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LATTA
बराङ्ग
पञ्चदशः
चरितम्
सर्गः
प्रतिमाः स्थापितास्तत्र नानारत्नविनिर्मिताः । भुनारादर्शशलादि परिवारोपशोभिताः ।। १३९॥ पूर्वमष्टाह्निकं भक्त्या देव्यः कृत्वा महामहम् । प्रारब्धा नित्यपूजार्थ विशुद्धेन्द्रियगोचराः ॥१४०॥ चरुभिः पञ्चवर्णैश्च ध्वजमाल्यानुलेपनैः। दोपैश्च बलिभिश्चूर्णैः पूर्जा चक्रर्म दान्विताः॥१४१॥ उपवासेन तन्वयः शुद्धवाग्मनसःक्रियाः । स्तोत्रैर्मन्त्रेश्च गीतेश्च जिनान्सन्ध्यासु तुष्टुवः॥ १४२ ॥ शेषकालं जिनेन्द्राणां धर्मसंकथया तया । पुस्तवाचनया चापि गमयामासुरुत्तमाः ॥ १४३ ॥ कदाचित्संयतेभ्यस्ता दानधर्मपरायणाः। शुद्धयादिभिर्गुणैर्युक्ता पात्रदानानि संददुः ॥ १४४ ॥
उस महावेदीके ऊपर भाँति-भांतिके वैडूर्य आदि रत्नोंसे निर्मित तीर्थंकरोंकी मनोज्ञ मूर्तियां स्थापित की गयी थीं। वेदी के चारों ओर भ्रङ्गार, आदर्श, पंखा, चमर आदि अष्ट-प्रातिहार्य मंगल-द्रव्योंकी स्थापना की गयी थी। जिससे गर्भगृहकी शोभा और निखर उठी थी ॥ १३९ ।।
अष्टाह्निक विधान सबसे पहिले राजाकी पुत्रवधुओंने आषाढ़, कात्तिक, फाल्गुनके अन्तिम आठ दिन पर्यन्त चलनेबाला नदोश्वरद्वीपका महा विधान किया था। इसके उपरान्त मन तथा इन्द्रियोंको सन्मार्गपर लानेमें सहायक नित्य-पूजा विधान प्रारम्भ किया था ॥ १४० ॥
वे प्रतिदिन पवित्र नैवेद्य, पांच रंगके पुष्पों, ध्वजा, माला, अभिषेक तथा अनुलेपन, रत्नोंके दीपक, चूर्ण किये गये चन्दन आदिको बलि आदिके द्वारा वीतराग प्रभुकी पूजा करती और प्रसन्न होती थीं ॥ १४१ ।।
उन दिनों वे अपने मन, वचन तथा कायको भीतर बाहर शुद्ध रखती थीं, प्रतिदिन उपवास करती थीं जिससे शरीर दिनोंदिन कृश होते जाते थे। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन संध्यावन्दनाको जाती थीं और भाँति-भाँतिके स्तोत्रों और मंत्रों द्वारा जिनेन्द्र देवकी स्तुति करती थीं ॥ १४२ ।।
इन सबसे बचे शेष समयको भी वे कुलीन बहुएँ भगवान वीतरागकी धार्मिक कथा करनेमें व्यतीत करती थीं। अथवा जिन शास्त्रोंके पठन-पाठनमें लगाती थीं। वे उस समय आगम के अनुकूल विधिसे दान और धर्म करती, करती थकती न थीं कभी कभी वे शुद्धि, आदि अष्टगुणोंको धारण करती हुई इन्द्रियसंयमी यतियोंको उपकरण, शास्त्र, आदि उत्तम दान देती थीं।। १४३॥
धर्मकाम योग युवराज वरांगकी पत्नियाँ उक्त प्रकारसे सत्पात्रको दान, महान व्रतोंका पालन, मन्दकषायिता आदि गुणों तथा
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