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________________ इत्येवं नपवनिता व्यपेतशोका दानोरुखतगुणभावसक्ताः। देवानां सकलविदां ययाचिरे ताः पादेषु प्रणतषियः पति प्रतीष्टाः ॥ १४५॥ औत्सुक्यप्रतिहतमानसाः कदाचिद्गण्डा न्तप्रणिहितचारुहस्तपनाः । पक्ष्मा ग्रश्रुतसलिला मुहुश्च सन्त्यः संवध्युर्युवनपति समागमाशाम् ॥ १४६ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वरांगचरिताश्रिते अन्तःपुरविलापो नाम पञ्चदशः सर्गः। पञ्चदशः सर्गः वैराग्य आदि भावनाओंके आचरणोंमें लीन थीं फलतः उनका वियोग का शोक भी किसो मात्रामें उपशान्त हो गया था। समस्त द्रव्य पर्यायोंके साक्षात् द्रष्टा सर्वज्ञ प्रभुओंके चरणोंमें साष्टांग विनत होकर वे यही प्रार्थना करतो थीं कि उनके पति का अभ्युदय हो । १४५ ॥ इतना होने पर भी विरह जन्य उत्कण्ठाकी मेघमाला उनके हृदयपटल पर छा ही जाती थी, तब वे अत्यन्त हताश होकर अपनी कृश सुकुमार हथेलीपर कपोलोंको रख लेती थीं, उनके पलक आसुओंसे भीग जाते थे, उनसे अश्रुधार बह निकलती थी, बार बार शीतल श्वांस लेती थीं और सब कुछ भूलकर पतिके समागम की आशाके विचार-समुद्रमें डूब जाती थीं ॥ १४६ ।। चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द-अर्थ रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें अन्तःपुर,विलापनाम पञ्चदश सर्ग समाप्त । (२२1 १.क प्राणिहित. २,[स्रुतसलिला]। ३. म समागताशां । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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