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________________ वराङ्ग चरितम् भूम्यब्रिवन जीमूतविमानभवनादयः । कृत्रिमा कृत्रिमद्रव्य स्थूलस्थूलमुदाहृतम् ॥ १६ ॥ तनुत्वद्रव्यभावाच्च छेद्यमानानुबन्धि यत् । तैलोदकरसक्षीरघृतादि स्थूलमुच्यते ॥ १७ ॥ चक्षुविषयमागम्य ग्रहीतुं यन्न शक्यते । च्छायातपतमोज्योत्स्नं स्थूलसूक्ष्मं च तद्भवेत् ॥ १८ ॥ Terreiraो गन्धः शीतोष्णे वायुरेव च । अचक्षुर्ग्राह्यभावेन सूक्ष्मस्थूलं तु तादृशम् ॥ पञ्चानां वैक्रियादीनां शरीराणां यथाक्रमम् । मनसश्चापि वाचश्च वर्गणा याः प्रकीर्तिताः ॥ २० ॥ तासामन्तरवर्तिन्यो वर्गणा या व्यवस्थिताः । ताः सूक्ष्मा इति विज्ञेया अनन्तानन्तसंहताः ॥ २१ ॥ १९ ॥ यहाँ पर कुछ ऐसे पदार्थों को गिनाते हैं जो स्थूलस्थूल कोटिमें आते हैं- पृथ्वी उनमें अग्रगण्य हैं उसके बाद पर्वत, वन, जलधर, स्वर्गी विमान, पृथ्वी पर निर्मित भवन, आदिके समान जितने भी पदार्थोंको मनुष्यने बनाया है अथवा प्रकृतिके द्वारा ही बनाये या बन गये हैं, ये सब स्थूलस्थूल हो कहे जायंगे ॥ १६ ॥ जिन द्रव्योंके आकार में तनुत्व ( छोटा या दुबलापन ) स्पष्ट है तथा जो छेदन करके बने हैं अथवा पीसनेके बाद या पेलने से उत्पन्न हैं ऐसे तेल, पानी, घी, दूध तथा अन्य समस्त रसोंको स्थूल ( घन तरल ) पदार्थ कहा है ॥ १७ ॥ संसारमें ऐसे भी पदार्थ हैं जो आखोंसे स्पष्ट दिखायी देते हैं किन्तु स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रहण ( छुये ) नहीं किये जा सकते हैं। उदाहरणके लिए प्रकाशमें पड़नेवाली पदार्थों की छाया, सूर्यकी धूप, अन्धकार, विद्युतका प्रकाश, चन्द्रिका, आदि पदार्थों को देखिये, वे सबके सब स्थूल सूक्ष्म पदार्थोंकी ही कोटिमें आते हैं ॥ १८ ॥ सूक्ष्मस्थूल इन पदार्थोंके ठीक विपरीत स्वभाव युक्त पदार्थोंके वर्ग में शब्द, कोमल-कठोर, आदि स्पर्श, मधुर, अम्ल, आदि रस ( स्वाद ), गन्ध, शीत, उष्ण तथा वायु ऐसे पदार्थं आते हैं। इनमेंसे एक भी ऐसा नहीं है जिसे आँख देख सकती हो किन्तु अन्य इन्द्रियों को इनका साक्षात् अनुभव होता है इस जाति के पदार्थोंको हो सूक्ष्म स्थूल कहते हैं ।। १९ ।। औदारिक [वैक्रियक आहारक, कार्मण तथा तेजस, ये पाँच प्रकार के शरीर होत हैं । इनकी उत्पत्ति में सहायक परमाणुओंको शास्त्रोंमें वर्णन नाम दिया है । इसी विधिसे मन तथा वचन जो कि दृश्य मूर्तिमान नहीं हैं इनकी भी अलग अलग वर्गणाएं (परमाणुसमूह ) होती हैं ॥ २० ॥ उक्त शरीरों तथा मन-वचनकी उत्पत्ति में साक्षात् सहायक वर्गणाओंके भीतर भी दूसरी वर्गणाएं रहती हैं। इनके क्रम तथा कार्यं समुचित रूपसे व्यवस्थित हैं । इन समस्त वर्गणाओंको ही सूक्ष्म पुदल कहते हैं । इनका प्रमाण अनन्तानन्त है । तथा ये भी स्कन्ध ( अनेक परमाणुओंका समूह ) ही होती हैं ॥ २१ ॥ For Private Jain Education International Personal Use Only षड्विंशः सर्गः [५१५ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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