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________________ बराङ्ग षोडशः सर्गः ततः प्रजास्ताः परचक्रभीता हुतावशिष्टं धनधान्यसारम् । आदाय सर्व सकलत्रपुत्राः पुरं प्रविष्टा ललिताख्यमुख्यम् ॥ ४७ ॥ सा चापि सेना महती क्षितिशां पुरी महासारवतीं विशालम् । सगोपुराट्टालकतोरणां तां निरुध्य तस्थौ सतृणाम्बुकाष्ठाम् ॥ ४५ ॥ समीक्ष्य सेनां मधुराधिपस्य महद्धियुक्तां ललितेश्वरोऽसौ । स्वान्मन्त्रिणो मन्त्रगुणप्रवीणानाय तैर्मन्त्रविधि चकार ॥४९॥ एषोऽपि शत्रुः प्रबलः प्रधृष्यः पुरं समावेष्ट्य हि संनिविष्टः । वयं च होना बलमित्रकोशेढुंगं च सद्दुर्गगुणैरपेतम् ॥५०॥ अस्मे न मे दन्तिवरस्य दित्सा परेण साकं न च यो कामः। पुरं त्यजामिति न मेऽभिलाषः परीक्ष्य तद्योग्यमिह प्रवाच्यम् ॥ ५१॥ HTe-we-wesomeSewere-e- SeriesHORTHeawee-we-se-wes यज्याच्यामाराममायमराजचम यादवों की वर्वरता शत्रुओंके सर्वग्रासी आक्रमणसे राज्यकी प्रजामें उनकी निर्दयता का आतंक बैठ गया था । लूट खसोटसे जिसके पास जो कुछ बच गया था उस धन, धान्य तथा अन्य सार पदार्थोंको लेकर सारे राज्यकी प्रजाने अपनी स्त्री बच्चोंके साथ प्रधान नगरी (ललितपुर) में शरण ली थी।। ४७।। किन्तु मधुराधिप इन्द्रसेनके सहायक राजाओंकी विशाल वाहिनीने उस विशाल राजधानी को भी चारों तरफसे घेर लिया था क्योंकि वह राजधानी अपरिमित वैभवसे परिपूर्ण थी। उसके प्रधान द्वार, ऊँची ऊँची अटालिकाएँ तथा तोरण आदिकी शोभा अनुपम थी। शत्रु सेनाने ऐसा घेरा डाला था कि नगरीमें घास-फूस ईंधन-पानी आदिका पहुँचना भी दुर्लभ हो गया था ।। ४८॥ उस समय महान श्री, सम्पत्ति तथा तेज विभूषित मथुराधिपकी विशाल सेना ललितपुरके द्वार खटखटा रही थी। उसे देखते ही महाराज देवसेनने अपने प्रधान मंत्रियोंको बुलाया था, वे सबके सब समय तथा नीतिके अनुकूल सम्मति देनेमें दक्ष थे। अतएव महाराजने उनके साथ गम्भीर मंत्रणाको प्रारम्भ करते हुए कहा था ।। ४९ ।। संकटकालीन मंत्रणा 'इसमें संदेह नहीं कि हमारा शत्रु प्रबल है। उसे बड़ी कठिनतासे पीछे ढकेला जा सकता है, विशेषकर तब, जबकि उसने राजधानीके चारों ओर दृढ़ घेरा डाल दिया है। हमारा निजी दण्डबल ही उससे हीन है। हमारे सहायक पक्षके मित्र राजा, कोश तथा दुर्गोंकी संख्या भी उसके सामने नगण्य ही है। हमारे प्रधान किले में भी अभेद्य उत्तम किलेके गुण नहीं हैं ॥५०॥ तो भी मैं इसे अपने हस्तिरनको नहीं देना चाहता हूँ। तब आप कहेंगे युद्ध करो, सो मैं इस शत्रुके साथ लड़ना भी For Private & Personal Use Only [२४] Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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