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बराङ्ग चरितम्
षोडशः
स्यान्मानहानिर्यदि सन्धिभागे मा भूत्स दोषः स्मृतिपदिष्टम् । स्वकार्यसिद्ध्यै प्रददौ महेन्द्रो मानं विहायैहिकलोहिताङ्कम् ॥ ५६ ॥ धनेन देशेन पुरेण साम्ना रत्नेन वा स्देन गजेन वापि । स येन येनेच्छति तेन तेन संदेय' एवेति जगौ सुनोतिः ॥ ५७॥ तद्यक्तिमत्स्यात्खलु सार्वभौमे नरेश्वरे सर्वगुणैरुपेते। अयं गुणैर्मध्यम इन्द्रसेनः शक्यो विजेतुं परमं श्रयेण ॥ ५॥ यद्देयमस्मै वसुधाधिपाय तद्देव कस्मैचिदपि प्रदाय । अस्योपरिष्टाद्वयमानयामो बलान्वितं तं यदि रोचते ते ॥ ५९॥
सर्यः
ILIARREARREARTIमानामा
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यदि आप सोचते हों कि सन्धिका उपाय ग्रहण करनेसे जहाँ शत्रुका मान बढ़ेगा वहीं आपका आत्मगौरव धूलमें मिल जायेगा? सो यह दोष ही नहीं हो सकता है क्योंकि स्मृतियोंमें कहा है कि दैवी सम्पत्तिके एक मात्र प्रभु महेन्द्रने भी अपने इष्ट कार्यकी सिद्धि के लिये उसने अपने स्वाभिमानको भी छोड़कर इस संसारके राज्यको उपेन्द्र (नारायण) को दे दिया था जिसका लक्षण (चिह्व) रक्त ( कमल ) ही था । ५६ ॥
श्रेष्ठ नीति इस परिस्थितिमें यही कहती है कि धन देकर, राज्यका भाग देकर, नगर समर्पित करके, अलभ्य रत्नोंकी भेंट भेजकर अथवा किसी भी अन्य उपायके द्वारा, और तो क्या यदि इस युद्ध के मूल कारण हाथी को ही लेकर, अथवा जो कुछ वह चाहे वही सब देकर इस समय उससे प्राण बचाना चाहिये ।। ५७ ।।
साहाय्य ही उपाय उक्त प्रकारसे प्रणत हो जाना उचित होगा यदि आक्रमण करनेवाले राजामें किसी सार्वभौम चक्रवर्तीके सब ही गुण होते । किन्तु महाराज जानते ही हैं कि इस इन्द्रसेनकी जो योग्यताएँ हैं वे बड़ो खींचातानीके बाद उसे मध्यकोटिका राजा बना सकती हैं । अतएव इसे किसी उत्तमकोटिके राजाकी सहायता लेकर जीतना बिल्कुल सरल है ॥ ५८॥
हे प्रभो ? आप इसे जो कुछ भी देकर संधि मोल लेना चाहते हैं, उतना ही किसी अन्य राजाको भेंट करके हम उसे (सम्पत्ति देकर सपक्ष बनाये गये राजाको) इसके ऊपर आक्रमण करने को कह सकते हैं, क्योंकि वह इससे भी अधिक बलशाली होगा, यह सब हो सकता है ।। ५९ ।।
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[२९.
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। १. [ संधेय ]।
२. [ परमश्रमेण ] ।
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