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बराङ्ग
चरितम्
धर्म - गमन करनेके लिए उद्यत जीव तथा पुद्गलोंकी गतिके उदासीन निमित्तको धर्म द्रव्य कहते हैं। यह नित्य, अवस्थित, अरूपी तथा अखण्ड द्रव्य है । इसके असंख्यात प्रदेश होते हैं ।
अधर्म - ठहरनेके लिए उद्यत जीव तथा पुद्रलोंकी स्थितिके उदासीन निमित्तको अधर्म द्रव्य कहते हैं। यह भी धर्म द्रव्यके समान है । ये दोनों द्रव्य लोकाकाश भरमें व्याप्त हैं ।
आकाश - षड्द्रव्यों में से एक द्रव्य जो समस्त द्रव्योंको स्थान देता है । यह भी नित्य, अवस्थित, अरूपी, अखंड तथा निष्क्रिय द्रव्य है । इसके अनन्त प्रदेश होते हैं। इसके दो भेद हैं- १ -लोकाकाश-जहाँ जीव, पुद्रल, धर्म, अधर्म तथा काल द्रव्य पाये जायें। २- अलोकाकाश-लोकाकाशके अतिरिक्त द्रव्य-विहीन आकाश ।
काल - षड्द्रव्यों में से एक द्रव्य, जो जीव पुगलोंमें परिवर्तन क्रिया तथा छोटे-बड़ेपनेका व्यवहार कराता है । यह भी नित्य, अवस्थित तथा अरूपी है । यह लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक कालाणु स्थित है । यह असंख्यात द्रव्य है। इसके सबसे छोटे परिमाणको समय कहते हैं । काल द्रव्यके समयोंका प्रमाण अनन्त है । समयसे प्रारम्भ करके आवलि, आदि इसके भेद होते हैं ।
जीव-षद्रव्योंमें मुख्य द्रव्य । इसका लक्षण चेतना है अर्थात् जो सदा चैतन्य था, है और रहेगा। यह नित्य, अवस्थित तथा अरूपी है । व्यवहार दृष्टिसे जिसमें पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दश प्राण पाये जायँ वह जीव है। इसके संसारी और मुक्त रूपसे दो प्रधान भेद हैं । इन्द्रिय, आदिकी अपेक्षा संसारी जीवका विपुल विस्तार है (तत्वार्थसूत्र तथा टीका १-४ अध्याय ) ।
स्वर्ण पाषाण - वह पत्थर जिसमें सोना होता है । कहीं कहीं पारस पत्थरके लिए भी इस शब्दका प्रयोग हुआ है ।
दृष्टि - दर्शनको कहते हैं। जीव आदि तत्वोंके श्रद्धानको दर्शन कहते हैं । अतएव जैन आगममें दृष्टि श्रद्धाका पर्यायवाची है । उपदेष्टा-उपदेशकको कहते हैं किन्तु सच्चे उपदेष्टा केवली भगवान् हैं । अतः उपदेष्टाको विरागी, निर्दोष, कृतकृत्य परमज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, आदि-मध्य-अन्त विहीन तथा पूर्वापर विरोध - विहीन होना चाहिये ।
श्रावक - सच्चे देवका पुजारी, सच्चे गुरुके उपदेशानुसार आचरण करनेवाला तथा सच्चे शास्त्रका श्रोता तथा अभ्यासी व्यक्ति श्रावक होता है । इसके पाक्षिक, नैष्टिक तथा साधक ये तीन भेद हैं। सप्त व्यसनका त्यागी और आठ मूलगुणोंका धारक पाक्षिक-श्रावक है । निर्दोष रूपसे दर्शन - प्रतिमा, आदि चारित्र का पालक नैष्टिक होता है । तथा उक्त प्रकारसे व्रतोंको पालते हुए अन्तमें समाधिमरण पूर्वक प्राणछोड़ने वाला साधक होता है ।
प्रमाण - सच्चे ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान तथा केवल ज्ञान सत्य ज्ञान होनेके कारण ही प्रमाण हैं । पदार्थका ज्ञान एक देश ( पहलू ) और सर्वदेश होता है। प्रमाण, पदार्थका सर्वदेश सत्य ज्ञान है ।
नय -- पदार्थके आंशिक सत्य ज्ञानको नय कहते हैं । निश्चय और व्यवहारके भेदसे यह दो प्रकार का है। वास्तविकताको ग्रहण करनेवाला निश्चय-नय है । नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकके भेदसे भी दो प्रकारका है । द्रव्य अर्थात् सामान्यको ग्रहण करनेवाले द्रव्यार्थिक नयके १–नैगम, संग्रह और व्यवहार तीन भेद हैं। विशेषको ग्रहण करने वाले पर्यायार्थिक नयके ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत चार भेद हैं । निमित्त-वश एक पदार्थको दूसरे रूप जाननेवाले व्यवहार नयके सद्भूत, असद्भूत और उपचरित ये तीन भेद हैं ।
व्यसन -- इस लोक परलोकमें हानिकर बुरी आदत का नाम व्यसन है। ये सात हैं- १-जुआ खेलना, २-मांस भोजन, ३-मदिरा पान, ४–वेश्या-गमन, ५–शिकार खेलना ६- चोरी तथा ७- परस्त्री सेवन । इन सात कुकर्मोंके साधक कार्योंको उपव्यसन कहते हैं । चक्रवती -- छह खण्ड पृथ्वीका विजेता, १४ रत्नों और नवनिधियोंका स्वामी सर्वोपरि राजा । प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें
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