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बराङ्ग चरितम्
धर्माविरोधेन समर्जयार्थानर्थाविरोधेन भजस्व कामान् । कामाविरोधेन कुरुष्व धर्म सनातनो लौकिक एष धर्मः ॥ ३६ ॥ दातव्यमित्येव जनाय चित्तं' प्रदेहि सम्मान पुरस्सरेण । भृत्यापराधानविगण्य वत्स क्षमस्व सर्वानहमीशतेति ॥ ३७ ॥ निबद्धवैरानतिदोषशीलान्प्रमादिनो नीतिबहिष्कृतांश्च । चलस्वभावान्व्यसनान्तरांश्च जहाति लक्ष्मीरिति लोकबादः ।। ३८ ।। अदीनसत्वान् क्रियया समेतान् श्रुतान्वितान्क्षान्तिदयोपन्नान् । सत्येन शौचेन दमेन युक्तानुत्साहिनः श्रीरस्वयमभ्युपैति ।। ३९ ।।
पारस्पराविरोधेन त्रिवर्ग
सम्पत्ति अवश्य कमाना लेकिन धर्म मार्गका अनुसरण करते हुए काम सुखका सर्वांगीण भोग करना किन्तु यह ध्यान रखना कि उसके कारण अर्थकी विराधना न हो। इसो क्रमसे उतने ही धर्म ( अणुव्रत ) का पालन करना जो तुम्हारे काम सेवनमें अड़ंगा न लगाता हो तीनों पुरुषार्थों के अनुपातके साथ सेवन करनेको यहो प्राचीन प्रणाली है ॥ ३६ ॥
जब कभी दान दो तो इसी भावनासे देना कि त्याग करना तुम्हारा हो कर्त्तव्य है । ऐसा करनेसे ग्रहीताके प्रति तुम्हारे हृदय में सम्मानकी भावना जाग्रत रहेगी। जब-जब तुम्हारे सेवक कोई अपराध करें तो उनकी उपेक्षा ही नहीं अपितु क्षमा भी यही सोचकर करना कि मैं इन सबका स्वामी हूँ ।। ३७ ।।
पाप मार्गपर पग न पड़े
लोक एक सूक्ति बहुत प्रसिद्ध है कि जो अकारण हो वैर करते हैं, जिनके आचरण दोषोंसे ही परिपूर्ण हो जाते हैं, प्रत्येक कार्य करनेमें जो प्रमाद करते हैं, नैतिकताके पयसे जो भ्रष्ट हो जाते हैं, प्रकृति, जिन पुरुषोंको अत्यन्त चंचल होती है तथा जो वेश्या, मदिरापान, परस्त्री गमन, आदि व्यसनों में बुरी तरह उलझ जाते हैं, ऐसे पुरुषोंको लक्ष्मी निश्चयसे छोड़ देती है ॥ ३८ ॥
इसके विपरीत जो पुरुषार्थी हैं, दीनताको पासतक नहीं फटकने देते हैं, सदा हो किसी न किसी कार्यमें जुटे रहते हैं, शास्त्र ज्ञानमें जो पारंगत हैं, शान्ति और उदारता जिनका स्वभाव बन चुकी हैं, सत्य जिनका सहचर है, शौच जिनका कबच है और दम जिनका दण्ड है तथा उत्साह हो जिनकी श्वास है ऐसे कर्मया गियोंके पास सम्पत्तियाँ स्ययं ही दौड़ी आती हैं ॥ ३९ ॥ १. [ वित्तं ] ।
२. [ सर्वानह्मोशितेति ] ।
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एकोन
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सर्गः
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