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________________ बराङ्ग चरितम् षोडशः सर्गः अयैवमुर्वीपतिसूनुरियै विभागवद्भिर्ललितैरुदारैः 1 तेषां च पुत्रैरनुगृह्यमाणो रेमे च तस्यां ललितापुह्नर्याम् ॥ १ ॥ क्रीडां यथा मत्तगजो वनेषु प्रलाल्यमानो गजकामिनीभिः । लेभे गति बन्धगतोऽपि तद्वत्स्वाभिर्नृपोऽप्यत्र हि दुष्क्रियाभिः ॥ २ ॥ एवं नृपस्यान्यनरेन्द्र पुर्या व्यामिश्रयोगेन सुखासुखेन । कालोऽगमत्कर्मवशेन तस्य यशोगुणश्रीधनभाजनस्य ॥ ३ ॥ तस्यां तु पुर्या वसति क्षितीन्द्र प्रवृत्तमन्यत्प्रकृतं महद्यत् । यथागमं तद्विनिगद्यमानं शृण्वन्तु सन्तो गुणभारतस्राः ॥ ४ ॥ षोडश सर्ग काहू उर दुचिताई ललितपुरके श्रीमान् सेठ लोग धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थों धन, धान्य आदिके विभाजनमें कुशल थे, शरीर और मन दोनोंसे सुन्दर थे तथा व्यवहारमें अत्यन्त उदार थे । इन लोगोंके सब ही गुण इनके पुत्रोंमें भी थे । फलतः इन सबके अनुग्रह को स्वीकार करता हुआ पृथ्वीपति वरांग वहाँपर आनन्दसे रमा हुआ था ॥ १ ॥ जब वन्य हाथी यौवनके मदमें चूर होकर जंगल जंगल घूमता है तो युवती हथिनियाँ उसके पीछे पीछे दौड़ती हैं तथा यथेच्छ प्रकारसे वह उनके साथ रतिका सुख लेता है, किन्तु अपने असंयत आचरणके कारण बन्ध को प्राप्त होकर दुख भरता है, बिल्कुल यही हालत युवराज वरांगकी थी ॥ २ ॥ दूसरे राजाकी राजधानी में पूर्वकृत पाप कर्मोंका उदय होनेपर वह बाह्य सुख तथा आन्तरिक दुखके मिश्रित अनुभव को करता हुआ एक विचित्र अवस्थामें दिन काट रहा था । यद्यपि वह स्वयं निर्मल यश, अवदात गुण, अनुपम क्रान्ति तथा असंख्य सम्पत्तिके स्वामी थे ॥ ३ ॥ जिस समय युवराज वरांग ललितपुरीमें निवास कर रहे थे उसी समय वहां पर जो एक अति विशाल परिवर्तन घटित हुआ था उसका आगम में वर्णन मिलता है, में उसके अनुसार यहाँपर वर्णन करूँगा, ज्ञान-पिपासा आदि गुणोंके भारसे नम्र आप सज्जन पुरुष उसे ध्यान से सुनें ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only षोडशः सर्गः [ २८३ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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