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________________ वराङ्ग चरितम् इत्येवमुक्ता वसुधाधिपेन सदबुद्धयः स्वामिनि नित्यभक्ताः । तत्कालयोग्यं स्वमतिप्रणीतं यथानुपूर्व्या विदधचतम् ॥ ५२ ॥ नैवेह कार्यो बलवद्विरोषो दोषः समस्तुल्यबलविरोधे । न्यूने विदित्वा खलु देशकालौ क्रिपाप्रसिद्धि लभते नरेन्द्रः ॥ ५३ ॥ सामना प्रदानेन च कार्यसिद्धि बाञ्छन्ति तज्जा निरूपद्रवत्वात् । क्षयव्ययक्लेश सहस्रमूलौ मृत्योः पदं भूमिप भेददण्डौ ॥ ५४ ॥ मानोऽन्तरं सर्वनरेश्वराणां मानस्तु कल्याणफलप्रदायी । अयं प्रकृत्या भृशमात्ममानी तस्मात्तु मान्यो भवतीन्द्रसेनः ॥ ५५ ॥ नहीं चाहता हूँ । ऐसी अवस्थामें पलायन ही गति हो सकती है किन्तु मैं नगरको छोड़नेको कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ अतएव आप सब बातोंका सूक्ष्म अन्विक्षीण करके जो सर्वथा उपयुक्त उस मार्गका बतावें ॥ ५१ ॥ वे सब ही मंत्री महाराज देवसेनके परमभक्त थे तथा बुद्धिके धनी थे, अतएव जब महाराजने अपनी उक्त सूझको उनके सामने उपस्थित किया तो उन लोगोंने उस समय उन परिस्थितियोंमें जो कुछ सबसे उत्तम हो सकता था, उसे अपनी बुद्धि के अनुसार सोचकर अपने पदके क्रमसे अपनी-अपनी सम्मति प्रकट की थी ॥ ५२ ॥ प्रथम मंत्री की सम्मति राजनीतिका यह मूलमंत्र ही है कि अपनेसे प्रबल शत्रुके साथ किसी भी प्रकार हो, वैर नहीं करे। किन्तु उसका यह तात्पर्य नहीं कि समान शक्तिशालीसे युद्ध करना सरल है क्योंकि उसमें अनेक ऐसे दोष हो सकते हैं जो विजयमें बाधा दें। अपने से हीन शत्रु पर भी यदि नरेन्द्र देश और कालका विचार करके आक्रमण करता है तो निश्चित है कि उसका प्रयत्न पूर्ण सफल होता है ।। ५३ ।। नीतिशास्त्र के पंडितों की तो यह स्पष्ट सम्मति है कि साम, दान आदि छह उपायोंमेंसे सामका प्रयोग करके ही अपने कार्यको सिद्ध कर लेना चाहिए कारण, इसमें किसी प्रकारके उपद्रव और हानिको आशंका नहीं है । हे भूमिपाल !, छह उपायोंमें से भेद तथा दण्ड यह दोनों - असंख्य प्राणों आदिका नाश, अपरिमित धनका व्यय तथा हजारों प्रकारके क्लेशों और अशुभोंकी प्रधान जड़ ही नहीं है अपितु मौतकी खान ही हैं ॥ ५४ ॥ आप्यायन ही उपाय है सब राजाओं में यदि कोई पारस्परिक भेद है तो वह मानका ही तो है। जितने भी शुभ तथा उन्नतिके अवसर हैं वे सब आदर-मान बढ़नेके साथ ही प्राप्त होते हैं आपके द्वार पर पड़ा हुआ आपका शत्रु आप जानते हो हैं स्वभावसे अपने सन्मान का बड़ा भारी लोलुप है, अतएव हमें इन्द्रसेनका स्वागत सत्कार करके बचना चाहिये ॥ ५५ ॥ For Private Personal Use Only Jain Education International षोडशः सर्गः [ २९५] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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