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________________ बराङ्ग चरितम् दुरन्तता राज्यधुरंधराणां धर्मस्थितानां सुखभागिनां च । विजानत: साधु 'समुत्थितस्य कथं रतिः स्यान्मम राज्यभोगे ॥ २४ ॥ निरुत्तरैस्तैमधुरार्थगर्भैः सहेतुकैर्भूमिभुजो हि मध्ये । मनोहरैर्भूमिपतिवैचोभिः प्रवृद्धवैराग्यरसदस्य प्रबोधयां तं पितरं बभूव ॥ २५ ॥ विशुद्धदृष्टेरविकम्पितस्य । पिता स्वपुत्रस्य वचो निशम्य प्रसन्नबुध्द्या तमुवाच वाचम् ॥ २६ ॥ सर्वान्तराण्यानतिलङ्घय वत्स धर्मान्तरायो गुरुतामुपेति । स्नेहपरायणत्वाद्वलादवोचं परिणामतिक्तम् ॥ २७ ॥ जानन्नपि राज्य रहस्य बड़े विशाल राज्योंके अधिपति प्रबल प्रतापी राजाओंकी दुर्गतिको मैं जानता हूँ। यह भी मुझे ज्ञात है कि परम धार्मिक लोगों को भी केवल सुख भोग न छोड़ सकनेके कारण कैसी-कैसी विपत्तियाँ झेलनी पड़ो । सौभाग्यसे इस समय मेरे मन में शुद्ध उपयोगकी प्रेरणा हुई है, तब आप ही बताइये कि मुझे राज्य तथा भोगोंमें कैसे आसक्ति हो सकती है ।। २४ ।। गराजकी ये सब हो युक्तियाँ ऐसी थीं कि इनका उत्तर देना ही अशक्य था। ये शुभंकर एवं गम्भीर तात्पर्य से परिपूर्ण थीं। तर्कपूर्ण होनेपर भी मनोहर थीं। फलतः इन वचनोंके द्वारा वे किसो हदतक अपने उन पिताको भी समझा सके थे जो अपनी लोकज्ञता, समझ आदि अनेक दृष्टियोंके कारण विशाल राजसभाके अगुआ बने थे || २५ || Jain Education International दृढ़ता की विजय महाराज धर्मसेन उक्त विवेचनके आधारपर इस निश्चयपर पहुँच गये थे कि उनके पुत्रके हृदयमें वैराग्य रसकी धार ही नहीं बह रही थी अपितु परिपूर्ण बाढ़ आ रहा थी, तथा किसी भी प्रकारसे उसे सत्य श्रद्धापरसे थोड़ा भी डिगाना असंभव था । अतएव पुत्रके वक्तव्यको सुनकर उन्होंने प्रसन्तापूर्वक उससे निम्न प्रकारसे वचन कहे थे || २६ || महामोहो भी जागे 'हे वत्स ! संसार में मनुष्य के प्रारब्ध कार्योंमें अनेक प्रकारसे विघ्न बाधाएँ उपस्थित की जा सकती हैं, किन्तु इन सबसे बहुत बढ़कर तथा भव, भवान्तर बिगाड़नेवाली वह बाधा है जो कि धर्मके कार्यों में डालो जाती है । यह सब भली-भाँति समझ हुए भी पितृस्नेहसे प्रेरित होकर मैंने वे सब वाक्य कहे थे जिनका परिणाम निश्चयसे दुःखदायी हो होता है ॥। २७ ! | १. कसमस्थितस्य, [ समं स्थितस्य ] । ३. म धर्मान्तराये । For Private & Personal Use Only २. म पुत्राः । एकोन त्रिशः सर्गः ५८८ } www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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