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________________ बराङ्ग चरितम् मातामहोऽयं तव संनिविष्टः पितामहस्त्वेष गुणैर्गरीयान् । गुरुद्वयस्यास्य नृपोत्तमस्य कुरुष्व शुश्रूषणमात्मशक्त्या ॥ ३२ ॥ वृद्धान्गुरून्प्राज्ञतमानुदारान् दयारानार्य कलांश्च नित्यम् । विश्रम्भपूर्वं मधुरैर्वचोभिर्मन्यस्व मान्यानथ मानदानैः ॥ ३३ ॥ अरातिवर्गान्विजयस्व नोत्या दुष्टानशिष्टांश्च सदा प्रशाधि । कृपापराधान् शरणागतांस्तान् रक्षस्वपुत्रानिव सर्वकालम् ॥ ३४ ॥ पद्मवन्धमूकान्बधिरान्स्त्रियश्च क्षोणान्दरिद्रानगतोननाथान् । श्रान्तान्स रोगांश्च विष्व सम्यक्पराभिभूतान्परिपालयस्व ।। ३५ । पूज्य पूजाकार्या हे सुगात्र ! इधर ये तुम्हारे मातामह (नाना ) विराजमान हैं, इनकी हो बराबरी से तुम्हारे पितामह ( दादा ) बैठे हैं जो अपने गुणोंके कारण परम पूज्य है। यद्यपि ये दोनों महापुरुष भरतक्षेत्रके श्रेष्ठ राजा हैं तो भी तुम्हारे तो पूज्य पूर्वपुरुष हैं अतएव इसी ( पूर्वजत्व ) नातेसे तुम इनकी सेवा करनेमें किसी बातकी कमी न रखना ।। ३२ ।। जो अपने पूर्वपुरुष हैं, गुरुजजन हैं, पूर्ण विद्वान हैं, उदार आचार-विचारशील हैं, दयामय कार्योंमें लीन हैं तथा आर्यश्रेष्ठ कलाओं के पोषक हैं, ऐसे समस्त पुरुषोंका विश्वास तथा आदर करना, प्रत्येक अवस्थामें इनके साथ मधुर ही वचन कहना । इनके सिवा जो पुरुष माननीय हैं उनको सदा समुचित सन्मान देकर ही ग्रहण करना ॥ ३३ ॥ षडङ्गनीति जो लोग तुमसे शत्रुता करें उन्हें यान, आसन आदि राजनीतिका आश्रय लेकर पददलित करना । जो स्वभावसे हो दुष्ट हैं तथा कुकार्यों में ही लोन हैं उनको निष्पक्ष भावसे दण्ड देना । पहिले अज्ञानसे विमूढ़ होकर अपराध करनेके पश्चात् भी जो पश्चाताप करते हुए तुम्हारी शरणमें आ जावें, उनकी उसी प्रकार सर्वदा रक्षा करना जिस प्रकार मनुष्य अपने सगे पुत्रों की करता है ।। ३४ ।। क्लिष्टेषुकृपा जो लंगड़े हैं, लूले हैं, जिनकी आँखें फूट गयी हैं, मूक हैं, बहिरे हैं, अनाथ हैं, स्त्रियाँ हैं, जिनके शरीर जीर्णशीर्ण हो गये हैं, संपत्ति जिनसे विमुख है, जो जीविका -हीन हैं, जिनके अभिभावक नहीं हैं, किसी कार्यको करते-करते जो लोग श्रान्त हों, और अधिक काम करने योग्य नहीं रहे गये हैं, तथा जो सदा ही रोगो रहते हैं, इनका बिना भेद-भाव के ही भरण-पोषण करना । जो पुरुष दूसरोंके द्वारा तिरस्कृत हुए हैं अथवा अचानक विपत्तिमें पड़ गये हैं उनका भली-भाँति पालन करना ॥ ३५ ॥ For Private & Personal Use Only Jah Education International RC-M एकोन त्रिश: सर्गः [५९० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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