराधितवान्यथार्थम् ॥ ८२॥ अध्यापकं चापि ततः पुरस्तात्कृत्वानपूर्वोत्तरवधितं तत् । विजित्य सर्वान्स परीषहारीस्तपः समाराधितवान्महात्मा ॥३॥ एकत्रिंशः सर्गः PERRORIGINHazaraswateEUNSAHARI अपरिग्रह महावतकी भावनाएं समस्त मनोहर पदार्थोंका त्याग, अमनोहर विषयोंके प्रति उदासीनता, शब्द आदि इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्ति, रागरूप संकल्पसे मुक्ति तथा द्वेषभावोंसे लिप्त प्राणियोंके प्रति भी समभाव, ये पाँचवें महवत अपरिग्रहकी भावनाएं हैं ।। ८०॥ गुण प्राप्ति राजर्षि वरांगने उन सब विषयोंको स्वयं ही त्याग दिया था जिनका त्यागना आवश्यक था। जिस क्रमसे त्याज्य विषयोंको छोड़ा था उसी क्रमसे गुणोंको धारण भी किया था। इन परिवर्तनोंसे उत्पन्न प्रशम मय भावों तथा सतत ज्ञानोपयोगक द्वारा उन्होंने अपनी आत्म शक्तिके अनुसार जितना संभव था उतना अधिक ज्ञानाभ्यास किया था ।। ८१ ॥ वे सदा ही शुभ और शुद्ध उपयोगमें लीन रहते थे, किसी भी क्षण उनकी तत्त्व दृष्टि भ्रान्त न होती थी। पाँचों महाव्रतोंकी भावनाओंमें वे अत्यन्त अभ्यस्त थे तथा उनके अतिचारोंमेंसे एकको भी पास न फटकने देते थे। इस कठिन पथका अनुकरण करके उन्होंने सम्यक्त्वकी पूर्ण उपासना की थी ॥ ८२॥ अन्तिम-साधना अपने निर्यापक आचार्यको साक्षी बनाकर राजषिने प्रारम्भसे तप साधना प्रारम्भ की थी तथा क्रमशः बढ़ाते हुए उस चरम सीमा तक ले गये थे। इस अन्तरालमें उन्होंने क्षुधा, तुषा आदि सब ही परीषह शत्रुओंका भी परास्त किया था आर पूणरूप 1 से तपकी आराधनाको सम्पन्न किया था। ८३ ।। १. [ तथातिचारानपनीय सर्वान् ] । 1६४६ Jain Education international Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभावनात्युग्रमहाव्रतानि रक्षन्स यत्नात्समितः समित्या। त्रिगुप्तिगुप्तो विगतप्रमावश्चारित्रमाराध्य यथोपदिष्टम् ॥ ८४ ॥ संहृत्य सर्वाण्यपि गोचराणि तथेन्द्रियाण्यात्ममनश्च तेभ्यः । अचिन्तयन्द्वादश' चिन्तनीयान्याराधनोत्कर्षगतो यतीशः ॥५॥ संध्यातडिद्वह्निशिखाम्बुदोमि तृणाग्रलग्राम्बुकणश्रियं च । समावृतीनीह च जीवितानि नृणामिति प्राहरनित्यतायाः ॥ ८६ ॥ व्यादारितास्ये सति यत्कृनिङ्ग न प्राणिनां प्राणमिहास्ति' किंचित् । मृगस्य सिंहोग्ननिशातर्दष्ट्रा यत्र प्रविष्टात्मतनोरिवार ॥ ७॥ PatanARSATI एकत्रिंशः सर्गः R अत्यन्त कठिन महाव्रतों तथा उनको पच्चीसों भावनाओंकी सांगोपांग शुद्धिकी रक्षा करते हुए, बड़े यत्नके साथ ईर्या | आदि समितियोंकी मर्यादाके भीतर ही आचरण करते हुए, तीनों गुप्तियों रूपो रक्षकोंसे रक्षित होते हुए तथा आलस तथा प्रमादको सर्वथा राजर्षिने आगमके अनुकूल विधिसे ही चरित्र आराधनाका अनुष्ठान किया था ।। ८४ ॥ विषय विसर्जन जितने भी पदार्थ तथा भाव इन्द्रियोंको पहुँचके भीतर हो सकते थे, उनकी कल्पना तकको नष्ट कर दिया था तथा मन और इन्द्रियोंको भी उधरसे संकुचित कर लिया था उनका चित्त सदा ही अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओंकी चिन्तामें लीन रहता था, क्योंकि श्रेयार्थी जीवोंके लिए भावनाओंका मनन अनिवार्य है। इस व्यवस्थित क्रमका पालन करनेसे यतिराज वरांगकी आराधनाएँ चरम उत्कर्षको प्राप्त हो गयी थीं ।। ८५ ॥ संसारको अनित्यता मनुष्योंके जीवनोंको सुषुमा संध्याकी लालिमाके सदृश ललाम है, विद्युत् प्रकाशको भाँति चंचल है, अग्निकी भभकके समान क्षण-स्थायी है, मेघ-चित्रोंके समान विनाशी, लहरोंके समान अस्थायी, दूवकी पत्तीपर जमी इन्द्र धनुषकी शोभा युक्त ओसकी बूंदके समान ही मनुष्य जीवन हर ओरसे अनित्यतासे घिरा हुआ है ॥ ८६॥ आयु कर्मका अन्त अथवा यम जब अपने विकराल मखको फैला देता है तब निश्चित है कि इस संसारमें प्राणियोंके प्राणोंका बचना असम्भव है । सिंहके घातक तथा तीक्ष्ण दाँत जब मृगके शरोरमें फँस हो गये, तो वह कैसे बच सकता है यही । अवस्था शरीरमें प्रविष्ट आत्माकी भी है ।। ८७ ।। । १. [अचिन्तयद्द्वादश]। २. क तटिद् । ३. [ कृतान्ते ]। ४. [त्राण"]। ELESSERIESaSaxe For Privale & Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R बराङ्ग चरितम् जातौ तिरश्चामय देवभावे मानुष्यके नारकदुःखयोनौ । जीवो घटीयन्त्रमिवास्वतन्त्रो बंभ्रम्यते संसृतिकल्पनैषा ॥८॥ द्वन्द्वत्रयव्याप्तिषु सर्वकालमेकोऽयमात्मा स्वकृतोपभोगी। आध्यात्मिकं बाह्यमिहापि वस्तु न किंचिदस्त्यत्र विचिन्तनीयम् ॥ ९ ॥ बेहात्मनो भेदविकल्पनायां संज्ञादिभेदं स्फुटमन्यथात्वम् । विद्वानथैकं कथमत्र कुर्यात्संगं पुमान्भणिनि कः शरीरे ॥१०॥ स्थानेन बीजेन तथाश्रयेण शश्वन्मलस्पन्दनसंप्रयोगात् । शरीरमावेदशुचीति मत्वा शुचित्वमस्मिन् विदुषा न कार्यम् ॥ ९१ ॥ एकत्रिंशः सर्गः ETRIETARIAGERRIA संसार प्रभाव कभी समस्त दुःखोंके भण्डार नरक योनिमें उत्पन्न होना, दूसरे समय तिर्यंच जातिमें भटकना, तीसरे अवसरपर मनुष्य पर्यायके चक्रमें पड़ना तथा अन्य समय देवगतिके विषय भोगोंमें भरमना इन्हीं आवागमनोंको संसार कहते हैं। इसमें पड़े जीव रहटको घड़ियोंके समान सर्वथा कर्मों के पराधीन होकर नीचे ऊपर आया जाया करता है ।। ८८ ॥ लाभ हानि, पाप पुण्य, शुभ-अशुभ आदि द्वन्द्वों तथा तोनों लोकों तथा कालोंमें यह आत्मा सदा अकेला हो चक्कर मारता है सदा ही अपने पूर्वकृत कर्मोंके शुभ तथा अशुभ फलोंको अकेले हो भरता है। जिन भावों आदिको आध्यात्मिक कहते हैं अथवा शरीर आदि समस्त बाह्य पदार्थ पुत्र-कलत्र आदि कोई भी इस आत्माके साथी नहीं है। यह जीव सर्वदा अकेला ही है । यही सब दृष्टियोंसे विचारणीय है ।। ८९ ।। अन्यत्व जब शरीर तथा आत्माके स्वरूप तथा गुणोंको अलग-अलग करके देखने लगते हैं तो इनका अन्यत्व स्पष्ट हो जाता " है, क्योंकि इनके नाम ही अलग नहीं हैं गुणों और स्वभावका भेद तो इससे भी अधिक स्पष्ट है। जो विवेकी हैं वह इन दोनोंमें ऐक्य कैसे कर सकता है क्योंकि कहाँ तो नित्य आत्मा और कहाँ क्षणभंगुर शरार ।। ९० ।।। अशुचित्व 1 [६४८ ] इस शरीरका बीज स्त्री तथा पुरुषका मल है, जिस स्थानपर बनता है वह भी मलमय है, स्वयं मलोंका भंडार है तथा इसके आँख, नाक, कान, मुख आदि नव द्वारोंसे मल ही बहता रहता है। शरीरके एक-एक अणुको प्रत्येक दृष्टिसे अशुचि ही 5 समझिये। किसी भी विद्वान्को इसे पवित्र समझने या बनानेका दुस्साहस नहीं करना चाहिये ॥ ९१ ॥ Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग एकत्रिंशः चरितम् आत्मा न चेतोविवरेण तेन गृह्मात्ययं कर्म सहेन्द्रियेण । तथाम्ब नः' छिब्रमतिस्तथैव प्रयोग एवं परिचिन्तनीयः॥ ९२॥ संस्तम्भ्य चेतोविवरं यथावत्तथेन्द्रियद्वारमथो पिधाय ।। स्यात्संवतस्याश्रवसंनिरोधो नावौ यथा वारिणि संवृतायाम् ॥ ९३ ॥ यथापि दुर्वह्निशिखाभिमर्शान्निमेषमात्रेण सभस्मता स्यात् । तपोबलात्प्राक्तनकर्महानिस्तथा मुनेः सा खलु निर्जरोक्ता ॥ ९४ ॥ लोके द्विधा कारणकार्यभावैरुत्पादभङ्गस्थितिसंप्रयुक्तः। पञ्चास्तिकायात्मकसंनिबद्धो विचित्ररूपस्त्विति लोकचिन्ता ॥ ९५॥ सर्गः आस्रव इस शरीरसे संबद्ध आत्मा मनरूपी मुक्केके द्वारा पाँचों इन्द्रियोंकी सहायता पाकर नये-नये शुभ तथा अशुभ कर्मोको ग्रहण करता है। जैसे कि छिद्र पाकर जल फटी नौकामें प्रवेश करता है उसी प्रकार कर्मोंका आत्मामें आना होता है ।। ९२॥ संवर यदि मनरूपी बड़े मुखको तत्परताके साथ भर दिया जाय तथा पाँचों इन्द्रियोंरूपी छेदोंको विधिपूर्वक ढक दिया जाये। तो आत्मा भलीभाँति सुरक्षित हो जायगा । और जब वह संवृत्त हो हो गया तो कोई कारण नहीं कि उसका आस्रव बन्द न हो। क्योंकि ज्यों ही नौकाके छिद्र मूंद दिये जाते हैं त्योंही पानीकी एक बूंद भी उसके भीतर नहीं आ पाती है ।। ९३ ॥ निर्जरा यदि ऊनको किसी प्रकार धधकती हुई अग्निकी ज्वालाकी लपटें स्पर्श कर लें तो एक क्षणमें ही उसका विशाल ढेर भस्म हो जाता है । इसी विधिसे जब मुनियोंकी तपरूपी अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है तो पहिलेसे बँधे कर्म देखते-देखते ही नष्ट हो जाते हैं इसे ही निर्जरा-भावना कहते हैं ।। ९४ ॥ लोक भावना लोक जोवलोकके उत्पादक कारण प्रधानतया दो ( उपादान और निमित्त ) प्रकारके हैं प्रत्येक पर्यायके कार्य-कारण भाव निश्चित हैं। इसके प्रत्येक अंग और पर्यायमें आप कुछ पदार्थोंको उत्पन्न होते देखेंगे, कुछ समय बाद उन्हें लुप्त होता भी देखेंगे, और देखेंगे कुछ ऐसे तत्त्व जिनपर जन्म और मरणका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है। इसको स्थूल रूप देनेमें पृथ्वी आदि पाँचों अस्तिकायोंका प्रधान हाथ है तथा इसका रूप और आकार भो बड़ा विचित्र ( पैर फैलाकर कोई आदमी कमर पर हाथ रखकर खड़ा हो तो जो आकार बनेगा वही लोकका आकार ) है। यही लोक-भावना है ।। ९५ ॥ १. [ नौश्छिद्रवती तथैव ]। २. [ नावो यथा वारिविसंवृतायाः]। ३. [ लोको] चामाबाIRAIMIREPाम्यमान्यामाRUARPITAIN [६४९] E Jain Education intemational ८३ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अनन्तशः संसरतोऽस्य जन्तोः सुदुर्लभा बोधिरिति प्रचिन्त्य । तां प्राप्य तस्मिन्न खलु प्रमादः कर्तव्य इत्येव हि बोधिभिन्ना॥ ९६ ॥ यत्प्राणिनां जन्मजरोग्रमत्युर्महाभयत्रासनिराकृतानाम् । भैषज्यभूतो हि दशप्रकारो धर्मो जिनानामिति चिन्तनीयम् ॥ ९७ ॥ इत्येवमाद्या अनुचिन्तनीयाः प्रोक्ता यथार्थाः क्रमशो विचिन्त्य । प्रसन्नचेता विनिवृत्ततृष्णः समाहितः संयतवाक्प्रचारः ॥ ९८ ॥ मध्ये ललाटस्य मनो निधाय नेत्रभ्रवोर्था खल नासिकाने। एकाग्रचिन्ता प्रणिधानसंस्था समाधये ध्यानपरो बभूव ॥ ९९ ॥ एकत्रिंशः सर्गः बोध-दुर्लभ __यह जीव संसारमें अनन्तों बार जन्म-मरण कर चुका है तो भी इसे सब कुछ पाकर भी केवल एक ज्ञान ही प्राप्त नहीं हुआ है। यही समझ कर यदि इसे कभी सत्यज्ञान प्राप्त हो जाय तो उसके संरक्षण और वर्द्धनमें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। इसे ही बोध-दुर्लभ भावना कहते हैं ।। ९६ ॥ धर्म भावना जो वीतराग तीर्थंकर जन्म, जरा तथा मृत्युसे पार हो गये हैं तथा जिनको बड़ेसे बड़े सांसारिक भय तथा त्रास स्पर्श भी नहीं कर सकते हैं ऐसे कर्मजेता तीर्थंकरोंका क्षमा, आदि दश प्रकारका धर्म ही, जन्म, जरा, मृत्यु, भय, आदिसे पराभूत प्राणियोंकी संसार व्याधिको शान्त कर सकता है ।। ९७ ॥ ये सब बारह भावनाएँ निश्रेयस पानेके लिए उत्सुक व्यक्तिको सदा हो चिन्तवन करना चाहिये इसीलिए इनका सत्य तथा विशद स्वरूप शास्त्रों में कहा गया है ऐसा मन ही मन समझकर राजर्षिका चित्त पुलकित हो उठा था। उनकी सब प्रकार की तृष्णाएँ शान्त हो गयी थीं, अपनी आराधनामें वे चैतन्य हो गये थे तथा वचन आदिका प्रचार भी पूर्ण नियन्त्रित हो। गया था ।। ९८॥ ध्यानकी चरमावस्था शक्ति और उपयोगके साथ राजर्षिने अपने मनको ललाटके मध्य ( मस्तिष्क ) में एकाग्र कर दिया था, भृकुटियों तथा 15६५01 आँखोंको जो नाकके अन्तिम विन्दुपर स्थापित किया था उनकी चिन्ता तथा चित्त दोनों सर्वथा निश्चल हो गये थे। इस क्रमसे समस्त शक्तियोंका एक स्रोतमें सम्मिलन हो जानेके कारण वे समाधिके चरम विकासके लिए सन्नद्ध हो गये थे ।। ९९ ॥ १. [ बोधिचिन्ता]। २. [ नेत्र वोर्वा ] | माRRIGADERSPECTOTALATHEIGRIHIRDERARIES Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् एकत्रिंशः संसारनिस्सारमपारतीरं त्रिलोकसंस्थानमनादिकालम् । द्रव्याणि च द्रव्यगुणस्वभावान्स चिन्तयामास यतियथार्थम् ॥ १०॥ एकस्तु मे शाश्वतिकः स आत्मा सदष्टिसज्ज्ञानगुणैरुपेतः। शेषाश्च मे बाह्यतमाश्च भावाः संयोगसल्लक्षणलक्षितास्ते ।। १०१॥ संयोगतो दोषमवाप जीवः परस्परं नैकविधानबन्धि । तस्माद्विसंयोगमतो दुरन्तमाजीवितान्तादहमुत्सृजामि ॥ १०२॥ सर्वेषु भूतेषु मनः समं मे वैरं न मे केनचिदस्ति किंचित् । आशां पुन: क्लेशसहस्रमलां हित्वा समाधि लघु संप्रपद्ये ॥ १०३ ॥ सर्गः यह संसार सब दृष्टियोंसे निस्सार है, अपने आप इसका कभी अन्त नहीं होता है, तीनों लोकोंका निर्माण भी कैसा अद्भुत है, काल भी कैसा विचित्र है, न उसका आदि है और न अन्त है, छहों द्रव्यों के स्वरूप क्या है, उनके गुण और पर्याय कैसी हैं, इन सब तत्त्वोंको अपने एकाग्र ध्यानमें उन्होंने वैसे ही सोचा था जैसे कि वे वास्तवमें हैं ।। १०० ।। मेरा यह आत्मा इन सबसे भिन्न हैं वह अनादि तथा अनन्त है। उसका स्वभाव ही सम्यक-दर्शन, सम्यक-ज्ञान मय है। ज्ञान और दर्शनके अतिरिक्त जितने भी शुभ तथा अशुभ भाव तथा पदार्थ हैं वे इससे सर्वथा पृथक हैं। उनका और आत्मा का वही सम्बन्ध है जो काया तथा कपड़ों आदिका है, इसके अतिरिक्त चैतन्य आत्मा और बाह्य जगतमें कोई सदृशता अथवा सम्बन्ध नहीं है । १०१ ॥ बाह्य पदार्थोंके संयोगमें फंस कर हो यह आत्मा सब दोषोंका आश्रय बन जाता है, क्योंकि संयोगको कुमासे जोव तथा जड़ एकामेक हो जाते हैं। अतएव इन दोनोंके इस भीषण तथा परिणाममें वातक संयोगको मैं जोवनके अन्तके साथ-साथ ही छोड़ता हूँ॥ १०२॥ बंध वैचिच्य __ संसारके समस्त प्राणियों पर मेरा मन एकसा है, किसीके साथ मेरी कोई भी शत्रुता नहीं है । आशा इस जगतमें एक दो नहीं हजारों तथा अनन्त क्लेशोंका एक मात्र अक्षय मूल है मैं उसे भी छोड़ कर वेगके साथ समाधिस्थ होता हूँ॥ १०३ ।। १. [ निस्सारसंसारमपार° ] । २. म शाश्वतकः । [६५१] Jain Education international Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् Se इत्येवमर्थान्बहुशो विचिन्त्य विधूय संकल्पमनल्पबुद्धिः । तपःकृशीभूतशरीरबन्धो महामुनिर्मासमथाध्युवास ॥ १०४ ॥ कृत्वा कषायोपशमं क्षणेन ध्यानं तथाद्यं समवाप्य शुक्लम् । यथोपशान्तिप्रभवं महात्मा स्थानं समं प्राप वियोगकाले ।। १०५ ॥ त्रिगुप्तिगुप्तेन दृढव्रतेन द्वारं नयानं [" ] हितं' यथावत् । स्थितानि कर्माणि कृशीकृतानि तपःप्रभावान्मुनिसत्तमेन ॥ १०६ ॥ स्थित्वापि सद्धधानपथेर निरोधात्कृत्वा च चारित्रविधि यथावत् । कर्मावशेष प्रतिबद्ध हेतोः स निर्वृति नापदतो महात्मा ॥ १०७ ॥ इस पद्धतिका अनुसरण करके राजर्षिने लोक तत्वोंका अनेक बार अनेक दृष्टियोसे ध्यान किया था। वे महामतिमान् थे अतएव संकल्प-विकल्पों को समाप्त करनेमें उन्हें समय न लगा था । निरन्तर चलते हुए तपस्या के अनुष्ठानों के भारसे उनका शरीर सर्वथा कृश हो गया था ।। १०४ ।। निदान त्याग इस प्रकार वे महामुनि एक मास पर्यन्त साधना-रत ही रहे थे। इसके उपरान्त एक क्षण भरमें ही राजकि कषाएँ (लोभ) विनष्ट हो गयीं थीं तथा वे शुक्ल-ध्यानकी प्रथम कोटि पृथक्त्व-विर्तक अवस्थामें आसीन हो गये थे । इसी क्रम विकास करते हुए वे प्राण वियोग के समय परम शान्तिसे प्राप्त होनेवाले सम स्थानपर पहुँच गये थे ।। १०५ ॥ ॥ क्षपकश्रेणी तीनों गुप्तियों रूपी कवच में सुरक्षित, ग्रहीत व्रतोंको निभाने के लिए अडिग तथा अकम्प, शास्त्रोक्त प्रक्रिया के अनुसार ही कर्मोंका आस्रव तथा निर्जरा ( क्योंकि कुछ रह ही नहीं गया था ) रूपी द्वारोंके रोधक राजर्षिने अल्पकालमें ही पहले से बँधे कर्मों को भी महान् तपके द्वारा नष्ट कर दिया था ।। १०६ ।। राज वग यद्यपि शुभ शुक्लध्यानकी प्रगति में पूर्णरूपसे प्रवेश पा चुके थे, मानसिक तथा अन्य वृत्तियों के पूर्ण निरोध को, सम्यक्चारित्रकी सर्वांग विधिको आगमके अनुकूल रूपमें पूर्ण कर चुके थे तो भी उन महर्षिको मोक्ष पदकी प्राप्ति न हुई थी। इसका कारण तो स्पष्ट ही था; उनके आत्माको शरीरमें बाँध रखनेके लिए कुछ कर्म तब भी शेष रह गये थे ।। १०७ ।। १. [ पिहितं ] । २. क निरोधो । ३. [ प्रतिबन्ध° ] | एकत्रि: सर्गः [ ६५२ ] Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराज एकविंशः परितम् सर्गः परीषहारीनपरिश्रमेण जित्वा पुनन्तिकषायदोषः । विमुच्य वेहं मुनिशुद्धलेण्या आराधयन्तंर भगवाजगाम ॥ १०८॥ यथैव वीरः प्रविहाय राज्यं तपश्च सत्संयममाचचार । तथैव निर्वाणफलावसाना लोकप्रतिष्ठा सुरलोकमनि ॥ १०९॥ शेषाश्च सर्वे जितरागमोहा महाधियः संयतपुङ्गवास्ते । सज्ज्ञानचारित्रतपःप्रयोगाद् विशुद्धलेश्याः सुरलोकमीयुः ॥ ११०॥ अनन्तरं केचन वैजयन्तं प्रैवेयकं ह्यारणमच्युतं च। माहेन्द्रकल्पं च ययुर्यतीशाः सुरर्षयो ज्ञानपरायणास्ते ॥ १११॥ तब अथक परिश्रमके द्वारा उन्होंने शेष परीषहों रूपो शत्रुओंको जीत लिया था तथा कषायों-रूपी समस्त दोषोंको विवेकके द्वारा धो डाला था फलतः उनको आभ्यन्तर लेश्या परम शुक्ललेश्या हो गयी थी। उस समय उनका ध्यान पंचपरमेष्ठीके स्मरण और आराधनामें लीन था इस अवस्थाको प्राप्त होते ही भगवान वरांग महामुनि अपने उत्तम औदारिक शरीरको छोड़कर पंचम गतिको प्रस्थान कर गये थे ।। १०८ ॥ अयोगावस्थाकी ओर वीरोंके मुकुटमणि सम्राट वरांगने जिस उत्साह और लगनके साथ आनर्तपुरके विशाल साम्राज्यको छोड़कर परम शुद्ध निर्ग्रन्थ दीक्षाको ग्रहण किया था और मुनि वरांग होकर शुद्ध संयम तथा तपका आचरण किया था, उसी निरपेक्ष भाव तथा शुद्ध स्वभाव प्राप्तिके साथ वे देव (ऊर्ध्व) लोकके मस्तक तुल्य तथा जीवलोककी अन्तिम सीमा भूत उस सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पाद शय्यासे जाग कर विराज गये थे। जिसमें उत्पन्न होनेका तात्पर्य हो यह होता है कि अगले भवमें निर्वाण पद प्राप्त करेंगे ॥१०९॥ शरोरान्त राजर्षि वरांगके साथ जिन-जिन अन्य राजाओंने दीक्षा ग्रहण करके कठोर संयमकी आराधनामें सफलता प्राप्त करके । रागद्वेष आदि कषायोंको जीत लिया था, वे मतिमान राजर्षि भी सम्यक्ज्ञान, सम्यकुचारित्र, घोर तप आदिके सफल प्रयोगोंके फलस्वरूप परम शुद्ध लेश्याओंको प्राप्त करके आयुकर्मकी समाप्ति होते ही देवलोक चले गये थे ॥ ११ ॥ अन्य मुनि समाधिमरण ज्ञान ध्यान परायण उन राजर्षियोंमें से कितने ही मुनिवर सर्वाथसिद्धिके पहिले स्थित अपराजित विमानमें प्रकट हुए । १. [ मुनिरुच्च , सुविशुद्ध]। २. [ आराधनान्तं ] । SAIRATRINATHERLANGRAHELIRAL [६५३] Jain Education interational Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः जिनेन्नपूजारतयः प्रकृत्या विशुद्धसम्यक्त्वधियः प्रकृत्या। विशुद्धसम्यक्त्वधियः सुलेश्या लोकान्तिकाः केचम संबभूवः ॥ ११२॥ महेन्द्रपल्यः श्रमणत्वमाप्य प्रशान्तरमाः परिणीतधर्माः । दयादमक्षान्तिगुणैरुपेताः स्वैः स्वैस्तपोभिस्त्रिदिवं प्रजग्मुः ॥ ११३ ॥ इत्येवं नरपतिना वराङ्गनाम्ना यत्प्राप्तं सुखदुःखमप्रचिन्त्यम् । राज्यान्ते कतमिह सत्तपश्च तेन तत्सर्व परिकथितं मया समासात् ॥ ११४॥ तद्भक्त्या चरितमिदं मुनीश्वरस्य श्रीकोतिद्युतिमतिसत्त्वसंयुतस्य। संशृण्वन्परिथयन्पठन्स्मरन्यः सोऽवश्यं ध्रवमतलं पदं प्रयाति ॥ ११५॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते वराङ्गर्षेः सर्वार्थसिद्धिगमनं नाम एकत्रिंशतितमः सर्गः। थे । दूसरे कितने ही महर्षि वैजयन्त विमानमें उत्पन्न हुए थे। कुछ लोग ग्रैवेयकोंमें पहुंचे थे, अन्य लोगोंका पुण्य उन्हें आरणअच्युतों कल्प तक ही ले जा सका था ॥ १११ ।। अन्य यतिवर महेन्द्र कल्पमें ही देव हुए थे। मन, वचन, कायकी तन्मयतासे जिनेन्द्र पूजा करना जिनका स्वभाव था, प्रकृतिसे ही जिन्हें तत्त्वोंपर निर्दोष गाढ़ श्रद्धान होनेके कारण नैसगिक सम्यक्त्व था तथा शुद्ध सम्यकदर्शनके साथ-साथ तपजन्य प्रभावके कारण जिनकी लेश्या विशुद्ध पोत, पद्म तथा शक्ल हो गयी थी वे संयमी मर कर लौकान्तिक देव हुए थे ॥ ११२॥ इतरजन सद्गति सम्राट बरांगकी पत्नियोंने भी अयिकाकी दीक्षा ग्रहण करके विपूल पुण्यराशिका संचय किया था। उनके राग आदि भाव शान्त हो गये थे। दया, इन्द्रिय दम, शान्ति आदि गुणोंने स्वयं ही उन्हें वरण किया था। उन्होंने पर्याप्त घोर तप किया था। जिसके प्रभावसे वे सब भी देवयोनिमें उत्पन्न हुई थीं॥ ११३ ॥ वरांग नामधारी उत्तमपुर तथा पीछे आनर्तपुरके नरपतिने राज्य अवस्थामें हो जो अचिन्तनीय सुख तथा दुख पाये थे तथा राज्य त्याग कर दीक्षा ली थी और श्रमण अवस्थामें उनके द्वारा, जो-जो घोर सत्य तप किये गये थे उन सबका मैंने इस | ग्रन्थमें बड़े संक्षेपसे वर्णन किया है ।। ११४ ।। प्रथम सम्राट तथा पश्चात् महर्षि वरांग अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मीके स्वयं-वृत वर थे, उनकी कीति विशाल और सर्व १. [ एकत्रिंशत्तमः । [६५४] Jain Education international Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गसमाप्तिपातनिकोपेतग्रन्थप्रमाणमत्र ( ३८१९)। एकोनविंशत्यधिकाष्टशतयुता त्रिसहस्री ज्ञातव्या॥ ARTHI वराङ्ग चरितम् एकत्रिंशः सर्गः व्यापिनी थी, उनके तेजका तो कहना ही क्या है, उनका विवेक और शक्ति भी अपार थी ऐसे राजर्षिके इस चरित्रको जो व्यक्ति उनकी भक्तिके साथ सुनता है, सुनाता है, पढ़ता है अथवा मनन करता है वह निश्चयसे अनुपम तथा ध्रुवपद ( मोक्ष) को प्रयाण करता है ।। ११५ ।। उपसंहार चारों वर्ग, समन्वित, सरल शब्द, अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें सर्वार्थसिद्धि गमन नाम एकत्रिंशतितम् सर्ग समाप्त। इस महाकाव्यमें साँकी समाप्ति होनेपर दी गई प्रशस्तिको भी मिलाकर पूरे ग्रन्थका प्रमाण तीन हजार, आठ सौ, उन्नीस श्लोक ( ३८१९ ) है। SalonialsRSSPALI [६५५] Jain Education international Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सर्ग अरहन्त-मोहनीय, दर्शनावरणी, ज्ञानावरणी तथा अन्तराय इन चार घातिया कर्मोंको नष्ट करके अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्यसे युक्त आत्माको अरहन्त (अर्ह-पूज्य) कहते हैं। इनके ४६ गुण होते हैं-आठ प्रातिहार्य, चार दर्शनादि अनन्त-चतुष्टय तथा ३४ अतिशय होते हैं । केवल ज्ञान-तीनों लोकों और तीनों कालोंके समस्त द्रव्य तथा पर्यायोंको एक साथ जाननेमें समर्थ आत्माका अन्तर्मुख क्षायिक वराङ्ग चरितम् रत्नत्रयी-मोक्षके मार्गभूत सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक-चारित्र ही रत्नत्रयी है । मोह-आत्माके सम्यक्त्व और चारित्र गुणको घातनेवाली शक्तिको मोह कहते हैं । यह चौथा कर्म है। दर्शन-मोहनीय और चारित्रमोहनीय इसके प्रधान भेद हैं । दर्शन मोहनीय वह है जो आत्मामें सत्य श्रद्धा (सम्यक्त्व) का उदय न होने दे । यह मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके भेदसे तीन प्रकारका है । जो आत्माके चारित्रगुणका घात करे उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं । कषाय तथा नो-कषायके भेदसे यह दो प्रकारका है । प्रथमके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संचलन चार भेद हैं। इनमें भी प्रत्येकके क्रोध, मान, न माया तथा लोभ चार भेद होते हैं, इस प्रकार कषाय मोहनीय १६ प्रकारका है । तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, तथा नपुंसक-वेदके भेदसे नो-कषाय-मोहनीय ९ प्रकारका है । मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा-कोड़ी सागर है और जघन्य अन्तर्मुहूत है । यह कर्मोंका राजा है । क्षायिक-किसी कर्मक क्षयसे उदित होनेवाले जीवके गुणको क्षायिक-भाव या गुण कहते हैं। ऋद्धि-पूर्वजन्म ( देव नारकियोंमें ) या इसी जन्मके तपसे प्राप्त विशेष शक्तिको ऋद्धि कहते हैं। ऋद्धिके आठ प्रकार होते हैं। १. बुद्धिऋद्धि-अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, पदानुसारी, संभिन्न-श्रोत्रता, रसना, स्पर्शन, चक्षु तथा श्रोत्र इन्द्रिय ज्ञानलब्धि, दर्श पूर्वित्व, अष्टांग निमित्त, प्रज्ञाश्रवणत्व, प्रत्येकबुद्धि तथा वादित्वके भेदसे १८ प्रकारकी है । २. क्रियाऋद्धि-जंघा, तंतु, पुष्प, पत्र, श्रेणी, अग्निशिखा चारण तथा आकाशगामित्वके भेदसे ८ प्रकारकी है । ३. विक्रियाऋद्धि-अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान तथा काम-रूपित्वके भेदसे ११ प्रकारकी है । ४. तप-उग्र, दीप्त, तप्त, महा, घोर, घोरपराक्रम तथा घोर-ब्रह्मचर्यक भेदसे ७ प्रकारकी है । ५.बलऋद्धि-मन, वचन तथा कायके भेदसे ३ प्रकारकी है । ६.औषधिऋद्धि-आमर्ष, श्वेल, जल्ल, मल्ल, विट, सर्वौषधि, आस्यविष तथा दृष्टिविषके भेदसे ८ प्रकारकी है । इसे 'अगद-ऋद्धि' भी कहते हैं । ७. रस ऋद्धि-आस्यविष ( मुख या वचनमें विष ), दृष्टि विष, क्षीरस्रावी, मधुम्रावी, सर्पिनावी तथा अमृतस्रावीके भेदसे ६ प्रकारकी है ८. क्षेत्र ऋद्धि-अक्षीणमहानस तथा महालयके भेदसे दो प्रकारकी है । गणधर-मुनियोंके प्रधान तथा तीर्थंकरोंके उपदेशके प्रधान ग्रहीता । ये मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञानधारी होते हैं । पुराणोंके अनुसार वर्तमान चौबीस तीर्थंकरोंके १४५३ गणधर हुए हैं । प्रत्येक तीर्थंकरके मुख्य गणधरके नाम क्रमशः वृषभसेन, सिंहसेन, चारुदत्त, वन, चमर, वनचमर, बलि, दत्तक, वैदभि, अनगार, कुन्थु, सुधर्म, मंदरार्य, अय, अरिष्टनेमि, चक्रायुध, स्वयंभू, कुन्थु, विशाख, मल्लि, सोमक, A [६५७] वरदत्त, स्वयंभू तथा गौतम (इन्द्रभूति ) हैं। लब्धि-आत्माकी योग्यताकी प्राप्तिको लब्धि कहते हैं । इसके पाँच भेद हैं-१.क्षयोपशम-संज्ञी पञ्चेन्द्रित्व, विवेक बुद्धिकी प्राप्ति तथा पापोदयके विनाशको कहते हैं । २. विशुद्धि-पापपरिहार और पुण्याचारको कहते हैं । ३. देशना-जिनवाणीके श्रवण की प्रगाढ़ रुचि । ४. प्रायोग्य-कर्मस्थितिका अपकर्षण । ५. करण-प्रति समय अनन्त गुणी विशुद्धि युक्त परिणामोंकी प्राप्ति । इसके अधःकरण, अपूर्वकरण तथा SEARATHIMANSHARMATEearmananews ८४ Jain Education Interational | Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अनिवृत्तिकरण विशेष भेद हैं । इनके सिवा काल-लब्धि, कर्मस्थिति-काललब्धि तथा भव-काल-लब्धि तथा नौ क्षायिक और पाँच क्षयोपशमिक लब्धियाँ भी होती हैं । मोक्ष-जैन दर्शनका सातवाँ तत्व, मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग इन बन्धनके कारणोंके अभाव तथा पूर्वोपार्जित कर्मोकी निर्जरा हो जानेसे ज्ञानावरणी आदि आठों कर्मोके आत्यन्तिक विनाशको मोक्ष कहते हैं। सम्यज्ञान-सम्यक् दर्शनसे युक्त ज्ञान । जीव आदि पदार्थ जिस रूपमें हैं उसी रूपमें जानना । संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय दोषोंसे यह ज्ञान अछूता होता है । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल इसके भेद हैं । दिव्य-ध्वनि-केवल ज्ञान होनेपर तीर्थङ्करोंके उपदेशकी भाषा | इसकी तुलना मेघ गर्जनासे की है | यह एक योजन तक सुन पड़ती व है । यह देव, मनुष्य और पशुओंकी भाषाका रूप लेकर समवशरणमें बैठे सब प्राणियोंका शंका-समाधान तथा अज्ञान-निराकरण करती है। 'अर्द्धमागधी' नामसे भी इसका उल्लेख मिलता है । __ द्रव्य-गुण और पर्यायसे युक्त सत्को द्रव्य कहते हैं । सत् उसे कहते हैं जिसमें उत्पाद व्यय और प्रौव्य हों । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छह द्रव्य हैं। गुण-द्रव्यकी अन्वयी-सहभावी योग्यताओंको गुण कहते हैं अर्थात् जिनके कारण एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे अलग मालूम दे, वे गुण हैं। जो अस्तित्व, आदि गुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं इन्हें सामान्य गुण कहते हैं । ज्ञानादि, रूपादि, विशेष-गुण हैं। पर्याय-गुणों के विकारको अर्थात् जो द्रव्यमें आती-जाती रहें उन्हें पर्याय कहते हैं। व्यञ्जन पर्याय और अर्थ पर्यायके भेदसे यह दो प्रकारकी होती है। पदार्थ-सम्यक्-ज्ञानकी उत्पत्तिके प्रधान साधन अर्थोंको बतलानेवाले पदोंको पदार्थ कहते हैं । जीव आदि सात तत्त्व तथा पुण्य और पाप ९ पदार्थ हैं। सम्यक् चारित्र-संसार चक्र समाप्त करनेके लिए उद्यत सम्यक् ज्ञानीकी उन सब क्रियाओंको सम्यक् चारित्र कहते हैं जिनसे कर्मोंका आना रुक जाय । अर्थात हिंसा, आदि बाह्य क्रियाओं तथा योग, आदि आभ्यन्तर क्रियाओंके रुक जानेसे उत्पन्न आत्माकी शुद्धिको ही चारित्र कहते हैं । इसके स्वरूपाचरण, देश, सकल और यथाख्यात चार भेद हैं । सुषमा-अवसर्पिणी युग-चक्रका दूसरा तथा उत्सर्पिणीका पाँचवाँ काल। इसकी स्थिति तीन कोड़ाकोड़ी सागर है। इसमें मध्यम भोगभूमि हरि तथा रम्यक् क्षेत्रोंके समान मनुष्य होते हैं। क्षायोपशमिक-जीवकी वह स्थिति जब उदयमें आनेवाले कर्मोक सर्वघाती स्पर्द्धक विना फल दिये झरते (उदया-भावी-क्षय) हैं तथा सत्तामें रहनेवाले कर्मोंके सर्वघाती स्पर्द्धक दबे रहते हैं। तथा देशघाती कोक स्पर्द्धक उदय में हों। ऐसे भाव १८ होते हैं-मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय ज्ञान, कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि अज्ञान, चक्षु, अचक्षु तथा अवधि दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम। तीर्थकर-दर्शन विशुद्धि, आदि सोलह भावनाओं के कारण बंधे कर्मक उदयसे प्रादुर्भूत प्राणिमात्रका सर्वोपरि आध्यात्मिक नेता। इस जीवके गर्भ, जन्म, तप, केवल तथा मोक्ष कल्याणक इसकी लोकोत्तरताका ख्यापन करते हैं। इसमें जन्मसे ही मति. श्रुत और अवधि ज्ञान होते हैं। ऐसे महात्मा हमारे भरत क्षेत्रमें प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालमें २४-२४ होते हैं । विदेहोंमें सदैव तीर्थकर होते हैं। वहाँपर इनकी कमसे कम संख्या २० और अधिकसे अधिक १६० होती है । वहाँपर पाँचों कल्याणक होना आवश्यक नहीं है इस युग के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ थे और अन्तिम श्री महावीर थे । For Privale & Personal Use Only PAISATISPEOPELARAMSARDARSHAN ६५८] Jain Education international ___ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् धर्म - गमन करनेके लिए उद्यत जीव तथा पुद्गलोंकी गतिके उदासीन निमित्तको धर्म द्रव्य कहते हैं। यह नित्य, अवस्थित, अरूपी तथा अखण्ड द्रव्य है । इसके असंख्यात प्रदेश होते हैं । अधर्म - ठहरनेके लिए उद्यत जीव तथा पुद्रलोंकी स्थितिके उदासीन निमित्तको अधर्म द्रव्य कहते हैं। यह भी धर्म द्रव्यके समान है । ये दोनों द्रव्य लोकाकाश भरमें व्याप्त हैं । आकाश - षड्द्रव्यों में से एक द्रव्य जो समस्त द्रव्योंको स्थान देता है । यह भी नित्य, अवस्थित, अरूपी, अखंड तथा निष्क्रिय द्रव्य है । इसके अनन्त प्रदेश होते हैं। इसके दो भेद हैं- १ -लोकाकाश-जहाँ जीव, पुद्रल, धर्म, अधर्म तथा काल द्रव्य पाये जायें। २- अलोकाकाश-लोकाकाशके अतिरिक्त द्रव्य-विहीन आकाश । काल - षड्द्रव्यों में से एक द्रव्य, जो जीव पुगलोंमें परिवर्तन क्रिया तथा छोटे-बड़ेपनेका व्यवहार कराता है । यह भी नित्य, अवस्थित तथा अरूपी है । यह लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक कालाणु स्थित है । यह असंख्यात द्रव्य है। इसके सबसे छोटे परिमाणको समय कहते हैं । काल द्रव्यके समयोंका प्रमाण अनन्त है । समयसे प्रारम्भ करके आवलि, आदि इसके भेद होते हैं । जीव-षद्रव्योंमें मुख्य द्रव्य । इसका लक्षण चेतना है अर्थात् जो सदा चैतन्य था, है और रहेगा। यह नित्य, अवस्थित तथा अरूपी है । व्यवहार दृष्टिसे जिसमें पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दश प्राण पाये जायँ वह जीव है। इसके संसारी और मुक्त रूपसे दो प्रधान भेद हैं । इन्द्रिय, आदिकी अपेक्षा संसारी जीवका विपुल विस्तार है (तत्वार्थसूत्र तथा टीका १-४ अध्याय ) । स्वर्ण पाषाण - वह पत्थर जिसमें सोना होता है । कहीं कहीं पारस पत्थरके लिए भी इस शब्दका प्रयोग हुआ है । दृष्टि - दर्शनको कहते हैं। जीव आदि तत्वोंके श्रद्धानको दर्शन कहते हैं । अतएव जैन आगममें दृष्टि श्रद्धाका पर्यायवाची है । उपदेष्टा-उपदेशकको कहते हैं किन्तु सच्चे उपदेष्टा केवली भगवान् हैं । अतः उपदेष्टाको विरागी, निर्दोष, कृतकृत्य परमज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, आदि-मध्य-अन्त विहीन तथा पूर्वापर विरोध - विहीन होना चाहिये । श्रावक - सच्चे देवका पुजारी, सच्चे गुरुके उपदेशानुसार आचरण करनेवाला तथा सच्चे शास्त्रका श्रोता तथा अभ्यासी व्यक्ति श्रावक होता है । इसके पाक्षिक, नैष्टिक तथा साधक ये तीन भेद हैं। सप्त व्यसनका त्यागी और आठ मूलगुणोंका धारक पाक्षिक-श्रावक है । निर्दोष रूपसे दर्शन - प्रतिमा, आदि चारित्र का पालक नैष्टिक होता है । तथा उक्त प्रकारसे व्रतोंको पालते हुए अन्तमें समाधिमरण पूर्वक प्राणछोड़ने वाला साधक होता है । प्रमाण - सच्चे ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान तथा केवल ज्ञान सत्य ज्ञान होनेके कारण ही प्रमाण हैं । पदार्थका ज्ञान एक देश ( पहलू ) और सर्वदेश होता है। प्रमाण, पदार्थका सर्वदेश सत्य ज्ञान है । नय -- पदार्थके आंशिक सत्य ज्ञानको नय कहते हैं । निश्चय और व्यवहारके भेदसे यह दो प्रकार का है। वास्तविकताको ग्रहण करनेवाला निश्चय-नय है । नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकके भेदसे भी दो प्रकारका है । द्रव्य अर्थात् सामान्यको ग्रहण करनेवाले द्रव्यार्थिक नयके १–नैगम, संग्रह और व्यवहार तीन भेद हैं। विशेषको ग्रहण करने वाले पर्यायार्थिक नयके ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत चार भेद हैं । निमित्त-वश एक पदार्थको दूसरे रूप जाननेवाले व्यवहार नयके सद्भूत, असद्भूत और उपचरित ये तीन भेद हैं । व्यसन -- इस लोक परलोकमें हानिकर बुरी आदत का नाम व्यसन है। ये सात हैं- १-जुआ खेलना, २-मांस भोजन, ३-मदिरा पान, ४–वेश्या-गमन, ५–शिकार खेलना ६- चोरी तथा ७- परस्त्री सेवन । इन सात कुकर्मोंके साधक कार्योंको उपव्यसन कहते हैं । चक्रवती -- छह खण्ड पृथ्वीका विजेता, १४ रत्नों और नवनिधियोंका स्वामी सर्वोपरि राजा । प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें [६५९] Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amreate वराङ्ग चरितम् E RESIREWERPATR भरत तथा ऐरावत क्षेत्रमें बारह-बारह होते हैं । १६० विदेहोंमें अधिकसे अधिक १६० और कमसे कम २० होते हैं । इनकी सेनामें । ८४ लाख हाधी ८४ लाख रथ तथा ११८ लाख घोड़े होते हैं । १ चक्र, २ असि, ३छत्र, ४ दण्ड, ५ मणि, ६ चर्म, ७ काकिणी, ८ गृहपति, ९ सेनापति, १० हाथी, ११ घोड़ा, १२ शिल्पी, १३ स्त्री तथा १४ पुरोहित ये चौदह रत्न हैं । १ काल, २ महाकाल (अक्षय भोजन दाता), ३ पाण्डु, ४ माणवक, ५ शंख, ६ नैसर्प, ७ पद्म, ८ पिंगला तथा ९ रत्न ये नौ निधियाँ हैं । प्रत्येक चक्रवर्तकि स्त्री रत्न ( पट्टरानी ) के साथ-साथ ९६ हजार रानियाँ होती हैं । तथा बत्तीस हजार मुकुटधारी राजा उसे अपना अधिपति मानते हैं। इस काल में १-भरत, २-सगर, ३-मघवा, ४-सनत्कुमार, ५-शान्तिनाथ, ६-कुन्थनाथ, ७-अरनाथ, ८-सुभौम, ९-महापद्म, । १०-हरिसेन, ११-जय, १२-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुए हैं । भावी उत्सर्पिणीमें १-भरत, २-दीर्घदन्त, ३-मुक्तदंत ४- गूढ़दंत, ५-श्रीषेण, ६-श्रीभूति, ७-श्रीकान्त, ८-पद्म, ९-महापद्म, १०-चित्रवाहन, ११-विमलवाहन और १२-अरिष्टसेन चक्रवर्ती होंगे। अहमिन्द्र-सौधर्म आदि सोलह स्वर्गोके ऊपरके नौ अनुदिश, नौ ग्रेवेयक तथा पञ्च पञ्चोत्तरमें होनेवाले सब देव । स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, आदिमें ये सब समान होते हैं । इनके देवियाँ नहीं होती हैं । अनन्तसुख-ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय तथा अन्तराय इन चार घातियाँ कर्मोंके क्षयसे १३३ गुणस्थानमें प्रगट होनेवाले स्वाभाविक आनन्दको अनन्तसुख कहते हैं । अनन्तवीर्य-वीयान्तराय कर्मक सर्वथा नाश हो जानेपर केवलीमें उदित होनेवाली आत्माकी अनन्त-शक्तिको अनन्तवीर्य कहते हैं। अनन्त दर्शन-दर्शनावरणी कर्मक आत्यन्तिक क्षयसे केवलीमें उदित होनेवाला परिपूर्ण स्वाभाविक दर्शन । ककुद-बैल या साँड़के कन्धेके ऊपर उठा स्थान । कांदोल । देवकरू-विदेह क्षेत्रके मध्यमें स्थित समेरु पर्वतकी दक्षिण दिशामें उसके सौमनस तथा विद्युत्प्रभ गजदतके बीचके धनुषाकार क्षेत्रका नाम है । यह उत्तम भोगभूमि है । यहाँके युगलियोंकी आयु तीन पल्य होती है । उत्तरकुरू-विदेह क्षेत्रके मध्यमें स्थित सुमेरु पर्वतकी उत्तर दिशा में स्थित धनुषाकार क्षेत्र । दोनों गजदन्तों के बीचका क्षेत्र इसकी लम्बाई ( जीवा ) है और इससे सुमेरु तक इसकी चौड़ाई (धनुष ) है । यह भी उत्तम भोगभूमि है अर्थात् यहाँपर भी सदैव सुषमाकाल रहता है। भोगभूमि-जहाँपर असि, मसि, कृषि आदि कर्म बिना किये ही मनुष्य या पशु दश प्रकारके कल्प वृक्षोंसे इच्छित भोग-उपभोग पाते हैं और सुख सन्तोषमय जीवन बिताते हैं । उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे भोगभूमि तीन प्रकारकी हैं। मुख्य रूपसे देवकुरू-उत्तरकुरू उत्तम भोगभूमि है । जो लोग उत्तम पात्रको दान देते हैं, वे यहाँ उत्पन्न होते हैं । इनकी आयु तीन पल्य होती है । तीन ( आठवीं वार) दिनमें ये एक वेरके बराबर भोजन करते हैं। इनके शरीरकी ऊँचाई छह हजार धनुष होती है । शरीरका रंग सोनेके समान होता है। हरि तथा रम्यक क्षेत्र मध्यम भोगभूमि है | जो मध्यम पात्रको दान देते हैं वे यहाँ पैदा होते हैं । इनकी आयु दो पल्य होती है । ये दो दिन बाद अर्थात छठी बार बहेड़ेके बराबर भोजन करते हैं । शरीरकी ऊँचाई ४ हजार धनुष होती है तथा रंग शंखके समान श्वेत होता है। हैमवत तथा तथा हैरण्यवत् क्षेत्र जघन्य भोगभूमि है । जघन्य पात्रको दान देनेसे यहाँ जन्म होता है । इनकी आयु एक पल्य होती है। [६६०] ये एक दिन बाद अर्थात चौथी बार आँवले बराबर भोजन करते हैं । शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष होती है और रंग नील कमलके समान होता है। भोगभूमिकी पृथ्वी दर्पणके समान निर्मल होती है । इसपर सुगंधित दूब होती है । मधुर जलकी बावडियाँ होती हैं यहाँपर एक - स्त्री तथा पुरुष साथ-साथ ( युगल ) उत्पन्न होते हैं । इनके पैदा होते ही माता-पिता क्रमशः अँभाई और छींक लेकर मर जाते हैं । अतः O CIRE Jain Education intematona! ... Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् ये स्तन्यपान नहीं करते । और ऊपरको मुख किये पड़े रहते हैं तथा अँगूठा चूसते रहते हैं, इस प्रकार सात सप्ताहमें ये दोनों युवक हो , जाते हैं और पति-पत्नीकी तरह शेष जीवन बिताते हैं । सबके बज्र-वृषभ-नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है । मृत्यु होने पर इनका शरीर बादलके समान लुप्त हो जाता है । इनमें जो सम्यक्दृष्टि होते हैं वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं । तथा मिथ्या दृष्टि भवनत्रिक (भवनवासी व्यन्तर तथा ज्योतिषी देवों) में उत्पन्न होते हैं । भरत तथा ऐरावतोंमें सुषमा सुषमा-सुषमा तथा सुषमा-दुषमा कालोंमें क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा जघन्य भोगभूमियाँ होती हैं । किन्नर-देव योनिकी चार श्रेणी हैं । इनमें दूसरी श्रेणीके देव विविध देश-देशान्तरों में रहनेके कारण व्यन्तर कहलाते हैं । इन व्यन्तरोंके प्रथम भेदका नाम किन्नर है । वैदिक मान्यतामें इन्हें गायक देव बताया है। ऐसा लिखा है कि इनका मुख घोड़ेका होता है और शरीर मनुष्यका होता है । कुबेरको इनका स्वामी बताया है । नागकुमार-प्रथम श्रेणीके देव भवन-वासियोंका दूसरा भेद । इनका चिह्न सर्प होता है । वैदिक मान्यतामें इन्हें सर्पयोनि अर्थात् ऊपरसे मनुष्य और कमरके नीचे साँपसरीखा बताया है । इनके चौरासी लाख भवन होते हैं और प्रत्येकमें एक जिन मन्दिर होता है। पन्नग-सर्पका नाम है । शास्त्रोंमें भवनवासियोंके भेद नागकुमारों तथा व्यन्तरोंके तीसरे भेद महोरगोंके लिए भी इसका प्रयोग हुआ गन्धर्व-व्यन्तर देवोंका चौथा प्रकार । १-हाहा, २- हूहू, ३-नारद, ४-तुंबुरू, ५-गर्दव, ६-वासव, ७-महास्वर, ८-गीत, ९-रति तथा १०-दैवतके भेदसे ये दश प्रकारके होते हैं । वैदिक मान्यताके अनुसार ये गायक जातिके देव हैं । सिद्ध-व्यन्तरोंकी उपभेद । वैदिक मान्यतामें भी इसे देवयोनियोंमें गिना है। तुषित-लोकान्तिक देवोंका छठा भेद । ये ब्रह्मलोक स्वर्गक सबसे ऊपरके भागमें रहते हैं । यतः यहाँसे चयकर एक बार जन्म धारण करके मोक्ष चले जाते हैं अतः इन्हें लोकान्तिक कहते हैं, क्योंकि इनके लोक अर्थात संसार भ्रमणका अन्त आ चुका है। ये सब स्वतन्त्र और समान होते हैं। इन्हें इन्द्रियोंके विषयमें प्रीति नहीं होती अतः ये देवोंमें ऋषि माने जाते हैं। सब देव इनकी पूजा करते हैं। ये चौदह पूर्वक ज्ञाता होते हैं और जब तीर्थंकरको संसारसे विराग होता है तो ये उनको उपदेश देकर दीक्षाके अभिमुख करते हैं। चारण-व्यन्तर देवोंका एक भेद । वैदिक मान्यतामें इन्हें देवोंका स्तुतिपाठक या गायक कहा है । दन्तकेलि-हाथी मदोन्मत्त होकर अपने दाँतोंसे पहाड़ों-पत्थरों-पेड़ोंको तोड़ देता है यही दन्तकेलि है । शृङ्गाररसमें दाँतोंसे काटनेको भी दन्तकेलि कहते हैं। उद्भिज-वनस्पति कायिक जीव, जो पृथ्वीको फोड़कर उगते हैं। बलि-पूजा अथवा उपहार । वैदिक मान्यतामें इसका मुख्य अर्थ पशु आदिका बलिदान होता है । इन्द्रध्वज-इन्द्रके द्वारा की गयी पूजा | नन्दीश्वर पर्वमें प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुनमासोंके शुक्ल पक्षकी अष्टमीसे आठ दिन पर्यन्त भव्य जीवों द्वारा जो पूजा की जाती है उसे अष्टालिक पूजा कहते हैं यही जब इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिकादिकके द्वारा की जाती है तो इसे इन्द्रध्वज मह कहते हैं। पञ्चामृत-दूध, दही, घी, इक्षुरस तथा सौषधि रसको पंचामृत कहा है । इन पाँचोंसे तीर्थकरकी मूर्तिका अभिषेक किया जाता है। आगम-सर्वज्ञ वीतराग द्वारा उपदिष्ट, अकाट्य, पूर्वापर विरोध रहित, सब क्षेत्रों और कालोंमें सत्य तथा तत्वोंके उपदेशक शास्त्रको आगम कहते हैं। अचमान्चELEDARPATI-मस्यामारामारायला [६६१] ___Jain Education intemat Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् वर्ण-व्यवसायके आधारपर किया गया मनुष्यका मुख्य वर्ग या जाति । भगवान् ऋषभदेवने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीनों वर्णोंकी व्यवस्था की थी क्योंकि पठन-पाठन, यजनयाजन, आत्मविद्या होनेके कारण सैनिक, व्यवसायी और सेवक तीनोंके लिए अनिवार्य हैं । किन्तु भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मण वर्णकी भी पृथक् रूपसे व्यवस्था इसलिए की थी कि कुछ लोग पठन-पाठन, यजन - याजनमें ही लीन रहें । भोजवंश - पुराणोंमें पुरुवंश और कुरुवंशको प्रधान राज्यवंशों में गिनाया है । इसके सिवा गिनाये गये आठ राजवंशों में भोजवंशका भी प्राधान्य है । ऐसा ज्ञात होता है कि भोज परमार ( ल० १०१०- ५५ ई० ) तथा प्रतीहार ( ल० ८३६-९० ई० ) के पहिले भी किसी प्रधान सुख्यात राजाका नाम भोज था जिसके कारण इस वंशको इतना प्राधान्य तथा लोकप्रियता मिली होगी । आश्रम - मानव जीवनके विभागोंका नाम आश्रम है। ये चार हैं १ - ब्रह्मचारी, २- गृहस्थ, ३-साधक ( वानप्रस्थ ) तथा ४ - भिक्षु ( संन्यास ) । ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्याभ्यास तथा मानव जीवनोपयोगी मानसिक तथा शारीरिक योग्यताओंके सम्पादनकी वयको ब्रह्मचर्य कहते हैं । सम्राट् खारवेलने २४ वर्षकी वय तक इसे पाला था । देवपूजा, गुरुपासनादि नित्य क्रियाओंका पालन करते हुए जो गृहस्थ धर्मका पालन करते हैं वे छठी प्रतिमा तक गृहस्थ ही रहते हैं। सातवींसे ग्यारहवीं प्रतिमा तकका पालन करनेवाले उदासीन व्यक्ति साधक कहलाते हैं । अन्तरंग बहिरंग परिग्रहके त्यागी दिगम्बर मुनि भिक्षु कहलाते हैं । जाति - शब्दका प्रचलित अर्थ प्रत्येक वर्णकी परमार, प्रतिहार, अग्रवाल, ओसवाल, आदि जातियाँ होता है । किन्तु शास्त्रोंमें मनुष्यकी कुलीनताके लिए दो बातोंकी शुद्धिपर जोर दिया है वे हैं वंश और जाति । वंश शब्दका अर्थ पितृ-अन्वय अर्थात् पिताका कुल किया है। और जातिकी व्याख्या जननीका कुल किया है । अर्थात् वह व्यक्ति कुलीन है जिसके माता तथा पिता दोनोंके कुल शुद्ध हों। इस पौराणिक व्याख्याके आधारपर जातिका अर्थ ननहाल या माताका वंश है । द्वितीय सर्ग भूरि भूरि- भरपूर, या खूब, बारम्बार । अकृत्रिम बन्धु - स्वाभाविक हितू या मित्र । शास्त्रोंमें बताया है कि जिनके साथ सम्पत्तिका बँटवारा नहीं होता वे नाना, मामा, ससुर, साले वगैरह अकृत्रिम या स्वाभाविक बन्धु होते हैं। तथा दादा, चाचा, चचेरे भाई आदि जिनका पैत्रिक सम्पत्तिमें भाग हो सकता है ये सब स्वाभाविक बन्धु होते हैं । अकृत्रिम बन्धुका दूसरा अर्थ हितकारक हितैषी भी होता है । आठ दिक्पाल - चार दिशाओं तथा विदिशाओंके नियामक देवोंको दिक्पाल कहते हैं। चारों दिशाओंके दिक्पालोंके नाम क्रमशः इन्द्र ( सोम ), यम, वरुण तथा कुबेर है । चारों विदिशाओंके अधिपतियोंके नाम अग्नि, नैऋत्य, वायव्य तथा ईशान हैं । दान - स्व-परके उपकारके लिए अपनी न्यायोपात्त सम्पत्तिके त्यागको दान कहते हैं। यह चार प्रकारका होता है 9 - औषधि दान, २- शास्त्र दान, ३- अभयदान तथा ४-आहारदान । दूसरे प्रकारसे भी चार भेद किये हैं व निम्न प्रकार हैं- १-सर्वदान अथवा सर्वदत्ति अपनी समस्त न्यायोपात्त सम्पत्तिको किसी सत्कार्यमें लगाकर तथा पुत्रादिको उचित भाग देकर विरक्त होनेको कहते हैं । २-पात्रदत्ति रत्नत्रय धारी निर्मन्थ मुनिको नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान देना उत्तम पात्रदत्ति है। व्रती श्रावकोंको दान देना मध्यम पात्रदत्ति है तथा अविरत सम्यक् दृष्टिको देना जघन्य पात्रदत्ति है । ३-समदत्ति साधर्मी बहिन भाइयों की सहायता करनेको कहते हैं । ४- दयादत्ति, दीन-दुखी मनुष्य पशु आदिको दयासे औषधि आदि चार प्रकारका दान देना दयादत्ति है । [६६२] Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAREER तप-पूर्वबद्ध कर्मोको नष्ट करनेके लिए जो शरीर और मनको तपाया जाता है उसे तप कहते हैं । बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे । तप दो प्रकारका है । इनके भी छह छह भेद हैं । बाहा तपके भेद निम्न प्रकार हैं-१ रागके विनाश और ध्यान की सिद्धिके लिए खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय चारों प्रकारके भोजनके त्यागको अनशन कहते हैं । २-नींद तथा आलस्यको जीतनेके लिए जितनी भूख हो उससे कम भोजन करनेको अवमौदर्य कहते हैं । ३-आशा तथा लौल्यको जीतनेके लिए चयकि समय एक, दो मोहल्ला या घरोंका नियम कर लेना वृत्तिपरिसंख्यान है । यदि मर्यादित क्षेत्रमें स-विधि आहार नहीं मिलता है जो मुनि भूखा ही लौट कर भी परम तुष्ट रहता है । ४-इन्द्रिय चरितम् विजयके लिए मीठा. लवण, घी. दध. आदि रसोंके त्यागको रसपरित्याग कहते हैं। ५-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय तथा ध्यानकी साधनाके लिए एकान्तमें शयन-आसन करना विविक्तशय्यासन हैं । ६-शरीरकी सुकुमारता तथा भोगलिप्सा समाप्त करनेके लिए पर्वत शिखर, नदीतीर, वृक्षमूल आदिमें गर्मी, ठंड तथा वर्षामें आसन आदि लगाना कायक्लेश है । अन्तरंग तपोंका विवरण निम्न प्रकार है-१-प्रमाद वश हुए त दोषोंका दण्ड लेकर शद्धि करना प्रायशित है। २-पूज्य पुरुषों तथा शास्त्र आदि का आदर करना विनय है। ३-अपने कायसे दूसरोंकी शरीर-सेवा करना वैयावृत्य है । ४-आलस्य त्याग कर शास्त्र स्वाध्याय करना तथा ज्ञान भावनाको भाना स्वाध्याय है । ५-पर पदार्थोंमें ममत्वके त्यागको व्युत्सर्ग कहते हैं । ६-सब चिन्ताओंसे मनको रोक कर आत्मा या धर्मक ही चिन्तवनमें लगा देना ध्यान है। संयम-भली भांति शरीर तथा मनके नियमनको संयम कहते हैं । यह भी पांच प्रकार का है । १-अहिंसा, सत्य, आदि पांच व्रतोंकापालन, २-इर्या, भाषा, आदि पांच समितियोंका आचरण, ३-चारों प्रकारके क्रोध, लोभ, आदि कषायोंका निरोध, ४-तीनों योगोंका निरोध में तथा ५-रसनादि पाँचों इन्द्रियोंकी जय । शौच-क्षमा, मार्दव, आदि दश धर्मों में से चौथा धर्म । सर्वथा वर्द्धमान लोभके निग्रह को शौच कहते हैं । मैत्री-दूसरे को दुःख न हो इस प्रकार की अभिलाषाको मैत्री कहते हैं । क्षमा-दुष्ट लोगों के द्वारा गाली दिये जाने, हँसी उड़ायी जाने, अवज्ञा किये जाने, पीटे जाने, शरीर पर चोट किये जाने आदि क्रोध उत्पादक परिस्थितियोंमें भी मनमें क्रोध, प्रतिशोध तथा मलीनता न आनेको क्षमा कहते हैं। परिमित परिग्रह-बाा धन-धान्यादि तथा अन्तरंग रागादि भावोंके संरक्षण तथा संचय स्वरूप मनोवृत्तिको मुर्छा या परिग्रह कहते हैं । इनके जीवनोपयोगी अनिवार्य परिमाण को निश्चित करनेको परिमित परिग्रह कहते हैं । इसका 'इच्छा परिमाण' तथा 'परिग्रह परिमाण # नामों द्वारा भी उल्लेख शास्त्रों में है । संसारके समस्त त्याग तथा संयमोंकी सफलता इस व्रतके पालन पर ही निर्भर है, विशेष कर आजके युगमें जब कि मार्क्सवाद-साम्यवादके नाम पर मानवको अपनी आवश्यकताएँ उसी प्रकार बढ़ानेका उपदेश दिया जा रहा है जिस प्रकार संसारके महान् पापी ( असीम सम्पत्तिके स्वामी ) व्यक्तियोंने बढ़ा रखी हैं। द्रव्य हिंसा-क्रोधादि कषाययुक्त आत्मा प्रमत्त होता है, ऐसा प्रमादी आत्मा अपने मन, वचन तथा काय योगकि द्वारा यदि किसी म जीवको इन्द्रिय, बल, आयु आदि दश प्राणों से वियुक्त करता कराता है तो द्रव्य हिंसा होती है। अर्थात किसी जीवके प्राणोंको अलग करना द्रव्यहिंसा है । विशेषता यही है कि यदि आत्मामें प्रमादीपनेसे चेष्टा न होगी तो वह हिंसक नहीं होगा । क्योंकि इर्या समितिसे चलने वाले मुनिके पैरोंके नीचे भी आकर प्राणी मरते हैं किन्तु इस कारणसे मुनिके थोड़ा भी बन्ध नहीं होता । कारण; उसमें प्रमत्त योग नहीं हैं। [६६३] दूसरी ओर असंयमी प्राणी है जिसे हिंसाका पाप लगता ही है चाहे जीव मरे या न मरे क्योंकि उसमें प्रमत्त योग है, क्योंकि प्रमादी आत्मा अपनी ही हिंसा करता है चाहे दूसरे प्राणी मरें या न मरें । भावहिंसा-प्रमाद और योगके कारण किसी प्राणीके द्रव्य अथवा भाव प्राण लेनेके विचार हो जाना भावहिंसा है । अर्थात् किसीको मारे, या न मारे, लेकिन यदि भाव मारनेके हो गये तो मनुष्य हिंसाके पापको प्राप्त करता है। जैसे एक भी मछलीको जाल में न फंसाने Jain Education Interational R ITERATOPATRIOR Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला धीवर अथवा स्वयंभूरमण समुद्र में पड़े पुष्कर मत्सके कानमें रहने वाला तन्दुल मत्स । भाव हिंसा का चमत्कार यह है कि मारे जाने वाले का बाल भी बाँका नहीं होता किन्तु मारने वाला सहज ही अपने परिणामोंकी हिंसा कर लेता है ।। तृतीय सर्ग घातियाकर्म-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञानादि क्षयोपशमिक गुणों तथा अनन्त-दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सुखादि क्षायिक गुणोंको रोकने वराङ्ग वाले कर्मोको घातिया कर्म कहते हैं ये कर्म चार हैं १-ज्ञानावरणी, २-दर्शनावरणी, ३-मोहनीय तथा ४-अंतराय । चरितम् ___ अतिक्रम-ग्रहीत यम अथवा नियमके विषयमें मनकी शुद्धिका न रहना अतिक्रम कहलाता है । यथा सत्याणुव्रत लेकर मनमें ऐसा सोचना कि कभी झूठ बोलूं तो क्या हानि है । दिग्वतके अतिचारोंमें ऊपर, नीचे अथवा तिरछे मर्यादाके लंघनको भी अतिक्रम बताया है। अतिचार-अमितगति सूरिके मतसे त्यक्त विषयमें फिरसे प्रवर्तनको अतिचार कहते हैं । की हुई प्रतिज्ञाके आंशिक भंगको भी अतिचार कहते हैं । अथवा विवश होकर त्यक्त विषयमें प्रवृत्त होनेको भी अतिचार कहते हैं । किन्तु उक्त प्रकारके आचरण तभी तक अतिचार हैं जबतक व्रतके पालनेकी भावना बनी रहती है । व्रत पालनकी भावनाके न रहने पर ऐसे कर्म अनाचार ही हो जाते हैं । श्रेणी-आत्मविद्यामें साधुके चारित्रके विकासको श्रेणी नाम दिया है । दशम गुणस्थान वाला मुनि चारित्र मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका उपशम करके जब ग्यारहवें गुण-स्थानमें जाता है तब उपशम श्रेणी होती है । तथा जब उक्त प्रकृतियोंका क्षय करके १२ गुणस्थानमें जाता है तब क्षपक श्रेणी होती है । सामाजिक संगठनमें श्रेणी शब्दका अर्थ एक प्रकारके व्यवसायियों अथवा एक प्रकार के आचार-विचारके लोगोंके समूहके लिए आया है । प्राचीन भारतमें इस प्रकारकी अनेक श्रेणियाँ थीं । गण-अध्यात्म शास्त्रमें तीन मुनियों अथवा वृद्ध मुनियोंके समुदायको गण कहते हैं । इसीलिए भगवानके प्रधान शिष्य अथवा श्रोता गणधर कहे जाते थे । लोकमें गण सामाजिक इकाई थी । प्राचीन भारतमें राजतन्त्रादिके समान गणतन्त्र भी थे अर्थात् जनता या जन अथवा उनके प्रतिनिधियोंको गण कहते थे तथा उनके द्वारा संचालित शासनको गणतन्त्र कहते थे । गणका अर्थ गिनना होता है अर्थात् वह शासन से व्यवस्था जिसमें सम्मतियोंको गिनकर बहुमतके आधार पर निश्चय किया जाय । सत्पात्र-दान देने योग्य व्यक्तिको पात्र कहते हैं । यह सत्पात्र ( सुपात्र ), कुपात्र तथा अपात्रके भेदसे तीन प्रकार का है । जो सम्यकुदर्शनको प्राप्त कर चुके हैं वे सत्पात्र हैं। इनमें भी मुति आर्यिका उत्तम हैं । श्रावक-श्राविका मध्यम तथा अविरत जघन्य हैं । कुपात्र वे हैं जिन्हें सम्यक्दर्शन तो नहीं हुआ है किन्तु जैन शास्त्रोंके अनुसार आचरण पालते हैं । तथा जिनमें न सम्यक्दर्शन है और न आचरण है वे अपात्र हैं । पात्रके दूसरे प्रकार से पांच भेद भी किये हैं १-सामयिक, २-साधक, ३-समयद्योतक, ४-नैष्ठिक तथा ५-गृहस्थाचार्य। आहारदान-भक्ष्य अन्नादिका भोजन देना आहार दान है। नवधा भक्ति, आदि पूर्वक सुपात्रको देनेसे यह पात्र-आहार दान होता हैतथा इतर जन साधारणको देनेसे करुणा-आहार दान होता है । षड्द्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा जीव छह द्रव्य हैं । गुणोंके समूहको द्रव्य कहते हैं । हिरण्यगर्भ-जैन मान्यतानुसार प्रत्येक तीर्थंकरके पाँच कल्याणक ( महोत्सव ) होते हैं । इनमें गर्भ कल्याणक पहिला है । तीर्थंकरके। [६६४] गर्भ में आते ही अतिशय ( असाधारणता द्योतक विशेष घटनाएं ) होने लगती हैं उनमें एक यह भी है कि छह मास पहिलेसे ही सोनेकी वृष्टि होती है । फलतः प्रत्येक तीर्थंकर ऐसा व्यक्ति है जिसके गर्भमें आते ही पृथ्वी हिरण्य ( सोने ) मय हो जाती है। ज्योतिषी देव-देवोंके प्रधान भेद चार हैं भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा कल्पवासी । जिन देवोंके शरीर तथा विमानादि तेजपुञ्ज 5 है उन्हें ज्योतिषी कहते हैं । इनके मुख्य भेद १-सूर्य, २-चन्द्र, ३-ग्रह, ४-नक्षत्र तथा ५-तारका हैं । पृथ्वीकी सतहसे ७९० योजन Jain Education international Sinw.jainelibrary.org Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् A ऊपर जाने पर ज्योतिष्क लोक प्रारम्भ होता है और ९०० योजन की ऊँचाई पर समाप्त होता है। ये सर्य चन्द्रादि समेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करते हुए मनुष्य लोकके ऊपर घूमते हैं तथा इन्हींके द्वारा दिन, रात्रि, आदि समयका विभाग होता है । विशेषता यही है कि ये मनुष्यलोकके बाहरके आकाशमें स्थित हैं। देश-जीव आदि तत्वोंके ज्ञानके प्रकारोंको बताते हुए यह भी कहा है कि अस्तित्व, भेद, क्षेत्र ( वर्तमान निवास देश ), त्रिकालवर्ती निवास, मुख्य तथा व्यवहार काल, भाव और तारतम्य की अपेक्षा इनका विचार करना चाहिये । अर्थात विविध देशों और कालोंकी अपेक्षा समस्त पदार्थोंमें परिवर्तन-परिवर्द्धन होते हैं । फलतः जो एक देश और कालके लिए उपयोगी था वही सर्वत्र सर्वदा नहीं हो सकता । क्षायिक-जो भावादि कर्मों में क्षयसे होते हैं उन्हें क्षायिक भाव, आदि कहते हैं । क्षायिक भाव सम्यक्त्व, चरित्र, दर्शन ज्ञान, दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्यक भेदसे नौ प्रकार के हैं । स्वर्ग-जैन भूगोलके अनुसार यह लोक तीन भागों और चार योनियोंमें बँटा है । देवयोनिके चौथे भेद अर्थात् कल्पवासी देव ऊर्ध्व लोकके जिस भागमें रहते हैं उसे स्वर्ग कहते हैं । तथा ये स्वर्ग १६ हैं । ये सोलह स्वर्ग भी १-सौधर्म-ऐशान, २-सनत्कुमार-माहेन्द्र, ३-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, ४-लान्तव-कापिष्ठ, ५-शुक्र-महाशुक्र, ६-शतार-सहस्रार, ७-आनत-प्राणत तथा ८-आरण-अच्युत-युगलोंमें बँटे हुए इन्द्र-अन्य देवोंमें अप्राप्त अणिमा आदि गुणों के कारण जो देवलोक में सबसे अधिक प्रतापी तथा कान्तिमान होते हैं उन्हें इन्द्र कहते हैं । ये देवोंके राजा होते हैं । उक्त सोलह स्वर्गोंमें प्रारम्भके चार स्वोंमें ४ इन्द्र होते हैं । ब्रह्मसे लेकर सहस्रार पर्यन्त आठ स्वर्गों में । ४, तथा अन्तके चार स्वर्गों में ४, इस प्रकार कुल मिलाकर १२ इन्द्र होते हैं। उनके नाम निम्न प्रकार हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्म, लान्तव, शुक्र, शतार, आनत, प्राणवत, आरण तथा अच्युत । मध्यलोकके बीच में सुमेरु पर्वत खड़ा है । पृथ्वीके ऊपर उसकी ऊँचाई ९९ हजार योजन है । सुमेरुकी शिखरकी ऊँचाई चालीस योजन है । जहाँ सुमेरुकी शिखर समाप्त होती है उसके ऊपर एक बाल भर बढ़ते ही ऊर्ध्वलोक प्रारम्भ हो जाता है । अर्थात् यहींसे सुधर्म स्वर्ग प्रारम्भ हो जाता है। नरक-सुमेरु पर्वतकी जड़ भूमि में एक हजार योजन है । इसके नीचे अधोलोक प्रारम्भ होता है । यह सात पटलोंमे बँटा है जिनके 7 नाम १-रत्नप्रभा, २-शर्कराप्रभा, ३-बालुकाप्रभा, ४-पंकप्रभा, ५-धूमप्रभा, ६-तमःप्रभा तथा ७-महातमःप्रभा हैं। जो प्राणी बहुत-आरम्भ । परिग्रह करते हैं वे मरकर यहाँ उत्पन्न होते हैं । इनके शरीरका वर्ण, भाव, शरीर, वेदना तथा विक्रिया अशुभ होते हैं । तथा ज्यों-ज्यों नीचे जाइये त्यों त्यों लेश्या आदिकी कुत्सितता बढ़ती ही जाती है एक दूसरे को दुःख देते ही इनकी लम्बी जिन्दगी बीतती है। तिर्यच-देव नारकी तथा मनुष्योंके सिवा शेष संसारी जीवोंको तिरछे 'चलनेके कारण तिर्यञ्च कहते हैं । अथवा इनमें कुटिलता होती है अतः इन्हें तिर्यश्च कहते हैं । इनमें पशु-पक्षीसे लेकर एकेन्द्रिय वृक्षादि तक सम्मिलित हैं । देव आदिके समान इनका लोक अलग नहीं है क्योंकि ये समस्त लोकमें फैले पड़े हैं। इन्हें कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान नहीं होता | आहार मैथुनादि होने पर भी प्रभाव, सुख, धुति लेश्या, आदि इनके निकृष्ट होते हैं । सामान्य रूपसे जिनमें माया अधिक होती है वे मर कर तिर्यञ्च होते हैं। _ मनुष्य-नित्य मननशील, कर्तव्य-अकर्तव्य विवेक धारी, प्रबल मनोबल विभूषित तथा अडिग उपयोगवान प्राणी मनुष्य कहलाते हैं। ये सब पञ्चेन्द्रिय संज्ञी होते हैं । जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड तथा पुष्करार्द्ध में ये पाये जाते हैं । इनके प्रधान भेद आर्य और म्लेक्ष हैं । जो A आर्य खण्डमें उत्पन्न होते हैं वे आर्य कहलाते हैं तथा म्लेच्छ खण्डमें उत्पन्न लोग म्लेच्छ कहलाते हैं । ऊपर लिखे ढाई द्वीपोंमें लवण समुद्र तथा कालोदधि मिला देने पर मनुष्य लोक हो जाता है यह मनुष्यलोक लोकके मध्यमें स्थित है तथा इसका व्यास ४५ लाख योजन ___Jain Education international ८ ५ For Privale & Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् भवनवासी- चार देव योनियोंमें प्रथम योनि । यतः ये भवनों में रहते हैं, व्यन्तर ज्योतिषियोंके समान इधर-उधर घूमते नहीं हैं अतः इन्हें भवनवासी कहते हैं। इनके दस भेद हैं-असुर कुमार, विद्युतकु. सुपर्णकु. नागकु. अग्निकु. वातकु. स्तनितकु. उदधिकु. दपिकु. तथा दिक्कुमार। इन सबका वेष-भूषा, शस्त्र, यान - वाहन, क्रीड़ा, आदि कुमारोंके समान होते हैं अतः इन्हें कुमार कहते हैं । अधोलोकी प्रथम पृथ्वी रत्नप्रभाके पङ्क-बहुलभाग में असुरकुमार रहते हैं तथा खर भागमें शेष नागकुमार आदि नौ भवनवासी देवोंके विशाल भवन हैं । इनके इन्द्रोंकी संख्या ४० है । इनमें असुरकुमारोंकी उत्कृष्ट आयु सागर प्रमाण है, नागकुमारोंकी तीन पल्य है, सुपर्ण-कुमारों वर्ष साढ़े तीन, द्वीपकुमारोंकी दो तथा शेष छह कुमारोंकी आधा पल्य है । तथा जघन्य आयु दश सहस्र वर्ष है । व्यन्तर- देवोंका दूसरा मुख्य भेद । विविध द्वीप देशोंमें रहनेके कारण इनको व्यन्तर देव कहते हैं । किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत तथा पिशाचके भेदसे ये आठ प्रकारके हैं । यद्यपि जम्बूद्वीपसे चलकर असंख्य द्वीप समुद्रोंको पार कर जानेके बाद इसी रत्नप्रभा पृथ्वीके खरभाग पर ७ प्रकारके व्यन्तरोंका तथा पङ्कबहुल भागमें राक्षसोंका मुख्य निवास है तथापि ये मध्य लोकमें यत्र-तत्र - सर्वत्र घूमते रहते हैं । इनमें १६ इन्द्र होते हैं । इनकी उत्कृष्ट आयु एक पल्यसे अधिक है तथा जघन्य आयु दस हजार वर्ष है । अंध- पंगु - शास्त्रोंमें चरित्रवान् श्रद्धावान् व्यक्तियोंकी तुलना क्रमशः अंध और पंगुसे की है । किसी स्थान पर अंधा और लंगड़ा अलग अलग रहते हों और यदि दैवात् उस स्थानमें आग लग जाय तो वे दोनों अलग होनेके कारण जल्द भस्म हो जाते हैं । किन्तु यदि दोनों एक साथ हों तो अंधा लंगड़ेको अपनी पीठ पर ले लेता है तथा लंगड़ा आँखोंसे देख सकनेके कारण उसे रास्ता बताता जाता है । फलतः दोनों बाहर निकल जाते हैं। यही हालत चरित्र और श्रद्धा (दर्शन) की है यदि ये दोनों मिल जांय तो मोक्ष होना अनिवार्य है । अन्यथा चरित्रहीन ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञानहीन चरित्र भी विडम्बना है । जैसे कि देखता हुआ भी पंगु जलता है तथा दौड़ता हुआ भी अन्धा नष्ट होता है । चतुर्थ सर्ग कृमि - इन्द्रियोंका वर्णन करते हुए बताया है कि पृथ्वी आदिके एक इन्द्री होती है । इसके आगे कृमिके एक अधिक स्पर्शन अर्थात् स्पर्शन और रसना इन्द्रिय होती है । अर्थात् यह कीडे तीन इन्द्रिय चींटीकी जातिसे नीची जातिके हैं। रेशमके कीड़ोंको भी कृमि कहा है। सर्वार्थसिद्धि - सोलह स्वर्गीक ऊपर नौ ग्रैवेयक और अनुदिश हैं। इनके ऊपर विजय आदि पंचोत्तरोंका पटल है । इस पञ्चोत्तर पटलके मध्यके विमानका नाम सर्वार्थसिद्धि है । यहां उत्पन्न होनेवाले अहमिन्द्र मर कर नियमसे मनुष्यभव में जाते हैं और वहांसे मोक्षको प्राप्त करते हैं । इनकी आयु ३३ सागर होती है तथा शरीरकी ऊँचाई १ हाथ प्रमाण होती है । ईश्वरेच्छा - वैदिक मतानुयायी ईश्वरको जगत्का कर्ता मानते हैं। किन्तु जैनमत अपने कर्मोंको ही अपना कर्त्ता मानता है। इस सहज तथ्यकी सिद्धिके लिए जब ईश्वरके जगत्कर्तृत्व में दोष दिखाये गये तो वैदिकोंने ईश्वरकी इच्छाको संसारका कर्त्ता माना अर्थात् कर्म तो प्राणी ही करता है किन्तु ईश्वरकी इच्छासे करता है। लेकिन यदि ईश्वरमें इच्छा शेष है तो भी वह संसारियोके समान रागद्वेषी हो जायगा परमात्मा या सिद्ध नहीं रहेगा । मिथ्यादर्शन- चौथे कर्म मोहनीयके प्रथम भेद दर्शन मोहनीयका प्रथम भेद । इसके उदयसे जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्गसे विमुख होता है अर्थात् न जीवादि तत्त्वोंकी श्रद्धा करता है, और न उसे अपने हित-अहितकी पहिचान होती है । इसके दो भेद हैं 9 - नैसर्गिक या अग्रहीत जो अनादि कालसे चला आया है, २-ग्रहीत, जो दूसरोंको देखने या दूसरोंके उपदेश से असत्य श्रद्धा हो गयी हो । ग्रहीत मिथ्यात्व भी १८० क्रियावाद, ८४ अक्रियावाद, ६७ अज्ञानवाद तथा ३२ विनयवादके भेद से ३६३ प्रकारका होता है । मिथ्यादर्शन को [ ६६६ ] Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् १-एकान्त, २-विपरीत, ३-संशय, ४-वैनयिक तथा ५-अज्ञानके भेदसे भी पांच प्रकारका बताया है । यह कर्मबन्ध या संसारका प्रधान कारण है। अविरति-पांच पापोंसे विरक्त न होनेको अथवा व्रतोंको न धारण करनेकी अवस्थाको अविरति कहते हैं । यह पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा त्रस इन षट्कायों तथा स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र तथा मन इन षट्करणोंकी अविरतिके भेद से १२ प्रकारकी होती है। प्रमाद-चारित्र मोहनीय कर्मक उदयके कारण आगमोक्त आवश्यकादि करनेमें असमर्थ होनेके कारण उनका अन्यथा प्रतिपादन करना तथा मूर्खता, दुष्टता और आलस्यके कारण शास्त्रोक्त विधियोंकी अवहेलना करना ही प्रमाद है । चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रियाँ, निन्दा तथा स्नेहके भेदसे प्रमाद १५ प्रकारका है । मुनिके लिए ५ समिति, ३ गुप्ति, ८ शुद्धि तथा १० धर्मोका अनादर अथवा अन्यथा-करणसे प्रमादके अनेक भेद होते हैं। कषाय-बड़ आदिके कषाय (दूध ) के समान होनेके कारण क्रोधादिको कषाय कहते हैं । इन्हीं के कारण आत्मा पर कर्म रज चिपकती है अथवा जो आत्माके गुणोंको नष्ट करते ( कषति, हिंसन्ति, प्रन्ति ) हैं उन्हें कषाय कहते हैं । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया-लोभके भेदसे कषाय १६ प्रकारकी हैं तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीपुं-नपुंसक वेदके भोदसे नोकषाय नौ प्रकारकी है । इस प्रकार कुल मिलाकर कषायके २५ भेद हैं ।। योग-काय, वचन और मनकी हिलन-डुलनको योग कहते हैं । अथवा आत्माके प्रदेशोंकी सक्रियताका नाम योग है । फलतः कर्म अथवा नोकर्मोको ग्रहण करने की आत्माकी शक्ति ही भाव-योग है। तथा इसके निमित्तसे होनेवाली काय, वचन और मनकी चेष्टाएं द्रव्य-योग । यतः काय, वचन और मनके निमित्तसे आत्मप्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है अतः योग भी तीन प्रकारका है। योग शब्दका प्रयोग ध्यानके लिए भी हुआ है । इसीलिए पण्डिताचार्य आशाधरजीने देश संयमीको समझाते हुए लिखा है कि प्रारब्धयोगी, घटमान-योगी तथा निष्पन्न-योगीके समान देश संयमी भी होता है। अर्थात् १-जिनकी ध्यानकी साधना प्रारम्भ हुई है वे प्रारब्ध योगी है, २-जिनकी साधना भले प्रकारसे बढ़ रही है वे घटमान योगी हैं और ३-जिनकी साधना पूर्ण हो गयी है वे निष्पन्न योगी हैं। प्रकृतिबंध-योगोंके द्वारा कार्माण वर्गणाएँ आत्मासे बंधती हैं । तथा वे ज्ञान, दर्शनको रोकना, सुख दुःखादिका अनुभव कराना आदि स्वभाव धारण करती हैं इसे ही प्रकृतिबंध कहते हैं । अर्थात् त्रियोगसे आकृष्ट और बद्ध कार्माण वर्गणाओंका ज्ञान-दर्शनावरणादि रूप से बंटना प्रकृतिबन्ध है । इसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय आठ मुख्य भेद हैं । प्रभेद १४८ हैं । आयुकर्मके सिवा शेष सातकर्मोंका प्रकृतिबन्ध संसारी जीवके सदैव होता रहता है । स्थितिबंध-प्रकृति या स्वभावसे स्खलित न होनेको स्थितिबन्ध या आयु कहते हैं । अर्थात् तीव्र मन्द या मध्यम कषायोंके कारण जितने समय तक कार्माण वर्गणाएं आत्मासे बन्धी रहें वह उनकी स्थिति (आयु ) कहलायगी । आदिके तीन कर्मों (ज्ञान-दर्शनावरण तथा वेदनीय ) ३० कोड़ाकोड़ि सागर, मोहनीय की ७० कोड़ाकोड़ि सागर, आयुकर्म की ३३ कोड़ाकोड़ि सागर तथा नाम, गोत्र, अन्तराय कर्मोको २० कोड़ाकोड़ि सागर उत्कृष्ट स्थिति है । वेदनीयकी १२ मुहुर्त, नाम-गोत्रकी ८ मुहूर्त तथा शेष पांचों कर्मों की अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थिति [६६७] अनुभाग बंध-बन्धी कार्माण वर्गणाओंके रस या फलको अनुभाग कहते हैं । कषायों की तीव्रता, मन्दता, आदिके कारण कर्मभूत पुद्गलोंमें जो तीव्र या मन्द फल देनेका सामर्थ्य आता है उसे ही अनुभाग बन्ध कहते हैं। प्रदेशबंध-बंधते हुए कर्म पुद्गलोंके परिमाण या प्रदेश संख्याको प्रदेशबन्ध कहते हैं । योगके कारण आकृष्ट तथा विविध प्रकृति रूप Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् परिणत कर्म परमाणुओंका एक निश्चित मात्रामें आत्माकै प्रदेशकि साथ एकमेक हो जाना ही प्रदेश बन्ध है । देशावधि - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादाओंके साथ रूपी पदार्थके प्रत्यक्ष ज्ञाता ज्ञानको अवधि ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं १ - भव प्रत्यय, जैसे देव, नारकियों तथा तीर्थकरोंका अवधिज्ञान, २-क्षयोपशम-निमित्त अर्थात् सम्यक्दर्शन और तपके द्वारा पर्याप्त मनुष्य अथवा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोक होनेवाला अवधिज्ञान । इनमें प्रथम प्रकार का अवधिज्ञान देशावधि ही होता है और दूसरा देशावधि भी होता है । अर्थात् देश, द्रव्य, काल, भाव की मर्यादाओंके साथ रूपी पदार्थको देशरूपसे प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञानको देशावधि कहते हैं। इसका विषय (ज्ञेय ) थोड़ा होता है तथा यह छूट भी सकता है । परमावधि - उपरि उक्त मर्यादाओंके साथ पदार्थको अधिकतर रूपसे जाननेवाले क्षयोपशम निमित्तक अवधि ज्ञानको परमावधि कहते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की वृद्धि हानिकी अपेक्षा इसके असंख्यात भेद होते हैं । यह मध्यम अवधि ज्ञान है तथा इसके धारी तद्भव- मोक्षगामी होते हैं। नोकषाय - साधारण शक्ति युक्त कषायको नो ( ईषत् ) कषाय कहते हैं । यह हास्य, आदिके भेदसे नौ प्रकार की है । शील - साधारणतया शील शब्दका प्रयोग पातिव्रत तथा पत्नीव्रत अथवा ब्रह्मचर्यके लिए हुआ है । किन्तु जैन दर्शनमें तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंके लिए भी सप्तशील संज्ञा दी है। दिग्विरति, देशविरति तथा अनर्थदण्डविरति ये तीन गुणव्रत हैं। सामयिक प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग- परिमाण तथा अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं । कबलाहार - कवल ग्रासको कहते हैं। महाव्रतीके लिए नियम है कि वह ग्रासोंमें आहार ले । तथा ऐसे ग्रासोंकी संख्या ३२ के ऊपर नहीं जाती । केवलीके चारों घातिया नष्ट हो जानेसे क्षुधादि नहीं रहते फलतः वे कवलाहार नहीं करते किन्तु श्वेताम्बर केवलीके भी कवलाहार मानते हैं । स्याद्वाद - प्रत्येक वस्तु, अनेक धर्म युक्त है । यतः शब्दोंको क्रमशः ही कहा जा सकता है अतः किसी पदार्थक सब धर्मोंको युगपत् कहना अशक्य है । तथा एक शब्द द्वारा बताये गये धर्मको ही उस वस्तुका पूर्ण रूप समझ लेना भी भ्रान्ति है । अतएव किसी वस्तुके एक धर्म को कहते हुए उसके अन्य धर्मोका 'संकेत करनेके लिए उस धर्मके पहिले 'स्यात्' लगाया जाता है । इस स्यात्के व्यवहारको ही 'स्याद्वाद' कहते हैं । इसके सात मुख्य भेद ( भंग ) हैं । १ स्याद् अस्ति अर्थात् स्व द्रव्य क्षेत्र काल, भाव की अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ हैं।' २ - स्याद् नास्ति पर द्रव्य, आदि की अपेक्षा नहीं है । ३ - स्याद् अस्ति नास्ति, उक्त दोनों दृष्टियों से देखनेपर पदार्थ है भी और नहीं भी है । ४-स्यात अवक्तव्य - उक्त दोनों दृष्टियोंसे युगपत् देखने कहनेपर पदार्थ अवक्तव्य है; कहा नहीं जा सकता है। ५- स्यादस्ति अवक्तव्य; क्योंकि उक्त दृष्टि होते हुए भी स्व द्रव्यादिकी अपेक्षा अवश्य है ६ - स्यान्नास्ति अवक्तव्य -- अवक्तव्य होते हुए भी पर द्रव्यादिकी अपेक्षा नहीं ही है ७ - स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य- क्योंकि युगपत् अनिर्वचनीय होते हुए भी अस्ति नास्ति स्वरूप है ही । इन सातों दृष्टियोंसे पदार्थके नित्यत्वादि गुणोंका भी विचार होता है । साकूत - अभिप्राय या संकेतको आकूत कहते हैं अतएव साकूतका अर्थ अभिप्राय दुर्वर्ण- अशोभन रूप युक्त । अथवा नीच जातिका अथवा कुत्सित अक्षरों युक्त । अयशःकीर्ति - नाम कर्मका प्रभेद । जिसके उदयसे संसारमें अपयश या प्रवाद हो उसे अयशः कीर्ति नाम-कर्म कहते हैं । शुभ नाम कर्म का भेद । इसके उदयसे शरीर आदि सुन्दर होते हैं । सुस्वर - नामकर्मका भेद । इसके उदयसे प्राणीका कण्ठ मधुर-मनोहारी होता है । युक्त है । [ ६६८] Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् दोषोद्घाटन-गोत्रकर्मक बन्धके कारणोंका विवेचन करते समय बताया है किम परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा, सत्-गुणाच्छादन तथा असत् दोषोद्घाटन नीच गोत्रके कारण होते हैं । फलतः दूसरेके दोषोंका सप्रचार करना अथवा दूसरेमें दोषोंकी कल्पना करना ही दोषोद्घाटन का तात्पर्य है। पैशुन्य-दुर्जन या खलको पिशुन कहते हैं । पिशुनके भावको पैशुन्य अर्थात् दुर्जनता अथवा खलता कहते हैं । एककी बुराई दूसरे से करना तथा एक दूसरेकी गुप्त बातें बताना अथवा चुगलखोरी भी पैशुन्यका अर्थ है। बन्ध-कषाययुक्त आत्मा द्वारा कर्म होने योग्य पुगलोंके ग्रहणको बन्थ कहते हैं । यह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है। पुद्गल परमाणुओंके मिलकर स्कन्धरूप होनेको भी बन्ध कहते हैं । यह बन्ध परमाणुओं की स्निग्धता और रूक्षताके कारण होता है। म एक गुण स्निग्धका एक या अनेक गुण स्निग्धरूक्ष से बन्ध नहीं होता | समान गुण होने पर समोंका बन्ध नहीं होता । विषम होने पर समान गुणोंका भी बन्ध होता । दो गुणों के अन्तरवालोंका तो बन्ध होता ही है । बन्धमें जिसके गुण अधिक होते हैं वह अल्पगुणयुक्तको अपना सा बना लेता है । अहिंसा अणुव्रतके पहिले अतिचारको भी 'बन्ध' कहते हैं अर्थात् प्राणियोंसे विराधना होने पर उन्हें बन्धनमें डाल देना । उदय-बंधे हुए कर्मकी स्थिति पूर्ण होने पर उसके फलको प्रकट होनेको उदय कहते हैं । अर्थात् स्थितिपूर्ण होने पर द्रव्य, क्षेत्र, व आदिके निमित्तसे कर्मोक फल देने को उदय कहते हैं । ग्रहादि के प्रकट होनेको भी उदय कहते हैं । तथा किसी ग्रह विशेषका नाम भी , आबाधा-बन्ध होनेके बाद जब तक कर्म उदयमें न आवे उस अवस्थाको आबाधा कहते हैं । इसका काल उदय और उदीरणाके कारण विविध होता है क्योंकि उदय स्थिति पूर्ण होने पर ही होगा, किन्तु उदीरणा तो असमय में ही होती है । साधारण नियम सात कर्मों (आयु को छोड़ कर ) के लिए यही है कि कोड़ाकोड़िकी स्थिति पर १०० वर्ष आबाधाकाल होगा । आयुकर्म बंधनेके बाद दूसरी गतिको । जाने तक उदय में नहीं आता । इसकी उत्कृष्ट आबाधा एक कोडि पूर्वका तृतीयांश है तथा जघन्य आवलिका असंख्यात का भाग है। यह हुई उदयकी अपेक्षा, उदीरणाकी अपेक्षा सातों कर्मोकी आबाधा एक आवलि है । पञ्चम सर्ग आकाश-षड् द्रव्यों में तीसरा द्रव्य है । जो जीव आदि पाँचों द्रव्यों को अवकाश-ठहरनेका स्थान दे उसे आकाश कहते हैं । आकाश अमूर्तिक, अखण्ड, सर्वव्याप्त तथा स्व-आधार द्रव्य है । इसके दो भेद हैं-१ लोकाकाश तथा २-अलोकाकाश | जहां जीवादि पांच द्रव्य (लोक) पाये जाय वह लोकाकाश है । इसके सिवा शेष अलोकाकाश है । इसके प्रदेश अनन्त हैं। इसका कार्य अवगाह या रहनेका स्थान देना है, जैसा कि इसकी परिभाषासे स्पष्ट है । लोक-जीव आदि षड्द्रव्यमय स्थानको लोक कहते हैं । अनन्त आकाशके मध्यमें वह पुरुषाकार खड़ा है । अर्थात् नीचे से ऊपर लोक १४ राजू ऊँचा है आधारपर पूर्वसे पश्चिम ७ राजू चौड़ा है । यह चौड़ाई घटते घटते ७ राजूकी ऊँचाई पर केवल १ राजू है । फिर बढ़ती हुई १०॥ राजूकी ऊंचाई पर ५ राजू है तथा शिर पर (१४ राजू की ऊंचाई पर) फिर १ राजू चौड़ाई है । इस लोक स्कन्धकी मोटाई सर्वत्र ७ राजू है । इस प्रकार सारे लोकका घनफल ३४५ घनराजू है । मोटे तौरसे ऊँचै मोड़ा पर मृदङ्ग रखनेसे लोककी आकृति बन जाती है। Jain Education international [६६९] Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् इस लोकका कोई कर्ता-धर्ता नहीं है । षड् द्रव्यों तथा विशेष कर जीव द्रव्यकी चेष्टाओंके कारण यह उन्नत अवनत होता चलता है । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, चिह्न, कषाय, भव, भाव, पर्यायकी अपेक्षासे इसका विवेचन किया जाता है । राजु - जगत् श्रेणीके सातवें भागको राजु कहते हैं । लोकाकाश (१४ राजु ) की प्रदेश मात्र चौड़ी तथा मोटी आधी ( सात राजु) ऊंचाई को जगत् श्रेणी कहते हैं, इसके सातवें भागका नाम राजु ( रज्जु ) है। परमाणु सबसे सूक्ष्म स्थान - माप है । इसके बाद अवसन्नासन्न, आदि ९ माप बननेके बाद सरसों होता है। ८ सरसोंकी मोटाई १ यव (जौ) होता है। आठ जौकी मोटाई १ अंगुल होती है । ६ अंगुल ( उत्षेधांगुल) की लम्बाईका १ पाद होता है । २ पादकी १ वितति ( वालिश्त ) । २ विततिका १ हाथ (हस्त ) । २ हस्तका १ किष्कु (गज) । २ किष्कुका १ धनुष अथवा दण्ड होता है । २००० धनुषका १ क्रोश । ४ क्रोशका १ योजन । ५०० योजनका १ प्रमाण योजन । और असंख्यात प्रमाण योजनों का १ राजु होता है । ७ राजुकी जगत् श्रेणी होती है । धनोदधि - पूर्ण लोक तीन प्रकारके वायुमण्डलोंसे घिरा है । इनमें घनोदधि वातवलय पहिला है। घनोदधि वह वायु है जिसमें जलांश ( नमी ) रहता है। इसका रंग गायके मूत्रके समान है तथा लोक मूलसे लेकर १ योजनकी ऊँचाई तथा इसकी मोटाई २० हजार योजन है । इसके बाद ज्यों ज्यों ऊपर जाइये त्यों त्यों मोटाई घटती जाती है और सातवीं पृथ्वीके पास केवल ७ योजन रह जाती है । लोकमध्यमें केवल ५ राजु रह जाती है। इसके बाद बढ़ती हुई घनोदधि वात वलय की मोटाई ब्रह्म स्वर्गके पास सात योजन है । फिर घटती है और ऊर्ध्वलोकके पास ५ योजन होती हुई लोकाग्रमें केवल दो कोश रह जाती है । धन-लोकको घेरनेवाले दूसरे वायुमण्डलका नाम घन वातवलय है। यह वायु मण्डल ठोस है। इसका रंग मूंगके समान है। घनोदधि वात वलयके समान इसकी भी मोटाई क्रमशः २० हजार योजन, ५ योजन, ४ योजन तथा १ क्रोश मात्र है । तनु-लोकको घेरनेवाले तीसरे वातवलयका नाम तनु वातवलय है । यह बहुत ही हल्की वायु है । इसका रंग नाना प्रकारका है। घनोदधि वातवलयके समान इसकी भी मोटाई क्रमशः २० हजार योजन, ४ योजन, ३ योजन, ४ योजन, ३ योजन तथा कुछ कम १ क्रोश मात्र है। ये तीनों वातवलय एक प्रकारसे लोकके धारक हैं । योजन - अनन्तानन्त परमाणुओंसे 'अवसन्नासन्न' स्कन्ध बनता है, ८ अवसन्नासन्नका १ सन्नासन्न, ८ सन्नासन्नका १ तटूरेणु, ८ तटूरेणुका १ त्रसरेणु, ८ त्रसरेणुका १ रथरेणु, ८ रथरेणुका १ वालाग्र ( उत्तम भोगभूमिया मेढ़ेका ), ८ वालाग्रका १ (मध्यमभोगभूमिया मेढ़ेका ) वालाग्र, ८ ( मध्य. भो. ) वालग्रका १ ( कर्मभूमिया मेढ़ेका ) वालाग्र, ८ ( कर्मभू० ) वालाग्रकी १ लीक, ८ लीककी मोटाईकी १ सरसों, ८ सरसोंकी मोटाई का १ यव, ८ यवकी मोटाई का १ अंगुल, ६ अंगुलका १ पाद, २ पादकी १ वितति ( वालिश्त ), २ वितति का १ हस्त, २ हस्तका १ किष्कु, २ किष्कु का १ धनुष या दंड, २००० धनुषका १ क्रोश ४ क्रोशका १ योजन होता है । चारों गतियोंके जीवोंके शरीरों देवोंके नगर, मंदिर आदिका माप इसी योजन द्वारा है । गव्यूति - दो क्रोशकी १ गव्यूति होती है । अथवा आधे योजनको गव्यूति कहते हैं । क्रोश- ५ नत्वका अर्थात् ( ४०० किष्कु x ५ ) २००० धनुषका १ क्रोश होता है । पटल- छत या चंदोवेको पटल कहते हैं, किन्तु शास्त्रोंमें इसका प्रयोग स्तर या प्रदेश मात्र मोटाई युक्त लम्बे चौड़े विस्तार के लिए हुआ है। संस्थान - शरीरका आकार निर्मापक कर्म । इसके मुख्य भेद छह हैं, १ समचतुष्क अर्थात् सुडौल आनुपातिक शरीर, २ न्यग्रोध परिमंडल -- कमरके ऊपर भारी और नीचे हल्का शरीर, ३ स्वाति-कमरके नीचे वामीकी तरह भारी और धड़ हल्का, ४ कुब्जक- कुबड़ा, ५ वामन - अर्थात् बोना और ६ हुण्डक-बेडौल अष्टावक्र शरीर । [६७०] Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् नपुंसक-मोहनीय कर्मक नोकषाय भेदका उपभेद है इसके उदयसे जीव न पुरुष होता है और न स्त्री । ईंटोंके आवेकी आगके समान उसकी रति-अग्नि अंदर ही अंदर सुलगती रहती है और परिणाम अत्यन्त कलुषित होते हैं । विभंग अवधिज्ञान-अवधि ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मोंके क्षयोपशमसे द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादा युक्त मिथ्यादष्टि ! जीवोंके ज्ञानको विभंग ( अवधि ) ज्ञान कहते हैं । विभंग या उल्टा इसलिए होता है कि इसके द्वारा जाना गया रूपी पदार्थोंका स्वरूप सच्चे देव, गुरु और आगमके विपरीत होता है । तीव्र कायक्लेशके निमित्तसे उत्पन्न होनेके कारण तिर्यञ्च और मनुष्योंमें गुण-प्रत्यय होता है तथा देव-नारकियोंमें भव-प्रत्यय होता है। अन्तर्मुहूर्त-कालद्रव्य के छोटेसे छोटे अंशका नाम 'समय' है । जघन्य युक्ता-संख्यात समयकीआवलि, संख्यात आवलिका १प्रतिविपलांश, ६०प्रति विपलांशका १प्रति विपल, ६० प्रति विपलका १ विपल, ६० विपल ( २४ सैकिण्ड ) का १ पल या विनाड़ी, ६० पल ( २४ मिनट) की १ घटिका या नाड़ी, २ घटिका ( अथवा ४८ मिनट) की १ मुहूर्त । एक समय कम मुहूर्त का १ उकृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। असाता-जिस कर्मक उदयसे जीवको आकुलता हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं, इसका दूसरा भेद असाता वेदनीय है । जिस कर्मक उदयसे दुःखकी वेदना हो असाता ( वेदनीय ) कहते हैं । सनत्कुमार-भवनवासी देवोंका पहिला प्रकार है । स्वयंभूरमण-मध्य या तिर्यञ्च लोकमें असंख्यात द्वीप तथा समुद्र हैं । प्रथम तथा द्वितीय द्वीप जम्बू और धातुकीको लवण तथा कालोदधि समुद्र घेरे हैं । इसके बाद जो द्वीपका नाम है वही समुद्रका भी है । दूसरे १६ द्वीपोंमें अन्तका ( अर्थात् ३२वां द्वीप) स्वयंभूरमण है इसे घेरनेवाला अर्थात् ३२वां समुद्र स्वयंभूरमण है । इसके पानीका स्वाद जलके ही समान है । इसमें भी जलचर तथा विकलत्रय जीव पाये जाते हैं । किनारेके पास ५०० योजन तथा बीचमें १००० योजन लम्बे मत्स्य पाये जाते हैं । इसकी गहरायी १००० योजन के लगभग है। अपवर्त्य-भोगी जानेवाली आयुका घटना या उलटना । विष, वेदना, शस्त्र आदिके द्वारा मृत्युको अपवर्त्य कहते हैं। षष्टम सर्ग कुभोगभूमि-लवण तथा कालोदधि समुद्रमें ९६ छोटे छोटे ( अन्तर ) द्वीप हैं । यही कुभोगभूमियां हैं । क्योंकि इनमें लम्बकर्ण, अश्वमुख, श्वानमुख युगलिये पैदा होते हैं । इनकी आयु १ कल्प होती है । ये मरकर देवगतिमें जाते हैं । सम्यक्त्व हीन केवल चारित्र धारी कुपात्रोंको दान देनेसे जीवों का कुभोगभूमिमें जन्म होता है। कर्मभूमि-जिन क्षेत्रों में मोक्षके कारण धर्म ( संयम ) का पालन होता है तथा जहां असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प तथा विद्याके द्वारा आजीविका की जाती है उसे कर्मभूमि कहते हैं । ढाई द्वीपमें ५ भरत ५ ऐरावत तथा ५ विदेह मिलकर १५ कर्म भूमियां हैं । विदेहमें सदा चौथा काल रहता है और मोक्षमार्ग खुला रहता है । भरत ऐरावतमें परिवर्तन होता रहता है । और चौथे कालमें ही मोक्षमार्ग खुलता है, शेष कालोंमें बन्द रहता है। पूर्वकोटि-८४ लाख वर्षका १ पूर्वाङ्ग तथा ८४ लाख पूर्वाङ्गका १ पूर्व होता है । करोड़ पूर्वको पूर्वकोटि शब्दसे कहा है। अण्डज-प्राणियोंके जन्म तीन प्रकारसे होते हैं । दूसरे प्रकारका जन्म अर्थात् गर्भ जन्म जिनके होता है उनमें अण्डज जीव भी हैं। जो जीव गर्भसे अण्डे द्वारा उत्पन्न हो उन्हें अण्डज कहते हैं जैसे-कछुआ, मछली, पक्षी, आदि । FROFERRIAचन्यायालय [६७१] Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् । AIRAHASHeemaSIASTweepeareAeawesempeareer कुल-योनिसंख्या-साधारणतया 'कुल' शब्द वंशवाची है किन्तु शास्त्रमें इसका प्रयोग जीवके प्रकारों या वर्गकि लिए हुआ है । अर्थात् जितने प्रकारसे संसारी जीव जन्म लेते हैं उतने ही कुल होते हैं। उनका विशद निम्न प्रकार है पृथ्वी कायिक जीवोंके २२ लाख कोटि, जलकायिकोंके ७ला०को०, तेज कायिकोंके ३ ला०को०, वायुका० ७ला०को०, वनस्पति कायिकोंके २६ला०को०, द्वीन्द्रियोंके ७ला०को०, त्रीन्द्रियोंके ८ला०को०, चतुरिन्द्रियोंके ९ला०को०, जलचर पंचेन्द्रियोंके १२शलाको०, पक्षियोंके १२ला०को०, चौपायोंके १७ला०को०, सरीसपोंके ९लाको०, देवोंके २६ला०को०, नारकियोंके २५ला०को०, मनुष्योंक १२ला०को० । योनि-जिस आधारमें जीव जन्म लेता है उसे योनि कहते हैं। इसके दो भेद हैं आकार योनि और गुण योनि । शंखावर्त, कूर्मोन्नत और वंशपत्रके भेदसे आकार योनि तीन प्रकारकी है । गुणयोनि भी सचित्त, शीत, संवृत, इनके उल्टे अचित्त उष्ण, विवृत तथा मिश्रित सचित्ता-चित्तादिके भेदसे नौ प्रकारकी है । इसके भेदोंकी संख्या-नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, अप, तेज तथा वायुकायिकोंमें प्रत्येककी ७ ला० (४२ ला०) वनस्पतिकाय १० ला०, द्वि-त्रि- तथा चतुरिन्द्रियोंमें प्रत्येककी २ ला० (६ लाख ) नारकी, तिर्यञ्च तथा देवोंमें प्रत्येककी ४ लाख (१२ लाख) तथा मनुष्यकी १४ लाख योनियां होती हैं। इन सब योनियोंको मिलाने पर समस्त योनि संख्या ८४ लाख होती है। विकलेन्द्रिय-एक इन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तकके जीव । अर्थात् वे जीव जिनके पाँचों इन्द्रियाँ नहीं हैं । सप्तम सर्ग हैमवत-हरण्यक-जम्बूद्वीपके दूसरे तथा छठे क्षेत्र । ये दोनों जघन्य भोग-भूमि हैं। हरि-रम्यक-जम्बूद्वीपके तीसरे तथा पांचवें क्षेत्र । ये दोनों मध्यम भोग-भूमियां हैं । ईति-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी, चूहे, पक्षी तथा आक्रमण करनेवाले राजा या राष्ट्र आदि जनताके शत्रुओंको ईति कहते हैं । कल्पवृक्ष-इच्छानुसार पदार्थ देनेवाले वृक्ष हैं । ये वनस्पतिकायिक न होकर पृथ्वीकायिक होते हैं । इनके निम्न दस प्रकार गिनाये हैं-१ मद्यांग-नाना प्रकारके पौष्टिक रस देते हैं । २ वादित्रांग-विविध प्रकारके बाजे इनसे प्राप्त होते हैं । ३ भूषणांग-मनोहर भूषण देते हैं। ४ मालांग-नाना प्रकारके पुष्प मालादि देते हैं। ५ दीपांग-सब प्रकारके प्रकाश देते हैं । ६ ज्योतिरंग-समस्त क्षेत्रको कान्तिसे आलोकित करते हैं । ७ गृहांग-सुविधा सम्पन्न भवन देते हैं । ८ भोजनांग-सर्व प्रकारके स्वादु भोजन देते हैं । ९ भाजनांग-अनेक प्रकारके पात्र प्रदान करते हैं । १० वस्त्रांग-मनोहर वस्त्र देते हैं । वर प्रसंग-पुष्पके प्रसाधनों (आभूषणों ) के लिए आया है । अर्थात् जो वृक्ष चम्पक, मालती, पलास, जाति, कमल, केतकी, आदिक पांच प्रकारकी मालाओंको दें उन्हें वरप्रसंग कल्पवृक्ष कहते हैं। संयमी-पांचों इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला तथा षट् कार्योंके जीवोंके रक्षकको कहते हैं। निर्ग्रन्थ-मुनियोंका चौथा भेद । डंडेसे पानी में खींची गयी लकीरके समान जिनके कर्मोंका उदय स्पष्ट नहीं है तथा जिन्हें एक मुहूर्त बाद ही केवल ज्ञान दर्शन प्राप्त होनेवाले हैं ऐसे क्षीणमोह साधुको निर्ग्रन्थ कहते हैं । इसका साधारण अर्थ ग्रन्थ ( परिग्रह ) हीन साधु [६७२] वर्धमानक-साधारणतया शराब (पुरुबे प्याले ) को बर्द्धमानक कहते हैं | यहां यह शुभ लक्षणों के प्रकरणमें आया है अतएव विशेष । प्रकारके स्वस्तिकसे तात्पर्य है । Jajn Education international For Privale & Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् श्रीवत्स - तीर्थंकरों या विष्णुके वक्षस्थल पर होनेवाला रामोंका पुष्पाकार चिन्ह तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंमें भी यह पुष्पाकार उठा हुआ बना रहता है । पल्य- का शब्दार्थ गढ़ा या खत्ता है। इनका पारिभाषिक अर्थ वह परिमाण या संख्या है जो एक विशेष प्रकारके पल्य ( खत्ते ) द्वारा निश्चित की जाती है यह (१) व्यवहार, (२) उद्धार तथा (३) अद्धाके भेदसे तीन प्रकारका है। वे निम्न प्रकार हैं- एक प्रमाण योजन ( २००० कोश ) व्यास तथा गहराई युक्त गढ़ा खोद कर उसमें उत्तम भोग-भूमिया मेढेके वालाग्रोंको भर दे । इस गढ़में जितन रेम आय उनमेंसे प्रत्येकको सौ, सौ वर्षमें निकाले । इस प्रकार जितने समयमें वह गढ़ा खाली हो जाय उसे 'व्यवहार पल्योपमकाल' कहेंगे । इसके द्वारा केवल संख्या बतायी जाती है । व्यवहार पल्यके प्रत्येक रोमके उतने हिस्से करो जितने असंख्यात कोटि वर्षके समय होते हैं। इन रोम खण्डोंसे भरा गढ़ा उद्धार पल्य कहलायगा । तथा प्रति समय एक एक रोम खंड निकालने पर जितने समयमें यह गढ़ा खाली होगा उसे 'उद्धार पल्योपमकाल' कहेंगे। इसके द्वारा द्वीप तथा समुद्र गिने जाते हैं । उद्धार पल्यके प्रत्येक रोम खंडके उतने टुकड़े करो जितने सौ वर्षमें समय होते हैं। इनसे जो गढ़ा भरा जायगा उसे अद्धा पल्य कहेंगे। तथा प्रति समय एक एक रोमच्छेद निकालने पर जितने समयमें वह गढ़ा खाली होगा उसे 'अद्धा पल्योपमकाल' कहेंगे। इसके द्वारा कर्मोकी स्थिति आयु आदि गिनायी जाती है । देवलोक - जहां पर भवनवासी, व्यन्तर, ज्यौतिषी तथा कल्पवासी देवोंका निवास है उस क्षेत्रको देवलोक कहते हैं। वह लोक रत्नप्रभा पृथ्वीके पंक बहुल भागसे प्रारम्भ होकर सर्वार्थसिद्धि या सिद्धिशिलाके नीचे तक फैला है। साधारणतया ऊर्ध्वलोक ( सुमेरुकी शिखाके एक बाल ऊंचाई से लेकर सिद्धशिलाके नीचे तक विस्तृत ) को देवलोक कहते हैं । नवम सर्ग वैमानिक - जिनमें रहने पर अपनेको जीव विशेष भाग्यशाली माने उन्हें विमान कहते हैं। विमानमें रहनेवाले देव वैमानिक कहलाते हैं । वैमानिक देव दो प्रकारके हैं। १ कल्पोपत्र तथा २ कल्पातीत । सौधर्म आदि सोलह स्वर्गौमें इन्द्र, सामानिक आदि दस भेदोंकी कल्पना है अतएव वे कल्प और वहां उत्पन्न देव कल्पोपन कहलाते हैं। इसके ऊपर ग्रैवेयकादिमें छोटे बड़ेके ज्ञापक इन्द्रादि भेद नहीं होते अतएव इन्हें कल्पातीत कहते हैं । सौधर्मादि - सोलह स्वर्ग कल्प हैं तथा नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पञ्च पंचोत्तर कल्पातीत हैं । वंशा- दूसरे नरककी भूमिका नाम है । इसकी मोटाई ३२००० योजन है । इसमें २१ पटल हैं। नारकियोंके निवास के लिए इसमें २५ लाख बिल हैं। वहां उत्पन्न होनेवाले नारकियोंकी जघन्य आयु १ सागर होती है और उत्कृष्ट ३ सागर होती है । कल्प - उन स्वर्गीको कहते हैं जिनके देवोंमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, आदि भेदोंकी कल्पना है। सौधर्मसे लेकर अच्युत पर्यन्त सोलह कल्प हैं । इसके ऊपरके देवोंमें उक्त भेदों के द्वारा छोटे बड़ेकी कल्पना नहीं है अतएव वे स्वर्ग कल्पातीत कहलाते हैं । इन्द्रक - स्वर्ग पटलोंके विमानोंकी व्यवस्थामें जो विमान मध्यमें होता है उसे 'इन्द्रक' कहते हैं। सोलह स्वर्गो में ऐसे विमानों की संख्या ५२ है तथा नौ ग्रैवेयकके ९, नौ अनुदिशोंका १ और पांच पञ्चोत्तरोंका १ मिलाने पर स्वर्गक समस्त इन्द्रक विमानोंकी संख्या ६३ होती है । श्रेणीबदूध- दिशाओं और विदिशाओंमें पंक्ति रूपसे फैले विमानों या नरकके बिलोंको श्रेणीबद्ध कहते हैं । प्रकीर्णक - श्रेणीबद्ध विमानों अथवा विलोके अन्तरालमें फूलोंकी तरह छितराये हुए विमानादिकोंको प्रकीर्णक कहते हैं । अकृत्रिम - जो मनुष्यके द्वारा न बनाया गया हो अर्थात् प्राकृतिक । पुराणोंमें वर्णन है कि आठ प्रकारके व्यन्तरों तथा पांच प्रकारके ज्योतिषी देवोंके स्थानोंमें अकृत्रिम जिनबिम्ब तथा जिन मन्दिर हैं। ऐसी निरवद्य मूर्तियोंकी संख्या ९२५५३२७९४८ है । τε [६७३] Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग चरितम् उपमान-तुलनाके वर्णनमें पदार्थ, सदृशपदार्थ, सदृशधर्म तथा सदृशता वाचक शब्द ये चार अंग होते हैं । इनमें सदृशपदार्थको उपमान कहते हैं । द्रव्यमानके दो भेद हैं संख्या मान तथा उपमा अथवा उपमान | पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर तथा घनलोकके भेदसे उपमान आठ प्रकारका है । गुणवतअहिंसा आदि पांच व्रतोंको गुणित ( बढ़ाने ) करनेवाले व्रतोंको गुणव्रत कहते हैं । दिग, देश तथा अनर्थदण्ड-विरतिके भेदसे ये तीन प्रकारके हैं। शिक्षाव्रत-महाव्रतोंकी शिक्षा देनेवाले व्रतोंको शिक्षाव्रत कहते हैं सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि संविभाग तथा भोगोपभोग परिमाण के भेदसे वे चार प्रकारके हैं । अष्टदोष-सम्यक् दर्शनके शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ता, अपकर्षण, चांचल्य, ईर्ष्या तथा निन्दा दोषोंको अष्टदोष कहते हैं। तप-आत्माके शुद्ध स्वरूप को लाने (तपाने) के लिए अथवा कर्मकि क्षयके लिए किये गये प्रशस्त प्रयत्नको तप कहते हैं । बाह्य तथा अन्तरंगके भेदसे यह दो प्रकारका है । इनमें भी प्रत्येकके छह छह भेद हैं। समिति-सावधानी पूर्वक उठने-बैठने बोलने आदि आचरण नियमोंको समिति कहते हैं । ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप तथा उत्सर्गक भेदसे यह पांच प्रकारकी है । गुप्ति-आत्म नियंत्रणको गुप्ति कहते हैं । इसके तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति । विक्रिया-जिसके द्वारा शरीरको विविध रूपोंमें बदला जा सके उस सामर्थ्यको विक्रिया कहते हैं । यह दो प्रकारसे होती है अपने मूल शरीरको ही विविध रूपसे परिणत करना अर्थात् अपृथक् विक्रिया और मूल शरीरको तदवस्थ रखते हुए विविध रूप धारण करना अर्थात् पृथक् विक्रिया । सागर-उपमा मानके दूसरे भेदका नाम सागर है। क्योंकि समुद्रकी उपमा देकर इसमें प्रमाण बताया जाता है | सागर प्रमाणसे 'चौगुने लवणसागर धन एक षष्ठ ( लवण सागर ४+१/६) इष्ट है। पल्यके समान सागर भी व्यवहार, उद्धार तथा अद्धाके भेदसे तीन प्रकारका है । व्यवहार पल्यके प्रमाणमें दश कोड़ाकोडि (करोड़ गुणित करोड़) का गुणा करने पर व्यवहारसागरका प्रमाण आयगा । इसी प्रकार उद्धार सागर तथा अद्धा सागरको समझना चाहिये । अतीन्द्रिय-संसारमें इन्द्रियोंके द्वारा ही अनुभव होता है, किन्तु इन्द्रियां कर्मजन्य हैं । फलतः जब कर्मोंका नाश करके मोक्षको यह जीव प्राप्त करता है तो वह सहज अर्थात् निरपेक्ष (अतीन्द्रिय ) ज्ञानादिका सागर हो जाता है । दशम सर्ग व्यतिरेक-अभाव रूप व्यप्तिको व्यतिरेक कहते हैं । अर्थात् जिसके न होने पर जो न हो जैसे 'धर्मके न होने पर शान्ति न होना'। लेश्या-आत्माको कर्मोंसे लिप्त करने वाली मन, वचन कायकी प्रवृत्तियों तथा तदनुसारी शरीरके रंगको लेश्या कहते हैं । कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म तथा शुक्लके भेदसे यह छह प्रकारकी है । पूर्व तीन अशुभ हैं और उत्तर तीन शुभ मानी जाती हैं। पाषण्ड-वर्तमानमें इसका प्रयोग बाह्य आचरणके-दिखावेके लिए होता है, अर्थात् दिखावटी या झूठा धर्माचरण इसका तात्पर्य है। किन्तु प्राचीन आर्ष ग्रन्थों तथा अशोकके शिलालेखोंमें भी इसका प्रयोग है । प्रकरण तथा परिस्थितियोंका ख्याल करने पर ऐसा लगता है U कि उस समय 'पाखण्ड' शब्दसे साधु, मत या साधना-मार्ग समझा जाता था । न्यायालयाच्या [६७४] Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराङ्ग IRCHILDR द्वादशांग-श्रुतज्ञान दो प्रकारका है-१ अक्षरात्मक २ अनक्षरात्मक | अक्षरात्मक श्रुतज्ञान भी (१) अंग प्रविष्ट तथा (२) अंगबाह्यके भेदसे दो प्रकार का है। अङ्ग प्रविष्ट श्रुतज्ञान बारह भेदोंमें विभाजित है-१ आचारांग-मुनिधर्मक मूलगुणों तथा उत्तर गुणोंका वर्णन । २ सूत्रकृतांग-आगमके अध्ययन, प्रज्ञापन कल्पाकल्प, व्यवहारधर्म तथा स्व-पर समयका विवेचन | ३ स्थानाङ्ग-नय दृष्टिसे द्रव्योंके समस्त स्थान विकल्पोंका वर्णन । ४ समवायाङ्ग-द्रव्य, क्षेत्र, काल भावकी अपेक्षासे द्रव्योंकी समतादिका विवेचन । ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति-अस्ति-नास्ति, एकानेक, नित्या-नित्य साठ हजार प्रश्नोंकी दृष्टिसे जीव विवेचन । ६ ज्ञात धर्म कथांग-धर्मक सिद्धान्तोंको समझनेमें सहायक कथाओंका। चरितम् संचय । ७ उपासकाध्ययन-श्रावकाचारका विवेचन । ८ अन्तः कृद्दशांग-प्रत्येक तीर्थकालके उपसर्ग जेता दश मुनियोंका वर्णन | ९ अनुत्तरौपापादिक दशांग-प्रत्येक तीर्थ कालमें घोर तप करके पंचोत्तरोंमें जानेवाले दश मुनियोंका वर्णन । १० प्रश्न व्याकरण-जीवन मरण, जय पराजयादिकी जिज्ञासा रूप प्रश्नोंका उत्तर दाता निमित्त शास्त्र । ११ विपाक सूत्र-कर्मोक फलादिका विवेचन | १२ दृष्टिवाद-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिकाका विवेचन । चौदह पूर्व-बारहवें अंगका चौथा भेद पूर्वगत है, यह चौदह प्रकारका है-१ उत्पाद-द्रव्योंके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यादिका विशद विवेचन २ आग्रायणी-अस्तिकाय, द्रव्य, तत्व, पदार्थ तथा नयोंका निरूपण | ३ वीर्यानवाद-द्रव्यादिकी सामर्थ्यका वर्णन । ४ अस्तिनास्ति प्रवाद-प्रत्येक द्रव्यका स्याद्वादमय चित्रण । ५ ज्ञान प्रवाद-पाँचों ज्ञानों तथा तीनों कुज्ञानोंके स्वरूप, भेद, विषय तथा फलादिका निरूपण। ६ सत्यप्रवाद-अक्षर, भाषा शास्त्र । ७ आत्मप्रवाद-जीव तत्वका सांगोपांग सर्व दृष्टिसे निरूपण । ८ कर्मप्रवाद-बन्ध, उदय, सत्ता, गुणस्थानादिकी अपेक्षा से कर्मोंका विवेचन । ९ प्रत्याख्यान-त्याग शास्त्र । १० विद्यानुवाद-सात सौ अल्प तथा पांच सौ महा विद्याओं की सिद्धि अनुष्ठानादिका विवेचन । ११ कल्याणवाद-त्रेसठ शलाका पुरुषोंके जन्म, जीवन, तपस्या तथा चन्द्र सूर्यादिके शुभाशुभका विवेचन। १२ प्राणवाद-आयुर्वेद शास्त्र । १३ क्रिया विशाल-ललित कलाओं, स्त्री लक्षण, गर्भाधानादि सम्यक्दर्शनादि तथा वन्दनादि क्रियाओंका निरूपण । १४ त्रिलोक बिन्दुसार-तीनों लोकोंका स्वरूप, गणित तथा मोक्षका विवेचन । ध्यान-एक विषय पर चित्तको लगा देना ध्यान है । आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्लके भेदसे वह चार प्रकारका है । इष्ट वियोग, अनिष्ट । संयोग, रोग तथा किसी आकांक्षाको लेकर दुखमय होना आर्त-ध्यान है । हिंसा, झूठ, चोरी तथा परिग्रहकी कल्पनामें मस्त रहना रौद्र-ध्यान है। आगम, लोक कल्याण, कर्म विपाक तथा लोक संस्थानके विचारमें तन्मय हो जाना धर्म-ध्यान है । उत्तम संहनन धारीका शुद्ध आत्म । स्वभावमें लीन हो जाना शुक्ल-ध्यान है। पृथक्त्व वितर्क, एकत्व वितर्क. सक्ष्मक्रिया प्रतिपाति तथा व्युपरत क्रिया-निवर्ति ये चार अवस्थाएं शुक्ल ध्यान की होती है। अनशन-बाह्य तपका प्रथम भेद है । संयमकी प्राप्ति, काम विजय, कर्म क्षय तथा ध्यान सिद्धिके लिए फलाशा छोड़कर किया गया 5 उपवास ही अनशन है। अवमौदर्य-संयमकी साधना, निद्रा निवारण, स्वाध्याय ध्यानादिकी प्रगतिके लिए भूखसे कम खाना अवमौदर्य नामका दूसरा बाह्य तप है । साधारणतया मुनिको ३२ ग्रास भोजन करना चाहिये फलतः अवमौदर्यक पालकको ३२ ग्राससे भी कम खाना चाहिये। वृत्तिपरिसंख्यान-चर्याको जाते समय विशेष प्रतिज्ञाएँ करना तथा उनके पूर्ण होने पर ही आहार लेना अन्यथा निराहार रह जाना ही वृत्ति परिसंख्यान नामका तीसरा बाह्य तप है। रसपरित्याग-इन्द्रियोंकी दुर्दमता मिटानेके लिए, निद्रा विजय एवं स्वाध्यायमें स्थिरताके लिए घी, आदि गरिष्ट रोके त्यागको रसपरित्याग कहते हैं। . विविक्त शव्यासन-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय तथा ध्यानकी सिद्धिके लिए ऐसे एकान्त स्थान आदिमें सोना बैठना जिससे किसी प्राणीको । [६७५] Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् कष्ट न हो उसे 'विविक्त शय्यासन' कहते हैं । कायक्लेश-शरीर तथा दुखोंसे मुक्ति, सुखोंमें उदासीनता, शास्त्र ज्ञान, प्रभावना, आदिके लिए धूप, वृक्षमूल आदिमें बैठना, खुलेमें सोना विविध आसन लगा कर ध्यान करना कायक्लेश है । प्रायश्चित-आभ्यन्तर तपका प्रथम प्रकार । प्रमाद तथा दोषोंके परिमार्जनके लिए कृत शुभाचरणको प्रायश्चित्त कहते हैं । विनय-द्वितीय आभ्यन्तर तप । पूज्योंमें आदर, सादर ज्ञानाभ्यास निशंक, सम्यक्त्व पालन तथा आल्हादके साथ चरित्र पालनको विनय कहते हैं । वैयावृत्य-तृतीय अंतरङ्ग तप । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु तथा मनोज्ञ साधुओंकी शरीर अथवा अन्य द्रव्यसे सेवा करना वैयावृत्य है । स्वाध्याय-चौथा अंतरंग तप । आलस्य त्यागकर ज्ञान की प्राप्तिके लिए पढ़ना, पूंछना, चिन्तवन, शब्दार्थ घोकना तथा धर्मोपदेश करना स्वाध्याय है। व्युत्सर्ग-पञ्चम अन्तरङ्ग तप । आत्मा तथा आत्मीय बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहका त्याग व्युत्सर्ग है । ध्यान-षष्ठ अंतरङ्ग तप । चित्तकी चञ्चलताके त्यागको ध्यान कहते हैं । शल्य-शरीरमें चुभी कील या फांसकी तरह जो चुभे उसे शल्य कहते हैं । माया, मिथ्यात्व तथा निदानके भेदसे तीन प्रकार की अष्टकर्म-राग, द्वेष, आदि परिणामोंके कारण जीवसे बंधने वाले पुद्गलस्कंधोंको कर्म कहते हैं । यह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, गोत्र, नाम तथा अन्तरायके भेदसे आठ प्रकारका है । इन आठोंकी ही अष्टकर्म संज्ञा है । समुद्धात-आवास शरीरको बिना छोड़े ही आत्माके प्रदेशोंका बाहर फैल जाना तथा फिर उसी में समा जाना समुद्घात है । वेदना, कषाय, विक्रिया, मरण, तेज तथा कैवल्य के कारण ऐसा होता है । प्रत्येक बुद्ध-अपनी योग्यताके कारण दूसरोंके उपदेश आदिके बिना ही जो दीक्षा लें तथा कैवल्य प्राप्ति करें उन्हें प्रत्येक बुद्ध कहते बोधितबुद्ध-जो दूसरोंके उपदेशादि निमित्तसे दीक्षित हों तथा कैवल्य प्राप्ति करें उनकी संज्ञा बोधित-बुद्ध है । अंतरंग परिग्रह-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद तथा नपुंसकवेद यह १४प्रकारका अंतरङ्ग (आध्यात्मिक) परिग्रह है। बहिरंग परिग्रह-क्षेत्र, गृह, सुवर्ण, रूप्य, पशु, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र तथा पात्र ये दश प्रकारका बाह्य परिग्रह है। पौद्गलिक-गुणोंकी हीनता और अधिकताके कारण जा मिलें और अलग हों उन्हें पुद्गल, जड़ या अचेतनके कार्यादिको पौद्गलिक कहते हैं । उत्सेध-शरीरकी ऊंचाई, गहराई, बांध आदि का नाम है । रूपी-कृष्ण, नील, पीत, शुक्ल तथा रक्त ये पाँच रूप हैं । ये या इनमेंसे कोई जिसमें पाया जाय उसे रूपी पदार्थ कहते हैं । जिन 7 शासनमें जिसमें रूप होगा उसमें स्पर्श, रस तथा गन्ध अवश्य होंगे । अर्थात् वह पौद्गलिक ही होगा । [६७६] Jain Education international Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अवगाहन - आयुकर्मके क्षयसे प्रगट होने वाला सिद्धोंका वह गुण जिसके कारण वे दूसरे सिद्धोंको भी अपनेमें स्थान दे सकते हैं। अगुरुलघुत्व - गोत्र कर्मके विनाशसे उदित होने वाला सिद्ध परमेष्ठीका गुण । अर्थात् सिद्धों में छोटे-बड़े, पर- अपर आदि कल्पना नहीं रह जाती है । अनुमान - परोक्ष प्रमाणका चतुर्थ भेद । साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । तर्क - परोक्ष प्रमाणका तृतीयभेद । अविनाभाव सम्बन्ध या व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते हैं यथा - जहां भ्रष्टाचार है वहां कुशासन है। गृहस्थाचार—चरित्र मोहनीयके कारण जिसकी घरमें रहनेकी भावना समाप्त नहीं हुई उसे गृहस्थ या गृही कहते हैं । कमाना, गुणियों तथा गुरुओंकी सेवा करना हित-मित भाषी होना धर्म-अर्थ- काम का समन्वय करना, अच्छे स्थान मकानमें सुलक्षणा पत्नीके साथ रहना, लज्जाशील होना, अहार विहार ठीक करना । सज्जनोंका सहवास रखना, विचारक, कृतज्ञ इन्द्रिय जेता होना । धर्म रसिक, दयालु और पाप भीरु होना साधारण गृहस्थाचार है । सात व्यसनका परित्याग और अष्टमूल गुणका स्थूल पालन करने पर गृही पाक्षिक श्रावक कहलाता है । पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका पालन ही गृहस्था ( श्रावका ) चार है । इसके पालकको नैष्ठिक कहते हैं । ऐसा श्रावक मरण समय आने पर जब समाधि मरण करता है तो वह साधक श्रावक कहलाता है । एकादशम सर्ग मिथ्यात्व - विपरीत दृष्टिको मिथ्यात्व कहते हैं । इसके कारण जीव अदेव, अतत्त्व, अधर्म आदिको देव, तत्त्व तथा धर्म मानता है। सम्यक्त्व - तत्त्वार्थक श्रद्धानको सम्यक्त्व कहते हैं । मूढ - कोशके अनुसार अज्ञ, मूर्ख आदिको मूढ कहते हैं, किन्तु जैन शासनमें इसका पारिभाषिक अर्थ भी है - जो व्यक्ति सागर स्नान, पत्थरका ढेर करना, पर्वतसे गिरना तथा आगीमें कूदने आदिको धर्म समझता है वह 'लोकमूढ़' है। किसी वरकी इच्छासे रागी द्वेषी देवताओंका पूजक देवमूढ़ है । आरम्भी, परिग्रही, संसारी मूर्ख साधुओं का पुजारी गुरुमूढ़ है । वैनयिक - समस्त देवों तथा धर्मों में श्रद्धालुता रखनेको वैनयिक मिथ्यात्व कहते हैं । व्युग्राहित - परिग्रही देवोंको निर्ग्रन्थ कहना, केवलीको कवलाहारी बताना आदि भ्रान्त मान्यताएं व्युद्ग्राहित मिथ्यात्व है । पुद्गल परिवर्तन - द्रव्य परिवर्तनका ही दूसरा नाम है । द्रव्यपरिवर्तना नोकर्म द्रव्य तथा कर्म द्रव्य परिवर्तनके भेदसे दो प्रकार की है । किसी जीवने औदारिकादि तीन शरीर, आहारादि छह पर्याप्तिके योग्य स्निग्ध रूक्ष, वर्ण गन्धादि युक्त किन्हीं पुद्गलोंको तीव्र - मन्द - मध्यम भावसे जैसे ग्रहण किया, उन्हें दूसरे आदि क्षणोंमें वैसेका वैसा खिरा दिया । इसके बाद अनन्तों बार अग्रहीत पुद्गलोंको ग्रहण किया और छोड़ा, मिश्रों ( ग्रहीताग्रहीत ) को अनन्तों बार ग्रहण किया छोड़ा और इस बीचमें ग्रहीतोंको भी अनन्तों बार ग्रहण किया छोड़ा, इस प्रक्रममें जितने समय बाद वही जीव उन्हीं पूर्व ग्रहीत पुद्गल परमाणुओंको पुनः उसी तरह ग्रहण करता है, इस कालको नोकर्म परिवर्तन कहते हैं । कोई जीव आठों कर्मोक पुद्गलोंको ग्रहण करता है और एक समय अधिक आवलि विता कर दूसरे आदि क्षणोंमें उन्हें खिरा देता है, नोकर्म परिवर्तनमें दत्त प्रक्रियाको पूर्ण करके फिर जितने समय बाद वही पुद्गल उसी जीवके उसी प्रकार कर्म बनें, इस कालको द्रव्य परिवर्तन कहते हैं । इन दोनों परिवर्तनकि समयके जोड़को पुद्गल परिवर्तन कहते हैं । वेदक-सम्यकदृष्टि-वेदक अथवा ज्ञायोपशमिक सम्यक्दर्शनका धारक जीव वेदक सम्यक्दृष्टि कहलाता है । अनन्तानुबंधी क्रोध आदि चार कषायोके उपशम, मिथ्यात्व और सम्यक्ििमथ्यात्व के क्षय अथवा उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीयके उदय होनेसे जो तत्वार्थका श्रद्धान [६७७] Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् Jain Education Interna होता है उसे ज्ञायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । यतः इस अवस्थामें सम्यक्त्व प्रकृतिका वेदन होता है अतएव इसे वेदक सम्यक्त्व भी कहते हें। इसमें चल, मलिन और अगाढ़ दोष होते हैं । महाव्रत - हिंसा, झूठ, चोरी कुशील तथा परिग्रहके सर्वथा त्यागको पंच महाव्रत कहते हैं । इन्हें निर्ग्रन्थ साधु पाल सकते हैं । समिति - सावधान आचरणको समिति कहते हैं । इसके १ ईर्या दिनके प्रकाशमें चार हाथ आगे देख कर प्राशुक स्थानपर चलना, २ भाषा - हित, मित एवं प्रिय वचन बोलना, ३ एषणा शुद्ध भोजन पान, ४ आदान निक्षेप देखकर सावधानीसे वस्तु उठाना तथा रखना तथा ५ उत्सर्ग-जीव रहित स्थान पर मलमूत्र छोड़ना ये पाँच भेद हैं । परीषह - रत्नत्रयके मार्गकी साधनामें उपस्थित तथा सहे गये कष्टको परीषह कहते हैं। इसके २२ भेद है- १ जुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्णा, ५ दंशमशक ( डांस मच्छर ), ६ नग्नता, ७ अरति, ८ स्त्री अथवा पुरुष, ९ चर्या, १० निषद्या (आसन), ११ शय्या, १२, आक्रोश (गाली, निन्दादि), १३ वध, १४ याचना १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृणास्पर्श, १८ मल (शरीरका संस्कार न करना), १९ सत्कार पुरस्कार (अभाव) २० प्रज्ञा (ज्ञानमद), २१ अज्ञान (जन्य तिरस्कार खेद ) तथा २२ अदर्शन ( सम्यक्दर्शन न होना) । अणुव्रत - हिंसा, आदि पाँच पापोंका आंशिक अर्थात् स्थूल त्याग अणुव्रत कहलाता है। इनका श्रावकको अवश्य पालन करना चाहिये । शम- किसी भाव या पदार्थको शान्त कर देना शम है । दम - किसी भाव अथवा क्रियाको बलपूर्वक रोक देना दम है । त्याग - किसी भाव या क्रियाको संकल्प पूर्वक छोड़ देना त्याग है । उपस्थान - किसी क्रिया या आचरणके दूषित अथवा खंडित अर्थात् छूट जाने पर उसके पुनः प्रारम्भको उपस्थान कहते है । अन्वय - वंशको अन्वय कहते हैं । आज अज्ञान वश यही अन्वय जाति हो गये हैं जैसा कि पंडिताचार्य आशाधरजीकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है, व्याघेर वालान्वया' 'व्याघ्रेरवाल वर वंश' आदि पद घोषित करते हैं। किन्तु संकीर्णता वश वघेरवाल वंश ही आज जाति बन गये हैं । छिद्र - रन्ध्र सूराख तथा दूषण अथवा दुर्बलताको कहते हैं । अनित्य- बारह भावनाओंमें से प्रथम भावना । संसारके प्रत्येक पदार्थकी अनित्यताका सोचना अनित्य भावना । एकत्व - यह प्राणी अकेला ही आता है, अपने आप ही अपने सुख-दुखको जुटाता है कोई दूसरा संग साथी नहीं, इत्यादि विचार ही एकत्व भावना है । वस्तु स्वाभाव - प्रत्येक वस्तुके असाधारण लक्षणको स्वभाव कहते हैं। जैसे जीवका चेतना, अग्निका दाहकत्त्व आदि । जिन शासनमें वस्तु स्वभाव ही सच्चा धर्म है । वात्सल्य - प्राणिमात्रके प्रति बिना किसी बनावटके सद्भाव रखना तथा यथायोग्य व्यवहार करना वात्सल्य है । साधर्मियोंके प्रति इसमें विशिष्टता रहती है । आप्त- भूख, प्यास आदि अठारह दोषोंका विजेता, जन्म, जरा आतङ्क, भय, ताप, राग द्वेष तथा मोहसे हीन महापुरुष ही आप्त होता है क्योंकि वह संसारकी वञ्चनासे बचाता है । [६७८] v.jainelibrary.org Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम् सम्यक्त्वके आठ दोष-यद्यपि सम्यक् दर्शनमें ५० दोष आ सकते हैं किन्तु निम्न आठ प्रधान हैं क्योंकि इनके विनाश होने पर ही दर्शनके आठों अंग प्रकट होते हैं । वे दोष निम्न प्रकार हैं-१ शंका, २ आकांक्षा, ३ विचिकित्सा (शारीरिक विकारके कारण घृणा), ४. मुढदष्टि (कमार्गमें रुचि आदि), ५ अनुपगृहन (निन्दा करना, दोषोंको प्रकट करना), ६ अस्थितीकरण (धर्मसे गिरा देना), ७ अवात्सल्य । (साधर्मीसे इर्ष्या द्वेष) तथा ८ अप्रभावना (धर्मको कूपमण्डूक करना) । इनमें आठ मद, षडायतन, सप्तव्यसन, तीन शल्य, सात भय, छह वराङ्ग अभक्ष्य तथा पांच अतिचार जोड़ देनेसे सम्यकदर्शनके ५० दोष हो जाते हैं। अष्टादश श्रेणी-जिन शासनमें प्रत्येक राजाको अठारह श्रेणियों का स्वामी कहा है । वे निम्न प्रकार हैं-१ सेनापति, २ गणकपति (ज्योतिषी), ३ वणिकपति, ४ दण्डपति, ५ मन्त्री, ६ महत्तर (कुलवृद्ध), ७ तलवर (नगर रक्षकादि), ८-११ चारों वर्ण, १२-१५ हस्ति, अश्व, रथ, पदाति मय चतुर्विध सेना, १६ पुरोहित, १७ अमात्य तथा, १८ महामात्य । निश्चय नय-वस्तुके केवल शुद्ध स्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको निश्चय नय कहते हैं । यह ज्ञान पदार्थक वास्तविक निजी स्वभावको जानता है इसीलिए यह सत्य हो । जैसे जीवको अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख बीर्यादि मय तथा कर्म मल रहित जानना । पञ्चदशम सर्ग अष्ट द्रव्य-जिनेन्द्र पूजनकी निम्न आठ प्रकारकी सामग्री १-जल, २-चन्दन, ३-अक्षत, ४-पुष्प, ५-नैवेद्य, ६-दीप, ७-धूप तथा ८-फल । द्रव्य पूजा-आठ प्रकारकी सामग्रीसे भगवान् वीतरागकी पूजा करना । इसमें संभव है कि पूजक जलादि चढ़ते समय जन्म जरा मृत्यु, संसारताप, क्षय, कामदेव, क्षुधा, अज्ञान, अष्टकर्म तथा संसारके विनाशको कायेन वाचा चाहता रहे पर मनको न सम्हाल सके । प्रधानतया यह सामग्रीसे पूजा होती है । भाव पूजा-आठ विध सामग्रीके बिना ही जब पूजक उक्त आठों उत्पातोंके विनाशकी मनसा कामना करता है तथा वचनसे पाठ भी पढ़ता जाता है । फलतः बिना सामग्रीकी पूजाको भावपूजा कहते हैं । चार आहार-पेट खाली होने, भोजन देखने अथवा भोज्यकी स्मृतिसे उत्पन्न होनेवाली आहार संज्ञा मोटे तौरसे चार प्रकारके आहारसे शान्त होती है। १ खाद्य-वे वस्तएं जो दातोंसे चबायी जाय. लेह्य-व वस्तुएं जिन्हें केवल जिलासे चाटा जाय, ३-पेय वे तरल पदार्थ जिन्हें पिया जाय तथा ४-स्वाद्य वे पदार्थ जिन्हें केवल स्वाद बनानेके लिए थोड़ी मात्रामें खाया जाता है जैसे इलायची, किमाम आदि । निर्यापकाचार्य-क्षपक मुनि या साधक गृहस्थकी वैयावृत्यमें लीन साधुओंको निर्यापक कहते हैं । धर्म प्रेम, दृढ़ता, संसारभय, धैर्य, इंगितज्ञान, त्यागमार्गका ज्ञान, निश्चलता तथा हेयोपादेय विवेकके साथ स्व-पर वा समीचीन ज्ञान इनकी विशेषताएं हैं। इस प्रकारके ४८ उत्कृष्ट मुनि, मुनिके समाधि मरणके समय होने चाहिए । इनको नियत करने वाले मुनिवरकी संज्ञा निर्यापकाचार्य होती है । नन्दीश्वर द्वीप-आठवां महाद्वीप है । यतः इसके स्वामी नन्दि तथा नन्दिप्रभ व्यन्तरदेव हैं अतः इसे नन्दीश्वर द्वीप कहते हैं । इसका व्यास १६३८४००००० योजन है । इसको चारों दिशाओं में ८४००० योजन ऊँचे काले पर्वत हैं जिन्हें अञ्जनगिरि नामसे पुकारते हैं। इन पर्वतोंकी चारों दिशाओं में १लाख योजन लम्बी-चौड़ी बावड़ी (झीलें) हैं। प्रत्येक बावड़ीके बीच में १०००० यो० ऊँचे अतिश्वेत 1 [६७९] पर्वत हैं जिनकी दधिमुख संज्ञा पड़ गयी हैं । प्रत्येक झीलकी बाहरी बाजूमें एक-एक हजार योजन ऊँचे लाल रंगके दो दो पर्वत हैं, इनकी । पौराणिक संज्ञा रतिकर है इन ५२ पर्वतों के ऊपर ५२ मन्दिर हैं जहाँ पर सौधर्मादि इन्द्र देवों सहित जाकर कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़के । ___ अन्तिम आठ दिनोंमें पूजा करते हैं। Jain Education Interational IRTELLIGRAPHERE Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टशुद्धि-१ भाव, २ काय, ३ विनय, ४ इर्यापथ, ५ भिक्षा, ६ प्रतिष्ठापना, ७ शयनासन तथा ८ वाक्य, इस आठोंकी शुद्धि आदि अष्टगुण कहते हैं। षोडषम सर्ग वराङ्ग चरितम् षड्बल-बल शब्दके गन्ध, रूप, रस, स्थैर्य, स्थौल्य तथा सैन्यादि अर्थ होने पर हैं भी शारीरिक शक्ति, और सेना इन दोनों अर्थोंमें इसका अधिक प्रयोग हुआ है । जैसाकि कालिदासने लिखा है कि १-मौल सेना (स्थायी सेना), २-भृत्या (नयी सेना), ३- मित्रोंकी सेना, ४-श्रेणीके प्रधानोंकी सेना ५-शत्रुओंसे छीनी सेना तथा ६-आटविकों (जंगलियों) की सेना । छह प्रकारकी सेना लेकर रघुने दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया था । इसके सिवा १-हस्ति, २ अश्व, ३ रथ, ४ पदाति, ५ नौ तथा ६ विमानोंके भेदों में भी इसका प्रयोग हुआ सामादि-दण्ड व्यवस्था मोटे तौरसे चार प्रकारकी है-१ साम, २ दाम, ३ दंड तथा ४ भेद । यनासनादि-राजनीतिको षाडगण्य नीति कहा है । अर्थात इसमें १-सन्धि, २-विग्रह, ३-यान, ४-आसन, ५-वैध तथा ६-आश्रय नीतिका प्रयोग होता है । विजेय या विजिगीषुके साथ मैत्रीका नाम संधि है । सदल बल विरोधको विग्रह कहते हैं । शत्रुके विरुद्ध प्रस्थानकी संज्ञा यान है । कुछ समय तक चुप बैठनेको आसन कहते हैं । दुर्बल प्रबलके बीचमें चलने वाले वाचनिक समर्पणको द्वैधी भाव कहते हैं। घेरा डाल देनेका नाम आश्रय है । विद्याधर-साधित, कुल तथा जाति इन तीनों प्रकारकी विद्याओंके धारकोंको विद्याधर कहते हैं । जो विद्याएं अनुष्ठान करके सिद्धकी जाती हैं उनको साधित श्रेणीमें रखते हैं । जो पिता या पिताके वंश से मिलें उनको कुल विद्या कहते हैं। माता या माताके वंशसे मिलने वाली विद्याओंको जाति विद्याओंमें गिनते हैं । ये विद्याधर विजया पर्वतके दक्षिणी तथा उत्तरी ढालों (श्रेणियों) पर रहते हैं । सदैव इज्या, दत्ति, वार्ता, स्वाध्याय, संयम तथा तप इन छह कर्मोंमें लवलीन रहते हैं । शीलव्रत-शील शब्दका अर्थ स्वभाव तथा ब्रह्म है । ब्रह्मचर्यका पर्यायवाची होने पर भी पतिव्रतके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । पुरुषके लिए स्वदार संतोष और स्त्रीके शील व्रतकी व्यवस्था है । चार शिक्षाव्रत और तीन गुणव्रतोंको भी सप्तशील कहा है। अनागार धर्म-गृह त्यागीको अनगार कहते हैं । फलतः मुनिके धर्मको ही अनागार धर्म कहते हैं । सांकल्पी त्रस हिंसा-अभिसंधि पूर्वक त्रसोंका प्राण लेना संकल्पी-त्रस-हिंसा है । गृहस्थ आरम्भ तथा विरोधीकी हिंसासे नहीं बच सकता है किन्तु उसके परिणाम अपना कार्य करने तथा आत्म रक्षाके ही रहते हैं । वह ऐसा संकल्प नहीं करता कि मैं हल चला करत्रसोंको मारूं । अथवा सब शत्रुओंको मारूं । फलतः संकल्प पूर्वक प्राण लेना ही महा पाप है। भरत-भगवान ऋषभदेवके दो पत्नी थीं । एकके केवल बाहुबलि उत्पन्न हुए थे और दूसरी से भरत आदि ९८ पुत्र तथा ब्राम्ही सुंदर दो कन्याएं हुई थीं। १०१ बहिन भाइयोंमें भरत ही सबसे बड़े थे अतएव भगवानके दीक्षा लेकर बन चले जाने पर भरत जी ही अयोध्याके राजा हुए थे । इन्होंने छहों खण्डोंकी विजय की थी । और बहुत लम्बे समय तक राज्य किया था इस अवसर्पिणी युगके ये सबसे बड़े चक्रवर्ती थे । अन्तमें इन्हें वैराग्य हुआ, जिन दीक्षा ली और अन्तमुहूतमें कैवल्य प्राप्त करके मोक्ष गये । कृत्रिमाकृत्रिम बिम्ब-ऐसी मान्यता है कि नन्दीश्वर द्वीपादिमें कुछ ऐसे देवालय तथा प्रतिमा हैं जिन्हें किसीने नहीं बनवाया है। पर्वत, नदी, आदिके समान प्रकृतिने ही उनका निर्माण किया है । पौरुषेय और अपौरषेय मूर्तियोंको ही कृत्रिम-अकृत्रिम बिम्ब शब्दसे कहा । [६८०] Jain Education intemational ' Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरितम् गर्भगृहादि-प्रत्येक जिनालयके आठ भाग होते थे ऐसा वास्तु शास्त्र भी कहता है तथा खजुराहो आदिके प्राचीन भग्नावशेष देखनेसे इसकी पुष्टि भी होती है १ गर्भगृह-देवालयके मध्यका वह भाग जिसमें मूर्तियाँ विराजमान की जाती हैं । २ प्रेक्षागृह-गर्भगृहसे लगा हुआ वह भाग जहांसे लोग दर्शन करते हैं। ३ बलिगृह-जहां पर पूजनकी सामग्री तैयार की जाती है तथा जहां पर हवनादि होते हैं। ४ अभिषेक वराङ्ग गृह-जहां पर पञ्चामृतसे देवताका स्नपन होता है | ५ स्वाध्याय गृह-जहाँ पर लोग शास्त्रोंको पढ़ते हैं । ६ सभा गृह-जहां पर सभाएं होती हैं मण्डप | ७ संगीत गृह-जहाँ पर संगीत नृत्यादि होता है । ८ पट्ट गृह-जहां पर चित्रादिकी प्रदर्शिनी होती है | अथवा जहां पर पूजनादिके वस्त्रादि संचित रहते हैं। जिनमह-मह शब्दका प्रयोग पूजाके लिए हुआ है अतः जिनमहका अर्थ साधारणतया जिन पूजा है इसीलिए पंडिताचार्य आशाधरजीने घरसे लायी सामग्री द्वारा पूजा, अपनी सम्पत्तिसे मन्दिरादि बनाना, भक्तिपूर्वक धर्मायतनको मकान, गाय, आदि लगाना, तीनों समय अपने घरमें भगवान की अर्चा करना तथा व्रतियोंको दान देनेको नित्यमह कहा है । इसके नन्दीश्वर पूजा, इन्द्रध्वज, सर्वतोभद्र, चतुर्मुख, महामह, कल्पद्रुम मह आदि अनेक भेद हैं । किमिच्छिक दान-पंडिताचार्यक मतसे जो महापूजा चक्रवर्तीक द्वारा की जाती है उसका एक अंग किमिच्छिक दान भी होता है। अर्थात् उपस्थित याचकसे पूंछते हैं क्या चाहते हो?' वह जो कहता है उसे वही दिया जाता है इस प्रकार दान देकर विश्वकी आशा पूर्ण करते हुए चक्रवर्ती कल्पद्रुम-मह करता है। नन्दिमूख-पूजाकी प्रारम्भिक विधिको कहते हैं । मंगल पाठ अथवा नाटकका प्रथम अंग । नैवेद्य-पूजाकी पाँचवी सामग्री । भोज्य सामग्री जिसे क्षुधारोगकी समाप्तिकी कामनासे जिनदेवको चढ़ाते हैं । अर्ध्य-जल, आदि आठों द्रव्योंकी सम्मिलित बलिको करते हैं । उपमानिका-मिट्टीके मंगल कलश तथा अन्त-स्तुति । अष्ट मंगल द्रव्य-छत्र, ध्वजा, कलश, चमर, आसन (ठोना), झारी, दर्पण, तथा व्यंजन ये आठों पूज्यता ज्ञापक बाह्य चिह्न अष्ट मंगलद्रव्य कहलाते हैं। स्नपन-जिन बिम्बको स्नान कराना । निवेश-गाढ कल्पना अथवा स्थापना । युद्धबीर-संग्राममें दक्ष यथा बाहुबलि, भरत आदि । धर्मवीर-धार्मिक कार्योंमें अग्रणी, सब कुछकी बाजी लगा कर अहिंसा, दया, आदिके पालक । प्रदक्षिणा-जिन मन्दिर, जिन बिम्ब आदि आराध्योंके बांयेसे दांये ओर चलते चलते चक्कर लगाना ये तीन होती हैं । वैसान्दुर-पूजनके समय धूप आदि जलानेके लिए लायी गयी अग्नि । वीजाक्षर-ओं, हां, ही, हूं आदि अक्षर जो मंत्रके संक्षिप्त रूप समझे जाते हैं इनके जाप का बड़ा माहात्म्य है । स्वस्तियज्ञ-पूजाका अन्तिम भाग जिसमें देश, राज्य, नगर, शासक आदिकी मंगल कामना होती है। यह वास्तवमें स्वस्ति पाठ होता - है । कल्याण, रोग, मरी, आदिकी शान्तिके लिए होने वाले यागादिको भी स्वस्ति यज्ञ कहते हैं । Jain Education Intemational 19 [६८१] Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टांग नमस्कार-मस्तक, पीठ, उदर, नितम्ब, दोनों पैर तथा दोनों हाथ झुका कर प्रणाम करना । शेषिका-पूजाकी समाप्ति पर सविनय स्थापनाके पुष्प धूप दहनका धूम्र तथा दीपक शिखा आदिकी नति करना । महामह-मुकुटबद्ध मण्डलेश्वरादिके द्वारा जो विशेष पूजाकी जाती है उसे महामह कहते हैं । पण्डिताचार्यक मत से अष्टान्हिक पूजासे विशिष्ट होनेके कारण इसे महामह संज्ञा दी है। धर्मचक्र-कैवल्य प्राप्तिके बाद तीर्थंकरोंके लिए इन्द्र समवशरण रचना करते थे । इस समवशरणके सामने विशेष आकार प्रकार की ध्वजा चलती थी जिसकी संज्ञा धर्मचक्र थी । वास्तवमें चक्रका तात्पर्य होता है सब दिशाओंमें व्याप्ति फलतः सर्वत्र धर्मक प्रचारको ही धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। सुस्वर-शरीर निर्मापक 'नामकर्म' का भेद । जिसके उदयसे मधुर मोहक स्वर हो उसे सुस्वर कहते हैं। गृहस्थाचार्य-धर्म तथा आचार शास्त्रका ज्ञाता तथा चरित्रवान् सद्गृहस्थ । यह श्रावकोंकी समस्त क्रियाओंको जानते हैं और करा सकते हैं । अपने अध्ययन, विवेक और चरित्रके कारण गृहस्थोंके वास्तविक नेता होते हैं । पट्टक-वर्तमान पट्टा इसीका अपभ्रंश है । धर्म, अर्थ तथा कामके विशेष उत्सवोंके समय विशेष आकार-प्रकारके पट्टक बांधे जाते थे जिन्हें देखकर ही धारकके कार्यादिका ज्ञान हो जाता था । सर्ग २४ नियम-कुछ कालके लिए धारण की गयी प्रतिज्ञाको नियम कहते हैं । यम-जीवन पर्यन्तके लिए की गयी त्यागादिकी प्रतिज्ञाको यम कहते हैं । नय-तत्त्वके एक अंशी ज्ञान को नय कहते हैं । दैव-भाग्य अर्थमें प्रयुक्त होता है । वैदिक लोग तथा इतर धर्मानुयायी देव अथवा ईश्वर कृत होनेके कारण इसे दैव शब्दसे कहते हैं । किन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है । जीवके विधायक दैव तथा पुरुषार्थ दोनों ही, अपने कर्मोंसे प्राप्त जीवकी शक्तियों हैं । अन्तर केवल इतना है कि ज्ञात अथवा एक जन्मके कार्योंको पुरुषार्थ कहते हैं | अज्ञात अथवा जन्मांतरसे बद्ध (पुरुषार्थ) कर्मोंको दैव संज्ञा दी है। ग्रह-ज्योतिषी देवोंका प्रथम भेद । सूर्य-चन्द्रमा आदि । जगदीश्वर-कुछ वैदिक दर्शनोंमें तथा रवाष्ट, इस्लाम, आदि धर्मोके अनुयायी मानते हैं कि कोई सर्व शक्तिमान् इस जगतका स्वामी है वही इसके उत्पाद, स्थिति और विनाशका कर्ता है । नियति-संसारकी प्रत्येक हलचल निश्चित है फलतः इसे करने वाली कोई शक्ति है जिसे नियति कहते हैं । ये ईश्वरकी जगह नियतिको मानते हैं । जिनेन्द्र प्रभुके समान यह भी यह नहीं सोच सकते हैं कि प्रत्येक प्राणीके अपने कर्म ही उसके निर्माता आदि हैं । सांख्य-मले प्रकारसे जानने, समझनेको सांख्य कहते हैं फलतः जिस दर्शनमें संख्या (विवेक ख्याति) की प्रधानता है उसे सांख्य दर्शन कहते हैं । पुरुष-साक्षात् चैतन्य स्वरूप सृष्टिके साक्षी मात्र तत्त्वको पुरुष कहते हैं । यह स्वभावतः कैवल्य संपन्न है । यह अविकारी, कूटस्थ, नित्य तथा सर्व व्यापक है । अर्थात् यह विशेष विषयी, अकर्ता है । पुरुष अनेक हैं। Jain Education interational यामRADURGARIKाचार [६८२] For Privale & Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् प्रकृति - स्थूल तथा सूक्ष्म जगतकी उत्पादिका, जड़ तथा एक शक्तिको प्रकृति कहते हैं यह संसार भरका कारण होते हुए भी कोई इसका कारण नहीं होता है । इसे अव्यक्त, प्रधान आदि शब्दों द्वारा भी कहा है । सत्य-रज-तम गुणोंकी साम्यावस्था ही प्रकृति है । यह अकारण, नित्य, व्यापक, निष्क्रिय, एक, निराश्रित, लिंग अवयव-विवेक चैतन्य हीन सामान्य, स्वतंत्र तथा प्रसव धर्मिणी है । महत्-पुरुषके समीप आने पर प्रकृतिमें विकार होता है इस प्रकृतिके प्रथम परिणमनको महत् अथवा बुद्धि कहते हैं यही सृष्टि का बीज है । अहंकार - महत्से अहंकार उत्पन्न होता है । अर्थात् मैं कर्ता-धर्ता आदि हूँ यह भावना ही सांख्य दर्शनका अहंकार है यह त्रिगुणके कारण प्रधान रूपसे तीन प्रकार का होता है । कौशिक-कुशिक राजाके अति तप करने पर इन्द्र ही पुत्र रूपसे उनके उत्पन्न हुए थे । ये पुत्र कौशिक बड़े तपस्वी और सिद्ध थे। ये विश्वामित्र नामसे भी ख्यात हैं । काश्यप-वैशेषिक दर्शनके प्रणेता कणाद मुनि । इस नामके एक और भी ब्राह्मण ऋषि हुए हैं, जो विष विद्यामें पारंगत थे । महाभारतके अनुसार इन्होंने परीक्षितको फिरसे जीवित किया था । गौतम - न्याय दर्शनके प्रवर्तक गौतम ऋषि तथा इनके वंशज । भरद्वाज मुनिका भी गौतम नाम था । एक स्मृतिकार तथा महात्मा बुद्ध के लिए भी गौतम शब्दका प्रयोग हुआ है । कौण्डिन्य - कुण्डिन मुनिके पुत्र । इन्हें शिवके कोपसे विष्णुने बचाया था । गौतम बुद्धके प्रधान, वयोवृद्ध शिष्यका नाम भी कौण्डिन्य था । माण्डव्य - वैदिक ऋषि । वाल्यावस्थाके अपराधके कारण यमराजने इन्हें शूली पर चढ़वा दिया था । इस पर ऋषिने यमको शाप दिया था तथा वे पाण्डुके यहां दासीसे उत्पन्न हुए थे । वशिष्ठ– सुप्रसिद्ध वैदिक ऋषि । यज्ञस्थलमें उर्वशीको देख कर मित्र और वरुणका चित्त चञ्चल हुआ तथा इनका जन्म हुआ । इन्हें इंद्रने घूस रूपसे ब्राह्मणत्व दिया था । इनकी और विश्वामित्रकी प्रतिद्वंदिता वैदिक साहित्यमें भरी पड़ी है । अत्रि - ब्रह्माकी चक्षुसे उत्पन्न वैदिक ऋषि । कर्दम ऋषिकी पुत्री अनुसूया इनकी पत्नी थीं । सप्तर्षियोंके सिवा दस प्रजापतियोंमें भी अत्रिकी गिनती है। इन्होंने भी ऋग्वेदके अनेक मन्त्रोंकी रचना की थी । कुत्स - प्रायश्चित्त शास्त्रके प्रणेता ऋषि । इनका धर्म आपस्तम्भ धर्म नामसे ख्यात है तथा गृह्य कल्प- धर्म सूत्रादिमें वर्णित है । अंगिरस -ब्रह्माके द्वितीय पुत्र । इनकी पत्नी शुभ थी । पुत्र बृहस्पति थे तथा इनके छह कन्याएं हुई थीं । इन्होंने ऐसा तप किया था कि इनके तेजसे पूर्ण विश्व व्याप्त हो गया था । गर्ग- बृहस्पतिके वंशज वितथ ऋषिके पुत्र । शिवकी आराधना करके इन्होंने चौंसठ अंग ज्योतिष आदिका परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था । मुद्गल - वैदिक ऋषि । इन्होंने गोत्रों को प्रारम्भ किया था। इनकी पत्नीका नाम इन्द्रसेना था। एक उपनिषद् का भी नाम है। कात्यायन - अत्यन्त प्राचीन वैदिक ऋषि । इन्होंने धर्मशास्त्रोंकी भी रचना की है । ये दो हुए हैं गोभिलपुत्र कात्यायन तथा वरुरुचि (सोमदत्त पुत्र) कात्यायन । प्रथमने अनेक सूत्र ग्रन्थों की रचना की है जो वैदिक धर्मकी मूलभित्ति है । द्वितीयको पाणिनी सूत्रका वार्त्तिककार कहते हैं । [६८३] Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु-ब्रह्माके अग्निमें हुत वीर्यसे उत्पन्न ऋषि थे । दश प्रजापतियों और सप्तर्षियोंमें से एक हैं इनका वंश वारुण या भार्गव था जिसमें परशुरामजी उत्पन्न हुए थे। सत्रि-अनेक यज्ञोंके कर्ता विशेष ऋषि । मधुपिंगल-लिंगपुराणमें वर्णित मुनिका नाम । सुलसा-नागमाता, जिन्होंने हनूमानजीके मार्गमें मायारूप धारण कर बाधा डाली थी । एक राक्षसी तथा अप्सरा भी इस नामकी वराङ्ग चरितम् अक्रूर-ये श्वफल्क और गान्दिनीदेवीके पुत्र यादव थे । यह कृष्णजीके काका लगते थे । इनके पास शतधन्वाका स्यमन्तक मणि था जो समस्त रोग, मरी, दुर्भिक्षादिको नष्ट कर देता था । देवानांप्रिय-सम्राट अशोककी उपाधि । वैदिक विद्वानोंने धार्मिक विद्वेषके कारण मूर्खको व्यङ्ग्यरूपसे देवानांप्रिय कहना प्रारम्भ किया था। कृष्णद्वीपायन-पराशर मुनि एक दिन जमुना किनारे आये तो मल्लाहकी लड़की बापके न होनेसे उन्हें उस पार ले जाने लगी । बीच नदीमें मुनि लड़की पर आसक्त हुए और इस प्रकार जमुनाके द्वीप पर एक सन्तति उत्पन्न हुई जो अपने ज्ञानबलके कारण वेदव्यास, कृष्णद्वीपायन नामसे ख्यात हुए। कमठ-एक विशेष दैत्यका नाम है । इस नामके एक ऋषि भी हुए हैं । यहां ऋषिसे ही तात्पर्य है। कठ-वेदकी कठ शाखा के प्रवर्तक मुनिका नाम । महाभाष्यके अनुसार ये वैशम्पायनके शिष्य थे । कठकी वेद शाखा वर्तमानमें अनुपलब्ध है। द्रोणाचार्य-भारद्वाजके पुत्र कौरव-पाण्डवोंके अस्त्र शिक्षक तथा महाभारतके निर्णायक पात्र । कार्तिकेय-शिवके वीर्यसे पार्वतीके पुत्र (अग्नि तथा शरवन द्वारा) इन्होंने तारकासुरादि का बध किया था । इनका निवास शरवन अथवा हिमालय पर था । आज भी कमायूमें इनका कार्तिकेय पुर है । कुमारी-सीता पार्वतीका नाम । परीक्षितके लड़के भीमसेनकी पत्नीका भी कुमारी नाम था । भारत का दक्षिणी भाग । पृथ्वी का मध्यभाग। पुष्कर-इस शब्द के चालीस अर्थों में से यहाँ तीर्थ अभीष्ट है । वर्तमान में यह अजमेरके पास है । पुराणों के अनुसार इसमें उत्तम, मध्यम तथा जघन्य तीन पुष्कर (तालाब) हैं । इसमें नहानेसे विशेष पुण्य होता है। असत्से सत् आदि-गधेके सींग से बंध्या का लड़का अस्तका निदर्शन है | आकाश कुसुमसे पेठाकी कल्पना असत्से सत्का उदाहरण है । जपाकुसुमसे गधेके सींगका प्रादुर्भाव मानना सत्से असत् है । मिट्टीसे घड़ा सत्से सत्का उदाहरण है। उपादान-जो कारण स्वयमेव कार्यका रूप धारण करे वह उपादान कारण कहलाता है । यथा घड़े के लिए मिट्टी । भाव-जीवके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा पारिणामिक भाव होते हैं । उत्पाद-नूतन पर्यायका भाव या प्रादुर्भाव ही उत्पाद है । व्यय-एक पर्यायका अभाव या नाश ही व्यय या मरण है । [६८४] Jain Education international Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् शुम्भ-निशुम्भ- ये दानव प्रह्लादके पुत्र गवेष्ठीके पुत्र थे । वामनपुराणमें लिखा है कि कश्यपके दनु नामक स्त्री थी उसके गर्भसे दो पुत्र पैदा हुए । जिनमें छोटेका नाम निशुम्भ और बड़ेका नाम शुम्भ था । इन्होंने संसारको ही नहीं स्वर्गको भी जीत लिया था । अवमानित त्रस्त देवताओंने महामायाकी आराधना की । इन्होंने सुन्दरतम रमणी का रूप धर दोनों भाइयोंमें लड़ाई करायी और वे मारे गये थे । तिलोत्तमा - स्वर्गकी वेश्या । वैदिक आन्नायमें लिखा है कि सब रत्नोंमें से तिलतिल लेकर ब्रह्माने इसे बनाया था। यह ऐसी सुंदरी थी कि इसे देखनेके लिए योगस्थ महादेवने भी चार मुख बनाये थे । जब देवताओंको सुंद-उपसुंदको जीतना असम्भव हो गया तो उन्होंने इसे उनके सामने भेजा और वे इस पर मोहित हो आपसमें ही लड़ मरे थे । बलि - प्रह्लादके पुत्र विरोचनका पुत्र था। इसने यज्ञ करके जिस याचकने जो मांगा वही दान दिया था। इसकी सत्य निष्ठाकी परीक्षा करने विष्णुजी वामन बनकर आये थे और इससे तीन पग जमीन मांगी थी । इसके गुरु शुक्राचार्य इस याचनाके रहस्यको समझ गये और बलिसे कहा कि वह अपना वचन वापस ले ले । पर बलिने दान पूर्ण न होनेसे नरकवासके दण्डकी चिन्ता न की और अपने वचन पर दृढ़ रहा । अन्तमें विष्णुजी ने ही उसे वरदान दिया और वह इस समय 'सुतल' लोकमें विराजमान है। हयग्रीव - असुर दितिका पुत्र । सरस्वती नदीके किनारे इसने महामायाको प्रसन्न करने के लिए हजार वर्ष तक घोर तप किया । वे प्रसन्न होकर वर देने आयीं तो इसने अजेयत्व अमरत्व माँगा । यतः प्रत्येक जातका मरण अवश्यंभावी है अतः उन्होंने इसे इससे ( हयग्रीवसे) ही मृत्युका वर दिया । इससे आतंकित त्रस्त देवता विष्णुके पास गये और उन्होंने हयग्रीव रूप धारण कर इसे मारा था । अनु- महाराज ययातिके पुत्र थे मुचुकुंद - ये मन्धाता पुत्र थे दैत्यको मारा था । । इनसे ही म्लेच्छ वंशका प्रारम्भ हुआ था । । इन्होंने देवताओंकी सहायता करनेके लिए असुरोंसे युद्ध किये थे । तथा कालयवन ऐसे दुर्दान्त गौतमपत्नी - इनका नाम अहिल्या था । यतः ये अपने पतिके शिष्य इन्द्रसे भ्रष्ट हो गयी थी अतः उन्होंने शाप देकर इन्हें पाषाण कर दिया था । बादमें श्रीरामचन्द्रजीके पाद स्पर्शसे अपने पूर्व रूपको प्राप्त हुई थीं । कार्तिकेय प्रेमिका - अनेक पुराणोंने इन्हें ब्रह्मचारी लिखा है । पर यह ठीक नहीं । इन्होंने विवाह किया था । इनकी प्रेयसीका नाम षष्ठी देवी था । शून्यवाद - बौद्ध दर्शनकी एक शाखा । साधारणतया ब्राह्मण दार्शनिकोंने शून्यका अर्थ असत् लेकर ही इस मान्यता की विवेचना की है । किन्तु माध्यमिक आचार्योंके ग्रन्थोंको देखनेसे ज्ञात होता है कि उन्होंने 'शून्य' का प्रयोग 'अवक्तव्य' के लिए किया है । वस्तुके जानकी (१) अस्ति, (२) नास्ति, (३) उभय तथा (४) अनुमय ये चार दृष्टियाँ हैं । यतः इन चारोंसे अनिर्वचनीय परम तत्त्व नहीं कहा जा सकता, अतएव वे उसे शून्य कहते हैं । इन्द्रियाश्व - धर्मशास्त्र तथा उपनिषदोंमें पांचों इन्द्रियों और मनका रूपक इस शरीरको रथ, पांचों इन्द्रियोंको दुदर्म घोड़े और मनको सारथी कह कर खींचा है । आठमद - ज्ञान, लोकपूजा, कुल (पितृकुल) जाति (माताका कुल ), बल, ऋद्धि, तप तथा शरीरको इन आठोंको लेकर अहंकार भी आठ प्रकारका होता है । लेश्या - क्रोध आदि कषायोंमय मन, वचन तथा कायकी चेष्टाओंको भाव लेश्या कहते हैं। और शरीरके पीले, लाल श्वेत आदि रंगोंको द्रव्य लेश्या कहते हैं । [ ६८५ ] Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् अतिशय-अद्भुत विशिष्ट बात अथवा चमत्कारको अतिशय कहते हैं । तीर्थकरोंके ३४ अतिशय होते हैं । जन्मते ही मल, मूत्र, पसीना-राहित्य, आदि दश अतिशय होते हैं । कैवल्य प्राप्ति पर सुभिक्ष आदि दस होते हैं तथा १४ देवता करते हैं । अष्टादश दोष-१-भूख २-प्यास ३-भय ४-द्वेष ५-राग ६-मोह ७-चिन्ता ८-जरा ९-रोग १०-मृत्यु ११-स्वेद १२-खेद १३मद १४-रति १५-आश्रय १६-जन्म १७-निद्रा तथा १८-विषाद ये अठारह दोष हैं। सर्ग २६ द्रव्य-गुण और पर्यायोंके समूहको द्रव्य कहते हैं । ये द्रव्य जीव, पुद्गल, (अजीव) धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे छह प्रकारके हैं। गुण-समस्त द्रव्यमें सब अवस्थाओं में रहनेवाली योग्यताओंको गुण कहते हैं। पर्याय-गुणके परिणमनको पर्याय कहते हैं । अस्तिकाय-बहुप्रदेशी द्रव्यको अस्तिकाय कहते हैं । कालके अतिरिक्त सब द्रव्य अस्तिकाय हैं । दर्शनोपयोग-जीवके श्रद्धानरूप परिणमनको दर्शनोपयोग कहते हैं । यह (9) चक्षु (२) अचक्षु (३) अवधि और (४) केवल के भेदसे चार प्रकारका होता है । ज्ञानोपयोग-जीवके ज्ञानरूप परिणमनको ज्ञानोपयोग कहते हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल, कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधिके भेदसे यह आठ प्रकारका होता है । दिव्यध्वनि-कैवल्य प्राप्तिके बाद तीर्थकरोंके उपदेशकी अलौकिक भाषा तथा भाषण शैलीका नाम है । इसका अपना रूप तो नहीं कहा जा सकता है पर इसकी विशेषता यही है कि यह विविध भाषा भाषियोंको ही नहीं, अपितु पशु, पक्षियोंको भी अपनी बोलीके रूपमें सुन पड़ती है । समवशरणमें उपस्थित सब प्राणी इसे समझते हैं । यह एक योजन तक सुन पड़ती है । इसे निरक्षरी भाषा भी कहा है। अर्द्ध मागधी भी इसकी संज्ञा है । पुद्गल-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण युक्त द्रव्यको पुद्गल कहते हैं । परमाणु और स्कन्धके भेदसे यह दो प्रकारका है। कार्माण वर्गणा-जो पुद्गल कार्माण (कर्म मय) शरीर रूप धारण करें उन्हें कार्माण वर्गणा कहते हैं । कर्मोंकी फल देनेकी शक्तिके अविभाज्य अंशको अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं । समान अविभाग प्रतिच्छेदों युक्त प्रत्येक कर्म परमाणुको वर्ग कहते हैं और वाँक समूहको वर्गणा अर्थात् कर्म परमाणु समूह कहते हैं । प्रदेश-एक परमाणु द्वारा रोके जाने वाले आकाशके भागको प्रदेश कहते हैं। असंख्यात-लौकिक अंक गणनाके अतिरिक्त शास्त्रोंमें लोकोत्तर अंक गणना बतायी है । इसके मुख्य भेद (१) संख्यात (२) असंख्यात तथा (३) अनन्त हैं । संख्यात भी तीन प्रकारका है-१-जघन्य संख्यात यथा २ (१ नहीं क्योंकि इसका वर्ग, घन, आदि एक ही रहेगा)। २- मध्यम संख्यात यथा ३से उत्कृष्ट संख्यात पर्यन्त और ३-उत्कृष्ट संख्यात, यथा जघन्य परीतासंख्यात पर्यन्त । अर्थात् उत्कृष्ट संख्यातमें एक जोड़ देने पर असंख्यात आता है । ___असंख्यात भी परीत, युक्त तथा असंख्यातासंख्यातके भेदसे ३ प्रकारका है । इन तीनोंमेंसे प्रत्येकके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद होनेसे यह ९ प्रकारका है । जघन्य परीता संख्यातको निकालनेके लिए अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका कुण्डोंका सहारा लेना पड़ता है। यार..... मायारामनारायणमान्य [६८६] Jain: Education international Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FILaureLI ये कुंड १ लाख महायोजन व्यास और एक सहस्र महायोजन गहराई युक्त वृत्त कुण्ड होते हैं । प्रथम अनवस्था कुण्डको सरसोंसे ऐसा भरना पड़ता है कि ऊपर ढेरी भी लग जाती है । इस ढेरीमेंसे एक दाना सरसों लेकर शलाका कुण्डमें डालिये और शेष दानोंको एक द्वीप पर एकके हिसाबसे डालते जाइये । जहां जाकर सब दाने खाली हो जाय उतने बड़े व्यास तथा एक हजार महायोजन गहराईका दूसरा अनवस्था कण्ड बनाकर इसे ऊपर ढेरी लगाकर सरसोंसे भरिये । इसमेंसे एक दाना शलाका कुण्डमें डालकर बाकी दानोंको आगेके द्वीपों पर डालते बराङ्ग जाइये । जिस द्वीप पर जाकर दाने खाली हो जाय उतने महान व्यास तथा १ हजार योजन गहराई वाला तीसरा अनवस्था कुण्ड बनाकर चरितम् ऊपर ढेरी लगाकर सरसोंसे भरिये । इसमेंसे भी एक दाना शलाका कुण्डमें डालिये और शेष पहिलेके समान आगेके द्वीपों पर एक एक करके डालिये । यह प्रक्रिया तब तक चालू रहेगी जब तक उत्तरोत्तर वर्द्धमान प्रत्येक अनवस्था कुण्डोंमेंसे केवल एकएक दाना डालनेसे शलाका प्रति शलाका, और महाशलाका तीनों कुण्ड भर जायेंगे और अन्तमें जो महा-महा अनवस्था कुण्ड होगा उसमें ढेरी लगाकर मरे जितने सरसों आयेंगे वह संख्या जघन्य परीतासंख्यात की होगी। जघन्य परीतसंख्यातसे एक अधिकसे लेकर उत्कृष्ट परीतासंख्यातसे १ कम पर्यन्त मध्यम परीता संख्यात है । उत्कृष्ट परीतासंख्यात जघन्य युक्तासंख्यातसे एक कम है । जघन्य परीता संख्यातकी संख्या पर जघन्य परीतासंख्यातकी संख्या प्रमाण बल देने पर जघन्य युक्तासंख्यातकी संख्या आवेगी । इससे एक अधिकसे लेकर उत्कृष्ट युक्ता संख्यात (जो कि जघन्य संख्यातासंख्यातसे एक कम प्रमाण है) १ कम पर्यन्त मध्यम युक्तासंख्यात है। जघन्य युक्तासंख्यात का वर्ग करने पर जघन्य संख्यातासंख्यात का प्रमाण निकलता है । मध्यम और उत्कृष्ट पहिलोंके समान हैं। अनन्त-यह भी परीत, युक्त तथा अनन्तके भेदसे तीन प्रकारका है और तीनोंमें प्रत्येकके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद होनेसे ९ भेद होते हैं जघन्य असंख्यातासंख्यात पर जघन्य असंख्यातासंख्यातका ही बल देने पर उत्तरोत्तर इन संख्याओंका उतनी बार बल देते जांय जितनी जघन्य असंख्यातासंख्यातकी संख्या है । इस प्रकार शलाका त्रय निष्ठापन से जो अन्तिम राशि प्राप्त हो उसमें धर्म आदि छ: प्रकार के द्रव्योंकी प्रदेश संख्या जोड़ें । इन सातों राशियोंके जोड़का पुनः शलाका त्रय निष्ठापनसे जो अन्तिम राशि प्राप्त हो उसमें २० कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण कल्पकालकी समय-संख्या आदि ४ संख्याएं जोड़ें । इन पांचो राशियोंके जोड़का फिर पूर्व विधिसे शलाका त्रय निष्ठापन करें । जब जघन्य परीतानन्तका प्रमाण आयगा । मध्यम उत्कृष्ट परीतानन्त, जघन्य मध्यम तथा उत्कृष्ट युक्तानन्त तथा जघन्य, मध्यम 11 अनन्तानन्तकी प्रक्रिया मध्यम परीतासंख्यादि के समान है । उत्कृष्ट अनंतानंतके लिए जघन्य अनन्तानन्त की संख्याका शलाकात्रय निष्ठापन करने पर सिद्धराशि आदिके के छह प्रमाण जोड़े जाते हैं । फिर इन सातोंके योगका शलाका त्रय निष्ठापन होता है | इसमें धर्म, अधर्म " द्रव्यके अगुरु लघु गुणके अनन्तानन्त अविभागी प्रतिच्छेद जोड़े जाते हैं और तीनों राशियोंके योगका शलाकात्रय निष्ठापन होता है । जो राशि आती है उसे केवलज्ञानकी शक्तिके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्या घटानेपर जो शेष आवे उसे ही जोड़ने पर उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रमाण आता है । अर्थात् उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्रमाण ही केवलज्ञानकी शक्तिके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्या है। नित्य-जो जिसका असाधारण स्वरूप है उसी रूपसे रहना ही नित्यता है । मोटे तौरसे कह सकते हैं जैसा पहिले देखा था वैसा ही पुनः पुनः देखने पर भी ज्ञात होना नित्यता है । नैगमादि नय-१-निमित्त रूपसे प्रारब्ध अपरिपूर्ण पदार्थक संकल्पको ग्रहण करना नैगम-नय है । २-एक वर्गक पदार्थों को बिना भेदभाव किये समूह रूपसे ग्रहण करना संग्रह नय है । ३-समूहरूपसे ज्ञात पदार्थोंमें विशेष भेद करना व्यवहार नयका कार्य है जैसे र व्यवस्थापकोंमें विधान तथा वृद्ध सभाका भेद करना । ४-केवल वर्तमान पर्यायको ग्रहण करना ऋजुसूत्र नय है । ५-लिंग-कारक-वचन कालादिके भेदसे पदार्थको ग्रहण करना शब्द नय है यथा दारा-भार्या-कलत्र एक स्त्रीके वाचक हैं । ६-लिंगादिका भेद न होने पर भी Jain Education interational STRATISTINDIARRIERIEI [६८७] Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तत्तत् पर्याय रूपसे पदार्थमें भेद करना समभिरूढ़ नय है यथा इन्द्रशक्र-पुरन्दरादि । ७-तत्तत् क्रियाके कर्ताको ही तत्तत् शब्दोंसे कहना एवंभूत नय है यथा पथ प्रदर्शन करते समय ही नेहरूको नेता कहना । निक्षेप-मूल पदार्थ होने पर प्रयोजनवश नामादि रूपसे अन्य पदार्थमें स्थापना करना निक्षेप है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भावकी अपेक्षा यह चार प्रकारका होता है । १-संज्ञा विशेषके लक्षण हीन पदार्थको वह संज्ञा देना नाम निक्षेप है यथा झूठे हिंसक स्वार्थी व्यक्तिको कांग्रेसी कहना | २-तदाकार अथवा अतदाकार पदार्थको पदार्थ विशेष रूप मानना यथा भद्दी मूर्तिको पार्श्वनाथ मानना । ३-आगे आनेवाली चरितम् योग्यताके आधार पर वर्तमानमें व्यवहार करना द्रव्य निक्षेप है, यथा जयप्रकाशनारायणको भारतका भावी प्रधानमन्त्री कहना । ४-जिस पर्याय युक्त व्यक्ति हो उसीरूपसे उसे मानना भाव निक्षेप है जैसे जवाहरलाल नेहरूको प्रधानमन्त्री मानना । ईश्वरेच्छा-नैयायिक जगत्कार्य, आयोजन, घृति, पद, आदिके कारण ईश्वरको सिद्ध करता है । यथा समवायि, असमवायि और निमित्त कारणके समान ईश्वरकी इच्छाको ही सृष्टिका उत्पादक, स्थापक और विनाशक मानता है । एकान्तवाद-पदार्थको नित्य ही, क्षणिक ही, माया ही आदि रूपसे एकाकार मानना ही एकान्तवाद है क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्मयुक्त होनेसे अनेकान्तवाद रूप है। प्रथमानुयोग-बारहवें अंग दृष्टिवादका तृतीय भेद । संयम ज्ञान कैवल्य आदि मय पवित्र जीवनियोंके साहित्यको प्रथमानुयोग कहते हैं । त्रेसठ शलाका पुरुषोंके जीवनादि कथा साहित्य द्वारा सहज ही तत्त्व ज्ञान करा देता है । उत्सर्पिणी-जिस-युग चक्रमें समस्त पदार्थ आदि वर्द्धमान हों उसे उत्सर्पिणी कहते हैं इसके उल्टे अर्थात् जिसमें सब बातें हीयमान हों उसे अवसर्पिणी कहते हैं । जैसे वर्तमान समय । आवलि-जघन्य युक्ता संख्यात प्रमाण समयोंको आवलि कहते हैं। सुषमा-प्रत्येक उत्-अवसर्पिणी कालके छह भेद होते हैं १-सुषमा-सुषमा ( चार सागर कोटाकोटि) २-सुषमा ( तीन सा० को०) ३-सुषमदुःषमा ( दो सा० को०) ४-दुःखमासुषमा ( ४२००० वर्ष कम एक सा० को०) ५-दुःषमा (२१ हजार वर्ष अभी चल रहा है ६-दुःषमादुःषमा (२१ हजार वर्ष )। मनु-तीर्थंकरोंके पहिले प्रजाका मार्ग दर्शन करनेवाले महापुरुषोंको कुलकर या मनु कहते हैं । प्रत्येक अवसर्पिणी चक्रके तीसरे कालके अन्तमें तथा उत्सर्पिणी चक्रके दूसरे काल ( दुःषमा ) के अन्तमें होते हैं । इस चक्रके सुषमादुःषमाके अन्तमें प्रतिश्रुति, सम्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमल, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित, नाभिराजादि हुए थे। षोडश भावना-आस्रव-बन्ध प्रकरणमें जहां विविध गतियोंके बन्धके कारण गिनाये हैं वहां पर तीर्थकरत्वके सविशेष पद होनेके कारण उसके बन्धके कारणभूत सोलह भावनाएं गिनायीं हैं। वे निम्न प्रकार हैं। १-रत्नत्रय स्वरूप वीतराग धर्ममें रुचि दर्शन-विशुद्धि है। २-शास्त्र गुरु आदिमें आदर बुद्धि विनयसम्पन्नता है । ३-अहिंसादि व्रत तथा शीलोंका निर्दोष पालन शीलव्रतेष्वनतिचार है । ४स्व तत्त्व जीवादिके ज्ञानमें लवलीनता अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग है । ५-संसारके दुखोंसे भय संवेग है । ६-यथा सामर्थ्य दान शक्तितस्त्याग है । ७जैनधर्मानुसार बिना कोर कसरके शरीर क्लेश सहना तप है । ८-उपसर्ग उपस्थित होने पर उसे सहना समाधि है । ९-गुणियों पर दुःख आने पर उसको दूर करना वैयावृत्य है । १०-१३-अर्हत-आचार्य-उपाध्याय-शास्त्रमें विशुद्ध मनसे अनुराग-भक्ति है । १४-षड् न आवश्यकोंका समयसे पालन आवश्यकपरिहाणि है । १५-ज्ञान, तपस्या तथा जिनपूजादि द्वारा धर्मका प्रचार प्रभावना है । १६-साधर्मी # पर सहज निस्वार्थ प्रेम प्रवचन-वात्सल्य है । Jain Education inational For Privale & Personal Use Only INSTEIRMIRELATEGETAR IAGAR [६८८] Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् PatientaritasasranATTATRE श्रावस्ती-इस नामका प्राचीन जनपद | इसकी राजधानीका नाम भी श्रावस्ती था । यह तीसरे तीर्थंकर संभवनाथका जन्म स्थान था । वर्तमानमें गौंड़ा जिलेमें शेठ-महेट नामसे ख्यात ग्राम है । वैदिक पुराण और बौद्ध जातकोंमें जैन पुराणोंके समान श्रावस्तीका इतिहास तथा महिमा भरी पड़ी है । राजा सुहिराल ( सुहृदध्वज ) इसके अन्तिम जैन राजा थे । काकन्दीपुर-प्राचीन देश तथा उसकी राजधानी । भद्रपुर-प्राचीन नगर । कम्पिलापुरी-प्राचीन नगर । वर्तमान उत्तरप्रदेशके फरुखाबाद मण्डलकी कायमगंज तहसीलका कुंविल ग्राम । महाभारत में भी इसका नाम आया है। रत्नपुर-प्राचीन नगर । वर्तमान मध्यप्रदेशका एक ग्राम । यहां हैहय वंशी राजा राज करते थे । मिथिलापुरी-प्राचीन विदेह जनपदकी राजधानी । रामायण, महाभारत तथा जैन बौद्ध साहित्य मिथिलाके उद्धरणोंसे भरे पड़े हैं । इन उद्धरणोंके आधार पर प्राचीन मिथिलापुरीके स्थानका निर्णय सुसंभव नहीं है । वर्तमान मुजफ्फरपुर मण्डलके सीतामढी ग्रामसे १२१४ मील दूर स्थित जनकपुर ही प्राचीन मिथिलापुरीका शेष प्रतीत होता है । इस समय यह नेपालकी तराई तथा नेपाल राज्यमें है। सम्मेदाचल-विहार प्रदेशके हजारीबाग मण्डलमें स्थित श्री पार्श्वनाथ पर्वतका पौराणिक प्राचीन नाम । यह जैनियोंके श्री ऋषभदेव वासुपूज्य, नैमिनाथ तथा महावीरके सिवा शेष २० तीर्थंकरोंकी निर्वाण भूमि होनेसे जैनियोंका सबसे बड़ा सिद्ध क्षेत्र है । चौदह रत्न-प्रत्येक चक्रवर्तकि पास १४ रत्न ( सर्व श्रेष्ठ पदार्थ) होते हैं । इनमें १-गृहपति २-सेनापति ३-शिल्पी ४-पुरोहित ५-स्त्री ६-हाथी तथा ७-घोड़ा ये सात चेतन होते हैं । तथा ८-चक्र ९-असि १०-छत्र ११-दण्ड १२-मणि (प्रकाश कारक) १३चर्म (इसके द्वारा जलमें थल वत् गमन होता है ) तथा १४-कांकणी (रत्नकी लेखनी) । प्रथम सातों चेतन रत्न विजयार्द्धसे लाये जाते हैं। चक्र, असि, छत्र तथा दण्ड आयुधशालामें प्रकट होते हैं तथा मणि, चर्म और कांकिणी हिमवन पर्वतके पद्म हृदमें निवास करनेवाली श्री देवीके मन्दिरसे आते हैं। नव निधि-प्रत्येक चक्रवर्तिके पास नौ प्रकारकी निधियां ( कोश ) होती हैं-१-छहों ऋतुओंकी वस्तु दायक को कालनिधि कहते हैं । २-जितने चाहे लोगोंको भोजन दाता महाकाल निधि होती है । २-अन्न भण्डारका नाम पाण्डुनिधि है । ४-शस्त्रों के अक्षय भण्डारका नाम माणवक निधि है। ५-वादित्रोंक भण्डारको शंख निधि नाम दिया है । ६-भवन आदि व्यवस्थापक नैसर्प निधि है । ७-वस्त्रोंके अक्षय भण्डारका नाम पद्म निधि है । ८-आभूषणादि साज-सज्जा दायक पिंगल निधि है । तथा ९-रत्नादि संपत्तिका भण्डार कर्ता रत्न निधि सुमेरु-अत्यन्त ऊँचा पर्वत है । जम्बू द्वीपके केन्द्रमें एक धातुकीखंड तथा पुष्कराद्धक पूर्व पश्चिम केन्द्रमें एक एक अर्थात् मनुष्य लोकमें पांच मेरु हैं । इनके नाम क्रमशः सुदर्शन, विजय, अचल, मन्दिर और विद्युन्माली हैं। प्रथम सुदर्शन मेरु १००० योजन भूमिमें ९९००० पृथ्वीसे ऊपर होता है तथा ४० योजनकी चोटी होती है । यह मूलमें १० सहस्त्र तथा भूमिके ऊपर १ सहस्त्र योजन मोटा है । इस पर नीचे भद्रशाल वन होता है । ५०० यो० की चढ़ाई पर नंदन वन, ६३५०० यो० ऊपर जाकर सौमनस और ३६००० यो० ऊपर जाकर पांडुक वन है । शेष चारों सुमेरु ८४००० यो० ऊँचे हैं अतः इनमें तीसरा सौमनस वन ५५५०० की ऊँचाई पर तथा पांडुक वन २८००० यो० की ऊंचाई पर है। प्रत्येक वनमें चारों दिशाओं में ४ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। इन पर्वतों पर ६१००० A यो० की ऊंचाई तक ही मणि पाये जाते हैं । इसके ऊपर इनका रंग सोने ऐसा है । सामानिक-वे देव जो शासन तथा प्रभुताके सिवा सब बातों में इन्द्रके समान होते हैं। Jain Education interational TATE- [६८९] Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् त्रायस्त्रिंश-मंत्री, पुरोहित, आदि के समान देव । परीषह-सब प्रकारसे सहना परीषह है । कर्म निर्जरा के लिए ये सहे जाते हैं । भूख, प्यास, शीत, उष्ण, देश-मशक, नग्नता, अरति. स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचा, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान तथा अदर्शन ये २२ परीषह हैं। मागध-भरत ऐरावत क्षेत्रोंके समुद्र तथा सीता सीतोदा नदीके जलमें स्थित द्वीपोंका नाम है । भरत क्षेत्रके दक्षिणी किनारेसे संख्यात योजनकी दूरी पर यह स्थित है । इसका स्वामी मागध देव है।। आर्यिका-उदिष्टत्याग प्रतिमाकी धारिणी स्त्रीको आर्यिका कहते हैं । द्रव्य स्त्रीके त्यागकी यह चरम रीमा है । यह सफेद साड़ी पहिनती है, पीछी कमण्डल धारण करती हैं । बैठ कर आहार करती हैं । सदैव शास्त्र स्वाध्याय तथा संयममें रत रहती हैं। गुणस्थान-मोह और योगके निमित्तसे आत्माके गुण सम्यक-दर्शन ज्ञान चारित्र के कम-बढ पनेके अनुसार होनेवाली अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं। गुप्ति-जिसके द्वारा संसारमें फंसानेवाली बातोंसे आत्माका रक्षण हो उसे गुप्ति कहते हैं । मन-वचन-काय गुप्तिके भेदोंसे यह तीन -प्रकारकी है। धर्म-जो इष्ट स्थान पर रखे या ले जाय उसे धर्म कहते हैं । उत्कृष्ट क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यक भेदसे दस प्रकारका है । चौदह मार्गणा-जिन विशेष गुणोंके आधारसे जीवोंका विवेचन, ज्ञान तथा शोध की जाय उनको मार्गणा कहते हैं । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व तथा आहारके भेदसे यह चौदह प्रकारकी है। _____ अष्ट अनुयोग-पुलाकादि मुनियोंका जिन विशेषताओं के आधार पर विवेचन होता है उन्हें अनुयोग कहते हैं । संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद तथा स्थान के भेद से यह आठ प्रकार का होता है । आस्रव-शुभ अशुभ कर्मों के आने के लिए द्वार भूत काय, वचन और मन की क्रियाएं आम्रव हैं । संवर-आस्रव भूत योगों का निरोध ही संवर है । निर्जरा-आंशिक रूप से कर्मों के क्षय को निर्जरा कहते हैं। श्रमण-जो शत्रु-मित्र, सुख-दुख, आदर-निरादर, लोष्ठ-काञ्चन, आदिमें समभाव रखते हैं वे महाव्रती साधु श्रमण कहलाते हैं। शल्य-शरीरमें कील के समान मनमें चुभने वाले कोक उदयसे होने वाले विकार ही शल्य हैं । माया, निदान और मिथ्यात्व के भेद से यह तीन प्रकार की है। आचार्य-साधुओं को दीक्षा तथा शिक्षा देकर जो व्रत्तों का आचरण करायें उन्हें आचार्य कहते हैं । १२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक तथा ३ गुप्ति का पालन; आचार्य परमेष्ठी के ये ३६ गुण हैं । उपाध्याय-जिसके पास जाकर मोक्षमार्गक साधक शास्त्रोंका अध्ययन किया जाता है उन्हें उपाध्याय कहते हैं । ११ अंग तथा चौदह पूर्वो का ज्ञान ये २५ उपाध्याय परमेष्ठीके गुण हैं । चतुर्विध संघ-ऋषि, मुनी, यति तथा अनगार इन चार प्रकार के साधुओं के समूहको संघ कहते हैं । मन्यमामामा- मयमायरा Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराङ्ग चरितम् ALAGEचयाचा आतप-अथवा आतापन योग का तात्पर्य है कि ग्रीष्म ऋतु में धूपमें खड़े होकर बैठ कर ध्यान करना । साधु-बहुत समय से दीक्षित मुनिको साधु कहते हैं । ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियों का पूर्ण निरोध, ६ आवश्यक, स्नान त्याग, भूमि शयन, वस्त्र त्याग, केशलौञ्च, एकाशन, खड़े आहार तथा दंत-धावन त्याग ये २८ साधु परमेष्ठीके गुण हैं। आवश्यक-मुनियोंके लिए प्रतिदिन अनिवार्य रूप से कारणीय कार्यों को आवश्यक कहते हैं । ये छह हैं-१ सामायिक, २ बंदना, ३ स्तुति, ४ प्रतिक्रमण (कृत दोषों के लिए पश्चाताप) ५ प्रत्याख्यान तथा ६ कायोत्सर्ग । सल्लेखना-उपसर्ग, दुर्मिक्ष, असाध्य रोग अथवा मृत्युके आने पर भली भांति काय तथा कषाय की शुद्धि को सल्लेखना कहते हैं। उक्त प्रकार से मृत्यु के संयोग उपस्थित होने पर गृहस्थ तथा मुनि दोनों ही धार्मिक विधिपूर्वक शरीरको छोड़ते हैं | समाधिमरण करने वाला व्यक्ति आहार पानादि यथा सुविधा घटाता जाता है अथवा सर्वथा छोड़ देता है । सबसे क्षमा याचना करता है तथा सबको क्षमा देता भी है । उसका पूरा समय ध्यान तथा तत्त्व चर्चामें ही बीतता है | १- जीने या २- मरनेकी इच्छा करने ३- मित्रों से मोह करने ४- भुक्त सुखोंकी स्मृति ५-अगले भव के लिए कामना करने से सल्लेखनामें दोष लगता है । प्रायोपगमन-ऐसी सल्लेखना जिसमें व्यक्ति न स्वयं अपनी चिकित्सा करता है न दूसरे को करने देता है, ध्यानमें ही स्थिर रहता है और शरीरको भी स्थिर रखता है । आराधना-आत्यन्तिकी भक्ति अथवा सेवा को आराधना कहते हैं । सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तपकी आराधनाके भेदसे यह । चार प्रकार की होती है । अनायतन-धर्माचरण को शिथिल करने वाले निमित्तों को अनायतन कहते हैं । कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र तथा इन तीनों के भक्त ये छह अनायतन होते हैं । IR [६९१] Jain Education interational Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #726 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