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________________ वराङ्ग चरितम् हो सकता है कि स्वयं अत्यन्त निःशक्त हो जानेके कारण, मोहनीय कर्मकी प्रबलतासे, या अन्य पाप कर्मों के उदयसे प्रेरित होकर, अपनी गुरुता ( लोकज्ञता ) के अहंकार द्वारा, अथवा तुमपर अत्यन्त स्नेह होनेके ही कारण मैंने तुम्हें रोकनेके लिए ऐसे वाक्य कहे हों जो नीति और न्यायके सर्वथा विपरीत हो । किन्तु तुम उन सब बातों का ध्यान न रखना क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण विशाल है ।। २८ ।। यदि श्रमादात्मनि मोहतो वा स्वकर्मणां गौरवतोऽतिरागात् । न्यायादपेतं वचनं यदस्ति क्षमस्व तत्सर्वमुदारबुद्धे ॥ २८ ॥ आबाल्यतः शान्ततमस्य तस्य धर्मानुरागोद्यतसत्क्रियस्य । सुनिश्चितां तामवगम्य बुद्धि मुमोच कृच्छ्रात्तनयं महीन्द्रः ॥ २९ ॥ तथैव पौरान्स्वजनाज्जनांश्च सेनापतिश्रेष्ठिगणप्रधानान् । स्वमातरं कृच्छ्रतरान्नृसिंहो विमोचयामास यथाक्रमेण ॥ ३० ॥ आहूय तं पुत्रवरं विनीतं सुगात्रनामानमनङ्गरूपम् । निवेश्य पार्श्वे विनयाद्विना मध्ये नृपाणामिदमित्युवाच ॥ ३१ ॥ मिजाजितमेव वरांगराज अपने शैशवकालसे विषय विरक्त, शान्त तथा अन्तर्मुख थे, उनका धार्मिक कार्योंकी ओर रुझान तथा सत्कर्म करने का साहस सर्वविख्यात था। अतएव महाराज धर्मसेनको यह समझते देर न लगी कि वरांगराजकी वैराग्यबुद्धि अडोल और अकम्प है। तो भी वे बड़े कष्ट और अनुतापके साथ उन्हें ( वरांगको ) दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दे मके थे ।। २९ ।। इसी क्रम से उन्होंने अपने समस्त सगे सम्बन्धियोंकी अनुमति प्राप्त की थी। सेनापति, मंत्री, श्रेष्ठी तथा गणोंके प्रधानोंको भी अपने निश्चयसे सहमत कर लिया था, तथा पुरके समस्त नागरिकों को भी समझाकर अनुकूल करके विदा ले ली थी । पुरुषसिंह aiगको सबसे अधिक कठिनताका अनुभव तो तब हुआ था जब वे अपनी माताओंसे विदा लेने गये थे, तो भी किसी युक्ति तथा उपायसे उनसे भी आज्ञा ले सके थे ।। ३० । 'नियोगीसुतको' सबके अन्तमें उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र सुगात्रको राज्य सभा में बुलाया था। कुमार सुगात्र प्रकृति से ही विनोत थे, उसके भी ऊपर दी गयी सुशिक्षा के भारसे तो वह अत्यन्त विनम्र हो गये थे । शरीरका स्वास्थ्य तथा रूप भी क्या था देखते हो मूर्तिमान अङ्गका धोखा लगता था। जब वह राजसभामें आ पहुँचे तो वरांगराजने उन्हें अपने पास बैठा लिया था और राजाओं के सामने स्नेहपूर्वक समझाना प्रारम्भ किया था ॥ ३१ ॥ १. म महेन्द्रः । Jain Education International For Private & Personal Use Only H एकोनत्रिशः सर्गः [ ५८९ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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