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एकोन
वराङ्ग चरितम्
शुक्रियाणां च विधातको यः पापक्रियाणां च सहायभूतः । स एव राजन्भव बद्धवैरो रिपोश्च कष्टं त्वतुलो न शत्रुः ॥ २० ॥ रिपुः कदाचि ["] दर्थमन बलं यशो वेह निहन्ति वा न । धर्मस्य ये विघ्नकरा नृघ्नन्ति ते जन्मसहस्रसौख्यम् ॥ २१ ।। आयुर्बलारोग्यवपुर्वयांसि प्रणश्वराणि क्षणिर्क शरीरम् । धनानि विद्युद्वपुषा समानि द्वितीय एषोऽपि महांस्तु दोषः ।। २२ ॥ राज्यं हि राजन्बहुदुःखबीजं चित्ताकुलं व्या कृतिशोकमूलम् ।। वैरास्पदं क्लेशसहस्रमलं किपाकपाकप्रतिमं तदन्ते ॥ २३ ॥
त्रिशः
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संसारमें फंसानेवाले ही शत्रु हैं। स्वाभाविक रुचिपूर्वक किये गये किसी पुरुषके शुभ कर्मोंको जो व्यक्ति बिगाड़ देता है तथा केवल उन कार्योंके करनेमें ही सहायक होता है जो पापानुबन्धी होते हैं। हे महाराज! ऐसे पुरुषोंको ही जन्म-जन्मान्तरका शत्रु ससझना चाहिये, वह ऐसा शत्रु है जिससे छुटकारा पाना हो असंभव है, वह बड़े-बड़े कष्ट देता है तथा कोई भी शत्रु उससे बुरा नहीं हो सकता है ।। २० ॥
___ कथमेते शत्रवः ? यदि शत्रु बलवान होता है तो वह आक्रमण करके सम्पत्ति छीन लेता है, युद्धमें सेनाका संहार करता है, कभी-कभी । अपने भी किसी अंगको काट देता है, पराजित करके कीति नष्ट कर देता है और यदि बहुत अधिक करता है तो यही कि जीवन ।
ले लेता है। किन्तु जो पुरुष धर्माचरणमें बाधक होते हैं वे महा निर्दय हैं। क्योंकि वे एक दो जन्म नहीं हजारों जन्मोक सुखको मिट्टी में मिला देते हैं ॥ २१ ॥
अध्रव-भावना ___ इस जीवनको आनन्दमय बनानेवाले सब हो साधन; जैसे लम्बी आयु, अत्यधिक बल, सदा स्थायी स्वास्थ्य, यौवन आदि वय ये सब ही बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। सब सुखोंका मूल शरीर ही क्षणिक है। धन सम्पत्तिका भी क्या भरोसा?, क्योंकि यह आकाश में चमकनेवाली बिजलीकी लता है। या संसारका यह दूसरा महा अवगुण है ।। २२ ।।
हे महाराज ! क्या आप नहीं जानते हैं कि इस राज्यके कारण भाँति-भाँतिके दारुण दुःख प्राप्त होते हैं । चित्त सदा हो आकुल रहता है। इसके अधिकतम व्यापारोंका निश्चित फल शोक ही होता है। अपने तथा पराये या सब ही से शत्रुता हो जाती है। हजारों जातिके कष्ट झेलने पड़ते हैं तथा यह सब करके भी अन्तमें इसका फल तुमड़ी ( किंपाक ) के समान तिक्त हो होता है ॥ २६॥ १. म °बद्धबैरी। २. [रिपुश्च"नु शत्रुः]। ३. क कदाच्चियदर्थ । ४. म व्यावृति
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